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| == गुरुकुल के प्रति आस्था == | | == गुरुकुल के प्रति आस्था == |
− | “गुरुकुल' शब्द आज भी भारत के लोगों के मन में एक आकर्षण पैदा करता है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। गुरुकुल की पढ़ाई उत्तम थी ऐसा ही भाव मन में जाग्रत होता है । आज कहाँ वे गुरुकुल सम्भव है ऐसा एक खेद का भाव भी पैदा होता है । एक रम्य चित्र मनःचक्षु के सामने आता है जहाँ वन के प्राकृतिक वातावरण में आश्रम बने हुए हैं, आश्रम में पर्णकुटियाँ हैं, ऋषि और ऋषिकुमार यज्ञ कर रहे हैं, मृग निर्भयता से विचरण कर रहे हैं, विद्याध्ययन हो रहा है, वेदपाठ हो रहा है, वातावरण तथा सबके मन प्रसन्न और निश्चिन्त हैं । यह एक ऐसा रम्य चित्र है जिसे आज हमने खो दिया है, आज हमें उस चित्र को बनाना नहीं आता है । आधुनिक काल में अरण्य, पर्णकुटी, यज्ञ, वेदाध्ययन, गुरुगृहवास, ऋषि और कऋषिकुमार इनमें से कुछ भी सम्भव नहीं है, क्योंकि जीवन आपाधापी से व्यस्त, व्यवसाय पाने की चिन्ता से ग्रस्त, चारों ओर भीड़, कोलाहल, प्रदूषण से त्रस्त हो गया है तब वह सौभाग्य कहाँ मिलेगा ऐसा एक दर्द मन में संजोये हम अपने भव्य भवनों में चलने वाले आवासी विद्यालयों को 'गुरुकुल' संज्ञा देते हैं। उसे 'आधुनिक गुरुकुल' कहते हैं । केवल परिवेश बदला है, केवल भाषा बदली है, केवल अध्ययन के विषय बदले हैं, केवल सन्दर्भ बदले हैं, केवल पढ़ने पढ़ाने तथा पढ़वाने वालों के मनोभाव ही बदले हैं, फिर भी यह है तो गुरुकुल ऐसा हमारा प्रतिपादन होता है । | + | “गुरुकुल' शब्द आज भी भारत के लोगोंं के मन में एक आकर्षण पैदा करता है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। गुरुकुल की पढ़ाई उत्तम थी ऐसा ही भाव मन में जाग्रत होता है । आज कहाँ वे गुरुकुल सम्भव है ऐसा एक खेद का भाव भी पैदा होता है । एक रम्य चित्र मनःचक्षु के सामने आता है जहाँ वन के प्राकृतिक वातावरण में आश्रम बने हुए हैं, आश्रम में पर्णकुटियाँ हैं, ऋषि और ऋषिकुमार यज्ञ कर रहे हैं, मृग निर्भयता से विचरण कर रहे हैं, विद्याध्ययन हो रहा है, वेदपाठ हो रहा है, वातावरण तथा सबके मन प्रसन्न और निश्चिन्त हैं । यह एक ऐसा रम्य चित्र है जिसे आज हमने खो दिया है, आज हमें उस चित्र को बनाना नहीं आता है । आधुनिक काल में अरण्य, पर्णकुटी, यज्ञ, वेदाध्ययन, गुरुगृहवास, ऋषि और कऋषिकुमार इनमें से कुछ भी सम्भव नहीं है, क्योंकि जीवन आपाधापी से व्यस्त, व्यवसाय पाने की चिन्ता से ग्रस्त, चारों ओर भीड़, कोलाहल, प्रदूषण से त्रस्त हो गया है तब वह सौभाग्य कहाँ मिलेगा ऐसा एक दर्द मन में संजोये हम अपने भव्य भवनों में चलने वाले आवासी विद्यालयों को 'गुरुकुल' संज्ञा देते हैं। उसे 'आधुनिक गुरुकुल' कहते हैं । केवल परिवेश बदला है, केवल भाषा बदली है, केवल अध्ययन के विषय बदले हैं, केवल सन्दर्भ बदले हैं, केवल पढ़ने पढ़ाने तथा पढ़वाने वालों के मनोभाव ही बदले हैं, तथापि यह है तो गुरुकुल ऐसा हमारा प्रतिपादन होता है । |
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− | इतना सब कुछ बदल जाने के बाद भी ऐसा कौन सा तत्त्व है जो वही का वही है और जिस कारण से हम उसे गुरुकुल कहते हैं इस विषय में हम स्पष्ट नहीं होते हैं, कदाचित हम जानते भी हैं कि उस गुरुकुल और इस गुरुकुल में केवल शब्दसाम्य ही है, और कोई साम्य नहीं है, फिर भी हमें यह नामाभिधान अच्छा लगता है । इसका कारण यह है कि आज भी हमारे अन्तर्मन में शिक्षा के उस स्वरूप के प्रति अटूट आस्था है और उसे येन केन प्रकारेण जिस किसी भी रूपमें जीवित रखना चाहते हैं। सर्वजन समाज की इस आस्था का दम्भपूर्वक और सफलता पूर्वक व्यावसायिक लाभ कमाना यह भी इसका एक पहलू है । इस भौतिक और मानसिक परिप्रेक्ष्य में गुरुकुल संकल्पना का शैक्षिक स्वरूप क्या आज भी सम्भव है, और यदि है तो क्या ऐसा करना उचित है इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास करना चाहिये । इस विमर्श का उद्देश्य भी वही है । | + | इतना सब कुछ बदल जाने के बाद भी ऐसा कौन सा तत्त्व है जो वही का वही है और जिस कारण से हम उसे गुरुकुल कहते हैं इस विषय में हम स्पष्ट नहीं होते हैं, कदाचित हम जानते भी हैं कि उस गुरुकुल और इस गुरुकुल में केवल शब्दसाम्य ही है, और कोई साम्य नहीं है, तथापि हमें यह नामाभिधान अच्छा लगता है । इसका कारण यह है कि आज भी हमारे अन्तर्मन में शिक्षा के उस स्वरूप के प्रति अटूट आस्था है और उसे येन केन प्रकारेण जिस किसी भी रूपमें जीवित रखना चाहते हैं। सर्वजन समाज की इस आस्था का दम्भपूर्वक और सफलता पूर्वक व्यावसायिक लाभ कमाना यह भी इसका एक पहलू है । इस भौतिक और मानसिक परिप्रेक्ष्य में गुरुकुल संकल्पना का शैक्षिक स्वरूप क्या आज भी सम्भव है, और यदि है तो क्या ऐसा करना उचित है इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास करना चाहिये । इस विमर्श का उद्देश्य भी वही है । |
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| == “गुरुकुल' संज्ञा == | | == “गुरुकुल' संज्ञा == |
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| उस परंपरा को बनाये रखने के लिये ही शिक्षासंस्था को 'कुल' ऐसा नाम दिया गया है और गुरु का ही आधिपत्य होने के कारण से उसे 'गुरुकुल' कहा गया है । “गुरुकुल' ज्ञानधारा और आचारशैली के रूप में भी विशिष्ट इकाई बनता है । कुल की रीति अर्थात् शील और शैली होती है, कुल की परंपरा होती है, कुलधर्म अर्थात् कुल का आचार होता है। गुरु के कुल में ज्ञान परंपरा भी होती है । इन सब बातों को लेकर एक एक गुरुकुल का अपना अपना एक वैशिष्ट्य होता है, अपनी एक पहचान होती है। उदाहरण के लिये एक गुरुकुल की जटा बाँधने की शैली दूसरे गुरुकुल की शैली से भिन्न होगी । इसे हम गणवेश जैसी अत्यन्त ऊपरी सतह की पहचान कह सकते हैं। परन्तु इतनी छोटी सी बात से लेकर बहुत बड़ी बातों तक का अन्तर भी हो सकता है। उदाहरण के लिये विश्वामित्र की विद्या और वसिष्ठ की विद्या सिद्धान्तः अलग है । विश्वामित्र मानते हैं कि आर्यत्व रूप या रंग में नहीं है, ज्ञान और गुण में