Difference between revisions of "शिक्षक"

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== असत्य से सत्य की यात्रा ==
 
== असत्य से सत्य की यात्रा ==
कई लोग प्रश्न करते हैं कि परमात्मा ज्ञानस्वरूप है और विश्व में सब कुछ परमात्मा ही है तो फिर अज्ञान कहाँ से आया ? विश्व में जो कुछ भी है वह भी सब ज्ञानस्वरूप ही होना चाहिये । हम देखते हैं कि अज्ञानजनित समस्याओं से ही सारा विश्व ग्रस्त हो गया है । हम यदि कहें कि विश्व कि सारी समस्याओं का मूल ही अज्ञान है तो अनुचित नहीं है। इसे ठीक से समझना चाहिये । जब परमात्मा ने विश्वरूप बनने का प्रारंभ किया तो सर्व प्रथम द्वंद्व निर्माण हुआ । यह द्वंद्व क्या है ? यह युग्म है । एक दूसरे से जुड़ा हुआ है । एकदूसरे से विपरीत स्वभाववाला है । एकदूसरे को पूरक है । द्रन्द्र के दोनों पक्ष एकदूसरे के बिना अधूरे
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कई लोग प्रश्न करते हैं कि परमात्मा ज्ञानस्वरूप है और विश्व में सब कुछ परमात्मा ही है तो फिर अज्ञान कहाँ से आया <ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>? विश्व में जो कुछ भी है वह भी सब ज्ञानस्वरूप ही होना चाहिये। हम देखते हैं कि अज्ञानजनित समस्याओं से ही सारा विश्व ग्रस्त हो गया है । हम यदि कहें कि विश्व कि सारी समस्याओं का मूल ही अज्ञान है तो अनुचित नहीं है। इसे ठीक से समझना चाहिये। जब परमात्मा ने विश्वरूप बनने का प्रारंभ किया तो सर्व प्रथम द्वंद्व निर्माण हुआ। यह द्वंद्व क्या है? यह युग्म है। एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। एकदूसरे से विपरीत स्वभाववाला है। एकदूसरे को पूरक है। द्वंद्व के दोनों पक्ष एकदूसरे के बिना अधूरे हैं। दोनों मिलकर ही पूर्ण होते हैं । दोनों एक पूर्ण के ही दो पक्ष हैं। एक है तो दूसरा है ही। इसलिये विश्वरूप में ज्ञान है तो अज्ञान भी है । परमात्मा जब विश्वरूप बना तो प्रथम एक से दो बना । मनीषी उसके भिन्न भिन्न नाम बताते हैं।
  
हैं । दोनों मिलकर ही पूर्ण होते हैं । दोनों एक पूर्ण के ही दो
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कहीं वह ब्रह्म और माया बना, कहीं वह पुरुष और प्रकृति बना, कहीं वह जड़ और चेतन बना। उसी प्रकार ज्ञान और अज्ञान को देखना चाहिये। लगभग सभी इन्हें अनादि मानते हैं। जब तक विश्व है ये दोनों ही रहेंगे। परंतु मनीषी दो में से एक को सत्य और दूसरे को असत्य, आभासी या मिथ्या मानते हैं। जैसे कि भगवान शंकराचार्य ब्रह्म को सत्य और माया को मिथ्या मानते हैं। अत: अज्ञान आभासी है, ज्ञान सत्य है। हमें अज्ञान से ज्ञान की ओर जाना है। असत्य से सत्य की ओर जाना है। आभास से वास्तव की ओर जाना है। द्वंद्व से निर्द्वन्द्व की ओर जाना है। यही जीवन की यात्रा है। इस यात्रा को सुगम बनाना शिक्षा का कार्य है और शिक्षक इसका कारक तत्त्व है। शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि शिक्षक शिक्षा का मूर्त रूप है। जिस प्रकार ज्ञान को मनुष्य का रूप देने पर सरस्वती की प्रतिमा तैयार होती है उसी प्रकार शिक्षा को मनुष्य रूप देने पर शिक्षक की प्रतिमा बनती है। शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक की प्रतिष्ठा इस रूप में होती है।
  
पक्ष हैं एक है तो दूसरा है ही इसलिये विश्वरूप में ज्ञान
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ज्ञान को ज्ञानी से अज्ञानी को हस्तान्तरित कर अज्ञानी को ज्ञानी बनाने की जो व्यवस्था है वही शिक्षा है और इस शिक्षा क्षेत्र का अधिष्ठाता शिक्षक है हम देखेंगे कि शिक्षक का शिक्षकत्व किसमें है और व्यक्ति शिक्षकत्व किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ।
  
है तो अज्ञान भी है । परमात्मा जब विश्वरूप बना तो प्रथम
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== शिक्षक के गुण ==
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एक व्यक्ति को शिक्षक बनने के लिये उसे स्वयं में अनेक गुणों का आधान करना होता है। ये गुण कौन कौनसे होते हैं ?
  
एक से दो बना मनीषी उसके भिन्न भिन्न नाम बताते हैं
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=== विद्यार्थी परायणता ===
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शिक्षक ज्ञानवान तो होता ही है क्योंकि वह ज्ञान के क्षेत्र में कार्य करता है । परन्तु जब तक वह विद्यार्थी के सन्दर्भ में अपने आपको प्रस्तुत नहीं करता वह शिक्षक नहीं बनता । तब तक वह विद्यार्थी ही है। विद्यार्थी स्वांत:सुखाय ज्ञानसाधना करता है, शिक्षक छात्र को ज्ञानवान बनाने हेतु ज्ञानसाधना करता है । जब ज्ञानवान व्यक्ति अपने लिए नहीं अपितु ज्ञान ग्रहण करने हेतु तत्पर विद्यार्थी के विषय में मुख्य रूप से विचार करने लगता है तब वह विद्यार्थी से शिक्षक बनने लगता है विद्यार्थी से शिक्षक बनने हेतु और विद्यार्थी परायण होने हेतु क्या क्या करना होता है ? सर्व प्रथम उसे विद्यार्थी से प्रेम होना चाहिये, विद्यार्थी के प्रति अपनत्व की भावना होनी चाहिये, विद्यार्थी का कल्याण करने की इच्छा होनी चाहिये ।  
  
कहीं वह ब्रह्म और माया बना, कहीं वह पुरुष और प्रकृति
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आत्मीय सम्बन्ध का आदर्श रूप तैत्तिरीय उपनिषद्<ref>तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक :3  श्लोक संख्या :4</ref>‌ में बताया है । उपनिषद्‌ के मन्त्र दृष्टा ऋषि कहते हैं:<blockquote>आचार्यः पूर्वरूपम्। अन्तेवास्युत्तररूपम्।</blockquote><blockquote>विद्या सन्धिः। प्रवचन्ँसन्धानम्। इत्यधिविद्यम्।।1.3.4।।</blockquote>इसका अर्थ है एक ही सामासिक शब्द के दो पदों के समान, एक ही पूर्ण रूप के दो हिस्सों के समान, एक ही सिक्के के दो पक्षों के समान शिक्षक और विद्यार्थी एकदूसरे से सम्बन्धित होते हैं तब विद्या का जन्म होता है । यह एकात्मता का सम्बन्ध होता है। ऐसे सम्बन्ध से विद्यार्थी के साथ जुड़ा हुआ शिक्षक विद्या के सम्बन्ध में विद्यार्थी के सन्दर्भ में ही विचार करता है । इसीसे जन्मा विद्यार्थी परायणता का दूसरा लक्षण यह है कि वह विद्यार्थी को जानता है । विद्यार्थी के गुण दोष, विद्यार्थी की ज्ञानग्रहण करने की क्षमता, विद्यार्थी की आवश्यकता, विद्यार्थी के विकास की सम्भावना, उसकी ज्ञान ग्रहण करने की पद्धति आदि को जानने की क्षमता और कौशल शिक्षक को प्राप्त करने होते हैं । ऐसी क्षमता और कौशलप्राप्त करने हेतु उसे पर्याप्त अभ्यास की आवश्यकता होती है ।
  
बना, कहीं वह जड और चेतन बना उसी प्रकार ज्ञान और
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=== ज्ञान परायणता ===
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जीवन में ज्ञान को सर्वोपरि स्थान देने वाला, ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ मानने वाला, ज्ञान के प्रति निष्ठा रखने वाला व्यक्ति ज्ञान परायण कहा जाता है। जो धन, मान, प्रतिष्ठा, सुविधा, वैभव आदि से भी ज्ञान का अधिक आदर करता है वह ज्ञान परायण होता है । वह कभी ज्ञान का अपमान होने नहीं देता । वह धन, मान, प्रतिष्ठा आदि के लिये ज्ञान का सौदा नहीं करता । वह अपने विद्यार्थी को भी वैसा ही ज्ञान परायण बनाता है । वह ज्ञान को पवित्र मानता है । वह ज्ञानसाधना करता है । वह ज्ञान को मोक्ष का मार्ग मानता है । ज्ञान प्राप्त करना उसके जीवन का लक्ष्य होता है ।
  
Sa को देखना चाहिये । लगभग सभी इन्हें अनादि मानते
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=== आचार परायणता ===
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विद्यार्थी को ज्ञान हस्तांतरित करने के लिये शिक्षक को आचार्य बनना होता है। जो शास्त्र के अर्थ को भलीभाँति जानता है, उसे अपने जीवन में उतारता है और विद्यार्थी के आचरण में भी स्थापित करता है वह आचार्य होता है । शिक्षक यदि आचार्य नहीं है तो वह विद्यार्थी को शिक्षित नहीं कर सकता । शिक्षक का आचरण ज्ञाननिष्ठ होता है। शिक्षित व्यक्ति का आचरण सत्य और धर्म पर आधारित होता है । अर्थात्‌ आचार्य को सत्यनिष्ठ और धर्मनिष्ठ बनना ही होता है । सत्य और धर्मनिष्ठ होने के लिये उसे संयमी और इंद्रियजयी होना ही होता है । ये सारे पवित्रता के ही आयाम हैं । अर्थात्‌ आचार्य को पवित्र आचरण वाला होना आवश्यक है । आचार्य को निर्भय होना भी अनिवार्य है । वह सत्ता और धन के प्रति झुकने वाला नहीं चाहिये । सत्ता के प्रति चाटूकारिता करने वाला नहीं होना चाहिये । विद्यार्थी को आचरण सिखाने हेतु एकमात्र मार्ग आचार्य का आचारवान होना ही है । उस दृष्टि से भी आचार्य को आचारवान होना चाहिये । आचार के बिना वास्तविक जीवन में उपदेश निर्स्थक है । किसी मनीषी ने कहा भी है कि<ref>हितोपदेशः १०२</ref><blockquote>मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम्। </blockquote><blockquote>मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्॥ </blockquote>अर्थात मन में, विचार में, वाणी में और कृति में भिन्नता होती है वह दुर्जन और इन तीनों में एकवाक्यता होती है वह महात्मा अर्थात सज्जन होता है । ऐसे सज्जन को ही आचारवान कहा जाता है । आचार्य को ऐसा आचारवान होना चाहिये ।
  
हैं । जब तक विश्व है ये दोनों ही रहेंगे परंतु मनीषी दो में
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=== धर्म परायणता ===
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एक वाक्य में कहें तो शिक्षा धर्म सिखाती है । हम धर्म की व्याख्या बार बार कर चुके हैं । आज धर्म को राजनीति के लिये शस्त्र बनाकर उसे विपरीत अर्थ प्रदान करने वाले लोगोंं के कारण धर्म को अनुचित ढंग से समझा जाता है । वास्तव में धर्म ही जीवन की रक्षा करता है। धर्म को छोड़ दिया तो विनाश ही है धर्माचरण के साथ साथ धर्म के बारे में व्याप्त विपरीत धारणाओं को दूर करने का दायित्व भी शिक्षक का ही है ।
  
से एक को सत्य और दूसरे को असत्य, आभासी या मिथ्या
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=== समाज परायणता ===
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शिक्षक विद्यार्थी के साथ साथ समाज भी सुस्थिति में रहे इसकी चिन्ता करने वाला होना चाहिये । मनुष्य जब एक दूसरे के साथ एकात्मता के सम्बन्ध विकसित करता है तब समाज बनता है । इस समाज को बनाए रखने वाला तत्त्व धर्म होता है। यह समाजधर्म है । शिक्षक इस समाजधर्म का पालन करने वाला होता है । समाज को ही वह ईश्वर का विश्वरूप मानता है । वह अपने विद्यार्थी को भी समाज परायण बनाता है । आज समाज और व्यक्ति के मध्य एक प्रकार का द्वंद्व निर्माण हुआ है । वास्तव में व्यक्ति समाज का अभिन्न अंग होता है परन्तु आज व्यक्ति अपने आप में महत्त्वपूर्ण हो गया है और व्यक्ति के हित की रक्षा हेतु अनेक व्यक्तियों में सामंजस्य निर्माण करने वाली व्यवस्था को समाज कहा जाता है। समाज की यह परिभाषा सही नहीं है । समाज के अभिन्न अंग के रूप में व्यक्ति को अपना समायोजन करना सिखाना शिक्षक का दायित्व होता है । समाजपरायण बनाने के साथ साथ शिक्षक विद्यार्थी को राष्ट्र परायण और ईश्वर परायण भी बनाता है ।
  
