Difference between revisions of "Systems of a Rashtra (राष्ट्र की व्यवस्थाएँ)"
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हर बालक का जन्म से ही अपना अपना अधिकतम विकास की सम्भावना का स्तर होता है। शिक्षा का काम उस संभाव्य विकास के उच्चतम स्तरतक पहुँचने के लिए मार्गदर्शन करना है। सम्पूर्णता और समग्रता में विकास ही शिक्षा की सीमा है। जब बालक का व्यक्तिगत, समष्टीगत, सृष्टिगत और परमेष्ठीगत ऐसा चहुँमुखी विकास होता है तब उसे समग्र विकास कहते हैं। | हर बालक का जन्म से ही अपना अपना अधिकतम विकास की सम्भावना का स्तर होता है। शिक्षा का काम उस संभाव्य विकास के उच्चतम स्तरतक पहुँचने के लिए मार्गदर्शन करना है। सम्पूर्णता और समग्रता में विकास ही शिक्षा की सीमा है। जब बालक का व्यक्तिगत, समष्टीगत, सृष्टिगत और परमेष्ठीगत ऐसा चहुँमुखी विकास होता है तब उसे समग्र विकास कहते हैं। | ||
− | व्यक्तिगत विकास में मनुष्य के ज्ञानार्जन के करणों का विकास आता है। पाँच कर्मेंद्रिय और पाँच ज्ञानेंद्रिय ये बाह्य-करण कहलाते हैं। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ये अंत:करण कहलाते हैं। १५ वर्ष की आयुतक शिक्षा का साध्य बालक के ज्ञानार्जन के करणों का अधिकतम विकास यह होता है। इस के लिये विविध विषय साधन होते हैं। इससे आगे जब ज्ञानार्जन के करणों का अच्छी तरह से विकास हो गया है, विषयका ज्ञान साध्य और ज्ञानार्जन के विकसित करण साधन बन जाते हैं। समाज के साथ कौटुम्बिक भावना का विकास समष्टिगत और चराचर के साथ कौटुम्बिक भावना का विकास सृष्टिगत विकास कहलाता है। सृष्टिगत विकास का उच्चतम स्तर ही परमेष्ठीगत विकास है। समग्र विकास है। | + | व्यक्तिगत विकास में मनुष्य के ज्ञानार्जन के करणों का विकास आता है। पाँच कर्मेंद्रिय और पाँच ज्ञानेंद्रिय ये बाह्य-करण कहलाते हैं। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ये अंत:करण कहलाते हैं। १५ वर्ष की आयुतक शिक्षा का साध्य बालक के ज्ञानार्जन के करणों का अधिकतम विकास यह होता है। इस के लिये विविध विषय साधन होते हैं। इससे आगे जब ज्ञानार्जन के करणों का अच्छी तरह से विकास हो गया है, विषयका ज्ञान साध्य और ज्ञानार्जन के विकसित करण साधन बन जाते हैं। समाज के साथ [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|कौटुम्बिक भावना]] का विकास समष्टिगत और चराचर के साथ कौटुम्बिक भावना का विकास सृष्टिगत विकास कहलाता है। सृष्टिगत विकास का उच्चतम स्तर ही परमेष्ठीगत विकास है। समग्र विकास है। |
शिक्षा के महत्त्वपूर्ण पहलू निम्न हैं: | शिक्षा के महत्त्वपूर्ण पहलू निम्न हैं: | ||
# शिक्षा के विषय: अध्ययन के प्रत्येक विषय का संदर्भ काम और अर्थ को धर्मानुकूल रखने के साथ होता है। पुरूषार्थों के पालन हेतु विद्यार्थी को विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन करना आवश्यक होता है। किसी भी विषय के अध्ययन का अर्थ होता है उस विषय के लक्षणों को जीवन में उतारना। | # शिक्षा के विषय: अध्ययन के प्रत्येक विषय का संदर्भ काम और अर्थ को धर्मानुकूल रखने के साथ होता है। पुरूषार्थों के पालन हेतु विद्यार्थी को विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन करना आवश्यक होता है। किसी भी विषय के अध्ययन का अर्थ होता है उस विषय के लक्षणों को जीवन में उतारना। | ||
− | ## विषयों के अंगांगी संबंध के संदर्भ में प्रत्येक विषय का अध्ययन : मानव जीवन के लक्ष्य को ध्यान में रखकर प्रत्येक विषय की विषयवस्तु का निर्धारण करना। अर्थात् केवल आध्यात्म ही नहीं तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान जैसे विषय भी अध्ययनकर्ता को मोक्ष की दिशा में आगे बढाएँ इसे ध्यान में रखकर विषयवस्तु तय करना। | + | ## विषयों के अंगांगी संबंध के संदर्भ में प्रत्येक विषय का अध्ययन : मानव जीवन के लक्ष्य को ध्यान में रखकर प्रत्येक विषय की विषयवस्तु का निर्धारण करना। अर्थात् केवल आध्यात्म ही नहीं तो [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] और तन्त्रज्ञान जैसे विषय भी अध्ययनकर्ता को मोक्ष की दिशा में आगे बढाएँ इसे ध्यान में रखकर विषयवस्तु तय करना। |
## करणीय अकरणीय विवेक : करणीय वे बातें होतीं हैं जो सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत होतीं हैं। और अकरणीय वे बातें होतीं हैं जिन के करने से किसी को हानि होती हो। किसी बात के सरल होने से वह करणीय नहीं हो जाती और ना ही किसी बात के कठिन होने से या असंभव लगने पर वह अकरणीय बन जाती है। असंभव लगने पर भी यदि वह सब के हित में है तो करणीय तो वही रहता है। उसे संभव चरणों में बाँटकर करना होता है। किसी भी प्राप्त परिस्थिति में करणीय और अकरणीय क्या है यह समझना कभी कभी कठिन ही नहीं तो बहुत कठिन होता है। सामान्य लोगोंं के लिये ऐसे समय में श्रेष्ठ लोगोंं के अनुकरण की बात श्रीमद्भगवद्गीता में कही गई है। | ## करणीय अकरणीय विवेक : करणीय वे बातें होतीं हैं जो सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत होतीं हैं। और अकरणीय वे बातें होतीं हैं जिन के करने से किसी को हानि होती हो। किसी बात के सरल होने से वह करणीय नहीं हो जाती और ना ही किसी बात के कठिन होने से या असंभव लगने पर वह अकरणीय बन जाती है। असंभव लगने पर भी यदि वह सब के हित में है तो करणीय तो वही रहता है। उसे संभव चरणों में बाँटकर करना होता है। किसी भी प्राप्त परिस्थिति में करणीय और अकरणीय क्या है यह समझना कभी कभी कठिन ही नहीं तो बहुत कठिन होता है। सामान्य लोगोंं के लिये ऐसे समय में श्रेष्ठ लोगोंं के अनुकरण की बात श्रीमद्भगवद्गीता में कही गई है। | ||
## स्वभाव शुद्धि और वृद्धि की शिक्षा : मोटे मोटे तौर पर जो भी स्वभाव धर्म व्यवस्था निर्धारित करे उन स्वभावों की शुद्धि और वृद्धि की व्यवस्था करना। यह करते समय समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सभी स्वभावों के सन्तुलन और समायोजन का भी ध्यान रखना। | ## स्वभाव शुद्धि और वृद्धि की शिक्षा : मोटे मोटे तौर पर जो भी स्वभाव धर्म व्यवस्था निर्धारित करे उन स्वभावों की शुद्धि और वृद्धि की व्यवस्था करना। यह करते समय समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सभी स्वभावों के सन्तुलन और समायोजन का भी ध्यान रखना। | ||
## काम पुरूषार्थ की शिक्षा : मनुष्य के जीवन का पहला पुरूषार्थ काम है। काम का अर्थ कामना है, इच्छा है। इच्छाएँ धर्म के दायरे में रहें इसलिये काम की शिक्षा आवश्यक होती है। इछाएँ मन करता है। इसलिये काम की शिक्षा का अर्थ है मन की शिक्षा। सामान्यत: बुद्धि सत्यानुगामी होती है। मन के विकार ही उसे भटकाते हैं। मन की शिक्षा के लिये पहले मन को ठीक से समझना होगा। मन की शिक्षा का अर्थ है मन को बुद्धि के नियंत्रण में विवेक के नियंत्रण में रखने की शिक्षा। काम की याने मन की शिक्षा के विषय में अधिक जानने के लिये कृपया [[Indian Governance Systems (धार्मिक शासन दृष्टि)|यहाँ]] देखें। | ## काम पुरूषार्थ की शिक्षा : मनुष्य के जीवन का पहला पुरूषार्थ काम है। काम का अर्थ कामना है, इच्छा है। इच्छाएँ धर्म के दायरे में रहें इसलिये काम की शिक्षा आवश्यक होती है। इछाएँ मन करता है। इसलिये काम की शिक्षा का अर्थ है मन की शिक्षा। सामान्यत: बुद्धि सत्यानुगामी होती है। मन के विकार ही उसे भटकाते हैं। मन की शिक्षा के लिये पहले मन को ठीक से समझना होगा। मन की शिक्षा का अर्थ है मन को बुद्धि के नियंत्रण में विवेक के नियंत्रण में रखने की शिक्षा। काम की याने मन की शिक्षा के विषय में अधिक जानने के लिये कृपया [[Indian Governance Systems (धार्मिक शासन दृष्टि)|यहाँ]] देखें। | ||
− | ## अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा : अर्थ से तात्पर्य यहाँ केवल पैसे से नहीं है। कामनाओं की पूर्ति के लिए किये गये प्रयास और साथ में उपयोग में लाए गए धन, साधन और संसाधन भी अर्थ पुरूषार्थ के हिस्से हैं। जिस प्रकार काम पुरुषार्थ जीवनव्यापी है उसी प्रकार अर्थ पुरूषार्थ भी जीवन व्यापनेवाला है। जब लेने के स्थानपर देनेपर बल दिया जाता है तब समृद्धि व्यवस्था अच्छी चलती है। सर्वहितकारी होती है। दिया तो वही जा सकता है जो अर्जित किया हो या अपने पास पहले से ही हो। अपने पास जो है उस में से सर्वश्रेष्ठ जो है उसे देने की मानसिकता समाज को श्रेष्ठ बनाती है। ऐसी | + | ## अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा : अर्थ से तात्पर्य यहाँ केवल पैसे से नहीं है। कामनाओं की पूर्ति के लिए किये गये प्रयास और साथ में उपयोग में लाए गए धन, साधन और संसाधन भी अर्थ पुरूषार्थ के हिस्से हैं। जिस प्रकार काम पुरुषार्थ जीवनव्यापी है उसी प्रकार अर्थ पुरूषार्थ भी जीवन व्यापनेवाला है। जब लेने के स्थानपर देनेपर बल दिया जाता है तब समृद्धि व्यवस्था अच्छी चलती है। सर्वहितकारी होती है। दिया तो वही जा सकता है जो अर्जित किया हो या अपने पास पहले से ही हो। अपने पास जो है उस में से सर्वश्रेष्ठ जो है उसे देने की मानसिकता समाज को श्रेष्ठ बनाती है। ऐसी मानसिकता वाले समाज का मनुष्य जो भी करता है वह सर्वश्रेष्ठ बने इसका प्रयास करता है। और ऐसा प्रयास जिस समाज के लोग करेंगे उस समाज का सम्मान तो अन्य समाज करेंगे ही। दान की भी यही संकल्पना है। जो सर्वश्रेष्ठ है उसी का तो दान किया जाता है (नचिकेता की कथा)। अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा के कुछ बिंदु निम्न हैं: |
