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# बस्ते में इन सभी वस्तुओं के कारण बोझ बढ़ना तो स्वाभाविक है । बोझ बढ़ने का दूसरा कारण यह बताया जाता है कि प्रतिदिन सभी विषयों की कॉपी-किताबें ले जानी पड़ती हैं, क्योंकि समय सारिणी के अनुसार अध्यापन नहीं होता।  
 
# बस्ते में इन सभी वस्तुओं के कारण बोझ बढ़ना तो स्वाभाविक है । बोझ बढ़ने का दूसरा कारण यह बताया जाता है कि प्रतिदिन सभी विषयों की कॉपी-किताबें ले जानी पड़ती हैं, क्योंकि समय सारिणी के अनुसार अध्यापन नहीं होता।  
 
# बस्तों की कीमतें भी ७०० से १००० रुपये तक होती हैं। जो बस्ते में रखी हुई कॉपी किताबों से भी अधिक होती है। कुल मिलाकर बस्ते बहुत अधिक खर्चीले हो गये हैं; जो वास्तव में अनावश्यक खर्च है।
 
# बस्तों की कीमतें भी ७०० से १००० रुपये तक होती हैं। जो बस्ते में रखी हुई कॉपी किताबों से भी अधिक होती है। कुल मिलाकर बस्ते बहुत अधिक खर्चीले हो गये हैं; जो वास्तव में अनावश्यक खर्च है।
फिर भी प्रतिवर्ष नया बस्ता चाहिए, नई कक्षा, नया बस्ता की माँग बनी ही रहती है । एक शिक्षक ने यह सुझाव अवश्य दिया है कि यदि बस्ता घर पर ही सिलाया जाय तो बहुत सस्ता पड़ सकता है ।
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तथापि प्रतिवर्ष नया बस्ता चाहिए, नई कक्षा, नया बस्ता की माँग बनी ही रहती है । एक शिक्षक ने यह सुझाव अवश्य दिया है कि यदि बस्ता घर पर ही सिलाया जाय तो बहुत सस्ता पड़ सकता है ।
    
बस्ते का बोझ कम करने के उपायों में ये सुझाव आये - १. समय सारिणी के अनुसार किताबें-कॉपियाँ ले जाना। २. संगणक, टेब आदि इलेक्ट्रोनिक साधनों का उपयोग । ३. स्लेट-पेंसिल, कृष्णफलक का अधिकाधिक मात्रा में उपयोग । कुल मिलाकर कहें तो शिक्षा माने भारी बस्ता, यह गृहीत आज सर्वसामान्य है। इसके कारण इतना बोझ अच्छा नहीं है, यह समझते हुए भी, व्यवहार में यही चल रहा है।
 
बस्ते का बोझ कम करने के उपायों में ये सुझाव आये - १. समय सारिणी के अनुसार किताबें-कॉपियाँ ले जाना। २. संगणक, टेब आदि इलेक्ट्रोनिक साधनों का उपयोग । ३. स्लेट-पेंसिल, कृष्णफलक का अधिकाधिक मात्रा में उपयोग । कुल मिलाकर कहें तो शिक्षा माने भारी बस्ता, यह गृहीत आज सर्वसामान्य है। इसके कारण इतना बोझ अच्छा नहीं है, यह समझते हुए भी, व्यवहार में यही चल रहा है।
    
==== अभिमत : ====
 
==== अभिमत : ====
शिक्षा के बारे में जो चित्र-विचित्र धारणायें मन में बैठ गई हैं उनका ही परिपाक उत्तरो में दिखाई देता है। साध्य-साधन विवेक न होने के कारण साधन को श्रेष्ठ मानने का अविवेकी व्यवहार सर्वत्र दिखाई देता है । विद्या के बारे में एक सुभाषित में कहा गया है - 'न चौर्यहारं न च भारकारी' फिर भी बस्तों का महत्व आज अकारण बढ़ गया है। के. जी. कक्षा से ही बालक ज्ञानवाही (ज्ञान को वहन करने वाला) न होकर भारवाही बन गया है। शालेय वस्तुओं का व्यवसाय होने के कारण आकर्षक छूट, कमीशन, रंग-रूप में नवीनता एवं विविधता ये सब अभिभावकों पर भारी पड़ रहे हैं, ऐसा लगता है।
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शिक्षा के बारे में जो चित्र-विचित्र धारणायें मन में बैठ गई हैं उनका ही परिपाक उत्तरो में दिखाई देता है। साध्य-साधन विवेक न होने के कारण साधन को श्रेष्ठ मानने का अविवेकी व्यवहार सर्वत्र दिखाई देता है । विद्या के बारे में एक सुभाषित में कहा गया है - 'न चौर्यहारं न च भारकारी' तथापि बस्तों का महत्व आज अकारण बढ़ गया है। के. जी. कक्षा से ही बालक ज्ञानवाही (ज्ञान को वहन करने वाला) न होकर भारवाही बन गया है। शालेय वस्तुओं का व्यवसाय होने के कारण आकर्षक छूट, कमीशन, रंग-रूप में नवीनता एवं विविधता ये सब अभिभावकों पर भारी पड़ रहे हैं, ऐसा लगता है।
    
शिशु वाटिका में डिब्बे के लिए थैली पर्याप्त होती है। और प्राथमिक कक्षाओं में स्लेट पेंसिल एवं एक दो किताब कॉपी बहुत होती हैं। आज भारी बस्ता उठाना कठिन है, अतः बस, रिक्शा, दादा-दादी या नौकर चाहिए । छात्रों के मन में बस्ते के प्रति आदर व पवित्रता का भाव न होने के कारण वे उसे मालगाड़ी के सामान की तरह फेंक देते हैं। बस्ते के पाँव लग जाने पर सौरी शब्द बोलकर उसका परिमार्जन कर लेते हैं । बस्ते का बोझ कम करने के लिए एक विद्यालय ने अच्छा उपक्रम किया। प्रत्येक छात्र ने अपनी वार्षिक परीक्षाएँ पूर्ण होने के बाद अपनी सारी पुस्तकों की मरम्मत की, उन पर कवर चढ़ाया और पूरा संच विद्यालय में जमा करवा दिया । अगले वर्ष नई पुस्तकें खरीदकर उन्हें घर पर ही अध्ययन के लिए रखा। और विद्यालय में पूर्व छात्रों द्वारा जमा की हुई पुस्तकें उपयोग में ली। इस उपक्रम से पूरे विद्यालय के सभी बालकों के बस्तों में से पुस्तकों का बोझ दूर हो गया ।
 
शिशु वाटिका में डिब्बे के लिए थैली पर्याप्त होती है। और प्राथमिक कक्षाओं में स्लेट पेंसिल एवं एक दो किताब कॉपी बहुत होती हैं। आज भारी बस्ता उठाना कठिन है, अतः बस, रिक्शा, दादा-दादी या नौकर चाहिए । छात्रों के मन में बस्ते के प्रति आदर व पवित्रता का भाव न होने के कारण वे उसे मालगाड़ी के सामान की तरह फेंक देते हैं। बस्ते के पाँव लग जाने पर सौरी शब्द बोलकर उसका परिमार्जन कर लेते हैं । बस्ते का बोझ कम करने के लिए एक विद्यालय ने अच्छा उपक्रम किया। प्रत्येक छात्र ने अपनी वार्षिक परीक्षाएँ पूर्ण होने के बाद अपनी सारी पुस्तकों की मरम्मत की, उन पर कवर चढ़ाया और पूरा संच विद्यालय में जमा करवा दिया । अगले वर्ष नई पुस्तकें खरीदकर उन्हें घर पर ही अध्ययन के लिए रखा। और विद्यालय में पूर्व छात्रों द्वारा जमा की हुई पुस्तकें उपयोग में ली। इस उपक्रम से पूरे विद्यालय के सभी बालकों के बस्तों में से पुस्तकों का बोझ दूर हो गया ।
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प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में ही बस्ते के बोझ की समस्या है। जैसे ही विद्यार्थी महाविद्यालय में आते हैं, उन्हें बस्ते की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। प्रगत अध्ययन करने वाले अनेक विद्यार्थी छात्रावास में रहते हैं। उन्हें बस्ता उठाना नहीं पड़ता। अधिकांश विद्यार्थी ऐसे हैं जो कम से कम पुस्तकें और लेखन सामग्री लेकर महाविद्यालय में जाते हैं। हाँ, इधर टेबलेट या लेपटॉप ले जाने लगे हैं ।
 
प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में ही बस्ते के बोझ की समस्या है। जैसे ही विद्यार्थी महाविद्यालय में आते हैं, उन्हें बस्ते की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। प्रगत अध्ययन करने वाले अनेक विद्यार्थी छात्रावास में रहते हैं। उन्हें बस्ता उठाना नहीं पड़ता। अधिकांश विद्यार्थी ऐसे हैं जो कम से कम पुस्तकें और लेखन सामग्री लेकर महाविद्यालय में जाते हैं। हाँ, इधर टेबलेट या लेपटॉप ले जाने लगे हैं ।
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प्राथमिक विद्यालय के विद्यार्थी तो अपना बस्ता उठा भी नहीं सकते, ऐसा भारी होता है । इसके उपाय के रूप में लोग क्या करते हैं ? बच्चों की मातायें बस्ता उठाकर वाहन तक छोड़ने के लिये जाती हैं। कई विद्यालयों में बस्ता रखने की व्यवस्था की जाती है । वहाँ पुस्तकों और लेखन सामग्री के दो संच रखे जाते हैं । एक विद्यालय के लिये और दूसरा घर के लिये । इसमें सुविधा होती है, परन्तु खर्च बढ़ता है । आश्चर्य इस बात का है कि आवासीय विद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थी भी अपना पूरा बस्ता लेकर विद्यालय जाते हैं ।
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प्राथमिक विद्यालय के विद्यार्थी तो अपना बस्ता उठा भी नहीं सकते, ऐसा भारी होता है । इसके उपाय के रूप में लोग क्या करते हैं ? बच्चोंं की मातायें बस्ता उठाकर वाहन तक छोड़ने के लिये जाती हैं। कई विद्यालयों में बस्ता रखने की व्यवस्था की जाती है । वहाँ पुस्तकों और लेखन सामग्री के दो संच रखे जाते हैं । एक विद्यालय के लिये और दूसरा घर के लिये । इसमें सुविधा होती है, परन्तु खर्च बढ़ता है । आश्चर्य इस बात का है कि आवासीय विद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थी भी अपना पूरा बस्ता लेकर विद्यालय जाते हैं ।
    
==== बस्ते के सम्बन्ध में विचारणीय बातें ====
 
==== बस्ते के सम्बन्ध में विचारणीय बातें ====
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# आचार्य स्वयं के स्वाध्याय के लिये कौन कौन सी सामग्री का उपयोग कर सकता है ?
 
# आचार्य स्वयं के स्वाध्याय के लिये कौन कौन सी सामग्री का उपयोग कर सकता है ?
 
# आवश्यक साधनसामग्री के स्रोत कितने प्रकार के होते हैं ?
 
# आवश्यक साधनसामग्री के स्रोत कितने प्रकार के होते हैं ?
# साधनसामग्री निर्माण करने में किन किन लोगों का सहयोग प्राप्त हो सकता है ? कैसे ?
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# साधनसामग्री निर्माण करने में किन किन लोगोंं का सहयोग प्राप्त हो सकता है ? कैसे ?
 