है, वसिष्ठ मानते हैं कि आर्यत्व वंश और वर्ण में है । यह विचारशैली का ही अन्तर है। विश्वामित्र के गुरुकुल का छात्र वसिष्ठ के सिद्धान्त का नहीं हो सकता, वसिष्ठ का छात्र विश्वामित्र के सिद्धान्त का नहीं हो सकता । तप, स्वाध्याय, यज्ञ, ईश्वरनिष्ठा आदि सब समान रूप से श्रेष्ठ होने पर भी यह सामाजिक दृष्टि का अन्तर दो गुरुकुलों को अलग और स्वतंत्र रखता है । | | उस परंपरा को बनाये रखने के लिये ही शिक्षासंस्था को 'कुल' ऐसा नाम दिया गया है और गुरु का ही आधिपत्य होने के कारण से उसे 'गुरुकुल' कहा गया है । “गुरुकुल' ज्ञानधारा और आचारशैली के रूप में भी विशिष्ट इकाई बनता है । कुल की रीति अर्थात् शील और शैली होती है, कुल की परंपरा होती है, कुलधर्म अर्थात् कुल का आचार होता है। गुरु के कुल में ज्ञान परंपरा भी होती है । इन सब बातों को लेकर एक एक गुरुकुल का अपना अपना एक वैशिष्ट्य होता है, अपनी एक पहचान होती है। उदाहरण के लिये एक गुरुकुल की जटा बाँधने की शैली दूसरे गुरुकुल की शैली से भिन्न होगी । इसे हम गणवेश जैसी अत्यन्त ऊपरी सतह की पहचान कह सकते हैं। परन्तु इतनी छोटी सी बात से लेकर बहुत बड़ी बातों तक का अन्तर भी हो सकता है। उदाहरण के लिये विश्वामित्र की विद्या और वसिष्ठ की विद्या सिद्धान्तः अलग है । विश्वामित्र मानते हैं कि आर्यत्व रूप या रंग में नहीं है, ज्ञान और गुण में है, वसिष्ठ मानते हैं कि आर्यत्व वंश और वर्ण में है । यह विचारशैली का ही अन्तर है। विश्वामित्र के गुरुकुल का छात्र वसिष्ठ के सिद्धान्त का नहीं हो सकता, वसिष्ठ का छात्र विश्वामित्र के सिद्धान्त का नहीं हो सकता । तप, स्वाध्याय, यज्ञ, ईश्वरनिष्ठा आदि सब समान रूप से श्रेष्ठ होने पर भी यह सामाजिक दृष्टि का अन्तर दो गुरुकुलों को अलग और स्वतंत्र रखता है । |
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− | विद्या के क्षेत्र में गायत्री विज्ञान और गायत्री विद्या विश्वामित्र के गुरुकुल का अनूठा वैशिष्टय है । आज हमें विद्यासंस्थाओं को लेकर इस प्रकार के अनूठेपन का - uniqueness का - विचार नहीं आता। विश्वविद्यालयों की व्यवस्था, वेश, पाठ्यक्रम, चर्या आदि सभी आयामों को लेकर कोई एक विशिष्ट अधिष्ठान होगा तभी वह गुरुकुल होगा। यह अधिष्ठान सांस्कृतिक कम परन्तु वैचारिक अधिक होगा क्योंकि मूल संस्कृति सबकी एक ही है परन्तु वैचारिक अधिष्ठान अलग है, अपना ही है। इसे हम school of thought कह सकते हैं। उदाहरण के लिये पूर्वमीमांसा दर्शन के आचार्यों के और वेदान्त के आचार्यों के गुरुकुल वैचारिक रूप से एकदूसरे से अलग होंगे । वेदान्त में भी शंकराचार्य, वल्लभाचार्य, रामानुजाचार्य आदि सब वेदान्ती आचार्य होने के बाद भी उनके गुरुकुल अलग रहेंगे, एक का छात्र दूसरे में नहीं पढ़ सकता । यदि जायेगा तो एक मत पूरा पढ़ लेने के बाद जायेगा, उस मत को भी जानने समझने के लिये जायेगा, या तुलनात्मक अध्ययन के लिये जायेगा । परन्तु वह अपने आपको जिस गुरुकुल का छात्र कहेगा उसी गुरुकुल के शील, शैली, विचार, आचार उसे अपनाने होंगे । ऐसा होने से ही गुरुकुल परंपरा या ज्ञान की परंपरा बनती है और परंपरा बनने से ही ज्ञान के क्षेत्र का विकास भी होता है । | + | विद्या के क्षेत्र में गायत्री विज्ञान और गायत्री विद्या विश्वामित्र के गुरुकुल का अनूठा वैशिष्टय है । आज हमें विद्यासंस्थाओं को लेकर इस प्रकार के अनूठेपन का - uniqueness का - विचार नहीं आता। विश्वविद्यालयों की व्यवस्था, वेश, पाठ्यक्रम, चर्या आदि सभी आयामों को लेकर कोई एक विशिष्ट अधिष्ठान होगा तभी वह गुरुकुल होगा। यह अधिष्ठान सांस्कृतिक कम परन्तु वैचारिक अधिक होगा क्योंकि मूल संस्कृति सबकी एक ही है परन्तु वैचारिक अधिष्ठान अलग है, अपना ही है। इसे हम school of thought कह सकते हैं। उदाहरण के लिये पूर्वमीमांसा दर्शन के आचार्यों के और [[Vedanta_([[Vedanta_(वेदान्तः)|वेदांत]]ः)|वेदांत]] के आचार्यों के गुरुकुल वैचारिक रूप से एकदूसरे से अलग होंगे । [[Vedanta_([[Vedanta_(वेदान्तः)|वेदांत]]ः)|वेदांत]] में भी शंकराचार्य, वल्लभाचार्य, रामानुजाचार्य आदि सब [[Vedanta_([[Vedanta_(वेदान्तः)|वेदांत]]ः)|वेदांत]]ी आचार्य होने के बाद भी उनके गुरुकुल अलग रहेंगे, एक का छात्र दूसरे में नहीं पढ़ सकता । यदि जायेगा तो एक मत पूरा पढ़ लेने के बाद जायेगा, उस मत को भी जानने समझने के लिये जायेगा, या तुलनात्मक अध्ययन के लिये जायेगा । परन्तु वह अपने आपको जिस गुरुकुल का छात्र कहेगा उसी गुरुकुल के शील, शैली, विचार, आचार उसे अपनाने होंगे । ऐसा होने से ही गुरुकुल परंपरा या ज्ञान की परंपरा बनती है और परंपरा बनने से ही ज्ञान के क्षेत्र का विकास भी होता है । |
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| आज इस सूत्र की स्पष्टता नहीं होने से हम कभी विद्यालयों को, कभी आवासीय विद्यालयों को, या कभी वेद पाठशालाओं को गुरुकुल कहते हैं । परन्तु वास्तव में गुरुकुल संज्ञा एक विश्वविद्यालय को ही देना उचित है। प्रत्येक विश्वविद्यालय के शील, शैली, आचार और विचार एक विशिष्ट पहचान भी बननी चाहिये । ऐसा बन सकता है तभी उसे विश्वविद्यालय कह सकते हैं । आज हमने केवल परीक्षा और पदवी के सन्दर्भ में ही विश्वविद्यालयों की रचना की है । इस रचना का मूल इस तथ्य में है कि आधुनिक भारत के प्रथम तीन विश्वविद्यालयों - बोम्बे, कलकत्ता और मद्रास - की रचना सन् १८५७ में लन्दन युनिवर्सिटी के अनुसरण में परीक्षाओं का संचालन करने हेतु एवं प्रमाणपत्र देने हेतु हुई थी । इसका ज्ञानात्मक वैशिष्टय का पहलू विचार में नहीं आने से आज के विश्वविद्यालय रचना के पक्ष में डिपार्टमेन्टल स्टोर जैसे बन गये हैं, जहाँ हर तरह का ज्ञान मिलता है परन्तु हर तरह के ज्ञान में विचार का समान सूत्र केवल योगानुयोग से ही मिलता है । | | आज इस सूत्र की स्पष्टता नहीं होने से हम कभी विद्यालयों को, कभी आवासीय विद्यालयों को, या कभी वेद पाठशालाओं को गुरुकुल कहते हैं । परन्तु वास्तव में गुरुकुल संज्ञा एक विश्वविद्यालय को ही देना उचित है। प्रत्येक विश्वविद्यालय के शील, शैली, आचार और विचार एक विशिष्ट पहचान भी बननी चाहिये । ऐसा बन सकता है तभी उसे विश्वविद्यालय कह सकते हैं । आज हमने केवल परीक्षा और पदवी के सन्दर्भ में ही विश्वविद्यालयों की रचना की है । इस रचना का मूल इस तथ्य में है कि आधुनिक भारत के प्रथम तीन विश्वविद्यालयों - बोम्बे, कलकत्ता और मद्रास - की रचना सन् १८५७ में लन्दन युनिवर्सिटी के अनुसरण में परीक्षाओं का संचालन करने हेतु एवं प्रमाणपत्र देने हेतु हुई थी । इसका ज्ञानात्मक वैशिष्टय का पहलू विचार में नहीं आने से आज के विश्वविद्यालय रचना के पक्ष में डिपार्टमेन्टल स्टोर जैसे बन गये हैं, जहाँ हर तरह का ज्ञान मिलता है परन्तु हर तरह के ज्ञान में विचार का समान सूत्र केवल योगानुयोग से ही मिलता है । |