##* भूमि, जल, वायू, सूर्यप्रकाश आदि प्रकृति के वरदान हैं। सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य को ये सहज ही उपलब्ध होते हैं। | ##* भूमि, जल, वायू, सूर्यप्रकाश आदि प्रकृति के वरदान हैं। सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य को ये सहज ही उपलब्ध होते हैं। | ||
##* खनिज, रत्नसंपदा, जीव-विविधता ये प्राकृतिक संपदाएँ हैं। इनको बनाया नहीं जा सकता। प्रयासों से इनकी प्राप्ति हो सकती है। | ##* खनिज, रत्नसंपदा, जीव-विविधता ये प्राकृतिक संपदाएँ हैं। इनको बनाया नहीं जा सकता। प्रयासों से इनकी प्राप्ति हो सकती है। | ||
− | ##* | + | ##* समृद्धि के लिये प्राकृतिक संसाधन, बुद्धि और कुशलता ऐसी तीन बातों के समायोजन की आवश्यकता होती है। |
##* जिस में प्राणशक्ति अधिक है वह अधिक कर्मवान है। वह अधिक अच्छी तरह कौशलों का अर्जन कर सकता है। | ##* जिस में प्राणशक्ति अधिक है वह अधिक कर्मवान है। वह अधिक अच्छी तरह कौशलों का अर्जन कर सकता है। | ||
##* सत्य, न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि सांस्कृतिक या धार्मिक बातों को धन से नहीं तोला जा सकता। | ##* सत्य, न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि सांस्कृतिक या धार्मिक बातों को धन से नहीं तोला जा सकता। | ||
##* ये बातें अनमोल होतीं हैं। कहा गया है - अर्थशास्त्रात् बलवत् धर्मशास्त्रात् इति स्मृता:। अर्थशास्त्र धर्मशास्त्र द्वारा नियंत्रित होना चाहिये। | ##* ये बातें अनमोल होतीं हैं। कहा गया है - अर्थशास्त्रात् बलवत् धर्मशास्त्रात् इति स्मृता:। अर्थशास्त्र धर्मशास्त्र द्वारा नियंत्रित होना चाहिये। | ||
− | ##* उत्पादक काम तीन प्रकार के होते हैं। उपयोगी, अनुपयोगी और हानिकारक। केवल उपयोगी काम करने से | + | ##* उत्पादक काम तीन प्रकार के होते हैं। उपयोगी, अनुपयोगी और हानिकारक। केवल उपयोगी काम करने से समृद्धि प्राप्त होती है। अनुपयोगी काम करने से आभासी समृद्धि प्राप्त होती है। हानिकारक काम करने से समृद्धि नष्ट हो जाती है। |
##* अपने ‘स्व’भाव के अनुसार काम करने से काम में सहजता भी आती है और काम बोझ नहीं बनता। काम में आनंद आता है। छुट्टी की आवश्यकता नहीं होती। वैसे भी प्रकृति में कोई छुट्टी नहीं लेता। फिर मानव क्यों छुट्टी ले ? | ##* अपने ‘स्व’भाव के अनुसार काम करने से काम में सहजता भी आती है और काम बोझ नहीं बनता। काम में आनंद आता है। छुट्टी की आवश्यकता नहीं होती। वैसे भी प्रकृति में कोई छुट्टी नहीं लेता। फिर मानव क्यों छुट्टी ले ? | ||
##* प्रकृति तो गाँवों में होती है। ग्राम की तुलना में शहर तो अप्राकृतिक ही होते हैं। इसलिये समृद्धि व्यवस्था ग्राम केन्द्रित होनी चाहिये। समृद्धि व्यवस्था को ग्राम केन्द्रित बनाने के लिये सर्वप्रथम सभी प्रकार के विद्या केन्द्र गाँवों में ले जाने होंगे। प्रगत अध्ययन केन्द्र शहरों में चल सकते हैं। | ##* प्रकृति तो गाँवों में होती है। ग्राम की तुलना में शहर तो अप्राकृतिक ही होते हैं। इसलिये समृद्धि व्यवस्था ग्राम केन्द्रित होनी चाहिये। समृद्धि व्यवस्था को ग्राम केन्द्रित बनाने के लिये सर्वप्रथम सभी प्रकार के विद्या केन्द्र गाँवों में ले जाने होंगे। प्रगत अध्ययन केन्द्र शहरों में चल सकते हैं। | ||
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##* इन सब के लिये ‘इच्छाओं के संयम की शिक्षा के साथ ही सर्वे भवन्तु सुखिन: की शिक्षा’ आवश्यक है। | ##* इन सब के लिये ‘इच्छाओं के संयम की शिक्षा के साथ ही सर्वे भवन्तु सुखिन: की शिक्षा’ आवश्यक है। | ||
##* समृद्धि व्यवस्था क्रय विक्रय की नहीं, व्यय की होनी चाहिये। देने की होनी चाहिये। माँग की नहीं। छोडने की होनी चाहिये। हथियाने की नहीं। दान की होनी चाहिये। भीख की नहीं। ऐसी मानसिकता बनाने का काम मुख्यत: कुटुम्ब शिक्षा का होता है। विद्या केन्द्र की शिक्षा में इसे दृढ़ किया जाता है। | ##* समृद्धि व्यवस्था क्रय विक्रय की नहीं, व्यय की होनी चाहिये। देने की होनी चाहिये। माँग की नहीं। छोडने की होनी चाहिये। हथियाने की नहीं। दान की होनी चाहिये। भीख की नहीं। ऐसी मानसिकता बनाने का काम मुख्यत: कुटुम्ब शिक्षा का होता है। विद्या केन्द्र की शिक्षा में इसे दृढ़ किया जाता है। | ||
− | ##* संपन्नता और | + | ##* संपन्नता और समृद्धि में अन्तर होता है। धन के संचय से सम्पन्नता आती है। लेकिन देने की मानसिकता नहीं होगी तो संपत्ति का उचित वितरण नहीं होगा और समृद्धि नहीं आयेगी। देने की मानसिकता ही व्यक्ति ओर समाज को समृध्द बनाती है। इसीलिये भारत में अभी अभी ५०-६० वर्ष पहले तक बाजार में कीमत तो एक सैंकडा आम की तय होती थी। लेकिन बेचने वाला १३२ आम देता था। यह लेखक के अपने बचपन में प्रत्यक्ष अनुभव की हुई बात है। |
− | ##* जीवन की गति बढ जानेसे समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। अतः जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। जीवन की इष्ट गति, इस संकल्पना को हम विज्ञान और तन्त्रज्ञान दृष्टि के विषय में जानने का प्रयास करेंगे। अर्थ पुरुषार्थ के धन और आर्थिक समृद्धि से जुड़े महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं का ज्ञान हम धार्मिक | + | ##* जीवन की गति बढ जानेसे समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। अतः जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। जीवन की इष्ट गति, इस संकल्पना को हम [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] और तन्त्रज्ञान दृष्टि के विषय में जानने का प्रयास करेंगे। अर्थ पुरुषार्थ के धन और आर्थिक समृद्धि से जुड़े महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं का ज्ञान हम धार्मिक समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि के विषय में प्राप्त करेंगे। |
## धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा : इसके कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदू निम्न हैं: | ## धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा : इसके कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदू निम्न हैं: | ||
− | ##* अपने लिये करें वह कर्म और अन्यों के हित के लिये करें वह धर्म , ऐसी भी धर्म की एक अत्यंत सरल व्याख्या की गई है। | + | ##* अपने लिये करें वह कर्म और अन्यों के हित के लिये करें वह धर्म, ऐसी भी धर्म की एक अत्यंत सरल व्याख्या की गई है। |
##* प्रकृति के नियम धर्म हैं। प्रकृति के नियमों का सब के हित में उपयोग करना संकृति है। सामान्य परिस्थितियों में धर्माचरण की समझ निर्माण करने के लिये धर्मशिक्षा होती है। | ##* प्रकृति के नियम धर्म हैं। प्रकृति के नियमों का सब के हित में उपयोग करना संकृति है। सामान्य परिस्थितियों में धर्माचरण की समझ निर्माण करने के लिये धर्मशिक्षा होती है। | ||
##* इच्छाओं को और प्रयासों को धर्म की सीमा में रखना सिखाना ही धर्म शिक्षा है। इच्छाएँ और उनकी पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाए गए धन, साधन और संसाधन यह सब धर्म के अनुकूल होने चाहिए। धन कमाना और उस धनका विनियोग करना, इन दोनों बातों का नियामक धर्म होना चाहिये। | ##* इच्छाओं को और प्रयासों को धर्म की सीमा में रखना सिखाना ही धर्म शिक्षा है। इच्छाएँ और उनकी पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाए गए धन, साधन और संसाधन यह सब धर्म के अनुकूल होने चाहिए। धन कमाना और उस धनका विनियोग करना, इन दोनों बातों का नियामक धर्म होना चाहिये। | ||
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शासन का या न्यायदान का केन्द्र जितना दूर उतनी अन्याय की संभावनाएँ बढतीं हैं। इसलिये शासन विकेन्द्रित होना आवश्यक है। कुटुम्ब पंचायत, ग्राम-पंचायत, जाति-पंचायत, जनपद पंचायत आदि स्तर पर भी न्याय और शासन की व्यवस्था होने से अन्याय की संभावनाएँ न्यूनतम हो जातीं हैं। | शासन का या न्यायदान का केन्द्र जितना दूर उतनी अन्याय की संभावनाएँ बढतीं हैं। इसलिये शासन विकेन्द्रित होना आवश्यक है। कुटुम्ब पंचायत, ग्राम-पंचायत, जाति-पंचायत, जनपद पंचायत आदि स्तर पर भी न्याय और शासन की व्यवस्था होने से अन्याय की संभावनाएँ न्यूनतम हो जातीं हैं। | ||
− | शासन के बारे में कहा है जो कम से कम शासन करे | + | शासन के बारे में कहा है जो कम से कम शासन करे तथापि किसीपर अन्याय नहीं हो तब वह अच्छा शासन होता है। किन्तु सामाजिक अनुशासन की प्राथमिक जिम्मेदारी शिक्षा या धर्म क्षेत्र की होती है। शासन का काम तो अनुशासनहींनता का नियंत्रण मात्र होता है। |
# सत्ता का (विकेंद्रित) स्वरूप | # सत्ता का (विकेंद्रित) स्वरूप | ||
## भौगोलिक: | ## भौगोलिक: | ||
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## प्रांत, जनपद/जिला, महानगरपालिका, शहरपालिका, ग्रामपंचायत, जातिपंचायत, कुटुम्ब आदि में विकेंद्रित शासन व्यवस्था में जब तक कोई वर्धिष्णु समस्या की सम्भावना नहीं दिखाई देती हस्तक्षेप नहीं करना। लेकिन ऐसी संभावनाओं की दृष्टि से सदैव जागरूक और कार्यवाही के लिये तत्पर रहना। | ## प्रांत, जनपद/जिला, महानगरपालिका, शहरपालिका, ग्रामपंचायत, जातिपंचायत, कुटुम्ब आदि में विकेंद्रित शासन व्यवस्था में जब तक कोई वर्धिष्णु समस्या की सम्भावना नहीं दिखाई देती हस्तक्षेप नहीं करना। लेकिन ऐसी संभावनाओं की दृष्टि से सदैव जागरूक और कार्यवाही के लिये तत्पर रहना। | ||