मानते हैं । जैसे कि भगवान शंकराचार्य ब्रह्म को सत्य और
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== शिक्षक का व्यक्तित्व ==
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शिक्षक के व्यक्तित्व में ये सभी गुण आयें और शिक्षा क्षेत्र को अच्छे शिक्षक प्राप्त हों इस दृष्टि से श्रेष्ठ शिक्षक प्राप्त करने की एक सुनिश्चित व्यवस्था होना अनिवार्य रूप से आवश्यक होता है । ऐसी व्यवस्था करना समाज का प्रमुख दायित्व होता है , परन्तु समाज की ओर से भी इस व्यवस्था का प्रमुख दायित्व शिक्षक समुदाय का ही होता है। शिक्षा क्षेत्र को अच्छे शिक्षक प्राप्त हों इस दृष्टि से कुछ बातों का विचार करना चाहिये:
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# सभी विषयों में श्रेष्ठततम विद्यार्थी ही शिक्षक बनाना चाहिये । सामान्य विद्यार्थी को शिक्षक बनने की अनुमति नहीं होनी चाहिये । श्रेष्ठता की परीक्षा ज्ञान, संस्कार, आचरण और नियत के आधार पर करनी चाहिये । श्रेष्ठ विद्यार्थी ही शिक्षक बने इस व्यवस्था का विशेष कारण है । श्रेष्ठ शिक्षक जब अपना ज्ञान विद्यार्थी को हस्तांतरित करता है और इस प्रकार शिक्षक और विद्यार्थी की अनेक पीढ़ियाँ बीतती हैं तो ज्ञान उत्तरोत्तर समृद्ध होता जाता है । जब शिक्षक साधारण रहता है तब पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान परंपरा क्षीण होती जाती है । किसी भी समाज के लिये यह वांछनीय बात नहीं है । अतः श्रेष्ठतम विद्यार्थी शिक्षक बने इस बात का आग्रह बना रहना चाहिये ।
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# श्रेष्ठततम विद्यार्थी शिक्षक बने यह देखने का दायित्व शिक्षक और समाज दोनों का है । शिक्षक को अपने श्रेष्ठ विद्यार्थी को शिक्षक बनने की प्रेरणा देनी चाहिये और उसकी क्षमताओं का विकास करना चाहिये । समाज को चाहिये कि शिक्षक का सम्मान इतना बढ़ाए कि श्रेष्ठ विद्यार्थी शिक्षक बनना चाहे । साथ ही शिक्षक के योगक्षेम की भी पर्याप्त चिन्ता करे ।
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# ऐसा व्यक्ति शिक्षक बन सकता है जो श्रेष्ठ विद्यार्थी होने के साथ साथ शिक्षक के स्वभाव वाला हो । स्वभाव जन्मगत भी होता है और गुणकर्म के अनुसार भी होता है गुणकर्म जन्म से होते हैं या प्राप्त किए जाते हैं इस विषय में अनेक मत मतांतर हैं। इस विवाद पर समय व्यतीत न करते हुए हमें एक बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि शिक्षक के स्वभाव से युक्त व्यक्ति ही शिक्षक बने यह आवश्यक है । स्वभाव को परखने की व्यवस्था विकसित करनी चाहिये । स्वभाव के अनुसार जीवनकार्य निश्चित करने की व्यवस्था प्राचीन काल में थी । उदाहरण के लिये शिशु जब भूमि पर बैठने लगता था तब उसके आस पास विभिन्न व्यवसायों से संबन्धित उपकरण रखे जाते थे । स्वयं प्रेरणा से अथवा अपनी रुचि से शिशु जिन उपकरणों को ग्रहण करता था उन उपकरणों से सम्बन्धित उसका व्यवसाय अथवा जीवनकार्य निश्चित किया जाता था । और एक व्यवस्था बड़ी सहज और सरल थी । पिता का ही व्यवसाय पुत्र आगे बढ़ाता था । अतः शिक्षक का पुत्र शिक्षक होगा यह स्वाभाविक रूप से स्वीकार किया जाता था । परन्तु ज्ञान के क्षेत्र में पिता पुत्र परंपरा से भी अधिक गुरु शिष्य परंपरा का ही महत्त्व माना जाता था । शिक्षक पिता का पुत्र शिक्षक बनने का स्वाभाविक अधिकारी होने पर भी गुरु अपने श्रेष्ठतम विद्यार्थी को ही अपना अनुगामी बनाता था । कौन विद्यार्थी शिक्षक बनेगा यह निश्चित करने का अधिकार और दायित्व शिक्षक का ही रहता था |
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# ये दो व्यवस्थायें यदि बनाई जाएँ तो समाज को अच्छे शिक्षक प्राप्त होने की पूरी संभावना रहती है ।
  
माया को मिथ्या मानते हैं । अत: अज्ञान आभासी है, ज्ञान
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== वर्तमान समय में हम क्या करें ==
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अभी हमने जिस व्यवस्था की चर्चा की वह प्राचीन समय की हैं । वह ऐसे समय की व्यवस्था है जब शिक्षा क्षेत्र स्वायत्त था और शिक्षक सम्मानीत था और अपने व्यवसाय का गौरव तथा दायित्व समझता था । आज यह स्थिति नहीं है । आज शिक्षा क्षेत्र स्वायत्त नहीं है । उसका नियंत्रण शासन के पास है । साथ ही शिक्षक के पद का गौरव नहीं रह गया है। एक शिक्षक अपने पुत्र को या अच्छे विद्यार्थी को शिक्षक बनने का परामर्श नहीं देता । तेजस्वी छात्र शिक्षक बनना नहीं चाहते । शिक्षक का
  
सत्य है । हमें अज्ञान से ज्ञान की ओर जाना है । असत्य से
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व्यवसाय बहुत श्रेष्ठ नहीं माना जाता है । समाज में इस व्यवसाय की प्रतिष्ठा भी कम ही है । इस स्थिति में शिक्षा क्षेत्र पुन: अपना गौरव प्राप्त करे, इस दृष्टि से कुछ इस
  
सत्य की ओर जाना है । आभास से वास्तव की ओर जाना
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प्रकार विचार किया जा सकता है ।  
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* छोटी आयु से ही कक्षाओं में शिक्षक का गौरव और श्रेष्ठता बताने वाली सामग्री पाठ्यपुस्तकों में होनी चाहिये । इन्हें पढ़कर विद्यार्थी शिक्षक बनने के स्वप्न देखे इस पद्धति से शिक्षक को इन पाठों को पढ़ाना चाहिये ।
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* विद्यालय चलाने वालों ने अपने विद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों में से ऐसे विद्यार्थियों का चयन करना चाहिये जो आगे चलकर अपने ही विद्यालय में शिक्षक बनें ।
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* ऐसा चयन करने के बाद उन्हें अपने शिक्षक के मार्गदर्शन में अन्य छात्रों को पढ़ाने का अभ्यास प्राप्त हो ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये । श्रेष्ठ विद्यार्थी शिक्षक के सहयोगी माने जाने चाहिये ।
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* विद्यालय की व्यवस्था में अध्ययन और अध्यापन साथ साथ चले इसका प्रावधान रखना चाहिये ।
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* श्रेष्ठ विद्यार्थी अपना अध्ययन पूर्ण करें और गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे उसके साथ ही उनका अर्थार्जन आरम्भ होता है। अर्थार्जन हेतु वे शिक्षक बनते हैं । शिक्षक बनने से पूर्व उनकी शिक्षक बनने हेतु विशेष शिक्षा होनी चाहिये । इसे आजकल शिक्षक शिक्षा कहते हैं । वर्तमान शिक्षक शिक्षा का पाठ्यक्रम पूर्ण रूप से बदल कर उसमें विशेष बातों का समावेश होना चाहिये ।
  
है । द्वंद्व से निट्ठंद्ठ की ओर जाना है । यही जीवन की यात्रा
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== शिक्षक शिक्षा का पाठ्यक्रम ==
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समाजजीवन में शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैसी शिक्षा होती है वैसा ही व्यक्ति होता है । जैसी शिक्षा होती है वैसा ही समाज होता है । इसका कारण बहुत स्पष्ट है । मनुष्य जन्म के भी पूर्व से सब कुछ सीख सीख कर ही अपना व्यक्तित्व विकसित करता जाता है और चरित्र गढ़ता जाता है । इसलिये समाज में शिक्षक का भी स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसका भी कारण स्पष्ट है । जैसा शिक्षक होता है वैसी ही शिक्षा होती है । यह तथ्य तो समाजजीवन के हर क्षेत्र को लागू है । जैसा धर्माचार्य होगा वैसा ही धर्मप्रवर्तन होगा । जैसा बुनकर होगा वैसा ही कपड़ा बनेगा, जैसा कुम्हार होगा वैसा ही घड़ा बनेगा, जैसा अभियन्ता होगा बैसी ही सड़क बनेगी । हाँ, कपड़े और घड़े तथा शिक्षा और धर्म में एक अन्तर अवश्य है । घड़ा और कपड़ा भौतिक उपादानों से निर्मित होते हैं जबकि शिक्षा और धर्म सांस्कृतिक उपादानों से । अतः घड़ा और कपड़ा रुई और मिट्टी पर भी निर्भर करते हैं और शिक्षा और धर्म जीवनदृष्टि पर । परन्तु निमित्त कारण तो सर्वत्र व्यक्ति ही है। अत: निमित्त कारण जैसा होगा वैसी ही निर्मिति होगी । तात्पर्य यह है कि जैसा शिक्षक वैसी शिक्षा होगी । इस कारण से समाज को अच्छे शिक्षक की नितान्त आवश्यकता होती है । अत: शिक्षक निर्माण करने का एक सुब्यवस्थित तन्त्र स्थापित होने की आवश्यकता है । इस तन्त्र का प्रमुख अंग है, पाठ्यक्रम ।
  
है।
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शिक्षक शिक्षा के पाठ्यक्रम के सन्दर्भ में कुछ इस प्रकार विचार करना चाहिये:
 
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# समग्र विकास प्रतिमान : सर्व प्रथम एक शिक्षक को समग्र विकास प्रतिमान की समझ होना आवश्यक है । समग्र विकास प्रतिमान जीवन की एकात्म दृष्टि के आधार पर विकसित किया गया है इसकी स्पष्टता होना आवश्यक है । एकात्म दृष्टि का आधार भारतीय अध्यात्मिक संकल्पना है। इस दृष्टि से भारतीय शास्त्रग्रन्थों का यथाशक्ति एवं यथामति अध्ययन होना भी उतना ही आवश्यक है । ऐसा नहीं है कि छोटी कक्षाओं के लिये कम और बड़ी कक्षाओं के लिये अधिक समझ अपेक्षित होती है । छोटी और बड़ी कक्षाओं का अन्तर केवल अध्यापन और अध्ययन कि पद्धति और माध्यम का ही होता है। बड़ी कक्षाओं में शास्त्र रूप में और छोटी कक्षाओं में संस्कार रूप में अध्ययन होता है । विषयवस्तु और दृष्टि तो एक ही रहती है । अतः शिक्षक छोटी कक्षा पढ़ाते हों या बड़ी, जीवनदृष्टि और समझ तो एक समान ही विकसित होनी चाहिये इस दृष्टि से उपनिषदों और रामायण महाभारत जैसे ग्रन्थों का अध्ययन आवश्यक है। कम से कम श्रीमद् भगवद् गीता का अध्ययन तो हर शिक्षक के लिये अनिवार्य ही है । इन शास्त्र ग्रंथों का अध्ययन यदि प्राथमिक विद्यालयों में ही आरम्भ हो जाता है तब तो शिक्षक को इनका अध्ययन अलग से नहीं करना पड़ेगा । परन्तु वर्तमान में ऐसी स्थिति नहीं है। वर्तमान स्थिति तो इससे सर्वथा विपरीत है । भारत के शिक्षित वर्ग को भारतीय जीवनदृष्टि जिन शास्त्रग्रंथों  के अध्ययन के फलस्वरूप प्राप्त होती है उनका परिचय भी होने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती इसीलिए तो देश का जीवन पराई जीवनदृष्टि के आधार पर चलता है ।
इस यात्रा को सुगम बनाना शिक्षा का कार्य है और
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# समाजजीवन के अन्य क्षेत्रों के बौद्धिकों के लिये यह अध्ययन और यह समझ जितनी मात्रा में आवश्यक है उससे कहीं अधिक शिक्षकों के लिये आवश्यक हैं क्योंकि जीवन के अन्य अधिकांश क्षेत्र भौतिक और व्यावहारिक आयामों के साथ संबन्धित हैं जबकि शिक्षा का क्षेत्र सांस्कृतिक पक्ष के साथ संबन्धित है, मनुष्य निर्माण के साथ संबन्धित है । यह बहुत ही जीवमान क्षेत्र है । यह अन्य आयामों का आधार है । अतः यहाँ शास्त्रग्रंथों का अध्ययन अनिवार्य है । यह अध्ययन केवल शास्त्रीय अध्ययन होने से भी नहीं चलेगा । यह दृष्टि और व्यवहार विकसित करने वाला होना चाहिए क्योंकि यह अन्य क्षेत्रों को दृष्टि देने वाला और व्यवहार सिखाने वाला होता है
 
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# समाजजीवन के अन्य क्षेत्रों में कार्यरत लोगोंं को अपने अपने शास्त्रों का ज्ञान होना पर्याप्त होता है परंतु शिक्षक को जीवन के सभी क्षेत्रों का ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि उसे इन सभी क्षेत्रों में अनुस्यूत जीवनदृष्टि भी देनी है । इन सभी आयामों को समग्रता में समझना उसके लिये आवश्यक होता है । वर्तमान शिक्षाशास्त्र केवल अध्यापन पद्धति और कौशल पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है जबकि भारतीय शिक्षाशास्त्र प्रथम शिक्षक की आधारभूत पात्रता की अपेक्षा करता है और यह पात्रता किस प्रकार प्राप्त हो इसकी भी चिंता करता है । जबतक शिक्षक की आधारभूत पात्रता नहीं प्राप्त होती तबतक अध्यापन पद्धति और कौशलों का कोई उपयोग नहीं होता ।
श्५१
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# इस आधारभूत पात्रता की प्राप्ति के बाद शिक्षक को चाहिए कि उसे देश की वर्तमान स्थिति का भी ज्ञान हो जीवन के शाश्वत सिद्धांतों को वर्तमान परिस्थिति के संदर्भ में ढालने की पात्रता हर शिक्षक में होनी आवश्यक है । आज की रचना में शिक्षाशास्त्र को अन्य विषयों के समकक्ष और समानान्तर रखा जाता है जबकि वास्तव में केवल शिक्षाशास्त्र ही नहीं तो प्रत्येक विषय को प्रथम अंग और अंगी के उचित स्थान पर रखा जाना चाहिए और उसके अनुसार उसके अध्ययन की योजना करनी चाहिए । इस प्रकार शिक्षक एक ऐसे विशेष वर्ग में समाहित है जो सम्पूर्ण ज्ञानक्षेत्र को समग्रता में समझता है ।
 