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| गुरुकुल में अध्ययन करने हेतु छात्रों को गुरुकुल में रहना है अर्थात् गुरुगृहवास करना है । इसका अर्थ यह है कि गुरुकुल यह गुरु का परिवार है और छात्र परिवार के सदस्य के रूप में वहाँ रहता है । इसके कई संकेत हैं । कुछ मुख्य इस प्रकार हैं: | | गुरुकुल में अध्ययन करने हेतु छात्रों को गुरुकुल में रहना है अर्थात् गुरुगृहवास करना है । इसका अर्थ यह है कि गुरुकुल यह गुरु का परिवार है और छात्र परिवार के सदस्य के रूप में वहाँ रहता है । इसके कई संकेत हैं । कुछ मुख्य इस प्रकार हैं: |
| * जब तक छात्र गुरुकुल में रहता है तब तक वह अपने मूल परिवार का नहीं अपितु गुरु के परिवार का सदस्य है । गुरु उसके पिता, गुरु पत्नी माता एवं अन्य छात्र गुरु बंधु हैं । छात्र गुरु का मानसपुत्र है । गुरुकुल में प्रवेश के समय गुरु संस्कार करने के बाद ही छात्र को अपने पुत्र के रूप में स्वीकार करते हैं । यह उपनयन संस्कार है । अब छात्र को अपने कुल की नहीं अपितु गुरु के कुल की रीति का पालन करना है, उसके कुल के आचार धर्म का पालन करना है । उदाहरण के लिये क्षत्रिय राजकुमार भी गुरुकुल में राजकुल की रीति से नहीं रहता है, ब्रह्मचारी बनकर गुरुकुल वेश धारण करता है, श्रम और तपश्चर्या करता है, भूमि पर सोता है, भिक्षाटन करता है, एक सामान्य व्यक्ति बनकर रहता है । | | * जब तक छात्र गुरुकुल में रहता है तब तक वह अपने मूल परिवार का नहीं अपितु गुरु के परिवार का सदस्य है । गुरु उसके पिता, गुरु पत्नी माता एवं अन्य छात्र गुरु बंधु हैं । छात्र गुरु का मानसपुत्र है । गुरुकुल में प्रवेश के समय गुरु संस्कार करने के बाद ही छात्र को अपने पुत्र के रूप में स्वीकार करते हैं । यह उपनयन संस्कार है । अब छात्र को अपने कुल की नहीं अपितु गुरु के कुल की रीति का पालन करना है, उसके कुल के आचार धर्म का पालन करना है । उदाहरण के लिये क्षत्रिय राजकुमार भी गुरुकुल में राजकुल की रीति से नहीं रहता है, ब्रह्मचारी बनकर गुरुकुल वेश धारण करता है, श्रम और तपश्चर्या करता है, भूमि पर सोता है, भिक्षाटन करता है, एक सामान्य व्यक्ति बनकर रहता है । |
− | * गुरुगृहवास का और एक संकेत यह है कि यहाँ केवल पढ़ना नहीं है, यहाँ जीवन जीना है। यह चौबीस घण्टे का विद्यालय है, जहाँ खाना, सोना, काम करना, पढ़ना सब पढ़ाई के अन्तर्गत ही होते हैं । दिनचर्या, ऋतूचर्या, जीवनचर्या अध्ययन के महत्त्वपूर्ण अंग हैं । परिवार चलाने के सारे कामकाज करना भी अध्ययन का अंग है । सेवा, अतिथि सत्कार, साफ सफाई, भोजन बनाना या भोजन बनाने में सहयोग करना, शिष्टाचार सीखना, गुणसंपादन करना, कौशल प्राप्त करना ये सब अध्ययन के ही अंग हैं। अर्थात् यह निरन्तर अध्ययन की प्रक्रिया है । अध्यापन पद्धति के स्थान पर अध्ययन पद्धति (learning methodology) की दृष्टि से देखें तो यह सीखने की उत्तम पद्धति है और इसी के अनुसरण में अध्यापन की भी उत्तम पद्धति है । एक, इसमें कृत्रिमता या पढ़ने पढ़ाने वाले के बीच दूरत्व नहीं रहता । दूसरा, यह समग्रता में शिक्षा होती है । तीसरा यह अत्यन्त सहजता से होती है । छात्र विद्यालय और घर, शिक्षक और अभिभावक के बीच बँटा हुआ नहीं रहता, न सांसारिक जीवन के अन्य व्यवधानों से शिक्षा बाधित होती है । | + | * गुरुगृहवास का और एक संकेत यह है कि यहाँ केवल पढ़ना नहीं है, यहाँ जीवन जीना है। यह चौबीस घण्टे का विद्यालय है, जहाँ खाना, सोना, काम करना, पढ़ना सब पढ़ाई के अन्तर्गत ही होते हैं । दिनचर्या, ऋतूचर्या, जीवनचर्या अध्ययन के महत्त्वपूर्ण अंग हैं । परिवार चलाने के सारे कामकाज करना भी अध्ययन का अंग है । सेवा, अतिथि सत्कार, साफ सफाई, भोजन बनाना या भोजन बनाने में सहयोग करना, शिष्टाचार सीखना, गुणसंपादन करना, कौशल प्राप्त करना ये सब अध्ययन के ही अंग हैं। अर्थात् यह निरन्तर अध्ययन की प्रक्रिया है । अध्यापन पद्धति के स्थान पर अध्ययन पद्धति (learning methodology) की दृष्टि से देखें तो यह सीखने की उत्तम पद्धति है और इसी के अनुसरण में अध्यापन की भी उत्तम पद्धति है । एक, इसमें कृत्रिमता या पढ़ने पढ़ाने वाले के मध्य दूरत्व नहीं रहता । दूसरा, यह समग्रता में शिक्षा होती है । तीसरा यह अत्यन्त सहजता से होती है । छात्र विद्यालय और घर, शिक्षक और अभिभावक के मध्य बँटा हुआ नहीं रहता, न सांसारिक जीवन के अन्य व्यवधानों से शिक्षा बाधित होती है । |
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| == साथ मिलकर दायित्व निभाना == | | == साथ मिलकर दायित्व निभाना == |
− | जब छात्र और गुरु अथवा आचार्य साथ साथ रहते | + | जब छात्र और गुरु अथवा आचार्य साथ साथ रहते हैं तब छात्रों को गुरुकुल चलाने के दायित्व में भी सहभागिता करनी होती है । साफ सफाई के सारे काम, भिक्षा माँगकर लाना, गुरुकुल के निभाव के लिये यदि भूमि है और उसमें खेती होती है तो खेती का काम, गोपालन, भूमि की लिपाई, लकड़ी लाना, गुरु, गुरुपत्नी और अन्य वरिष्ठ जनों की सेवा शुश्रूषा आदि जितने भी कार्य हैं, बराबरी की हिस्सेदारी से हर छात्र को करना है। इस प्रकार व्यावहारिक और आर्थिक रूप से छात्र और गुरु अथवा आचार्य समान रूप से दायित्व निभाते हैं। |
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− | हैं तब छात्रों को गुरुकुल चलाने के दायित्व में भी