## राष्ट्र को वर्धिष्णु रखना यह भी शासक की सुरक्षा नीति का अनिवार्य हिस्सा होता है। | ## राष्ट्र को वर्धिष्णु रखना यह भी शासक की सुरक्षा नीति का अनिवार्य हिस्सा होता है। | ||
− | ## आदर्श के रूप में तो सर्वसहमति के लोकतंत्र से श्रेष्ठ अन्य कोई शासन व्यवस्था नहीं हो सकती। सामान्यत: जैसे जैसे आबादी और भौगोलिक क्षेत्र बढता जाता है लोकतंत्र की परिणामकारकता कम होती जाती है। | + | ## आदर्श के रूप में तो सर्वसहमति के लोकतंत्र से श्रेष्ठ अन्य कोई शासन व्यवस्था नहीं हो सकती। सामान्यत: जैसे जैसे आबादी और भौगोलिक क्षेत्र बढता जाता है लोकतंत्र की परिणामकारकता कम होती जाती है। तथापि ग्राम स्तर पर ग्रामसभाओं जैसा सर्वसहमति का लोकतंत्र तो शीघ्रता से आरम्भ किया जा सकता है। नगर और महानगरों में भी प्रभागों की रचना हो। प्रभागों की आबादी ५००० तक ही रहे। ग्राम की तरह ही प्रभागों में सर्वसहमति से पंचायत समिति सदस्य और प्रतिनिधि का चयन (निर्वाचन नहीं) हो। जनपद/नगर/महानगर जैसे बडे भौगोलिक/आबादीवाले क्षेत्र के लिये ग्रामसभाओं / प्रभागों द्वारा (सर्वसहमति से) चयनित (निर्वाचित नहीं) प्रतिनिधियों की समिति का शासन रहे। इस समिति का प्रमुख भी सर्वसहमति से ही तय हो। किसी ग्राम/प्रभाग से सर्वसहमति से प्रतिनिधि चयन नहीं होने से उस ग्राम/प्रभाग का प्रतिनिधित्व समिति में नहीं रहेगा। लेकिन समिति के निर्णय ग्राम/प्रभाग को लागू होंगे। समिति भी निर्णय करते समय जिस ग्राम का प्रतिनिधित्व नहीं है उसके हित को ध्यान में रखकर ही निर्णय करे। जनपद समितियां प्रदेश के शासक का चयन करेंगी। ऐसा शासक भी सर्वसहमति से ही चयनित होगा। प्रदेशों के शासक फिर सर्वसहमति से राष्ट्र के प्रधान शासक का या सम्राट का चयन करेंगे। जनपद/नगर/ महानगर, प्रदेश, राष्ट्र आदि सभी स्तरों के चयनित प्रमुख अपने अपने सलाहकार और सहयोगियों का चयन करेंगे। सर्वसहमति के अभाव में धर्म व्यवस्था याने विद्वानों की सभा जनमत को ध्यान में लेकर और शासक बनने की योग्यता और क्षमता को ध्यान में लेकर शासक कौन बनेगा इसका निर्णय करेगी। |
## शासक निर्माण : श्रेष्ठ शासक निर्माण करने की दृष्टि से धर्मव्यवस्था अपनी व्यवस्था निर्माण करे। इस व्यवस्था द्वारा चयनित, संस्कारित, शिक्षित और प्रशिक्षित शासक अन्य किसी भी शासक से सामान्यत: श्रेष्ठ होगा। इस व्यवस्था के कारण समाज में प्रधान शासक बनने की क्षमता रखने वाले लोगोंं का अभाव नहीं निर्माण होगा। | ## शासक निर्माण : श्रेष्ठ शासक निर्माण करने की दृष्टि से धर्मव्यवस्था अपनी व्यवस्था निर्माण करे। इस व्यवस्था द्वारा चयनित, संस्कारित, शिक्षित और प्रशिक्षित शासक अन्य किसी भी शासक से सामान्यत: श्रेष्ठ होगा। इस व्यवस्था के कारण समाज में प्रधान शासक बनने की क्षमता रखने वाले लोगोंं का अभाव नहीं निर्माण होगा। | ||
# शासन का आधार : शासन के दो आधार हैं। पहला है राजधर्म का पालन (प्रजा को पुत्रवत मानकर व्यवहार करना) और दूसरा है कर-प्रणाली। | # शासन का आधार : शासन के दो आधार हैं। पहला है राजधर्म का पालन (प्रजा को पुत्रवत मानकर व्यवहार करना) और दूसरा है कर-प्रणाली। | ||
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#* संक्षेप में कहें तो अर्थ पुरूषार्थ की शिक्षा में दिये लगभग सभी बिंदुओं को व्यवहार में लाने के लिये कौटुम्बिक व्यवसाय अनिवार्य ऐसा पहलू है। | #* संक्षेप में कहें तो अर्थ पुरूषार्थ की शिक्षा में दिये लगभग सभी बिंदुओं को व्यवहार में लाने के लिये कौटुम्बिक व्यवसाय अनिवार्य ऐसा पहलू है। | ||
# कौशल समायोजन व्यवस्था : मनुष्य की आवश्यकताएँ बहुत सारी हैं। लेकिन एक मनुष्य की क्षमताएँ मर्यादित हैं। इसलिये परस्परावलंबन अनिवार्य होता है। हर मनुष्य की अपनी विशेषता होती है। इस विशेषता में किसी व्यावसायिक कौशल के विकास की सम्भावना भी आती है। कोई दिखने में सरल और लाभदायक व्यवसाय करने इच्छा होना तो सभी के लिये स्वाभाविक है। लेकिन ऐसा प्रत्यक्ष में होने से एक ओर तो जीवन के कई व्यावसायिक कौशलों की क्षमता होते हुए भी लोग उन का उपयोग नहीं करेंगे। दुसरी बात याने इससे समाज की उन आवश्यकताओं की पूर्ति ही नहीं हो पाएगी। तीसरी बात याने किसी एक कौशल के क्षेत्र में अनावश्यक संख्या में लोग आने से स्पर्धा, संघर्ष, नैराश्य, लाचारी, बेरोजगारी आदि अनेक दोष समाज में निर्माण होंगे। समाज के प्रत्येक व्यक्ति की अंगभूत कौशल के विकास की संभावनाओं को समझकर उस व्यक्ति का विकास उस व्यावसायिक कौशल के क्षेत्र में होने से वह व्यक्ति और समाज दोनों लाभान्वित होंगे। | # कौशल समायोजन व्यवस्था : मनुष्य की आवश्यकताएँ बहुत सारी हैं। लेकिन एक मनुष्य की क्षमताएँ मर्यादित हैं। इसलिये परस्परावलंबन अनिवार्य होता है। हर मनुष्य की अपनी विशेषता होती है। इस विशेषता में किसी व्यावसायिक कौशल के विकास की सम्भावना भी आती है। कोई दिखने में सरल और लाभदायक व्यवसाय करने इच्छा होना तो सभी के लिये स्वाभाविक है। लेकिन ऐसा प्रत्यक्ष में होने से एक ओर तो जीवन के कई व्यावसायिक कौशलों की क्षमता होते हुए भी लोग उन का उपयोग नहीं करेंगे। दुसरी बात याने इससे समाज की उन आवश्यकताओं की पूर्ति ही नहीं हो पाएगी। तीसरी बात याने किसी एक कौशल के क्षेत्र में अनावश्यक संख्या में लोग आने से स्पर्धा, संघर्ष, नैराश्य, लाचारी, बेरोजगारी आदि अनेक दोष समाज में निर्माण होंगे। समाज के प्रत्येक व्यक्ति की अंगभूत कौशल के विकास की संभावनाओं को समझकर उस व्यक्ति का विकास उस व्यावसायिक कौशल के क्षेत्र में होने से वह व्यक्ति और समाज दोनों लाभान्वित होंगे। | ||
− | ## आनुवंशिकता : व्यावसायिक कौशलों का आनुवंशिकता से संबंध होता है। माता पिता (विशेषत: पिता) में यदि एक व्यावसायिक कौशल के विकास की संभावनाएँ या क्षमताएँ हैं तो उनके बच्चोंं में उस व्यावसायिक कुशलता का अवतरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। जब उनके बच्चे वही व्यवसाय अपनाते हैं तब उन्हें काम बोझ नहीं लगता। उन्हें अपने व्यावसायिक काम में आनंद आता है। यह आनंद उनके जीवन में भर जाता है। ऐसे लोग औरों को भी आनंद बाँटते हैं। इस दृष्टि से व्यावसायिक कौशलों के समायोजन के लिये निम्न बिंदुओं का विचार करना आवश्यक होगा। ऐसी व्यावसायिक कौशलों के समायोजन की व्यवस्था के लाभ हमने | + | ## आनुवंशिकता : व्यावसायिक कौशलों का आनुवंशिकता से संबंध होता है। माता पिता (विशेषत: पिता) में यदि एक व्यावसायिक कौशल के विकास की संभावनाएँ या क्षमताएँ हैं तो उनके बच्चोंं में उस व्यावसायिक कुशलता का अवतरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। जब उनके बच्चे वही व्यवसाय अपनाते हैं तब उन्हें काम बोझ नहीं लगता। उन्हें अपने व्यावसायिक काम में आनंद आता है। यह आनंद उनके जीवन में भर जाता है। ऐसे लोग औरों को भी आनंद बाँटते हैं। इस दृष्टि से व्यावसायिक कौशलों के समायोजन के लिये निम्न बिंदुओं का विचार करना आवश्यक होगा। ऐसी व्यावसायिक कौशलों के समायोजन की व्यवस्था के लाभ हमने [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] लेख में जाने हैं। आनुवंशिकता के कुछ लाभ नीचे लिख रहे हैं: |
##* पिता से स्वभाविक रूप में जो कौशल बेटे को प्राप्त हुए हैं उनका सदुपयोग। | ##* पिता से स्वभाविक रूप में जो कौशल बेटे को प्राप्त हुए हैं उनका सदुपयोग। | ||
##* कौशल की आवश्यकता और उपलब्धता का संतुलन। | ##* कौशल की आवश्यकता और उपलब्धता का संतुलन। | ||
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# नियंत्रण: समृद्धि व्यवस्था पर नियंत्रण का स्वरूप विकेंद्रित होगा। जिस केंद्र से जुडा विषय होगा उस स्तर से ही नियंत्रण किया जाएगा। जैसे: | # नियंत्रण: समृद्धि व्यवस्था पर नियंत्रण का स्वरूप विकेंद्रित होगा। जिस केंद्र से जुडा विषय होगा उस स्तर से ही नियंत्रण किया जाएगा। जैसे: | ||
## कुटुम्ब | ## कुटुम्ब | ||
− | ## ग्राम | + | ## [[Grama Kul (ग्रामकुल)|ग्राम]] |
## कौशल विधा | ## कौशल विधा | ||
## न्यायालय (अंतिम केंद्र) | ## न्यायालय (अंतिम केंद्र) | ||
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग २)]] | [[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग २)]] | ||
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]] | [[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]] | ||
+ | [[Category:Dharmik Jeevan Pratimaan Paathykram]] |
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प्रस्तावना
मनुष्य भी एक प्राणी है। उसके प्राणिक आवेगों के कारण उसे जीने के लिए कई बातों की अनिवार्य रूप में आवश्यकता होती है। जब तक जीवन चलता है आवश्यकताओं की पूर्ति आवश्यक होती है। पशु, पक्षी, प्राणियों में बुद्धि का स्तर कम होता है। इस कारण उनके लिए आजीविका की प्राप्ति में अनिश्चितता रहती है। शेर जंगल का राजा होता है। लेकिन उसकी भी स्वाभाविक मृत्यू भुखमरी के कारण ही होती है। यौवनावस्था में अनिश्चितताएं कम होंगी लेकिन होती अवश्य हैं। बुरे समय, शैशव, बाल्य और बुढापे में यह अनिश्चितता बहुत अधिक होती है। इन अनिश्चितताओं से मुक्ति के लिए मनुष्य और मनुष्य समाज भिन्न भिन्न प्रकार की व्यवस्थाएं निर्माण करता है।
इसी तरह से उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों की समाज के प्रत्येक घटक को समुचित उपलब्धता हो और साथ ही में प्रकृति का प्रदूषण न हो इस दृष्टि से भी व्यवस्थाओं की आवश्यकता होती है। मनुष्य में स्वार्थ भावना जन्म से ही होती है। मनुष्य को कर्म करने की स्वतन्त्रता भी होती है। अतः वह अन्यों का अहित नहीं करे इस के लिए भी कुछ व्यवस्था आवश्यक होती है।[1]
व्यवस्था धर्म