विद्यालय में प्रयुक्त साधन-सामग्री छात्र एवं आचार्य दोनों के लिए ही उपयोगी होती है, अतः यह प्रश्नावली थोडी बड़ी बनी है ।
 
विद्यालय में प्रयुक्त साधन-सामग्री छात्र एवं आचार्य दोनों के लिए ही उपयोगी होती है, अतः यह प्रश्नावली थोडी बड़ी बनी है ।
    
== छात्रों के लिए साधन सामग्री : प्राप्त उत्तर ==
 
== छात्रों के लिए साधन सामग्री : प्राप्त उत्तर ==
विद्यार्थियों की शिक्षण प्रक्रिया को अधिक सुलभ एवं सुस्पष्ट बनाने के लिए जो सामग्री उपयोग में ली जाती है उसे साधन-सामग्री कहते हैं ऐसी व्याख्या सबने की है । पैन पेंसिल, कॉपी, रजिस्टर, कम्पास, किताबें, एटलस, शब्दकोष आदि । इसी प्रकार यांत्रिक उपकरणों में संगणक, लेपटोप, टेब, केल्क्यूलेटर, ऑडियो-विडिओ सीडीज आदि सभी उपकरण साधन सामग्री के अन्तर्गत ही आते हैं । कौनसी आयु में कौनसी सामग्री उपयुक्त है और कौनसी हानिकारक है इसका विवेक करना आना चाहिए । दृष्टि कमजोर है तो ऐनक आवश्यक हो जाती है, लेकिन दृष्टि बिल्कुल ठीक है फिर भी केवल फैशन के लिए ऐनक पहना जायेगा तो निश्चित है कि यह हानि पहुँचायेगा । अतः स्तर के अनुसार साधनों का वर्गीकरण करना चाहिए :
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विद्यार्थियों की शिक्षण प्रक्रिया को अधिक सुलभ एवं सुस्पष्ट बनाने के लिए जो सामग्री उपयोग में ली जाती है उसे साधन-सामग्री कहते हैं ऐसी व्याख्या सबने की है । पैन पेंसिल, कॉपी, रजिस्टर, कम्पास, किताबें, एटलस, शब्दकोष आदि । इसी प्रकार यांत्रिक उपकरणों में संगणक, लेपटोप, टेब, केल्क्यूलेटर, ऑडियो-विडिओ सीडीज आदि सभी उपकरण साधन सामग्री के अन्तर्गत ही आते हैं । कौनसी आयु में कौनसी सामग्री उपयुक्त है और कौनसी हानिकारक है इसका विवेक करना आना चाहिए । दृष्टि कमजोर है तो ऐनक आवश्यक हो जाती है, लेकिन दृष्टि बिल्कुल ठीक है तथापि केवल फैशन के लिए ऐनक पहना जायेगा तो निश्चित है कि यह हानि पहुँचायेगा । अतः स्तर के अनुसार साधनों का वर्गीकरण करना चाहिए :
    
==== अभिमत : ====
 
==== अभिमत : ====
धार्मिक शिक्षा पद्धति की विस्मृति के कारण प्राथमिक विद्यालयों में स्लेट पेंसिल को छोड़कर अन्य साधन-सामग्री की आवश्यकता नहीं पड़ती यह बात हमें समझ में ही नहीं आती । इसके विपरीत विद्यालय में क्या पढ़ाया और घर पर क्या गृहकार्य किया इसकी ओर ही सारा ध्यान रहता है। अतः शिशुवाटिका से ही कॉपी- किताबों का बोझ बच्चों को सहना पड़ता है । वास्तव में अभिभावक और शिक्षक के परस्पर विश्वास और सहयोग से ही बालक की शिक्षा एवं विकास संभव होता है । स्लेट का उपयोग करके पर्यावरण की अपरिमित हानि हम रोक सकते हैं । 'शिक्षक' रूपी चेतनायुक्त मार्गदर्शक होते हुए भी विषयों की गाइडबुक उपयोग में लानी पड़े यह विपरीत विचार ही है । माध्यमिक विद्यालयों में ओडियो-वीडियों सीडीज़ कुछ मात्रा में उपयोगी होते हैं। परन्तु उसमें ज्ञानार्जन का प्रमाण कम और मनोरंजन का प्रमाण अधिक होता है । संगणक, केलक्युलेटर आदि उच्च शिक्षा में उपयोगी हो सकते हैं, अन्यत्र हानिकारक ही होते हैं । विवेक जाग्रत होने से पहले इन साधनों का उपयोग करने से विकास नहीं विनाश की ही अधिक सम्भावना है।
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धार्मिक शिक्षा पद्धति की विस्मृति के कारण प्राथमिक विद्यालयों में स्लेट पेंसिल को छोड़कर अन्य साधन-सामग्री की आवश्यकता नहीं पड़ती यह बात हमें समझ में ही नहीं आती । इसके विपरीत विद्यालय में क्या पढ़ाया और घर पर क्या गृहकार्य किया इसकी ओर ही सारा ध्यान रहता है। अतः शिशुवाटिका से ही कॉपी- किताबों का बोझ बच्चोंं को सहना पड़ता है । वास्तव में अभिभावक और शिक्षक के परस्पर विश्वास और सहयोग से ही बालक की शिक्षा एवं विकास संभव होता है । स्लेट का उपयोग करके पर्यावरण की अपरिमित हानि हम रोक सकते हैं । 'शिक्षक' रूपी चेतनायुक्त मार्गदर्शक होते हुए भी विषयों की गाइडबुक उपयोग में लानी पड़े यह विपरीत विचार ही है । माध्यमिक विद्यालयों में ओडियो-वीडियों सीडीज़ कुछ मात्रा में उपयोगी होते हैं। परन्तु उसमें ज्ञानार्जन का प्रमाण कम और मनोरंजन का प्रमाण अधिक होता है । संगणक, केलक्युलेटर आदि उच्च शिक्षा में उपयोगी हो सकते हैं, अन्यत्र हानिकारक ही होते हैं । विवेक जाग्रत होने से पहले इन साधनों का उपयोग करने से विकास नहीं विनाश की ही अधिक सम्भावना है।
    
इसका अर्थ यह नहीं है कि धार्मिक शिक्षा पद्धति में शैक्षिक साधन-सामग्री के लिए कोई स्थान ही नहीं है । स्थान है, परन्तु वह विषय सापेक्ष है । यथा संगीत सीखना है तो तानपुरा, हार्मानियम, तबला आवश्यक है । जबकि निरर्थक साधन-सामग्री का उपयोग वर्जित है। होना तो यह चाहिए कि ईश्वर प्रदत्त साधन ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों  का विकास करें, उन्हें सक्षम बनायें और उपकरणों का उपयोग कम से कम करें । यही श्रेष्ठ धार्मिक विचार है । महँगे साधनों का उपयोग करके ही हमने शिक्षा को महँगी बना दी है । विद्यालय आरम्भ होने से पहले ही कॉपी-किताब, बस्ता, गणवेश आदि साधन-सामग्री का व्यवसाय आरम्भ हो जाता है और लाखों रूपयों का व्यवहार होता है। कुछ भी हो यह अनुभव सिद्ध है कि साधन-सामग्री कभी भी शिक्षक का विकल्प नहीं बन सकती ।
 
इसका अर्थ यह नहीं है कि धार्मिक शिक्षा पद्धति में शैक्षिक साधन-सामग्री के लिए कोई स्थान ही नहीं है । स्थान है, परन्तु वह विषय सापेक्ष है । यथा संगीत सीखना है तो तानपुरा, हार्मानियम, तबला आवश्यक है । जबकि निरर्थक साधन-सामग्री का उपयोग वर्जित है। होना तो यह चाहिए कि ईश्वर प्रदत्त साधन ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों  का विकास करें, उन्हें सक्षम बनायें और उपकरणों का उपयोग कम से कम करें । यही श्रेष्ठ धार्मिक विचार है । महँगे साधनों का उपयोग करके ही हमने शिक्षा को महँगी बना दी है । विद्यालय आरम्भ होने से पहले ही कॉपी-किताब, बस्ता, गणवेश आदि साधन-सामग्री का व्यवसाय आरम्भ हो जाता है और लाखों रूपयों का व्यवहार होता है। कुछ भी हो यह अनुभव सिद्ध है कि साधन-सामग्री कभी भी शिक्षक का विकल्प नहीं बन सकती ।
    
==== शिक्षक द्वारा प्रयुक्त साधन-सामग्री : प्राप्त उत्तर ====
 
==== शिक्षक द्वारा प्रयुक्त साधन-सामग्री : प्राप्त उत्तर ====
विषय वस्तु का अध्यापन सरल एवं सुस्पष्ट हो, अतः साधन-सामग्री का प्रयोग किया जाता है । इसमें प्रयोगशाला के उपकरण, भूगोल के मानचित्र, ग्लोब, कृष्णफलक, डस्टर व चॉक आदि सामग्री शिक्षक के लिए उपयोगी होती है यह सबका मानना है । आजकल सरकार विद्यालयों में विज्ञान पेटी, गणित पेटी आदि निःशुल्क देते है । परन्तु इनका यथायोग्य उपयोग नहीं होता । तालाबन्द पड़ी रहती है और खराब हो जाती है । ऐसे अनेक लोगों के अनुभव हैं । छात्रों की सहायता से चार्ट्स-मॉडल्स आदि बनवाये जाते हैं। परिसर में प्राप्त प्राकृतिक वस्तुएँ भी एक कल्पक शिक्षक उपयोग में ले लेता है ।
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विषय वस्तु का अध्यापन सरल एवं सुस्पष्ट हो, अतः साधन-सामग्री का प्रयोग किया जाता है । इसमें प्रयोगशाला के उपकरण, भूगोल के मानचित्र, ग्लोब, कृष्णफलक, डस्टर व चॉक आदि सामग्री शिक्षक के लिए उपयोगी होती है यह सबका मानना है । आजकल सरकार विद्यालयों में विज्ञान पेटी, गणित पेटी आदि निःशुल्क देते है । परन्तु इनका यथायोग्य उपयोग नहीं होता । तालाबन्द पड़ी रहती है और खराब हो जाती है । ऐसे अनेक लोगोंं के अनुभव हैं । छात्रों की सहायता से चार्ट्स-मॉडल्स आदि बनवाये जाते हैं। परिसर में प्राप्त प्राकृतिक वस्तुएँ भी एक कल्पक शिक्षक उपयोग में ले लेता है ।
    
आजकल ऐसा माना जाने लगा है कि जो शिक्षक जितनी अधिक साधन-सामग्री उपयोग में लाता है, वह उतना ही अच्छा अध्यापक होता है । अतः भी इन सामग्रियों का व्यापार बढ़ता जा रहा है । शिक्षा का बजट खर्च करने हेतु लाखों रुपयों का धन्धा हो रहा है । बहुत बार वह सामग्री अनावश्यक होती है या ऐसी बेकार होती है कि काम में ली नहीं जा सकती । इस प्रकार सरकारी धन का दुरुपयोग होता है ।
 
आजकल ऐसा माना जाने लगा है कि जो शिक्षक जितनी अधिक साधन-सामग्री उपयोग में लाता है, वह उतना ही अच्छा अध्यापक होता है । अतः भी इन सामग्रियों का व्यापार बढ़ता जा रहा है । शिक्षा का बजट खर्च करने हेतु लाखों रुपयों का धन्धा हो रहा है । बहुत बार वह सामग्री अनावश्यक होती है या ऐसी बेकार होती है कि काम में ली नहीं जा सकती । इस प्रकार सरकारी धन का दुरुपयोग होता है ।
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==== विमर्श ====
 
==== विमर्श ====
शिशु से लेकर युवा तक के विद्यार्थी क्या क्या लेकर विद्यालय में जाते हैं इसकी सूची बनायेंगे तो आश्चर्यचकित रह जायेंगे । यह सूची भी केवल शैक्षिक सामग्री की ही बनाने की बात है । विद्यालय में शैक्षिक सामग्री के अलावा भी बहुत कुछ ले जाया जाता है, यह होना तो चाहिये अस्वाभाविक परन्तु वैसा लगता नहीं है। फिर भी हम अभी उसकी बात नहीं करेंगे ।
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शिशु से लेकर युवा तक के विद्यार्थी क्या क्या लेकर विद्यालय में जाते हैं इसकी सूची बनायेंगे तो आश्चर्यचकित रह जायेंगे । यह सूची भी केवल शैक्षिक सामग्री की ही बनाने की बात है । विद्यालय में शैक्षिक सामग्री के अलावा भी बहुत कुछ ले जाया जाता है, यह होना तो चाहिये अस्वाभाविक परन्तु वैसा लगता नहीं है। तथापि हम अभी उसकी बात नहीं करेंगे ।
    