| + | व्यावहारिक ही नहीं तो शैक्षिक दृष्टि से भी छात्र गुरु के दायित्व में सहभागी होते हैं। बड़े और अनुभवी या पुराने छात्र छोटे और नये छात्रों को सिखाते हैं । इस प्रकार अध्ययन अध्यापन की एक शृंखला बनती है। इसकी व्यावहारिक उपादेयता तो है ही, साथ ही शैक्षिक उपादेयता भी है। “अध्ययन की पूर्णता अध्यापन में है' यह शैक्षिक सिद्धान्त यहाँ पूर्ण रूप से मूर्त होता है। एक दृष्टि से वरिष्ठतम से कनिष्ठतम का अध्ययन अध्यापन एक साथ चलता है। अतः व्यावहारिक और शैक्षिक दोनों दृष्टियों से यह शिक्षा समग्रता में होती है। जीवन जितना समग्रता में है, उतनी ही समग्रता में यह शिक्षा व्यवस्था भी है। वर्तमान में भी देश में अनेक आवासीय विद्यालय चलते हैं । विश्वविद्यालयों में छात्रावासों का प्रावधान होता है। परन्तु ये छात्रावास केवल आवास और भोजन की सुविधा के लिये ही होते हैं। अध्ययन कार्य के साथ इनका कोई सम्बन्ध नहीं होता है। छात्रावास प्रमुखों को केवल व्यवस्था देखना होता है। कहीं कहीं पर छात्रावासों में प्रथा या संस्कार के अन्य कार्यक्रम होते हैं और अनुशासन के नियम भी होते हैं। तथापि अध्ययन के अन्तर्गत ये नहीं होते हैं। एक सीमित अर्थ में हम आवासीय विद्यालयों को गुरुकुल में परिवर्तित कर सकते हैं । यदि छात्रालय सहित का विद्यालय चौबीस घण्टे के विद्यालय में परिवर्तित कर दें और अध्ययन को दिनचर्या तथा जीवनचर्या का हिस्सा बनाकर निरन्तर शिक्षा की योजना बना दें तो गुरुकुल संकल्पना का कुछ अंश साकार हो सकता है । |
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− | सहभागिता करनी होती है । साफ सफाई के सारे काम,
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− | भिक्षा माँगकर लाना, गुरुकुल के निभाव के लिये यदि भूमि
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− | है और उसमें खेती होती है तो खेती का काम, गोपालन,
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− | भूमि की लिपाई, लकड़ी लाना, गुरु, गुरुपत्नी और अन्य
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− | वरिष्ठ जनों की सेवा शुश्रूषा आदि जितने भी कार्य हैं,
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− | बराबरी की हिस्सेदारी से हर छात्र को करना है। इस
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− | प्रकार व्यावहारिक और आर्थिक रूप से छात्र और गुरु
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− | अथवा आचार्य समान रूप से दायित्व निभाते हैं ।
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− | १७८
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− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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− | व्यावहारिक ही नहीं तो शैक्षिक दृष्टि से भी छात्र गुरु | |
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− | के दायित्व में सहभागी होते हैं । बड़े और अनुभवी या | |
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− | पुराने छात्र छोटे और नये छात्रों को सिखाते हैं । इस प्रकार | |
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− | अध्ययन अध्यापन की एक शृंखला बनती है । इसकी | |
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− | व्यावहारिक उपादेयता तो है ही, साथ ही शैक्षिक उपादेयता | |
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− | भी है । “अध्ययन की पूर्णता अध्यापन में है' यह शैक्षिक | |
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− | सिद्धान्त यहाँ पूर्ण रूप से मूर्त होता है । एक दृष्टि से | |
− | | |
− | वरिष्ठतम से कनिष्ठतम का अध्ययन अध्यापन एक साथ | |
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− | चलता है । अतः व्यावहारिक और शैक्षिक दोनों दृष्टियों से | |
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− | यह शिक्षा समग्रता में होती है । जीवन जितना समग्रता में | |
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− | है, उतनी ही समग्रता में यह शिक्षा व्यवस्था भी है । | |
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− | वर्तमान में भी देश में अनेक आवासीय विद्यालय | |
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− | चलते हैं । विश्वविद्यालयों में छात्रावासों का प्रावधान होता | |
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− | है। परन्तु ये छात्रावास केवल आवास और भोजन की | |
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− | सुविधा के लिये ही होते हैं । अध्ययन कार्य के साथ इनका | |
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− | कोई सम्बन्ध नहीं होता है । छात्रावास प्रमुखों को केवल | |
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− | व्यवस्था देखना होता है। कहीं कहीं पर छात्रावासों में | |
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− | प्रथा या संस्कार के अन्य कार्यक्रम होते हैं और | |
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− | अनुशासन के नियम भी होते हैं । फिर भी अध्ययन के | |
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− | अन्तर्गत ये नहीं होते हैं। एक सीमित अर्थ में हम | |
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− | आवासीय विद्यालयों को गुरुकुल में परिवर्तित कर सकते | |
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− | हैं । यदि छात्रालय सहित का विद्यालय चौबीस घण्टे के | |
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− | विद्यालय में परिवर्तित कर दें और अध्ययन को दिनचर्या | |
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− | तथा जीवनचर्या का हिस्सा बनाकर निरन्तर शिक्षा की | |
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− | योजना बना दें तो गुरुकुल संकल्पना का कुछ अंश साकार | |
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− | हो सकता है । | |