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# देश की वर्तमान स्थिति का ज्ञान होने के साथ साथ देश का इतिहास एवं संस्कृति का भी उसे सम्यक्‌ परिचय होना आवश्यक है । भारतीयता का व्यवहार देश के हर नागरिक से अपेक्षित होता है । शिक्षक से भी अपेक्षित है। परंतु साथ ही उस व्यवहार का ज्ञानात्मक पक्ष भी उसे अवगत होना अपेक्षित है । उस दृष्टि से देश के सांस्कृतिक इतिहास का ज्ञान हर शिक्षक को होना अपेक्षित है। देश की सनातन संस्कृति, संस्कृति का प्रवाह और वर्तमान सांस्कृतिक हास की स्थिति और उसके कारण आदि का ज्ञान अध्यापन कार्य की पार्थभूमि के रूप में होना आवश्यक है ।
शिक्षक इसका कारक तत्त्व है । शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक
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# साथ ही दुनिया की वर्तमान स्थिति का सन्दर्भ भी ज्ञात होना आवश्यक है । वर्तमान में हमारे देश के समाजजीवन की दुर्वस्था का कारण वैश्विक स्थिति ही है। विगत दो तीन सौ वर्षों से सम्पूर्ण विश्व की स्थिति बहुत विचित्र हो गई है । संचार माध्यमों की बहुतायत के कारण प्रजाओं का आपसी आदान प्रदान बहुत सुकर हो गया है । इससे वे एकदूसरे से प्रभावित होती हैं और एकदूसरे को प्रभावित करती भी हैं । कोई भी देश अपनी अलग पहचान बनाये रखने में यशस्वी नहीं हो रहा है । इस स्थिति में विश्व में आज यूरोअमेरिकी जीवन प्रतिमान प्रतिष्ठित हो बैठा है। देश के देश उससे प्रभावित हो गये हैं कई तो अपनी शुद्ध  मूल संस्कृति को नामशेष कर चुके हैं, कई अनेक प्रकार के संकटों को झेल रहे हैं और कई संकटों को परास्त करने हेतु जूझ रहे हैं । भारत इस तीसरी श्रेणी में है । विगत दो सौ वर्षों में भारत का जनजीवन और उसकी सारी व्यवस्थायें ब्रिटिश शासन के परिणामस्वरूप यूरोअमेरिकी प्रतिमान से प्रभावित होकर छिन्न विच्छिन्न हो गईं हैं देश यूरोमेरिकी प्रतिमान से बनीं व्यवस्थाओं में चलता है जबकि भारतीय जन के अन्तःकरण में अभी भी भारतीय मूल्य अवस्थित हैं ये दो स्थितियाँ आंतरिक संघर्ष निर्माण करने वाली होती हैं इसका ठीक से बोध होना भारतीय शिक्षक के लिये आवश्यक है । प्रजाओं को प्रभावित करने वाले तत्त्व कौनसे हैं, प्रभावित करने की प्रक्रिया कैसे चल रही है, देश में कौनसे संकट खड़े हुए हैं और इन्हें दूर करने के उपाय कौनसे हैं और इसके लिये कैसी शिक्षा आवश्यक है, इसका चिन्तन शिक्षक के पास होना अपेक्षित है । यह सब उसकी शिक्षा का महत्त्वपूर्ण बौद्धिक और सांस्कृतिक आधार होगा ।
 
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# इस देश के समाजजीवन में जो भिन्न भिन्न कार्य व्यवसाय के रूप में चलते हैं उनके दो प्रमुख विभाग हैं। एक है अर्थार्जन का क्षेत्र और दूसरा है सेवा क्षेत्र जीवन की महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति सेवा से होती है । धर्मोपदेश, ज्ञानदान, चिकित्सा और न्याय सेवा क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं । पुरोहित, शिक्षक, वैद्य और न्यायाधीश के कार्य सेवा के रूप में प्रतिष्ठित हैं । इनके लिये पैसा नहीं लिया और दिया जाता । आज ऐसी स्थिति नहीं है । सबकुछ पैसे के बदले में बेचा और खरीदा जाता है । यह अनर्थकारी अर्थव्यवस्था का और धर्म की उपेक्षा का परिणाम है। इस समस्या का हल छढूँढना है तो अर्थनिरपेक्ष शिक्षाव्यवस्था का विचार बलवान बनाना होगा अर्थनिरपेक्ष शिक्षा शिक्षक को दरिद्र नहीं बनाती है इस तथ्य को भी समझना होगा । शिक्षक के मन से इसका भय दूर करना होगा। यह एक दीर्घावधि योजना का विषय है और अभी तुरंत न तो मानस बनेगा न व्यवस्था, तथापि इस विषय की बौद्धिक चर्चा चलानी होगी और मानस निर्माण के प्रयास करने होंगे । इस विचारणा के अंतर्गत्‌ शिक्षा के कुछ स्वायत्त अर्थनिरपेक्ष प्रयोग आरम्भ भी हो सकते हैं ।
की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि शिक्षक शिक्षा
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# अर्थनिरपेक्ष शिक्षा हेतु शिक्षा को स्वायत्त बनाने की भी आवश्यकता है शिक्षा स्वायत्त तभी हो सकती है जब शिक्षक शिक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले कक्षाकक्ष में शिक्षक जब पढ़ाता है तब विद्यार्थी के ज्ञानार्जन का दायित्व शिक्षक का होता है यह बात तो आज भी समझ में आती है परंतु पूर्ण समाज को शिक्षित करने का दायित्व भी शिक्षक का है यह बात आज समझ में नहीं आती है। आज यह दायित्व सरकार का माना जाता है । आज तो सरकार अपना यह दायित्व उद्योगगृहों को सॉपना चाहती है । इस स्थिति में शिक्षा अधिकाधिक महँगी हो रही है साथ ही यांत्रिक भी हो रही है । सरकार और उद्योगगृह जब शिक्षा की व्यवस्था करते हैं तब वह केवल भौतिक व्यवस्थायें ही होती हैं, ज्ञानदान का कार्य तो शिक्षक ही करता है परंतु वह अब शिक्षक न रहकर केवल शिक्षाकर्मी है । शिक्षाकर्मी कभी मार्गदर्शन नहीं कर सकता । इस विषय को शिक्षक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनाना होगा क्योंकि इसके ऊपर ही सामाजिक जीवन की सुव्यवस्था का आधार है । साथ ही शिक्षा क्षेत्र का और शिक्षक का योगक्षेम अबाध रूप से चले और शिक्षक को दीन हीन न होना पड़े इसकी शिक्षा समाज को देने की व्यवस्था भी करनी होगी |
 
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# एक शिक्षक के लिये प्रत्यक्ष कक्षाकक्ष के अध्यापन का कार्य विद्यार्थी की पाँच से लेकर पचीस वर्ष की आयु तक होता है । यह बाल, किशोर, तरुण और युवावस्था होती है । हर आयु में अध्ययन की प्रक्रिया भिन्न भिन्न रूप में चलती है । बाल अवस्था में हाथ, पैर, वाणी जैसी कर्मन्ट्रियाँ, दर्शनेन्द्रिय और श्रव्णेंद्रिय जैसी ज्ञानेंद्रियाँ तथा मन का भावना पक्ष सक्रिय होता है । तब क्रिया आधारित, अनुभव आधारित और प्रेरणा आधारित अध्यापन पद्धति अपनानी होती है हमारा व्यवहार का भी अनुभव है कि बाल अवस्था के बच्चे सदा कुछ न कुछ करते रहते हैं सदा चीजों को परखते ही रहते हैं वे एक स्थान पर बैठकर लिखना, पढ़ना, भाषण सुनना पसन्द नहीं करते । वे निष्क्रिय बैठना पसन्द नहीं करते उनमें जो ऊर्जा होती है वह उन्हें शारीरिक रूप से सक्रिय रखती है। वे शिक्षक को अपना आदर्श मानते हैं अतः उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हैं इसके अनुरूप ही अध्यापन पद्धति होती है । किशोर अवस्था में मन का विचार पक्ष तथा बुद्धि का निरीक्षण और परीक्षण पक्ष सक्रिय होता है अतः किशोर अवस्था कि शिक्षा विचार प्रधान होती है । तरुण अवस्था में बुद्धि और अहंकार सक्रिय होते हैं अतः विवेक आधारित और दायित्वबोध आधारित अध्यापन पद्धति का अवलंबन करना होता है । इस कारण से आयु कि विभिन्न अवस्थाओं के लक्षण, आवश्यकताएँ, क्षमताएँ और ज्ञानार्जन की प्रक्रिया समझना शिक्षक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण आयाम है ।  
का मूर्त रूप है । जिस प्रकार ज्ञान को मनुष्य का रूप देने
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# शिक्षक विभिन्न विषयबिन्दु का अध्यापन करने हेतु अपने आसपास के परिसर के कई पदार्थों का उपकरणों के रूप में उपयोग करता है। जैसे कि गणना करने योग्य वस्तुओं का गणित के लिए, जीवन के अनेक क्रियाकलापों का विज्ञान के लिए, परिसर का भूगोल के लिए, वार्तालाप का भाषा के लिए, कथा कहानी का इतिहास के लिए वह प्रभावी ढंग से उपयोग करता है। ऐसा उपयोग करने के लिए उसकी कल्पनाशक्ति, निर्माणक्षमता और सृजनशीलता विकसित होनी चाहिए । शिक्षक शिक्षा में इन गुणों का विकास करने का प्रावधान होना चाहिए ।
 
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# वर्तमान शिक्षक शिक्षा की योजना अत्यंत यांत्रिक, खर्चीली और निर्जीव उपकरणों पर आधारित हो गई है। वह शिक्षा को महँगी बनाती है शिक्षक में उपकरणों पर आधारित नहीं अपितु करणों पर आधारित अध्यापन करने की क्षमता होनी चाहिए । तभी शिक्षा को यांत्रिक बनने से बचाया जा सकेगा ।
पर सरस्वती की प्रतिमा तैयार होती है उसी प्रकार शिक्षा
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# शिक्षक अपने विद्यार्थी को पढ़ाते पढ़ाते उसके परिवार का और इसी क्रम में समाज का भी गुरु बन जाता है। उसमें इस गुरुत्व को वहन करने योग्य क्षमता चाहिए। उसका मनोभाव, उसका व्यवहार, भाषा, रुचि अरुचि, खानपान, साजसज्जा आदि गुरु के लायक होनी चाहिए। उसमे सभ्यता और संस्कारिता चाहिए । उसके गुरुत्व का सम्मान समाज भी करे उसके योग्य वह बनना चाहिए। तभी  वह राष्ट्रनिर्माता होता है इस विषय का भी शिक्षक शिक्षा में समावेश होना चाहिए।
 
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# अध्ययन के साथ साथ ही शिक्षक बनने वाले विद्यार्थियों के लिए शिक्षक शिक्षा का प्रावधान होना चाहिए शिक्षक शिक्षा में दीर्घ काल की निरंतरता होने से ही यह संभव है। इस प्रकार यहाँ शिक्षक शिक्षा के विषय में संक्षेप में चर्चा की है ।
को मनुष्य रूप देने पर शिक्षक की प्रतिमा बनती है । शिक्षा
 
 
 
के क्षेत्र में शिक्षक की प्रतिष्ठा इस रूप में होती है ।
 
 
 
ज्ञान को ज्ञानी से आज्ञानी को हस्तान्तरित कर
 
 
 
आज्ञानी को ज्ञानी बनाने की जो व्यवस्था है वही शिक्षा है
 
 
 
और इस शिक्षा क्षेत्र का अधिष्ठाता शिक्षक है । हम देखेंगे
 
 
 
कि शिक्षक का शिक्षकत्व किसमें है और व्यक्ति शिक्षकत्व
 
 
 
किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ।
 
 
 
शिक्षक के गुण
 
 
 
एक व्यक्ति को शिक्षक बनने के लिये उसे स्वयं में
 
 
 
अनेक गुणों का आधान करना होता है। ये गुण कौन
 
 
 
कौनसे होते हैं ?
 
 
 
१, विद्यार्थी परायणता :
 
 
 
शिक्षक ज्ञानवान तो होता ही है क्योंकि वह ज्ञान के
 
 
 
क्षेत्र में कार्य करता है । परन्तु जब तक वह विद्यार्थी के
 
 
 
सन्दर्भ में अपने आपको प्रस्तुत नहीं करता वह शिक्षक नहीं
 
 
 
बनता तब तक वह विद्यार्थी ही है। विद्यार्थी
 
 
 
स्वांत:सुखाय ज्ञानसाधना करता है, शिक्षक छात्र को
 
 
 
ज्ञानवान बनाने हेतु ज्ञानसाधना करता है । जब ज्ञानवान
 
 
 
व्यक्ति अपने लिए नहीं अपितु ज्ञान ग्रहण करने हेतु तत्पर
 
 
 
विद्यार्थी के विषय में मुख्य रूप से विचार करने लगता है
 
 
 
तब वह विद्यार्थी से शिक्षक बनने लगता है । विद्यार्थी से
 
 
 
शिक्षक बनने हेतु और विद्यार्थी परायण होने हेतु क्या क्या
 
 
 
करना होता है ? सर्व प्रथम उसे विद्यार्थी से प्रेम होना
 
 
 
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चाहिये, विद्यार्थी के प्रति अपनत्व की
 
 
 
भावना होनी चाहिये, विद्यार्थी का कल्याण करने की इच्छा
 
 
 
होनी चाहिये आत्मीय सम्बन्ध का आदर्श रूप तैत्तिरीय
 
 
 
उपनिषद्‌ में बताया है । उपनिषद्‌ के मन्त्र ट्रटा ऋषि कहते
 
 
 
हैं ... आचार्य: पूर्व रूप॑ । अंतेवासी उत्तररूपमू । विद्या
 
 
 
संधि: । प्रवचनमू संधानम्‌ू । इसका अर्थ है एक ही
 
 
 
सामासिक शब्द के दो पदों के समान, एक ही पूर्ण रूप के
 
 
 
दो हिस्सों के समान, एक ही सिक्के के दो पक्षों के समान
 
 
 
शिक्षक और विद्यार्थी एकदूसरे से सम्बन्धित होते हैं तब
 
 
 
विद्या का जन्म होता है । यह एकात्मता का सम्बन्ध होता
 
 
 
है। ऐसे सम्बन्ध से विद्यार्थी के साथ जुड़ा हुआ शिक्षक
 
 
 
विद्या के सम्बन्ध में विद्यार्थी के सन्दर्भ में ही विचार करता
 
 
 
है । इसीसे जन्मा विद्यार्थी परायणता का दूसरा लक्षण यह है
 
 
 
कि वह विद्यार्थी को जानता है । विद्यार्थी के गुण दोष,
 
 
 
विद्यार्थी की ज्ञानग्रहण करने की क्षमता, विद्यार्थी की
 
 
 
आवश्यकता, विद्यार्थी के विकास की सम्भावना, उसकी
 
 
 
ज्ञान ग्रहण करने की पद्धति आदि को जानने की क्षमता
 
 
 
और कौशल शिक्षक को प्राप्त करने होते हैं ऐसी क्षमता
 
 
 
और कौशलप्राप्त करने हेतु उसे पर्याप्त अभ्यास की
 
 
 
आवश्यकता होती है
 
 
 
२. ज्ञान परायणता
 
 
 
जीवन में ज्ञान को सर्वोपरि स्थान देने वाला, ज्ञान को
 
 
 
सर्वश्रेष्ठ मानने वाला, ज्ञान के प्रति निष्ठा रखने वाला व्यक्ति
 
 
 
ज्ञान परायण कहा जाता है। जो धन, मान, प्रतिष्ठा,
 
 
 
सुविधा, वैभव आदि से भी ज्ञान का अधिक आदर करता
 
 
 