विद्यार्थी जिस प्रकार का प्रयोग करते हैं, उसे तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है । १. आवश्यक, २. अनावश्यक, ३. निरर्थक और अनर्थक ।
 
विद्यार्थी जिस प्रकार का प्रयोग करते हैं, उसे तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है । १. आवश्यक, २. अनावश्यक, ३. निरर्थक और अनर्थक ।
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# कक्षाकक्षों में कम से कम सामग्री से अध्ययन करना सिखाना चाहिये । विद्यार्थियों को अपनी स्मरणशक्ति, ग्रहणशक्ति, धारणाशक्ति, कार्यकौशल बढ़ाने हेतु अवसर दिये जाने चाहिये, उनका अपनी शक्ति में विश्वास बढ़ाना चाहिये और शक्तियों का विकास करने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिये ।  
 
# कक्षाकक्षों में कम से कम सामग्री से अध्ययन करना सिखाना चाहिये । विद्यार्थियों को अपनी स्मरणशक्ति, ग्रहणशक्ति, धारणाशक्ति, कार्यकौशल बढ़ाने हेतु अवसर दिये जाने चाहिये, उनका अपनी शक्ति में विश्वास बढ़ाना चाहिये और शक्तियों का विकास करने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिये ।  
 
# साधनसामग्री को लेकर आर्थिक चिन्तन विकसित करना चाहिये । अभिभावकों के साथ इस विषयमें बात करनी चाहिये । विद्यार्थियों में इस दृष्टि का विकास करना चाहिये । कुल मिलाकर साधन-सामग्री के उपयोग का विवेक ही सबसे महत्वपूर्ण विषय है । शिक्षक के अनेक गुणों में यह भी एक महत्वपूर्ण गुण है ।  
 
# साधनसामग्री को लेकर आर्थिक चिन्तन विकसित करना चाहिये । अभिभावकों के साथ इस विषयमें बात करनी चाहिये । विद्यार्थियों में इस दृष्टि का विकास करना चाहिये । कुल मिलाकर साधन-सामग्री के उपयोग का विवेक ही सबसे महत्वपूर्ण विषय है । शिक्षक के अनेक गुणों में यह भी एक महत्वपूर्ण गुण है ।  
अनेकों लोगों को अपने महाविद्यालयीन दिनों का स्मरण होगा जब अनेक प्राध्यापक अपने विषय के नोट्स लिखवाते थे और विद्यार्थी लिखते थे । रट्टा मार कर परीक्षा में लिख देते थे और उत्तीर्ण हो जाते थे । अनेक प्राध्यापक ऐसे थे जो विद्यार्थियों को गाइड बुक्स में से प्रश्नों के उत्तर तैयार कर लेने का परामर्श देते थे ।
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अनेकों लोगोंं को अपने महाविद्यालयीन दिनों का स्मरण होगा जब अनेक प्राध्यापक अपने विषय के नोट्स लिखवाते थे और विद्यार्थी लिखते थे । रट्टा मार कर परीक्षा में लिख देते थे और उत्तीर्ण हो जाते थे । अनेक प्राध्यापक ऐसे थे जो विद्यार्थियों को गाइड बुक्स में से प्रश्नों के उत्तर तैयार कर लेने का परामर्श देते थे ।
    
माध्यमिक विद्यालयों में भी प्रश्नों के उत्तर लिखवाना सहज बात थी । अनेक चतुर अथवा आलसी विद्यार्थी पाठ्यपुस्तकों में ही प्रश्नों के उत्तरों पर निशानी कर लेते हैं ।
 
माध्यमिक विद्यालयों में भी प्रश्नों के उत्तर लिखवाना सहज बात थी । अनेक चतुर अथवा आलसी विद्यार्थी पाठ्यपुस्तकों में ही प्रश्नों के उत्तरों पर निशानी कर लेते हैं ।
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===== केवल सामग्री पर निर्भर नहीं रहा जाता =====
 
===== केवल सामग्री पर निर्भर नहीं रहा जाता =====
सामग्री कितनी भी अच्छी हो तो भी वह निर्जीव होती है । शिक्षा जीवमान व्यक्तियों के मध्य होने वाली जीवमान प्रक्रिया है । इसलिये उसका उपयोग जिन्दा लोगों द्वारा होता है । किसी भी विषय का ज्ञान होने के बाद उस विषय की सामग्री का प्रयोग होना उचित है ।
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सामग्री कितनी भी अच्छी हो तो भी वह निर्जीव होती है । शिक्षा जीवमान व्यक्तियों के मध्य होने वाली जीवमान प्रक्रिया है । इसलिये उसका उपयोग जिन्दा लोगोंं द्वारा होता है । किसी भी विषय का ज्ञान होने के बाद उस विषय की सामग्री का प्रयोग होना उचित है ।
    
===== सामग्री से शिक्षक का महत्व अधिक होना =====
 
===== सामग्री से शिक्षक का महत्व अधिक होना =====
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दो उदाहरण देखने लायक हैं:
 
दो उदाहरण देखने लायक हैं:
# जॉर्ज वॉर्शिंग्टन कार्वर नामक एक महान नीग्रो कृषितज्ञ एक ऐसे संस्थान में नियुक्त हुए जिसकी आर्थिक स्थिति अत्यन्त विकट थी । विज्ञान की कोई प्रयोगशाला ही नहीं थी । बिना प्रयोग किये कोई अनुसन्धान कैसे हो सकता है ? डॉ. कार्वर ने पहले ही दिन अपने विद्यार्थियों को साथ लेकर नगर भ्रमण किया और लोगों द्वारा कूडे में फेंके हुए डिब्बे, शीशियाँ आदि इकट्टे कर, उन्हें साफ कर प्रयोगशाला के सारे साधन बनाये और प्रयोगशाला सज्ज की। आज भी वह प्रयोगशाला “कार्वर्स म्यूजियम' के रूप में हम देख सकते हैं ।
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# जॉर्ज वॉर्शिंग्टन कार्वर नामक एक महान नीग्रो कृषितज्ञ एक ऐसे संस्थान में नियुक्त हुए जिसकी आर्थिक स्थिति अत्यन्त विकट थी । विज्ञान की कोई प्रयोगशाला ही नहीं थी । बिना प्रयोग किये कोई अनुसन्धान कैसे हो सकता है ? डॉ. कार्वर ने पहले ही दिन अपने विद्यार्थियों को साथ लेकर नगर भ्रमण किया और लोगोंं द्वारा कूडे में फेंके हुए डिब्बे, शीशियाँ आदि इकट्टे कर, उन्हें साफ कर प्रयोगशाला के सारे साधन बनाये और प्रयोगशाला सज्ज की। आज भी वह प्रयोगशाला “कार्वर्स म्यूजियम' के रूप में हम देख सकते हैं ।
 
# मुनि उद्दालक अपने पुत्र श्वेतकेतु को बता रहे थे कि ब्रह्म है और इस सृष्टि में सर्वत्र है। श्वेतकेतु ने कहा कि कैसे मानें, ब्रह्म तो दिखाई नहीं देता। पिता ने उसे पानी से भरा हुआ लोटा और नमक लाने को कहा। श्वेतकेतु दोनों वस्तुयें लेकर आया, पिता ने उसे नमक को पानी में डालने के लिये और पानी को हिलाने के लिये कहा । पुत्र ने वैसा ही किया । पिता ने पूछा कि नमक कहाँ है । पुत्र ने कहा - पानी में है। पिता ने कहा कि कैसे पता चलता है, जरा चख कर देखो । पुत्र ने कहा कि नमक पानी में है यद्यपि वह दिखाई नहीं देता । पिता ने पुत्र को पानी को ऊपर से, मध्य से और नीचे से चखने को कहा । श्वेतकेतु ने चखकर कहा कि नमक पानी में है और सर्वत्र है । पिता ने कहा कि उसी प्रकार से ब्रह्म भी सृष्टि में है और सर्वत्र है।
 
# मुनि उद्दालक अपने पुत्र श्वेतकेतु को बता रहे थे कि ब्रह्म है और इस सृष्टि में सर्वत्र है। श्वेतकेतु ने कहा कि कैसे मानें, ब्रह्म तो दिखाई नहीं देता। पिता ने उसे पानी से भरा हुआ लोटा और नमक लाने को कहा। श्वेतकेतु दोनों वस्तुयें लेकर आया, पिता ने उसे नमक को पानी में डालने के लिये और पानी को हिलाने के लिये कहा । पुत्र ने वैसा ही किया । पिता ने पूछा कि नमक कहाँ है । पुत्र ने कहा - पानी में है। पिता ने कहा कि कैसे पता चलता है, जरा चख कर देखो । पुत्र ने कहा कि नमक पानी में है यद्यपि वह दिखाई नहीं देता । पिता ने पुत्र को पानी को ऊपर से, मध्य से और नीचे से चखने को कहा । श्वेतकेतु ने चखकर कहा कि नमक पानी में है और सर्वत्र है । पिता ने कहा कि उसी प्रकार से ब्रह्म भी सृष्टि में है और सर्वत्र है।
 
यह संकल्पना सबके ट्वारा सबको सदा-सर्वदा एक ही तरीके से नहीं सिखाई जाती । स्थान, समय, शिक्षक, विद्यार्थी, परिस्थिति के सन्दर्भ में वह विशेष रूप से सिखाई जाती है । तात्पर्य यह है कि सामग्री नहीं शिक्षक ही अधिक महत्वपूर्ण होता है ।
 
यह संकल्पना सबके ट्वारा सबको सदा-सर्वदा एक ही तरीके से नहीं सिखाई जाती । स्थान, समय, शिक्षक, विद्यार्थी, परिस्थिति के सन्दर्भ में वह विशेष रूप से सिखाई जाती है । तात्पर्य यह है कि सामग्री नहीं शिक्षक ही अधिक महत्वपूर्ण होता है ।
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अधिक पढ़ने से अधिक अच्छा पढ़ा जाता है, ऐसी एक भ्रांत धारणा बन गई है। ऐसा नहीं है कि यह केवल अभिभावकों की ही धारणा है । जिन्हें शिक्षा के विषय में सही धारणा होनी चाहिए उन शिक्षकों की भी ऐसी धारणा बनती है। यह धारणा सर्वथा अनुचित है। अधिक समय पढ़ने से अधिक अच्छा पढ़ा जाता है ऐसा नियम नहीं है। जो पढ़ना चाहिए वह पढ़ने से और जिस पद्धति से पढ़ना चाहिए उस पद्धति से पढ़ने से अच्छा पढ़ा जाता है। यांत्रिक पद्धति से गृहकार्य देने से या करने से समय, शक्ति और धन का व्यर्थ व्यय ही होता है। अतः यांत्रिक रूप से किया जाय ऐसा गृहकार्य नहीं देना चाहिए ।
 