जिस तरह हर अस्तित्व का एक धर्म होता है। इस धर्म के अनुपालन से वह अस्तित्व बना रहता है या सृष्टि में उसकी भूमिका को सहजता से निभा पाता है। धारयति इति धर्म: यह व्यवस्था के लिए भी लागू ऐसा सूत्र है। जिस के कारण व्यवस्था बनी रहती है, स्वस्थ रहती है, लचीली रहती है, तितिक्षावान रहती है उसे व्यवस्था धर्म कहते हैं। व्यवस्थाओं का निर्माण स्वतन्त्रता और सहानुभूति के सन्तुलन के लिए किया जाता है। और व्यापक स्तर पर कहें तो अभ्युदय और नि:श्रेयस दोनों की प्राप्ति का मार्ग व्यवस्था धर्म के अनुसार बनीं व्यवस्था है।
स्वहित और सदाचार इन दोनों को साध्य करने के लिए व्यवस्था होती है। स्वहित के लिए स्वतन्त्रता और सदाचार ले लिए सहानुभूति आवश्यक होती है। इस तरह मनुष्य की स्वतन्त्रता और सहानुभूति दोनों का सन्तुलन बनाने के लिए व्यवस्थाएँ होती हैं। व्यवस्था धर्म के अनुसार व्यवस्थाएँ बनने से वे दीर्घकाल तक और प्रभावी बनी रहतीं हैं। व्यवस्थाओं का प्रवर्तन चार तरीकों से किया जाता है। विनयाधान याने शिक्षा, आदेश, प्रायश्चित्त और पश्चात्ताप तथा दंड व्यवस्था।
व्यवस्था धर्म के नियमों के लक्षण निम्न हैं:
- बुद्धिसंगत
- सरल
- अल्प संख्या
- विद्वद्विलास रहित
- वस्तुमूलक
- अपरिग्रही
- विरलदंड
- आप्तोप्त
- समदर्शी
व्यवस्था समूह
राष्ट्र अपने सुखी, समृद्ध और शांतिमय सहजीवन के लिए भिन्न भिन्न प्रकार की व्यवस्थाएं निर्माण करता है। इन व्यवस्थाओं का उद्देश्य समाज के संगठन को बलवान बनाए रखते हुए समाज की रक्षण, पोषण और शिक्षण की आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता है। सब से महत्त्वपूर्ण धर्म व्यवस्था होती है। शिक्षा व्यवस्था धर्म व्यवस्था की प्रतिनिधि होती है। शिक्षा के उपरांत भी जो समाज के घटक धर्माचरण नहीं सीखते उन्हें धर्म के नियंत्रण में रखने के लिए शासन व्यवस्था होती है। समाज के पोषण के लिए समृद्धि व्यवस्था होती है।
श्रेष्ठ समाज में व्यवस्थाएँ सामान्यत: कठोरता से बाँधी नहीं जातीं। व्यवस्थाएँ समाज में व्याप्त भावनाओं और मान्यताओं के आधारपर स्वत: आकार लेतीं हैं। जैसे संयुक्त कुटुम्ब की व्यवस्था को स्थापित करने का सर्वश्रेष्ठ तरीका संयुक्त कुटुम्ब की आवश्यकताओं, अनिवार्यताओं, तरीकों आदि को पूरे समाज में व्याप्त करने से है। ऐसी भावनाओं और मान्यताओं को व्यापक करना धर्म के जानकारों का, शिक्षकों का काम होता है। शिक्षा का काम होता है। इसमें आने वाले अवरोधों को दूर करने का काम शासन व्यवस्था का होता है।
समाज का व्यवस्था समूह समाज के मूलगामी संगठन के साथ समायोजित होकर ही बनता है। इस दृष्टि से सामाजिक प्रणालियाँ और व्यवस्था समूह का मिलाकर ढाँचा कैसा हो सकता है, यह हम आगे देखेंगे।
शिक्षा व्यवस्था
शिक्षा व्यवस्था का काम समाज को धर्माचरणी बनाने का होता है। धर्माचरण सिखाने का अर्थ है पुरूषार्थ चतुष्टय की शिक्षा से। पुरूषार्थ चार होते हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। त्रिवर्ग पुरूषार्थ चतुष्टय का ही हिस्सा है। इसमें मोक्ष की शिक्षा का समावेश अलग से नहीं होता। त्रिवर्ग का पालन करने से मनुष्य सहज ही मोक्षगामी बन जाता है। त्रिवर्ग या चार पुरूषार्थों की शिक्षा में विशेषता यह है कि त्रिवर्ग के काम, अर्थ और धर्म तीनों ही समूचे मानव जीवन को व्यापते हैं। इनमें जीवन से जुडा कोई भी विषय अविषय नहीं रह जाता। यह एक ढँग से देखें तो श्रेष्ठ जीने की ही शिक्षा है।
शिक्षा वास्तव में पूरे जीवन के प्रतिमान की शिक्षा ही होती है। जीवनदृष्टि, जीवनशैली, समाज का संगठन और समाज की व्यवस्थाओं का सब का मिलकर जीवन का प्रतिमान बनता है।
हर बालक का जन्म से ही अपना अपना अधिकतम विकास की सम्भावना का स्तर होता है। शिक्षा का काम उस संभाव्य विकास के उच्चतम स्तरतक पहुँचने के लिए मार्गदर्शन करना है। सम्पूर्णता और समग्रता में विकास ही शिक्षा की सीमा है। जब बालक का व्यक्तिगत, समष्टीगत, सृष्टिगत और परमेष्ठीगत ऐसा चहुँमुखी विकास होता है तब उसे समग्र विकास कहते हैं।
व्यक्तिगत विकास में मनुष्य के ज्ञानार्जन के करणों का विकास आता है। पाँच कर्मेंद्रिय और पाँच ज्ञानेंद्रिय ये बाह्य-करण कहलाते हैं। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ये अंत:करण कहलाते हैं। १५ वर्ष की आयुतक शिक्षा का साध्य बालक के ज्ञानार्जन के करणों का अधिकतम विकास यह होता है। इस के लिये विविध विषय साधन होते हैं। इससे आगे जब ज्ञानार्जन के करणों का अच्छी तरह से विकास हो गया है, विषयका ज्ञान साध्य और ज्ञानार्जन के विकसित करण साधन बन जाते हैं। समाज के साथ कौटुम्बिक भावना का विकास समष्टिगत और चराचर के साथ कौटुम्बिक भावना का विकास सृष्टिगत विकास कहलाता है। सृष्टिगत विकास का उच्चतम स्तर ही परमेष्ठीगत विकास है। समग्र विकास है।
शिक्षा के महत्त्वपूर्ण पहलू निम्न हैं:
- शिक्षा के विषय: अध्ययन के प्रत्येक विषय का संदर्भ काम और अर्थ को धर्मानुकूल रखने के साथ होता है। पुरूषार्थों के पालन हेतु विद्यार्थी को विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन करना आवश्यक होता है। किसी भी विषय के अध्ययन का अर्थ होता है उस विषय के लक्षणों को जीवन में उतारना।
- विषयों के अंगांगी संबंध के संदर्भ में प्रत्येक विषय का अध्ययन : मानव जीवन के लक्ष्य को ध्यान में रखकर प्रत्येक विषय की विषयवस्तु का निर्धारण करना। अर्थात् केवल आध्यात्म ही नहीं तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान जैसे विषय भी अध्ययनकर्ता को मोक्ष की दिशा में आगे बढाएँ इसे ध्यान में रखकर विषयवस्तु तय करना।
- करणीय अकरणीय विवेक : करणीय वे बातें होतीं हैं जो सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत होतीं हैं। और अकरणीय वे बातें होतीं हैं जिन के करने से किसी को हानि होती हो। किसी बात के सरल होने से वह करणीय नहीं हो जाती और ना ही किसी बात के कठिन होने से या असंभव लगने पर वह अकरणीय बन जाती है। असंभव लगने पर भी यदि वह सब के हित में है तो करणीय तो वही रहता है। उसे संभव चरणों में बाँटकर करना होता है। किसी भी प्राप्त परिस्थिति में करणीय और अकरणीय क्या है यह समझना कभी कभी कठिन ही नहीं तो बहुत कठिन होता है। सामान्य लोगोंं के लिये ऐसे समय में श्रेष्ठ लोगोंं के अनुकरण की बात श्रीमद्भगवद्गीता में कही गई है।
- स्वभाव शुद्धि और वृद्धि की शिक्षा : मोटे मोटे तौर पर जो भी स्वभाव धर्म व्यवस्था निर्धारित करे उन स्वभावों की शुद्धि और वृद्धि की व्यवस्था करना। यह करते समय समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सभी स्वभावों के सन्तुलन और समायोजन का भी ध्यान रखना।
- काम पुरूषार्थ की शिक्षा : मनुष्य के जीवन का पहला पुरूषार्थ काम है। काम का अर्थ कामना है, इच्छा है। इच्छाएँ धर्म के दायरे में रहें इसलिये काम की शिक्षा आवश्यक होती है। इछाएँ मन करता है। इसलिये काम की शिक्षा का अर्थ है मन की शिक्षा। सामान्यत: बुद्धि सत्यानुगामी होती है। मन के विकार ही उसे भटकाते हैं। मन की शिक्षा के लिये पहले मन को ठीक से समझना होगा। मन की शिक्षा का अर्थ है मन को बुद्धि के नियंत्रण में विवेक के नियंत्रण में रखने की शिक्षा। काम की याने मन की शिक्षा के विषय में अधिक जानने के लिये कृपया यहाँ देखें।
- अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा : अर्थ से तात्पर्य यहाँ केवल पैसे से नहीं है। कामनाओं की पूर्ति के लिए किये गये प्रयास और साथ में उपयोग में लाए गए धन, साधन और संसाधन भी अर्थ पुरूषार्थ के हिस्से हैं। जिस प्रकार काम पुरुषार्थ जीवनव्यापी है उसी प्रकार अर्थ पुरूषार्थ भी जीवन व्यापनेवाला है। जब लेने के स्थानपर देनेपर बल दिया जाता है तब समृद्धि व्यवस्था अच्छी चलती है। सर्वहितकारी होती है। दिया तो वही जा सकता है जो अर्जित किया हो या अपने पास पहले से ही हो। अपने पास जो है उस में से सर्वश्रेष्ठ जो है उसे देने की मानसिकता समाज को श्रेष्ठ बनाती है। ऐसी मानसिकता वाले समाज का मनुष्य जो भी करता है वह सर्वश्रेष्ठ बने इसका प्रयास करता है। और ऐसा प्रयास जिस समाज के लोग करेंगे उस समाज का सम्मान तो अन्य समाज करेंगे ही। दान की भी यही संकल्पना है। जो सर्वश्रेष्ठ है उसी का तो दान किया जाता है (नचिकेता की कथा)। अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा के कुछ बिंदु निम्न हैं:
- भूमि, जल, वायू, सूर्यप्रकाश आदि प्रकृति के वरदान हैं। सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य को ये सहज ही उपलब्ध होते हैं।
- खनिज, रत्नसंपदा, जीव-विविधता ये प्राकृतिक संपदाएँ हैं। इनको बनाया नहीं जा सकता। प्रयासों से इनकी प्राप्ति हो सकती है।
- समृद्धि के लिये प्राकृतिक संसाधन, बुद्धि और कुशलता ऐसी तीन बातों के समायोजन की आवश्यकता होती है।
- जिस में प्राणशक्ति अधिक है वह अधिक कर्मवान है। वह अधिक अच्छी तरह कौशलों का अर्जन कर सकता है।
- सत्य, न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि सांस्कृतिक या धार्मिक बातों को धन से नहीं तोला जा सकता।
- ये बातें अनमोल होतीं हैं। कहा गया है - अर्थशास्त्रात् बलवत् धर्मशास्त्रात् इति स्मृता:। अर्थशास्त्र धर्मशास्त्र द्वारा नियंत्रित होना चाहिये।
- उत्पादक काम तीन प्रकार के होते हैं। उपयोगी, अनुपयोगी और हानिकारक। केवल उपयोगी काम करने से समृद्धि प्राप्त होती है। अनुपयोगी काम करने से आभासी समृद्धि प्राप्त होती है। हानिकारक काम करने से समृद्धि नष्ट हो जाती है।
- अपने ‘स्व’भाव के अनुसार काम करने से काम में सहजता भी आती है और काम बोझ नहीं बनता। काम में आनंद आता है। छुट्टी की आवश्यकता नहीं होती। वैसे भी प्रकृति में कोई छुट्टी नहीं लेता। फिर मानव क्यों छुट्टी ले ?