है वह ज्ञान परायण होता है । वह कभी ज्ञान का अपमान
 
 
 
होने नहीं देता । वह धन, मान, प्रतिष्ठा आदि के लिये ज्ञान
 
 
 
का सौदा नहीं करता । वह अपने विद्यार्थी को भी वैसा ही
 
 
 
ज्ञान परायण बनाता है । वह ज्ञान को पवित्र मानता है । वह
 
 
 
ज्ञानसाधना करता है । वह ज्ञान को मोक्ष का मार्ग मानता
 
 
 
है । ज्ञान प्राप्त करना उसके जीवन का लक्ष्य होता है
 
 
 
३. आचार परायणता
 
 
 
विद्यार्थी को ज्ञान हस्तांतरित करने के लिये शिक्षक
 
 
 
R4R
 
 
 
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
 
 
को आचार्य बनना होता है। जो शास्त्र के अर्थ को
 
 
 
भलीभाँति जानता है, उसे अपने जीवन में उतारता है और
 
 
 
विद्यार्थी के आचरण में भी स्थापित करता है वह आचार्य
 
 
 
होता है । शिक्षक यदि आचार्य नहीं है तो वह विद्यार्थी को
 
 
 
शिक्षित नहीं कर सकता । शिक्षक का आचरण ज्ञाननिष्ठ
 
 
 
होता है । शिक्षित व्यक्ति का आचरण सत्य और धर्म पर
 
 
 
आधारित होता है । अर्थात्‌ आचार्य को सत्यनिष्ठ और
 
 
 
धर्मनिष्ठ बनना ही होता है । सत्य और धर्मनिष्ठ होने के
 
 
 
लिये उसे संयमी और इंद्रियजयी होना ही होता है । ये सारे
 
 
 
पवित्रता के ही आयाम हैं । अर्थात्‌ आचार्य को पवित्र
 
 
 
आचरण वाला होना आवश्यक है । आचार्य को निर्भय
 
 
 
होना भी अनिवार्य है । वह सत्ता और धन के प्रति झुकने
 
 
 
वाला नहीं चाहिये । सत्ता के प्रति चाटुकारिता करने वाला
 
 
 
नहीं होना चाहिये । विद्यार्थी को आचरण सिखाने हेतु
 
 
 
एकमात्र मार्ग आचार्य का आचारवान होना ही है । उस दृष्टि
 
 
 
से भी आचार्य को आचारवान होना चाहिये । आचार के
 
 
 
बिना वास्तविक जीवन में उपदेश निर्स्थक है । किसी मनीषी
 
 
 
ने कहा भी है कि
 
 
 
“मनस्येकम्‌ू वचस्येकमू कर्मस्येकम्‌ महात्मनाम्‌
 
 
 
मनस्यन्यद्‌ वचस्यन्यद्‌ कर्मस्यन्यद दुरात्मनाम्‌ ।।
 
 
 
अर्थात मन में, विचार में, वाणी में और कृति में
 
 
 
भिन्नता होती है वह दुर्जन और इन तीनों में एकवाक्यता
 
 
 
होती है वह महात्मा अर्थात सज्जन होता है । ऐसे सज्जन को
 
 
 
ही आचारवान कहा जाता है । आचार्य को ऐसा आचारवान
 
 
 
होना चाहिये ।
 
 
 
४. धर्म परायणता
 
 
 
एक वाक्य में कहें तो शिक्षा धर्म सिखाती है । हम
 
 
 
धर्म की व्याख्या बार बार कर चुके हैं । आज धर्म को
 
 
 
राजनीति के लिये शस्त्र बनाकर उसे विपरीत अर्थ प्रदान
 
 
 
करने वाले लोगों के कारण धर्म को अनुचित ढंग से समझा
 
 
 
जाता है वास्तव में धर्म ही जीवन की रक्षा करता है।
 
 
 
धर्म को छोड़ दिया तो विनाश ही है । हाँ, धर्माचरण के
 
 
 
साथ साथ धर्म के बारे में व्याप्त विपरीत धारणाओं को दूर
 
 
 
करने का दायित्व भी शिक्षक का ही है ।
 
 
 
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पर्व ४ : शिक्षक, विद्यार्थी एवं अध्ययन
 
 
 
५. समाज परायणता
 
 
 
शिक्षक विद्यार्थी के साथ साथ समाज भी सुस्थिति में
 
 
 
रहे इसकी चिन्ता करने वाला होना चाहिये मनुष्य जब
 
 
 
एकदूसरे के साथ एकात्मता के सम्बन्ध विकसित करता है
 
 
 
तब समाज बनता है इस समाज को बनाए रखने वाला
 
 
 
तत्त्व धर्म होता है। यह समाजधर्म है । शिक्षक इस
 
 
 
समाजधर्म का पालन करने वाला होता है । समाज को ही
 
 
 
वह ईश्वर का विश्वरूप मानता है । वह अपने विद्यार्थी को
 
 
 
भी समाज परायण बनाता है । आज समाज और व्यक्ति के
 
 
 
बीच एक प्रकार का द्वंद्व निर्माण हुआ है । वास्तव में
 
 
 
व्यक्ति समाज का अभिन्न अंग होता है परन्तु आज व्यक्ति
 
 
 
अपने आप में महत्त्वपूर्ण हो गया है और व्यक्ति के हित की
 
 
 
रक्षा हेतु अनेक व्यक्तियों में सामंजस्य निर्माण करने वाली
 
 
 
व्यवस्था को समाज कहा जाता है। समाज की यह
 
 
 
परिभाषा सही नहीं है । समाज के अभिन्न अंग के रूप में
 
 
 
व्यक्ति को अपना समायोजन करना सिखाना शिक्षक का
 
 
 
दायित्व होता है । समाजपरायण बनाने के साथ साथ
 
 
 
शिक्षक विद्यार्थी को राष्ट्र परायण और ईश्वर परायण भी
 
 
 
बनाता है ।
 
 
 
शिक्षक का व्यक्तित्व
 
 
 
शिक्षक के व्यक्तित्व में ये सभी गुण आयें और शिक्षा
 
 
 
क्षेत्र को अच्छे शिक्षक प्राप्त हों इस दृष्टि से श्रेष्ठ शिक्षक
 
 
 
प्राप्त करने की एक सुनिश्चित व्यवस्था होना अनिवार्य रूप
 
 
 
से आवश्यक होता है । ऐसी व्यवस्था करना समाज का
 
 
 
प्रमुख दायित्व होता है , परन्तु समाज की ओर से भी इस
 
 
 
व्यवस्था का प्रमुख दायित्व शिक्षक समुदाय का ही होता
 
 
 
है । शिक्षा क्षेत्र को अच्छे शिक्षक प्राप्त हों इस दृष्टि से कुछ
 
 
 
बातों का विचार करना चाहिये ।
 
 
 
, सभी विषयों में श्रेष्ठततम विद्यार्थी ही शिक्षक बनाना
 
 
 
चाहिये । सामान्य विद्यार्थी को शिक्षक बनने की
 
 
 
अनुमति नहीं होनी चाहिये श्रेष्ठता की परीक्षा ज्ञान,
 
 
 
संस्कार, आचरण और नियत के आधार पर करनी
 
 
 
चाहिये । श्रेष्ठ विद्यार्थी ही शिक्षक बने इस व्यवस्था
 
 
 
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का विशेष कारण है श्रेष्ठ
 
 
 
शिक्षक जब अपना ज्ञान विद्यार्थी को हस्तांतरित
 
 
 
करता है और इस प्रकार शिक्षक और विद्यार्थी की
 
 
 
अनेक पीढ़ियाँ बीतती हैं तो ज्ञान उत्तरोत्तर समृद्ध
 
 
 
होता जाता है । जब शिक्षक साधारण रहता है तब
 
 
 
पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान परंपरा क्षीण होती जाती है ।
 
 
 
किसी भी समाज के लिये यह वांछनीय बात नहीं है ।
 
 
 
इसलिए श्रेष्ठतम विद्यार्थी शिक्षक बने इस बात का
 
 
 
आग्रह बना रहना चाहिये
 
 
 
श्रेष्ठततम विद्यार्थी शिक्षक बने यह देखने का दायित्व
 
 
 
शिक्षक और समाज दोनों का है । शिक्षक को अपने
 
 
 
श्रेष्ठ विद्यार्थी को शिक्षक बनने की प्रेरणा देनी चाहिये
 
 
 
और उसकी क्षमताओं का विकास करना चाहिये
 
 
 
समाज को चाहिये कि शिक्षक का सम्मान इतना
 
 
 
बढ़ाए कि श्रेष्ठ विद्यार्थी शिक्षक बनना चाहे । साथ ही
 
 
 
शिक्षक के योगक्षेम की भी पर्याप्त चिन्ता करे ।
 
 
 
ऐसा व्यक्ति शिक्षक बन सकता है जो श्रेष्ठ विद्यार्थी
 
 
 
होने के साथ साथ शिक्षक के स्वभाव वाला हो ।
 
 
 
स्वभाव जन्मगत भी होता है और गुणकर्म के अनुसार
 
 
 
भी होता है । गुणकर्म जन्म से होते हैं या प्राप्त किए
 
 
 
जाते हैं इस विषय में अनेक मत मतांतर हैं । इस
 
 
 
विवाद पर समय व्यतीत न करते हुए हमें एक बात
 
 
 
का ध्यान रखना आवश्यक है कि शिक्षक के स्वभाव
 
 
 
से युक्त व्यक्ति ही शिक्षक बने यह आवश्यक है ।
 
 
 
स्वभाव को परखने की व्यवस्था विकसित करनी
 
 
 
चाहिये । स्वभाव के अनुसार जीवनकार्य निश्चित
 
 
 
करने की व्यवस्था प्राचीन काल में थी । उदाहरण के
 
 
 
लिये शिशु जब भूमि पर बैठने लगता था तब उसके
 
 
 
आस पास विभिन्न व्यवसायों से संबन्धित उपकरण
 
 
 
रखे जाते थे । स्वयं प्रेरणा से अथवा अपनी रुचि से
 
 
 
शिशु जिन उपकरणों को ग्रहण करता था उन
 
 
 
उपकरणों से सम्बन्धित उसका व्यवसाय अथवा
 
 
 
जीवनकार्य निश्चित किया जाता था और एक
 
 
 
व्यवस्था बड़ी सहज और सरल थी । पिता का ही
 
 
 
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व्यवसाय पुत्र आगे बढ़ाता था अतः
 
 
 
शिक्षक का पुत्र शिक्षक होगा यह स्वाभाविक रूप से
 
 
 
स्वीकार किया जाता था परन्तु ज्ञान के क्षेत्र में
 
 
 
पिता पुत्र परंपरा से भी अधिक गुरु शिष्य परंपरा का
 
 
 
ही महत्त्व माना जाता था । शिक्षक पिता का पुत्र
 
 
 
शिक्षक बनने का स्वाभाविक अधिकारी होने पर भी
 
 
 
गुरु अपने श्रेष्ठतम विद्यार्थी को ही अपना अनुगामी
 
 
 
बनाता था कौन विद्यार्थी शिक्षक बनेगा यह निश्चित
 
 
 
करने का अधिकार और दायित्व शिक्षक का ही
 
 
 
रहता था |
 
 
 
४.. ये दो व्यवस्थायें यदि बनाई जाएँ तो समाज को
 
 
 
अच्छे शिक्षक प्राप्त होने की पूरी संभावना रहती है ।
 
 
 
वर्तमान समय में हम क्या करें
 
 
 
अभी हमने जिस व्यवस्था की चर्चा की वह प्राचीन
 
 
 
समय की हैं । वह ऐसे समय की व्यवस्था है जब शिक्षा
 
 
 
क्षेत्र स्वायत्त था और शिक्षक सम्मानीत था और अपने
 
 
 
व्यवसाय का गौरव तथा दायित्व समझता था । आज यह
 
 
 
स्थिति नहीं है । आज शिक्षा क्षेत्र स्वायत्त नहीं है । उसका
 
 
 
नियंत्रण शासन के पास है । साथ ही शिक्षक के पद का
 
 
 
गौरव नहीं रह गया है। एक शिक्षक अपने पुत्र को या
 
 
 
अच्छे विद्यार्थी को शिक्षक बनने का परामर्श नहीं देता
 
 
 
तेजस्वी छात्र शिक्षक बनना नहीं चाहते । शिक्षक का
 
 
 
व्यवसाय बहुत श्रेष्ठ नहीं माना जाता है । समाज में इस
 
 
 
व्यवसाय की प्रतिष्ठा भी कम ही है । इस स्थिति में शिक्षा
 
 
 
क्षेत्र पुन: अपना गौरव प्राप्त करे, इस दृष्टि से कुछ इस
 
 
 
प्रकार विचार किया जा सकता है ।
 
 
 
०". छोटी आयु से ही कक्षाओं में शिक्षक का गौरव और
 
 
 
श्रेष्ठता बताने वाली सामग्री पाठ्यपुस्तकों में होनी
 
 
 
चाहिये । इन्हें पढ़कर विद्यार्थी शिक्षक बनने के स्वप्न
 
 
 
देखे इस पद्धति से शिक्षक को इन पाठों को पढ़ाना
 
 
 
चाहिये
 
 
 
०. विद्यालय चलाने वालों ने अपने विद्यालय में पढ़ने
 
 
 
वाले छात्रों में से ऐसे विद्यार्थियों का चयन करना
 
 
 
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
 
 
चाहिये जो आगे चलकर अपने ही विद्यालय में
 
 
 
शिक्षक बनें ।
 
 
 
०. ऐसा चयन करने के बाद उन्हें अपने शिक्षक के
 
 
 
मार्गदर्शन में अन्य छात्रों को पढ़ाने का अभ्यास प्राप्त
 
 
 
हो ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये श्रेष्ठ विद्यार्थी
 
 
 
शिक्षक के सहयोगी माने जाने चाहिये ।
 
 
 
०. विद्यालय की व्यवस्था में अध्ययन और अध्यापन
 
 
 
साथ साथ चले इसका प्रावधान रखना चाहिये
 
 
 
०". श्रेष्ठ विद्यार्थी अपना अध्ययन पूर्ण करें और
 
 
 
गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे उसके साथ ही उनका
 
 
 
अधथर्जिन शुरू होता है। अधथर्जिन हेतु वे शिक्षक
 
 
 
बनते हैं । शिक्षक बनने से पूर्व उनकी शिक्षक बनने
 
 
 
हेतु विशेष शिक्षा होनी चाहिये । इसे आजकल
 
 
 
शिक्षक शिक्षा कहते हैं । वर्तमान शिक्षक शिक्षा का
 
 
 
पाठ्यक्रम पूर्ण रूप से बदल कर उसमें विशेष बातों
 
 
 