अधिक पढ़ने से अधिक अच्छा पढ़ा जाता है, ऐसी एक भ्रांत धारणा बन गई है। ऐसा नहीं है कि यह केवल अभिभावकों की ही धारणा है । जिन्हें शिक्षा के विषय में सही धारणा होनी चाहिए उन शिक्षकों की भी ऐसी धारणा बनती है। यह धारणा सर्वथा अनुचित है। अधिक समय पढ़ने से अधिक अच्छा पढ़ा जाता है ऐसा नियम नहीं है। जो पढ़ना चाहिए वह पढ़ने से और जिस पद्धति से पढ़ना चाहिए उस पद्धति से पढ़ने से अच्छा पढ़ा जाता है। यांत्रिक पद्धति से गृहकार्य देने से या करने से समय, शक्ति और धन का व्यर्थ व्यय ही होता है। अतः यांत्रिक रूप से किया जाय ऐसा गृहकार्य नहीं देना चाहिए ।
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दूसरा बिंदु यह है कि इस बात पर विचार किया जाय कि गृहकार्य हमेशा लिखित ही क्यों होना चाहिए । पढ़ाई केवल लिखकर नहीं होती है । पढ़ाई अनेक प्रकार की गतिविधियों के माध्यम से होती है। अभिभावकों और शिक्षकों की यह भी पक्की धारणा बन गई है कि लिखना ही मुख्य कार्य है। ज्ञान कितना भी मौखिक रूप से अवगत हो तो भी जब तक लिखा नहीं जाता तब तक वह अधूरा है, ऐसा माना जाता है। यह धारणा सही नहीं है । कर्मन्द्रियों की कुशलता, आत्मविश्वास, व्यवहारदक्षता, सद्धावना, विचारशीलता और आकलनक्षमता लिखित रूप में व्यक्त ही नहीं हो सकते। लिखित रूप में गृहकार्य करने के लिए इन बातों की कोई आवश्यकता नहीं होती । तो भी गृहकार्य लिखित स्वरूप का दिया जाता है। इसके पीछे बड़ा विचित्र कारण सुनने को मिलता है। शिक्षक कहते हैं कि लिखित गृहकार्य नहीं दिया तो छात्र ने गृहकार्य किया कि नहीं इसका पता कैसे चलेगा। पढ़ने के लिए दिया तो वे नहीं करने पर भी किया है, ऐसा कहेंगे। अभिभावकों को भी लिखित कार्य ही प्रमाण लगता है। यह तो अविश्वास का मामला हुआ। शिक्षक को छात्र पर या अभिभावकों को शिक्षकों पर विश्वास नहीं होता कि वे सच बोलेंगे या जिसका प्रमाण नहीं देना पड़ता ऐसा भी निश्चित रूप से करेंगे ही। अतः गृहकार्य से कोई अर्थ साध्य न होता हो तो भी लिखित गृहकार्य देने का प्रचलन हो गया है । अब तो यह बात चुभने वाली भी नहीं रह गई है।
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दूसरा बिंदु यह है कि इस बात पर विचार किया जाय कि गृहकार्य सदा लिखित ही क्यों होना चाहिए । पढ़ाई केवल लिखकर नहीं होती है । पढ़ाई अनेक प्रकार की गतिविधियों के माध्यम से होती है। अभिभावकों और शिक्षकों की यह भी पक्की धारणा बन गई है कि लिखना ही मुख्य कार्य है। ज्ञान कितना भी मौखिक रूप से अवगत हो तो भी जब तक लिखा नहीं जाता तब तक वह अधूरा है, ऐसा माना जाता है। यह धारणा सही नहीं है । कर्मन्द्रियों की कुशलता, आत्मविश्वास, व्यवहारदक्षता, सद्धावना, विचारशीलता और आकलनक्षमता लिखित रूप में व्यक्त ही नहीं हो सकते। लिखित रूप में गृहकार्य करने के लिए इन बातों की कोई आवश्यकता नहीं होती । तो भी गृहकार्य लिखित स्वरूप का दिया जाता है। इसके पीछे बड़ा विचित्र कारण सुनने को मिलता है। शिक्षक कहते हैं कि लिखित गृहकार्य नहीं दिया तो छात्र ने गृहकार्य किया कि नहीं इसका पता कैसे चलेगा। पढ़ने के लिए दिया तो वे नहीं करने पर भी किया है, ऐसा कहेंगे। अभिभावकों को भी लिखित कार्य ही प्रमाण लगता है। यह तो अविश्वास का मामला हुआ। शिक्षक को छात्र पर या अभिभावकों को शिक्षकों पर विश्वास नहीं होता कि वे सच बोलेंगे या जिसका प्रमाण नहीं देना पड़ता ऐसा भी निश्चित रूप से करेंगे ही। अतः गृहकार्य से कोई अर्थ साध्य न होता हो तो भी लिखित गृहकार्य देने का प्रचलन हो गया है । अब तो यह बात चुभने वाली भी नहीं रह गई है।
    
यह ठीक तो नहीं है। इस विषय में विद्यालय ने अभिभावकों के साथ विश्वास का सम्बन्ध बनाना चाहिए। दोनों को यह ध्यान में लेना चाहिए की छात्र को ज्ञान प्राप्त होना महत्वपूर्ण है, कापी में लिखना नहीं। अतः पहली बात अविश्वास से और लिखित गृहकार्य से मुक्त होना है। इसका अर्थ यह नहीं है कि लिखना सर्वथा निषिद्ध है । जहाँ आवश्यक है वहाँ लिखित अवश्य होना चाहिए। उदाहरण के लिए सुलेख ही पक्का करना हो तो लिखना ही चाहिए। वर्तनी सीखना हो तो लिखना ही चाहिए । लिखित अभिव्यक्ति लिखकर ही हो सकती है । गणित के कुछ सवाल लिखकर ही किये जाएंगे । अत: तात्पर्य समझकर लिखित गृहकार्य का प्रयोग कर सकते हैं ।
 
यह ठीक तो नहीं है। इस विषय में विद्यालय ने अभिभावकों के साथ विश्वास का सम्बन्ध बनाना चाहिए। दोनों को यह ध्यान में लेना चाहिए की छात्र को ज्ञान प्राप्त होना महत्वपूर्ण है, कापी में लिखना नहीं। अतः पहली बात अविश्वास से और लिखित गृहकार्य से मुक्त होना है। इसका अर्थ यह नहीं है कि लिखना सर्वथा निषिद्ध है । जहाँ आवश्यक है वहाँ लिखित अवश्य होना चाहिए। उदाहरण के लिए सुलेख ही पक्का करना हो तो लिखना ही चाहिए। वर्तनी सीखना हो तो लिखना ही चाहिए । लिखित अभिव्यक्ति लिखकर ही हो सकती है । गणित के कुछ सवाल लिखकर ही किये जाएंगे । अत: तात्पर्य समझकर लिखित गृहकार्य का प्रयोग कर सकते हैं ।
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==== गृहकार्य की जाँच कैसे करें ====
 
==== गृहकार्य की जाँच कैसे करें ====
जो बातें लिखित स्वरूप की होती हैं उनकी जाँच शिक्षक को करनी तो चाहिए ही, परंतु यह कार्य अत्यन्त परेशान करने वाला होता है। बहुत समय उसमें जाता है । उतना समय उसके लिए दिया जाय तो अध्ययन जैसी अन्य आवश्यक बातों के लिए समय नहीं रहता। कई स्थानों पर शिक्षकों के लिए कापियाँ जाँचने का कार्य अनिवार्य किया जाता है, परंतु यह अविश्वास के कारण होता है । शिक्षक जहाँ अधिक विश्वासपात्र होते हैं, वहाँ ऐसा अविश्वास नहीं होता । विश्वास के वातावरण में लिखित गृहकार्य और उसे जाँचने की अनिवार्यता नहीं होगी । तब लिखित कार्य जाँचने की वैकल्पिक व्यवस्था कर शिक्षक अधिक अध्ययन करने के लिए समय प्राप्त कर सकता है । लिखित गृहकार्य जाँचने के लिए अभिभावकों की तथा स्वयं छात्रों की सहायता ली जा सकती है । यहाँ भी परस्पर सौहार्द और विश्वास की आवश्यकता रहेगी । सौहार्द नहीं रहा तो अभिभावक कहते हैं की यह काम शिक्षक का है, उसे वेतन ऐसे कामों के लिए ही दिया जाता है । छात्रों को यह काम नहीं देना चाहिए क्योंकि एक तो वे इस काम के लिए नहीं आते हैं, पढ़ने के लिए आते हैं, और दूसरा, वे विश्वसनीय नहीं हैं । छात्रों की अविश्वसनीयता और अक्षमता के कारण और छात्रों पर अन्याय होता है, इसलिये यह कार्य उन्हें नहीं सॉपना चाहिये । ऐसा तर्क अभिभावकों और संचालकों का रहता है । इसका और इसके जैसे अन्य प्रश्नों का समाधान तो सज्जनता और विश्वास बढ़ाने का ही है , अन्य किसी भी उपायों से विश्वास का संकट दूर नहीं हो सकता । गृहकार्य यदि लिखित है तो स्वयं सुधार हो सके ऐसा होना चाहिए ताकि छात्र अपने आप ही अपना गृहकार्य जाँच सकें ।
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जो बातें लिखित स्वरूप की होती हैं उनकी जाँच शिक्षक को करनी तो चाहिए ही, परंतु यह कार्य अत्यन्त परेशान करने वाला होता है। बहुत समय उसमें जाता है । उतना समय उसके लिए दिया जाय तो अध्ययन जैसी अन्य आवश्यक बातों के लिए समय नहीं रहता। कई स्थानों पर शिक्षकों के लिए कापियाँ जाँचने का कार्य अनिवार्य किया जाता है, परंतु यह अविश्वास के कारण होता है । शिक्षक जहाँ अधिक विश्वासपात्र होते हैं, वहाँ ऐसा अविश्वास नहीं होता । विश्वास के वातावरण में लिखित गृहकार्य और उसे जाँचने की अनिवार्यता नहीं होगी । तब लिखित कार्य जाँचने की वैकल्पिक व्यवस्था कर शिक्षक अधिक अध्ययन करने के लिए समय प्राप्त कर सकता है । लिखित गृहकार्य जाँचने के लिए अभिभावकों की तथा स्वयं छात्रों की सहायता ली जा सकती है । यहाँ भी परस्पर सौहार्द और विश्वास की आवश्यकता रहेगी । सौहार्द नहीं रहा तो अभिभावक कहते हैं की यह काम शिक्षक का है, उसे वेतन ऐसे कामों के लिए ही दिया जाता है । छात्रों को यह काम नहीं देना चाहिए क्योंकि एक तो वे इस काम के लिए नहीं आते हैं, पढ़ने के लिए आते हैं, और दूसरा, वे विश्वसनीय नहीं हैं । छात्रों की अविश्वसनीयता और अक्षमता के कारण और छात्रों पर अन्याय होता है, इसलिये यह कार्य उन्हें नहीं सौंपना चाहिये । ऐसा तर्क अभिभावकों और संचालकों का रहता है । इसका और इसके जैसे अन्य प्रश्नों का समाधान तो सज्जनता और विश्वास बढ़ाने का ही है , अन्य किसी भी उपायों से विश्वास का संकट दूर नहीं हो सकता । गृहकार्य यदि लिखित है तो स्वयं सुधार हो सके ऐसा होना चाहिए ताकि छात्र अपने आप ही अपना गृहकार्य जाँच सकें ।
    
जो भी प्रायोगिक कार्य दिया होता है, उसकी जाँच भी प्रायोगिक पद्धति से ही होती है । वह इतनी व्यक्ति और कार्यसापेक्ष होती है कि उसको नियमों में बांधना संभव नहीं होता है । अतः उसकी चर्चा नहीं करेंगे । गृहकार्य के संबंध में इतनी चर्चा पर्याप्त है ।
 
जो भी प्रायोगिक कार्य दिया होता है, उसकी जाँच भी प्रायोगिक पद्धति से ही होती है । वह इतनी व्यक्ति और कार्यसापेक्ष होती है कि उसको नियमों में बांधना संभव नहीं होता है । अतः उसकी चर्चा नहीं करेंगे । गृहकार्य के संबंध में इतनी चर्चा पर्याप्त है ।
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# उन्हें दूर कैसे करें ?
 
# उन्हें दूर कैसे करें ?
 
# और कौन सी गतिविधियाँ जोड़ी जा सकती हैं ?
 
# और कौन सी गतिविधियाँ जोड़ी जा सकती हैं ?
# इन सब गतिविधियों के लिये आर्थिक बोज कितना उठाना पडेगा ?
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# इन सब गतिविधियों के लिये आर्थिक बोज कितना उठाना पड़ेगा ?
    
