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श्रेष्ठ या कनिष्ठ है या अर्वाचीन केवल अर्वाचीन होने से ही श्रेष्ठ या कनिष्ठ है। पिछडे का पिछडापन दूर कर हमेशा प्रगत बनना ही चाहिये या पुराणपंथी ही न रहकर आधुनिक बनना भी स्वाभाविक है । परन्तु ये सारे विशेषण अपने आप में स्वीकार्य या त्याज्य नहीं बन जाते हैं । महाकवि कालिदास अपने नाटक “मालविकायिमित्रमू में कहते हैं -
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श्रेष्ठ या कनिष्ठ है या अर्वाचीन केवल अर्वाचीन होने से ही श्रेष्ठ या कनिष्ठ है। पिछडे का पिछडापन दूर कर सदा प्रगत बनना ही चाहिये या पुराणपंथी ही न रहकर आधुनिक बनना भी स्वाभाविक है । परन्तु ये सारे विशेषण अपने आप में स्वीकार्य या त्याज्य नहीं बन जाते हैं । महाकवि कालिदास अपने नाटक “मालविकायिमित्रमू में कहते हैं -
    
पुराणमित्येव न साधु सर्व न चापि काव्य नवमित्यवद्यम्‌ ।
 
पुराणमित्येव न साधु सर्व न चापि काव्य नवमित्यवद्यम्‌ ।
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अर्थात्‌ काव्य प्राचीन है इसीलिये अच्छा है ऐसा भी नहीं है और अर्वाचीन है इसीलिये उसके विषय में कुछ नहीं बोलना चाहिये यह भी ठीक नहीं है । सज्जन या बुद्धिमान लोग स्वयं परीक्षा कर लेने के बाद उसे ग्रहण करते हैं जब कि मूढ लोग दूसरों की बुद्धि से निर्णय करते हैं ।
 
अर्थात्‌ काव्य प्राचीन है इसीलिये अच्छा है ऐसा भी नहीं है और अर्वाचीन है इसीलिये उसके विषय में कुछ नहीं बोलना चाहिये यह भी ठीक नहीं है । सज्जन या बुद्धिमान लोग स्वयं परीक्षा कर लेने के बाद उसे ग्रहण करते हैं जब कि मूढ लोग दूसरों की बुद्धि से निर्णय करते हैं ।
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हमारे सामने पुराने और नये, परंपरागत और आधुनिक के बीच चयन करने का प्रश्न तो हमेशा ही रहता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है इसलिये भी रहता है और परिष्कृति हमेशा आवश्यक होती है इसलिये भी । इसलिये विवेकपूर्वक परीक्षा करने के बाद जो कालानुरूप है, उचित है उसका समर्थन करना यह विद्वानों का दायित्व रहा है । लोग इसीका स्वीकार करते हैं और अपने व्यवहार में परिवर्तन करते हैं ।
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हमारे सामने पुराने और नये, परंपरागत और आधुनिक के मध्य चयन करने का प्रश्न तो सदा ही रहता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है इसलिये भी रहता है और परिष्कृति सदा आवश्यक होती है इसलिये भी । इसलिये विवेकपूर्वक परीक्षा करने के बाद जो कालानुरूप है, उचित है उसका समर्थन करना यह विद्वानों का दायित्व रहा है । लोग इसीका स्वीकार करते हैं और अपने व्यवहार में परिवर्तन करते हैं ।
    
परन्तु हमारे सामने दो प्रकार की चुनौतियाँ हैं । एक चुनौती स्वाभाविक है - प्राचीन और अर्वाचीन में विवेक करने की । परन्तु दूसरी आपतित है, आ पडी है । यह है यूरोपीय और भारतीय में विवेक करने की । इनमें प्रथम चुनौती अपेक्षाकृत्‌ सरल है क्यों कि हमारे दीर्घ सांस्कृतिक इतिहास में परिष्कार और परिवर्तन होते ही आये हैं । परन्तु दूसरी चुनौती हमें कठिन लग रही है । इसके कारण कुछ इस प्रकार हैं -
 
परन्तु हमारे सामने दो प्रकार की चुनौतियाँ हैं । एक चुनौती स्वाभाविक है - प्राचीन और अर्वाचीन में विवेक करने की । परन्तु दूसरी आपतित है, आ पडी है । यह है यूरोपीय और भारतीय में विवेक करने की । इनमें प्रथम चुनौती अपेक्षाकृत्‌ सरल है क्यों कि हमारे दीर्घ सांस्कृतिक इतिहास में परिष्कार और परिवर्तन होते ही आये हैं । परन्तु दूसरी चुनौती हमें कठिन लग रही है । इसके कारण कुछ इस प्रकार हैं -
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३. आज हमें यह चुनौती ही नहीं लगती । हमने यूरोपीय प्रतिमान को अधिकृत रूप दे दिया है । उसका आधुनिक प्रतिमान के रूप में स्वीकार भी कर लिया है।
 
३. आज हमें यह चुनौती ही नहीं लगती । हमने यूरोपीय प्रतिमान को अधिकृत रूप दे दिया है । उसका आधुनिक प्रतिमान के रूप में स्वीकार भी कर लिया है।
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परिणाम स्वरूप दोनों प्रतिमानों की मिलावट हो गई है । क्या यूरोपीय है और क्या आधुनिक है, कया पिछडा है और क्या भारतीय है इसे पहचानने में हम संश्रम में पड जाते हैं। इस संभ्रम की संभावना का अहसास ही नहीं होने से उससे मुक्त होने के प्रयास भी होते नहीं दिखाई देते हैं ।
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परिणाम स्वरूप दोनों प्रतिमानों की मिलावट हो गई है । क्या यूरोपीय है और क्या आधुनिक है, क्या पिछडा है और क्या भारतीय है इसे पहचानने में हम संश्रम में पड जाते हैं। इस संभ्रम की संभावना का अहसास ही नहीं होने से उससे मुक्त होने के प्रयास भी होते नहीं दिखाई देते हैं ।
    
कोई यह कह सकता है कि यूरोपीय और भारतीय ऐसे दो प्रतिमानों की क्या आवश्यकता है ? आज जब विश्व छोटा बन गया है, अनेक प्रकार के संचार माध्यमों के कारण दूरियाँ समाप्त हो गई हैं, वाहन व्यवहार के कारण से यातायात भी सरल हो गया है तब पूरे विश्व के लिये एक ही प्रतिमान होना स्वाभाविक है । दो या दो से अधिक प्रतिमान होंगे तो भी एकदूसरे के साथ मिलकर एक बन जायेंगे । और फिर पूरे विश्व के लिये एक ही प्रतिमान के रूप में यूरोपीय प्रतिमान स्वीकृत हो जाय तो हानि क्या है ? जब एक ही प्रतिमान है तो उसे भारतीय या यूरोपीय ऐसा नामाभिधान करना भी अप्रस्तुत है । उसे वैश्विक ही मानना चाहिये । यूरोपीय और भारतीय का समन्वय करना भी ठीक रहेगा ।
 
कोई यह कह सकता है कि यूरोपीय और भारतीय ऐसे दो प्रतिमानों की क्या आवश्यकता है ? आज जब विश्व छोटा बन गया है, अनेक प्रकार के संचार माध्यमों के कारण दूरियाँ समाप्त हो गई हैं, वाहन व्यवहार के कारण से यातायात भी सरल हो गया है तब पूरे विश्व के लिये एक ही प्रतिमान होना स्वाभाविक है । दो या दो से अधिक प्रतिमान होंगे तो भी एकदूसरे के साथ मिलकर एक बन जायेंगे । और फिर पूरे विश्व के लिये एक ही प्रतिमान के रूप में यूरोपीय प्रतिमान स्वीकृत हो जाय तो हानि क्या है ? जब एक ही प्रतिमान है तो उसे भारतीय या यूरोपीय ऐसा नामाभिधान करना भी अप्रस्तुत है । उसे वैश्विक ही मानना चाहिये । यूरोपीय और भारतीय का समन्वय करना भी ठीक रहेगा ।
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शब्द 'धर्म' और उसके लिये प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द 'religion' इस अनर्थ का सबसे बडा उदाहरण है । सामाजिक सांस्कृतिक जीवनरचना के कई चाबी समान शब्द इस प्रक्रिया का शिकार बने हुए हैं । उदाहरण के लिये राष्टृ - Nation, संस्कृति - Culture, आत्मा - Soul, अध्यात्मिक — Spiritual आदि |
 
शब्द 'धर्म' और उसके लिये प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द 'religion' इस अनर्थ का सबसे बडा उदाहरण है । सामाजिक सांस्कृतिक जीवनरचना के कई चाबी समान शब्द इस प्रक्रिया का शिकार बने हुए हैं । उदाहरण के लिये राष्टृ - Nation, संस्कृति - Culture, आत्मा - Soul, अध्यात्मिक — Spiritual आदि |
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साथ ही इसी श्रेणी के कई शब्द अंग्रेजी भाषा में अस्तित्व में ही नहीं हैं?। उदाहरण के लिये 'दर्शन', 'प्रसाद', 'पुण्य', 'प्रणाम',गुरु, 'गुरुदक्षिणा' , 'भिक्षा' आदि । ये केवल शब्द नहीं हैं, ये जीवनदृष्टि के परिचायक प्रतिमान हैं । इन्हें अंग्रेजी भाषा में समझाना यह भाषाकीय दृष्टि से ही नहीं तो सांस्कृतिक दृष्टि से लगभग असंभव हो जाता है । फिर भी अंग्रेजी भाषा में जब तक इसे समझाया नहीं जाता है तब तक इसे स्वीकृति नहीं मिलती ऐसा भी दिखाई देता है। संस्कृत को भी अंग्रेजी में समझना अनिवार्य सा बन जाता है । अंग्रेजी का यह प्रभाव बौद्धिक से अधिक मनोवैज्ञानिक है । मन से मानी हुई श्रेष्ठता या कनिष्ठता बुद्धि से सिद्ध होने वाली श्रेष्ठता या कनिष्ठता से भिन्न होती है । शाख्रचर्चा में बुद्धि से होने वाला व्यवहार मान्य होता है, मन द्वारा समर्थित नहीं । अतः प्रथम तो हमें अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के मानसिक प्रभाव से मुक्त होने की आवश्यकता पडेगी
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साथ ही इसी श्रेणी के कई शब्द अंग्रेजी भाषा में अस्तित्व में ही नहीं हैं?। उदाहरण के लिये 'दर्शन', 'प्रसाद', 'पुण्य', 'प्रणाम',गुरु, 'गुरुदक्षिणा' , 'भिक्षा' आदि । ये केवल शब्द नहीं हैं, ये जीवनदृष्टि के परिचायक प्रतिमान हैं । इन्हें अंग्रेजी भाषा में समझाना यह भाषाकीय दृष्टि से ही नहीं तो सांस्कृतिक दृष्टि से लगभग असंभव हो जाता है । तथापि अंग्रेजी भाषा में जब तक इसे समझाया नहीं जाता है तब तक इसे स्वीकृति नहीं मिलती ऐसा भी दिखाई देता है। संस्कृत को भी अंग्रेजी में समझना अनिवार्य सा बन जाता है । अंग्रेजी का यह प्रभाव बौद्धिक से अधिक मनोवैज्ञानिक है । मन से मानी हुई श्रेष्ठता या कनिष्ठता बुद्धि से सिद्ध होने वाली श्रेष्ठता या कनिष्ठता से भिन्न होती है । शास्त्रचर्चा में बुद्धि से होने वाला व्यवहार मान्य होता है, मन द्वारा समर्थित नहीं । अतः प्रथम तो हमें अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के मानसिक प्रभाव से मुक्त होने की आवश्यकता पड़ेगी
    
भारतीय होने के नाते हमें प्राकृतिक कारणों से ही भारतीय जीवनदृष्टि और भारतीय विश्वदृष्टि अपनाना स्वाभाविक होगा ।
 
भारतीय होने के नाते हमें प्राकृतिक कारणों से ही भारतीय जीवनदृष्टि और भारतीय विश्वदृष्टि अपनाना स्वाभाविक होगा ।
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- दोनों दृष्टियों में सामंजस्य बिठाने के क्या मार्ग हैं ?
 
- दोनों दृष्टियों में सामंजस्य बिठाने के क्या मार्ग हैं ?
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आत्मतत्त्व, परमात्मतत्त्त और आध्यात्मिकता को समझना अध्ययन करने की आधारभूमि है । वर्तमान प्रणाली ऐसी है कि हम अध्यात्म और आध्यात्मिकता को दार्शनिक रूप में ही समझते हैं, योग, उपासना, पूजा, मोक्ष आदि के साथ उसे जोडते हैं, अन्य शास्त्रों और विद्याओं के साथ समान स्तर पर रखकर अध्यात्मविद्या या अध्यात्मशास्र का अध्ययन करते हैं। वास्तव में भारतीयता और आध्यात्मिकता पर्यायी संज्ञायें बनती हैं । आध्यात्मिकता सभी प्रकार के अध्ययन और विमर्श का आधार बनने से ही भारतीय बन सकती हैं। अतः इस विषय को स्वतंत्र अध्ययन का विषय बनाना चाहिये ।
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आत्मतत्त्व, परमात्मतत्त्त और आध्यात्मिकता को समझना अध्ययन करने की आधारभूमि है । वर्तमान प्रणाली ऐसी है कि हम अध्यात्म और आध्यात्मिकता को दार्शनिक रूप में ही समझते हैं, योग, उपासना, पूजा, मोक्ष आदि के साथ उसे जोडते हैं, अन्य शास्त्रों और विद्याओं के साथ समान स्तर पर रखकर अध्यात्मविद्या या अध्यात्मशास्त्र का अध्ययन करते हैं। वास्तव में भारतीयता और आध्यात्मिकता पर्यायी संज्ञायें बनती हैं । आध्यात्मिकता सभी प्रकार के अध्ययन और विमर्श का आधार बनने से ही भारतीय बन सकती हैं। अतः इस विषय को स्वतंत्र अध्ययन का विषय बनाना चाहिये ।
    
विमर्श के लिये भी हमारे दो क्षेत्र हैं । एक विमर्श है अपनों से, अर्थात्‌ भारतीय जीवनदृष्टि के अनुसार अध्ययन करने वालों के साथ, भारतीय जीवनदृष्टि को आधाररूप में स्वीकार कर चलने वालों के साथ । इसमें हमारी पद्धति
 
विमर्श के लिये भी हमारे दो क्षेत्र हैं । एक विमर्श है अपनों से, अर्थात्‌ भारतीय जीवनदृष्टि के अनुसार अध्ययन करने वालों के साथ, भारतीय जीवनदृष्टि को आधाररूप में स्वीकार कर चलने वालों के साथ । इसमें हमारी पद्धति
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एकदूसरे को समझने की और समन्वय की होगी । इसका परिणाम होगा “वादे वादे जायते तत्त्वबोधः' । परन्तु दूसरा विमर्श होगा भिन्न जीवनदृष्टि रखने वालों के साथ । इसमें अपना मत समझाना, उनके मत का वैश्विक दृष्टि से मूल्यांकन करना. और दोनों पक्षों में सामंजस्य (adjustment) बिठाना महत्वपूर्ण होगा । इस दॄष्टि से हमारे चर्चासत्रों, परिसंवादों , विद्रत्सभाओं, गोष्टियों आदि के स्वरूप और पद्धति के विषय में भी बहुत विचार करने की और परिवर्तन करने की आवश्यकता रहेगी ।
 
एकदूसरे को समझने की और समन्वय की होगी । इसका परिणाम होगा “वादे वादे जायते तत्त्वबोधः' । परन्तु दूसरा विमर्श होगा भिन्न जीवनदृष्टि रखने वालों के साथ । इसमें अपना मत समझाना, उनके मत का वैश्विक दृष्टि से मूल्यांकन करना. और दोनों पक्षों में सामंजस्य (adjustment) बिठाना महत्वपूर्ण होगा । इस दॄष्टि से हमारे चर्चासत्रों, परिसंवादों , विद्रत्सभाओं, गोष्टियों आदि के स्वरूप और पद्धति के विषय में भी बहुत विचार करने की और परिवर्तन करने की आवश्यकता रहेगी ।
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अनुसंधान के संबंध में भी भारतीय पद्धति कुछ और ही रही है। वह स्वाभाविक भी है । जडवादी दृष्टि में पद्धतियों का स्वरूप यांत्रिक ही रहेगा । उसमें डाटा संग्रह, डाटा संग्रह के लिये प्रश्नावलियाँ, प्राप्त या संकलित तथ्यों का भौतिक विज्ञान या अंकशास्त्र की पद्धति से विश्लेषण और परिणामों में एकरूपता का आग्रह - ये सब यांत्रिकता के लक्षण हैं । अनुसंधान के क्षेत्र की भारत की शब्दावली बहुत बडी है। यह क्षेत्र भी बहुत व्यापक रहा है। अनुसंधान का आग्रह भी बहुत रहा है । किसी भी बात के लिये प्रमाण की आवश्यकता अनिवार्य मानी गई है। उदाहरण के लिये इतिहासलेखन का सूत्र है - नामूलं लिख्यते किश्चितू । अर्थात्‌ बिना प्रमाण के कुछ भी नहीं लिखना चाहिये । भगवान शंकराचार्य कहते हैं कि सभी शाख््र मिलकर भी यदि कहते हैं कि अग्नि शीतल है तो भी तुम मत मानो क्यों कि स्पर्शन्द्रियि का अनुभव (अर्थात्‌ प्रत्यक्ष प्रमाण) कहता है कि अग्ि उष्ण है ।
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अनुसंधान के संबंध में भी भारतीय पद्धति कुछ और ही रही है। वह स्वाभाविक भी है । जड़वादी दृष्टि में पद्धतियों का स्वरूप यांत्रिक ही रहेगा । उसमें डाटा संग्रह, डाटा संग्रह के लिये प्रश्नावलियाँ, प्राप्त या संकलित तथ्यों का भौतिक [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] या अंकशास्त्र की पद्धति से विश्लेषण और परिणामों में एकरूपता का आग्रह - ये सब यांत्रिकता के लक्षण हैं । अनुसंधान के क्षेत्र की भारत की शब्दावली बहुत बडी है। यह क्षेत्र भी बहुत व्यापक रहा है। अनुसंधान का आग्रह भी बहुत रहा है । किसी भी बात के लिये प्रमाण की आवश्यकता अनिवार्य मानी गई है। उदाहरण के लिये इतिहासलेखन का सूत्र है - नामूलं लिख्यते किश्चितू । अर्थात्‌ बिना प्रमाण के कुछ भी नहीं लिखना चाहिये । भगवान शंकराचार्य कहते हैं कि सभी शाख््र मिलकर भी यदि कहते हैं कि अग्नि शीतल है तो भी तुम मत मानो क्यों कि स्पर्शन्द्रियि का अनुभव (अर्थात्‌ प्रत्यक्ष प्रमाण) कहता है कि अग्ि उष्ण है ।
    