का समावेश होना चाहिये ।
 
 
 
शिक्षक शिक्षा का पाठ्यक्रम
 
 
 
समाजजीवन में शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान
 
 
 
है। जैसी शिक्षा होती है वैसा ही व्यक्ति होता है । जैसी
 
 
 
शिक्षा होती है वैसा ही समाज होता है । इसका कारण बहुत
 
 
 
स्पष्ट है । मनुष्य जन्म के भी पूर्व से सब कुछ सीख सीख
 
 
 
कर ही अपना व्यक्तित्व विकसित करता जाता है और
 
 
 
चरित्र गढ़ता जाता है । इसलिये समाज में शिक्षक का भी
 
 
 
स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसका भी कारण स्पष्ट है ।
 
 
 
जैसा शिक्षक होता है वैसी ही शिक्षा होती है । यह तथ्य तो
 
 
 
समाजजीवन के हर क्षेत्र को लागू है । जैसा धर्माचार्य होगा
 
 
 
वैसा ही धर्मप्रवर्तन होगा । जैसा बुनकर होगा वैसा ही
 
 
 
कपड़ा बनेगा, जैसा कुम्हार होगा वैसा ही घड़ा बनेगा, जैसा
 
 
 
अभियन्ता होगा बैसी ही सड़क बनेगी । हाँ, कपड़े और
 
 
 
घड़े तथा शिक्षा और धर्म में एक अन्तर अवश्य है । घड़ा
 
 
 
और कपड़ा भौतिक उपादानों से निर्मित होते हैं जबकि
 
 
 
शिक्षा और धर्म सांस्कृतिक उपादानों से । इसलिए घड़ा
 
 
 
और कपड़ा रुई और मिट्टी पर भी निर्भर करते हैं और शिक्षा
 
 
 
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पर्व ४ : शिक्षक, विद्यार्थी एवं अध्ययन
 
 
 
और धर्म जीवनदृष्टि पर । परन्तु निमित्त कारण तो सर्वत्र
 
 
 
व्यक्ति ही है। अत: निमित्त कारण जैसा होगा वैसी ही
 
 
 
निर्मिति होगी । तात्पर्य यह है कि जैसा शिक्षक वैसी शिक्षा
 
 
 
होगी । इस कारण से समाज को अच्छे शिक्षक की नितान्त
 
 
 
आवश्यकता होती है । अत: शिक्षक निर्माण करने का एक
 
 
 
सुब्यवस्थित तन्त्र स्थापित होने की आवश्यकता है । इस
 
 
 
तन्त्र का प्रमुख अंग है, पाठ्यक्रम ।
 
 
 
शिक्षक शिक्षा के पाठ्यक्रम के सन्दर्भ में कुछ इस
 
 
 
प्रकार विचार करना चाहिये ...
 
 
 
१, समग्र विकास प्रतिमान : सर्व प्रथम एक शिक्षक को
 
 
 
समग्र विकास प्रतिमान की समझ होना आवश्यक है ।
 
 
 
समग्र विकास प्रतिमान जीवन की एकात्म दृष्टि के
 
 
 
आधार पर विकसित किया गया है इसकी स्पष्टता
 
 
 
होना आवश्यक है । एकात्म दृष्टि का आधार भारतीय
 
 
 
अध्यात्मिक संकल्पना है। इस दृष्टि से भारतीय
 
 
 
शाख्रग्रन्थों का यथाशक्ति एवं यथामति अध्ययन होना
 
 
 
भी उतना ही आवश्यक है । ऐसा नहीं है कि छोटी
 
 
 
कक्षाओं के लिये कम और बड़ी कक्षाओं के लिये
 
 
 
अधिक समझ अपेक्षित होती है । छोटी और बड़ी
 
 
 
कक्षाओं का अन्तर केवल अध्यापन और अध्ययन
 
 
 
कि पद्धति और माध्यम का ही होता है। बड़ी
 
 
 
कक्षाओं में शाख्र रूप में और छोटी कक्षाओं में
 
 
 
संस्कार रूप में अध्ययन होता है । विषयवस्तु और
 
 
 
दृष्टि तो एक ही रहती है । इसलिए शिक्षक छोटी
 
 
 
कक्षा पढ़ाते हों या बड़ी, जीवनदृष्टि और समझ तो
 
 
 
एक समान ही विकसित होनी चाहिये । इस दृष्टि से
 
 
 
उपनिषदों और रामायण महाभारत जैसे ग्रन्थों का
 
 
 
अध्ययन आवश्यक है। कम से कम श्रीमदू
 
 
 
भगवदूगीता का अध्ययन तो हर शिक्षक के लिये
 
 
 
अनिवार्य ही है । इन शाख्रग्रंथों का अध्ययन यदि
 
 
 
प्राथमिक विद्यालयों में ही शुरू हो जाता है तब तो
 
 
 
शिक्षक को इनका अध्ययन अलग से नहीं करना
 
 
 
पड़ेगा । परन्तु वर्तमान में ऐसी स्थिति नहीं है।
 
 
 
वर्तमान स्थिति तो इससे सर्वथा विपरीत है । भारत के
 
 
 
gut
 
 
 
fafa at al भारतीय
 
 
 
जीवनदृष्टि जिन शाख्रग्रंथों के अध्ययन के फलस्वरूप
 
 
 
प्राप्त होती है उनका परिचय भी होने कि कोई
 
 
 
आवश्यकता ही नहीं होती । इसीलिए तो देश का
 
 
 
जीवन पराई जीवनदृष्टि के आधार पर चलता है ।
 
 
 
... समाजजीवन के अन्य क्षेत्रों के बौद्धिकों के लिये यह
 
 
 
अध्ययन और यह समझ जितनी मात्रा में आवश्यक है
 
 
 
उससे कहीं अधिक शिक्षकों के लिये आवश्यक हैं
 
 
 
क्योंकि जीवन के अन्य अधिकांश क्षेत्र भौतिक और
 
 
 
व्यावहारिक आयामों के साथ संबन्धित हैं जबकि
 
 
 
शिक्षा का क्षेत्र सांस्कृतिक पक्ष के साथ संबन्धित है,
 
 
 
मनुष्य निर्माण के साथ संबन्धित है । यह बहुत ही
 
 
 
जीवमान क्षेत्र है । यह अन्य आयामों का आधार है ।
 
 
 
इसलिए यहाँ शाख्त्रग्रंथों का अध्ययन अनिवार्य है ।
 
 
 
यह अध्ययन केवल शास्त्रीय अध्ययन होने से भी नहीं
 
 
 
चलेगा । यह दृष्टि और व्यवहार विकसित करने वाला
 
 
 
होना चाहिए क्योंकि यह अन्य क्षेत्रों को दृष्टि देने
 
 
 
वाला और व्यवहार सिखाने वाला होता है ।
 
 
 
. समाजजीवन के अन्य क्षेत्रों में कार्यरत लोगों को
 
 
 
अपने अपने शास्त्रों का ज्ञान होना पर्याप्त होता है परंतु
 
 
 
शिक्षक को जीवन के सभी क्षेत्रों का ज्ञान होना
 
 
 
आवश्यक है क्योंकि उसे इन सभी क्षेत्रों में अनुस्यूत
 
 
 
जीवनदृष्टि भी देनी है । इन सभी आयामों को समग्रता
 
 
 
में समझना उसके लिये आवश्यक होता है । वर्तमान
 
 
 
शिक्षाशास्र केवल अध्यापन पद्धति और कौशल पर
 
 
 
अपना ध्यान केन्द्रित करता है जबकि भारतीय
 
 
 
शिक्षाशास्र प्रथम शिक्षक की आधारभूत पात्रता की
 
 
 
अपेक्षा करता है और यह पात्रता किस प्रकार प्राप्त हो
 
 
 
इसकी भी चिंता करता है । जबतक शिक्षक की
 
 
 
आधारभूत पात्रता नहीं प्राप्त होती तबतक अध्यापन
 
 
 
पद्धति और कौशलों का कोई उपयोग नहीं होता ।
 
 
 
.. इस आधारभूत पात्रता की प्राप्ति के बाद शिक्षक को
 
 
 
चाहिए कि उसे देश की वर्तमान स्थिति का भी ज्ञान
 
 
 
हो । जीवन के शाश्वत सिद्धांतों को वर्तमान परिस्थिति
 
 
 
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के संदर्भ में ढालने की पात्रता हर
 
 
 
शिक्षक में होनी आवश्यक है । आज की रचना में
 
 
 
शिक्षाशास्त्र को अन्य विषयों के समकक्ष और
 
 
 
समानान्तर रखा जाता है जबकि वास्तव में केवल
 
 
 
शिक्षाशास्त्र ही नहीं तो प्रत्येक विषय को प्रथम अंग
 
 
 
और अंगी के उचित स्थान पर रखा जाना चाहिए और
 
 
 
उसके अनुसार उसके अध्ययन की योजना करनी
 
 
 
चाहिए । इस प्रकार शिक्षक एक ऐसे विशेष वर्ग में
 
 
 
समाहित है जो सम्पूर्ण ज्ञानक्षेत्र को समग्रता में
 
 
 
समझता है ।
 
 
 
५. देश की वर्तमान स्थिति का ज्ञान होने के साथ साथ
 
 
 
देश का इतिहास एवं संस्कृति का भी उसे सम्यक्‌
 
 
 
परिचय होना आवश्यक है । भारतीयता का व्यवहार
 
 
 
देश के हर नागरिक से अपेक्षित होता है । शिक्षक से
 
 
 
भी अपेक्षित है। परंतु साथ ही उस व्यवहार का
 
 
 
ज्ञानात्मक पक्ष भी उसे अवगत होना अपेक्षित है ।
 
 
 
उस दृष्टि से देश के सांस्कृतिक इतिहास का ज्ञान हर
 
 
 
शिक्षक को होना अपेक्षित है। देश की सनातन
 
 
 
संस्कृति, संस्कृति का प्रवाह और वर्तमान सांस्कृतिक
 
 
 
हास की स्थिति और उसके कारण आदि का ज्ञान
 
 
 
अध्यापन कार्य की पार्थभूमि के रूप में होना
 
 
 
आवश्यक है ।
 
 
 
६. साथ ही दुनिया की वर्तमान स्थिति का सन्दर्भ भी
 
 
 
ज्ञात होना आवश्यक है । वर्तमान में हमारे देश के
 
 
 
समाजजीवन की दुर्वस्था का कारण वैश्विक स्थिति ही
 
 
 
है। विगत दो तीन सौ वर्षों से सम्पूर्ण विश्व की
 
 
 
स्थिति बहुत विचित्र हो गई है । संचार माध्यमों की
 
 
 
बहुतायत के कारण प्रजाओं का आपसी आदान प्रदान
 
 
 
बहुत सुकर हो गया है । इससे वे एकदूसरे से प्रभावित
 
 
 
होती हैं और एकदूसरे को प्रभावित करती भी हैं ।
 
 
 
कोई भी देश अपनी अलग पहचान बनाये रखने में
 
 
 
यशस्वी नहीं हो रहा है । इस स्थिति में विश्व में आज
 
 
 
यूरोअमेरिकी जीवन प्रतिमान प्रतिष्ठित हो बैठा है।
 
 
 
देश के देश उससे प्रभावित हो गये हैं । कई तो अपनी
 
 
 
श्५६्द
 
 
 
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
 
 
मूल संस्कृति को नामशेष कर चुके हैं, कई अनेक
 
 
 
प्रकार के संकटों को झेल रहे हैं और कई संकटों को
 
 
 
परास्त करने हेतु झूझ रहे हैं । भारत इस तीसरी श्रेणी
 
 
 
में है । विगत दोसौ वर्षों में भारत का जनजीवन और
 
 
 
उसकी. सारी. व्यवस्थायें ब्रिटिश शासन के
 
 
 
परिणामस्वरूप यूरोअमेरिकी प्रतिमान से प्रभावित
 
 
 
होकर छिन्न विच्छिन्न हो गईं हैं । देश यूरोमेरिकी
 
 
 
प्रतिमान से बनीं व्यवस्थाओं में चलता है जबकि
 
 
 
भारतीय जन के अन्तःकरण में अभी भी भारतीय
 
 
 
मूल्य अवस्थित हैं । ये दो स्थितियाँ आंतरिक संघर्ष
 
 
 
निर्माण करने वाली होती हैं । इसका ठीक से बोध
 
 
 
होना भारतीय शिक्षक के लिये आवश्यक है । प्रजाओं
 
 
 
को प्रभावित करने वाले तत्त्व कौनसे हैं, प्रभावित
 
 
 
करने की प्रक्रिया कैसे चल रही है, देश में कौनसे
 
 
 
संकट खड़े हुए हैं और इन्हें दूर करने के उपाय कौनसे
 
 
 
हैं और इसके लिये कैसी शिक्षा आवश्यक है, इसका
 
 
 
चिन्तन शिक्षक के पास होना अपेक्षित है । यह सब
 
 
 
उसकी शिक्षा का महत्त्वपूर्ण बौद्धिक और सांस्कृतिक
 
 
 
आधार होगा ।
 
 
 
. इस देश के समाजजीवन में जो भिन्न भिन्न कार्य
 
 
 
व्यवसाय के रूप में चलते हैं उनके दो प्रमुख विभाग
 
 
 
हैं। एक है अथर्जिन का क्षेत्र और दूसरा है सेवा
 
 
 
क्षेत्र । जीवन की महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति
 
 
 
सेवा से होती है । धर्मोपदेश, ज्ञानदान, चिकित्सा और
 
 
 
न्याय सेवा क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं । पुरोहित,
 
 
 
शिक्षक, वैद्य और न्यायाधीश के कार्य सेवा के रूप में
 
 
 
प्रतिष्ठित हैं । इनके लिये पैसा नहीं लिया और दिया
 
 
 
जाता । आज ऐसी स्थिति नहीं है । सबकुछ पैसे के
 
 
 
बदले में बेचा और खरीदा जाता है । यह अनर्थकारी
 
 
 
अर्थव्यवस्था का और धर्म की उपेक्षा का परिणाम
 
 
 
है। इस समस्या का हल छढूँढना है तो अर्थनिरपेक्ष
 
 
 
शिक्षाव्यवस्था का विचार बलवान बनाना होगा ।
 
 
 
अर्थनिरपेक्ष शिक्षा शिक्षक को द्रिद्र नहीं बनाती है इस
 
 
 
तथ्य को भी समझना होगा । शिक्षक के मन से इसका
 
 
 
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पर्व ४ : शिक्षक, विद्यार्थी एवं अध्ययन
 
 
 
भय दूर करना होगा । यह एक दीर्घावधि योजना का
 
 
 
विषय है और अभी तुरंत न तो मानस बनेगा न
 
 
 