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
 
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
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===== पशु पक्षी कीट पतंग आदि की सेवा =====
 
===== पशु पक्षी कीट पतंग आदि की सेवा =====
इसमें पक्षियों को दाना डालना एवं उन्होंने की हुई अस्वच्छता स्वच्छ करना ये दो प्रकार के काम होंगे विद्यालय के ५-६ बच्चों का गट प्रार्थना में न बैठे उस समय यह काम करेगा । एक सप्ताह के बाद गट बदलेगा काम वही रहेगा । उचित जगह पर पक्षिओं के लिए मिट्टी के पात्रों में पानी रखना । ये पात्र साफ करना, उनमें ताजा पानी भरना । मैदान या छज्जेपर दाने डालना (बाजरा चावल) पक्षिओं द्वारा की हुई गंदगी साफ करना
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इसमें पक्षियों को दाना डालना एवं उनकी की हुई अस्वच्छता स्वच्छ करना - ये दो प्रकार के काम होंगे। विद्यालय के ५-६ बच्चोंं का समूह प्रार्थना में न बैठे, उस समय यह काम करे। एक सप्ताह के बाद समूह बदलेगा काम वही रहेगा । उचित जगह पर पक्षिओं के लिए मिट्टी के पात्रों में पानी रखना । ये पात्र साफ करना, उनमें ताजा पानी भरना । मैदान या छज्जेपर दाने डालना (बाजरा चावल) । पक्षियों द्वारा की हुई गंदगी साफ करना
    
====== शैक्षिक मूल्य ======
 
====== शैक्षिक मूल्य ======
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====== उपाय ======
 
====== उपाय ======
शान्त बैठकर प्रार्थना करना और पक्षी की सेवा करना दोनों समान ही है, यह विचार करना । बच्चों को इस का अर्थ समझाना, यह भी महत्वपूर्ण शिक्षा है इस बात को ध्यान में रखना ।
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शान्त बैठकर प्रार्थना करना और पक्षी की सेवा करना दोनों समान ही है, यह विचार करना । बच्चोंं को इस का अर्थ समझाना, यह भी महत्वपूर्ण शिक्षा है इस बात को ध्यान में रखना ।
    
===== वृक्ष वनस्पति सेवा =====
 
===== वृक्ष वनस्पति सेवा =====
पौंधो को पानी पिलाना, वृक्षों के तनों को रंग लगाना, पतझड में गिरे हुई पत्ते, कचरा इकट्ठा करना, गमले साफ रखना, पौधों को खाद देना इत्यादी प्रकार के काम सेवाकार्य ही हैं । १० बालकों का गट बनाना, गट प्रमुख बनाना। इससे कार्यविभाजन होगा। खेल के कालांश में यह सेवाकार्य करना ।  
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पौंधो को पानी पिलाना, वृक्षों के तनों को रंग लगाना, पतझड में गिरे हुई पत्ते, कचरा इकट्ठा करना, गमले साफ रखना, पौधों को खाद देना इत्यादि काम सेवाकार्य ही हैं। १० बालकों का गट बनाना, गट प्रमुख बनाना। इससे कार्यविभाजन होगा। खेल के कालांश में यह सेवाकार्य करना ।  
    
====== शैक्षिक मूल्य ======
 
====== शैक्षिक मूल्य ======
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====== उपाय ======
 
====== उपाय ======
इस गतिविधी का स्वरूप और महत्व छात्रों को समझाना । शिक्षक ने थोडीबहुत देखरेख रखना । किताबी पढ़ाई से हटकर इस अभ्यास से छात्रों की मनःस्थिति में अच्छा बदलाव आता है । फिर अभिभावक भी शिकायत नहीं करेंगे ।
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इस गतिविधि का स्वरूप और महत्व छात्रों को समझाना। शिक्षक को थोड़ी बहुत देखरेख रखना। किताबी पढ़ाई से हटकर इस अभ्यास से छात्रों की मनःस्थिति में अच्छा बदलाव आता है। फिर अभिभावक भी शिकायत नहीं करेंगे।
    
===== स्वच्छता =====
 
===== स्वच्छता =====
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====== अवरोध ======
 
====== अवरोध ======
कुछ बालक काम करेंगे, कुछ मस्ती
+
कुछ बालक काम करेंगे, कुछ मस्ती।
    
====== उपाय ======
 
====== उपाय ======
अच्छे काम करने वालों का गौरव करना । न करनेवालों को डाँट नहीं, अपितु उनकी समझ बढ़ाना । कक्षाचार्य ने स्वयं इसमें सहभागी होना ।
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अच्छे काम करने वालों का गौरव करना । न करनेवालों को डाँट नहीं, अपितु उनकी समझ बढ़ाना । कक्षाचार्य द्वारा स्वयं इसमें सहभागी होना ।
    
===== वन्दना =====
 
===== वन्दना =====
विद्यालय सरस्वती का मन्दिर है । अध्ययन रोज उसी की वन्दना से आरम्भ होना चाहिये । पूजन करना शुद्ध एवं सुस्वर में वन्दना करना। वन्दना मे शिक्षक, मुख्याध्यापक, उपस्थित अतिथि एवं अभिभावकों को भी सम्मिलित करें ।
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विद्यालय सरस्वती का मन्दिर है। अध्ययन रोज उसी की वन्दना से आरम्भ होना चाहिये। पूजन करना शुद्ध एवं सुस्वर में वन्दना करना। वन्दना मे शिक्षक, मुख्याध्यापक, उपस्थित अतिथि एवं अभिभावकों को भी सम्मिलित करें ।
    
====== शैक्षिकमूल्य ======
 
====== शैक्षिकमूल्य ======
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===== कारसेवा एवं यज्ञ =====
 
===== कारसेवा एवं यज्ञ =====
विद्यालय में अग्निहोत्र नित्य करें । विद्यालय की ५ वीं से ऊपर की कक्षाओं में से प्रतिदिन एक कक्षा के छात्र अग्निहोत्र करे । उस समय वे वन्दना में नहीं जायेंगे । बैठक व्यवस्था करना, यज्ञ की सामग्री रखना, बाद में उठाकर यथास्थान रखना, ४ छात्रों द्वारा प्रत्यक्ष हवन करना, इस प्रकार की योजना बने । उपरोक्त सर्व गतिविधियों में कुछ न कुछ कारसेवा हर विद्यार्थी को करनी ही है। अतः अलग से कारसेवा न लगाए तो भी चलेगा।
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विद्यालय में अग्निहोत्र नित्य करें । विद्यालय की ५वीं से ऊपर की कक्षाओं में से प्रतिदिन एक कक्षा के छात्र अग्निहोत्र करे। उस समय वे वन्दना में नहीं जायेंगे। बैठक व्यवस्था करना, यज्ञ की सामग्री रखना, बाद में उठाकर यथास्थान रखना, ४ छात्रों द्वारा प्रत्यक्ष हवन करना, इस प्रकार की योजना बने। उपरोक्त सर्व गतिविधियों में कुछ न कुछ कारसेवा हर विद्यार्थी को करनी ही है। अतः अलग से कारसेवा न लगाए तो भी चलेगा।
    
====== शैक्षिक मूल्य ======
 
====== शैक्षिक मूल्य ======
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====== उपाय ======
 
====== उपाय ======
समिधा इकट्ठी कर सकते हैं। घी खर्च होगा परंतु अन्य उपलब्धिओं की तुलना मे खर्च नगण्य है । घी जलकर नष्ट होता है और वह फिजूल खर्च है, यह विचार दूर करे।
+
समिधा इकट्ठी कर सकते हैं। घी खर्च होगा परंतु अन्य उपलब्धिओं की तुलना मे खर्च नगण्य है। घी जलकर नष्ट होता है और वह फिजूल खर्च है, यह विचार दूर करे।
    
===== व्यायाम =====
 
===== व्यायाम =====
दिन भर के समयपत्रक मे रोज १५ मिनिट व्यायाम के लिए निकालना चाहिये । व्यायाम का स्वरूप छात्रों की आयु के अनुसार निश्चित करें । वर्गशिक्षक रोज उपस्थिति लेता है उसी प्रकार व्यायाम भी अनिवार्य रूप से हो ।
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दिनभर के समयपत्रक मे रोज १५ मिनिट व्यायाम के लिए निकालना चाहिये। व्यायाम का स्वरूप छात्रों की आयु के अनुसार निश्चित करें। वर्गशिक्षक रोज उपस्थिति लेता है, उसी प्रकार व्यायाम भी अनिवार्य रूप से हो।
    
====== शैक्षिक मूल्य ======
 
====== शैक्षिक मूल्य ======
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====== अवरोध ======
 
====== अवरोध ======
शिक्षक ही प्रमुख रूप से इसमें अवरोध है । येन केन प्रकारेण इसे मुख्याध्यापक ही दूर करे ।
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शिक्षक ही प्रमुख रूप से इसमें अवरोध है। येन केन प्रकारेण इसे मुख्याध्यापक ही दूर करे।
    
===== योगाभ्यास =====
 
===== योगाभ्यास =====
नित्य वंदना के बाद १० मिनिट प्रार्थना कक्ष में ही योगाभ्यास हो । योगाभ्यास अर्थात् केवल आसन प्राणायाम ही नहीं । अनेक प्रकार से इसका अभ्यास हो सकता है ।
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नित्य वंदना के बाद १० मिनिट प्रार्थना कक्ष में ही योगाभ्यास हो। योगाभ्यास अर्थात् केवल आसन प्राणायाम ही नहीं। अनेक प्रकार से इसका अभ्यास हो सकता है।
    
====== शैक्षिक मूल्य ======
 
====== शैक्षिक मूल्य ======
छात्रों की ग्रहणशक्ति, धारणाशक्ति बढ़ती है उसका प्रयोग और मापन करके देखे ।
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छात्रों की ग्रहणशक्ति, धारणाशक्ति बढ़ती है उसका प्रयोग और मापन करके देखे।
    
====== अवरोध ======
 
====== अवरोध ======
शिक्षक को इस विषय मे रुचि और महत्व कम रहता है, समझ कम और श्रम ज्यादा होते है ।
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शिक्षक को इस विषय मे रुचि और महत्व कम रहता है, समझ कम और श्रम ज्यादा होते है।
    
====== उपाय ======
 
====== उपाय ======
योग्य एवं जानकार व्यक्ति से इसे ठीक से समझ ले, अभिभावकों से भी अनुकूलता प्राप्त करे ।
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योग्य एवं जानकार व्यक्ति से इसे ठीक से समझ ले, अभिभावकों से भी अनुकूलता प्राप्त करे।
    
===== साजसज्जा =====
 
===== साजसज्जा =====
नियमित रूप से भले अल्पमात्रा मे साजसज्जा अवश्य करे । सभी चीजे यथास्थान रखना वर्ग मे गुलदस्ता सजाना और अन्य कई प्रकार हो सकते है ।
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नियमित रूप से भले अल्पमात्रा मे साजसज्जा अवश्य करे। सभी चीजे यथास्थान रखना वर्ग मे गुलदस्ता सजाना और अन्य कई प्रकार हो सकते है।
    
====== शैक्षिक मूल्य ======
 
====== शैक्षिक मूल्य ======
कलागुणों में वृद्धि, सौन्दर्य दृष्टि बढती है, कल्पकता का आनंद एवं उत्साह वर्धन होता है । इस काम का नियोजन व पालन व्यवस्थित करना अन्यथा साजसज्जा कम और गडबड ज्यादा जैसा होगा ।
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कलागुणों में वृद्धि, सौन्दर्य दृष्टि बढती है, कल्पकता का आनंद एवं उत्साह वर्धन होता है । इस काम का नियोजन व पालन व्यवस्थित करना अन्यथा साजसज्जा कम और गडबड ज्यादा जैसा होगा।
    
===== गुरुसेवा गुरु वन्दना =====
 
===== गुरुसेवा गुरु वन्दना =====
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===== भोजन =====
 
