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===== शिक्षा सरकार के अधीन =====
 
===== शिक्षा सरकार के अधीन =====
आज शिक्षाक्षेत्र सरकार के अधीन है । विश्वविद्यालय शुरू करना है तो उसका कानून संसद में अथवा राज्य की विधानसभा में पारित होता है। उसमें कानून पारित हुए बिना विश्वविद्यालय बन ही नहीं सकता । उसके बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से उसे मान्यता प्राप्त करनी पड़ती है । इस आयोग की रचना भी संसद ने पारित किये हुए कानून के तहत हुई है । विश्वविद्यालय आयोग के साथ और भी परिषदें हैं जो विभिन्न प्रकार की शिक्षासंस्थाओं को मान्यता देती है। ये सब सरकारी है।  विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति सर्कार के परामर्श के साथ राज्यपाल या राष्ट्रपति करते है।  राज्यपाल राज्य के सभी विश्वविद्यालयों के और राष्ट्रपति सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते है। इसी प्रकार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड भी सरकार द्वारा की गई रचना ही होती है। प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति भी वैसी ही है । राज्य और केन्द्र के शिक्षामन्त्री और शिक्षासचिव नीति और प्रशासन के क्षेत्र में सर्वोच्च होते हैं और वे शिक्षक हों यह आवश्यक नहीं होता । इसके अलावा आयुक्त और निदेशक भी सरकारी ही होते हैं । आयुक्त का शिक्षक होना आवश्यक नहीं, निदेशक शिक्षक होता हैं । अर्थात्‌ शिक्षाविषयक नीतियाँ और शिक्षा का प्रशासन शिक्षक नहीं ऐसे लोगों के हाथो में ही है । यह खास ब्रिटिश व्यवस्था है, या कहें कि यह पश्चिम की सोच है।
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आज शिक्षाक्षेत्र सरकार के अधीन है । विश्वविद्यालय आरम्भ करना है तो उसका कानून संसद में अथवा राज्य की विधानसभा में पारित होता है। उसमें कानून पारित हुए बिना विश्वविद्यालय बन ही नहीं सकता । उसके बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से उसे मान्यता प्राप्त करनी पड़ती है । इस आयोग की रचना भी संसद ने पारित किये हुए कानून के तहत हुई है । विश्वविद्यालय आयोग के साथ और भी परिषदें हैं जो विभिन्न प्रकार की शिक्षासंस्थाओं को मान्यता देती है। ये सब सरकारी है।  विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति सर्कार के परामर्श के साथ राज्यपाल या राष्ट्रपति करते है।  राज्यपाल राज्य के सभी विश्वविद्यालयों के और राष्ट्रपति सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते है। इसी प्रकार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड भी सरकार द्वारा की गई रचना ही होती है। प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति भी वैसी ही है । राज्य और केन्द्र के शिक्षामन्त्री और शिक्षासचिव नीति और प्रशासन के क्षेत्र में सर्वोच्च होते हैं और वे शिक्षक हों यह आवश्यक नहीं होता । इसके अलावा आयुक्त और निदेशक भी सरकारी ही होते हैं । आयुक्त का शिक्षक होना आवश्यक नहीं, निदेशक शिक्षक होता हैं । अर्थात्‌ शिक्षाविषयक नीतियाँ और शिक्षा का प्रशासन शिक्षक नहीं ऐसे लोगोंं के हाथो में ही है । यह खास ब्रिटिश व्यवस्था है, या कहें कि यह पश्चिम की सोच है।
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देश के लिये आवश्यक मात्रा में शिक्षा की व्यवस्था करना किसी भी सरकार के बस की बात नहीं है इसलिये दो प्रकार की व्यवस्था है। समाज के कुछ सेवाभावी सज्जन विद्यालय शुरू करने के इच्छुक होते  हैं । भारत में तो शिक्षा की सेवा करना पुण्य का काम माना गया है। इन सज्जनों को संस्था बनानी होती है जो सोसायटी अथवा ट्रस्ट कहा जाता है, उसे सोसायटी और ट्रस्ट के लिये कानून के अन्तर्गत पंजीकृत करवाना होता है,  उसकी शर्तों के अनुसार भवन तथा अन्य भौतिक सुविधायें जुटानी होती हैं । सरकार शिक्षकों का वेतन अनुदान के रूप में देती है, शेष व्यय ट्रस्ट को करनी पड़ती है । सरकार और ट्रस्टी मिलकर शिक्षकों का चयन और नियुक्ति करते हैं । दूसरा एक प्रकार होता है जिसमें सरकार शिक्षकों के वेतन के लिये भी अनुदान नहीं देती । विद्यार्थियों से शुल्क लिया जाता है, उसमें से शिक्षकों को वेतन दिया जाता है । भवन आदि अन्य आवश्यकताओं के लिये समाज का सहयोग लिया जाता है । ट्रस्टियों की सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर और शिक्षा के लिये दान देना चाहिये ऐसी मानसिकता.के कारण विद्यालय हेतु दान मिलता है।   
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देश के लिये आवश्यक मात्रा में शिक्षा की व्यवस्था करना किसी भी सरकार के बस की बात नहीं है इसलिये दो प्रकार की व्यवस्था है। समाज के कुछ सेवाभावी सज्जन विद्यालय आरम्भ करने के इच्छुक होते  हैं । भारत में तो शिक्षा की सेवा करना पुण्य का काम माना गया है। इन सज्जनों को संस्था बनानी होती है जो सोसायटी अथवा ट्रस्ट कहा जाता है, उसे सोसायटी और ट्रस्ट के लिये कानून के अन्तर्गत पंजीकृत करवाना होता है,  उसकी शर्तों के अनुसार भवन तथा अन्य भौतिक सुविधायें जुटानी होती हैं । सरकार शिक्षकों का वेतन अनुदान के रूप में देती है, शेष व्यय ट्रस्ट को करनी पड़ती है । सरकार और ट्रस्टी मिलकर शिक्षकों का चयन और नियुक्ति करते हैं । दूसरा एक प्रकार होता है जिसमें सरकार शिक्षकों के वेतन के लिये भी अनुदान नहीं देती । विद्यार्थियों से शुल्क लिया जाता है, उसमें से शिक्षकों को वेतन दिया जाता है । भवन आदि अन्य आवश्यकताओं के लिये समाज का सहयोग लिया जाता है । ट्रस्टियों की सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर और शिक्षा के लिये दान देना चाहिये ऐसी मानसिकता.के कारण विद्यालय हेतु दान मिलता है।   
    
विद्यालयों का शिक्षाक्रम सरकार ट्रारा इस काम के लिये नियुक्त संस्थाओं द्वारा बने हुए पाठ्यक्रमों, पाठ्यपुस्तकों, निर्देशों तथा परीक्षातन्त्र के नियमन में चलता.है। शासन की नीति और प्रशासन के नियमों के अधीन होकर देश की शिक्षा चल रही है ।
 
विद्यालयों का शिक्षाक्रम सरकार ट्रारा इस काम के लिये नियुक्त संस्थाओं द्वारा बने हुए पाठ्यक्रमों, पाठ्यपुस्तकों, निर्देशों तथा परीक्षातन्त्र के नियमन में चलता.है। शासन की नीति और प्रशासन के नियमों के अधीन होकर देश की शिक्षा चल रही है ।
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भारत स्वाधीन तो हो गया परन्तु व्यवस्थायें सारी कारण प्रजाजीवन की सारी व्यवस्थाओं को बाजार का स्वरूप प्राप्त हुआ । आज शिक्षाक्षेत्र को यह आयाम भी चिपक गया है । अतः शासन की नीतियाँ, प्रशासन के नियम और बाजार का व्यापारवाद तीनों मिलकर शिक्षा का.नियमन कर रहे हैं । शासन मालिक है, प्रशासन नियन्त्रक है और विद्यार्थी यदि छोटा है तो उसके मातापिता और वयस्क है तो विद्यार्थी स्वयं ग्राहक है । इस तन्त्र में शिक्षक का स्थान कहाँ  है? वह शासक का नौकर है और विद्यार्थी के लिए विक्रयिक (सेल्समेन ) दूसरे का माल दूसरे को बेचने वाला है। इसका उसे वेतन मिलता है।  
 
भारत स्वाधीन तो हो गया परन्तु व्यवस्थायें सारी कारण प्रजाजीवन की सारी व्यवस्थाओं को बाजार का स्वरूप प्राप्त हुआ । आज शिक्षाक्षेत्र को यह आयाम भी चिपक गया है । अतः शासन की नीतियाँ, प्रशासन के नियम और बाजार का व्यापारवाद तीनों मिलकर शिक्षा का.नियमन कर रहे हैं । शासन मालिक है, प्रशासन नियन्त्रक है और विद्यार्थी यदि छोटा है तो उसके मातापिता और वयस्क है तो विद्यार्थी स्वयं ग्राहक है । इस तन्त्र में शिक्षक का स्थान कहाँ  है? वह शासक का नौकर है और विद्यार्थी के लिए विक्रयिक (सेल्समेन ) दूसरे का माल दूसरे को बेचने वाला है। इसका उसे वेतन मिलता है।  
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बाजारतन्त्र में ग्राहक की मर्जी सम्हालनी होती है। यह तो प्रकट व्यवहार है । परन्तु प्रच्छन्न रूप से उत्पादक व्यापारी उसने जो बनाया है वह माल ग्राहकों को बेचना चाहता है। बेचने के लिये अनेक प्रकार के विज्ञापनों का सहारा लेता है । राजकीय पक्ष यही करते हैं । अंग्रेज भारत में ऐसा ही करते थे। उनका शासन स्थिररूप से जमा रहे इस हेतु से भारत के लोगों का भला करने की भाषा बोलते हए शिक्षा के माध्यम से प्रजा को गुलाम और निवीर्य बनाते थे । स्वतन्त्र भारत की सरकारें भी ऐसा ही करती रही हैं ऐसा मानने में क्षोभ का अनुभव होता है तो भी यह सत्य है ऐसा मानना पडता है।  
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बाजारतन्त्र में ग्राहक की मर्जी सम्हालनी होती है। यह तो प्रकट व्यवहार है । परन्तु प्रच्छन्न रूप से उत्पादक व्यापारी उसने जो बनाया है वह माल ग्राहकों को बेचना चाहता है। बेचने के लिये अनेक प्रकार के विज्ञापनों का सहारा लेता है । राजकीय पक्ष यही करते हैं । अंग्रेज भारत में ऐसा ही करते थे। उनका शासन स्थिररूप से जमा रहे इस हेतु से भारत के लोगोंं का भला करने की भाषा बोलते हए शिक्षा के माध्यम से प्रजा को गुलाम और निवीर्य बनाते थे । स्वतन्त्र भारत की सरकारें भी ऐसा ही करती रही हैं ऐसा मानने में क्षोभ का अनुभव होता है तो भी यह सत्य है ऐसा मानना पडता है।  
    
===== शिक्षा की सभी व्यवस्थाएँ वही की वही =====
 
===== शिक्षा की सभी व्यवस्थाएँ वही की वही =====
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===== प्राचीन भारत में शिक्षा का स्वरूप =====
 
===== प्राचीन भारत में शिक्षा का स्वरूप =====
तो फिर भारत में शिक्षा चलती कैसे थी ? छोटे गाँव में किसी ज्ञानवान व्यक्ति को लगता था कि मेरे गाँव के लोग अशिक्षित नहीं रहने चाहिये, मैं उन्हें शिक्षित बनाऊँगा, और वह विद्यालय शुरू करता था । गाँव का मुखिया किसी ज्ञानवान व्यक्ति को प्रार्थना करता था कि हमारे गाँव के बच्चे अनाडी नहीं रहने चाहिये, आप उन्हें ज्ञान दो, और वह व्यक्ति बिना किसी शर्त के विद्यालय शुरू करता था । वह अपने हिसाब से ही पढ़ाता था । विद्यालय कहाँ शुरू होता था ? अपने ही घर में शिक्षक विद्यालय शुरू करता था । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि भारत में सारे व्यवसाय व्यवसायियों के घरों में ही चलते थे । वे व्यवसाय गृहजीवन के ही अंग होते थे । यदि विद्यार्थियों की संख्या अधिक रही तो किसी वटवृक्ष के नीचे बठ जाते थे, कहीं मन्दिर के अहाते में बैठ जाते थे, कहीं किसी के बड़े घर के आँगन में या बरामदे में बैठ जाते थे । गम्भीर से गम्भीर विषयों की शिक्षा भी बिना तामझाम के, बिना पैसे के हो जाती थी । विद्यार्थियों को पढ़ाने में शिक्षक का, उसे अपने घर का कमरा देने में उस घर के मालिक का, उसे गाँव के बच्चों को पढ़ाने की प्रार्थना करने वाले मुखिया का कोई अपना स्वार्थ नहीं था । शिक्षक किसी का नौकर नहीं था । पढने के लिये शुल्क नहीं देना पडता था फिर शिक्षक का निर्वाह कैसे चलता था ? उसकी व्यवस्था भी स्वाभाविक रूप से ही हो जाती थी । जब विद्यार्थी पहली बार पढने के लिये आता था तब कुछ न कुछ लेकर आता था । यह शुल्क नहीं था । कुछ न कुछ लाना अनिवार्य नहीं था । परन्तु देव, गुरु, पण्डित, राजा, बडा व्यक्ति, स्वजन के पास जाते समय खाली हाथ नहीं जाना यह भारत की परम्परा रही है । अतः विद्यार्थी कुछ न कुछ लेकर ही आता था । यह विद्यार्थी के घर्‌ की हैसियत के अनुरूप होता था । गरीब कम और अमीर अधिक मात्रा में लाता था | यह पैसे के रूप में न होकर अनाज, वस्त्र, गाय आदि के रूप में होता था ।
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तो फिर भारत में शिक्षा चलती कैसे थी ? छोटे गाँव में किसी ज्ञानवान व्यक्ति को लगता था कि मेरे गाँव के लोग अशिक्षित नहीं रहने चाहिये, मैं उन्हें शिक्षित बनाऊँगा, और वह विद्यालय आरम्भ करता था । गाँव का मुखिया किसी ज्ञानवान व्यक्ति को प्रार्थना करता था कि हमारे गाँव के बच्चे अनाडी नहीं रहने चाहिये, आप उन्हें ज्ञान दो, और वह व्यक्ति बिना किसी शर्त के विद्यालय आरम्भ करता था । वह अपने हिसाब से ही पढ़ाता था । विद्यालय कहाँ आरम्भ होता था ? अपने ही घर में शिक्षक विद्यालय आरम्भ करता था । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि भारत में सारे व्यवसाय व्यवसायियों के घरों में ही चलते थे । वे व्यवसाय गृहजीवन के ही अंग होते थे । यदि विद्यार्थियों की संख्या अधिक रही तो किसी वटवृक्ष के नीचे बठ जाते थे, कहीं मन्दिर के अहाते में बैठ जाते थे, कहीं किसी के बड़े घर के आँगन में या बरामदे में बैठ जाते थे । गम्भीर से गम्भीर विषयों की शिक्षा भी बिना तामझाम के, बिना पैसे के हो जाती थी । विद्यार्थियों को पढ़ाने में शिक्षक का, उसे अपने घर का कमरा देने में उस घर के मालिक का, उसे गाँव के बच्चोंं को पढ़ाने की प्रार्थना करने वाले मुखिया का कोई अपना स्वार्थ नहीं था । शिक्षक किसी का नौकर नहीं था । पढने के लिये शुल्क नहीं देना पडता था फिर शिक्षक का निर्वाह कैसे चलता था ? उसकी व्यवस्था भी स्वाभाविक रूप से ही हो जाती थी । जब विद्यार्थी पहली बार पढने के लिये आता था तब कुछ न कुछ लेकर आता था । यह शुल्क नहीं था । कुछ न कुछ लाना अनिवार्य नहीं था । परन्तु देव, गुरु, पण्डित, राजा, बडा व्यक्ति, स्वजन के पास जाते समय खाली हाथ नहीं जाना यह भारत की परम्परा रही है । अतः विद्यार्थी कुछ न कुछ लेकर ही आता था । यह विद्यार्थी के घर्‌ की हैसियत के अनुरूप होता था । गरीब कम और अमीर अधिक मात्रा में लाता था | यह पैसे के रूप में न होकर अनाज, वस्त्र, गाय आदि के रूप में होता था ।
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शिक्षक पूरे गाँव के लिये सम्माननीय था । घर के विवाहादि अवसरों पर शिक्षक का सम्मान किया जाता था और वस्त्र, अलंकार जैसी भौतिक वस्तु के रूप में यह सम्मान होता था । उसे भोजन के लिये भी बुलाया जाता था । विद्यार्थी जब अध्ययन पूर्ण करता था तब गुरुदक्षिणा देता था । यह भी उसके घर की हैसियत से ही होती थी । संक्षेप में गाँव के बच्चों को ज्ञान देने वाले को गाँव कभी भी दृरिद्र और बेचारा नहीं रहने देता था ।
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शिक्षक पूरे गाँव के लिये सम्माननीय था । घर के विवाहादि अवसरों पर शिक्षक का सम्मान किया जाता था और वस्त्र, अलंकार जैसी भौतिक वस्तु के रूप में यह सम्मान होता था । उसे भोजन के लिये भी बुलाया जाता था । विद्यार्थी जब अध्ययन पूर्ण करता था तब गुरुदक्षिणा देता था । यह भी उसके घर की हैसियत से ही होती थी । संक्षेप में गाँव के बच्चोंं को ज्ञान देने वाले को गाँव कभी भी दृरिद्र और बेचारा नहीं रहने देता था ।
    
यह भारत का स्वभाव ही रहा है । परिवार-भावना से जब सारी व्यवस्थायें चलती हैं तब सम्मान, सुरक्षा, आवश्यकताओं की पूर्ति होती ही है। भारत का जो सांस्कृतिक नुकसान हुआ है वह इन सारी व्यवस्थाओं के टूट जाने और उनके स्थान पर अनात्मीय, अपना अपना स्वार्थ देखनेवाली व्यवस्थाओं की प्रतिष्ठापना का हुआ है ।
 
यह भारत का स्वभाव ही रहा है । परिवार-भावना से जब सारी व्यवस्थायें चलती हैं तब सम्मान, सुरक्षा, आवश्यकताओं की पूर्ति होती ही है। भारत का जो सांस्कृतिक नुकसान हुआ है वह इन सारी व्यवस्थाओं के टूट जाने और उनके स्थान पर अनात्मीय, अपना अपना स्वार्थ देखनेवाली व्यवस्थाओं की प्रतिष्ठापना का हुआ है ।
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वह क्या पढ़ाता है, क्यों पढ़ाता है उससे उसे कोई अंतर नहीं पडता । शासन कहता है कि भगतसिंह हत्यारा है तो वह वैसा पढायेगा, शासन कहता है कि शिवाजी पहाड का चूहा है तो वह वैसा पढायेगा । शासन कहता है कि अफझल खान दुष्ट है तो वह वैसा पढायेगा। उसे कोई अंतर नहीं पडता । उसके हाथ में दी गई पुस्तक में लिखा है कि अंग्रेजों ने भारत में अनेक सुधार किये तो वह वैसा पढायेगा, आर्य बाहर से भारत में आये तो वैसा पढायेगा, छोटा परिवार सुखी परिवार तो वैसा पढायेगा । उसे कोई अंतर नहीं पडता । अर्थात्‌ वह बेपरवाह है । और क्यों नहीं होगा ? नौकर की क्या कभी अपनी मर्जी, अपना मत होता है ? वह किसी दूसरे का काम कर रहा हैं, उसे बताया काम करना है, वह चिन्ता क्यों करेगा ?
 