व्यवस्था, फिर भी इस विषय की बौद्धिक चर्चा
 
 
 
चलानी होगी और मानस निर्माण के प्रयास करने
 
 
 
होंगे । इस विचारणा के अंतर्गत्‌ शिक्षा के कुछ
 
 
 
स्वायत्त अर्थनिरपेक्ष प्रयोग शुरू भी हो सकते हैं ।
 
 
 
अर्थनिरपेक्ष शिक्षा हेतु शिक्षा को स्वायत्त बनाने की
 
 
 
भी आवश्यकता है । शिक्षा स्वायत्त तभी हो सकती है
 
 
 
जब शिक्षक शिक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले ।
 
 
 
कक्षाकक्ष में शिक्षक जब पढ़ाता है तब विद्यार्थी के
 
 
 
ज्ञानार्जन का दायित्व शिक्षक का होता है यह बात तो
 
 
 
आज भी समझ में आती है परंतु पूर्ण समाज को
 
 
 
शिक्षित करने का दायित्व भी शिक्षक का है यह बात
 
 
 
आज समझ में नहीं आती है। आज यह दायित्व
 
 
 
सरकार का माना जाता है । आज तो सरकार अपना
 
 
 
यह दायित्व उद्योगगृहों को सॉपना चाहती है । इस
 
 
 
स्थिति में शिक्षा अधिकाधिक महँगी हो रही है । साथ
 
 
 
ही यांत्रिक भी हो रही है । सरकार और उद्योगगृह जब
 
 
 
शिक्षा की व्यवस्था करते हैं तब वह केवल भौतिक
 
 
 
व्यवस्थायें ही होती हैं, ज्ञानदान का कार्य तो शिक्षक
 
 
 
ही करता है । परंतु वह अब शिक्षक न रहकर केवल
 
 
 
शिक्षाकर्मी है । शिक्षाकर्मी कभी मार्गदर्शन नहीं कर
 
 
 
सकता । इस विषय को शिक्षक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण
 
 
 
हिस्सा बनाना होगा क्योंकि इसके ऊपर ही सामाजिक
 
 
 
जीवन की सुव्यवस्था का आधार है । साथ ही शिक्षा
 
 
 
क्षेत्र का और शिक्षक का योगक्षेम अबाध रूप से चले
 
 
 
और शिक्षक को दीन हीन न होना पड़े इसकी शिक्षा
 
 
 
समाज को देने की व्यवस्था भी करनी होगी |
 
 
 
.. एक शिक्षक के लिये प्रत्यक्ष कक्षाकक्ष के अध्यापन
 
 
 
का कार्य विद्यार्थी की पाँच से लेकर पचीस वर्ष की
 
 
 
आयु तक होता है । यह बाल, किशोर, तरुण और
 
 
 
युवावस्था होती है । हर आयु में अध्ययन की प्रक्रिया
 
 
 
भिन्न भिन्न रूप में चलती है । बाल अवस्था में हाथ,
 
 
 
पैर, वाणी जैसी कर्मन्ट्रियाँ, दर्शनेन्द्रिय और श्रव्णेंद्रिय
 
 
 
श्५७
 
 
 
१०,
 
 
 
श्शु,
 
 
 
जैसी ज्ञानेंद्रियाँ तथा मन का
 
 
 
भावना पक्ष सक्रिय होता है । तब क्रिया आधारित,
 
 
 
अनुभव आधारित और प्रेरणा आधारित अध्यापन
 
 
 
पद्धति अपनानी होती है । हमारा व्यवहार का भी
 
 
 
अनुभव है कि बाल अवस्था के बच्चे हमेशा कुछ न
 
 
 
कुछ करते रहते हैं । हमेशा चीजों को परखते ही रहते
 
 
 
हैं । वे एक स्थान पर बैठकर लिखना, पढ़ना, भाषण
 
 
 
सुनना पसन्द नहीं करते । वे निष्क्रिय बैठना पसन्द
 
 
 
नहीं करते । उनमें जो ऊर्जा होती है वह उन्हें शारीरिक
 
 
 
रूप से सक्रिय रखती है। वे शिक्षक को अपना
 
 
 
आदर्श मानते हैं इसलिए उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हैं ।
 
 
 
इसके अनुरूप ही अध्यापन पद्धति होती है । किशोर
 
 
 
अवस्था में मन का विचार पक्ष तथा बुद्धि का
 
 
 
निरीक्षण और परीक्षण पक्ष सक्रिय होता है इसलिए
 
 
 
किशोर अवस्था कि शिक्षा विचार प्रधान होती है ।
 
 
 
तरुण अवस्था में बुद्धि और अहंकार सक्रिय होते हैं
 
 
 
इसलिए विवेक आधारित और दायित्वबोध आधारित
 
 
 
अध्यापन पद्धति का अवलंबन करना होता है । इस
 
 
 
कारण से आयु कि विभिन्न अवस्थाओं के लक्षण,
 
 
 
आवश्यकताएँ, क्षमताएँ और ज्ञानार्जन की प्रक्रिया
 
 
 
समझना शिक्षक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण आयाम है ।
 
 
 
शिक्षक विभिन्न विषयबिन्दु का अध्यापन करने हेतु
 
 
 
अपने आसपास के परिसर के कई पदार्थों का
 
 
 
उपकरणों के रूप में उपयोग करता है। जैसे कि
 
 
 
गणना करने योग्य वस्तुओं का गणित के लिए, जीवन
 
 
 
के अनेक क्रियाकलापों का विज्ञान के लिए, परिसर
 
 
 
का भूगोल के लिए, वार्तालाप का भाषा के लिए,
 
 
 
कथा कहानी का इतिहास के लिए वह प्रभावी ढंग से
 
 
 
उपयोग करता है । ऐसा उपयोग करने के लिए उसकी
 
 
 
acta, निर्माणक्षमता. और  सृजनशीलता
 
 
 
विकसित होनी चाहिए । शिक्षक शिक्षा में इन गुणों
 
 
 
का विकास करने का प्रावधान होना चाहिए ।
 
 
 
वर्तमान शिक्षक शिक्षा की योजना अत्यंत यांत्रिक,
 
 
 
खर्चीली और निर्जीव उपकरणों पर आधारित हो गई
 
 
 
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
 
 
है। वह शिक्षा को महँगी बनाती है । और संस्कारिता चाहिए । उसके गुरुत्व का सम्मान
 
 
 
शिक्षक में उपकरणों आधारित नहीं अपितु करणों पर समाज भी करे उसके योग्य वह बनना चाहिए । तभी
 
 
 
आधारित अध्यापन करने कि क्षमता होनी चाहिए । वह राष्ट्रनिर्माता होता है । इस विषय का भी शिक्षक
 
 
 
तभी शिक्षा को यांत्रिक बनने से बचाया जा सकेगा । शिक्षा में समावेश होना चाहिए ।
 
 
 
१२. शिक्षक अपने विद्यार्थी को पढ़ाते पढ़ाते उसके परिवार... १३. अध्ययन के साथ साथ ही शिक्षक बनने वाले
 
 
 
का और इसी क्रम में समाज का भी गुरु बन जाता विद्यार्थियों के लिए शिक्षक शिक्षा का प्रावधान होना
 
 
 
है। उसमें इस गुरुत्व को वहन करने योग्य क्षमता चाहिए । शिक्षक शिक्षा में दीर्घ काल की निरंतरता
 
 
 
निर्माण होनी चाहिए । उसका मनोभाव, उसका होने से ही यह संभव है ।
 
 
 
व्यवहार, भाषा, रुचि अरुचि, खानपान, साजसज्जा इस प्रकार यहाँ शिक्षक शिक्षा के विषय में संक्षेप में
 
 
 
आदि गुरु के लायक होनी चाहिए । उसमें सभ्यता. चर्चा की है ।
 
  
 
==References==
 
==References==

Latest revision as of 21:53, 23 June 2021

असत्य से सत्य की यात्रा

कई लोग प्रश्न करते हैं कि परमात्मा ज्ञानस्वरूप है और विश्व में सब कुछ परमात्मा ही है तो फिर अज्ञान कहाँ से आया [1]? विश्व में जो कुछ भी है वह भी सब ज्ञानस्वरूप ही होना चाहिये। हम देखते हैं कि अज्ञानजनित समस्याओं से ही सारा विश्व ग्रस्त हो गया है । हम यदि कहें कि विश्व कि सारी समस्याओं का मूल ही अज्ञान है तो अनुचित नहीं है। इसे ठीक से समझना चाहिये। जब परमात्मा ने विश्वरूप बनने का प्रारंभ किया तो सर्व प्रथम द्वंद्व निर्माण हुआ। यह द्वंद्व क्या है? यह युग्म है। एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। एकदूसरे से विपरीत स्वभाववाला है। एकदूसरे को पूरक है। द्वंद्व के दोनों पक्ष एकदूसरे के बिना अधूरे हैं। दोनों मिलकर ही पूर्ण होते हैं । दोनों एक पूर्ण के ही दो पक्ष हैं। एक है तो दूसरा है ही। इसलिये विश्वरूप में ज्ञान है तो अज्ञान भी है । परमात्मा जब विश्वरूप बना तो प्रथम एक से दो बना । मनीषी उसके भिन्न भिन्न नाम बताते हैं।

कहीं वह ब्रह्म और माया बना, कहीं वह पुरुष और प्रकृति बना, कहीं वह जड़ और चेतन बना। उसी प्रकार ज्ञान और अज्ञान को देखना चाहिये। लगभग सभी इन्हें अनादि मानते हैं। जब तक विश्व है ये दोनों ही रहेंगे। परंतु मनीषी दो में से एक को सत्य और दूसरे को असत्य, आभासी या मिथ्या मानते हैं। जैसे कि भगवान शंकराचार्य ब्रह्म को सत्य और माया को मिथ्या मानते हैं। अत: अज्ञान आभासी है, ज्ञान सत्य है। हमें अज्ञान से ज्ञान की ओर जाना है। असत्य से सत्य की ओर जाना है। आभास से वास्तव की ओर जाना है। द्वंद्व से निर्द्वन्द्व की ओर जाना है। यही जीवन की यात्रा है। इस यात्रा को सुगम बनाना शिक्षा का कार्य है और शिक्षक इसका कारक तत्त्व है। शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि शिक्षक शिक्षा का मूर्त रूप है। जिस प्रकार ज्ञान को मनुष्य का रूप देने पर सरस्वती की प्रतिमा तैयार होती है उसी प्रकार शिक्षा को मनुष्य रूप देने पर शिक्षक की प्रतिमा बनती है। शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक की प्रतिष्ठा इस रूप में होती है।

ज्ञान को ज्ञानी से अज्ञानी को हस्तान्तरित कर अज्ञानी को ज्ञानी बनाने की जो व्यवस्था है वही शिक्षा है और इस शिक्षा क्षेत्र का अधिष्ठाता शिक्षक है । हम देखेंगे कि शिक्षक का शिक्षकत्व किसमें है और व्यक्ति शिक्षकत्व किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ।

शिक्षक के गुण

एक व्यक्ति को शिक्षक बनने के लिये उसे स्वयं में अनेक गुणों का आधान करना होता है। ये गुण कौन कौनसे होते हैं ?

विद्यार्थी परायणता

शिक्षक ज्ञानवान तो होता ही है क्योंकि वह ज्ञान के क्षेत्र में कार्य करता है । परन्तु जब तक वह विद्यार्थी के सन्दर्भ में अपने आपको प्रस्तुत नहीं करता वह शिक्षक नहीं बनता । तब तक वह विद्यार्थी ही है। विद्यार्थी स्वांत:सुखाय ज्ञानसाधना करता है, शिक्षक छात्र को ज्ञानवान बनाने हेतु ज्ञानसाधना करता है । जब ज्ञानवान व्यक्ति अपने लिए नहीं अपितु ज्ञान ग्रहण करने हेतु तत्पर विद्यार्थी के विषय में मुख्य रूप से विचार करने लगता है तब वह विद्यार्थी से शिक्षक बनने लगता है । विद्यार्थी से शिक्षक बनने हेतु और विद्यार्थी परायण होने हेतु क्या क्या करना होता है ? सर्व प्रथम उसे विद्यार्थी से प्रेम होना चाहिये, विद्यार्थी के प्रति अपनत्व की भावना होनी चाहिये, विद्यार्थी का कल्याण करने की इच्छा होनी चाहिये ।

आत्मीय सम्बन्ध का आदर्श रूप तैत्तिरीय उपनिषद्[2]‌ में बताया है । उपनिषद्‌ के मन्त्र दृष्टा ऋषि कहते हैं:

आचार्यः पूर्वरूपम्। अन्तेवास्युत्तररूपम्।

विद्या सन्धिः। प्रवचन्ँसन्धानम्। इत्यधिविद्यम्।।1.3.4।।

इसका अर्थ है एक ही सामासिक शब्द के दो पदों के समान, एक ही पूर्ण रूप के दो हिस्सों के समान, एक ही सिक्के के दो पक्षों के समान शिक्षक और विद्यार्थी एकदूसरे से सम्बन्धित होते हैं तब विद्या का जन्म होता है । यह एकात्मता का सम्बन्ध होता है। ऐसे सम्बन्ध से विद्यार्थी के साथ जुड़ा हुआ शिक्षक विद्या के सम्बन्ध में विद्यार्थी के सन्दर्भ में ही विचार करता है । इसीसे जन्मा विद्यार्थी परायणता का दूसरा लक्षण यह है कि वह विद्यार्थी को जानता है । विद्यार्थी के गुण दोष, विद्यार्थी की ज्ञानग्रहण करने की क्षमता, विद्यार्थी की आवश्यकता, विद्यार्थी के विकास की सम्भावना, उसकी ज्ञान ग्रहण करने की पद्धति आदि को जानने की क्षमता और कौशल शिक्षक को प्राप्त करने होते हैं । ऐसी क्षमता और कौशलप्राप्त करने हेतु उसे पर्याप्त अभ्यास की आवश्यकता होती है ।

ज्ञान परायणता

जीवन में ज्ञान को सर्वोपरि स्थान देने वाला, ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ मानने वाला, ज्ञान के प्रति निष्ठा रखने वाला व्यक्ति ज्ञान परायण कहा जाता है। जो धन, मान, प्रतिष्ठा, सुविधा, वैभव आदि से भी ज्ञान का अधिक आदर करता है वह ज्ञान परायण होता है । वह कभी ज्ञान का अपमान होने नहीं देता । वह धन, मान, प्रतिष्ठा आदि के लिये ज्ञान का सौदा नहीं करता । वह अपने विद्यार्थी को भी वैसा ही ज्ञान परायण बनाता है । वह ज्ञान को पवित्र मानता है । वह ज्ञानसाधना करता है । वह ज्ञान को मोक्ष का मार्ग मानता है । ज्ञान प्राप्त करना उसके जीवन का लक्ष्य होता है ।