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| == कुलपति == | | == कुलपति == |
− | कुलपति गुरुकुल का अधिष्ठाता होता है। पूर्ण | + | कुलपति गुरुकुल का अधिष्ठाता होता है। पूर्ण गुरुकुल उसका होता है और उसके नियंत्रण में होता है । वह राजा अथवा अन्य किसी सत्ता ट्वारा नियुक्त नहीं होता है, न उसके अधीन होता है । साथ ही सम्पूर्ण गुरुकुल का सर्वप्रकार का दायित्व उसका होता है । जिस विद्याकेन्द्र में दस हजार छात्र अध्ययन करते हैं उसे ही गुरुकुल कहा जाता है और उसके अधिष्ठाता को कुलपति कहा जाता है । इन सब के आवास, भोजन, वस्त्र आदि की व्यवस्था करना कुलपति का दायित्व होता है। तथापि कुलपति केवल प्रबन्ध करने वाला नहीं होता । ज्ञान के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ आचार्य, ज्ञान के किसी न किसी क्षेत्र का या क्षेत्रों का प्रवर्तक ही कुलपति होता है । अर्थात् उसमें ज्ञानशक्ति, शासनशक्ति. और व्यवस्थाशक्ति का. समन्वय होना अपेक्षित है । |
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− | गुरुकुल उसका होता है और उसके नियंत्रण में होता है । | |
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− | वह राजा अथवा अन्य किसी सत्ता ट्वारा नियुक्त नहीं होता | |
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− | है, न उसके अधीन होता है । साथ ही सम्पूर्ण गुरुकुल का | |
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− | सर्वप्रकार का दायित्व उसका होता है । जिस विद्याकेन्द्र में | |
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− | दस हजार छात्र अध्ययन करते हैं उसे ही गुरुकुल कहा | |
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− | पर्व ४ : शिक्षक, विद्यार्थी एवं अध्ययन
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− | जाता है और उसके अधिष्ठाता को कुलपति कहा जाता | |
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− | है । इन सब के आवास, भोजन, वस्त्र आदि की व्यवस्था | |
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− | करना कुलपति का दायित्व होता है। फिर भी कुलपति | |
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− | केवल प्रबन्ध करने वाला नहीं होता । ज्ञान के क्षेत्र में | |
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− | सर्वश्रेष्ठ आचार्य, ज्ञान के किसी न किसी क्षेत्र का या क्षेत्रों | |
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− | का प्रवर्तक ही कुलपति होता है । अर्थात् उसमें ज्ञानशक्ति, | |
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− | शासनशक्ति. और व्यवस्थाशक्ति का. समन्वय होना | |
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− | अपेक्षित है ।
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− | वर्तमान में एक मात्र 'कुलपति' संज्ञा प्रचलन में है ।
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− | विश्वविद्यालयों के कुलपति होते हैं । परन्तु इनके अर्थ की
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− | व्याप्ति बहुत सीमित हो गई है। सर्वप्रथम तो यह
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− | विद्याकीय नहीं अपितु राजकीय नियुक्ति होती है । दूसरे
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− | वास्तविक कुलपति जिसे अब कुलाधिपति कहा जाता है,
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− | राज्य का राज्यपाल होता है। अतः कुलपति अब
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− | विश्वविद्यालय का अधिष्ठाता नहीं अपितु शासन करने वाली
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− | सर्वोच्च सत्ता के अधीन होता है। विश्वविद्यालय का
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− | आर्थिक दायित्व कुलपति का नहीं अपितु शासन का होता
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− | है। निजी विश्वविद्यालयों में भी कुलपति वेतन लेने वाला
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− | कर्मचारी होता है । ज्ञान के क्षेत्र में सम्पूर्ण विश्वविद्यालय
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− | का अधिष्ठाता होना उससे अपेक्षित नहीं है। उसका
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− | विश्वविद्यालय के साथ अपत्य जैसा स्नेह होना सम्भव नहीं
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− | होता है क्यों कि न वह विश्वविद्यालय की स्थापना करता
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− | है, न वह परंपरा से नियुक्त हुआ होता है । इसका प्रभाव
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− | स्वयं उसके ऊपर, छात्रों के ऊपर और समस्त ज्ञानविश्व के
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− | ऊपर होता है । सम्पूर्ण तंत्र व्यक्तिनिरपेक्ष बन जाता है ।
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− | कुलपति मौन भूमिका में रहता है और व्यवस्थातंत्र ही
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− | प्रमुख हो जाता है । इन सभी बिन्दुओं को ध्यान में लेने
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− | पर कह सकते हैं कि मूल “कुलपति संज्ञा वर्तमान
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− | “कुलपति संज्ञा से अत्यन्त भिन्न है। वास्तविकता तो
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− | यही है कि आकर्षक लगने के कारण हमने संज्ञायें तो
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− | प्राचीन पद्धति से ली हैं परंतु उनके तत्त्वार्थ और व्यवहारार्थ
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− | दोनों पूर्णरूप से बदल दिये हैं। इस कारण से मन और
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− | बुद्धि दोनों में संभ्रम पैदा होता है । हम कुछ आभासी विश्व