===== भोजन =====
मध्यावकाश को भोजन के रूप में यह विद्यालयों में होने वाली नित्य गतिविधि है । भोजन बडा संस्कार है । अन्न से शरीर और मन की पुष्टि होती है । इस विषय में विस्तृत विवेचन मध्यावकाश का भोजन इस प्रश्नावली में किया है ।
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मध्यावकाश को भोजन के रूप में यह विद्यालयों में होने वाली नित्य गतिविधि है। भोजन बडा संस्कार है। अन्न से शरीर और मन की पुष्टि होती है। इस विषय में विस्तृत विवेचन मध्यावकाश का भोजन इस प्रश्नावली में किया है।
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पाँच छ घण्टे के विद्यालय में ऐसी गतिविधियाँ संभव है । उसके लिए खर्च अधिक नहीं आता । कल्पकता एवं उत्कृष्ट योजकता मात्र आवश्यक है। मानसिकता भी आवश्यक है । आज विद्यालयों में ये गतिविधियाँ करवाना झंझट, बोझ भी लग सकता है । परन्तु धार्मिक शिक्षा का प्रयोग करना है तो सब समझकर करना । छात्रों को इनका अच्छा परिणाम मिलेगा । शिक्षक एवं अभिभावकों को छात्रो के व्यवहार में अनुकूल परिवर्तन अवश्य दिखेगा ।
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पाँच छ: घण्टे के विद्यालय में ऐसी गतिविधियाँ संभव है। उसके लिए खर्च अधिक नहीं आता। कल्पकता एवं उत्कृष्ट योजकता मात्र आवश्यक है। मानसिकता भी आवश्यक है। आज विद्यालयों में ये गतिविधियाँ करवाना झंझट, बोझ भी लग सकता है। परन्तु धार्मिक शिक्षा का प्रयोग करना है तो सब समझकर करना। छात्रों को इनका अच्छा परिणाम मिलेगा। शिक्षक एवं अभिभावकों को छात्रो के व्यवहार में अनुकूल परिवर्तन अवश्य दिखेगा।
    
==== विमर्श ====
 
==== विमर्श ====
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===== प्रार्थना =====
 
===== प्रार्थना =====
प्रार्थना से किसी भी शुभ कार्य का प्रारम्भ होना भारत में केवल स्वाभाविक ही नहीं तो अनिवार्य माना गया है । हमने कल्याणकारी सभी बातों को देवता का स्वरूप दिया है। यहाँ तक की पानी को जलदेवता अथवा वरुण देवता, अग्नि को अग्थिदेवता, वायु को वायुदेवता, पृथ्वी को पृथ्वीदेवता कहा है । पृथ्वी को तो हम माता ही कहते हैं। तब विद्या को, ज्ञान को हम देवता न मानें ऐसा हो ही नहीं सकता । विद्या की, वाणी की, कला की, संगीत की देवता सरस्वती विद्यालयों की अधिष्ठात्री देवी है । अध्ययन अध्यापन के रूप में हम उसकी उपासना करते हैं। ज्ञान के सभी लक्षणों को साकार रूप देकर हमने सरस्वती की प्रतिमा बनाई है । इस देवता की प्रार्थना से प्रारम्भ करना नितान्त आवश्यक है । परन्तु इसमें केवल कर्मकाण्ड नहीं चलेगा । कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं....
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प्रार्थना से किसी भी शुभ कार्य का प्रारम्भ होना भारत में केवल स्वाभाविक ही नहीं तो अनिवार्य माना गया है । हमने कल्याणकारी सभी बातों को देवता का स्वरूप दिया है। यहाँ तक की पानी को जलदेवता अथवा वरुण देवता, अग्नि को अग्थिदेवता, वायु को वायुदेवता, पृथ्वी को पृथ्वीदेवता कहा है । पृथ्वी को तो हम माता ही कहते हैं। तब विद्या को, ज्ञान को हम देवता न मानें ऐसा हो ही नहीं सकता । विद्या की, वाणी की, कला की, संगीत की देवता सरस्वती विद्यालयों की अधिष्ठात्री देवी है । अध्ययन अध्यापन के रूप में हम उसकी उपासना करते हैं। ज्ञान के सभी लक्षणों को साकार रूप देकर हमने सरस्वती की प्रतिमा बनाई है । इस देवता की प्रार्थना से प्रारम्भ करना नितान्त आवश्यक है । परन्तु इसमें केवल कर्मकाण्ड नहीं चलेगा । कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं:
 
* जो भी करें शास्त्रशुद्ध करें । विद्याकेन्द्रों में अशास्त्रीय नहीं चलता । सुशोभन अवश्य करना चाहिये और वह पर्यावरण और सौन्दर्य दृष्टि को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये।
 
* जो भी करें शास्त्रशुद्ध करें । विद्याकेन्द्रों में अशास्त्रीय नहीं चलता । सुशोभन अवश्य करना चाहिये और वह पर्यावरण और सौन्दर्य दृष्टि को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये।
 
* फूल, दीप और अगरबत्ती का प्रयोग यदि करते हैं तो ध्यान में रखें कि अगरबत्ती सिन्थेटिक न हो, दीप जर्सी के घी का न हो और फूल कृत्रिम न हों । इस निमित्त से विद्यालय में अन्यान्य चित्रों पर जो प्लास्टिक के फूलों की मालायें चढ़ाई जाती हैं वे उतार दी जाय । सरस्वती को यह मान्य नहीं है ।
 
* फूल, दीप और अगरबत्ती का प्रयोग यदि करते हैं तो ध्यान में रखें कि अगरबत्ती सिन्थेटिक न हो, दीप जर्सी के घी का न हो और फूल कृत्रिम न हों । इस निमित्त से विद्यालय में अन्यान्य चित्रों पर जो प्लास्टिक के फूलों की मालायें चढ़ाई जाती हैं वे उतार दी जाय । सरस्वती को यह मान्य नहीं है ।
* प्रार्थथा शुद्ध स्वर और शुद्ध उच्चारण से गाई जानी चाहिये । सरस्वती वाणी और संगीत दोनों की देवता है । बेसूरा गायन, बेसूरे और बेढब वाद्य और बेताल वादन, चिल्ला चिल्ला कर गाना, गलत उच्चारण करना उसे मान्य नहीं है। वह इसे क्षमा नहीं करेगी । कृपा करने की तो बात ही दूर की है ।
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* प्रार्थना शुद्ध स्वर और शुद्ध उच्चारण से गाई जानी चाहिये । सरस्वती वाणी और संगीत दोनों की देवता है । बेसुरा गायन, बेसुरे और बेढब वाद्य और बेताल वादन, चिल्ला चिल्ला कर गाना, गलत उच्चारण करना उसे मान्य नहीं है। वह इसे क्षमा नहीं करेगी । कृपा करने की तो बात ही दूर की है ।
* प्रार्थना सभा का वातावरण पवित्र होना भी उतना ही आवश्यक है । यदि हम कर सकें तो प्रार्थनाकक्ष में प्रार्थना के अलावा मौन रहना, अन्य किसी प्रकार की बातें नहीं करना भी होना चाहिये । अधिकांश विद्यालयों में विद्यालय का प्रारम्भ सभा से होता है । जिसमें सूचनायें, समाचार वाचन, पंचांग कथन, किसी विद्यार्थी या कक्षा की प्रस्तुति, शिक्षक द्वारा प्रेरक उदूबोधन होता है और इस सभा का एक अंग प्रार्थथा है। यह विद्यालय के कामकाज का उपयोगितावादी दृष्टिकोण है जिससे प्रार्थना का महत्व कम हो जाता है ।
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* प्रार्थना सभा का वातावरण पवित्र होना भी उतना ही आवश्यक है । यदि हम कर सकें तो प्रार्थनाकक्ष में प्रार्थना के अलावा मौन रहना, अन्य किसी प्रकार की बातें नहीं करना भी होना चाहिये । अधिकांश विद्यालयों में विद्यालय का प्रारम्भ सभा से होता है । जिसमें सूचनायें, समाचार वाचन, पंचांग कथन, किसी विद्यार्थी या कक्षा की प्रस्तुति, शिक्षक द्वारा प्रेरक उदूबोधन होता है और इस सभा का एक अंग प्रार्थना है। यह विद्यालय के कामकाज का उपयोगितावादी दृष्टिकोण है जिससे प्रार्थना का महत्व कम हो जाता है ।
 
* एक बात विशेष उल्लेखनीय है । कई विद्यालयों में प्रार्थना केवल विद्यार्थियों के लिये होती है । कुछ विद्यालय ऐसे हैं जहाँ शिक्षकगण प्रार्थना में सहभागी होता है परन्तु लगभग एक भी विद्यालय ऐसा नहीं है जहाँ सेवक, कार्यालयीन कर्मचारी, या उसी समय उपस्थित अभिभावक प्रार्थना में सम्मिलित होते हों । यह अवश्य आश्चर्यकारक है ।
 
* एक बात विशेष उल्लेखनीय है । कई विद्यालयों में प्रार्थना केवल विद्यार्थियों के लिये होती है । कुछ विद्यालय ऐसे हैं जहाँ शिक्षकगण प्रार्थना में सहभागी होता है परन्तु लगभग एक भी विद्यालय ऐसा नहीं है जहाँ सेवक, कार्यालयीन कर्मचारी, या उसी समय उपस्थित अभिभावक प्रार्थना में सम्मिलित होते हों । यह अवश्य आश्चर्यकारक है ।
 
* और एक आश्चर्यकारक बात यह है कि महाविद्यालय और विश्वविद्यालय ऐसे विद्याकेन्द्र हैं जहाँ प्रार्थना अनिवार्य या आवश्यक नहीं मानी जाती । अपवाद स्वरूप ही कहीं प्रार्थना होती दिखाई देती है ।
 
* और एक आश्चर्यकारक बात यह है कि महाविद्यालय और विश्वविद्यालय ऐसे विद्याकेन्द्र हैं जहाँ प्रार्थना अनिवार्य या आवश्यक नहीं मानी जाती । अपवाद स्वरूप ही कहीं प्रार्थना होती दिखाई देती है ।
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===== संकल्प =====
 
===== संकल्प =====
विद्यालयों को यह परिचित नहीं है परन्तु भारत में हर शुभ कार्य के प्रारम्भ में संकल्प किया जाता है जिसमें स्थान, काल, उद्देश्य आदि का उच्चारण किया जाता है । यह परिचित नहीं होने का एक कारण यह भी है कि इस संकल्प में वर्णित सन्दर्भ भूगोल, कालगणना आदि की धार्मिक संकल्पना के अनुसार हैं और विद्यालयों में पढाई जानेवाली इतिहास और भूगोल की बातें कुछ और हैं । परन्तु विट्रज्जनों को इस बात का विचार करना चाहिये और धार्मिक शास्त्रीय तथा सांस्कृतिक परम्पराओं को हम पुनः किस प्रकार स्थापित कर सकते हैं इसका विचार करना चाहिये। यह संकल्प संस्कृत में होता है। व्यावहारिक उद्देश्यों से उसे हिन्दी या अपनी अपनी भाषामें अनुदित किया जा सकता है ।
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विद्यालयों को यह परिचित नहीं है परन्तु भारत में हर शुभ कार्य के प्रारम्भ में संकल्प किया जाता है जिसमें स्थान, काल, उद्देश्य आदि का उच्चारण किया जाता है । यह परिचित नहीं होने का एक कारण यह भी है कि इस संकल्प में वर्णित सन्दर्भ भूगोल, कालगणना आदि की धार्मिक संकल्पना के अनुसार हैं और विद्यालयों में पढाई जानेवाली इतिहास और भूगोल की बातें कुछ और हैं । परन्तु विद्वजनों को इस बात का विचार करना चाहिये और धार्मिक शास्त्रीय तथा सांस्कृतिक परम्पराओं को हम पुनः किस प्रकार स्थापित कर सकते हैं इसका विचार करना चाहिये। यह संकल्प संस्कृत में होता है। व्यावहारिक उद्देश्यों से उसे हिन्दी या अपनी अपनी भाषा में अनुदित किया जा सकता है ।
    
===== यज्ञ =====
 
===== यज्ञ =====
भारत की संस्कृति यज्ञसंस्कृति है । सृष्टि और समष्टि के लिये आवश्यक त्याग करना और उन्हें सन्तुष्ट करना ही यज्ञ है। ना समझ लोग इसे कुछ उपयोगी पदार्थों को जलाना कहते हैं। यज्ञ के सांस्कृतिक और भौतिक वैज्ञानिक खुलासे तो अनेक हैं परन्तु उन्हें ये खुलासे जानने का धैर्य नहीं होता और मानने का साहस नहीं होता । परन्तु जानकार और समझदार लोगों ने विचार कर लोगों को समझाना चाहिये । विशेषकर विद्यालयों में तो इसका प्रारम्भ हो ही सकता है ।
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भारत की संस्कृति यज्ञसंस्कृति है। सृष्टि और समष्टि के लिये आवश्यक त्याग करना और उन्हें सन्तुष्ट करना ही यज्ञ है। ना समझ लोग इसे कुछ उपयोगी पदार्थों को जलाना कहते हैं। यज्ञ के सांस्कृतिक और भौतिक वैज्ञानिक खुलासे तो अनेक हैं परन्तु उन्हें ये खुलासे जानने का धैर्य नहीं होता और मानने का साहस नहीं होता । परन्तु जानकार और समझदार लोगोंं ने विचार कर लोगोंं को समझाना चाहिये । विशेषकर विद्यालयों में तो इसका प्रारम्भ हो ही सकता है ।
    
===== मध्यावकाश का भोजन अथवा अल्पाहार =====
 
===== मध्यावकाश का भोजन अथवा अल्पाहार =====
लगभग सभी विद्यालयों में यह होता ही है। इसे संस्कृति और सभ्यता की गतिविधि बनाना चाहिये । भोजन कहीं भी बैठकर कैसे भी करने की बात नहीं है । उसे व्यवस्थित ढंग से करना चाहिये ।
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लगभग सभी विद्यालयों में यह होता ही है। इसे संस्कृति और सभ्यता की गतिविधि बनाना चाहिये । भोजन कहीं भी बैठकर कैसे भी करने की बात नहीं है । उसे व्यवस्थित ढंग से करना चाहिये।
    
इन बातों पर विचार किया जा सकता है
 
इन बातों पर विचार किया जा सकता है
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* भोजनमन्त्र बोलकर ही भोजन किया जाय ।
 
* भोजनमन्त्र बोलकर ही भोजन किया जाय ।
 
* गोग्रास निकालकर ही भोजन किया जाय ।
 
* गोग्रास निकालकर ही भोजन किया जाय ।
* आसपास के लोगों के साथ बाँटकर भोजन किया जाय ।
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* आसपास के लोगोंं के साथ बाँटकर भोजन किया जाय ।
* थाली में जूठन नहीं छोड़ना अनिवार्य बनाया जाय । भोजन के बाद हाथ धोना, कुछ्ला करना, भोजन के स्थान की सफाई करना, भोजन के पात्र साफ करना और पोछकर  व्यवस्थित रखना सिखाया जाय । अधिक चर्चा इसी ग्रन्थ में अन्यत्र की गई है ।
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* थाली में जूठन नहीं छोड़ना अनिवार्य बनाया जाय । भोजन के बाद हाथ धोना, कुछ्ला करना, भोजन के स्थान की सफाई करना, भोजन के पात्र साफ करना और पोंछकर व्यवस्थित रखना सिखाया जाय । अधिक चर्चा इसी ग्रन्थ में अन्यत्र की गई है ।
    
===== राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान का गायन =====
 
===== राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान का गायन =====
“जन गण मन हमारा राष्ट्रगीत है और “वन्दे मातरम्‌' राष्ट्रगान । प्रतिदिन दोनों का गायन होना चाहिये । “वन्दे मातरमू पूर्ण गाना चाहिये । प्रार्थथा की तरह ही शुद्ध स्वर, शुद्ध उच्चारण, ताल और गाने की, खड़े रहने की सही पद्धति का आग्रह अपेक्षित है । पूर्ण कण्ठस्थ होना भी अपेक्षित ही है ।
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"जन गण मन" हमारा राष्ट्रगीत है और "वन्दे मातरम्‌" राष्ट्रगान । प्रतिदिन दोनों का गायन होना चाहिये । "वन्दे मातरम्" पूर्ण गाना चाहिये । प्रार्थना की तरह ही शुद्ध स्वर, शुद्ध उच्चारण, ताल और गाने की, खड़े रहने की सही पद्धति का आग्रह अपेक्षित है । पूर्ण कण्ठस्थ होना भी अपेक्षित ही है ।
    
===== सर्वेभवन्तु सुखिन: =====
 
===== सर्वेभवन्तु सुखिन: =====
जिस प्रकार अध्ययन प्रार्भ करने से पूर्व संकल्प करते हैं उसी प्रकार आज का अध्ययन पूर्ण होने के बाद सब के मंगल की कामना करनी चाहिये । अतः सर्वे भवन्तु सुखिनः से विद्यालय पूर्ण होना अच्छा है ।
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जिस प्रकार अध्ययन प्रार्भ करने से पूर्व संकल्प करते हैं उसी प्रकार आज का अध्ययन पूर्ण होने के बाद सब के मंगल की कामना करनी चाहिये । अतः सर्वे भवन्तु सुखिनः से विद्यालय पूर्ण होना अच्छा है ।
    
इतनी बातें तो लगभग सर्वत्र होती हैं, जो नहीं होतीं वे भी हो सकती हैं । परन्तु और एक दो व्यवस्थाओं की बातें इनमें जोड़ी जा सकती हैं ।
 
इतनी बातें तो लगभग सर्वत्र होती हैं, जो नहीं होतीं वे भी हो सकती हैं । परन्तु और एक दो व्यवस्थाओं की बातें इनमें जोड़ी जा सकती हैं ।
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# विद्यालय में पुस्तकालय क्यों होना चाहिये ?
 
# विद्यालय में पुस्तकालय क्यों होना चाहिये ?
 
# विद्यालय के पुस्तकालय में पुस्तकों की संख्या कितनी होनी चाहिये ?
 
# विद्यालय के पुस्तकालय में पुस्तकों की संख्या कितनी होनी चाहिये ?
# ये पुस्तके कैसी हों ? कितने प्रकार की हों ?
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# ये पुस्तकें कैसी हों ? कितने प्रकार की हों ?
 
# पुस्तकालय के साथ वाचनालय भी क्यों होना चाहिये ?
 
# पुस्तकालय के साथ वाचनालय भी क्यों होना चाहिये ?
 
# पुस्तकालय एवं वाचनालय का उपयोग छात्र एवं आचार्य कर सर्के इसलिये क्या क्या व्यवस्थायें करनी चाहिये ?
 
# पुस्तकालय एवं वाचनालय का उपयोग छात्र एवं आचार्य कर सर्के इसलिये क्या क्या व्यवस्थायें करनी चाहिये ?
 
# पुस्तकालय एवं वाचनालय का उपयोग करने के लिये छात्रों को कैसे प्रेरित कर सकते हैं ?
 
# पुस्तकालय एवं वाचनालय का उपयोग करने के लिये छात्रों को कैसे प्रेरित कर सकते हैं ?
# एक एक कक्षा का कशक्षापुस्तकालय कैसे बनायें ?
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# एक एक कक्षा का कक्षापुस्तकालय कैसे बनायें ?
 
# पुस्तकालय में पुस्तकों के साथ साथ और क्या क्या हो सकता है ?
 
# पुस्तकालय में पुस्तकों के साथ साथ और क्या क्या हो सकता है ?
 
# पुस्तकालय एवं वाचनालय को केन्द्र में रखक किस प्रकार के कार्यक्रम अथवा गतिविधियों की रचना हो सकती है ?
 
# पुस्तकालय एवं वाचनालय को केन्द्र में रखक किस प्रकार के कार्यक्रम अथवा गतिविधियों की रचना हो सकती है ?
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===== प्रत्यक्ष वार्तालाप से प्राप्त उत्तर =====
 
===== प्रत्यक्ष वार्तालाप से प्राप्त उत्तर =====
इस संबंध में जो प्रश्नावली दो तीन लोगों को भरवाने के लिए भेजी गयी वे नियोजित समय से प्राप्त नहीं हुई । अतः अनेक लोगों से प्रत्यक्ष बातचीत करके उनके उत्तर और अनुभव यहा सम्मिलित किये है ।
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इस संबंध में जो प्रश्नावली दो तीन लोगोंं को भरवाने के लिए भेजी गयी वे नियोजित समय से प्राप्त नहीं हुई । अतः अनेक लोगोंं से प्रत्यक्ष बातचीत करके उनके उत्तर और अनुभव यहाँ सम्मिलित किये है ।
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अध्ययन अध्यापन के लिए अत्यंत उपयुक्त एवं पूरक भूमिका पुस्तकालय की होती है । ग्रंथ एवं पुस्तके ज्ञाननिधी है। जहा ज्ञान की साधना होती है वहाँ पुस्तकालय अनिवार्य है । विद्यालय का स्तर प्राथमिक, माध्यमिक अथवा उच्चशिक्षा भले ही हो स्तर के अनुसार पुस्तकालयों में पुस्तकों की संख्या रहे । विद्यार्थी संख्या तथा पुस्तकों की संख्या इनका अनुपात कम से कम १:१० होना चाहिए ।
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अध्ययन अध्यापन के लिए अत्यंत उपयुक्त एवं पूरक भूमिका पुस्तकालय की होती है। ग्रंथ एवं पुस्तके ज्ञाननिधी है। जहा ज्ञान की साधना होती है वहाँ पुस्तकालय अनिवार्य है । विद्यालय का स्तर प्राथमिक, माध्यमिक अथवा उच्चशिक्षा भले ही हो स्तर के अनुसार पुस्तकालयों में पुस्तकों की संख्या रहे । विद्यार्थी संख्या तथा पुस्तकों की संख्या इनका अनुपात कम से कम १:१० होना चाहिए ।
    
महाविद्यालयों में पुस्तकालय समृद्ध होना चाहिए कारण वहाँ अध्यापन की अपेक्षा धार्मिक भाषाओं में अध्यात्म, दर्शन, धर्म-संस्कृति, राष्ट्र, विभिन्न विचारधारायें, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि की पुस्तकें, कोष, एटलस, बालसाहित्य, दृश्य-श्राव्य सामग्री आदि सभी प्रकार की पुस्तकें आवश्यक होंगी । पुस्तकालय में बैठकर पढ़ सके इस प्रकार की पुस्तकालय की व्यवस्था होनी चाहिये । छात्र शिक्षक सभी आराम से पढ़ सके ऐसी स्वना व स्थान हो तो अच्छा । दैनिक वृत्तपत्र पाक्षिक मासिक शैक्षिक पत्रिका्ें पर्याप्त मात्रा मे उपलब्ध हो । पुस्तकालयों में वेद उपनिषद आदि साहित्य अवश्य हो । पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं है अपितु हमारी संस्कृति का दर्शन है । इनका दर्शन छात्र इस आयु में करेंगे तो आगे जाकर इनका अध्ययन भी होगा । विषय के शिक्षक छात्रों को अपने विषय की संदर्भ पुस्तकों के नाम बताए और उन्हें पढने के लिए प्रेरित करे । एक विद्यालय के ग्रंथपाल स्वयं सभी विषयों का अध्ययन करते थे और वर्गशः उपयुक्त संदर्भ साहित्य से छात्रों को परिचित करवाते थे । वाचनालय में खरिदी हुई नवीन पुस्तकों के परिचय सूचना फलक पर लिखते और छात्रों को वाचन हेतु प्रेरित व आकर्षित करते थे ।
 
महाविद्यालयों में पुस्तकालय समृद्ध होना चाहिए कारण वहाँ अध्यापन की अपेक्षा धार्मिक भाषाओं में अध्यात्म, दर्शन, धर्म-संस्कृति, राष्ट्र, विभिन्न विचारधारायें, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि की पुस्तकें, कोष, एटलस, बालसाहित्य, दृश्य-श्राव्य सामग्री आदि सभी प्रकार की पुस्तकें आवश्यक होंगी । पुस्तकालय में बैठकर पढ़ सके इस प्रकार की पुस्तकालय की व्यवस्था होनी चाहिये । छात्र शिक्षक सभी आराम से पढ़ सके ऐसी स्वना व स्थान हो तो अच्छा । दैनिक वृत्तपत्र पाक्षिक मासिक शैक्षिक पत्रिका्ें पर्याप्त मात्रा मे उपलब्ध हो । पुस्तकालयों में वेद उपनिषद आदि साहित्य अवश्य हो । पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं है अपितु हमारी संस्कृति का दर्शन है । इनका दर्शन छात्र इस आयु में करेंगे तो आगे जाकर इनका अध्ययन भी होगा । विषय के शिक्षक छात्रों को अपने विषय की संदर्भ पुस्तकों के नाम बताए और उन्हें पढने के लिए प्रेरित करे । एक विद्यालय के ग्रंथपाल स्वयं सभी विषयों का अध्ययन करते थे और वर्गशः उपयुक्त संदर्भ साहित्य से छात्रों को परिचित करवाते थे । वाचनालय में खरिदी हुई नवीन पुस्तकों के परिचय सूचना फलक पर लिखते और छात्रों को वाचन हेतु प्रेरित व आकर्षित करते थे ।
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===== विमर्श =====
 
===== विमर्श =====
पुस्तकालय का नाम पढ़ते ही गौरवमयी ज्ञानसृष्टि कल्पना चक्षु के समक्ष अवतरित हो जाती है । जब से भगवान गणेशने लिपि का आविष्कार किया, ज्ञान लिखित रूप में सुरक्षित होने लगा । अब तक श्रुति और श्रुतज्ञान की महिमा थी अब पुस्तकों की महिमा होने लगी । पुस्तक धीरे धीरे ज्ञान का प्रतीक बन गया । पुस्तक ज्ञान के समान पवित्र माना जाने लगा और उसका सम्मान होने लगा । आज भी पुस्तक को ज्ञानसम्पदा के रूप में ही सम्माननित किया जाता है ।
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पुस्तकालय का नाम पढ़ते ही गौरवमयी ज्ञानसृष्टि कल्पना चक्षु के समक्ष अवतरित हो जाती है । जब से भगवान गणेश ने लिपि का आविष्कार किया, ज्ञान लिखित रूप में सुरक्षित होने लगा । अब तक श्रुति और श्रुतज्ञान की महिमा थी अब पुस्तकों की महिमा होने लगी । पुस्तक धीरे धीरे ज्ञान का प्रतीक बन गया । पुस्तक ज्ञान के समान पवित्र माना जाने लगा और उसका सम्मान होने लगा । आज भी पुस्तक को ज्ञानसम्पदा के रूप में ही सम्माननित किया जाता है ।
    
===== पुस्तकालय की पवित्रता बनाये रखना =====
 
===== पुस्तकालय की पवित्रता बनाये रखना =====
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* पुस्तकालय में खाना, चाय पीना, शोर मचाना, अशिष्ट बातें करना, अशिष्ट भाषा प्रयोग करना वर्जित होना चाहिये ।
 
* पुस्तकालय में खाना, चाय पीना, शोर मचाना, अशिष्ट बातें करना, अशिष्ट भाषा प्रयोग करना वर्जित होना चाहिये ।
 
* पुस्तकालय में ज्ञान की देवी सरस्वती की प्रतिमा और ज्ञान के आदि ग्रन्थ वेद पूजा स्थान में रखने से पुस्तकालय का सम्मान होता है । वातावरण और मानसिकता पवित्र बनते हैं।   
 
* पुस्तकालय में ज्ञान की देवी सरस्वती की प्रतिमा और ज्ञान के आदि ग्रन्थ वेद पूजा स्थान में रखने से पुस्तकालय का सम्मान होता है । वातावरण और मानसिकता पवित्र बनते हैं।   
पुस्तकालय का सम्मान करने का दूसरा आयाम है उसका उपयोग करना । विद्यालय के मुख्याध्यायक से लेकर छोटी से छोटी कक्षा के छोटे से छोटे विद्यार्थी तक सभी लोगों में वाचन संस्कृति का विकास होना चाहिये । पुस्तक पढने का रस निर्मिण करना शिक्षाक्रम का अत्यन्त महत्वपूर्ण आयाम है ।
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पुस्तकालय का सम्मान करने का दूसरा आयाम है उसका उपयोग करना । विद्यालय के मुख्याध्यायक से लेकर छोटी से छोटी कक्षा के छोटे से छोटे विद्यार्थी तक सभी लोगोंं में वाचन संस्कृति का विकास होना चाहिये । पुस्तक पढने का रस निर्मिण करना शिक्षाक्रम का अत्यन्त महत्वपूर्ण आयाम है ।
    
इस दृष्टि से सभी आयु वर्ग के विद्यार्थियों के लायक पुस्तकें पुस्तकालय में होनी चाहिये । शिशुओं के लिये चित्रपुस्तिकाओं से लेकर देशविदेश के लेखकों की विभिन्न विषयों की. गम्भीर अध्यनय करने लायक पुस्तकें पुस्तकालय में होनी चाहिये ।
 
इस दृष्टि से सभी आयु वर्ग के विद्यार्थियों के लायक पुस्तकें पुस्तकालय में होनी चाहिये । शिशुओं के लिये चित्रपुस्तिकाओं से लेकर देशविदेश के लेखकों की विभिन्न विषयों की. गम्भीर अध्यनय करने लायक पुस्तकें पुस्तकालय में होनी चाहिये ।
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* कक्षा पुस्तकालय की सभी पुस्तकें सभी विद्यार्थियों ने पढ़ी हुई हों ऐसी अपेक्षा करनी चाहिये ।  
 
* कक्षा पुस्तकालय की सभी पुस्तकें सभी विद्यार्थियों ने पढ़ी हुई हों ऐसी अपेक्षा करनी चाहिये ।  
 
* कक्षा में पढ़ाई हेतु जो विषय और पाठ्यक्रम होता है उससे सम्बन्धित पुस्तकें कक्षा पुस्तकालय में होनी चाहिये ताकि उन्हें पढ़ने से विद्यार्थियों की समझ स्पष्ट हो और जानकारी बढे ।  
 
* कक्षा में पढ़ाई हेतु जो विषय और पाठ्यक्रम होता है उससे सम्बन्धित पुस्तकें कक्षा पुस्तकालय में होनी चाहिये ताकि उन्हें पढ़ने से विद्यार्थियों की समझ स्पष्ट हो और जानकारी बढे ।  
* कक्षाकक्ष के पुस्तकालय के समान ही प्रत्येक घरमें पुस्तकालय हो ऐसा आग्रह होना चाहिये । शिक्षित व्यक्ति के घर की शोभा पुस्तकें ही होती हैं । शिक्षित लोगों का व्यसन पुस्तक पढ़ना होता है । घर में बड़ों और छोटों सबके लिये पुस्तकें होनी चाहिये । सब साथ मिलकर पढते हों ऐसी कल्पना भी रम्य है।  
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* कक्षाकक्ष के पुस्तकालय के समान ही प्रत्येक घरमें पुस्तकालय हो ऐसा आग्रह होना चाहिये । शिक्षित व्यक्ति के घर की शोभा पुस्तकें ही होती हैं । शिक्षित लोगोंं का व्यसन पुस्तक पढ़ना होता है । घर में बड़ों और छोटों सबके लिये पुस्तकें होनी चाहिये । सब साथ मिलकर पढते हों ऐसी कल्पना भी रम्य है।  
 
* विद्यालय के सभी पुरस्कार पुस्तक के रूप में देने का प्रचलन बढ़ाना चाहिये ।  
 
* विद्यालय के सभी पुरस्कार पुस्तक के रूप में देने का प्रचलन बढ़ाना चाहिये ।  
 
* विद्यालय में जब भी नई पुस्तकें आयें उनकी सम्मानपूर्वक शोभायात्रा निकाली जाय, पूजा की जाय और बाद में पुस्तकालय में स्थापित की जाय । सम्मान करने के और तरीके भी सोचे जाय ।  
 
* विद्यालय में जब भी नई पुस्तकें आयें उनकी सम्मानपूर्वक शोभायात्रा निकाली जाय, पूजा की जाय और बाद में पुस्तकालय में स्थापित की जाय । सम्मान करने के और तरीके भी सोचे जाय ।  
* एक खाने का पदार्थ, पहनने का वस्त्र, खेलने की वस्तु न खरीदकर पुस्तक खरीदी जाय इस के लिये विद्यार्थियों को प्रेरित करना चाहिये । आजकल पुस्तकों के पर्याय के रूप में अनेक प्रकार की दृश्यश्राव्य सामग्री का प्रचलन बढा है। ये अधिक प्रभावी हैं ऐसा भी बोला जाता है। परन्तु अनुभवी और जानकार लोगों का कहना है कि स्थायी प्रभाव की दृष्टि से यह सामग्री पुस्तकों का स्थान नहीं ले सकती । पुस्तकों से अधिक प्रभावी प्रत्यक्ष वार्तालाप, प्रत्यक्ष शिक्षा या प्रत्यक्ष भाषण ही हो सकता है। अन्य सभी बातों का क्रम बाद में ही आता है। इस दृष्टि से पुस्तकों का महत्व स्थापित करना चाहिये।
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* एक खाने का पदार्थ, पहनने का वस्त्र, खेलने की वस्तु न खरीदकर पुस्तक खरीदी जाय इस के लिये विद्यार्थियों को प्रेरित करना चाहिये । आजकल पुस्तकों के पर्याय के रूप में अनेक प्रकार की दृश्यश्राव्य सामग्री का प्रचलन बढा है। ये अधिक प्रभावी हैं ऐसा भी बोला जाता है। परन्तु अनुभवी और जानकार लोगोंं का कहना है कि स्थायी प्रभाव की दृष्टि से यह सामग्री पुस्तकों का स्थान नहीं ले सकती । पुस्तकों से अधिक प्रभावी प्रत्यक्ष वार्तालाप, प्रत्यक्ष शिक्षा या प्रत्यक्ष भाषण ही हो सकता है। अन्य सभी बातों का क्रम बाद में ही आता है। इस दृष्टि से पुस्तकों का महत्व स्थापित करना चाहिये।
    
===== पुस्तकों का जतन करना =====
 
===== पुस्तकों का जतन करना =====
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* पुस्तकों को व्यवस्थित रखना सिखाना चाहिये । वे फटे नहीं, उनका बन्धन शिथिल न हो ऐसी सावधानी रखना सिखाना चाहिये ।
 
* पुस्तकों को व्यवस्थित रखना सिखाना चाहिये । वे फटे नहीं, उनका बन्धन शिथिल न हो ऐसी सावधानी रखना सिखाना चाहिये ।
 
* पुस्तकों को आवरण चढाना सिखाना चाहिये ।  
 
* पुस्तकों को आवरण चढाना सिखाना चाहिये ।  
* घर के पुस्तकालय को व्यवस्थित रखने का काम घर में रहनेवाले विद्यार्थियों का होना चाहिये । उन्हें यह सिखाने का काम घर के बड़े लोगों का है।  
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* घर के पुस्तकालय को व्यवस्थित रखने का काम घर में रहनेवाले विद्यार्थियों का होना चाहिये । उन्हें यह सिखाने का काम घर के बड़े लोगोंं का है।  
 
* विद्यालय के पुस्तकों की स्वच्छता, सम्हाल, उन्हें आवरण चढाने का काम विद्यार्थियों की शिक्षा का एक अंग होना चाहिये।  
 
* विद्यालय के पुस्तकों की स्वच्छता, सम्हाल, उन्हें आवरण चढाने का काम विद्यार्थियों की शिक्षा का एक अंग होना चाहिये।  
 
* पंजिका के साथ पुस्तकों का मिलान करने का काम भी विद्यार्थियों को सिखाना चाहिये ।  
 
* पंजिका के साथ पुस्तकों का मिलान करने का काम भी विद्यार्थियों को सिखाना चाहिये ।  

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