- प्रकृति तो गाँवों में होती है। ग्राम की तुलना में शहर तो अप्राकृतिक ही होते हैं। इसलिये समृद्धि व्यवस्था ग्राम केन्द्रित होनी चाहिये। समृद्धि व्यवस्था को ग्राम केन्द्रित बनाने के लिये सर्वप्रथम सभी प्रकार के विद्या केन्द्र गाँवों में ले जाने होंगे। प्रगत अध्ययन केन्द्र शहरों में चल सकते हैं।
- प्रभूतता की समृद्धि व्यवस्था हो। माँग की या कमी की (स्केरसिटी की) नहीं।
- विभूति संयम और सन्तुलन रहने से अर्थ का अभाव और प्रभाव दोनों नहीं होगा।
- इन सब के लिये ‘इच्छाओं के संयम की शिक्षा के साथ ही सर्वे भवन्तु सुखिन: की शिक्षा’ आवश्यक है।
- समृद्धि व्यवस्था क्रय विक्रय की नहीं, व्यय की होनी चाहिये। देने की होनी चाहिये। माँग की नहीं। छोडने की होनी चाहिये। हथियाने की नहीं। दान की होनी चाहिये। भीख की नहीं। ऐसी मानसिकता बनाने का काम मुख्यत: कुटुम्ब शिक्षा का होता है। विद्या केन्द्र की शिक्षा में इसे दृढ़ किया जाता है।
- संपन्नता और समृद्धि में अन्तर होता है। धन के संचय से सम्पन्नता आती है। लेकिन देने की मानसिकता नहीं होगी तो संपत्ति का उचित वितरण नहीं होगा और समृद्धि नहीं आयेगी। देने की मानसिकता ही व्यक्ति ओर समाज को समृध्द बनाती है। इसीलिये भारत में अभी अभी ५०-६० वर्ष पहले तक बाजार में कीमत तो एक सैंकडा आम की तय होती थी। लेकिन बेचने वाला १३२ आम देता था। यह लेखक के अपने बचपन में प्रत्यक्ष अनुभव की हुई बात है।
- जीवन की गति बढ जानेसे समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। अतः जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। जीवन की इष्ट गति, इस संकल्पना को हम विज्ञान और तन्त्रज्ञान दृष्टि के विषय में जानने का प्रयास करेंगे। अर्थ पुरुषार्थ के धन और आर्थिक समृद्धि से जुड़े महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं का ज्ञान हम धार्मिक समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि के विषय में प्राप्त करेंगे।
- धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा : इसके कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदू निम्न हैं:
- अपने लिये करें वह कर्म और अन्यों के हित के लिये करें वह धर्म, ऐसी भी धर्म की एक अत्यंत सरल व्याख्या की गई है।
- प्रकृति के नियम धर्म हैं। प्रकृति के नियमों का सब के हित में उपयोग करना संकृति है। सामान्य परिस्थितियों में धर्माचरण की समझ निर्माण करने के लिये धर्मशिक्षा होती है।
- इच्छाओं को और प्रयासों को धर्म की सीमा में रखना सिखाना ही धर्म शिक्षा है। इच्छाएँ और उनकी पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाए गए धन, साधन और संसाधन यह सब धर्म के अनुकूल होने चाहिए। धन कमाना और उस धनका विनियोग करना, इन दोनों बातों का नियामक धर्म होना चाहिये।
- अपने समाज, सृष्टि के विविध घटकों के प्रति कर्तव्यों के अनुसार व्यवहार करना सिखाना धर्मशिक्षा है।
- सृष्टि में हर अस्तित्त्व का अपना अपना प्रयोजन है। पत्थर, जल, पहाड़, नदियाँ, वनस्पति, पशु, पक्षी, प्राणी और मनुष्य इन सभी अस्तित्वों के निर्माण का कुछ प्रयोजन है। इन अस्तित्वों में जो भिन्नता है उस के कारण उन अस्तित्वों के निर्माण के प्रयोजन भी भिन्न होते हैं। इस प्रयोजन के अनुसार उस अस्तित्व का उपयोग करना या उससे व्यवहार करना धर्म है। जैसे मनुष्य का शरीर मांसाहार के लिये नहीं बना हुआ है। अतः शाकाहार उपलब्ध होने पर भी मांसाहार करना यह अधर्म है।
- करणीय अकरणीय विवेक ही वास्तव में धर्म का आधार है।
- मोक्ष पुरुषार्थ की शिक्षा : मोक्ष की शिक्षा नहीं होती। साधना होती है। यह व्यक्ति को स्वत: ही करनी होती है। मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रेरणा दी जा सकती है। अष्टांग योग में से बहिरंग योग तक मार्गदर्शन भी किया जा सकता है। लेकिन आगे का मार्ग तो साधना का ही होता है। वैसे धर्माचरण की शिक्षा भी मोक्ष की शिक्षा ही होती है।
- विवेक की शिक्षा या ‘विचार कैसे करना’ – इस की शिक्षा : सामान्यत: बुद्धि सत्यान्वेषी ही होती है। वह मनुष्य के विवेक को जाग्रत करती है। गलत काम करने से रोकती है। ऐसे समय इन्द्रियों की सुख की लालसा से प्रभावित मन इस बुद्धि को गलत दिशा में ले जाता है। विवेक की शिक्षा या विचार कैसे करना इस की शिक्षा से तात्पर्य मन को बुद्धि पर हावी न होने देने की मन को बुद्धि का अनुगामी बने रहने की शिक्षा से है। विचार कैसे करना चाहिए इस विषय में हमने इस अध्याय में सीखा है।
- शिक्षक: शिक्षक धर्मनिष्ठ हो। धर्म का जानकार हो। धर्म सिखाने की क्षमता और कौशल जिस के पास है ऐसा हो। धर्माचरण सिखाने के साथ ही विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन के लिये मार्गदर्शन की शिक्षक की क्षमता हो। शिष्य को अपनी संतान मानकर उसे शिक्षित करने में कोई कमी नहीं रखनेवाला ही श्रेष्ठ शिक्षक होता है। गुरू से शिष्य सवाई-परंपरा का निर्माण : विवेक, ज्ञान, बल, श्रध्दा, कौशल आदि सभी बातों में गुरू से शिष्य सवाई बने ऐसा प्रयास होना चाहिये। शिक्षक सर्वप्रथम आचार्य होना चाहिये।
- आचार्य की व्याख्या है: आचिनोति हि शास्त्रार्थं आचरे स्थापयत्युत । स्वयमाचरत्ये यस्तु स आचार्य: प्रचक्षते ॥[citation needed] अर्थ : जो शास्त्रों का जानकार है, जो शास्त्रों के ज्ञान को आचरण में स्थापित करता है, स्वयं भी वैसा आचरण करता है और छात्रों से आचरण करवाता है उसे आचार्य कहते हैं।
- शिक्षक के अन्य गुण निम्न हैं:
- जिसे ज्ञानार्जन में आनंद आता है, जो स्वयं भी ज्ञानवान है, श्रध्दा (अपने आपमें, ज्ञान में और विद्यार्थी में) रखता है, विद्यार्थी को अपने पुत्र की भाँति प्रेम करता है, विद्यार्थीप्रिय है, तत्वनिष्ठ है (सौदेबाज नहीं है), समाज को श्रेष्ठ बनाने की जिम्मेदारी मेरी है ऐसा मानने वाला, सभ्य, सुशील, गौरवशील, सुसंस्कृत, मन के विकारों को नियंत्रण में रखता है, सन्मार्गगामी, लालच, भय, खुशामद और निंदा से दूर रहनेवाला आदि।
- शिशू, बाल, किशोर बच्चोंं का शिक्षक अपंग, अंध, अस्पष्ट उच्चारण वाला, गंदे दाँत वाला न हो। सुदृढ, सशक्त, प्रभावी व्यक्तित्व वाला हो।
- आचार्य की नियुक्ति का अधिकार केवल उससे श्रेष्ठ आचार्य को है, अन्य किसी को नहीं है।
- शिक्षा शिक्षकाधिष्ठित रहे : इसी को वास्तव में शिक्षा की स्वायत्तता कहते हैं। उपर्युक्त क्षमताओं वाले श्रेष्ठ शिक्षक को 'मूर्तिमंत शिक्षा' कहा जाता है। शिक्षा का अधिष्ठाता ऐसे शिक्षक के स्थानपर अन्य कोई होता है तब शिक्षा दूषित हो जाती है। अधूरी हो जाती है। कई बार विकृत और विपरीत भी हो जाती है।
- नि:शुल्क शिक्षा - सामाजिक जिम्मेदारी : शिक्षा नि:शुल्क हो। श्रेष्ठ मानव का निर्माण यही शिक्षा का लक्ष्य होता है। और श्रेष्ठ मानव निर्माण से अधिक श्रेष्ठ काम दुनियाँ में अन्य कोई नहीं हो सकता। इसीलिये शिक्षा बिकाऊ नहीं होती। शिक्षा जब पैसे से खरीदी जाती है शिक्षा 'शिक्षा' नहीं रहती। वैसे भी धन के अभाव में समाज की प्रतिभा अविकसित रह जाए यह किसी भी श्रेष्ठ समाज के लिये लांछन की बात है। नि:शुल्क शिक्षा का ही अर्थ है शिक्षा समाज पोषित होना। शिक्षक जब अपनी आजीविका से आश्वस्त होगा तब ही वह अपनी पूरी शक्ति श्रेष्ठ मानव निर्माण में लगा सकता है। अन्यथा नहीं। इसलिये यह अनिवार्य है कि शिक्षक की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज स्वत: होकर करे।
- शासन की भूमिका : शासन समाज का मालिक नहीं होता। शासन व्यवस्था यह राष्ट्र के याने राष्ट्रीय समाज के सुचारू रूप से चलाने के लिये निर्मित एक व्यवस्था मात्र है। इस का अधिष्ठान राष्ट्रहित के अलावा अन्य नहीं है। इसलिये शिक्षा व्यवस्था श्रेष्ठ बनीं रहे यह देखना शासन का कर्तव्य होता है। इस दृष्टि से श्रेष्ठ शिक्षा को सहायता, समर्थन और संरक्षण देने की जिम्मेदारी शासन की होती है। शासन भी समाज का ही एक अंग होता है। इस दृष्टि से शिक्षक की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये आवश्यकतानुसार शासन भी जिम्मेदार होता है। अंग्रेजपूर्व भारत में इसीलिये एक ओर तो किसी भी राजा या महाराजा का कभी भी शिक्षा विभाग नहीं रहा। और दूसरी ओर ये शासक अपने राज्य में और कभी कभी तो अन्य राज्यों में भी स्थित श्रेष्ठ शिक्षा केंद्रों को सहायता कर अपने आप को धन्य समझते थे। समाज में जब लोगोंं में काम और मोह बढ जाते हैं, लोगोंं के अपने नियंत्रण में नहीं रहते तब शासन की आवश्यकता होती है। अपने काम और मोह को लोग अपने नियंत्रण में रख सकें इस के लिये ही धर्म शिक्षा होती है। जब शासन धर्म की शिक्षा में योगदान देता है तब समाज में धर्माचरण बढता है। समाज में धर्माचरण की मात्रा जितनी बढेगी उतना ही शासन करने का काम सरल हो जाता है। इस दृष्टि से भी शासन के लिये अपने शासित क्षेत्र में प्रत्येक बच्चे को श्रेष्ठ शिक्षा मिलती रहे यह सुनिश्चित करना आवश्यक होता है।