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− | में रहने लगते हैं ।
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− | निःशुल्क शिक्षा एवं स्वायत्तता
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− | गुरुकुल की शिक्षा पूर्णरूप से निःशुल्क होती थी ।
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− | इतना ही नहीं तो अध्ययन करने वालों का पूर्ण निर्वाह भी
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− | गुरुकुल की ओर से ही चलता था । गुरुकुल या तो
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− | स्वावलम्बी होते थे, या तो राजा, धनी व्यक्ति और पूरा
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− | समाज उसके निभाव की, निर्वहण की चिन्ता करता था या
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− | हो, गुरुकुल पूर्ण रूप से स्वायत्त होता था । अध्ययन और
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− | अध्यापन दोनों अर्थनिरपेक्ष होते थे। वर्तमान में
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− | विश्वविद्यालयों की शिक्षा निःशुल्क नहीं होती है । निजी
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− | विद्यालयों में तो शुल्क बहुत अधिक होता है, शासन द्वारा
| + | वर्तमान में एक मात्र 'कुलपति' संज्ञा प्रचलन में है । विश्वविद्यालयों के कुलपति होते हैं । परन्तु इनके अर्थ की व्याप्ति बहुत सीमित हो गई है। सर्वप्रथम तो यह विद्याकीय नहीं अपितु राजकीय नियुक्ति होती है । दूसरे वास्तविक कुलपति जिसे अब कुलाधिपति कहा जाता है, राज्य का राज्यपाल होता है। अतः कुलपति अब विश्वविद्यालय का अधिष्ठाता नहीं अपितु शासन करने वाली सर्वोच्च सत्ता के अधीन होता है। विश्वविद्यालय का आर्थिक दायित्व कुलपति का नहीं अपितु शासन का होता है। निजी विश्वविद्यालयों में भी कुलपति वेतन लेने वाला कर्मचारी होता है । ज्ञान के क्षेत्र में सम्पूर्ण विश्वविद्यालय का अधिष्ठाता होना उससे अपेक्षित नहीं है। उसका विश्वविद्यालय के साथ अपत्य जैसा स्नेह होना सम्भव नहीं होता है क्यों कि न वह विश्वविद्यालय की स्थापना करता है, न वह परंपरा से नियुक्त हुआ होता है । इसका प्रभाव स्वयं उसके ऊपर, छात्रों के ऊपर और समस्त ज्ञानविश्व के ऊपर होता है । सम्पूर्ण तंत्र व्यक्तिनिरपेक्ष बन जाता है । |
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− | संचालित संस्थाओं में अथवा अनुदानित संस्थाओं में शुल्क
| + | कुलपति मौन भूमिका में रहता है और व्यवस्थातंत्र ही प्रमुख हो जाता है । इन सभी बिन्दुओं को ध्यान में लेने पर कह सकते हैं कि मूल “कुलपति संज्ञा वर्तमान “कुलपति संज्ञा से अत्यन्त भिन्न है। वास्तविकता तो यही है कि आकर्षक लगने के कारण हमने संज्ञायें तो प्राचीन पद्धति से ली हैं परंतु उनके तत्त्वार्थ और व्यवहारार्थ दोनों पूर्णरूप से बदल दिये हैं। इस कारण से मन और बुद्धि दोनों में संभ्रम पैदा होता है । हम कुछ आभासी विश्व में रहने लगते हैं । |
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− | कम होता है । फिर भी शिक्षा निश्चित रूप से शुल्क के | + | == निःशुल्क शिक्षा एवं स्वायत्तता == |
− | | + | गुरुकुल की शिक्षा पूर्णरूप से निःशुल्क होती थी। इतना ही नहीं तो अध्ययन करने वालों का पूर्ण निर्वाह भी गुरुकुल की ओर से ही चलता था । गुरुकुल या तो स्वावलम्बी होते थे, या तो राजा, धनी व्यक्ति और पूरा समाज उसके निभाव की, निर्वहण की चिन्ता करता था या आवश्यक सहयोग देता था । सहायता कहीं से भी मिलती हो, गुरुकुल पूर्ण रूप से स्वायत्त होता था। अध्ययन और अध्यापन दोनों अर्थनिरपेक्ष होते थे। वर्तमान में विश्वविद्यालयों की शिक्षा निःशुल्क नहीं होती है । निजी विद्यालयों में तो शुल्क बहुत अधिक होता है, शासन द्वारा संचालित संस्थाओं में अथवा अनुदानित संस्थाओं में शुल्क कम होता है । तथापि शिक्षा निश्चित रूप से शुल्क के साथ जुड़ गई है। इसी प्रकार से विश्वविद्यालय शैक्षिक दृष्टि से काफी कुछ मात्रा में स्वायत्त होते हैं परन्तु प्रशासन की दृष्टि से राज्य के अधीन ही होते हैं । अर्थात् स्वायत्तता की संकल्पना भी बहुत सीमित कर दी गई है । |
− | साथ जुड़ गई है । इसी प्रकार से विश्वविद्यालय शैक्षिक दृष्टि | |
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− | से काफी कुछ मात्रा में स्वायत्त होते हैं परन्तु प्रशासन की | |
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− | दृष्टि से राज्य के अधीन ही होते हैं । अर्थात् स्वायत्तता की | |
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− | संकल्पना भी बहुत सीमित कर दी गई है । | |
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| == गुरुकुल व्यवस्था के लाभ == | | == गुरुकुल व्यवस्था के लाभ == |
− | गुरुकुल व्यवस्था ज्ञानार्जन, ज्ञानपरम्परा और ज्ञान | + | गुरुकुल व्यवस्था ज्ञानार्जन, ज्ञानपरम्परा और ज्ञान की सर्वोपरिता की दृष्टि से अत्यन्त श्रेष्ठ व्यवस्था है इसमें कोई संदेह नहीं है । गुरुकुल शिक्षापद्धति में अध्ययन का कार्य सम्पूर्ण जीवनचर्या के साथ समरस रहता है और इसलिये वह सम्पूर्ण जीवन को आलोकित करता है। ऐसा होने के कारण से छात्र बारह वर्ष में आज की तुलना में बहुत अधिक और बहुत गहरा ज्ञान अर्जित करता था तथा उसका सम्पूर्ण जीवन उसी अर्जित ज्ञान के प्रकाश में ही चलता था । गुरुकुल में अर्जित ज्ञान विचार, भावना और क्रिया इन तीनों पक्षों में समृद्ध होता था । कुल मिलाकर ज्ञान संस्कारयुक्त होता था और छात्रों को समाजपरायण बनाता था । इन गुरुकुलों के कारण सम्पूर्ण समाज में सुख, समृद्धि, संस्कारिता, शान्ति एवं शास्त्रपरायणता आती थी । |
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− | की सर्वोपरिता की दृष्टि से अत्यन्त श्रेष्ठ व्यवस्था है इसमें | |
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− | alg Gres नहीं है । गुरुकुल शिक्षापद्धति में अध्ययन का
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− | कार्य सम्पूर्ण जीवनचर्या के साथ समरस रहता है और | |