आचार परायणता

विद्यार्थी को ज्ञान हस्तांतरित करने के लिये शिक्षक को आचार्य बनना होता है। जो शास्त्र के अर्थ को भलीभाँति जानता है, उसे अपने जीवन में उतारता है और विद्यार्थी के आचरण में भी स्थापित करता है वह आचार्य होता है । शिक्षक यदि आचार्य नहीं है तो वह विद्यार्थी को शिक्षित नहीं कर सकता । शिक्षक का आचरण ज्ञाननिष्ठ होता है। शिक्षित व्यक्ति का आचरण सत्य और धर्म पर आधारित होता है । अर्थात्‌ आचार्य को सत्यनिष्ठ और धर्मनिष्ठ बनना ही होता है । सत्य और धर्मनिष्ठ होने के लिये उसे संयमी और इंद्रियजयी होना ही होता है । ये सारे पवित्रता के ही आयाम हैं । अर्थात्‌ आचार्य को पवित्र आचरण वाला होना आवश्यक है । आचार्य को निर्भय होना भी अनिवार्य है । वह सत्ता और धन के प्रति झुकने वाला नहीं चाहिये । सत्ता के प्रति चाटूकारिता करने वाला नहीं होना चाहिये । विद्यार्थी को आचरण सिखाने हेतु एकमात्र मार्ग आचार्य का आचारवान होना ही है । उस दृष्टि से भी आचार्य को आचारवान होना चाहिये । आचार के बिना वास्तविक जीवन में उपदेश निर्स्थक है । किसी मनीषी ने कहा भी है कि[3]

मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम्।

मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्॥

अर्थात मन में, विचार में, वाणी में और कृति में भिन्नता होती है वह दुर्जन और इन तीनों में एकवाक्यता होती है वह महात्मा अर्थात सज्जन होता है । ऐसे सज्जन को ही आचारवान कहा जाता है । आचार्य को ऐसा आचारवान होना चाहिये ।

धर्म परायणता

एक वाक्य में कहें तो शिक्षा धर्म सिखाती है । हम धर्म की व्याख्या बार बार कर चुके हैं । आज धर्म को राजनीति के लिये शस्त्र बनाकर उसे विपरीत अर्थ प्रदान करने वाले लोगोंं के कारण धर्म को अनुचित ढंग से समझा जाता है । वास्तव में धर्म ही जीवन की रक्षा करता है। धर्म को छोड़ दिया तो विनाश ही है । धर्माचरण के साथ साथ धर्म के बारे में व्याप्त विपरीत धारणाओं को दूर करने का दायित्व भी शिक्षक का ही है ।

समाज परायणता

शिक्षक विद्यार्थी के साथ साथ समाज भी सुस्थिति में रहे इसकी चिन्ता करने वाला होना चाहिये । मनुष्य जब एक दूसरे के साथ एकात्मता के सम्बन्ध विकसित करता है तब समाज बनता है । इस समाज को बनाए रखने वाला तत्त्व धर्म होता है। यह समाजधर्म है । शिक्षक इस समाजधर्म का पालन करने वाला होता है । समाज को ही वह ईश्वर का विश्वरूप मानता है । वह अपने विद्यार्थी को भी समाज परायण बनाता है । आज समाज और व्यक्ति के मध्य एक प्रकार का द्वंद्व निर्माण हुआ है । वास्तव में व्यक्ति समाज का अभिन्न अंग होता है परन्तु आज व्यक्ति अपने आप में महत्त्वपूर्ण हो गया है और व्यक्ति के हित की रक्षा हेतु अनेक व्यक्तियों में सामंजस्य निर्माण करने वाली व्यवस्था को समाज कहा जाता है। समाज की यह परिभाषा सही नहीं है । समाज के अभिन्न अंग के रूप में व्यक्ति को अपना समायोजन करना सिखाना शिक्षक का दायित्व होता है । समाजपरायण बनाने के साथ साथ शिक्षक विद्यार्थी को राष्ट्र परायण और ईश्वर परायण भी बनाता है ।

शिक्षक का व्यक्तित्व

शिक्षक के व्यक्तित्व में ये सभी गुण आयें और शिक्षा क्षेत्र को अच्छे शिक्षक प्राप्त हों इस दृष्टि से श्रेष्ठ शिक्षक प्राप्त करने की एक सुनिश्चित व्यवस्था होना अनिवार्य रूप से आवश्यक होता है । ऐसी व्यवस्था करना समाज का प्रमुख दायित्व होता है , परन्तु समाज की ओर से भी इस व्यवस्था का प्रमुख दायित्व शिक्षक समुदाय का ही होता है। शिक्षा क्षेत्र को अच्छे शिक्षक प्राप्त हों इस दृष्टि से कुछ बातों का विचार करना चाहिये:

  1. सभी विषयों में श्रेष्ठततम विद्यार्थी ही शिक्षक बनाना चाहिये । सामान्य विद्यार्थी को शिक्षक बनने की अनुमति नहीं होनी चाहिये । श्रेष्ठता की परीक्षा ज्ञान, संस्कार, आचरण और नियत के आधार पर करनी चाहिये । श्रेष्ठ विद्यार्थी ही शिक्षक बने इस व्यवस्था का विशेष कारण है । श्रेष्ठ शिक्षक जब अपना ज्ञान विद्यार्थी को हस्तांतरित करता है और इस प्रकार शिक्षक और विद्यार्थी की अनेक पीढ़ियाँ बीतती हैं तो ज्ञान उत्तरोत्तर समृद्ध होता जाता है । जब शिक्षक साधारण रहता है तब पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान परंपरा क्षीण होती जाती है । किसी भी समाज के लिये यह वांछनीय बात नहीं है । अतः श्रेष्ठतम विद्यार्थी शिक्षक बने इस बात का आग्रह बना रहना चाहिये ।
  2. श्रेष्ठततम विद्यार्थी शिक्षक बने यह देखने का दायित्व शिक्षक और समाज दोनों का है । शिक्षक को अपने श्रेष्ठ विद्यार्थी को शिक्षक बनने की प्रेरणा देनी चाहिये और उसकी क्षमताओं का विकास करना चाहिये । समाज को चाहिये कि शिक्षक का सम्मान इतना बढ़ाए कि श्रेष्ठ विद्यार्थी शिक्षक बनना चाहे । साथ ही शिक्षक के योगक्षेम की भी पर्याप्त चिन्ता करे ।
  3. ऐसा व्यक्ति शिक्षक बन सकता है जो श्रेष्ठ विद्यार्थी होने के साथ साथ शिक्षक के स्वभाव वाला हो । स्वभाव जन्मगत भी होता है और गुणकर्म के अनुसार भी होता है । गुणकर्म जन्म से होते हैं या प्राप्त किए जाते हैं इस विषय में अनेक मत मतांतर हैं। इस विवाद पर समय व्यतीत न करते हुए हमें एक बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि शिक्षक के स्वभाव से युक्त व्यक्ति ही शिक्षक बने यह आवश्यक है । स्वभाव को परखने की व्यवस्था विकसित करनी चाहिये । स्वभाव के अनुसार जीवनकार्य निश्चित करने की व्यवस्था प्राचीन काल में थी । उदाहरण के लिये शिशु जब भूमि पर बैठने लगता था तब उसके आस पास विभिन्न व्यवसायों से संबन्धित उपकरण रखे जाते थे । स्वयं प्रेरणा से अथवा अपनी रुचि से शिशु जिन उपकरणों को ग्रहण करता था उन उपकरणों से सम्बन्धित उसका व्यवसाय अथवा जीवनकार्य निश्चित किया जाता था । और एक व्यवस्था बड़ी सहज और सरल थी । पिता का ही व्यवसाय पुत्र आगे बढ़ाता था । अतः शिक्षक का पुत्र शिक्षक होगा यह स्वाभाविक रूप से स्वीकार किया जाता था । परन्तु ज्ञान के क्षेत्र में पिता पुत्र परंपरा से भी अधिक गुरु शिष्य परंपरा का ही महत्त्व माना जाता था । शिक्षक पिता का पुत्र शिक्षक बनने का स्वाभाविक अधिकारी होने पर भी गुरु अपने श्रेष्ठतम विद्यार्थी को ही अपना अनुगामी बनाता था । कौन विद्यार्थी शिक्षक बनेगा यह निश्चित करने का अधिकार और दायित्व शिक्षक का ही रहता था |
  4. ये दो व्यवस्थायें यदि बनाई जाएँ तो समाज को अच्छे शिक्षक प्राप्त होने की पूरी संभावना रहती है ।

वर्तमान समय में हम क्या करें

अभी हमने जिस व्यवस्था की चर्चा की वह प्राचीन समय की हैं । वह ऐसे समय की व्यवस्था है जब शिक्षा क्षेत्र स्वायत्त था और शिक्षक सम्मानीत था और अपने व्यवसाय का गौरव तथा दायित्व समझता था । आज यह स्थिति नहीं है । आज शिक्षा क्षेत्र स्वायत्त नहीं है । उसका नियंत्रण शासन के पास है । साथ ही शिक्षक के पद का गौरव नहीं रह गया है। एक शिक्षक अपने पुत्र को या अच्छे विद्यार्थी को शिक्षक बनने का परामर्श नहीं देता । तेजस्वी छात्र शिक्षक बनना नहीं चाहते । शिक्षक का

व्यवसाय बहुत श्रेष्ठ नहीं माना जाता है । समाज में इस व्यवसाय की प्रतिष्ठा भी कम ही है । इस स्थिति में शिक्षा क्षेत्र पुन: अपना गौरव प्राप्त करे, इस दृष्टि से कुछ इस

प्रकार विचार किया जा सकता है ।

  • छोटी आयु से ही कक्षाओं में शिक्षक का गौरव और श्रेष्ठता बताने वाली सामग्री पाठ्यपुस्तकों में होनी चाहिये । इन्हें पढ़कर विद्यार्थी शिक्षक बनने के स्वप्न देखे इस पद्धति से शिक्षक को इन पाठों को पढ़ाना चाहिये ।
  • विद्यालय चलाने वालों ने अपने विद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों में से ऐसे विद्यार्थियों का चयन करना चाहिये जो आगे चलकर अपने ही विद्यालय में शिक्षक बनें ।
  • ऐसा चयन करने के बाद उन्हें अपने शिक्षक के मार्गदर्शन में अन्य छात्रों को पढ़ाने का अभ्यास प्राप्त हो ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये । श्रेष्ठ विद्यार्थी शिक्षक के सहयोगी माने जाने चाहिये ।
  • विद्यालय की व्यवस्था में अध्ययन और अध्यापन साथ साथ चले इसका प्रावधान रखना चाहिये ।
  • श्रेष्ठ विद्यार्थी अपना अध्ययन पूर्ण करें और गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे उसके साथ ही उनका अर्थार्जन आरम्भ होता है। अर्थार्जन हेतु वे शिक्षक बनते हैं । शिक्षक बनने से पूर्व उनकी शिक्षक बनने हेतु विशेष शिक्षा होनी चाहिये । इसे आजकल शिक्षक शिक्षा कहते हैं । वर्तमान शिक्षक शिक्षा का पाठ्यक्रम पूर्ण रूप से बदल कर उसमें विशेष बातों का समावेश होना चाहिये ।

शिक्षक शिक्षा का पाठ्यक्रम

समाजजीवन में शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैसी शिक्षा होती है वैसा ही व्यक्ति होता है । जैसी शिक्षा होती है वैसा ही समाज होता है । इसका कारण बहुत स्पष्ट है । मनुष्य जन्म के भी पूर्व से सब कुछ सीख सीख कर ही अपना व्यक्तित्व विकसित करता जाता है और चरित्र गढ़ता जाता है । इसलिये समाज में शिक्षक का भी स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसका भी कारण स्पष्ट है । जैसा शिक्षक होता है वैसी ही शिक्षा होती है । यह तथ्य तो समाजजीवन के हर क्षेत्र को लागू है । जैसा धर्माचार्य होगा वैसा ही धर्मप्रवर्तन होगा । जैसा बुनकर होगा वैसा ही कपड़ा बनेगा, जैसा कुम्हार होगा वैसा ही घड़ा बनेगा, जैसा अभियन्ता होगा बैसी ही सड़क बनेगी । हाँ, कपड़े और घड़े तथा शिक्षा और धर्म में एक अन्तर अवश्य है । घड़ा और कपड़ा भौतिक उपादानों से निर्मित होते हैं जबकि शिक्षा और धर्म सांस्कृतिक उपादानों से । अतः घड़ा और कपड़ा रुई और मिट्टी पर भी निर्भर करते हैं और शिक्षा और धर्म जीवनदृष्टि पर । परन्तु निमित्त कारण तो सर्वत्र व्यक्ति ही है। अत: निमित्त कारण जैसा होगा वैसी ही निर्मिति होगी । तात्पर्य यह है कि जैसा शिक्षक वैसी शिक्षा होगी । इस कारण से समाज को अच्छे शिक्षक की नितान्त आवश्यकता होती है । अत: शिक्षक निर्माण करने का एक सुब्यवस्थित तन्त्र स्थापित होने की आवश्यकता है । इस तन्त्र का प्रमुख अंग है, पाठ्यक्रम ।

शिक्षक शिक्षा के पाठ्यक्रम के सन्दर्भ में कुछ इस प्रकार विचार करना चाहिये:

  1. समग्र विकास प्रतिमान : सर्व प्रथम एक शिक्षक को समग्र विकास प्रतिमान की समझ होना आवश्यक है । समग्र विकास प्रतिमान जीवन की एकात्म दृष्टि के आधार पर विकसित किया गया है इसकी स्पष्टता होना आवश्यक है । एकात्म दृष्टि का आधार भारतीय अध्यात्मिक संकल्पना है। इस दृष्टि से भारतीय शास्त्रग्रन्थों का यथाशक्ति एवं यथामति अध्ययन होना भी उतना ही आवश्यक है । ऐसा नहीं है कि छोटी कक्षाओं के लिये कम और बड़ी कक्षाओं के लिये अधिक समझ अपेक्षित होती है । छोटी और बड़ी कक्षाओं का अन्तर केवल अध्यापन और अध्ययन कि पद्धति और माध्यम का ही होता है। बड़ी कक्षाओं में शास्त्र रूप में और छोटी कक्षाओं में संस्कार रूप में अध्ययन होता है । विषयवस्तु और दृष्टि तो एक ही रहती है । अतः शिक्षक छोटी कक्षा पढ़ाते हों या बड़ी, जीवनदृष्टि और समझ तो एक समान ही विकसित होनी चाहिये । इस दृष्टि से उपनिषदों और रामायण महाभारत जैसे ग्रन्थों का अध्ययन आवश्यक है। कम से कम श्रीमद् भगवद् गीता का अध्ययन तो हर शिक्षक के लिये अनिवार्य ही है । इन शास्त्र ग्रंथों का अध्ययन यदि प्राथमिक विद्यालयों में ही आरम्भ हो जाता है तब तो शिक्षक को इनका अध्ययन अलग से नहीं करना पड़ेगा । परन्तु वर्तमान में ऐसी स्थिति नहीं है। वर्तमान स्थिति तो इससे सर्वथा विपरीत है । भारत के शिक्षित वर्ग को भारतीय जीवनदृष्टि जिन शास्त्रग्रंथों के अध्ययन के फलस्वरूप प्राप्त होती है उनका परिचय भी होने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती । इसीलिए तो देश का जीवन पराई जीवनदृष्टि के आधार पर चलता है ।
  2. समाजजीवन के अन्य क्षेत्रों के बौद्धिकों के लिये यह अध्ययन और यह समझ जितनी मात्रा में आवश्यक है उससे कहीं अधिक शिक्षकों के लिये आवश्यक हैं क्योंकि जीवन के अन्य अधिकांश क्षेत्र भौतिक और व्यावहारिक आयामों के साथ संबन्धित हैं जबकि शिक्षा का क्षेत्र सांस्कृतिक पक्ष के साथ संबन्धित है, मनुष्य निर्माण के साथ संबन्धित है । यह बहुत ही जीवमान क्षेत्र है । यह अन्य आयामों का आधार है । अतः यहाँ शास्त्रग्रंथों का अध्ययन अनिवार्य है । यह अध्ययन केवल शास्त्रीय अध्ययन होने से भी नहीं चलेगा । यह दृष्टि और व्यवहार विकसित करने वाला होना चाहिए क्योंकि यह अन्य क्षेत्रों को दृष्टि देने वाला और व्यवहार सिखाने वाला होता है ।
  3. समाजजीवन के अन्य क्षेत्रों में कार्यरत लोगोंं को अपने अपने शास्त्रों का ज्ञान होना पर्याप्त होता है परंतु शिक्षक को जीवन के सभी क्षेत्रों का ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि उसे इन सभी क्षेत्रों में अनुस्यूत जीवनदृष्टि भी देनी है । इन सभी आयामों को समग्रता में समझना उसके लिये आवश्यक होता है । वर्तमान शिक्षाशास्त्र केवल अध्यापन पद्धति और कौशल पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है जबकि भारतीय शिक्षाशास्त्र प्रथम शिक्षक की आधारभूत पात्रता की अपेक्षा करता है और यह पात्रता किस प्रकार प्राप्त हो इसकी भी चिंता करता है । जबतक शिक्षक की आधारभूत पात्रता नहीं प्राप्त होती तबतक अध्यापन पद्धति और कौशलों का कोई उपयोग नहीं होता ।
  4. इस आधारभूत पात्रता की प्राप्ति के बाद शिक्षक को चाहिए कि उसे देश की वर्तमान स्थिति का भी ज्ञान हो । जीवन के शाश्वत सिद्धांतों को वर्तमान परिस्थिति के संदर्भ में ढालने की पात्रता हर शिक्षक में होनी आवश्यक है । आज की रचना में शिक्षाशास्त्र को अन्य विषयों के समकक्ष और समानान्तर रखा जाता है जबकि वास्तव में केवल शिक्षाशास्त्र ही नहीं तो प्रत्येक विषय को प्रथम अंग और अंगी के उचित स्थान पर रखा जाना चाहिए और उसके अनुसार उसके अध्ययन की योजना करनी चाहिए । इस प्रकार शिक्षक एक ऐसे विशेष वर्ग में समाहित है जो सम्पूर्ण ज्ञानक्षेत्र को समग्रता में समझता है ।
  5. देश की वर्तमान स्थिति का ज्ञान होने के साथ साथ देश का इतिहास एवं संस्कृति का भी उसे सम्यक्‌ परिचय होना आवश्यक है । भारतीयता का व्यवहार देश के हर नागरिक से अपेक्षित होता है । शिक्षक से भी अपेक्षित है। परंतु साथ ही उस व्यवहार का ज्ञानात्मक पक्ष भी उसे अवगत होना अपेक्षित है । उस दृष्टि से देश के सांस्कृतिक इतिहास का ज्ञान हर शिक्षक को होना अपेक्षित है। देश की सनातन संस्कृति, संस्कृति का प्रवाह और वर्तमान सांस्कृतिक हास की स्थिति और उसके कारण आदि का ज्ञान अध्यापन कार्य की पार्थभूमि के रूप में होना आवश्यक है ।
  6. साथ ही दुनिया की वर्तमान स्थिति का सन्दर्भ भी ज्ञात होना आवश्यक है । वर्तमान में हमारे देश के समाजजीवन की दुर्वस्था का कारण वैश्विक स्थिति ही है। विगत दो तीन सौ वर्षों से सम्पूर्ण विश्व की स्थिति बहुत विचित्र हो गई है । संचार माध्यमों की बहुतायत के कारण प्रजाओं का आपसी आदान प्रदान बहुत सुकर हो गया है । इससे वे एकदूसरे से प्रभावित होती हैं और एकदूसरे को प्रभावित करती भी हैं । कोई भी देश अपनी अलग पहचान बनाये रखने में यशस्वी नहीं हो रहा है । इस स्थिति में विश्व में आज यूरोअमेरिकी जीवन प्रतिमान प्रतिष्ठित हो बैठा है। देश के देश उससे प्रभावित हो गये हैं । कई तो अपनी शुद्ध मूल संस्कृति को नामशेष कर चुके हैं, कई अनेक प्रकार के संकटों को झेल रहे हैं और कई संकटों को परास्त करने हेतु जूझ रहे हैं । भारत इस तीसरी श्रेणी में है । विगत दो सौ वर्षों में भारत का जनजीवन और उसकी सारी व्यवस्थायें ब्रिटिश शासन के परिणामस्वरूप यूरोअमेरिकी प्रतिमान से प्रभावित होकर छिन्न विच्छिन्न हो गईं हैं । देश यूरोमेरिकी प्रतिमान से बनीं व्यवस्थाओं में चलता है जबकि भारतीय जन के अन्तःकरण में अभी भी भारतीय मूल्य अवस्थित हैं । ये दो स्थितियाँ आंतरिक संघर्ष निर्माण करने वाली होती हैं । इसका ठीक से बोध होना भारतीय शिक्षक के लिये आवश्यक है । प्रजाओं को प्रभावित करने वाले तत्त्व कौनसे हैं, प्रभावित करने की प्रक्रिया कैसे चल रही है, देश में कौनसे संकट खड़े हुए हैं और इन्हें दूर करने के उपाय कौनसे हैं और इसके लिये कैसी शिक्षा आवश्यक है, इसका चिन्तन शिक्षक के पास होना अपेक्षित है । यह सब उसकी शिक्षा का महत्त्वपूर्ण बौद्धिक और सांस्कृतिक आधार होगा ।
  7. इस देश के समाजजीवन में जो भिन्न भिन्न कार्य व्यवसाय के रूप में चलते हैं उनके दो प्रमुख विभाग हैं। एक है अर्थार्जन का क्षेत्र और दूसरा है सेवा क्षेत्र । जीवन की महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति सेवा से होती है । धर्मोपदेश, ज्ञानदान, चिकित्सा और न्याय सेवा क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं । पुरोहित, शिक्षक, वैद्य और न्यायाधीश के कार्य सेवा के रूप में प्रतिष्ठित हैं । इनके लिये पैसा नहीं लिया और दिया जाता । आज ऐसी स्थिति नहीं है । सबकुछ पैसे के बदले में बेचा और खरीदा जाता है । यह अनर्थकारी अर्थव्यवस्था का और धर्म की उपेक्षा का परिणाम है। इस समस्या का हल छढूँढना है तो अर्थनिरपेक्ष शिक्षाव्यवस्था का विचार बलवान बनाना होगा । अर्थनिरपेक्ष शिक्षा शिक्षक को दरिद्र नहीं बनाती है इस तथ्य को भी समझना होगा । शिक्षक के मन से इसका भय दूर करना होगा। यह एक दीर्घावधि योजना का विषय है और अभी तुरंत न तो मानस बनेगा न व्यवस्था, तथापि इस विषय की बौद्धिक चर्चा चलानी होगी और मानस निर्माण के प्रयास करने होंगे । इस विचारणा के अंतर्गत्‌ शिक्षा के कुछ स्वायत्त अर्थनिरपेक्ष प्रयोग आरम्भ भी हो सकते हैं ।
  8. अर्थनिरपेक्ष शिक्षा हेतु शिक्षा को स्वायत्त बनाने की भी आवश्यकता है । शिक्षा स्वायत्त तभी हो सकती है जब शिक्षक शिक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले । कक्षाकक्ष में शिक्षक जब पढ़ाता है तब विद्यार्थी के ज्ञानार्जन का दायित्व शिक्षक का होता है यह बात तो आज भी समझ में आती है परंतु पूर्ण समाज को शिक्षित करने का दायित्व भी शिक्षक का है यह बात आज समझ में नहीं आती है। आज यह दायित्व सरकार का माना जाता है । आज तो सरकार अपना यह दायित्व उद्योगगृहों को सॉपना चाहती है । इस स्थिति में शिक्षा अधिकाधिक महँगी हो रही है । साथ ही यांत्रिक भी हो रही है । सरकार और उद्योगगृह जब शिक्षा की व्यवस्था करते हैं तब वह केवल भौतिक व्यवस्थायें ही होती हैं, ज्ञानदान का कार्य तो शिक्षक ही करता है । परंतु वह अब शिक्षक न रहकर केवल शिक्षाकर्मी है । शिक्षाकर्मी कभी मार्गदर्शन नहीं कर सकता । इस विषय को शिक्षक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनाना होगा क्योंकि इसके ऊपर ही सामाजिक जीवन की सुव्यवस्था का आधार है । साथ ही शिक्षा क्षेत्र का और शिक्षक का योगक्षेम अबाध रूप से चले और शिक्षक को दीन हीन न होना पड़े इसकी शिक्षा समाज को देने की व्यवस्था भी करनी होगी |
  9. एक शिक्षक के लिये प्रत्यक्ष कक्षाकक्ष के अध्यापन का कार्य विद्यार्थी की पाँच से लेकर पचीस वर्ष की आयु तक होता है । यह बाल, किशोर, तरुण और युवावस्था होती है । हर आयु में अध्ययन की प्रक्रिया भिन्न भिन्न रूप में चलती है । बाल अवस्था में हाथ, पैर, वाणी जैसी कर्मन्ट्रियाँ, दर्शनेन्द्रिय और श्रव्णेंद्रिय जैसी ज्ञानेंद्रियाँ तथा मन का भावना पक्ष सक्रिय होता है । तब क्रिया आधारित, अनुभव आधारित और प्रेरणा आधारित अध्यापन पद्धति अपनानी होती है । हमारा व्यवहार का भी अनुभव है कि बाल अवस्था के बच्चे सदा कुछ न कुछ करते रहते हैं । सदा चीजों को परखते ही रहते हैं । वे एक स्थान पर बैठकर लिखना, पढ़ना, भाषण सुनना पसन्द नहीं करते । वे निष्क्रिय बैठना पसन्द नहीं करते । उनमें जो ऊर्जा होती है वह उन्हें शारीरिक रूप से सक्रिय रखती है। वे शिक्षक को अपना आदर्श मानते हैं अतः उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हैं । इसके अनुरूप ही अध्यापन पद्धति होती है । किशोर अवस्था में मन का विचार पक्ष तथा बुद्धि का निरीक्षण और परीक्षण पक्ष सक्रिय होता है अतः किशोर अवस्था कि शिक्षा विचार प्रधान होती है । तरुण अवस्था में बुद्धि और अहंकार सक्रिय होते हैं अतः विवेक आधारित और दायित्वबोध आधारित अध्यापन पद्धति का अवलंबन करना होता है । इस कारण से आयु कि विभिन्न अवस्थाओं के लक्षण, आवश्यकताएँ, क्षमताएँ और ज्ञानार्जन की प्रक्रिया समझना शिक्षक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण आयाम है ।
  10. शिक्षक विभिन्न विषयबिन्दु का अध्यापन करने हेतु अपने आसपास के परिसर के कई पदार्थों का उपकरणों के रूप में उपयोग करता है। जैसे कि गणना करने योग्य वस्तुओं का गणित के लिए, जीवन के अनेक क्रियाकलापों का विज्ञान के लिए, परिसर का भूगोल के लिए, वार्तालाप का भाषा के लिए, कथा कहानी का इतिहास के लिए वह प्रभावी ढंग से उपयोग करता है। ऐसा उपयोग करने के लिए उसकी कल्पनाशक्ति, निर्माणक्षमता और सृजनशीलता विकसित होनी चाहिए । शिक्षक शिक्षा में इन गुणों का विकास करने का प्रावधान होना चाहिए ।
  11. वर्तमान शिक्षक शिक्षा की योजना अत्यंत यांत्रिक, खर्चीली और निर्जीव उपकरणों पर आधारित हो गई है। वह शिक्षा को महँगी बनाती है । शिक्षक में उपकरणों पर आधारित नहीं अपितु करणों पर आधारित अध्यापन करने की क्षमता होनी चाहिए । तभी शिक्षा को यांत्रिक बनने से बचाया जा सकेगा ।
  12. शिक्षक अपने विद्यार्थी को पढ़ाते पढ़ाते उसके परिवार का और इसी क्रम में समाज का भी गुरु बन जाता है। उसमें इस गुरुत्व को वहन करने योग्य क्षमता चाहिए। उसका मनोभाव, उसका व्यवहार, भाषा, रुचि अरुचि, खानपान, साजसज्जा आदि गुरु के लायक होनी चाहिए। उसमे सभ्यता और संस्कारिता चाहिए । उसके गुरुत्व का सम्मान समाज भी करे उसके योग्य वह बनना चाहिए। तभी वह राष्ट्रनिर्माता होता है । इस विषय का भी शिक्षक शिक्षा में समावेश होना चाहिए।
  13. अध्ययन के साथ साथ ही शिक्षक बनने वाले विद्यार्थियों के लिए शिक्षक शिक्षा का प्रावधान होना चाहिए । शिक्षक शिक्षा में दीर्घ काल की निरंतरता होने से ही यह संभव है। इस प्रकार यहाँ शिक्षक शिक्षा के विषय में संक्षेप में चर्चा की है ।

References

  1. धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
  2. तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक :3  श्लोक संख्या :4
  3. हितोपदेशः १०२