वह क्या पढ़ाता है, क्यों पढ़ाता है उससे उसे कोई अंतर नहीं पडता । शासन कहता है कि भगतसिंह हत्यारा है तो वह वैसा पढायेगा, शासन कहता है कि शिवाजी पहाड का चूहा है तो वह वैसा पढायेगा । शासन कहता है कि अफझल खान दुष्ट है तो वह वैसा पढायेगा। उसे कोई अंतर नहीं पडता । उसके हाथ में दी गई पुस्तक में लिखा है कि अंग्रेजों ने भारत में अनेक सुधार किये तो वह वैसा पढायेगा, आर्य बाहर से भारत में आये तो वैसा पढायेगा, छोटा परिवार सुखी परिवार तो वैसा पढायेगा । उसे कोई अंतर नहीं पडता । अर्थात्‌ वह बेपरवाह है । और क्यों नहीं होगा ? नौकर की क्या कभी अपनी मर्जी, अपना मत होता है ? वह किसी दूसरे का काम कर रहा हैं, उसे बताया काम करना है, वह चिन्ता क्यों करेगा ?
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आज शिक्षक अपना विद्यालय शुरू नहीं कर सकता । उसे नौकरी ही करना है । और वह क्यों करे ? सब कुछतो शासन तय करता है। अब शिक्षा कैसी है उसके आधार पर विद्यालय नहीं चलेगा, भवन, भौतिक सुविधाओं, अर्थव्यवस्था के आधार पर मान्यता मिलती है, शिक्षकों की पदवियों और संख्या के आधार पर मूल्यांकन होता है, पढाने की इच्छा, तत्परता, नीयत, चरित्र, विद्यार्थियों का. गुणविकास, सही ज्ञान, सेवाभाव, विद्याप्रीति, निष्ठा आदि के आधार पर नहीं । मान्यता नहीं तो प्रमाणपत्र नहीं, प्रमाणपत्र नहीं तो नौकरी नहीं, नौकरी नहीं तो पैसा नहीं ।
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आज शिक्षक अपना विद्यालय आरम्भ नहीं कर सकता । उसे नौकरी ही करना है । और वह क्यों करे ? सब कुछतो शासन तय करता है। अब शिक्षा कैसी है उसके आधार पर विद्यालय नहीं चलेगा, भवन, भौतिक सुविधाओं, अर्थव्यवस्था के आधार पर मान्यता मिलती है, शिक्षकों की पदवियों और संख्या के आधार पर मूल्यांकन होता है, पढाने की इच्छा, तत्परता, नीयत, चरित्र, विद्यार्थियों का. गुणविकास, सही ज्ञान, सेवाभाव, विद्याप्रीति, निष्ठा आदि के आधार पर नहीं । मान्यता नहीं तो प्रमाणपत्र नहीं, प्रमाणपत्र नहीं तो नौकरी नहीं, नौकरी नहीं तो पैसा नहीं ।
    
===== ऐसे में शिक्षा कैसे होगी ? =====
 
===== ऐसे में शिक्षा कैसे होगी ? =====
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===== शिक्षा में धार्मिक करण के उपाय =====
 
===== शिक्षा में धार्मिक करण के उपाय =====
वास्तव में शिक्षा का धार्मिककरण करने के लिये व्यवस्थातन्त्र का विचार तो करना ही पडेगा । हमें प्रयोग भी करने पड़ेंगे । हमे साहस दिखाना होगा ।
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वास्तव में शिक्षा का धार्मिककरण करने के लिये व्यवस्थातन्त्र का विचार तो करना ही पड़ेगा । हमें प्रयोग भी करने पड़ेंगे । हमे साहस दिखाना होगा ।
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एक प्रयोग ऐसा हो सकता है - कुछ शिक्षकों ने मिलकर एक विद्यालय शुरू करना । इस विद्यालय हेतु शासन की मान्यता नहीं माँगना । शासन की मान्यता नहीं होगी तो बोर्ड की परीक्षा भी नहीं होगी । प्रमाणपत्र नहीं मिलेगा । नौकरी नहीं मिलेगी । इस प्रयोग के लिये नौकरी की चाह नहीं रखने वाले, प्रमाणपत्र की आकांक्षा नहीं रखने वाले साहसी मातापिताओं को इन शिक्षकों का साथ देना होगा। इस विद्यालयमें शिक्षित विद्यार्थी अच्छा अर्थार्जन कर सकें ऐसी शिक्षा उन्हें देनी होगी । समझो, वे किसी वस्तु का उत्पादन करते हैं तो उसे खरीद करने वाला ग्राहक वर्ग भी निर्माण करना होगा । यदि ऐसे विद्यालयों की संख्या बढ सके तो एक पर्याय निर्माण होने की सम्भावना बन सकती है । शिक्षा को स्वतन्त्रता की प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती है ।
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एक प्रयोग ऐसा हो सकता है - कुछ शिक्षकों ने मिलकर एक विद्यालय आरम्भ करना । इस विद्यालय हेतु शासन की मान्यता नहीं माँगना । शासन की मान्यता नहीं होगी तो बोर्ड की परीक्षा भी नहीं होगी । प्रमाणपत्र नहीं मिलेगा । नौकरी नहीं मिलेगी । इस प्रयोग के लिये नौकरी की चाह नहीं रखने वाले, प्रमाणपत्र की आकांक्षा नहीं रखने वाले साहसी मातापिताओं को इन शिक्षकों का साथ देना होगा। इस विद्यालयमें शिक्षित विद्यार्थी अच्छा अर्थार्जन कर सकें ऐसी शिक्षा उन्हें देनी होगी । समझो, वे किसी वस्तु का उत्पादन करते हैं तो उसे खरीद करने वाला ग्राहक वर्ग भी निर्माण करना होगा । यदि ऐसे विद्यालयों की संख्या बढ सके तो एक पर्याय निर्माण होने की सम्भावना बन सकती है । शिक्षा को स्वतन्त्रता की प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती है ।
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यह काम इतना सरल नहीं है। शिक्षक और अभिभावकों का साहस बनना ही प्रथम कठिनाई है । यह कदाचित हो भी गया तो सरकार इसे “बच्चों को शिक्षा से वंचित कर रहे हैं क्योंकि ये मान्यता प्राप्त विद्यालय में नहीं पढ रहे हैं ।' कहकर दण्डित कर सकती है । इसलिये सरकार के साथ बातचीत करने का काम भी करना ही पडेगा । शिक्षकों को अधिक साहस जुटाना होगा ।
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यह काम इतना सरल नहीं है। शिक्षक और अभिभावकों का साहस बनना ही प्रथम कठिनाई है । यह कदाचित हो भी गया तो सरकार इसे “बच्चोंं को शिक्षा से वंचित कर रहे हैं क्योंकि ये मान्यता प्राप्त विद्यालय में नहीं पढ रहे हैं ।' कहकर दण्डित कर सकती है । इसलिये सरकार के साथ बातचीत करने का काम भी करना ही पड़ेगा । शिक्षकों को अधिक साहस जुटाना होगा ।
    
इसके साथ ही नया पाठ्यक्रम, नई पाठनसामग्री आदि भी तैयार करने होंगे। यदि ऐसा पर्याय निर्माण हो सकता है तो करना चाहिये ।दूसरा पर्याय कुछ समझौता करने का है।
 
इसके साथ ही नया पाठ्यक्रम, नई पाठनसामग्री आदि भी तैयार करने होंगे। यदि ऐसा पर्याय निर्माण हो सकता है तो करना चाहिये ।दूसरा पर्याय कुछ समझौता करने का है।
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तीसरा प्रयोग है - निजी विद्यालय चलाने के लिये जो संस्थायें स्थापित होती हैं उनके सारे पदाधिकारी शिक्षक ही होने चाहिये । वे कभी शिक्षक रहे हैं ऐसे नहीं, प्रत्यक्ष पढाने वाले शिक्षक होने चाहिये । जो शिक्षक नहीं वह संस्था का सदस्य या पदाधिकारी नहीं हो सकता, संस्था के पदों की शब्दावली भी शिक्षाक्षेत्र के अनुकूल होनी चाहिये। अध्यक्ष, मंत्री, कोषाध्यक्ष, कार्यकारिणी, साधारणसभा आदि नहीं अपितु कुलपति, आचार्य, आचार्य परिषद जैसी नामावलि होनी चाहिये। ऐसी रचना होगी तो शिक्षा की गाड़ी आधे रास्ते पर आ सकती है।
 
तीसरा प्रयोग है - निजी विद्यालय चलाने के लिये जो संस्थायें स्थापित होती हैं उनके सारे पदाधिकारी शिक्षक ही होने चाहिये । वे कभी शिक्षक रहे हैं ऐसे नहीं, प्रत्यक्ष पढाने वाले शिक्षक होने चाहिये । जो शिक्षक नहीं वह संस्था का सदस्य या पदाधिकारी नहीं हो सकता, संस्था के पदों की शब्दावली भी शिक्षाक्षेत्र के अनुकूल होनी चाहिये। अध्यक्ष, मंत्री, कोषाध्यक्ष, कार्यकारिणी, साधारणसभा आदि नहीं अपितु कुलपति, आचार्य, आचार्य परिषद जैसी नामावलि होनी चाहिये। ऐसी रचना होगी तो शिक्षा की गाड़ी आधे रास्ते पर आ सकती है।
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ऐसा प्रयोग भी हो सकता है - शिक्षकों द्वारा शुरू किया गया प्रयोग निःशुल्क चलाना । इस विद्यालय को चलाने के लिये समाज का सहयोग प्राप्त करने हेतु शिक्षकों और अभिभावकों और विद्यार्थी आदि बड़े हैं तो विद्यार्थी शिक्षकों का सहयोग करें ऐसी व्यवस्था हो सकती है।
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ऐसा प्रयोग भी हो सकता है - शिक्षकों द्वारा आरम्भ किया गया प्रयोग निःशुल्क चलाना । इस विद्यालय को चलाने के लिये समाज का सहयोग प्राप्त करने हेतु शिक्षकों और अभिभावकों और विद्यार्थी आदि बड़े हैं तो विद्यार्थी शिक्षकों का सहयोग करें ऐसी व्यवस्था हो सकती है।
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ऐसे और भी अनेक मौलिक प्रयोग हो सकते हैं । इस दिशा में विचार शुरू किया तो भारत के लोगों को अनेक नई नई बातें सुझ सकती हैं क्योंकि भारत के अन्तर्मन में शिक्षा और शिक्षक को उन्नत स्थान पर बिठाकर उनका सम्मान करने की चाह होती ही है।
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ऐसे और भी अनेक मौलिक प्रयोग हो सकते हैं । इस दिशा में विचार आरम्भ किया तो भारत के लोगोंं को अनेक नई नई बातें सुझ सकती हैं क्योंकि भारत के अन्तर्मन में शिक्षा और शिक्षक को उन्नत स्थान पर बिठाकर उनका सम्मान करने की चाह होती ही है।
    
अभी तो अविचार की स्थिति है। हमें वास्तविकता  का खास ज्ञान और भान ही नहीं है । यदि भान आये तो  मार्ग भी निकल सकता है।धर्म की तरह शिक्षा भी उसका सम्मान करने से ही हमें सम्मान दिला सकती है।
 
अभी तो अविचार की स्थिति है। हमें वास्तविकता  का खास ज्ञान और भान ही नहीं है । यदि भान आये तो  मार्ग भी निकल सकता है।धर्म की तरह शिक्षा भी उसका सम्मान करने से ही हमें सम्मान दिला सकती है।
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प्रश्न यह है कि इसका क्या किया जाय ।  
 
प्रश्न यह है कि इसका क्या किया जाय ।  
* सर्वप्रथम शिक्षकों को अधिक विश्वसनीय बनना चाहिये । सारी समस्याओं की जड शिक्षक विश्वसनीय और दायित्व को समझने वाले नहीं रहे यह है ।  
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* सर्वप्रथम शिक्षकों को अधिक विश्वसनीय बनना चाहिये । सारी समस्याओं की जड़ शिक्षक विश्वसनीय और दायित्व को समझने वाले नहीं रहे यह है ।  
 
* विश्वसनीय और दायित्वबोध से युक्त होने के बाद शिक्षकों को यान्त्रिकता यह प्रश्न क्या है, उसका स्वरूप कैसा है, उसके परिणाम कैसे हैं और धार्मिक जीवनदृष्टि और धार्मिक जनमानस के साथ यह कितना विसंगत है यह समझना होगा । यह शिशु से उच्चशिक्षा तक सर्वत्र व्याप्त प्रश्न है यह भी समझना होगा । अपने अपने स्तर पर इसके उपाय का विचार करना होगा ।  
 
* विश्वसनीय और दायित्वबोध से युक्त होने के बाद शिक्षकों को यान्त्रिकता यह प्रश्न क्या है, उसका स्वरूप कैसा है, उसके परिणाम कैसे हैं और धार्मिक जीवनदृष्टि और धार्मिक जनमानस के साथ यह कितना विसंगत है यह समझना होगा । यह शिशु से उच्चशिक्षा तक सर्वत्र व्याप्त प्रश्न है यह भी समझना होगा । अपने अपने स्तर पर इसके उपाय का विचार करना होगा ।  
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# शिक्षक के जाने तक विद्यार्थियों को रुकना चाहिये । शिक्षक से पहले कक्षा नहीं छोडनी चाहिये । कक्षा चल रही है तब तक मध्य में से छोडकर नहीं जाना चाहिये।
 
# शिक्षक के जाने तक विद्यार्थियों को रुकना चाहिये । शिक्षक से पहले कक्षा नहीं छोडनी चाहिये । कक्षा चल रही है तब तक मध्य में से छोडकर नहीं जाना चाहिये।
 
# कक्षा चल रही हो तब विद्यार्थी आपस में बातें न करें । अपना और कोई काम न करें, खायें पीयें नहीं यह भी आवश्यक है । आजकल पानी की बोतल सबके साथ रहती है और प्यास लगे तब पानी पीना सबको स्वाभाविक लगता है । लघुशंका के लिये भी मध्य में ही जाना स्वाभाविक माना जाता है। आवेगों को नहीं रोकना चाहिये ऐसा शास्त्रीय कारण भी दिया जाता है । यह सब तो ठीक है परन्तु कक्षा प्रारम्भ होने से पूर्व ही इन कामों को निपट लेने की सावधानी सिखाना चाहिये । एक साथ कम से कम दो घण्टे बिना पानी के, बिना लघुशंका गये काम कर सकें ऐसा अभ्यास होना चाहिये । यह तो सभाओं और कार्यक्रमों में पालन किया जाना चाहिये ऐसा शिष्टाचार है । कक्षाकक्षों में ही इसके संस्कार होते हैं । यहाँ नहीं हुए तो जीवन में भी नहीं आते । घरों में और समाज में कक्षाकक्षों से ही पहुँचते हैं।
 
# कक्षा चल रही हो तब विद्यार्थी आपस में बातें न करें । अपना और कोई काम न करें, खायें पीयें नहीं यह भी आवश्यक है । आजकल पानी की बोतल सबके साथ रहती है और प्यास लगे तब पानी पीना सबको स्वाभाविक लगता है । लघुशंका के लिये भी मध्य में ही जाना स्वाभाविक माना जाता है। आवेगों को नहीं रोकना चाहिये ऐसा शास्त्रीय कारण भी दिया जाता है । यह सब तो ठीक है परन्तु कक्षा प्रारम्भ होने से पूर्व ही इन कामों को निपट लेने की सावधानी सिखाना चाहिये । एक साथ कम से कम दो घण्टे बिना पानी के, बिना लघुशंका गये काम कर सकें ऐसा अभ्यास होना चाहिये । यह तो सभाओं और कार्यक्रमों में पालन किया जाना चाहिये ऐसा शिष्टाचार है । कक्षाकक्षों में ही इसके संस्कार होते हैं । यहाँ नहीं हुए तो जीवन में भी नहीं आते । घरों में और समाज में कक्षाकक्षों से ही पहुँचते हैं।
# अनिवार्य कारण से यदि मध्य में ही कक्षा के अन्दर आना पडे या बाहर जाना पडे, बिना अनुमति के नहीं आना चाहिये । अनुमति माँगने पर मिलेगी ही या देनी ही चाहिये ऐसा नियम नहीं है । अनुमति देना या नहीं देना शिक्षक के विवेक पर निर्भर करता है  (मर्जी पर नहीं)।
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# अनिवार्य कारण से यदि मध्य में ही कक्षा के अन्दर आना पड़े या बाहर जाना पड़े, बिना अनुमति के नहीं आना चाहिये । अनुमति माँगने पर मिलेगी ही या देनी ही चाहिये ऐसा नियम नहीं है । अनुमति देना या नहीं देना शिक्षक के विवेक पर निर्भर करता है  (मर्जी पर नहीं)।
 
# कक्षा चल रही है तब शिक्षक की अनुमति के बिना विद्यार्थी तो क्या कोई भी नहीं आ सकता, यहाँ तक कि मुख्याध्यापक भी नहीं। जिस प्रकार मुख्याध्यापक विद्यालय का मुखिया है, शिक्षक अपनी कक्षा का मुखिया है। उसकी आज्ञा या अनुमति के बिना कुछ नहीं हो सकता। आजकल निरीक्षण करने के लिये आये हुए सरकारी शिक्षाविभाग के अधिकारी अनुमति माँगने की शिष्टता नहीं दर्शाते, परवाह भी नहीं करते । परन्तु यह होना अपेक्षित है।
 
# कक्षा चल रही है तब शिक्षक की अनुमति के बिना विद्यार्थी तो क्या कोई भी नहीं आ सकता, यहाँ तक कि मुख्याध्यापक भी नहीं। जिस प्रकार मुख्याध्यापक विद्यालय का मुखिया है, शिक्षक अपनी कक्षा का मुखिया है। उसकी आज्ञा या अनुमति के बिना कुछ नहीं हो सकता। आजकल निरीक्षण करने के लिये आये हुए सरकारी शिक्षाविभाग के अधिकारी अनुमति माँगने की शिष्टता नहीं दर्शाते, परवाह भी नहीं करते । परन्तु यह होना अपेक्षित है।
 
# कक्षा में शिक्षक के आसन पर और कोई नहीं बैठ सकता । कक्षा के बाहर अनेक व्यक्ति आयु में, ज्ञान में, अधिकार में शिक्षक से बड़े हो सकते हैं, वहाँ शिक्षक उनका उचित सम्मान करेगा परन्तु कक्षा के अन्दर सब शिक्षक का ही सम्मान करेंगे। विद्यार्थियों को भी इस बात की जानकारी होनी चाहिये, अन्यथा वे स्वयं ही खडे हो जाते हैं । शिक्षक का सम्मान करना है यह विषय शिक्षक स्वयं नहीं बतायेंगे, मुख्याध्यापक ने स्वयं विद्यालय के सभी छात्रों को सिखानी चाहिये। कक्षा में यदि मुख्याध्यापक या कोई वरिष्ठ अधिकारी या कोई सन्त आते हैं तब शिक्षक स्वयं विद्यार्थियों को खडे होकर प्रणाम करने की आज्ञा दे यही उचित पद्धति है।
 