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− | इसलिये वह सम्पूर्ण जीवन को आलोकित करता है। | |
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− | ऐसा होने के कारण से छात्र बारह वर्ष में आज की तुलना | |
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− | में बहुत अधिक और बहुत गहरा ज्ञान अर्जित करता था | |
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− | तथा उसका सम्पूर्ण जीवन उसी अर्जित ज्ञान के प्रकाश में | |
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− | ही चलता था । गुरुकुल में अर्जित ज्ञान विचार, भावना | |
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− | और क्रिया इन तीनों पक्षों में समृद्ध होता था । कुल | |
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− | मिलाकर ज्ञान संस्कारयुक्त होता था और छात्रों को | |
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− | समाजपरायण बनाता था । इन गुरुकुलों के कारण सम्पूर्ण | |
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− | समाज में ga, समृद्धि, dear, शान्ति एवं | |
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− | शाख्रपरायणता आती थी ।
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| == वर्तमान में हम क्या करें == | | == वर्तमान में हम क्या करें == |
− | गुरुकुल व्यवस्था सर्व दृष्टि से लाभकारी तो है परन्तु | + | गुरुकुल व्यवस्था सर्व दृष्टि से लाभकारी तो है परन्तु आज उसे यथावत लागू करना, हमें असम्भव लगता है। तथापि ज्ञान को सार्थक बनाना है, अध्ययन अध्यापन को मजदूरी बनने से बचाना है, शिक्षा को राष्ट्रनिर्माण का सर्वश्रेष्ठ साधन बनाना है तो हमें गुरुकुल रचना को पुनर्जीवित और पुनर्प्रतिष्ठित करना होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है । ऐसा यदि करना है तो हमें नये सिरे से कुछ इस प्रकार से योजना करनी होगी: |
− | | + | # सर्व प्रथम अपने समाज में कुलपति बनने की वृत्ति और प्रवृत्ति रखने वाले लोगोंं को गुरुकुलों की स्थापना करने हेतु आगे आना पड़ेगा । ऐसे लोग हमारे मध्य में से आगे आयें ऐसा वातावरण बनाना पड़ेगा । समाज की ज्ञान और संस्कार की आकांक्षा जागय्रत करना यह प्रथम कार्य है । |
− | आज उसे यथावत लागू करना, हमें असम्भव लगता है। | + | # इन कुलपतियों को ऐसे गुरुकुलों की स्थापना करनी पड़ेगी । गुरुकुल शिक्षा के सभी सिद्धान्त इनमें व्यवहृत होते हों ऐसा करना पड़ेगा । |
− | | + | # कई संस्थाओं और संगठनों को इन गुरुकुलों के लिए रक्षात्मक और पौषक वातावरण निर्माण करना पड़ेगा । समाज को अपने छात्रों के लिये ऐसे गुरुकुलों का चयन करने हेतु प्रेरित करना होगा । |
− | फिर भी ज्ञान को सार्थक बनाना है, अध्ययन अध्यापन को
| + | # समाज के शत प्रतिशत छात्रों के लिये गुरुकुल की रचना तत्काल सम्भव नहीं होगी यह वास्तविकता है। परन्तु प्रारम्भ ५ से १० प्रतिशत छात्रों के लिये हो तो भी पर्याप्त मानना चाहिये । इतने मात्र से समाज पर बहुत बड़ा प्रभाव दिखाई देगा । |
− | | + | # हम चाहें तो देशभर में जो विश्वविद्यालय चल रहे हैं उनमें से प्रत्येक राज्य में एक विश्वविद्यालय को गुरुकुल में परिवर्तित कर सकते हैं। परन्तु ऐसा करने के लिये भी पाँच दस वर्ष की पूर्व तैयारी आवश्यक रहेगी । |
− | मजदूरी बनने से बचाना है, शिक्षा को राष्ट्रनिर्माण का | + | # देशभर में जो आवासीय विद्यालय हैं उन्हें शैक्षिक दृष्टि से गुरुकुल में परिवर्तित करना अत्यन्त लाभकारी रहेगा । धीरे धीरे करके इन आवासीय विद्यालयों को पूर्ण रूप से उनके अधीक्षकों के अधीन कर दिया जाय, सक्षम अधीक्षक को कुलपति बना दिया जाय । |
− | | + | # निःशुल्क शिक्षा के प्रयोग तो स्थान स्थान पर चल सकते हैं । हमारे समाज में अभी भी विद्या को पवित्र मानने के और पवित्र पदार्थ को क्रय विक्रय से परे रखने के संस्कार अन्तस्तल में जीवित हैं । उन्हें जाग्रत किया जा सकता है । |
− | सर्वश्रेष्ठ साधन बनाना है तो हमें गुरुकुल wa a | + | # गुरुकुलों के लिये शासन मान्यता की आवश्यकता को समाप्त कर देना चाहिये । शासन को भी ऐसी स्थिति निर्माण करने में सहयोग करना चाहिये । शासन को इन संस्थाओं का सम्मान करना चाहिये । |
− | | + | # भौतिक आवश्यकताओं की न्यूनता, विनय, सेवा, संयम, स्वावलंबन, श्रम, स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य आदि की आवश्यकता और स्वीकार्यता को बढ़ावा देना चाहिये । ये ज्ञानार्जन के आधारभूत तत्त्व हैं । |
− | पुनर्जीवित और पुनर्प्रतिष्ठित करना होगा, इसमें कोई संदेह | + | # क्रमशः सभी विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में स्वायत्तता, शिक्षकाधीनता, स्वावलम्बन, श्रमनिष्ठा, उद्योग परायणता, ज्ञाननिष्ठा, जीवननिष्ठा, समाजनिष्ठा को प्रस्थापित करना चाहिये । इस दृष्टि से समाज हितैषियों और शिक्षण चिन्तकों ने गुरुकुल संकल्पना के मूल तत्त्वों को स्पष्ट करते हुए समाज प्रबोधन करना चाहिये । यदि हम तय करते हैं तो आने वाले पचीस पचास वर्षों में गुरुकुल प्रणाली को पुनर्जीवित और पुनर्प्रतिष्ठित किया जा सकता है । |
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− | नहीं है । ऐसा यदि करना है तो हमें नये सिरे से कुछ इस | |
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− | प्रकार से योजना करनी होगी - | |
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− | श्,
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− | सर्व प्रथम अपने समाज में कुलपति बनने की वृत्ति | |
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− | और प्रवृत्ति रखने वाले लोगों को गुरुकुलों की | |
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− | स्थापना करने हेतु आगे आना पड़ेगा । ऐसे लोग | |
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− | हमारे बीच में से आगे आयें ऐसा वातावरण बनाना | |
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− | पडेगा । समाज की ज्ञान और संस्कार की आकांक्षा