परन्तु साथ ही प्रामाण्यता की भी श्रेणियाँ हैं । किसी एक स्तर पर इन्ट्रियाँ प्रमाण हैं, तो कहीं बुद्धिप्रामाण्य की प्रतिष्ठा है । आप्त प्रमाण भी अत्यंत प्रतिष्ठा प्राप्त है और अपरोक्षानुभूति सर्वश्रेष्ठ प्रमाण है । अभिज्ञान शाकुन्तल में दुष्यन्त के मुख से कालिदास कहते हैं -
 
परन्तु साथ ही प्रामाण्यता की भी श्रेणियाँ हैं । किसी एक स्तर पर इन्ट्रियाँ प्रमाण हैं, तो कहीं बुद्धिप्रामाण्य की प्रतिष्ठा है । आप्त प्रमाण भी अत्यंत प्रतिष्ठा प्राप्त है और अपरोक्षानुभूति सर्वश्रेष्ठ प्रमाण है । अभिज्ञान शाकुन्तल में दुष्यन्त के मुख से कालिदास कहते हैं -
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अर्थात्‌ सच्चाई के विषय में जहां सन्देह पैदा हो ऐसी बातों में सज्जनों के लिये अन्तःकरण की वृत्तियाँ ही प्रमाण हैं।
 
अर्थात्‌ सच्चाई के विषय में जहां सन्देह पैदा हो ऐसी बातों में सज्जनों के लिये अन्तःकरण की वृत्तियाँ ही प्रमाण हैं।
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प्रमाणीकरण की यह पद्धति चेतनवादी जीवनदृष्टि की पद्धति है । जडवादी पद्धति इसे समझ भी नहीं सकती और मान्य भी नहीं कर सकती । अतः फिरसे हमारे समक्ष प्रश्न आता है कि हमें कौनसा प्रतिमान स्वीकार्य है - जडवादी या चेतनवादी ?
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प्रमाणीकरण की यह पद्धति चेतनवादी जीवनदृष्टि की पद्धति है । जड़वादी पद्धति इसे समझ भी नहीं सकती और मान्य भी नहीं कर सकती । अतः फिरसे हमारे समक्ष प्रश्न आता है कि हमें कौनसा प्रतिमान स्वीकार्य है - जड़वादी या चेतनवादी ?
    
अध्ययन अनुसंधान के क्षेत्र में दोनों प्रतिमानों को मिलाने से भी काम नहीं बनता । स्पष्टता, निश्चितता और समग्रता तो चाहिये ही । इस दृष्टि से शब्द, अर्थ, व्याप्त, सन्दर्भ, आधार आदि में सुसूत्रता की आवश्यकता रहेगी ।
 
अध्ययन अनुसंधान के क्षेत्र में दोनों प्रतिमानों को मिलाने से भी काम नहीं बनता । स्पष्टता, निश्चितता और समग्रता तो चाहिये ही । इस दृष्टि से शब्द, अर्थ, व्याप्त, सन्दर्भ, आधार आदि में सुसूत्रता की आवश्यकता रहेगी ।
    
अभी तो चर्चा की यह शुरुआत है । इस चर्चा का व्याप बढ़ना चाहिये । इस पत्रिका को देशभर के विद्रज्जनो एवं चिन्तकों तक पहुँचाने का प्रयास इसी उद्देश्य को लेकर हो रहा है कि स्थान स्थान पर चर्चा और विमर्श हों तथा शिक्षा के भारतीय प्रतिमान को निखारा जाय और प्रतिष्ठित किया जाय ।
 
अभी तो चर्चा की यह शुरुआत है । इस चर्चा का व्याप बढ़ना चाहिये । इस पत्रिका को देशभर के विद्रज्जनो एवं चिन्तकों तक पहुँचाने का प्रयास इसी उद्देश्य को लेकर हो रहा है कि स्थान स्थान पर चर्चा और विमर्श हों तथा शिक्षा के भारतीय प्रतिमान को निखारा जाय और प्रतिष्ठित किया जाय ।

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