- शिक्षा केंद्र के लिए धन पूर्ति : शिक्षा केंद्र के लिए धन की पूर्ति के लिए निम्न प्रणालियों का प्रयोग किया जा सकता है:
- गुरुदक्षिणा
- सामाजिक दान
- भिक्षा
- अपने उत्पादन
- पूर्व विद्यार्थी
योगदान दान और भीख में अन्तर होता है। दान स्वत: होकर दिया जाता है। भीख माँगी जाती है। वैसे तो भिक्षा भी माँगी ही जाती है। लेकिन भिक्षा माँगने वाला और देने वाला दोनों श्रेष्ठ काम कर रहे हैं ऐसा होने से उसमें गौरव अनुभव करते हैं। जब कि भीख में भीख देने वाला दया या गौरव अनुभव करता है, और मांगने वाला लाचारी का। देने की संस्कृति होने से भारत में सामान्यत: भीख माँगने की प्रथा नहीं थी। भोजन के समय आया हुआ अतिथि भोजन का आदरपात्र अधिकारी माना जाता था।
शासन व्यवस्था
पूर्व में हमने देखा कि समाज में व्याप्त अनियंत्रित काम और मोह के नियंत्रण के लिये श्रेष्ठ शिक्षा और श्रेष्ठ शासन की आवश्यकता होती है। जब समाज में लोभ और मोह अनियंत्रित हो जाता है तब जो दुष्ट हैं और बलवान भी हैं, वे सज्जनों का जीना हराम कर देते हैं। दुष्टों को दुर्बल शासन से लाभान्वित होते देखकर बलवान लेकिन जो दुर्बलात्मा हैं ऐसे सज्जन भी बिगडने लगते हैं। इससे शासन का काम और भी कठिन हो जाता है। शासन का काम दुर्बलों की दुष्ट बलवानों से रक्षा करने का होता है। एक ओर शिक्षा का काम समाज के प्रत्येक घटक को कर्तव्यपथ पर आगे बढाने का होता है। तब दूसरी ओर शासन का काम प्रजा के अधिकारों के रक्षण का होता है। इससे समाज में कर्तव्यों और अधिकारों का सन्तुलन बना रहता है।
जब प्रजा पर अन्याय होता है तब उसका कारण शासन की अक्षमता होता है। जब शासन दुर्बल होता है तब न्याय माँगना पडता है। जब न्याय के लिये लडना पडता है शासन संवेदनाहीन होता है। और जब लडकर भी न्याय नहीं मिलता तब शासन होता ही नहीं है। अन्याय होने से पूर्व ही उसे रोकना यह प्रभावी शासन का लक्षण है। शासन के लिये लोगोंं में व्याप्त लोभ और मोह के नियंत्रण की भौगोलिक सीमा नहीं होती। शासित प्रदेश से बाहर रहने वाले लोगोंं के भी लोभ और मोह के नियंत्रण की जिम्मेदारी शासन की ही होती है। इसे ही बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि अंतर्बाह्य सुरक्षा की जिम्मेदारी शासन की होती है।
शासन का या न्यायदान का केन्द्र जितना दूर उतनी अन्याय की संभावनाएँ बढतीं हैं। इसलिये शासन विकेन्द्रित होना आवश्यक है। कुटुम्ब पंचायत, ग्राम-पंचायत, जाति-पंचायत, जनपद पंचायत आदि स्तर पर भी न्याय और शासन की व्यवस्था होने से अन्याय की संभावनाएँ न्यूनतम हो जातीं हैं।
शासन के बारे में कहा है जो कम से कम शासन करे तथापि किसीपर अन्याय नहीं हो तब वह अच्छा शासन होता है। किन्तु सामाजिक अनुशासन की प्राथमिक जिम्मेदारी शिक्षा या धर्म क्षेत्र की होती है। शासन का काम तो अनुशासनहींनता का नियंत्रण मात्र होता है।
- सत्ता का (विकेंद्रित) स्वरूप
- भौगोलिक:
- राष्ट्र
- प्रदेश
- जनपद/तीर्थक्षेत्र
- महानगर/शहर
- ग्राम
- सामाजिक:
- विद्वत्सभा
- कौशल विधा पंचायत
- गुरुकुल
- कुटुम्ब
- भौगोलिक:
- शासन के अंग
- शासक : महत्वपूर्ण पहलू
- शासक धर्म शास्त्र का जानकार हो। शासन धर्म द्वारा नियंत्रित, नियमित और निर्देशित होना चाहिये।
- अपने पीछे अपने से भी अधिक श्रेष्ठ शासक याने उत्तराधिकारी जनता को देना यह शासक का कर्तव्य है। इस दृष्टि से शासक के वंशानुगत होने से श्रेष्ठ भावि शासक के पैदा करने में, उस का संस्कार, शिक्षण और प्रशिक्षण करने में सुविधा होती है।
- शासक जन्मजात होता है। जिसका जन्मजात स्वभाव शासक का है वही श्रेष्ठ शासक बन सकता है। इसलिये शासक को जन्म देने से लेकर शासक निर्माण के प्रयास करने चाहिये। शासक निर्माण की प्रक्रिया आनुवंशिक बनाने से शासक निर्माण की प्रक्रिया में सफलता की संभावनाएँ बहुत अधिक होतीं हैं। शासक स्वभाववाले पति-पत्नी, घर में शासक बनने के लिये पोषक वातावरण, गर्भधारणा के समय पति-पत्नी का श्रेष्ठ शासक को जन्म देने का संकल्प, शासक के लिये अनुकूल गर्भ संस्कार, बालक का स्वभाव शासक जैसा है या नहीं यह जाँचने के लिये निरंतर स्वभाव का निरीक्षण और परीक्षण, शैशव में भी शासक निर्माण के लिये अनुकूल वातावरण के साथ शासक बनने के लिये योग्य संस्कार, विद्यालय में भी बालक का स्वभाव शासक जैसा है या नहीं यह जाँचने के लिये निरंतर स्वभाव का निरीक्षण और परीक्षण, शिक्षण और प्रशिक्षण इन बातों की आश्वस्ति करने से कोई कारण नहीं कि अच्छा शासक निर्माण न हो।
- शासक के लिये अनिवार्य बातें : राजनीति, धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र, तर्कशास्त्र, युद्धशास्त्र, इतिहास, भूगोल इन विषयों में बालक पारंगत हो।
- राजसी स्वभाव की वरीयता लेकिन सात्विक स्वभाव के भी प्रखर गुणों से पूर्ण ऐसा व्यक्ति ही श्रेष्ठ शासक बन सकता है।
- मंत्रीमंडल : मंत्रीमंडल निर्माण की दृष्टि से महत्वपूर्ण बातें निम्न हैं:
- मंत्रियों की संख्या में समाज के सभी महत्वपूर्ण सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व होना चाहिये।
- मंत्रियों की निष्ठा राष्ट्र के प्रति हो। शासक पर निष्ठा भी महत्वपूर्ण है। लेकिन प्राथमिकता राष्ट्र हित को देनेवाला मनुष्य ही मंत्री बनाया जाए।
- मंत्री के गुण : शास्त्रों का जानकार, सात्त्विक और राजसी स्वभाव का मिश्रण है ऐसा, विपरीत परिस्थिति में भी शांत रहनेवाला, राष्ट्रनिष्ठ, शासकनिष्ठ, संवादकुशल, सदैव जाग्रत, दूर की भी सोचनेवाला आदि हो।
- गुप्तचर : गुप्तचर की ऑंखों से शासक अपने राज्य और अन्य राज्यों को भी को देखता है। गुप्तचर विभाग का प्रभावी होना अच्छे शासक का लक्षण है। गुप्तचर संवादचतुर, भेष बदलने में माहिर, विविध कलाओं में पारंगत, राष्ट्रनिष्ठ, शासननिष्ठ, इंद्रियविजयी, खरीदा नहीं जानेवाला, उचितभाषी, बहुभाषी, प्रत्युत्पन्नमति आदि गुणों से संपन्न हो। मजहबी और आसुरी विस्तारवादी जनता और देशों की सूक्ष्मतम जानकारी होना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
- सेना : राष्ट्र की सेना दो प्रकार की होनी चाहिये। पहली प्रकट सेना और दूसरी अप्रकट सेना। प्रकट सेना तो नित्य और वेतनभोग़ी होगी। लेकिन अप्रकट सेना यह जनता का रजोगुणी वर्ग है जिसमें दूसरे क्रमांक पर सात्विक गुण उपस्थित है। अप्रकट सेना के प्रशिक्षण की नियमित व्यवस्था आवश्यक है।
- दुर्ग : दुर्ग का महत्त्व आज भी बहुत अधिक है। दुर्ग से तात्पर्य सुरक्षित स्थान से है। वर्तमान में इस दृष्टि से भूमिगत बकर यह तुलना में सबसे सुरक्षित माना जा सकता है। दुर्ग से एक मतलब गूढ़ स्थान से भी है। ढूँढने में अत्यंत कठिन, मार्गदर्शन के बिना जहाँ पहुँचना अत्यंत कठिन और पेंचीदा हो ऐसा दुर्गम स्थान।
- धन : शासन कर के रूप में जनता से धन प्राप्त करे यह सर्वमान्य है। यह प्रमाण कितना हो यही विवाद का विषय बनता है। जब शिक्षा व्यवस्था अच्छी होती है तब शासन अधिक से अधिक १६ % कर ले। कर की वसूली ग्रामों से की जाए। परिवारों से नहीं। शासन व्यवस्था का खर्चा उचित होता है तो कर १६% से अधिक लेने की आवश्यकता नहीं होती।
- मित्र : यहाँ मित्र से तात्पर्य प्रत्यक्ष जिनसे मित्रता है ऐसे लोग, हितचिंतक, सहानुभूति रखनेवाले, सज्जन आदि सभी से है। यह वर्ग जितना अधिक होगा शासन करना उतना ही सरल होगा। इसी प्रकार से यदि शासन अच्छा होगा तो यह वर्ग बहुत बडा होगा। अर्थात् यह अन्योन्याश्रित बातें हैं। इसका प्रारंभबिंदू सदा शासक ही होगा। वह कितना श्रेष्ठ शासन प्रजा को दे सकता है इस पर उसके मित्र-कुटुम्ब की संख्या और प्रभाव बढेगा।
- शासक : महत्वपूर्ण पहलू
- शासन का स्वरूप
- प्रजा के साथ पिता-संतान जैसा संबंध।