# कक्षा में शिक्षक के आसन पर और कोई नहीं बैठ सकता । कक्षा के बाहर अनेक व्यक्ति आयु में, ज्ञान में, अधिकार में शिक्षक से बड़े हो सकते हैं, वहाँ शिक्षक उनका उचित सम्मान करेगा परन्तु कक्षा के अन्दर सब शिक्षक का ही सम्मान करेंगे। विद्यार्थियों को भी इस बात की जानकारी होनी चाहिये, अन्यथा वे स्वयं ही खडे हो जाते हैं । शिक्षक का सम्मान करना है यह विषय शिक्षक स्वयं नहीं बतायेंगे, मुख्याध्यापक ने स्वयं विद्यालय के सभी छात्रों को सिखानी चाहिये। कक्षा में यदि मुख्याध्यापक या कोई वरिष्ठ अधिकारी या कोई सन्त आते हैं तब शिक्षक स्वयं विद्यार्थियों को खडे होकर प्रणाम करने की आज्ञा दे यही उचित पद्धति है।
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अभिभावकों की शिक्षा अलग बात है और विद्यार्थियों के अपराध या दोष के निवारण का हवाला अभिभावकों को सौंपना अलग बात है।
 
अभिभावकों की शिक्षा अलग बात है और विद्यार्थियों के अपराध या दोष के निवारण का हवाला अभिभावकों को सौंपना अलग बात है।
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इसी प्रकार से विद्यालय परिसर में पुलीस को बुलाना, न्यायालय में केस दर्ज करना आदि नहीं होना चाहिये । यह मुख्याध्यापक की वरिष्ठता समाप्त कर देता है। विद्यार्थी, शिक्षक, अभिभावक या समाज से अन्य कोई न्यायालय में शिकायत करे ऐसी नौबत नहीं आने देना यह विद्यालय के मुख्याध्यापक और शिक्षकों की गुणवत्ता और व्यवहार दक्षता पर निर्भर करता है । यह बात ठीक है कि विद्यालय स्वयं पुलिस या न्यायालय के सामने नहीं जायेगा परन्तु कोई यदि उन्हें घसीटता है तो उन्हें जाना पडेगा । परन्तु स्थितियों का ठीक से आकलन करना शिक्षकों को आना ही चाहिये । शिक्षक बनना आसान नहीं है, विद्याव्रत भी आसान व्रत नहीं है, शिक्षक के नाते सम्मान सस्ते में नहीं मिलता है ।  
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इसी प्रकार से विद्यालय परिसर में पुलीस को बुलाना, न्यायालय में केस दर्ज करना आदि नहीं होना चाहिये । यह मुख्याध्यापक की वरिष्ठता समाप्त कर देता है। विद्यार्थी, शिक्षक, अभिभावक या समाज से अन्य कोई न्यायालय में शिकायत करे ऐसी नौबत नहीं आने देना यह विद्यालय के मुख्याध्यापक और शिक्षकों की गुणवत्ता और व्यवहार दक्षता पर निर्भर करता है । यह बात ठीक है कि विद्यालय स्वयं पुलिस या न्यायालय के सामने नहीं जायेगा परन्तु कोई यदि उन्हें घसीटता है तो उन्हें जाना पड़ेगा । परन्तु स्थितियों का ठीक से आकलन करना शिक्षकों को आना ही चाहिये । शिक्षक बनना आसान नहीं है, विद्याव्रत भी आसान व्रत नहीं है, शिक्षक के नाते सम्मान सस्ते में नहीं मिलता है ।  
    
====== विद्यालय की गरिमा व पवित्रता की रक्षा ======
 
====== विद्यालय की गरिमा व पवित्रता की रक्षा ======
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इस प्रकार यहाँ विद्यार्थी और शिक्षक मिलकर विद्यालय का संचालन करें इस विषय में कुछ विवरण दिया गया है । परन्तु ऐसा होना इतना सरल नहीं है । इसे सम्भव बनाने हेतु भी योजना पूर्वक कुछ प्रयास करने होंगे । ये प्रयास कुछ इस प्रकार हो सकते हैं...  
 
इस प्रकार यहाँ विद्यार्थी और शिक्षक मिलकर विद्यालय का संचालन करें इस विषय में कुछ विवरण दिया गया है । परन्तु ऐसा होना इतना सरल नहीं है । इसे सम्भव बनाने हेतु भी योजना पूर्वक कुछ प्रयास करने होंगे । ये प्रयास कुछ इस प्रकार हो सकते हैं...  
 
# इस संकल्पना की स्वीकृति लोकमानस में होना और अभिभावकों की समझ में आना आवश्यक है। आज केवल परीक्षा में अंक लाना ही शिक्षा का उद्देश्य माना जाता है तब शेष सारी बातें निरर्थक लगना स्वाभाविक है। अतः सार्थक शिक्षा की कल्पना लेकर व्यापक समाजप्रबोधन करना होगा । अभिभावकों की स्वीकृति के बिना कोई काम होना असम्भव है। इस दृष्टि से अनेक शिक्षण चिंतकों ने विभिन्न स्वरूपों में लोकमानस से संवाद करने की आवश्यकता होगी। बहुत कुछ लिखा जाना चाहिये और प्रचलित और प्रसारित होना चाहिये।  
 
# इस संकल्पना की स्वीकृति लोकमानस में होना और अभिभावकों की समझ में आना आवश्यक है। आज केवल परीक्षा में अंक लाना ही शिक्षा का उद्देश्य माना जाता है तब शेष सारी बातें निरर्थक लगना स्वाभाविक है। अतः सार्थक शिक्षा की कल्पना लेकर व्यापक समाजप्रबोधन करना होगा । अभिभावकों की स्वीकृति के बिना कोई काम होना असम्भव है। इस दृष्टि से अनेक शिक्षण चिंतकों ने विभिन्न स्वरूपों में लोकमानस से संवाद करने की आवश्यकता होगी। बहुत कुछ लिखा जाना चाहिये और प्रचलित और प्रसारित होना चाहिये।  
# हाथ से काम करने को आज हेय माना जाने लगा है। विद्यार्थी को घर में भी किसी प्रकार का काम करने का अभ्यास नहीं है। हर मातापिता की आकांक्षा होती है कि उनकी सन्तान पढलिखकर ऐसा व्यवसाय करे जहाँ उसे हाथ से काम न करना पडे। इस स्थिति में विद्यार्थी को हर काम सिखाना होगा और घर में भी करने के लिये उसे प्रेरित करना होगा। फिर हाथों को काम करना सिखाना होगा यह एक बहुत बड़ा काम है और धैर्यपूर्वक करने की आवश्यकता है ।  
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# हाथ से काम करने को आज हेय माना जाने लगा है। विद्यार्थी को घर में भी किसी प्रकार का काम करने का अभ्यास नहीं है। हर मातापिता की आकांक्षा होती है कि उनकी सन्तान पढलिखकर ऐसा व्यवसाय करे जहाँ उसे हाथ से काम न करना पड़े। इस स्थिति में विद्यार्थी को हर काम सिखाना होगा और घर में भी करने के लिये उसे प्रेरित करना होगा। फिर हाथों को काम करना सिखाना होगा यह एक बहुत बड़ा काम है और धैर्यपूर्वक करने की आवश्यकता है ।  
 
# विद्यालय की अध्ययन अध्यापन पद्धति, समयविभाजन, परीक्षा पद्धति, व्यवस्थायें आदि सब इस संकल्पना के अनुरूप बदलना होगा । गणवेश भी बदल सकता है। हर विषय को क्रियात्मक पद्धति से ढालना होगा। हर विषय का मूल्यांकन क्रियात्मक बनाना होगा । यही नहीं तो अनेक बातों को परीक्षा से परे रखना होगा। परीक्षा की पद्धति, परीक्षा का महत्व , परीक्षा विषयक मानसिकता में बड़ा बदल करना होगा । पुस्तकों का और लेखन का महत्व  कम करना होगा । पढाई को जीवन के साथ जोडना होगा ।  
 
# विद्यालय की अध्ययन अध्यापन पद्धति, समयविभाजन, परीक्षा पद्धति, व्यवस्थायें आदि सब इस संकल्पना के अनुरूप बदलना होगा । गणवेश भी बदल सकता है। हर विषय को क्रियात्मक पद्धति से ढालना होगा। हर विषय का मूल्यांकन क्रियात्मक बनाना होगा । यही नहीं तो अनेक बातों को परीक्षा से परे रखना होगा। परीक्षा की पद्धति, परीक्षा का महत्व , परीक्षा विषयक मानसिकता में बड़ा बदल करना होगा । पुस्तकों का और लेखन का महत्व  कम करना होगा । पढाई को जीवन के साथ जोडना होगा ।  
 
# किसी एक विद्यालय में इस प्रकार की शिक्षा होगी तो वह विद्यालय एक प्रयोग के रूप में चल तो जायेगा । प्रयोग के रूप में उसे प्रतिष्ठा भी कदाचित मिलेगी, उसके विषय में कहीं कोई लेख भी लिखा जायेगा परन्तु मुख्य धारा की शिक्षा में कोई परिवर्तन नहीं होगा । प्रयोग तो आज भी बहुत अच्छे हो रहे हैं, अच्छे से अच्छे हो रहे हैं परन्तु आवश्यकता मुख्य धारा की शिक्षा में परिवर्तन होने की है । मुख्य धारा जब धार्मिक होगी तब भारत की शिक्षा धार्मिक होगी और शिक्षा जब धार्मिक होगी तब भारत भी भारत बनेगा। मुख्य धारा की शिक्षा में इस प्रकार का परिवर्तन हो इस दृष्टि से देश के मूर्धन्य शिक्षाविदों ने इस पर चिन्तन करना होगा और बड़े बड़े देशव्यापी सामाजिकसांस्कृतिक-शैक्षिक संगठनों ने इसे अपनाना होगा । जब यह परिवर्तन देशव्यापी बनता है तभी अर्थपूर्ण भी बनता है। एक और शिक्षण चिन्तन, दूसरी और समाज प्रबोधन और तीसरी ओर प्रत्यक्ष कार्य ऐसे तीनों एक साथ होंगे तभी परिवर्तन होने की सम्भावना बनेगी।  
 
# किसी एक विद्यालय में इस प्रकार की शिक्षा होगी तो वह विद्यालय एक प्रयोग के रूप में चल तो जायेगा । प्रयोग के रूप में उसे प्रतिष्ठा भी कदाचित मिलेगी, उसके विषय में कहीं कोई लेख भी लिखा जायेगा परन्तु मुख्य धारा की शिक्षा में कोई परिवर्तन नहीं होगा । प्रयोग तो आज भी बहुत अच्छे हो रहे हैं, अच्छे से अच्छे हो रहे हैं परन्तु आवश्यकता मुख्य धारा की शिक्षा में परिवर्तन होने की है । मुख्य धारा जब धार्मिक होगी तब भारत की शिक्षा धार्मिक होगी और शिक्षा जब धार्मिक होगी तब भारत भी भारत बनेगा। मुख्य धारा की शिक्षा में इस प्रकार का परिवर्तन हो इस दृष्टि से देश के मूर्धन्य शिक्षाविदों ने इस पर चिन्तन करना होगा और बड़े बड़े देशव्यापी सामाजिकसांस्कृतिक-शैक्षिक संगठनों ने इसे अपनाना होगा । जब यह परिवर्तन देशव्यापी बनता है तभी अर्थपूर्ण भी बनता है। एक और शिक्षण चिन्तन, दूसरी और समाज प्रबोधन और तीसरी ओर प्रत्यक्ष कार्य ऐसे तीनों एक साथ होंगे तभी परिवर्तन होने की सम्भावना बनेगी।  
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विद्यालय से तात्पर्य है प्राथमिक, माध्यमिक या महाविद्यालय ऐसा कोई भी विद्यालय । छात्र जब तक विद्यालय में पढ़ाई करते हैं तब तक तो उनका विद्यालय के साथ सीधा सम्बन्ध रहता है। अब अध्ययन पूर्ण कर जब घर जाते हैं तब आगे के जीवन में उनका विद्यालय के साथ कैसा सम्बन्ध रहेगा ?
 
विद्यालय से तात्पर्य है प्राथमिक, माध्यमिक या महाविद्यालय ऐसा कोई भी विद्यालय । छात्र जब तक विद्यालय में पढ़ाई करते हैं तब तक तो उनका विद्यालय के साथ सीधा सम्बन्ध रहता है। अब अध्ययन पूर्ण कर जब घर जाते हैं तब आगे के जीवन में उनका विद्यालय के साथ कैसा सम्बन्ध रहेगा ?
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आज तो अध्ययन पूर्ण हुआ इसलिए छात्र एक बोझ कम हुआ ऐसा मानते हैं । प्राथमिक या माध्यमिक विद्यालय पूर्ण कर जब उच्च शिक्षा में जाते हैं तब अनेक प्रकार के बंधनों से मुक्ति मिली ऐसा भी अनुभव करते हैं। गृहस्थ जीवन में जब विद्यालय को याद करते हैं तब कुछ भावात्मक बातें भी होती हैं । जिन शिक्षकों ने विशेष रूप से प्रशंसा या सहायता की थी उन्हें और जिन्होंने विशेष रूप से दंडित किया था उन्हें याद करते हैं । किस प्रकार शैतानी करते थे या कौन शिक्षक कैसा था इसकी भी चर्चा कभी कभी हो जाती है । अपने विद्यालय का गौरव अनुभव करने के किस्से भी क्वचित होते हैं।
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आज तो अध्ययन पूर्ण हुआ अतः छात्र एक बोझ कम हुआ ऐसा मानते हैं । प्राथमिक या माध्यमिक विद्यालय पूर्ण कर जब उच्च शिक्षा में जाते हैं तब अनेक प्रकार के बंधनों से मुक्ति मिली ऐसा भी अनुभव करते हैं। गृहस्थ जीवन में जब विद्यालय को याद करते हैं तब कुछ भावात्मक बातें भी होती हैं । जिन शिक्षकों ने विशेष रूप से प्रशंसा या सहायता की थी उन्हें और जिन्होंने विशेष रूप से दंडित किया था उन्हें याद करते हैं । किस प्रकार शैतानी करते थे या कौन शिक्षक कैसा था इसकी भी चर्चा कभी कभी हो जाती है । अपने विद्यालय का गौरव अनुभव करने के किस्से भी क्वचित होते हैं।
    
कभी कभी विद्यालय के लिए आर्थिक सहायता की आवश्यकता हुई तो अधिक कमाने वाले छात्रों को विद्यालय याद करता है। कभी पूर्व छात्रों के स्नेहमिलन जैसे कार्यक्रम भी बनते हैं । बहुत कम संख्या में परंतु पूर्व छात्रसंघ भी बनता है । ये छात्र अपनी योजना से ही मिलते हैं और कोई न कोई कार्यक्रम करते हैं ।
 
कभी कभी विद्यालय के लिए आर्थिक सहायता की आवश्यकता हुई तो अधिक कमाने वाले छात्रों को विद्यालय याद करता है। कभी पूर्व छात्रों के स्नेहमिलन जैसे कार्यक्रम भी बनते हैं । बहुत कम संख्या में परंतु पूर्व छात्रसंघ भी बनता है । ये छात्र अपनी योजना से ही मिलते हैं और कोई न कोई कार्यक्रम करते हैं ।
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===== विद्यालय के प्रति कृतज्ञता का भाव जगाना =====
 
===== विद्यालय के प्रति कृतज्ञता का भाव जगाना =====
विद्यालय ने ही इसका विचार करना चाहिए । विद्यार्थियों के साथ का व्यवहार ऐसा ही होना चाहिए कि इनके विद्यालय के साथ आत्मीय सम्बन्ध बने । जिस प्रकार घर के साथ घर के सदस्यों का सम्बन्ध हमेशा के लिए होता है, कहीं पर भी जाएँ तो भी मिटता नहीं है उसी प्रकार विद्यालय के साथ का सम्बन्ध भी मिटना नहीं चाहिए । जिस प्रकार मातापिता और संतानों का सम्बन्ध आजीवन रहता है उसी प्रकार शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध भी आजीवन रहेगा। कोई कह सकता है कि एक शिक्षक के पास वर्षों तक असंख्य विद्यार्थी पढ़ते हैं। कभी विद्यालय बदल बदल कर अनेक विद्यालयों में पढ़ाया या अनेक नगरों में पढ़ाया या विद्यार्थी ही अनेक नगरों में बसे तो यह सम्बन्ध कैसे रहेगा ? हम आज की स्थिति में ही विचार कर रहे हैं इसलिए ऐसी बातें मन में आती हैं। यदि हम यह निश्चित करें कि विद्यालय और विद्यार्थियों का सम्बन्ध आजीवन रहना स्वाभाविक बनाना चाहिए तो हम उसके अनुकूल व्यवस्था बनाएँगे।
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विद्यालय ने ही इसका विचार करना चाहिए । विद्यार्थियों के साथ का व्यवहार ऐसा ही होना चाहिए कि इनके विद्यालय के साथ आत्मीय सम्बन्ध बने । जिस प्रकार घर के साथ घर के सदस्यों का सम्बन्ध सदा के लिए होता है, कहीं पर भी जाएँ तो भी मिटता नहीं है उसी प्रकार विद्यालय के साथ का सम्बन्ध भी मिटना नहीं चाहिए । जिस प्रकार मातापिता और संतानों का सम्बन्ध आजीवन रहता है उसी प्रकार शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध भी आजीवन रहेगा। कोई कह सकता है कि एक शिक्षक के पास वर्षों तक असंख्य विद्यार्थी पढ़ते हैं। कभी विद्यालय बदल बदल कर अनेक विद्यालयों में पढ़ाया या अनेक नगरों में पढ़ाया या विद्यार्थी ही अनेक नगरों में बसे तो यह सम्बन्ध कैसे रहेगा ? हम आज की स्थिति में ही विचार कर रहे हैं अतः ऐसी बातें मन में आती हैं। यदि हम यह निश्चित करें कि विद्यालय और विद्यार्थियों का सम्बन्ध आजीवन रहना स्वाभाविक बनाना चाहिए तो हम उसके अनुकूल व्यवस्था बनाएँगे।
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ये सारी भावात्मक बातें हैं । विद्यालय के प्रति स्नेह होना, शिक्षकों का स्मरण करना, विद्यालय के कार्यक्रमों में सहभागी होना आदि सबकी अपनी अपनी रुचि और स्थिति के अनुसार होता रहता है। परन्तु एक बार का विद्यार्थी हमेशा का विद्यार्थी इस रूप में विद्यालय के साथ सम्बन्ध बनना अपेक्षित है।  
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ये सारी भावात्मक बातें हैं । विद्यालय के प्रति स्नेह होना, शिक्षकों का स्मरण करना, विद्यालय के कार्यक्रमों में सहभागी होना आदि सबकी अपनी अपनी रुचि और स्थिति के अनुसार होता रहता है। परन्तु एक बार का विद्यार्थी सदा का विद्यार्थी इस रूप में विद्यालय के साथ सम्बन्ध बनना अपेक्षित है।  
    
===== विद्यालय चलाने की जिम्मेदारी साँझी =====
 
===== विद्यालय चलाने की जिम्मेदारी साँझी =====
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* हम विद्यालय को भी परिवार कहते हैं तो उसका व्यावहारिक पक्ष यही होना चाहिए।  
 
* हम विद्यालय को भी परिवार कहते हैं तो उसका व्यावहारिक पक्ष यही होना चाहिए।  
 
* विद्यालय में प्रशासन हेतु भी एक व्यवस्था होनी होती है। आज इसके लिए संचालक मंडल होता है। नियुक्तियाँ करना, सरकार के साथ पत्रव्यवहार करना, आवश्यक सामग्री की खरीदी करना, भवन आदि बनवाना, धनसंग्रह करना आदि काम प्रबन्ध समिति के होते हैं । ये सारे काम शिक्षकों को । करना चाहिए। शिक्षकों की नियुक्तियाँ करना प्रधानाचार्य का काम है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी शिक्षकों की है । इसमें भी विद्यार्थियों की सहभागिता अपेक्षित है।  
 
* विद्यालय में प्रशासन हेतु भी एक व्यवस्था होनी होती है। आज इसके लिए संचालक मंडल होता है। नियुक्तियाँ करना, सरकार के साथ पत्रव्यवहार करना, आवश्यक सामग्री की खरीदी करना, भवन आदि बनवाना, धनसंग्रह करना आदि काम प्रबन्ध समिति के होते हैं । ये सारे काम शिक्षकों को । करना चाहिए। शिक्षकों की नियुक्तियाँ करना प्रधानाचार्य का काम है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी शिक्षकों की है । इसमें भी विद्यार्थियों की सहभागिता अपेक्षित है।  
* इस व्यवस्था हेतु विद्यालय स्वायत्त होने चाहिए । आज की शेष व्यवस्था वैसी ही रखकर यह व्यवस्था नहीं हो सकती। फिर भी संचालक मंडल, शिक्षक, अभिभावक और शासन को साथ मिलकर यह प्रयोग कैसे हो इसका विचार करना चाहिए । एक विद्यालय यदि दस वर्ष की योजना बनाता है तो यह आज भी व्यावहारिक बन सकती है।  
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* इस व्यवस्था हेतु विद्यालय स्वायत्त होने चाहिए । आज की शेष व्यवस्था वैसी ही रखकर यह व्यवस्था नहीं हो सकती। तथापि संचालक मंडल, शिक्षक, अभिभावक और शासन को साथ मिलकर यह प्रयोग कैसे हो इसका विचार करना चाहिए । एक विद्यालय यदि दस वर्ष की योजना बनाता है तो यह आज भी व्यावहारिक बन सकती है।  
* शिक्षकों को इस बात में अग्रसर होना चाहिए । वे स्वयं विद्यालय शुरू करें । प्रथम कुछ वर्ष इसे समाज के सहयोग से चलाएं । प्रारम्भ से गुरुदक्षिणा का विषय नहीं हो सकता । प्रयोग व्यावहारिक बन सके इसलिए बारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों से शुरू करें । ये विद्यार्थी बीस वर्ष के होते होते अर्थार्जन शुरू करेंगे, साथ ही चयनित छात्र विद्यालय में अध्यापन शुरू करेंगे।
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* शिक्षकों को इस बात में अग्रसर होना चाहिए । वे स्वयं विद्यालय आरम्भ करें । प्रथम कुछ वर्ष इसे समाज के सहयोग से चलाएं । प्रारम्भ से गुरुदक्षिणा का विषय नहीं हो सकता । प्रयोग व्यावहारिक बन सके अतः बारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों से आरम्भ करें । ये विद्यार्थी बीस वर्ष के होते होते अर्थार्जन आरम्भ करेंगे, साथ ही चयनित छात्र विद्यालय में अध्यापन आरम्भ करेंगे।
* किसी भी विचार को मूर्त रूप देने के लिए बौद्धिक और मानसिक तैयारी करनी होती है वह इसमें भी करनी चाहिए । शिक्षा के धार्मिक प्रतिमान के लिए यह करणीय कार्य है इसका बौद्धिक स्वीकार प्रथम चरण है। सम्बन्धित लोगों की मानसिकता बनाना दूसरा चरण है। व्यावहारिक पक्ष की योजना बनाना तीसरा चरण है।  
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* किसी भी विचार को मूर्त रूप देने के लिए बौद्धिक और मानसिक तैयारी करनी होती है वह इसमें भी करनी चाहिए । शिक्षा के धार्मिक प्रतिमान के लिए यह करणीय कार्य है इसका बौद्धिक स्वीकार प्रथम चरण है। सम्बन्धित लोगोंं की मानसिकता बनाना दूसरा चरण है। व्यावहारिक पक्ष की योजना बनाना तीसरा चरण है।  
 
* इस प्रकार करने से विद्यालय परिवार की भी संकल्पना साकार हो सकती है। अनौपचारिक पद्धति से कहीं कहीं पर आज भी यह चलती है, परन्तु इसे एक व्यवस्था में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है ।
 
* इस प्रकार करने से विद्यालय परिवार की भी संकल्पना साकार हो सकती है। अनौपचारिक पद्धति से कहीं कहीं पर आज भी यह चलती है, परन्तु इसे एक व्यवस्था में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है ।
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* विद्यालय का सामान व्यवस्थित रखना  
 
* विद्यालय का सामान व्यवस्थित रखना  
 
* विद्यालय के बेंक, यातायात, डाकघर आदि के कामकाज करना
 
* विद्यालय के बेंक, यातायात, डाकघर आदि के कामकाज करना
इन सभी कामों को शिक्षाक्रम के साथ जोड़ना चाहिए । उदाहरण के लिए स्वच्छता का सामान कैसा होना चाहिए, कितना होना चाहिए, उनका प्रयोग कैसे करना चाहिए, कम समय में, कम परिश्रम से, कम वस्तुओं का प्रयोग कर अच्छे से अच्छा काम कैसे करना चाहिए इसकी शिक्षा विभिन्न विषयों की व्यावहारिक शिक्षा ही है। व्यावहारिक आयाम सीखते सीखते सैद्धान्तिक समझ भी स्पष्ट होती है। प्रत्यक्ष काम करते करते सर्व प्रकार की शिक्षा होती है। ये सारी बातें घर और विद्यालय दोनों में सीखी जाती हैं इसलिए कम समय में और अच्छी तरह सीखना सम्भव होता है।  
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इन सभी कामों को शिक्षाक्रम के साथ जोड़ना चाहिए । उदाहरण के लिए स्वच्छता का सामान कैसा होना चाहिए, कितना होना चाहिए, उनका प्रयोग कैसे करना चाहिए, कम समय में, कम परिश्रम से, कम वस्तुओं का प्रयोग कर अच्छे से अच्छा काम कैसे करना चाहिए इसकी शिक्षा विभिन्न विषयों की व्यावहारिक शिक्षा ही है। व्यावहारिक आयाम सीखते सीखते सैद्धान्तिक समझ भी स्पष्ट होती है। प्रत्यक्ष काम करते करते सर्व प्रकार की शिक्षा होती है। ये सारी बातें घर और विद्यालय दोनों में सीखी जाती हैं अतः कम समय में और अच्छी तरह सीखना सम्भव होता है।  
    
===== वर्तमान में ये बातें होती क्यों नहीं हैं ? =====
 
===== वर्तमान में ये बातें होती क्यों नहीं हैं ? =====
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* साजसज्जा, वेषभूषा आदि नहीं होने से प्रेक्षक के रूप में भी कल्पनाशक्ति का विकास होता है। अभिनय देखकर ही चरित्र समझने की क्षमता बढ़ती है। पात्र के साथ तादात्म्य निर्माण होता है । कलाकृति का रसानुभव करना और उससे प्रेरणा प्राप्त करना तभी सम्भव है। हम सुनते हैं कि महात्मा गांधी ने राजा हरिश्चंद्र का नाटक देखा और उससे प्रेरणा प्राप्त कर जीवन में सत्य ही बोलने का व्रत लिया । आज छोटे छोटे बच्चे भी फिल्म में जो देखते हैं वह झूठ है ऐसा समझते हैं । उन्हें नट और नटियाँ दिखती हैं, उनके चरित्र नहीं । वे चरित्रों के नाम नहीं बोलते, नातों के ही नाम बोलते हैं। प्रेरणा लेते हैं तो उनके शृंगार और वेषभूषा तथा केशभूषा की क्योंकि कला अब अभिनय में नहीं अपितु साजसज्जा और शृंगार के ऊपरी सतह पर आ गई है।  
 
* साजसज्जा, वेषभूषा आदि नहीं होने से प्रेक्षक के रूप में भी कल्पनाशक्ति का विकास होता है। अभिनय देखकर ही चरित्र समझने की क्षमता बढ़ती है। पात्र के साथ तादात्म्य निर्माण होता है । कलाकृति का रसानुभव करना और उससे प्रेरणा प्राप्त करना तभी सम्भव है। हम सुनते हैं कि महात्मा गांधी ने राजा हरिश्चंद्र का नाटक देखा और उससे प्रेरणा प्राप्त कर जीवन में सत्य ही बोलने का व्रत लिया । आज छोटे छोटे बच्चे भी फिल्म में जो देखते हैं वह झूठ है ऐसा समझते हैं । उन्हें नट और नटियाँ दिखती हैं, उनके चरित्र नहीं । वे चरित्रों के नाम नहीं बोलते, नातों के ही नाम बोलते हैं। प्रेरणा लेते हैं तो उनके शृंगार और वेषभूषा तथा केशभूषा की क्योंकि कला अब अभिनय में नहीं अपितु साजसज्जा और शृंगार के ऊपरी सतह पर आ गई है।  
 
* इस छिछलेपन तथा कला के आभासी स्तर को सही करने का स्थान विद्यालय का कक्षाकक्ष है जहां कला का आस्वाद और कला की प्रस्तुति की सही समझ दी जाती है।  
 
* इस छिछलेपन तथा कला के आभासी स्तर को सही करने का स्थान विद्यालय का कक्षाकक्ष है जहां कला का आस्वाद और कला की प्रस्तुति की सही समझ दी जाती है।  
* कला का क्षेत्र आज बहुत बड़ी मात्रा में अक्रिय मनोरंजन का क्षेत्र बन गया है । लोग संगीत सुनते हैं, स्वयं गाते नहीं, नाटक या नृत्य देखते हैं, स्वयं करते नहीं, खेल भी देखते हैं, खेलते नहीं। बहुत ही अल्प मात्रा में लोग यह सब करते हैं परन्तु संकट यह है कि उनके लिए यह सब कमाई करने के साधन हैं, आनन्द और रसास्वादन के नहीं। अच्छी से अच्छी बातों को बिकाऊ बना देने की क्षुद्र वृत्ति आज चारों अल्प मात्रा में लोग यह सब करते हैं परन्तु संकट यह है कि उनके लिए यह सब कमाई करने के साधन हैं, आनन्द और रसास्वादन के नहीं। अच्छी से अच्छी बातों को बिकाऊ बना देने की क्षुद्र वृत्ति आज चारों ओर दिखाई दे रही है इसलिए आनन्द कला का नहीं कला से मिलने वाले पैसे का रह गया है। यह सांस्कृतिक अवनति है।  
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* कला का क्षेत्र आज बहुत बड़ी मात्रा में अक्रिय मनोरंजन का क्षेत्र बन गया है । लोग संगीत सुनते हैं, स्वयं गाते नहीं, नाटक या नृत्य देखते हैं, स्वयं करते नहीं, खेल भी देखते हैं, खेलते नहीं। बहुत ही अल्प मात्रा में लोग यह सब करते हैं परन्तु संकट यह है कि उनके लिए यह सब कमाई करने के साधन हैं, आनन्द और रसास्वादन के नहीं। अच्छी से अच्छी बातों को बिकाऊ बना देने की क्षुद्र वृत्ति आज चारों अल्प मात्रा में लोग यह सब करते हैं परन्तु संकट यह है कि उनके लिए यह सब कमाई करने के साधन हैं, आनन्द और रसास्वादन के नहीं। अच्छी से अच्छी बातों को बिकाऊ बना देने की क्षुद्र वृत्ति आज चारों ओर दिखाई दे रही है अतः आनन्द कला का नहीं कला से मिलने वाले पैसे का रह गया है। यह सांस्कृतिक अवनति है।  
 
* आजकल अक्रिय मनोरंजन के प्रचलन के परिणामस्वरूप एक ओर तो निष्क्रियता बढ़ी है, दूसरी ओर जब भी विद्यार्थी नाचते गाते हैं तब उसमें किसी भी प्रकार का सौंदर्य नहीं होता। संगीत, नृत्य या अभिनय का उसमें दर्शन नहीं होता । एक प्रकार का भोंडापन ही दिखाई देता है । या तो उसमें परा कोटी का व्यावसायीकरण होता है। उसमें फिर सब लोग सहभागी नहीं हो सकते। हमारे लोकउत्सवों में छोटे बड़े सबकी, सामान्य से लेकर महाजनों की सहभागिता का बहुत महत्व  रहा है। जिस प्रकार सार्वजनिक उत्सवों में लोकसहभागिता का महत्व  है उसी प्रकार विद्यालय में शैक्षिक दृष्टि से सभी विद्यार्थियों की सहभागिता का महत्व  है । जिस प्रकार भाषा, गणित, विज्ञान, इतिहास सबको आने चाहिए उसी प्रकार गाना, नाचना, खेलना, अभिनय करना भी सबको आना चाहिए । इस दृष्टि से कक्षाकक्ष ही रंगमंच है, प्रार्थनासभा ही विशेष प्रस्तुति के लिए मंच है, भाषाशुद्धि, स्वरशुद्धि, जिसका अभिनय कर रहे हैं उस चरित्र के साथ का तादात्म्य, भाषाकीय अभिव्यक्ति, अंगविन्यास आदि मूल्यांकन के मापदण्ड हैं, शिक्षक ही मूल्यांकन करने वाले और सिखाने वाले भी हैं।
 
* आजकल अक्रिय मनोरंजन के प्रचलन के परिणामस्वरूप एक ओर तो निष्क्रियता बढ़ी है, दूसरी ओर जब भी विद्यार्थी नाचते गाते हैं तब उसमें किसी भी प्रकार का सौंदर्य नहीं होता। संगीत, नृत्य या अभिनय का उसमें दर्शन नहीं होता । एक प्रकार का भोंडापन ही दिखाई देता है । या तो उसमें परा कोटी का व्यावसायीकरण होता है। उसमें फिर सब लोग सहभागी नहीं हो सकते। हमारे लोकउत्सवों में छोटे बड़े सबकी, सामान्य से लेकर महाजनों की सहभागिता का बहुत महत्व  रहा है। जिस प्रकार सार्वजनिक उत्सवों में लोकसहभागिता का महत्व  है उसी प्रकार विद्यालय में शैक्षिक दृष्टि से सभी विद्यार्थियों की सहभागिता का महत्व  है । जिस प्रकार भाषा, गणित, विज्ञान, इतिहास सबको आने चाहिए उसी प्रकार गाना, नाचना, खेलना, अभिनय करना भी सबको आना चाहिए । इस दृष्टि से कक्षाकक्ष ही रंगमंच है, प्रार्थनासभा ही विशेष प्रस्तुति के लिए मंच है, भाषाशुद्धि, स्वरशुद्धि, जिसका अभिनय कर रहे हैं उस चरित्र के साथ का तादात्म्य, भाषाकीय अभिव्यक्ति, अंगविन्यास आदि मूल्यांकन के मापदण्ड हैं, शिक्षक ही मूल्यांकन करने वाले और सिखाने वाले भी हैं।
 
* महाविद्यालयों के रंगमंच कार्यक्रमों में राष्ट्रीय समस्याओं के सन्दर्भ में प्रबोधन और शिक्षाक्षेत्र के माध्यम से क्या हल हो सकता है उसका विचार भी प्रस्तुत होना चाहिए । उदाहरण के लिए देश की आर्थिक स्थिति का विश्लेषण और उपाय, देश के गौरव का स्मरण और जागरण,सांस्कृतिक श्रेष्ठता के जतन का आग्रह, विश्व में भारत की भूमिका आदि महत्व पूर्ण विषयों का समावेश रंगमंच कार्यक्रमों में होना चाहिए । संक्षेप में रंगमंच कार्यक्रम शिशु से लेकर बड़ी कक्षाओं तक शिक्षाप्रक्रिया का ही नियमित और अंगभूत हिस्सा बनना चाहिए, अलग से कोई विशेष कार्यक्रम नहीं । यह पैसे का और मनोरंजन का विषय नहीं है, क्रियात्मक, भावात्मक, कलात्मक, व्यावहारिक शैक्षिक विषय है।
 
* महाविद्यालयों के रंगमंच कार्यक्रमों में राष्ट्रीय समस्याओं के सन्दर्भ में प्रबोधन और शिक्षाक्षेत्र के माध्यम से क्या हल हो सकता है उसका विचार भी प्रस्तुत होना चाहिए । उदाहरण के लिए देश की आर्थिक स्थिति का विश्लेषण और उपाय, देश के गौरव का स्मरण और जागरण,सांस्कृतिक श्रेष्ठता के जतन का आग्रह, विश्व में भारत की भूमिका आदि महत्व पूर्ण विषयों का समावेश रंगमंच कार्यक्रमों में होना चाहिए । संक्षेप में रंगमंच कार्यक्रम शिशु से लेकर बड़ी कक्षाओं तक शिक्षाप्रक्रिया का ही नियमित और अंगभूत हिस्सा बनना चाहिए, अलग से कोई विशेष कार्यक्रम नहीं । यह पैसे का और मनोरंजन का विषय नहीं है, क्रियात्मक, भावात्मक, कलात्मक, व्यावहारिक शैक्षिक विषय है।
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समाज मनुष्यों का समूह है। परन्तु समूह तो प्राणियों का भी होता है। कई प्राणी कभी भी अकेले नहीं रहते, छोटे बड़े समूह में ही रहते हैं और घूमते हैं। उनके समूह को समाज नहीं कहते । जो मनुष्य प्राणियों की तरह केवल आहार, निद्रा, मैथुन और भय से प्रेरित होकर उन वृत्तियों को सन्तुष्ट करने के लिये ही जीते हैं उनके समूह को भी समाज नहीं कहते । जो मनुष्य संस्कारयुक्त हैं, किसी उदात्त लक्ष्य के लिये जीते हैं, उदार अन्तःकरण से युक्त हैं ऐसे मनुष्यों के समूह को समाज कहते हैं।  
 