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− | जागय्रत करना यह प्रथम कार्य है । | |
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− | इन कुलपतियों को ऐसे गुरुकुलों की स्थापना करनी | |
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− | पड़ेगी । गुरुकुल शिक्षा के सभी सिद्धान्त इनमें | |
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− | व्यवह्हत होते हों ऐसा करना पड़ेगा ।
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− | कई संस्थाओं और संगठनों को इन गुरुकुलों के | |
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− | लिए रक्षात्मक और पौषक वातावरण निर्माण करना | |
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− | पड़ेगा । समाज को अपने छात्रों के लिये ऐसे | |
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− | गुरुकुलों का चयन करने हेतु प्रेरित करना होगा । | |
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− | समाज के शत प्रतिशत छात्रों के लिये गुरुकुल की | |
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− | रचना तत्काल सम्भव नहीं होगी यह वास्तविकता | |
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− | है। परन्तु प्रारम्भ ५ से १० प्रतिशत छात्रों के लिये | |
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− | हो तो भी पर्याप्त मानना चाहिये । इतने मात्र से | |
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− | समाज पर बहुत बड़ा प्रभाव दिखाई देगा । | |
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− | हम चाहें तो देशभर में जो विश्वविद्यालय चल रहे हैं | |
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− | उनमें से प्रत्येक राज्य में एक विश्वविद्यालय को | |
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− | गुरुकुल में परिवर्तित कर सकते हैं। परन्तु ऐसा | |
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− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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− | करने के लिये भी पाँच दस वर्ष की पूर्वतैयारी | |
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− | आवश्यक रहेगी । | |
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− | देशभर में जो आवासीय विद्यालय हैं उन्हें शैक्षिक | |
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− | दृष्टि से गुरुकुल में परिवर्तित करना अत्यन्त | |
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− | लाभकारी रहेगा । धीरे धीरे करके इन आवासीय | |
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− | विद्यालयों को पूर्ण रूप से उनके अधीक्षकों के | |
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− | अधीन कर दिया जाय, सक्षम अधीक्षक को कुलपति | |
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− | बना दिया जाय । | |
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− | निःशुल्क शिक्षा के प्रयोग तो स्थान स्थान पर चल | |
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− | सकते हैं । हमारे समाज में अभी भी विद्या को | |
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− | पतित्र मानने के और पवित्र पदार्थ को क्रय विक्रय
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− | से परे रखने के संस्कार अन्तस्तल में जीवित हैं । | |
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− | उन्हें जाग्रत किया जा सकता है । | |
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− | गुरुकुलों के लिये शासन मान्यता की आवश्यकता | |
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− | को समाप्त कर देना चाहिये । शासन को भी ऐसी | |
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− | स्थिति निर्माण करने में सहयोग करना चाहिये । | |
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− | शासन ने इन संस्थाओं का सम्मान करना चाहिये । | |
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− | भौतिक आवश्यकताओं की न्यूनता, विनय, सेवा, | |
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− | संयम, स्वावलंबन, श्रम, स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य आदि | |
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− | की आवश्यकता और स्वीकार्यता को बढ़ावा देना | |
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− | चाहिये । ये ज्ञानार्जन के आधारभूत तत्त्व हैं । | |
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− | .. क्रमशः सभी विद्यालयों wa महाविद्यालयों में
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− | स्वायत्तता, शिक्षकाधीनता, स्वावलम्बन, श्रमनिष्ठा, | |
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− | उद्योग परायणता, ज्ञाननिष्ठा, जीवननिष्ठा, समाजनिष्ठा | |
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− | को प्रस्थापित करना चाहिये । इस दृष्टि से समाज | |
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− | हितैषियों और शिक्षण चिन्तकों ने गुरुकुल संकल्पना | |
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− | के मूल तत्त्वों को स्पष्ट करते हुए समाज प्रबोधन | |
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− | करना चाहिये । | |
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− | यदि हम तय करते हैं तो आने वाले पचीस पचास | |
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− | वर्षों में गुरुकुल प्रणाली को पुनर्जीवित और पुनर्प्रतिष्ठित | |
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− | किया जा सकता है । | |
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| ==References== | | ==References== |