- प्रांत, जनपद/जिला, महानगरपालिका, शहरपालिका, ग्रामपंचायत, जातिपंचायत, कुटुम्ब आदि में विकेंद्रित शासन व्यवस्था में जब तक कोई वर्धिष्णु समस्या की सम्भावना नहीं दिखाई देती हस्तक्षेप नहीं करना। लेकिन ऐसी संभावनाओं की दृष्टि से सदैव जागरूक और कार्यवाही के लिये तत्पर रहना।
- राष्ट्र को वर्धिष्णु रखना यह भी शासक की सुरक्षा नीति का अनिवार्य हिस्सा होता है।
- आदर्श के रूप में तो सर्वसहमति के लोकतंत्र से श्रेष्ठ अन्य कोई शासन व्यवस्था नहीं हो सकती। सामान्यत: जैसे जैसे आबादी और भौगोलिक क्षेत्र बढता जाता है लोकतंत्र की परिणामकारकता कम होती जाती है। तथापि ग्राम स्तर पर ग्रामसभाओं जैसा सर्वसहमति का लोकतंत्र तो शीघ्रता से आरम्भ किया जा सकता है। नगर और महानगरों में भी प्रभागों की रचना हो। प्रभागों की आबादी ५००० तक ही रहे। ग्राम की तरह ही प्रभागों में सर्वसहमति से पंचायत समिति सदस्य और प्रतिनिधि का चयन (निर्वाचन नहीं) हो। जनपद/नगर/महानगर जैसे बडे भौगोलिक/आबादीवाले क्षेत्र के लिये ग्रामसभाओं / प्रभागों द्वारा (सर्वसहमति से) चयनित (निर्वाचित नहीं) प्रतिनिधियों की समिति का शासन रहे। इस समिति का प्रमुख भी सर्वसहमति से ही तय हो। किसी ग्राम/प्रभाग से सर्वसहमति से प्रतिनिधि चयन नहीं होने से उस ग्राम/प्रभाग का प्रतिनिधित्व समिति में नहीं रहेगा। लेकिन समिति के निर्णय ग्राम/प्रभाग को लागू होंगे। समिति भी निर्णय करते समय जिस ग्राम का प्रतिनिधित्व नहीं है उसके हित को ध्यान में रखकर ही निर्णय करे। जनपद समितियां प्रदेश के शासक का चयन करेंगी। ऐसा शासक भी सर्वसहमति से ही चयनित होगा। प्रदेशों के शासक फिर सर्वसहमति से राष्ट्र के प्रधान शासक का या सम्राट का चयन करेंगे। जनपद/नगर/ महानगर, प्रदेश, राष्ट्र आदि सभी स्तरों के चयनित प्रमुख अपने अपने सलाहकार और सहयोगियों का चयन करेंगे। सर्वसहमति के अभाव में धर्म व्यवस्था याने विद्वानों की सभा जनमत को ध्यान में लेकर और शासक बनने की योग्यता और क्षमता को ध्यान में लेकर शासक कौन बनेगा इसका निर्णय करेगी।
- शासक निर्माण : श्रेष्ठ शासक निर्माण करने की दृष्टि से धर्मव्यवस्था अपनी व्यवस्था निर्माण करे। इस व्यवस्था द्वारा चयनित, संस्कारित, शिक्षित और प्रशिक्षित शासक अन्य किसी भी शासक से सामान्यत: श्रेष्ठ होगा। इस व्यवस्था के कारण समाज में प्रधान शासक बनने की क्षमता रखने वाले लोगोंं का अभाव नहीं निर्माण होगा।
- शासन का आधार : शासन के दो आधार हैं। पहला है राजधर्म का पालन (प्रजा को पुत्रवत मानकर व्यवहार करना) और दूसरा है कर-प्रणाली।
- लोकानुरंजन और धर्माचरण : शासन का आधार केवल भौतिक सत्ता नहीं तो धर्माचरण और लोकानुरंजन का आचरण होना चाहिये। सज्जन आश्वस्त रहें और दुर्जन दण्ड से नियंत्रित रहें यही शासन से अपेक्षा होती है। शिक्षा, धर्म (रिलीजन/मजहब/पंथों के नहीं)के काम जैसे धर्मशाला, अन्नछत्र, सड़कें बनाना आदि जो भी बातें समाज को धर्माचरण सिखानेवाली या करवानेवाली होंगी शासन का काम सरल करेंगी। इसलिये शासनने ऐसे सभी कामों को संरक्षण, समर्थन और आवश्यकतानुसार सहायता भी देनी चाहिये। जिस प्रकार से धर्माचरण करनेवाले लोगोंं को शासन की ओर से समर्थन, सहायता और संरक्षण मिलना चाहिये उसी प्रकार जो अधर्माचरणी हैं, अधर्मयुक्त कामनाएँ करनेवाले और/या अधर्मयुक्त धन, साधन संसाधनों का प्रयोग करनेवाले हैं, उन के लिये दण्डविधान की व्यवस्था चलाना भी शासन की जिम्मेदारी है।
- करप्राप्ति : शासकीय व्यय के लिये शासन को जनता से कर लेना चाहिये। कर के विषय में धार्मिक विचार स्पष्ट हैं। जिस प्रकार से और प्रमाण में भूमीपर के जल के बाष्पीभवन से मेघ बनते हैं उसी प्रमाण में ‘कर’ लेना चाहिये। मेघ बनने के बाद जिस प्रकार से वह मेघ पूरी धरती को वह पानी फिर से लौटा देते हैं, उसी प्रकार से शासन अपने लिये उस कर से न्यूनतम व्यय कर बाकी सब जनता के हित के लिये व्यय करे यह अपेक्षा है। यह करते समय वह जनता में कोई भेदभाव नहीं करे। कर के संबंध में भ्रमर की भी उपमा दी गई है। भ्रमर फूल से उतना ही रस लेता है कि जिससे वह फूल मुरझा नहीं जाए। शासन भी जनता से इतना ही कर ले जिससे जनता को कर देने में कठिनाई अनुभव न हो। शासकों के अभोगी होने से शासन तंत्र पर होनेवाला व्यय कम होता है। शेष धन को शासन समाज हित के कार्यों में व्यय करे।
- सत्ता सन्तुलन: सत्ता का खडा और आडा विकेंद्रीकरण करने से सत्ताधारी बिगडने की संभावनाएँ कम हो जातीं हैं। धर्मव्यवस्था के पास केवल नैतिक सत्ता होती है। शासन के पास भौतिक सत्ता होती है। सत्ता का इस प्रकार से विभाजन करने से शासन बिगडने से बचता है। इसमें भी धर्म की सत्ता याने नैतिक सत्ता को जब अधिक सम्मान समाज देता है तब स्वाभाविक ही भौतिक शासन धर्म के नियंत्रण में रहता है।
समृद्धि व्यवस्था
धर्मानुकूल सभी इच्छाओं की और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये याने समाज के पोषण के लिये समृद्धि व्यवस्था की आवश्यकता होती है। समृद्धि व्यवस्था की मूलभूत बातों की चर्चा हम समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि विषय में करेंगे। समृद्धि व्यवस्था के प्रमुख घटकों का अब हम विचार करेंगे:
- कौटुम्बिक व्यवसाय:
- कौटुम्बिक व्यवसाय का अर्थ है कुटुम्ब के लोगोंं की सहायता से चलाया हुआ उद्योग। अनिवार्यता की स्थिति में ही सेवक होंगे। अन्यथा ऐसे उद्योग में सब मालिक ही होते हैं। नौकर कोई नहीं।
- ऐसे व्यवसाय और संयुक्त कुटुम्ब ये अन्योन्याश्रित होते हैं।
- कौटुम्बिक उद्योगों के आकार की और विस्तार की सीमा होती है। लोभ और मोह सामान्यत: नहीं होते। क्योंकि संयुक्त कुटुम्ब में लोभ और मोह का संयम सब सदस्य अपने आप सीख जाते हैं।
- उद्योग व्यवसाय और उसके माध्यम से अधिकतम धन पैदा करना यह लक्ष्य नहीं होता। धर्मानुकूल जीने के एक साधन के रूप में व्यवसाय को देखा जाता है।
- उत्पादन माँग के अनुसार होता है।
- संक्षेप में कहें तो अर्थ पुरूषार्थ की शिक्षा में दिये लगभग सभी बिंदुओं को व्यवहार में लाने के लिये कौटुम्बिक व्यवसाय अनिवार्य ऐसा पहलू है।
- कौशल समायोजन व्यवस्था : मनुष्य की आवश्यकताएँ बहुत सारी हैं। लेकिन एक मनुष्य की क्षमताएँ मर्यादित हैं। इसलिये परस्परावलंबन अनिवार्य होता है। हर मनुष्य की अपनी विशेषता होती है। इस विशेषता में किसी व्यावसायिक कौशल के विकास की सम्भावना भी आती है। कोई दिखने में सरल और लाभदायक व्यवसाय करने इच्छा होना तो सभी के लिये स्वाभाविक है। लेकिन ऐसा प्रत्यक्ष में होने से एक ओर तो जीवन के कई व्यावसायिक कौशलों की क्षमता होते हुए भी लोग उन का उपयोग नहीं करेंगे। दुसरी बात याने इससे समाज की उन आवश्यकताओं की पूर्ति ही नहीं हो पाएगी। तीसरी बात याने किसी एक कौशल के क्षेत्र में अनावश्यक संख्या में लोग आने से स्पर्धा, संघर्ष, नैराश्य, लाचारी, बेरोजगारी आदि अनेक दोष समाज में निर्माण होंगे। समाज के प्रत्येक व्यक्ति की अंगभूत कौशल के विकास की संभावनाओं को समझकर उस व्यक्ति का विकास उस व्यावसायिक कौशल के क्षेत्र में होने से वह व्यक्ति और समाज दोनों लाभान्वित होंगे।
- आनुवंशिकता : व्यावसायिक कौशलों का आनुवंशिकता से संबंध होता है। माता पिता (विशेषत: पिता) में यदि एक व्यावसायिक कौशल के विकास की संभावनाएँ या क्षमताएँ हैं तो उनके बच्चोंं में उस व्यावसायिक कुशलता का अवतरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। जब उनके बच्चे वही व्यवसाय अपनाते हैं तब उन्हें काम बोझ नहीं लगता। उन्हें अपने व्यावसायिक काम में आनंद आता है। यह आनंद उनके जीवन में भर जाता है। ऐसे लोग औरों को भी आनंद बाँटते हैं। इस दृष्टि से व्यावसायिक कौशलों के समायोजन के लिये निम्न बिंदुओं का विचार करना आवश्यक होगा। ऐसी व्यावसायिक कौशलों के समायोजन की व्यवस्था के लाभ हमने जाति व्यवस्था लेख में जाने हैं। आनुवंशिकता के कुछ लाभ नीचे लिख रहे हैं:
- पिता से स्वभाविक रूप में जो कौशल बेटे को प्राप्त हुए हैं उनका सदुपयोग।
- कौशल की आवश्यकता और उपलब्धता का संतुलन।
- बेरोजगारी का निर्मूलन।
- समाज आक्रमक नहीं बनता। सहिष्णू, सदाचारी बनता है। आदि