समाज मनुष्यों का समूह है। परन्तु समूह तो प्राणियों का भी होता है। कई प्राणी कभी भी अकेले नहीं रहते, छोटे बड़े समूह में ही रहते हैं और घूमते हैं। उनके समूह को समाज नहीं कहते । जो मनुष्य प्राणियों की तरह केवल आहार, निद्रा, मैथुन और भय से प्रेरित होकर उन वृत्तियों को सन्तुष्ट करने के लिये ही जीते हैं उनके समूह को भी समाज नहीं कहते । जो मनुष्य संस्कारयुक्त हैं, किसी उदात्त लक्ष्य के लिये जीते हैं, उदार अन्तःकरण से युक्त हैं ऐसे मनुष्यों के समूह को समाज कहते हैं।  
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उदार अन्तःकरण से युक्त लोगों की एक जीवनशैली होती है, एक रीति होती है । इस रीति को संस्कृति कहते हैं। संस्कृति का प्रेरक तत्व धर्म होता है। वर्तमान परिस्थिति में धर्म संज्ञा के सम्बन्ध में हमें बार बार खुलासा करना पडता है। धर्म संज्ञा सम्प्रदाय, पंथ, मत, मजहब, रिलिजन आदि में सीमित नहीं है। वह अत्यन्त व्यापक है। धर्म एक ऐसी व्यवस्था है जो विश्वनियमों से बनी है और सृष्टि को धारण करती है अर्थात् नष्ट नहीं होने देती । धर्म मनुष्य समाज के लिये भी ऐसी ही व्यवस्था देता है जो उसे नष्ट होने से बचाती है। संस्कृति धर्म की ही व्यवहार प्रणाली है।
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उदार अन्तःकरण से युक्त लोगोंं की एक जीवनशैली होती है, एक रीति होती है । इस रीति को संस्कृति कहते हैं। संस्कृति का प्रेरक तत्व धर्म होता है। वर्तमान परिस्थिति में धर्म संज्ञा के सम्बन्ध में हमें बार बार खुलासा करना पडता है। धर्म संज्ञा सम्प्रदाय, पंथ, मत, मजहब, रिलिजन आदि में सीमित नहीं है। वह अत्यन्त व्यापक है। धर्म एक ऐसी व्यवस्था है जो विश्वनियमों से बनी है और सृष्टि को धारण करती है अर्थात् नष्ट नहीं होने देती । धर्म मनुष्य समाज के लिये भी ऐसी ही व्यवस्था देता है जो उसे नष्ट होने से बचाती है। संस्कृति धर्म की ही व्यवहार प्रणाली है।
    
अर्थात् जो धर्म के अनुसार अपनी जीवन रचना करते हैं ऐसे मनुष्यों का समूह समाज कहा जाता है ।  
 
अर्थात् जो धर्म के अनुसार अपनी जीवन रचना करते हैं ऐसे मनुष्यों का समूह समाज कहा जाता है ।  
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===== शिक्षा संस्कृति का हस्तान्तरण करती है =====
 
===== शिक्षा संस्कृति का हस्तान्तरण करती है =====
संस्कृति को एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित करते हुए नित्य प्रवाहित रखने का महत्व पूर्ण कार्य शिक्षा करती है । वह घर में मातापिता द्वारा सन्तानों को, विद्यालय में शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को और समाज में धर्माचार्यो द्वारा लोगों को हस्तान्तरित की जाती है ।
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संस्कृति को एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित करते हुए नित्य प्रवाहित रखने का महत्व पूर्ण कार्य शिक्षा करती है । वह घर में मातापिता द्वारा सन्तानों को, विद्यालय में शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को और समाज में धर्माचार्यो द्वारा लोगोंं को हस्तान्तरित की जाती है ।
    
घर में भावात्मक, विद्यालय में ज्ञानात्मक और धर्माचार्य द्वारा प्रबोधनात्मक पद्धति से शिक्षा संस्कृति का हस्तान्तरण करती है। भावात्मक शिक्षा के आधार पर ज्ञानात्मक शिक्षा होती है। विद्यालय में जो ज्ञान प्राप्त किया उसे जीवनभर व्यवहार में प्रकट करना है। उस समय निरन्तर प्रबोधन करने का काम विद्वान धर्माचार्य करते हैं।
 
घर में भावात्मक, विद्यालय में ज्ञानात्मक और धर्माचार्य द्वारा प्रबोधनात्मक पद्धति से शिक्षा संस्कृति का हस्तान्तरण करती है। भावात्मक शिक्षा के आधार पर ज्ञानात्मक शिक्षा होती है। विद्यालय में जो ज्ञान प्राप्त किया उसे जीवनभर व्यवहार में प्रकट करना है। उस समय निरन्तर प्रबोधन करने का काम विद्वान धर्माचार्य करते हैं।
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# कई बार अधिक समय तक विद्यालय चलाने के पीछे शैक्षिक विचार होता है। विद्यार्थियों को अच्छी शिक्षा दी जा सके, व्यक्तिगत मार्गदर्शन दिया जा सके यह उद्देश्य होता है। अधिक समय विद्यालय में रखना है तो भोजन आदि की व्यवस्था करनी ही होगी ऐसा विचार कर विद्यालय के संचालक ऐसी व्यवस्था करते हैं । यह केवल सुविधा की दृष्टि से होता है । इसमें शैक्षिक या आर्थिक दृष्टि नहीं होती ।  
 
# कई बार अधिक समय तक विद्यालय चलाने के पीछे शैक्षिक विचार होता है। विद्यार्थियों को अच्छी शिक्षा दी जा सके, व्यक्तिगत मार्गदर्शन दिया जा सके यह उद्देश्य होता है। अधिक समय विद्यालय में रखना है तो भोजन आदि की व्यवस्था करनी ही होगी ऐसा विचार कर विद्यालय के संचालक ऐसी व्यवस्था करते हैं । यह केवल सुविधा की दृष्टि से होता है । इसमें शैक्षिक या आर्थिक दृष्टि नहीं होती ।  
 
# क्वचित पूरे दिन के विद्यालय में विद्यार्थी अपना भोजन घर से ही लेकर आते हैं, विद्यालय की ओर से व्यवस्था नहीं की जाती । अभिभावकों का पैसा बचता है और विद्यालय झंझट से बचते हैं।  
 
# क्वचित पूरे दिन के विद्यालय में विद्यार्थी अपना भोजन घर से ही लेकर आते हैं, विद्यालय की ओर से व्यवस्था नहीं की जाती । अभिभावकों का पैसा बचता है और विद्यालय झंझट से बचते हैं।  
# पूरे दिन का विद्यालय अभिभावकों के लिये सुविधाजनक रहता है। विशेष रूप से महानगरों में जहाँ पतिपत्नी दोनों काम के लिये बाहर जाते हैं और बच्चों को देखनेवाला घर में और कोई नहीं होता तब इस व्यवस्था में बहुत सुविधा रहती है। यह केवल छोटे बच्चों की ही बात नहीं है, किशोर या तरुण आयु के बच्चों के लिये भी घर में अकेले रहना इष्ट नहीं लगता । इस दृष्टि से पूरे दिन के विद्यालय आशीर्वादरूप होते हैं। महानगरों या नगरों में जहाँ विद्यालय घर से पर्याप्त दूरी पर होते हैं वहाँ भी यह व्यवस्था बहुत सुविधाजनक होती है।  
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# पूरे दिन का विद्यालय अभिभावकों के लिये सुविधाजनक रहता है। विशेष रूप से महानगरों में जहाँ पतिपत्नी दोनों काम के लिये बाहर जाते हैं और बच्चोंं को देखनेवाला घर में और कोई नहीं होता तब इस व्यवस्था में बहुत सुविधा रहती है। यह केवल छोटे बच्चोंं की ही बात नहीं है, किशोर या तरुण आयु के बच्चोंं के लिये भी घर में अकेले रहना इष्ट नहीं लगता । इस दृष्टि से पूरे दिन के विद्यालय आशीर्वादरूप होते हैं। महानगरों या नगरों में जहाँ विद्यालय घर से पर्याप्त दूरी पर होते हैं वहाँ भी यह व्यवस्था बहुत सुविधाजनक होती है।  
 
# पूरे दिन के विद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिये अतिरिक्त ट्यूशन या कोचिंग क्लास की आवश्यकता नहीं होती। होनी भी नहीं चाहिये । यदि पूरे दिन का विद्यालय भी शिक्षक, विद्यार्थी या अभिभावकों को अपर्याप्त लगता है तो मानना चाहिये कि कहीं कुछ गडबड है। अतः समय का पूर्ण उपयोग करना चाहिये।  
 
# पूरे दिन के विद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिये अतिरिक्त ट्यूशन या कोचिंग क्लास की आवश्यकता नहीं होती। होनी भी नहीं चाहिये । यदि पूरे दिन का विद्यालय भी शिक्षक, विद्यार्थी या अभिभावकों को अपर्याप्त लगता है तो मानना चाहिये कि कहीं कुछ गडबड है। अतः समय का पूर्ण उपयोग करना चाहिये।  
 
# पूरे दिन के विद्यालय में या तो शिक्षकों की संख्या अधिक होती है अथवा उनका वेतन अधिक होता है। अधिकांश शिक्षक अधिक काम और अधिक वेतन चाहते हैं परन्तु वास्तव में अधिक शिक्षक होना शैक्षिक दृष्टि से अधिक उचित है। ऐसा होने से शिक्षक - विद्यार्थी का अनुपात कम हो जाता है, साथ ही शिक्षकों को शारीरिक और मानसिक थकान कम होती है। शिक्षक - विद्यार्थी का अनुपात कम होने से अध्ययन-अध्यापन की गुणवत्ता बढती है । यदि शिक्षक अधिक समय तक काम करते हैं तो उन्हें स्वाध्याय करने के लिये समय नहीं मिलता और शक्ति भी नहीं बचती।।  
 
# पूरे दिन के विद्यालय में या तो शिक्षकों की संख्या अधिक होती है अथवा उनका वेतन अधिक होता है। अधिकांश शिक्षक अधिक काम और अधिक वेतन चाहते हैं परन्तु वास्तव में अधिक शिक्षक होना शैक्षिक दृष्टि से अधिक उचित है। ऐसा होने से शिक्षक - विद्यार्थी का अनुपात कम हो जाता है, साथ ही शिक्षकों को शारीरिक और मानसिक थकान कम होती है। शिक्षक - विद्यार्थी का अनुपात कम होने से अध्ययन-अध्यापन की गुणवत्ता बढती है । यदि शिक्षक अधिक समय तक काम करते हैं तो उन्हें स्वाध्याय करने के लिये समय नहीं मिलता और शक्ति भी नहीं बचती।।  
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# पूरे दिन के विद्यालय में समयसारिणी और पाठन पद्धति में विशेष प्रयोग करने की सुविधा रहती है । इसका पूरा लाभ उठाना चाहिये । क्रियात्मक पद्धति से अध्ययन करने के अवसर विद्यार्थियों को मिलने चाहिये । ग्रन्थालय, विज्ञान प्रयोगशाला और उद्योगशाला में क्रियात्मक अध्ययन करने के अवसर मिलने चाहिये ।  
 
# पूरे दिन के विद्यालय में समयसारिणी और पाठन पद्धति में विशेष प्रयोग करने की सुविधा रहती है । इसका पूरा लाभ उठाना चाहिये । क्रियात्मक पद्धति से अध्ययन करने के अवसर विद्यार्थियों को मिलने चाहिये । ग्रन्थालय, विज्ञान प्रयोगशाला और उद्योगशाला में क्रियात्मक अध्ययन करने के अवसर मिलने चाहिये ।  
 
# पूरे दिन के विद्यालय में जीवन व्यवहार की शिक्षा देने की व्यवस्था भी हो सकती है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि विद्यार्थियों को पढाई के बोझ से ही लाद दिया जाय । वास्तव में पूरे दिन के विद्यालय में सामान्य विद्यालय से दो घण्टे ही अधिक मिलते हैं । अतः अनेक प्रकार की और अत्यधिक अपेक्षयें  नहीं करनी चाहिये । वैसे तो विद्यालय और घर दोनों स्थानों पर जो पढाई होती है वह इस व्यवस्था में एक ही स्थान पर होती है इतना ही अन्तर मानना चाहिये । केवल यहाँ सब कुछ शिक्षकों के मार्गदर्शन में होता है यह विशेष है ।  
 
# पूरे दिन के विद्यालय में जीवन व्यवहार की शिक्षा देने की व्यवस्था भी हो सकती है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि विद्यार्थियों को पढाई के बोझ से ही लाद दिया जाय । वास्तव में पूरे दिन के विद्यालय में सामान्य विद्यालय से दो घण्टे ही अधिक मिलते हैं । अतः अनेक प्रकार की और अत्यधिक अपेक्षयें  नहीं करनी चाहिये । वैसे तो विद्यालय और घर दोनों स्थानों पर जो पढाई होती है वह इस व्यवस्था में एक ही स्थान पर होती है इतना ही अन्तर मानना चाहिये । केवल यहाँ सब कुछ शिक्षकों के मार्गदर्शन में होता है यह विशेष है ।  
# पूरे दिन के विद्यालय का समय प्रातःकाल सात बजे से शुरू होता है तो उत्तम। इससे विद्यार्थियों को प्रातः काल जल्दी उठने का अभ्यास सहज ही होता है। सायंकाल खेलने के बाद यदि छ: बजे वापस जाना है तो वह भी सही होगा। अभिभावकों और  शिक्षकों की सहमति से समय का निर्धारण होना आवश्यक है।  
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# पूरे दिन के विद्यालय का समय प्रातःकाल सात बजे से आरम्भ होता है तो उत्तम। इससे विद्यार्थियों को प्रातः काल जल्दी उठने का अभ्यास सहज ही होता है। सायंकाल खेलने के बाद यदि छ: बजे वापस जाना है तो वह भी सही होगा। अभिभावकों और  शिक्षकों की सहमति से समय का निर्धारण होना आवश्यक है।  
 
# आवासीय विद्यालय से अधिक व्यापक रूप में, अधिक संख्या में पूरे दिन के विद्यालय का प्रयोग हो सकता है। आवासी विद्यालय जैसी अधिक व्यवस्थायें नहीं करनी पडतीं यह एक सुविधा है और विद्यार्थी विद्यालय में अधिक समय तक रहने पर भी अपने परिवार में ही रह सकते हैं ।  
 
# आवासीय विद्यालय से अधिक व्यापक रूप में, अधिक संख्या में पूरे दिन के विद्यालय का प्रयोग हो सकता है। आवासी विद्यालय जैसी अधिक व्यवस्थायें नहीं करनी पडतीं यह एक सुविधा है और विद्यार्थी विद्यालय में अधिक समय तक रहने पर भी अपने परिवार में ही रह सकते हैं ।  
 
इस दृष्टि से पूरे दिन के विद्यालयों का शैक्षिक दृष्टि से अधिक प्रचलन हो यह हितकारी है ।
 
इस दृष्टि से पूरे दिन के विद्यालयों का शैक्षिक दृष्टि से अधिक प्रचलन हो यह हितकारी है ।
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===== प्रयोजन =====
 
===== प्रयोजन =====
 
विद्यार्थी को आवासीय विद्यालय में जाने की आवश्यकता क्यों होती है ?  
 
विद्यार्थी को आवासीय विद्यालय में जाने की आवश्यकता क्यों होती है ?  
# प्राचीन गुरुकुलों में विद्यार्थी गुरु के घर में रहकर ही विद्या ग्रहण करता था। उसके लिये गुरुगृहवास शिक्षा प्राप्त करने का एक अनिवार्य अंग था । यह बात ठीक है कि जहाँ वह रहता था वहाँ गुरुकुल का होना सम्भव न हो इसलिये उसे अपना घर छोडकर गुरु के घर जाना पडे । परन्तु यह बात गौण थी । गुरु के साथ पूर्ण समय पूर्ण रूप से रहना अनिवार्य था ।  
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# प्राचीन गुरुकुलों में विद्यार्थी गुरु के घर में रहकर ही विद्या ग्रहण करता था। उसके लिये गुरुगृहवास शिक्षा प्राप्त करने का एक अनिवार्य अंग था । यह बात ठीक है कि जहाँ वह रहता था वहाँ गुरुकुल का होना सम्भव न हो इसलिये उसे अपना घर छोडकर गुरु के घर जाना पड़े । परन्तु यह बात गौण थी । गुरु के साथ पूर्ण समय पूर्ण रूप से रहना अनिवार्य था ।  
 
# चालीस पचास वर्ष पूर्व भारत के छोटे छोटे गाँवों में विद्यालय, विशेष रूप से माध्यमिक विद्यालय नहीं होते थे। नगरों में ऐसे विद्यालय होते थे । महाविद्यालय तो बड़े नगरों में या महानगरों  में होते थे। आज भी उच्च शिक्षा के अनेक विशिष्ट संस्थान विद्यार्थी जहाँ रहता है उससे पर्याप्त दूरी पर ही होते हैं। इस स्थिति में विद्यार्थी को आवासीय विद्यालय में रहना पडता है।  
 
# चालीस पचास वर्ष पूर्व भारत के छोटे छोटे गाँवों में विद्यालय, विशेष रूप से माध्यमिक विद्यालय नहीं होते थे। नगरों में ऐसे विद्यालय होते थे । महाविद्यालय तो बड़े नगरों में या महानगरों  में होते थे। आज भी उच्च शिक्षा के अनेक विशिष्ट संस्थान विद्यार्थी जहाँ रहता है उससे पर्याप्त दूरी पर ही होते हैं। इस स्थिति में विद्यार्थी को आवासीय विद्यालय में रहना पडता है।  
 
# अनेक ऐसे किस्से हैं जिनमें विद्यार्थी बहुत अधिक शरारती, उद्दण्ड है या घर में उसे देखने वाला, टोकने वाला कोई नहीं है तब उसे आवासीय विद्यालय में भेजा जाता है। उसके लिये आवासीय विद्यालय सुधार गृह जैसा है।  
 
# अनेक ऐसे किस्से हैं जिनमें विद्यार्थी बहुत अधिक शरारती, उद्दण्ड है या घर में उसे देखने वाला, टोकने वाला कोई नहीं है तब उसे आवासीय विद्यालय में भेजा जाता है। उसके लिये आवासीय विद्यालय सुधार गृह जैसा है।  
# अतिधनाढ्य, अतिउच्चशिक्षित, अतिसत्ताधीशों के बच्चों को देश के अत्याधुनिक, अतिसमृद्ध आवासी विद्यालयों में भेजा जाता है । ये प्रतिष्ठा के दर्शक हैं और विशेष छाप लिये हुए हैं।  
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# अतिधनाढ्य, अतिउच्चशिक्षित, अतिसत्ताधीशों के बच्चोंं को देश के अत्याधुनिक, अतिसमृद्ध आवासी विद्यालयों में भेजा जाता है । ये प्रतिष्ठा के दर्शक हैं और विशेष छाप लिये हुए हैं।  
# अनाथ, गरीब, दलित, पिछड़ी जातियों के, वनवासी बच्चों के लिये सरकार की ओर से निःशुल्क आवासी विद्यालय चलाये जाते हैं जिन्हें आश्रमशाला कहा जाता है।  
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# अनाथ, गरीब, दलित, पिछड़ी जातियों के, वनवासी बच्चोंं के लिये सरकार की ओर से निःशुल्क आवासी विद्यालय चलाये जाते हैं जिन्हें आश्रमशाला कहा जाता है।  
 
# आध्यात्मिक केन्द्रों में, मठों में, वेदाध्ययन केन्द्रों में जो विद्यालय चलते हैं वे आवासीय ही होते हैं । कई शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय भी अनिवार्य रूप से आवासीय होते हैं।  
 
# आध्यात्मिक केन्द्रों में, मठों में, वेदाध्ययन केन्द्रों में जो विद्यालय चलते हैं वे आवासीय ही होते हैं । कई शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय भी अनिवार्य रूप से आवासीय होते हैं।  
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====== एक समझने लायक उदाहरण ======
 
====== एक समझने लायक उदाहरण ======
एक उदाहरण समझने लायक है। मजदूरी करना ही जिनका स्वाभाविक जीवनक्रम है ऐसी एक जाति का मुखिया चुनाव जीतकर विधायक बन गया । उसकी जाति में गरीबी और निरक्षरता की मात्रा बहुत अधिक थी। उसे लगा कि अपनी जाति के लडके और लडकियों के लिये शिक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये । इसलिये उसने दो छात्रावास बनाये और एक विद्यालय बनाया। एक छात्रावास लडकियों के लिये और दूसरा लडकों के लिये था । वे छात्रावास सारी सुविधाओं से पूर्ण थे । कपडे धोने के लिये नौकर, सोने के लिये पलंग, भोजन के लिये स्टील के बर्तन और कुर्सी मेज । विद्यार्थियों को केवल अपने निवासकक्ष की स्वच्छता और अपने भोजन के बर्तनों की सफाई करने का ही काम था । भोजन, आवास, शिक्षा सब निःशुल्क था । ये सारे लडके और लडकियाँ ऐसे परिवारों से थे जहाँ एक छोटे कमरे में सात आठ लोग रहते थे, रूखा सूखा भोजन करते थे, कभी दान में मिले किसी के पुराने कपडे भी पहनते थे और सोने के लिये टाट या दरी ही मिलती थी। छात्रावास के जीवन का वैभव भोगकर एक दो वर्षों में तो सबकी आदतें ऐसी बिगड गई कि वे अब घर जाना नहीं चाहते थे, अपने माँबाप से सम्बन्ध बताने में लज्जा का अनुभव करते थे और छात्रावास में भी वे कहने लगे कि अब कक्ष की और बर्तनों की सफाई के लिये भी नौकर हो तो अच्छा है । उस विधायक को बार बार मन में प्रश्न उठ रहा था कि उसने अच्छा काम किया या बुरा, अपनी जाति के लडके-लडकियों का भला किया या बुरा । वास्तव में वह भला करना चाहता था परन्तु शिक्षा विषयक दृष्टि के अभाव में उसने सबको हानि पहुँचाई ।
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एक उदाहरण समझने लायक है। मजदूरी करना ही जिनका स्वाभाविक जीवनक्रम है ऐसी एक जाति का मुखिया चुनाव जीतकर विधायक बन गया । उसकी जाति में गरीबी और निरक्षरता की मात्रा बहुत अधिक थी। उसे लगा कि अपनी जाति के लडके और लडकियों के लिये शिक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये । इसलिये उसने दो छात्रावास बनाये और एक विद्यालय बनाया। एक छात्रावास लडकियों के लिये और दूसरा लडकों के लिये था । वे छात्रावास सारी सुविधाओं से पूर्ण थे । कपड़े धोने के लिये नौकर, सोने के लिये पलंग, भोजन के लिये स्टील के बर्तन और कुर्सी मेज । विद्यार्थियों को केवल अपने निवासकक्ष की स्वच्छता और अपने भोजन के बर्तनों की सफाई करने का ही काम था । भोजन, आवास, शिक्षा सब निःशुल्क था । ये सारे लडके और लडकियाँ ऐसे परिवारों से थे जहाँ एक छोटे कमरे में सात आठ लोग रहते थे, रूखा सूखा भोजन करते थे, कभी दान में मिले किसी के पुराने कपड़े भी पहनते थे और सोने के लिये टाट या दरी ही मिलती थी। छात्रावास के जीवन का वैभव भोगकर एक दो वर्षों में तो सबकी आदतें ऐसी बिगड गई कि वे अब घर जाना नहीं चाहते थे, अपने माँबाप से सम्बन्ध बताने में लज्जा का अनुभव करते थे और छात्रावास में भी वे कहने लगे कि अब कक्ष की और बर्तनों की सफाई के लिये भी नौकर हो तो अच्छा है । उस विधायक को बार बार मन में प्रश्न उठ रहा था कि उसने अच्छा काम किया या बुरा, अपनी जाति के लडके-लडकियों का भला किया या बुरा । वास्तव में वह भला करना चाहता था परन्तु शिक्षा विषयक दृष्टि के अभाव में उसने सबको हानि पहुँचाई ।
    
यही बात बहुत धनाढ्यों के बच्चे जब आवासीय विद्यालयों में पढ़ते हैं तब वे अधिक उद्दण्ड और वास्तविक जीवन से विमुख बन जाते हैं। ऐसे विद्यालयों का कृत्रिम अनुशासन उन्हें हृदयशून्य बना देता है और वैभव उन्हें मदान्वित बनाता है।  
 
यही बात बहुत धनाढ्यों के बच्चे जब आवासीय विद्यालयों में पढ़ते हैं तब वे अधिक उद्दण्ड और वास्तविक जीवन से विमुख बन जाते हैं। ऐसे विद्यालयों का कृत्रिम अनुशासन उन्हें हृदयशून्य बना देता है और वैभव उन्हें मदान्वित बनाता है।  
    
====== ये विद्यालय गुरुकुलों की तरह सांस्कृतिक उद्देश्यों के लिए चलने चाहिये । ======
 
====== ये विद्यालय गुरुकुलों की तरह सांस्कृतिक उद्देश्यों के लिए चलने चाहिये । ======
इन विद्यालयों के अभिभावकों का व्यवहार और मानस बहुत अस्वाभाविक होता है। बच्चे छात्रावास में रहते हैं इसलिये घर के लोगों के स्नेह से, घर की सुविधाओं और स्वतन्त्रता से, घर के भोजन से वे वंचित रह जाते हैं ऐसा उन्हें लगता है । इसलिये जब अवकाश में घर आते हैं तब टीवी, होटेल, घूमना फिरना, काम नहीं करना आदि बातों की इतनी अधिकता हो जाती है कि बच्चे भी आवासीय विद्यालय के अनुशासन, भोजन, व्यवस्था आदि को बन्धन मानने लगते हैं और सदैव उससे मुक्ति चाहते हैं । छात्रालय का जीवन मानो उनके लिये मजबूरी बन जाता है। अनुशासन, व्यवस्था आदि का यदि अच्छे मन से स्वीकार नहीं किया जाय तो वे जीवन का अंग नहीं बनतीं । वर्षों तक आवासीय विद्यालय में रहने के बाद भी विद्यार्थियों के चरित्र का गठन नहीं हो पाता क्योंकि अभिभावकों और शिक्षकों की ना समझी और अकुशलता के कारण विद्यार्थी उसका स्वीकार ही नहीं कर पाते । बच्चे उद्दण्ड हैं इसलिये यदि आवासीय विद्यालय में भेज दिये गये हैं तब तो उनके और अधिक उद्दण्ड बनने की सम्भावना ही अधिक होती है क्योंकि शिक्षक यदि गुरुकुल के शिक्षक जैसे नहीं हैं तो विद्यालय का कृत्रिम अनुशासन सुधारगृह का ही अनुभव करवाता है।।
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इन विद्यालयों के अभिभावकों का व्यवहार और मानस बहुत अस्वाभाविक होता है। बच्चे छात्रावास में रहते हैं इसलिये घर के लोगोंं के स्नेह से, घर की सुविधाओं और स्वतन्त्रता से, घर के भोजन से वे वंचित रह जाते हैं ऐसा उन्हें लगता है । इसलिये जब अवकाश में घर आते हैं तब टीवी, होटेल, घूमना फिरना, काम नहीं करना आदि बातों की इतनी अधिकता हो जाती है कि बच्चे भी आवासीय विद्यालय के अनुशासन, भोजन, व्यवस्था आदि को बन्धन मानने लगते हैं और सदैव उससे मुक्ति चाहते हैं । छात्रालय का जीवन मानो उनके लिये मजबूरी बन जाता है। अनुशासन, व्यवस्था आदि का यदि अच्छे मन से स्वीकार नहीं किया जाय तो वे जीवन का अंग नहीं बनतीं । वर्षों तक आवासीय विद्यालय में रहने के बाद भी विद्यार्थियों के चरित्र का गठन नहीं हो पाता क्योंकि अभिभावकों और शिक्षकों की ना समझी और अकुशलता के कारण विद्यार्थी उसका स्वीकार ही नहीं कर पाते । बच्चे उद्दण्ड हैं इसलिये यदि आवासीय विद्यालय में भेज दिये गये हैं तब तो उनके और अधिक उद्दण्ड बनने की सम्भावना ही अधिक होती है क्योंकि शिक्षक यदि गुरुकुल के शिक्षक जैसे नहीं हैं तो विद्यालय का कृत्रिम अनुशासन सुधारगृह का ही अनुभव करवाता है।।
    
जिन आवासीय विद्यालयों में कुछ छात्र स्थानिक होते हैं और केवल पढाई के लिये ही विद्यालय में आते हैं वहाँ वातावरण, व्यवस्था, मानसिकता बिगड जाने की सम्भावनायें ही अधिक होती हैं। बाहर के वातावरण के दूषण और आन्तरिक व्यवस्था की कृत्रिमता विद्यार्थियों को असहज बना देते हैं।
 
जिन आवासीय विद्यालयों में कुछ छात्र स्थानिक होते हैं और केवल पढाई के लिये ही विद्यालय में आते हैं वहाँ वातावरण, व्यवस्था, मानसिकता बिगड जाने की सम्भावनायें ही अधिक होती हैं। बाहर के वातावरण के दूषण और आन्तरिक व्यवस्था की कृत्रिमता विद्यार्थियों को असहज बना देते हैं।
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महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों और शोधसंस्थानों में स्वतन्त्र छात्रालयों में रहनेवाले विद्यार्थी अनेक प्रकार के सांस्कृतिक संकटों से घिर जाते हैं, अनेक सांस्कृतिक संकट निर्माण भी करते हैं जिन्हें वे मुक्तता और सुख मानते हैं। धूम्रपान करने वाली लडकियाँ, युवक युवतियों की मित्रता और पराकाष्ठा की उनकी निकटता, शराब जैसे व्यसन इस प्रकार के छात्रावासों में सहज होता है। इनमें गम्भीर अध्ययन करने वाले विद्यार्थी भी होते ही हैं परन्तु इन दूषणों से बचना अत्यन्त कठिन हो जाता है । इन युवाओं के लिये सारे उत्सव सांस्कृतिक नहीं अपितु मनोरंजन के साधन ही होते हैं ।
 
महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों और शोधसंस्थानों में स्वतन्त्र छात्रालयों में रहनेवाले विद्यार्थी अनेक प्रकार के सांस्कृतिक संकटों से घिर जाते हैं, अनेक सांस्कृतिक संकट निर्माण भी करते हैं जिन्हें वे मुक्तता और सुख मानते हैं। धूम्रपान करने वाली लडकियाँ, युवक युवतियों की मित्रता और पराकाष्ठा की उनकी निकटता, शराब जैसे व्यसन इस प्रकार के छात्रावासों में सहज होता है। इनमें गम्भीर अध्ययन करने वाले विद्यार्थी भी होते ही हैं परन्तु इन दूषणों से बचना अत्यन्त कठिन हो जाता है । इन युवाओं के लिये सारे उत्सव सांस्कृतिक नहीं अपितु मनोरंजन के साधन ही होते हैं ।
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आवासीय विद्यालय यदि गुरुकुलों के समान और विशेष सांस्कृतिक उद्देश्य और पद्धति से नहीं चलाये गये तो दो पीढियों में अन्तर निर्माण करने के निमित्त बन जाते हैं । वैसे भी वर्तमान वातावरण में मातापिता और सन्तानों में दूरत्व निर्माण करने वाले अनेक साधन उत्पन्न हो ही गये हैं उनमें यह एक बडा निमित्त जुड़ जाता है। दो पीढियों में समरस सम्बन्ध निर्माण नहीं होने से सांस्कृतिक परम्परा खण्डित होती है । परम्परा खण्डित होना किसी भी समाज के लिये घाटे का ही सौदा होता है । इसलिये समाज हितचिन्तक हमेशा परम्परा को बनाये रखने हेतु हर सम्भव प्रयास करने का ही परामर्श देते हैं।
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आवासीय विद्यालय यदि गुरुकुलों के समान और विशेष सांस्कृतिक उद्देश्य और पद्धति से नहीं चलाये गये तो दो पीढियों में अन्तर निर्माण करने के निमित्त बन जाते हैं । वैसे भी वर्तमान वातावरण में मातापिता और सन्तानों में दूरत्व निर्माण करने वाले अनेक साधन उत्पन्न हो ही गये हैं उनमें यह एक बडा निमित्त जुड़ जाता है। दो पीढियों में समरस सम्बन्ध निर्माण नहीं होने से सांस्कृतिक परम्परा खण्डित होती है । परम्परा खण्डित होना किसी भी समाज के लिये घाटे का ही सौदा होता है । इसलिये समाज हितचिन्तक सदा परम्परा को बनाये रखने हेतु हर सम्भव प्रयास करने का ही परामर्श देते हैं।
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आज समाज में धनवान लोगों की यह मानसिकता भी बढने लगी है कि अच्छी पढाई हेतु अपनी सन्तानों को बड़े नगरों में या विदेशों में भेजना अच्छा है। ऐसा नहीं है कि ऐसी पढाई हेतु अपने ही स्थान पर कोई महाविद्यालय नहीं है। परन्तु महानगरों, दूर स्थित महानगरों और विदेशों का दोनों पीढियों को आकर्षण है । बड़ों को उसमें प्रतिष्ठा का अनुभव होता है और युवाओं को प्रतिष्ठा के साथ साथ मुक्ति का भी अनुभव होता है । अपनी सन्तानों के भले के लिये ही यह सब कर रहे हैं ऐसा बड़ों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता ऋण लेकर भी अपनी सांतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते है परन्तु यह शैक्षिक दॄष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता। सामाजिक सांस्कृतिक दॄष्टि से यह हानिकारक है।  
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आज समाज में धनवान लोगोंं की यह मानसिकता भी बढने लगी है कि अच्छी पढाई हेतु अपनी सन्तानों को बड़े नगरों में या विदेशों में भेजना अच्छा है। ऐसा नहीं है कि ऐसी पढाई हेतु अपने ही स्थान पर कोई महाविद्यालय नहीं है। परन्तु महानगरों, दूर स्थित महानगरों और विदेशों का दोनों पीढियों को आकर्षण है । बड़ों को उसमें प्रतिष्ठा का अनुभव होता है और युवाओं को प्रतिष्ठा के साथ साथ मुक्ति का भी अनुभव होता है । अपनी सन्तानों के भले के लिये ही यह सब कर रहे हैं ऐसा बड़ों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता ऋण लेकर भी अपनी सांतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते है परन्तु यह शैक्षिक दॄष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता। सामाजिक सांस्कृतिक दॄष्टि से यह हानिकारक है।  
    
यह सब कर रहे हैं ऐसा बड़ों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता क्रण लेकर भी अपनी संतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते हैं परन्तु यह शैक्षिक दृष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता । सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टि से यह हानिकारक है ।
 
यह सब कर रहे हैं ऐसा बड़ों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता क्रण लेकर भी अपनी संतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते हैं परन्तु यह शैक्षिक दृष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता । सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टि से यह हानिकारक है ।
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===== वर्तमान स्थिति =====
 
===== वर्तमान स्थिति =====
शिक्षा सरकार के लिये चिन्ता का विषय है । शिक्षा की व्यवस्था करना सरकार ने अपना दायित्व माना है । हमारे संविधान में छः से चौदह वर्ष की आयु तक शिक्षा को अनिवार्य बनाया है । अनिवार्य है इसीलिये निःशुल्क भी करना होता है । सरकार की इच्छा है कि देश के ६ से १४ वर्ष के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मिले । इस दृष्टि से छोटे छोटे गाँवों में भी सरकारी प्राथमिक विद्यालय होते हैं ।
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शिक्षा सरकार के लिये चिन्ता का विषय है । शिक्षा की व्यवस्था करना सरकार ने अपना दायित्व माना है । हमारे संविधान में छः से चौदह वर्ष की आयु तक शिक्षा को अनिवार्य बनाया है । अनिवार्य है इसीलिये निःशुल्क भी करना होता है । सरकार की इच्छा है कि देश के ६ से १४ वर्ष के बच्चोंं को प्राथमिक शिक्षा मिले । इस दृष्टि से छोटे छोटे गाँवों में भी सरकारी प्राथमिक विद्यालय होते हैं ।
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इनमें बच्चों के प्रवेश हों, उन्हें प्रोत्साहन मिले इस हेतु से प्रवेशोत्सव मनाये जाते हैं । विद्यार्थी मध्य में ही विद्यालय छोड़कर न जाय इसका भी ध्यान रखा जाता है । गरीबों को अपने बच्चों को पढ़ाने की सुविधा हो इस दृष्टि से मद्यत्ह्य भोजन योजना चलाई जाती है । बच्चों को पुस्तकें, गणवेश, बस्ता आदि भी दिया जाता है । सरकार अनेक प्रयास करती है। सर्व शिक्षा अभियान चलता है। तो भी सरकारी विद्यालयों की हालत अत्यन्त दयनीय और चिन्ताजनक है । आँकडे भी दयनीय स्थिति दर्शाते हैं जबकि वास्तविक स्थिति आँकडों से अधिक दयनीय होती है यह सब जानते हैं ।
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इनमें बच्चोंं के प्रवेश हों, उन्हें प्रोत्साहन मिले इस हेतु से प्रवेशोत्सव मनाये जाते हैं । विद्यार्थी मध्य में ही विद्यालय छोड़कर न जाय इसका भी ध्यान रखा जाता है । गरीबों को अपने बच्चोंं को पढ़ाने की सुविधा हो इस दृष्टि से मद्यत्ह्य भोजन योजना चलाई जाती है । बच्चोंं को पुस्तकें, गणवेश, बस्ता आदि भी दिया जाता है । सरकार अनेक प्रयास करती है। सर्व शिक्षा अभियान चलता है। तो भी सरकारी विद्यालयों की हालत अत्यन्त दयनीय और चिन्ताजनक है । आँकडे भी दयनीय स्थिति दर्शाते हैं जबकि वास्तविक स्थिति आँकडों से अधिक दयनीय होती है यह सब जानते हैं ।
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सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । प्रजा को इन विद्यालयों पर कोई भरोसा नहीं है । अब ऐसा कहा जाता है कि सरकारी विद्यालयों में अच्छे लोगों के बच्चे पढ़ते ही नहीं हैं, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, नशा करने वाले, असंस्कारी मातापिता के बच्चे पढते हैं जिनकी संगत में हमारे बच्चें बिगड जायेंगे । परन्तु यह तो परिणाम है । “अच्छे' घर के लोगों ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया इसलिये अब 'पिछडे' बच्चे रह गये हैं । दो पीढ़ियों पूर्व आज के विद्वान लोग भी सरकारी विद्यालयों में पढ़े हुए ही हैं । धीरे धीरे पढ़ाना बन्द हुआ इसलिये लोगों ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया । झुग्गी झॉंपडियों में नहीं रहनेवाले सुसंस्कृत और झुग्गी झेंपडियों में रहनेवाले पिछडे यह वर्गीकरण तो बडी भ्रान्ति है परन्तु इस भ्रान्ति को दूर करने की चिन्ता कोई नहीं करता, उल्टे उसका ही लोग फायदा उठाने का प्रयास करते हैं । सरकारी विद्यालयों के शिक्षक हमेशा शिकायत करते हैं कि हमारे यहाँ बच्चे पढने के लिये आते ही नहीं हैं, केवल खाने के लिये ही आते हैं, अच्छे घर के आते ही नहीं है तो हम किसे पढायें । यह भी सत्य नहीं है परन्तु इस सम्बन्ध में कोई प्रयास नहीं किया जाता ।
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सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । प्रजा को इन विद्यालयों पर कोई भरोसा नहीं है । अब ऐसा कहा जाता है कि सरकारी विद्यालयों में अच्छे लोगोंं के बच्चे पढ़ते ही नहीं हैं, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, नशा करने वाले, असंस्कारी मातापिता के बच्चे पढते हैं जिनकी संगत में हमारे बच्चें बिगड जायेंगे । परन्तु यह तो परिणाम है । “अच्छे' घर के लोगोंं ने अपने बच्चोंं को भेजना बन्द किया इसलिये अब 'पिछडे' बच्चे रह गये हैं । दो पीढ़ियों पूर्व आज के विद्वान लोग भी सरकारी विद्यालयों में पढ़े हुए ही हैं । धीरे धीरे पढ़ाना बन्द हुआ इसलिये लोगोंं ने अपने बच्चोंं को भेजना बन्द किया । झुग्गी झॉंपडियों में नहीं रहनेवाले सुसंस्कृत और झुग्गी झेंपडियों में रहनेवाले पिछडे यह वर्गीकरण तो बडी भ्रान्ति है परन्तु इस भ्रान्ति को दूर करने की चिन्ता कोई नहीं करता, उल्टे उसका ही लोग फायदा उठाने का प्रयास करते हैं । सरकारी विद्यालयों के शिक्षक सदा शिकायत करते हैं कि हमारे यहाँ बच्चे पढने के लिये आते ही नहीं हैं, केवल खाने के लिये ही आते हैं, अच्छे घर के आते ही नहीं है तो हम किसे पढायें । यह भी सत्य नहीं है परन्तु इस सम्बन्ध में कोई प्रयास नहीं किया जाता ।
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अनेक बार लोगों द्वारा शिकायतें की जाती हैं, अखबारों में सचित्र समाचार छपते हैं कि गाँवों में विद्यालय के भवन अच्छे नहीं हैं, बैठने की, शौचालयों की सुविधा नहीं है, शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई है, यदि हुई है तो वे शिक्षक आते नहीं हैं, अपने स्थान पर अन्य किसी नौसीखिये को भेजकर स्वयं दूसरा व्यवसाय करते हैं । इस बात में सचाई होने पर भी इस कारण से शिक्षा नहीं दी जा सकती ऐसा नहीं है । नगरों और महानगरों के प्राथमिक विद्यालयों में अच्छा भवन, अच्छा मैदान, शिक्षक, साधनसामग्री, विद्यार्थी सबकुछ है तो भी शिक्षा की स्थिति तो वैसी ही दयनीय है । इसका क्या कारण है ?
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अनेक बार लोगोंं द्वारा शिकायतें की जाती हैं, अखबारों में सचित्र समाचार छपते हैं कि गाँवों में विद्यालय के भवन अच्छे नहीं हैं, बैठने की, शौचालयों की सुविधा नहीं है, शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई है, यदि हुई है तो वे शिक्षक आते नहीं हैं, अपने स्थान पर अन्य किसी नौसीखिये को भेजकर स्वयं दूसरा व्यवसाय करते हैं । इस बात में सचाई होने पर भी इस कारण से शिक्षा नहीं दी जा सकती ऐसा नहीं है । नगरों और महानगरों के प्राथमिक विद्यालयों में अच्छा भवन, अच्छा मैदान, शिक्षक, साधनसामग्री, विद्यार्थी सबकुछ है तो भी शिक्षा की स्थिति तो वैसी ही दयनीय है । इसका क्या कारण है ?
    
शैक्षिक दृष्टि से सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पर्याप्त व्यवस्था होती है । कई निजी विद्यालयों में शिक्षक उचित योग्यता वाले नहीं भी होते परन्तु सरकारी विद्यालयों में पर्याप्त योग्यता वाले होते ही हैं । उनके प्रशिक्षण की और निरीक्षण की पर्याप्त व्यवस्था होती है । साधनसामग्री, पुस्तकें आदि का अभाव नहीं होता । सरकारी शिक्षकों का जितना प्रशिक्षण होता है उतना तो अन्यत्र कहीं नहीं होता । वेतनमान भी निजी विद्यालयों की अपेक्षा अच्छा होता है । तो भी शिक्षा अच्छी नहीं होती इसका क्या कारण है ?
 
शैक्षिक दृष्टि से सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पर्याप्त व्यवस्था होती है । कई निजी विद्यालयों में शिक्षक उचित योग्यता वाले नहीं भी होते परन्तु सरकारी विद्यालयों में पर्याप्त योग्यता वाले होते ही हैं । उनके प्रशिक्षण की और निरीक्षण की पर्याप्त व्यवस्था होती है । साधनसामग्री, पुस्तकें आदि का अभाव नहीं होता । सरकारी शिक्षकों का जितना प्रशिक्षण होता है उतना तो अन्यत्र कहीं नहीं होता । वेतनमान भी निजी विद्यालयों की अपेक्षा अच्छा होता है । तो भी शिक्षा अच्छी नहीं होती इसका क्या कारण है ?
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# पढाने न पढाने का मूल्यांकन करने की पद्धति अत्यन्त कृत्रिम है। विद्यार्थी ज्ञानवान और चरित्रवान बनें इसका निकर्ष परीक्षा ही है । परीक्षा भी लिखित होती है। अंक दे सकें इस स्वरूप की होती है । अंक दे देना बहुत सरल है । समाज में या व्यक्तिगत जीवन में अज्ञान और असंस्कार दिखाई दे रहा है यह परीक्षा में उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण होने का निकष नहीं है । इसलिये अंक मिल जाते हैं परन्तु ज्ञान या संस्कार नहीं आता । इस परिणाम हेतु दण्डित या पुरस्कृत करना असम्भव है। इसलिये विद्यालय में पढाना सम्भव ही नहीं होता।
 
# पढाने न पढाने का मूल्यांकन करने की पद्धति अत्यन्त कृत्रिम है। विद्यार्थी ज्ञानवान और चरित्रवान बनें इसका निकर्ष परीक्षा ही है । परीक्षा भी लिखित होती है। अंक दे सकें इस स्वरूप की होती है । अंक दे देना बहुत सरल है । समाज में या व्यक्तिगत जीवन में अज्ञान और असंस्कार दिखाई दे रहा है यह परीक्षा में उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण होने का निकष नहीं है । इसलिये अंक मिल जाते हैं परन्तु ज्ञान या संस्कार नहीं आता । इस परिणाम हेतु दण्डित या पुरस्कृत करना असम्भव है। इसलिये विद्यालय में पढाना सम्भव ही नहीं होता।
 
# कहीं पर भी सीधी कारवाई होने की व्यवस्था सरकारी तन्त्र में नहीं होती। निरीक्षण करने वाला स्वयं कुछ नहीं कर सकता, केवल रिपोर्ट भेज सकता है । रिपोर्ट पढने वाला और उपर रिपोर्ट भेजता है। रिपोर्ट को सिद्ध करना बहुत कठिन होता है। उसमें फिर राजकीय हस्तक्षेप भी होते हैं । कारवाई करने वाले 'शिक्षक' नहीं होते, प्रशासकीय विभाग के होते हैं । वास्तव में निर्णय लेने या कारवाई करने की दृष्टि से यह शिक्षा का क्षेत्र नहीं है। नीतियाँ निश्चित करनेवाला राजकीय क्षेत्र है, कारवाई करनेवाला प्रशासकीय क्षेत्र है, शिक्षा का क्षेत्र तो उनके अधीन है। राजकीय क्षेत्र वाले चुनावों की और सत्ता की चिन्ता करते हैं, उनके लिये सरकारी विद्यालय अपने हितों के लिये उपयोग में आनेवाला क्षेत्र है। प्रशासनिक अधिकारियों के लिये ये सब कर्मचारी हैं । उनका कार्यक्षेत्र नियम, कानून, कानून की धारा, नियम पालन के या उल्लंघन के शाब्दिक प्रावधान, नियुक्ति वेतन आदि हैं, शिक्षा नहीं । शिक्षा के प्रश्न को शैक्षिक दृष्टि से समझनेवाला, शैक्षिक दृष्टि से हल करनेवाला इस तन्त्र में कोई नहीं है । जब शिक्षा प्रशासन और राजनीति के अधीन हो जाती है तब वह निर्जीव और यांत्रिक हो जाती है। प्राणवान व्यक्ति अपनी अंगभूत ऊर्जा से कार्य करता है, यन्त्र बाहरी ऊर्जा से । प्राणवान व्यक्ति अपने ही बल, इच्छा और प्रेरणा से चलता है। यन्त्र चलाने पर चलता है । सरकारी शिक्षा का तन्त्र भी चलाने पर चलने वाला तन्त्र है । शिक्षा स्वभाव से प्राणवान है, प्रशासन स्वभाव से यान्त्रिक है। चलाने वाला यान्त्रिक हो और चलनेवाला प्राणवान यह अपने आप में बहुत विचित्र व्यवस्था है। ऐसी विचित्र व्यवस्था होने के कारण ही ज्ञान, चरित्र, कर्तृत्व, कुशलता आदि जीवमान तत्व पलायन कर जाते हैं। इस मूल कारण से सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में अच्छी शिक्षा नहीं होती।
 
# कहीं पर भी सीधी कारवाई होने की व्यवस्था सरकारी तन्त्र में नहीं होती। निरीक्षण करने वाला स्वयं कुछ नहीं कर सकता, केवल रिपोर्ट भेज सकता है । रिपोर्ट पढने वाला और उपर रिपोर्ट भेजता है। रिपोर्ट को सिद्ध करना बहुत कठिन होता है। उसमें फिर राजकीय हस्तक्षेप भी होते हैं । कारवाई करने वाले 'शिक्षक' नहीं होते, प्रशासकीय विभाग के होते हैं । वास्तव में निर्णय लेने या कारवाई करने की दृष्टि से यह शिक्षा का क्षेत्र नहीं है। नीतियाँ निश्चित करनेवाला राजकीय क्षेत्र है, कारवाई करनेवाला प्रशासकीय क्षेत्र है, शिक्षा का क्षेत्र तो उनके अधीन है। राजकीय क्षेत्र वाले चुनावों की और सत्ता की चिन्ता करते हैं, उनके लिये सरकारी विद्यालय अपने हितों के लिये उपयोग में आनेवाला क्षेत्र है। प्रशासनिक अधिकारियों के लिये ये सब कर्मचारी हैं । उनका कार्यक्षेत्र नियम, कानून, कानून की धारा, नियम पालन के या उल्लंघन के शाब्दिक प्रावधान, नियुक्ति वेतन आदि हैं, शिक्षा नहीं । शिक्षा के प्रश्न को शैक्षिक दृष्टि से समझनेवाला, शैक्षिक दृष्टि से हल करनेवाला इस तन्त्र में कोई नहीं है । जब शिक्षा प्रशासन और राजनीति के अधीन हो जाती है तब वह निर्जीव और यांत्रिक हो जाती है। प्राणवान व्यक्ति अपनी अंगभूत ऊर्जा से कार्य करता है, यन्त्र बाहरी ऊर्जा से । प्राणवान व्यक्ति अपने ही बल, इच्छा और प्रेरणा से चलता है। यन्त्र चलाने पर चलता है । सरकारी शिक्षा का तन्त्र भी चलाने पर चलने वाला तन्त्र है । शिक्षा स्वभाव से प्राणवान है, प्रशासन स्वभाव से यान्त्रिक है। चलाने वाला यान्त्रिक हो और चलनेवाला प्राणवान यह अपने आप में बहुत विचित्र व्यवस्था है। ऐसी विचित्र व्यवस्था होने के कारण ही ज्ञान, चरित्र, कर्तृत्व, कुशलता आदि जीवमान तत्व पलायन कर जाते हैं। इस मूल कारण से सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में अच्छी शिक्षा नहीं होती।
# सरकारी तन्त्र अ-मानवीय है । यह एक व्यवस्था है । यहाँ व्यक्ति गौण है, नियम ही मुख्य है । इस व्यवस्था में नियम के आधार पर व्यवहार होता है. भावना और विवेक के आधार पर नहीं, कर्तृत्व और चरित्र के आधार पर नहीं । उदाहरण के लिये शिक्षामन्त्री शिक्षक, विद्वान अथवा शिक्षाशास्त्री ही होगा ऐसा नहीं है। यह शिक्षा मनोविज्ञान जाननेवाला होगा यह आवश्यक नहीं है। वह लोगों के मतों से चुनकर देश चलानेवाली संसद या धारासभा में पहुँचा हुआ सांसद या विधायक है । यह स्वभाव से और कार्य से, विचार और अनुभव से व्यापारी भी हो सकता है, उद्योजक हो सकता है या मजदूर भी हो सकता है। उसका शिक्षा के साथ ज्ञानोपासक या ज्ञानसेवक जैसा कोई सम्बन्ध नहीं है । प्रशासनिक अधिकारी तन्त्र को चलानेवाला  है। वह शिक्षा को, चिकित्सा को, कारखानों को, खानों-खदानों को, विद्युत उत्पादन को, मजदूरों को एक ही पद्धति से चलाता है । उसे सजीव निर्जीव का, अच्छे बुरे का, सज्जन और दुर्जन का कोई भेद नहीं है । वह अन्धे की तरह ‘समदृष्टि' है, कानून अन्धे की लकड़ी  है।
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# सरकारी तन्त्र अ-मानवीय है । यह एक व्यवस्था है । यहाँ व्यक्ति गौण है, नियम ही मुख्य है । इस व्यवस्था में नियम के आधार पर व्यवहार होता है. भावना और विवेक के आधार पर नहीं, कर्तृत्व और चरित्र के आधार पर नहीं । उदाहरण के लिये शिक्षामन्त्री शिक्षक, विद्वान अथवा शिक्षाशास्त्री ही होगा ऐसा नहीं है। यह शिक्षा मनोविज्ञान जाननेवाला होगा यह आवश्यक नहीं है। वह लोगोंं के मतों से चुनकर देश चलानेवाली संसद या धारासभा में पहुँचा हुआ सांसद या विधायक है । यह स्वभाव से और कार्य से, विचार और अनुभव से व्यापारी भी हो सकता है, उद्योजक हो सकता है या मजदूर भी हो सकता है। उसका शिक्षा के साथ ज्ञानोपासक या ज्ञानसेवक जैसा कोई सम्बन्ध नहीं है । प्रशासनिक अधिकारी तन्त्र को चलानेवाला  है। वह शिक्षा को, चिकित्सा को, कारखानों को, खानों-खदानों को, विद्युत उत्पादन को, मजदूरों को एक ही पद्धति से चलाता है । उसे सजीव निर्जीव का, अच्छे बुरे का, सज्जन और दुर्जन का कोई भेद नहीं है । वह अन्धे की तरह ‘समदृष्टि' है, कानून अन्धे की लकड़ी  है।
 
# इस तन्त्र में विवेक पक्षपात बन जाता है, इसलिये कोई अपनी दृष्टि से, अपनी पद्धति से, अपने विवेक से निर्णय नहीं कर सकता, कारवाई नहीं कर सकता । भले ही उल्टे सीधे, टेढे मेढे रास्ते निकाले जाय तो भी उन्हें नियम कानून के द्वारा न्याय्य ठहराने ही होते हैं । यन्त्र की व्यवस्था में ऐसा होना अनिवार्य है। कोई भी यन्त्र स्वतन्त्र व्यवहार कर ही नहीं । सकता । यदि करने लगता है तो पूरी व्यवस्था चरमरा जाती है। तात्पर्य यह है कि विशाल और व्यापक सरकारी तन्त्र को अ-मानवीय होना ही पड़ता है। सूझबूझ, कल्पनाशक्ति, अन्तर्दष्टि, देशकाल परिस्थिति के अनुसार स्वविवेक आदि इसमें सम्भव ही नहीं होते हैं। शिक्षा का स्वभाव इससे सर्वथा उल्टा है। उसे इन सबकी आवश्यकता होती है। परन्तु शिक्षक के हाथ में अधिकार नहीं है । अधिकार यान्त्रिक व्यवस्था के हैं। ऐसे अ-मानवीय तन्त्र में शिक्षा का विचार, शिक्षा की प्रक्रिया, शिक्षा के निर्णय, योजनायें, नीतियाँ शैक्षिक दृष्टि से, शैक्षिक पद्धति से नहीं लिये जाते हैं, लिये जाना सम्भव भी नहीं है। इसका परिणाम यह होता है कि विद्यालय, शिक्षक और विद्यार्थियों के होते हुए भी शिक्षा नहीं चलती।
 
# इस तन्त्र में विवेक पक्षपात बन जाता है, इसलिये कोई अपनी दृष्टि से, अपनी पद्धति से, अपने विवेक से निर्णय नहीं कर सकता, कारवाई नहीं कर सकता । भले ही उल्टे सीधे, टेढे मेढे रास्ते निकाले जाय तो भी उन्हें नियम कानून के द्वारा न्याय्य ठहराने ही होते हैं । यन्त्र की व्यवस्था में ऐसा होना अनिवार्य है। कोई भी यन्त्र स्वतन्त्र व्यवहार कर ही नहीं । सकता । यदि करने लगता है तो पूरी व्यवस्था चरमरा जाती है। तात्पर्य यह है कि विशाल और व्यापक सरकारी तन्त्र को अ-मानवीय होना ही पड़ता है। सूझबूझ, कल्पनाशक्ति, अन्तर्दष्टि, देशकाल परिस्थिति के अनुसार स्वविवेक आदि इसमें सम्भव ही नहीं होते हैं। शिक्षा का स्वभाव इससे सर्वथा उल्टा है। उसे इन सबकी आवश्यकता होती है। परन्तु शिक्षक के हाथ में अधिकार नहीं है । अधिकार यान्त्रिक व्यवस्था के हैं। ऐसे अ-मानवीय तन्त्र में शिक्षा का विचार, शिक्षा की प्रक्रिया, शिक्षा के निर्णय, योजनायें, नीतियाँ शैक्षिक दृष्टि से, शैक्षिक पद्धति से नहीं लिये जाते हैं, लिये जाना सम्भव भी नहीं है। इसका परिणाम यह होता है कि विद्यालय, शिक्षक और विद्यार्थियों के होते हुए भी शिक्षा नहीं चलती।
 
# इसका अर्थ यह नहीं है कि निजी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा अच्छी चलती है। वहाँ अच्छी चलती दिखाई देती है इसके कारण वहाँ के शिक्षक नहीं हैं, वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं है वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं हैं तन्त्र है । निजी विद्यालयों में अच्छी चलती दिखाई दे रही है इसका कारण भी शिक्षक नहीं है, तन्त्र ही हैं । सरकारी तन्त्र बहुत बडा होने के कारण से और अ-मानवीय होने के कारण से वहाँ शिक्षक से ‘पढवाना' सम्भव नहीं होता । निजी विद्यालयों में तन्त्र छोटा होने के कारण से, मानवीय होने के कारण से शिक्षक से पढवाना' सम्भव होता है । सरकारी तन्त्र में नौकरी देने वाली व्यवस्था है, निजी तन्त्र में मनुष्य है । मनुष्य इच्छा, भावना, विवेक आदि से परिचालित होकर व्यवहार करता है। इसलिये यहाँ शिक्षक को पढाना पडता है । निजी विद्यालयों में शुल्क देनेवाला अभिभावक भी एक महत्व पूर्ण घटक है । अभिभावक और संचालक मिलकर शिक्षक को पढाने के लिये बाध्य कर सकते हैं।
 
# इसका अर्थ यह नहीं है कि निजी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा अच्छी चलती है। वहाँ अच्छी चलती दिखाई देती है इसके कारण वहाँ के शिक्षक नहीं हैं, वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं है वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं हैं तन्त्र है । निजी विद्यालयों में अच्छी चलती दिखाई दे रही है इसका कारण भी शिक्षक नहीं है, तन्त्र ही हैं । सरकारी तन्त्र बहुत बडा होने के कारण से और अ-मानवीय होने के कारण से वहाँ शिक्षक से ‘पढवाना' सम्भव नहीं होता । निजी विद्यालयों में तन्त्र छोटा होने के कारण से, मानवीय होने के कारण से शिक्षक से पढवाना' सम्भव होता है । सरकारी तन्त्र में नौकरी देने वाली व्यवस्था है, निजी तन्त्र में मनुष्य है । मनुष्य इच्छा, भावना, विवेक आदि से परिचालित होकर व्यवहार करता है। इसलिये यहाँ शिक्षक को पढाना पडता है । निजी विद्यालयों में शुल्क देनेवाला अभिभावक भी एक महत्व पूर्ण घटक है । अभिभावक और संचालक मिलकर शिक्षक को पढाने के लिये बाध्य कर सकते हैं।
# इस कारण से जो शुल्क दे सकते हैं ऐसे अभिभावक सरकारी विद्यालयों में अपनी सन्तानों को भेजना पसन्द नहीं करते । सरकारी विद्यालय तो चलेंगे ही क्योंकि उन्हें चलाना सरकारी बाध्यता है, परन्तु उसमें पढने के लिये कोई जायेगा नहीं । इसस्थिति में लालच देकर पढने के लिये बुलाना पडता है । अब जो आते हैं वे भोजन, कपडे आदि के आकर्षण से आते हैं, भोजन करके भाग जाते हैं। शिक्षक उनके इतने विमुख है कि वे भगा भी देते हैं ।
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# इस कारण से जो शुल्क दे सकते हैं ऐसे अभिभावक सरकारी विद्यालयों में अपनी सन्तानों को भेजना पसन्द नहीं करते । सरकारी विद्यालय तो चलेंगे ही क्योंकि उन्हें चलाना सरकारी बाध्यता है, परन्तु उसमें पढने के लिये कोई जायेगा नहीं । इसस्थिति में लालच देकर पढने के लिये बुलाना पडता है । अब जो आते हैं वे भोजन, कपड़े आदि के आकर्षण से आते हैं, भोजन करके भाग जाते हैं। शिक्षक उनके इतने विमुख है कि वे भगा भी देते हैं ।
    
===== उपाय क्या है =====
 
===== उपाय क्या है =====
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====== कुछ इस प्रकार विचार कर सकते हैं ======
 
====== कुछ इस प्रकार विचार कर सकते हैं ======
# अभिभावकों को अपनी सन्तानों को सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में भेजने हेतु प्रेरित करना यह वर्तमान परिस्थिति में करनेलायक प्रथम उपाय है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में जो सुविधा है वह पर्याप्त है, जो शिक्षक हैं वे नीयत से कैसे भी हों शैक्षिक पात्रता की दृष्टि से पर्याप्त हैं । सरकारी विद्यालय में शुल्क नहीं है, वह सस्ता है। घर के पास है इसलिये वाहन का खर्च नहीं है। अन्य तामझाम नहीं हैं। बालक चलकर विद्यालय जा सकते हैं इसलिये समय और श्रम की बचत होती है । अतः इन विद्यालयों में भेजना अधिक अच्छा है । तन्त्र तो शिक्षकों को पढाने हेतु बाध्य नहीं कर सकता परन्तु अभिभावक कर सकते हैं। अभिभावकों के आग्रह का परिणाम तन्त्र पर भी होता है । अतः यह प्रबोधन का विषय बनना चाहिये । प्रश्न केवल यह है कि सरकार की इस मामले में सहायता करने हेतु कोई आयेगा नहीं, आयेगा तो किसी न किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा से आयेगा । सरकार से मिलने वाले लाभ या तो आर्थिक या राजनीतिक होते हैं । यह होते हुए भी सरकारी विद्यालयों में अपनी सन्तानों को पढाना लोगों के लिये लाभकारी ही है । समाजसेवी संगठनों को अभिभावक प्रबोधन का कार्य करना चाहिये । शिक्षा महँगी हो गई है उसका भी उपाय हो जायेगा । यह भी आज का विकट प्रश्न बना हुआ है।
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# अभिभावकों को अपनी सन्तानों को सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में भेजने हेतु प्रेरित करना यह वर्तमान परिस्थिति में करनेलायक प्रथम उपाय है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में जो सुविधा है वह पर्याप्त है, जो शिक्षक हैं वे नीयत से कैसे भी हों शैक्षिक पात्रता की दृष्टि से पर्याप्त हैं । सरकारी विद्यालय में शुल्क नहीं है, वह सस्ता है। घर के पास है इसलिये वाहन का खर्च नहीं है। अन्य तामझाम नहीं हैं। बालक चलकर विद्यालय जा सकते हैं इसलिये समय और श्रम की बचत होती है । अतः इन विद्यालयों में भेजना अधिक अच्छा है । तन्त्र तो शिक्षकों को पढाने हेतु बाध्य नहीं कर सकता परन्तु अभिभावक कर सकते हैं। अभिभावकों के आग्रह का परिणाम तन्त्र पर भी होता है । अतः यह प्रबोधन का विषय बनना चाहिये । प्रश्न केवल यह है कि सरकार की इस मामले में सहायता करने हेतु कोई आयेगा नहीं, आयेगा तो किसी न किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा से आयेगा । सरकार से मिलने वाले लाभ या तो आर्थिक या राजनीतिक होते हैं । यह होते हुए भी सरकारी विद्यालयों में अपनी सन्तानों को पढाना लोगोंं के लिये लाभकारी ही है । समाजसेवी संगठनों को अभिभावक प्रबोधन का कार्य करना चाहिये । शिक्षा महँगी हो गई है उसका भी उपाय हो जायेगा । यह भी आज का विकट प्रश्न बना हुआ है।
 
# प्रबोधन की आवश्यकता सरकार को भी है । सरकारी प्राथमिक शिक्षकों के पास पढाने के अतिरिक्त इतने अधिक काम रहते हैं कि वे पढाने का काम कम कर पाते हैं। उदाहरण के लिये जनगणना, विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण, चुनाव के समय जानकारी पहुँचाने का काम आदि विभिन्न सरकारी योजनाओं का काम प्राथमिक शिक्षकों को करना पडता है। शिक्षक और अभिभावक इससे तंग आ जाते हैं। यदि सरकारी विद्यालय ठीक से चलते हैं तो शिक्षकों को इस प्रकार की व्यस्तता से मुक्त करना होगा । अ-मानवीयतन्त्र सहजता से ऐसा करता नहीं है इसलिये उसके लिये प्रबोधन की अधिक आवश्यकता होगी।
 
# प्रबोधन की आवश्यकता सरकार को भी है । सरकारी प्राथमिक शिक्षकों के पास पढाने के अतिरिक्त इतने अधिक काम रहते हैं कि वे पढाने का काम कम कर पाते हैं। उदाहरण के लिये जनगणना, विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण, चुनाव के समय जानकारी पहुँचाने का काम आदि विभिन्न सरकारी योजनाओं का काम प्राथमिक शिक्षकों को करना पडता है। शिक्षक और अभिभावक इससे तंग आ जाते हैं। यदि सरकारी विद्यालय ठीक से चलते हैं तो शिक्षकों को इस प्रकार की व्यस्तता से मुक्त करना होगा । अ-मानवीयतन्त्र सहजता से ऐसा करता नहीं है इसलिये उसके लिये प्रबोधन की अधिक आवश्यकता होगी।
 
# प्रबोधन का कार्य निःस्वार्थ लोग या संस्थायें ही कर सकती हैं। यदि वे भी किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा करेंगे तो राजकीय पक्ष उनका लाभ उठायेंगे । फिर प्रबोधन भी एक व्यवसाय बन जायेगा। सरकार यदि अपनी प्रतिष्ठा बढाने हेतु पैसे का आधार लेती है तो उसका लाभ उठाने वाले तत्व निकल आयेंगे । इसलिये स्वेच्छा से, निरपेक्ष भाव से, समाजसेवा करने वाले लोग ही शिक्षा की तथा समाज की सेवा करने की दृष्टि से अभिभावक और सरकार का प्रबोधन करने का काम करेंगे तो कुछ परिणाम मिलने की सम्भावना है।
 
# प्रबोधन का कार्य निःस्वार्थ लोग या संस्थायें ही कर सकती हैं। यदि वे भी किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा करेंगे तो राजकीय पक्ष उनका लाभ उठायेंगे । फिर प्रबोधन भी एक व्यवसाय बन जायेगा। सरकार यदि अपनी प्रतिष्ठा बढाने हेतु पैसे का आधार लेती है तो उसका लाभ उठाने वाले तत्व निकल आयेंगे । इसलिये स्वेच्छा से, निरपेक्ष भाव से, समाजसेवा करने वाले लोग ही शिक्षा की तथा समाज की सेवा करने की दृष्टि से अभिभावक और सरकार का प्रबोधन करने का काम करेंगे तो कुछ परिणाम मिलने की सम्भावना है।
# कई सेवाभावी संस्थायें सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में भोजन, शैक्षिक सामग्री, कपडे आदि की सहायता करते हैं । कई संस्थायें यहाँ के विद्यार्थियों के लिये पढाने की और संस्कार देने की अतिरिक्त व्यवस्था करते हैं । यह इसी कारण से करते हैं क्योंकि सब जानते हैं कि इन विद्यालयों में पढाई होती नहीं है। यह अच्छा है, परन्तु इससे भी अच्छा यह है कि सब मिलकर शिक्षकों को पढाने हेतु प्रेरित करें । अभिभावक और अन्य संस्थायें मूल प्रश्न की ओर ध्यान न देकर मध्य में से रास्ता निकालने का प्रयास करते हैं। इससे तो कुल मिलाकर लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है ।
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# कई सेवाभावी संस्थायें सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में भोजन, शैक्षिक सामग्री, कपड़े आदि की सहायता करते हैं । कई संस्थायें यहाँ के विद्यार्थियों के लिये पढाने की और संस्कार देने की अतिरिक्त व्यवस्था करते हैं । यह इसी कारण से करते हैं क्योंकि सब जानते हैं कि इन विद्यालयों में पढाई होती नहीं है। यह अच्छा है, परन्तु इससे भी अच्छा यह है कि सब मिलकर शिक्षकों को पढाने हेतु प्रेरित करें । अभिभावक और अन्य संस्थायें मूल प्रश्न की ओर ध्यान न देकर मध्य में से रास्ता निकालने का प्रयास करते हैं। इससे तो कुल मिलाकर लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है ।
# एक ओर तो सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को प्रबोधन और प्रेरणा के माध्यम से पुष्ट करने का काम करना चाहिये, दूसरी ओर सरकार से मुक्त करने का भी प्रयास होना चाहिये । वास्तव में शिक्षा सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, अंग्रेजी शासन के प्रभाव में यह सरकार की बाध्यता बन गई है । सरकारी ढंग से चलने वाला कोई भी काम ऐसे ही चलेगा । इसमें सरकार का दोष नहीं है । लोकतन्त्र में भी ऐसे ही चलेगा । इसमें लोकतन्त्र का भी दोष नहीं है । वास्तव में शिक्षा यदि इस प्रकार चलनी है तो समाज शिक्षित होगा ऐसी अपेक्षा ही नहीं करनी चाहिये । सरकार से मुक्त होने पर ही कुछ किया जा सकता है। सरकार से शिक्षा को मुक्त करने के लिये समाज को इस दायित्व को स्वीकार करना होगा । समाज आज इस मानसिकता में नहीं है। निजी संस्थायें कुछ विद्यालय तो चला लेंगी परन्तु देश की इतनी जनसंख्या के लिये आवश्यक है उतनी संख्या में विद्यालय चलाना उसके बस की बात नहीं। यह भी समाज प्रबोधन का ही बहुत बडा विषय है। शिक्षा की स्वायत्तता की माँग करने वाले लोगों और संगठनों को इस विषय में विचार करना होगा।
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# एक ओर तो सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को प्रबोधन और प्रेरणा के माध्यम से पुष्ट करने का काम करना चाहिये, दूसरी ओर सरकार से मुक्त करने का भी प्रयास होना चाहिये । वास्तव में शिक्षा सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, अंग्रेजी शासन के प्रभाव में यह सरकार की बाध्यता बन गई है । सरकारी ढंग से चलने वाला कोई भी काम ऐसे ही चलेगा । इसमें सरकार का दोष नहीं है । लोकतन्त्र में भी ऐसे ही चलेगा । इसमें लोकतन्त्र का भी दोष नहीं है । वास्तव में शिक्षा यदि इस प्रकार चलनी है तो समाज शिक्षित होगा ऐसी अपेक्षा ही नहीं करनी चाहिये । सरकार से मुक्त होने पर ही कुछ किया जा सकता है। सरकार से शिक्षा को मुक्त करने के लिये समाज को इस दायित्व को स्वीकार करना होगा । समाज आज इस मानसिकता में नहीं है। निजी संस्थायें कुछ विद्यालय तो चला लेंगी परन्तु देश की इतनी जनसंख्या के लिये आवश्यक है उतनी संख्या में विद्यालय चलाना उसके बस की बात नहीं। यह भी समाज प्रबोधन का ही बहुत बडा विषय है। शिक्षा की स्वायत्तता की माँग करने वाले लोगोंं और संगठनों को इस विषय में विचार करना होगा।
 
# कुछ इस प्रकार उपाय हो सकते हैं।
 
# कुछ इस प्रकार उपाय हो सकते हैं।
## सभी शिक्षित मातापिता अपने बच्चों को स्वयं पढायेंगे, साथ ही जो स्वयं अपने बच्चों को नहीं पढा सकते ऐसे मातापिता को बच्चों को भी पढायेंगे ऐसा विचार प्रस्तुत करना चाहिये । भोजन, वस्त्र, औषध आदि की व्यवस्था जिस प्रकार अपनी जिम्मेदारी पर की जाती है उसी प्रकार शिक्षा की भी व्यवस्था की जाय इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं लगना चाहिये ।
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## सभी शिक्षित मातापिता अपने बच्चोंं को स्वयं पढायेंगे, साथ ही जो स्वयं अपने बच्चोंं को नहीं पढा सकते ऐसे मातापिता को बच्चोंं को भी पढायेंगे ऐसा विचार प्रस्तुत करना चाहिये । भोजन, वस्त्र, औषध आदि की व्यवस्था जिस प्रकार अपनी जिम्मेदारी पर की जाती है उसी प्रकार शिक्षा की भी व्यवस्था की जाय इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं लगना चाहिये ।
## दस वर्ष की आयु तक की शिक्षा तो इसी प्रकार से चल सकती है । चलनी भी चाहिये । एक शिक्षक को पाँच विद्यार्थी होना शिक्षा मनोविज्ञान की दृष्टि से भी बहुत अच्छा होगा दस वर्ष की आयु के बाद कुछ सामूहिक शिक्षा की व्यवस्था का विचार करना होगा । हर सोसाइटी अपना अपना विद्यालय भी चलाये ऐसा प्रचलन शुरू हो सकता है।। सोसाइटी में जिस प्रकार कॉमन प्लॉट होता है, कम्युनिटी हॉल होता है, कई कॉलनियों में तरणताल और जिम होते हैं उसी प्रकार से विद्यालय भी हो सकता है, होना चाहिये । पन्द्रह वर्ष की आयु तक ऐसा विद्यालय चल सकता है ।
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## दस वर्ष की आयु तक की शिक्षा तो इसी प्रकार से चल सकती है । चलनी भी चाहिये । एक शिक्षक को पाँच विद्यार्थी होना शिक्षा मनोविज्ञान की दृष्टि से भी बहुत अच्छा होगा दस वर्ष की आयु के बाद कुछ सामूहिक शिक्षा की व्यवस्था का विचार करना होगा । हर सोसाइटी अपना अपना विद्यालय भी चलाये ऐसा प्रचलन आरम्भ हो सकता है।। सोसाइटी में जिस प्रकार कॉमन प्लॉट होता है, कम्युनिटी हॉल होता है, कई कॉलनियों में तरणताल और जिम होते हैं उसी प्रकार से विद्यालय भी हो सकता है, होना चाहिये । पन्द्रह वर्ष की आयु तक ऐसा विद्यालय चल सकता है ।
 
## उद्योगगृहों को अपने कर्मचारियों की सन्तानों की शिक्षा की व्यवस्था करने का आग्रह होना चाहिये । ये प्राथमिक विद्यालय ही होंगे । दस वर्ष की आयु तक ऐसी शिक्षा दी जायेगी।
 
## उद्योगगृहों को अपने कर्मचारियों की सन्तानों की शिक्षा की व्यवस्था करने का आग्रह होना चाहिये । ये प्राथमिक विद्यालय ही होंगे । दस वर्ष की आयु तक ऐसी शिक्षा दी जायेगी।
 
## अपने उद्योग के लिये आवश्यक कौशलों की शिक्षा का प्रबन्ध उद्योगगृह ही करे और उसके साथ सामान्य ज्ञान और संस्कारों की शिक्षा का प्रबन्ध भी किया जाय ऐसी व्यवस्था प्रचलित करनी चाहिये ।
 
## अपने उद्योग के लिये आवश्यक कौशलों की शिक्षा का प्रबन्ध उद्योगगृह ही करे और उसके साथ सामान्य ज्ञान और संस्कारों की शिक्षा का प्रबन्ध भी किया जाय ऐसी व्यवस्था प्रचलित करनी चाहिये ।

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