- कौशल परिवर्तन : समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। उनके लिये रोजगार की आश्वस्ति बहुत महत्वपूर्ण होती है। कौशल विधा व्यवस्था को आनुवंशिक बनाने से बेरोजगारी की समस्या सुलझ जाती है। समाज में ५-१० प्रतिशत बच्चे प्रतिभाशाली भी रहते हैं। जो आनुवंशिकता से आए गुण-लक्षणों पर मात कर सकते हैं। जिस भी विषय में वे चाहे अपनी प्रतिभा के आधार पर पराक्रम कर सकते हैं। ऐसे बच्चे वास्तव में समाज की बौध्दिक धरोहर होते हैं। इसलिये ऐसे बच्चोंं के लिये कौशल विधा में परिवर्तन की कोई व्यव्स्था होनी चाहिये। ऐसे बच्चोंं को अच्छी तरह से परखकर उनकी इच्छा और रुचि के व्यवसाय को स्वीकार करने की अनुमति देने की व्यवस्था ही कौशल परिवर्तन व्यवस्था है।
- आनुवंशिकता : व्यावसायिक कौशलों का आनुवंशिकता से संबंध होता है। माता पिता (विशेषत: पिता) में यदि एक व्यावसायिक कौशल के विकास की संभावनाएँ या क्षमताएँ हैं तो उनके बच्चोंं में उस व्यावसायिक कुशलता का अवतरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। जब उनके बच्चे वही व्यवसाय अपनाते हैं तब उन्हें काम बोझ नहीं लगता। उन्हें अपने व्यावसायिक काम में आनंद आता है। यह आनंद उनके जीवन में भर जाता है। ऐसे लोग औरों को भी आनंद बाँटते हैं। इस दृष्टि से व्यावसायिक कौशलों के समायोजन के लिये निम्न बिंदुओं का विचार करना आवश्यक होगा। ऐसी व्यावसायिक कौशलों के समायोजन की व्यवस्था के लाभ हमने जाति व्यवस्था लेख में जाने हैं। आनुवंशिकता के कुछ लाभ नीचे लिख रहे हैं:
- स्वभाव समायोजन : समाज सुचारू रूप से चलने के लिये परमात्मा भिन्न भिन्न स्वभाव के लोग निर्माण करता है। इन स्वभावों के अनुसार यदि उन्हें काम करने का अवसर मिलता है तो वे बहुत सहजता और आनंद से काम करते हैं। काम का उन्हें बोझ नहीं लगता। जब लोग आनंद से काम करते हैं सबसे श्रेष्ठ क्षमताओं का विकास होता है। इसलिये समाज में प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव जानकर, ठीक से परखकर उसे उसके स्वभाव के अनुसार काम करने का अवसर देना यह समाज के ही हित में है। इसलिये ऐसी व्यवस्था निर्माण करना यह समाज की जिम्मेदारी भी है। इससे काम की गुणवत्ता का स्तर भी ऊँचा रहता है। इस व्यवस्था के दो अनिवार्य स्तर हैं। एक नवजात बालक के स्वभाव को जानना। स्वभाव वैशिष्ट्य को जान कर उस स्वभाव के लिये पोषक ऐसे संस्कार उसे देना। यह काम कुटुम्ब के स्तर पर होगा। दूसरा स्तर है विद्यालय। माता पिता विद्यालय में प्रवेश के समय बच्चे के स्वभाव विशेष के बारे में जानकारी दें। विद्यालय भी माता पिता ने दी हुई जानकारी को फिर से ठीक से परखे। क्यों कि अब बालक के स्वभाव कि विशेषताएँ समझना अधिक सरल होता है। बालक के स्वभाव की आश्वस्ति के उपरांत उसे स्वभाव विशेष की शिक्षा का प्रबंध करना यह विद्यालय स्तर का काम है।
- समृद्धि व्यवस्था का स्वरूप : समृद्धि व्यवस्था के ३ आधार होने चाहिये। ग्रामाधारित, गो-आधारित और कौटुम्बिक भावना आधारित। ग्रामाधारित का अर्थ है विकेंद्रितता। गो-आधारित का अर्थ है खेती में लगनेवाली ऊर्जा और बाहर से आवश्यक संसाधनों में गाय से उपलब्ध संसाधनों का यथा ऊर्जा के लिये बैल, खेती के आवश्यक (इनपुट्स्) कीटकनाशक, खत आदि गाय से प्राप्त गोबर और गोमुत्र में से बनाया हुआ हो। और कौटुम्बिक भावना आधारित का अर्थ है ग्राम की व्यवस्थाएँ और ग्राम में लोगोंं का परस्पर व्यवहार दोनों बडे संयुक्त कुटुम्ब जैसे हों। गो आधारित कृषि के संबंध में ढेर सारा साहित्य और प्रत्यक्ष प्रयोग की जानकारियाँ उपलब्ध है। ग्रामाधारित और कौटुम्बिक भावनापर आधारित व्यवस्था समझने के लिये कृपया इस लेख को पढें।
- हाट-बाजार : हर गाँव लोगोंं की सभी आवश्यकताओं के लिये उत्पादन नहीं कर सकता। ऐसे उत्पादनों की प्राप्ति हाट-बाजार से हो सकती है। हाट बाजार में वही वस्तुएँ बिकेंगी जो गाँव की नित्य और आपातकालीन ऐसी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद अतिरिक्त होगा। साथ ही में पडोस के गाँवों के लोगोंं ने जो भौतिक विकास किया है उस की जानकारी प्राप्त करने और आपस में बांटने के लिये हाट-बाजार की व्यवस्था आवश्यक है। हाट-बाजार की व्यवस्थाएँ तीन प्रकार की हो सकतीं हैं:
- भौगोलिक : ग्रामसंकुल केंद्र
- नियतकालिक: दैनंदिन, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक आदि।
- विशेष उत्पादन
- विदेश व्यापार : विदेश व्यापार के सूत्र निम्न होंगे:
- ऐसी किसी भी वस्तु का व्यापार नहीं होगा जिससे गाँवों की अर्थव्यवस्था को हानि हो।
- विदेश व्यापार ऐसा नहीं हो कि कोई अन्य देश पूर्णत: अपने देश से होनेवाले व्यापार पर निर्भर (मण्डी) हो जाए। अपने देश को भी अन्य किसी भी देश की मण्डी पर निर्भर नहीं बनने देना।
- जिस वस्तू की राष्ट्र के समाज को अनिवार्य रूप में आवश्यकता होगी उसी वस्तू की आयात की जाए।
- व्यापार अपनी शर्तों के आधार पर ही चलेगा। परस्पर आवश्यकताओं की पूर्ति का आधार होगा।
- देश में आने वाला और देश से बाहर जाने वाला सारा माल शासन के द्वारा जाँच होने के उपरांत ही देश में आए अथवा बाहर जाए।
- मुद्रा विनिमय की दर क्रय-मूल्य-समानता (पर्चेस् प्राईस पॅरिटि) के आधार पर ही हो।
- नियंत्रण: समृद्धि व्यवस्था पर नियंत्रण का स्वरूप विकेंद्रित होगा। जिस केंद्र से जुडा विषय होगा उस स्तर से ही नियंत्रण किया जाएगा। जैसे:
- कुटुम्ब
- ग्राम
- कौशल विधा
- न्यायालय (अंतिम केंद्र)
धर्म व्यवस्था
समाज में व्याप्त धर्म और अधर्म से संबंधित भावनाओं और मान्यताओं के आधार पर धर्म व्यवस्था खडी होती है। इसका अलग से निर्माण नहीं किया जाता। धर्म व्यवस्था के प्रमुखत: पाँच काम होते हैं:
- धर्म की व्यापक रूप में कालानुकूल व्याख्या करना। व्याख्या करने से अर्थ है मार्गदर्शक सूत्रों की प्रस्तुति करना। धर्म जीवनव्यापी होता है। इसलिये इस धर्म की व्याख्या का दायरा जीवनव्यापी होगा। इसमें समाज के सभी संगठनों और व्यवस्थाओं के संबंध में तथा व्यक्तिगत और सामुहिक ऐसे दोनों स्तरों के लिये विधि निषेध होंगे। बदलती परिस्थितियों के साथ समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर धर्म के व्यवहार पक्ष का निरंतर अवलोकन, परीक्षण और आवश्यक सुधार करना भी इसी का हिस्सा है।
- धर्म के सार्वत्रिकीकरण के लिये, धर्म को समाजव्यापी बनाने के लिये श्रेष्ठ शिक्षकों का निर्माण करना। शिक्षक निर्माण का अर्थ है शिक्षा की जिम्मेदारी जो अपने कंधेपर सम्हालें और समाज को श्रेष्ठ बनाने के लिये कटिबध्द हों ऐसे लोग निर्माण करना।
- धर्मविरोधी व्यवहार करने वाले लोगोंं के लिये दण्डविधान की व्यवस्था बनाना। दण्डविधान बनाने का अर्थ है साथ में दण्डविधान में वर्णित धर्म और अधर्म को समझने वाले, विधिनिषेधों में निहित तत्व को समझनेवाले और न्याय करनेवाले लोग निर्माण करना।
- दण्डविधान के अनुसार शासन चलानेवाले शासकों का निर्माण करना। ऐसे शासक नहीं होने से धर्म का आधार नष्ट हो जाता है। इसलिये अपने लोकहित के लिये समर्पण भाव, त्याग, तपस्या के आधारपर शासक को धर्माचरण के लिये बाध्य और अधर्माचरण के लिये दण्डित करने की नैतिक शक्ति निर्माण करना। यह बात भी श्रेष्ठ शासक निर्माण करने जितनी ही महत्त्वपूर्ण बात है।
- समाज पोषण के लिये प्रयत्नशील रहनेवाला जानकार, कौशल्यवान, सामर्थ्यवान वर्ग निर्माण करना।
व्यवस्था समूह का संभाव्य स्वरूप
- धर्मव्यवस्था : धर्मव्यवस्था भी एक मोटी मोटी व्यवस्था होती है। राष्ट्रीय धर्ममंडल, जनपदीय या/और तीर्थक्षेत्रीय धर्ममंडल, ग्राम/नगर/महानगर धर्ममंडल ऐसा इसका सामान्य स्वरूप होगा।
- शासन व्यवस्था
- समृद्धि व्यवस्था का ढाँचा Template:Image Needed : वैसे तो कठोरता से बाँधी हुई कोई भी व्यवस्था किसी भी समाज के लिये अच्छी नहीं होती। इसलिये समृद्धि व्यवस्था का मोटा मोटा ढाँचा ही बताया जा सकता है।
- किसी भी विशेष कौशल विधा में शोध और अनुसंधान की अलग से व्यवस्था की जा सकती है। लेकिन वह अनिवार्य तो नहीं है। वह तो उस कौशल विधा के जानकार व्यक्तिश: अपने स्तर पर करते ही रहनेवाले हैं। लेकिन व्यवस्था का अर्थ है चराचर के हित में ऐसी अध्ययन और अनुसंधान की, स्वाध्याय की भावना समाज में व्याप्त होने से है। प्राचीन काल से गुरूकुलों में समावर्तन के समय दिये गये उपदेश/आदेश ‘स्वाध्यायान् मा प्रमद:’ का यही अर्थ होता है।
References
- ↑ जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड २, अध्याय २३, लेखक - दिलीप केलकर
अन्य स्रोत: