Difference between revisions of "सनातनधर्म के आचार विचार एवं वैज्ञानिक तर्क"

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== प्रातःस्मरण एवं दैनिक कृत्य सूची निर्धारण। ==
 
== प्रातःस्मरण एवं दैनिक कृत्य सूची निर्धारण। ==
प्रातः काल में किया हुआ गान भी अपने तथा दूसरों के आकर्षणका साधन होता है। जब उसमें भी भगवद्भक्ति ओत-प्रोत हो; तो फिर तो क्या कहना  इसलिए प्रातः भगवान्को आकृष्ट करनेके लिए, तथा स्वयं भी तन्मयीभावार्थ कई राग वा भजन गाये जाते हैं, जिससे हमारा भावी दैनिक कार्यक्रम भी सुन्दर और निष्पाप बने। पर हमारी लौकिक भाषा अपभ्रंश भाषा होनेसे भगवान् के उतने निकट नहीं पहुँच पाती। देवभाषा देवोंसे प्राप्त हुई एक भाषा है, इससे हम देवों तथा देवाधिपति भगवान के निकट उन शब्दोंको शीघ्र पहुँचा सकते हैं। यद्यपि वैदिक-शब्द तो उससे भी बहुत निकटताकारक हैं। पर उस समय हम अस्नात(स्नानादि न किया हुआ) होनेसे उनमें अधिकृत नहीं। उनका तो स्नानोत्तर सन्ध्या आदिमें उपयोग करना पड़ता है। अतः शयनसे उठते ही संस्कृत पद्योंकी आवश्यकता पड़ती है। पद्यकी रचना लययुक्त होनेसे तन्मयतामें विशेष साधन बन जाती है। इनमें कई इस प्रकारके भी पद्य होते हैं, जो भगवान के ध्यानके साथ ही हमें धर्म तथा अपने देशके आन्तरिक परिचय करानेवाले भी होते हैं। इससे हम उस अपने देश तथा अपने धर्मको छोड़ने वा उससे द्रोह करनेका कभी स्वप्न भी नहीं देख पाते। अपने जीवनदाता एवं त्राणकर्ता उस प्रभुको तथा पूर्वोल्लिखित वेदमन्त्रों में कहे हुए देवोंको उस सात्त्विक समयमें स्मरण करना हमें भविष्यत्में भी असन्मार्ग में जाने नहीं देता। प्रातः स्मरणके कुछ पद्य हम लिख देते हैं-
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प्रातः काल में किया हुआ गान भी अपने तथा दूसरों के आकर्षणका साधन होता है। जब उसमें भी भगवद्भक्ति ओत-प्रोत हो; तो फिर तो क्या कहना  इसलिए प्रातः भगवान्को आकृष्ट करनेके लिए, तथा स्वयं भी तन्मयीभावार्थ कई राग वा भजन गाये जाते हैं, जिससे हमारा भावी दैनिक कार्यक्रम भी सुन्दर और निष्पाप बने। पर हमारी लौकिक भाषा अपभ्रंश भाषा होनेसे भगवान् के उतने निकट नहीं पहुँच पाती। देवभाषा देवोंसे प्राप्त हुई एक भाषा है, इससे हम देवों तथा देवाधिपति भगवान के निकट उन शब्दोंको शीघ्र पहुँचा सकते हैं। यद्यपि वैदिक-शब्द तो उससे भी बहुत निकटताकारक हैं। पर उस समय हम अस्नात(स्नानादि न किया हुआ) होनेसे उनमें अधिकृत नहीं। उनका तो स्नानोत्तर सन्ध्या आदिमें उपयोग करना पड़ता है। अतः शयनसे उठते ही संस्कृत पद्योंकी आवश्यकता पड़ती है। पद्यकी रचना लययुक्त होनेसे तन्मयतामें विशेष साधन बन जाती है। इनमें कई इस प्रकारके भी पद्य होते हैं, जो भगवान के ध्यानके साथ ही हमें धर्म तथा अपने देशके आन्तरिक परिचय करानेवाले भी होते हैं। इससे हम उस अपने देश तथा अपने धर्मको छोड़ने वा उससे द्रोह करनेका कभी स्वप्न भी नहीं देख पाते। अपने जीवनदाता एवं त्राणकर्ता उस प्रभुको तथा पूर्वोल्लिखित वेदमन्त्रों में कहे हुए देवोंको उस सात्त्विक समयमें स्मरण करना हमें भविष्यत्में भी असन्मार्ग में जाने नहीं देता। प्रातः स्मरणके कुछ पद्य -
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प्रातःस्मरणीय श्लोक गणेशस्मरण<blockquote>प्रातः स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुसिन्दूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मम्। उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डमाखण्डलादिसुरनायकवृन्दवन्द्यम्॥</blockquote>'''अनु-''' अनाथोंके बन्धु, सिन्दूरसे शोभायमान दोनों गण्डस्थल- वाले, प्रबल विघ्नका नाश करनेमें समर्थ एवं इन्द्रादि देवोंसे नमस्कृत श्रीगणेशजीका मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ।
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(विष्णुस्मरण)<blockquote>प्रातः स्मरामि भवभीतिमहार्तिनाशं नारायणं गरुडवाहनमब्जनाभम्। ग्राहाभिभूतवरवारणमुक्तिहेतुंचक्रायुधं तरुणवारिजपत्रनेत्रम्॥</blockquote>'''अनु-''' संसारके भयरूपी महान् दुःखको नष्ट करनेवाले, ग्राहसे गजराजको मुक्त करनेवाले, चक्रधारी एवं नवीन कमलदलके समान नेत्रवाले, पद्मनाभ गरुडवाहन भगवान् श्रीनारायणका मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ।
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(शिवस्मरण)<blockquote>प्रातः स्मरामि भवभीतिहरं सुरेशं गङ्गाधरं वृषभवाहनमम्बिकेशम्। खट्वाङ्गशूलवरदाभयहस्तमीशंसंसाररोगहरमौषधमद्वितीयम् ॥</blockquote>'''अनु-'''संसारके भयको नष्ट करनेवाले, देवेश, गंगाधर, वृषभवाहन, पार्वतीपति, हाथमें खट्वांग एवं त्रिशूल लिये और संसाररूपी रोगका नाश करनेके लिये अद्वितीय औषध-स्वरूप, अभय एवं वरद मुद्रायुक्त हस्तवाले भगवान् शिवका मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ।
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(देवीस्मरण)<blockquote>प्रात: स्मरामि शरदिन्दुकरोज्ज्वलाभां सद्रलवन्मकरकुण्डलहारभूषाम् । दिव्यायुधोर्जितसुनीलसहस्त्रहस्तां रक्तोत्पलाभचरणां भवतीं परेशाम्॥ </blockquote>'''अनु-'''शरत्कालीन चन्द्रमाके समान उज्ज्वल आभावाली, उत्तम रत्नोंसे जटित मकरकुण्डलों तथा हारोंसे सुशोभित, दिव्यायुधोंसे दीप्त सुन्दर नीले हजारों हाथोंवाली, लाल कमलकी आभायुक्त
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चरणोंवाली भगवती दुर्गादेवीका मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ।
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(सूर्यस्मरण)<blockquote>प्रातः स्मरामि खलु तत्सवितुर्वरेण्यं रूपं हि मण्डलमृचोऽथ तनुर्यजूंषि सामानि यस्य किरणाः प्रभवादिहेतुं ब्रह्माहरात्मकमलक्ष्यमचिन्त्यरूपम् ॥</blockquote>'''अनु-'''सूर्यका वह प्रशस्त रूप जिसका मण्डल ऋग्वेद, कलेवर यजुर्वेद तथा किरणें सामवेद हैं । जो सृष्टि आदिके कारण हैं, ब्रह्मा और शिवके स्वरूप हैं तथा जिनका रूप अचिन्त्य और अलक्ष्य है, प्रात:काल मैं उनका स्मरण करता हूँ।
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( त्रिदेवोंके साथ नवग्रहस्मरण)<blockquote>ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च । गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥(मार्क०स्मृ०)</blockquote>'''अनु-'''ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु-ये सभी मेरे प्रात:कालको मंगलमय करें।
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(ऋषिस्मरण)<blockquote>भृगुर्वसिष्ठः क्रतुरङ्गिराश्च मनुः पुलस्त्यः पुलहश्च गौतमः। रैभ्यो मरीचिश्च्यवनश्च दक्षः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥(वामनपु०१४।३३)</blockquote>'''अनु-'''भृगु, वसिष्ठ, क्रतु, अंगिरा, मनु, पुलस्त्य, पुलह, गौतम, रैभ्य, मरीचि, च्यवन और दक्ष-ये समस्त मुनिगण मेरे प्रात:कालको मंगलमय करें।<blockquote>सनत्कुमारः सनकः सनन्दनः सनातनोऽप्यासुरिपिङ्गलौ।सप्त स्वराः सप्त रसातलानि कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥</blockquote><blockquote>सप्तार्णवाः सप्त कुलाचलाश्च सप्तर्षयो द्वीपवनानि सप्त।भूरादिकृत्वा भुवनानिसप्त कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥ (वामनपु० १४॥ २४, २७)</blockquote>'''अनु-'''धैवत सनत्कुमार, सनक, सनन्दन, सनातन, आसुरि और पिंगल-ये ऋषिगण; षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, तथा निषाद- ये सप्त स्वर; अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल तथा पाताल-ये सात अधोलोक सभी मेरे प्रात:कालको मंगलमय करें। सातों समुद्र, सातों कुलपर्वत, सप्तर्षिगण, सातों वन तथा सातों द्वीप, भूर्लोक, भुवर्लोक आदि सातों लोक सभी मेरे प्रात:कालको मंगलमय करें।
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(प्रकृतिस्मरण)<blockquote>पृथ्वी सगन्धा सरसास्तथापः स्पर्शी च वायुर्चलितं च तेजः। नभः सशब्दं महता सहैव कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥(वामनपु० १४ । २६)</blockquote>'''अनु-'''गन्धयुक्त पृथ्वी, रसयुक्त जल, स्पर्शयुक्त वायु, प्रज्वलित तेज, शब्दसहित आकाश एवं महत्तत्त्व-ये सभी मेरे प्रात:कालको मंगलमय करें।<blockquote>इत्थं प्रभाते परमं पवित्रं पठेत् स्मरेद्वा शृणुयाच्च भक्त्या। दुःस्वप्ननाशस्त्विह सुप्रभातं भवेच्च नित्यं भगवत्प्रसादात्॥</blockquote>'''अनु-'''इस प्रकार उपर्युक्त इन प्रात:स्मरणीय परम पवित्र श्लोकोंका जो मनुष्य भक्तिपूर्वक प्रात:काल पाठ करता है, स्मरण करता है अथवा सुनता है, भगवद्दयासे उसके दु:स्वप्नका नाश हो जाता है और उसका प्रभात मंगलमय होता है।
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'''पुण्यश्लोकोंका स्मरण''' <blockquote>पुण्यश्लोको नलो राजा पुण्यश्लोको जनार्दनः। पुण्यश्लोका च वैदेही पुण्यश्लोको युधिष्ठिरः॥</blockquote><blockquote>अश्वत्थामा बलिया॑सो हनूमांश्च विभीषणः। कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः॥</blockquote>'''अनु-'''राजा नल पुण्यकीर्तिवाले हैं, भगवान् जनार्दन पुण्यकीर्तिवाले हैं, माता सीता पुण्यकीर्तिशालिनी हैं और धर्मराज युधिष्ठिर पुण्यकीर्तिवाले हैं। अश्वत्थामा, बलि. वेदव्यास, हनुमान्, विभीषण, कृपाचार्य और परशुरामये सात चिरजीवी हैं।<blockquote>सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्। जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः॥</blockquote>इन सातों तथा आठवें जो मार्कण्डेयजी हैं, उनका नित्य स्मरण करना चाहिये । जो ऐसा करता है, उसकी अकालमृत्यु नहीं होती और वह सौ वर्षसे भी अधिक जीता है। <blockquote>उमा उषा च वैदेही रमा गङ्गेति पञ्चकम्। प्रातरेव पठेन्नित्यं सौभाग्यं वर्धते सदा॥ सोमनाथो वैद्यनाथो धन्वन्तरिरथाश्विनौ। पञ्चैतान् यः स्मरेन्नित्यं व्याधिस्तस्य न जायते॥</blockquote>'''अनु-''' उमा, उषा, सीता, लक्ष्मी तथा गंगा-इन पाँच नामोंका नित्य प्रात:काल पाठ करना चाहिये, इससे सौभाग्यकी सदा वृद्धि होती है। सोमनाथ, वैद्यनाथ, धन्वन्तरि तथा दोनों अश्विनीकुमारों-इन पाँचोंका जो नित्य स्मरण करता है, उसे कोई रोग नहीं होता।<blockquote>कपिला कालियोऽनन्तो वासुकिस्तक्षकस्तथा।पञ्चैतान् स्मरतो नित्यं विषबाधा न जायते॥</blockquote><blockquote>हरं हरिं हरिश्चन्द्रं हनूमन्तं हलायुधम्। पञ्चक वैस्मरेन्नित्यं घोरसङ्कटनाशनम॥ (वामनपु० १४॥ २८)</blockquote>कपिला गौ, कालिय, अनन्त, वासुकि तथा तक्षक नाग-इन पाँचोंका नित्य नाम-स्मरण करनेसे विषकी बाधा नहीं होती। भगवान् शिव, भगवान् विष्णु, हरिश्चन्द्र, हनुमान् तथा बलराम-इन पाँचोंका नित्य स्मरण करना चाहिये, यह (स्मरण) घोर संकटका नाश करनेवाला है। <blockquote>आदित्यश्च उपेन्द्रश्च चक्रपाणिमहेश्वरः।दण्डपाणि: प्रतापी स्यात् क्षुत्तृड्बाधा न बाधते॥</blockquote><blockquote>वसुर्वरुणसोमौ च सरस्वती च सागरः।पञ्चैतान् संस्मरेद् यस्तु तृषा तस्य न बाधते॥(पद्मपु० ५१।६-७)</blockquote>आदित्य, उपेन्द्र, चक्रपाणि विष्णु, महेश्वर तथा प्रतापी दण्डपाणिका स्मरण करनेसे भूख और प्यासको
  
 
दैनिक कृत्य-सूची-निर्धारण-इसी समय दिन-रातके कार्योंकी सूची तैयार कर लें।
 
दैनिक कृत्य-सूची-निर्धारण-इसी समय दिन-रातके कार्योंकी सूची तैयार कर लें।
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इस मन्त्रका देवता भी 'हस्त' है। इसमें हाथको भगवान और अतिशयितसामर्थ्ययुक्त और सब रोगोंका भेषजभूत (दवाईरूप) साधन-सम्पन्न स्वीकृत किया है।
 
इस मन्त्रका देवता भी 'हस्त' है। इसमें हाथको भगवान और अतिशयितसामर्थ्ययुक्त और सब रोगोंका भेषजभूत (दवाईरूप) साधन-सम्पन्न स्वीकृत किया है।
  
जो जितनी अधिक शक्तिवाला होगा; उसके हाथ में शक्ति भी उतनी ही अधिक होगी। इसलिए हम जिनकी वन्दना करके उनका आशीर्वाद चाहते हैं; वे भी अपने हाथसे ही हमारे सिरको स्पर्श करके आशीर्वाद देते हैं। कई ज्यौतिष(सामुद्रिक)विद्याविशारद इसी हाथमें स्थित्रेखाओं द्वारा  विविध रोगियोंके रोगोंको दूर कर देते हैं ।हाथमें अमृत के भी स्थित होनेसे गुरुओं द्वारा शिष्यको हाथसे मारने पर भी  
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जो जितनी अधिक शक्तिवाला होगा; उसके हाथ में शक्ति भी उतनी ही अधिक होगी। इसलिए हम जिनकी वन्दना करके उनका आशीर्वाद चाहते हैं; वे भी अपने हाथसे ही हमारे सिरको स्पर्श करके आशीर्वाद देते हैं। कई ज्यौतिष(सामुद्रिक)विद्याविशारद इसी हाथमें स्थित रेखाओं द्वारा  विविध रोगियोंके रोगोंको दूर कर देते हैं ।हाथमें अमृत के भी स्थित होनेसे गुरुओं द्वारा शिष्यको हाथसे मारने पर भी  
  
 
उन्हीं के सन्तान विद्वान्, सभ्य और सुशिक्षित होते हैं, जो पढ़ाने में सन्तानों का लाड़न कभी नहीं करते किन्तु ताड़ना ही करते रहते हैं। इसमें व्याकरण महाभाष्य का प्रमाण है-  
 
उन्हीं के सन्तान विद्वान्, सभ्य और सुशिक्षित होते हैं, जो पढ़ाने में सन्तानों का लाड़न कभी नहीं करते किन्तु ताड़ना ही करते रहते हैं। इसमें व्याकरण महाभाष्य का प्रमाण है-  

Revision as of 06:53, 15 June 2021

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सनातन अर्थात् अनादि,शाश्वत, सत्य,नित्य,भ्रम संशय रहित धर्म का वह स्वरूप जो परंपरा से चला आता हुआ माना जाता है ।धर्म शब्द का अर्थ ही है कि जो धारण करे अथवा जिसके द्वारा यह विश्व धारण किया जा सके, क्योंकि धर्म "धृञ धारणे" धातु से बना है, जिसका अर्थ है -

धारयतीति धर्मः अथवा 'येनैतद्धार्यते स धर्मः ।

धर्म वास्तव में संसार की स्थिति का मूल है, धर्म मूल पर ही सकल संसार वृक्ष स्थित है। धर्म से पाप नष्ट होता है तथा अन्य लोग धर्मात्मा पुरुष का अनुसरण करके कल्याण को प्राप्त होते हैं ।

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। नित्यो धर्मः सुख दुःखे त्वनित्ये, जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥(महा०स्वर्गा० ५/76)

अर्थात् कामना से, भय से. लोभ से अथवा जीवन के लिये भी धर्म का त्याग न करे । धर्म ही नित्य है, सुख दु:ख तो अनित्य हैं। इसी प्रकार जीवात्मा नित्य हैं और उसके बन्धन का हेतु अनित्य है । (अतः अनित्य के लिये नित्य का परित्याग कदापि न करे )।

इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति धर्म का पालन करता है तो धर्म ही उसकी रक्षा करता है तथा नष्ट हुआ धर्म ही उसे मारता है अतः धर्म का पालन करना चाहिये ।

नारायणोपनिषद् में कहा है-

धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा, लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति, धर्मेण पापमपनुदति,धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितं,तस्माद्धर्म परमं वदन्ति।[1]

आचार को प्रथम धर्म कहा है-

आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च।तस्मादस्मिन्समायुक्तो नित्यं स्यादात्मनो द्विजः ॥

आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते प्रजाः ।आचारादन्नमक्षय्यमाचारो हन्ति पातकम् ॥[2]

अनु- आचार ही प्रथम (मुख्य) धर्म है-ऐसा श्रुतियों तथा स्मृतियोंमें कहा गया है, अतएव द्विजको चाहिये कि वह अपने कल्याणके लिये इस सदाचारके पालनमें नित्य संलग्न रहे।मनुष्य आचारसे आयु प्राप्त करता है, आचारसे सन्तानें प्राप्त करता है तथा आचारसे अक्षय अन्न प्राप्त करता है। यह आचार पापको नष्ट कर देता है॥

आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च ।

आचाराल्लभते ह्यायुराचाराल्लभते श्रियम् ।

आचाराल्लभते कीर्ति पुरुषः प्रेत्य चेह च ॥

अर्थात् श्रुति-स्मृतियुक्त आचार प्रथम धर्म है। आचार से आयु, लक्ष्मी तथा यश की प्राप्ति होती है।

आचार की परिभाषा

आचार की परिभाषा करते हुये ऋषि कहते हैं कि-धर्मानुकूल शारीरिक व्यापार ही सदाचार है। केवल शारीरिक व्यापार या शारीरिक चेष्टा सदाचार नहीं, वह तो अंग संचालन मात्र की क्रिया है। उससे स्थूल शारीरिक लाभ के अतिरिक्त आत्मोन्नति का सम्बन्ध नहीं। इस कारण कोरी शारीरिक क्रिया को आचार नहीं कहते । शारीरिक व्यापार या शारीरिक चेष्टा जब धर्मानुकूल अथवा किसी प्रकार धर्म को लक्ष्य करते हुये होती है तब वह सदाचार होता है और तब उससे स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीर की उन्नति और साथ ही साथ आत्मा का भी अभ्युदय साधन होता है। यह धर्मानुकूल आचरण ही सदाचार है।

महर्षि वशिष्ठ लिखते हैं कि-

आचारः परमोधर्मः सर्वेषामिति निश्चयः । हीनाचार परीतात्मा प्रेत्य चेह च नश्यति ॥ [3]

अर्थात् यह निश्चय है कि आचार ही सबका परम धर्म है आचार भ्रष्ट मनुष्य इस लोक और परलोक दोनों में नष्ट होता है। काशी खण्ड में भी कहा गया है कि-

आचारः परमो धर्मः आचारः परमं तपः ।आचाराद्वर्द्धते ह्यायुराचारात् पाप संक्षयः। ।

अर्थात् आचार परम धर्म है, आचार परम तप है, आचार से आयु की वृद्धि तथा पाप का नाश होता है।

आचार हीनं न पुनन्ति वेदाः यद्यप्यधीता सहषड्भिरंगैः। छन्दास्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव ताप तप्ताः।[4]

आचार हीन व्यक्ति यदि सांगोपांग वेदों का विद्वान् भी है तो वेद उसको पवित्र नहीं कर सकते और वैदिक ऋचायें भी उसे अन्तकाल में इसी प्रकार त्याग देती हैं जैसे अग्नि के ताप से तप्त घोंसले को पक्षी त्याग देते हैं।

आचारात् फलते धर्ममाचारात् फलते धनम् । आचाराच्छ्रियमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम्।।[5]

इसके अतिरिक्त दुराचारी मनुष्य लोक में निन्दित, दु:ख का भागी, रोग ग्रस्त और अल्पायु होता है। सदाचार का फल धर्म है, सदाचार का फल धन है, सदाचार से श्री की प्राप्ति होती है तथा सदाचार कुलक्षणों को नाश करता है।

आचारः परमो धर्मः आचारः परमं तपः।आचारः परमं ज्ञानं आचारात् कि न साध्यते ॥

आचाराद् विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते।आचारेण समायुक्तः सम्पूर्णफलभाग् भवेत् ॥

यः स्वाचारपरिभ्रष्टः साङ्गवेदान्तगोऽपि चेत् ।स एव पतितो ज्ञेयो सर्वकर्मबहिष्कृतः॥

आचार ही सर्वोत्तम धर्म है, आचार ही सर्वोत्तम तप है, आचार ही सर्वोत्तम ज्ञान है, यदि आचारका पालन हो तो असाध्य क्या है! अर्थात कुछ भी नहीं। शास्त्रोमें आचारका ही सर्वप्रथम उपदेश ( निर्देशन ) हुआ है । धर्म भी आचारसे ही उत्पन्न है ( अर्थात् ) आचार ही धर्मका माता-पिता है और एकमात्र ईश्वर ही धर्मका स्वामी है । इस प्रकार आचार स्वयं ही परमेश्वर सिद्ध होता है। एक ब्राह्मण जो आचारसे च्युत हो गया है,वह वेदोंके फलकी प्राप्तिसे वञ्चित हो जाता है, चाहे वेद-वेदाङ्गोंका पारंगत विद्वान् ही क्यो न हो, किंतु जो आचारका पालन करता है, वह सबका फल प्राप्त कर लेता है ।

परिचय

मानवके विधिबोधित क्रिया-कलापोंको आचारके नामसे सम्बोधित किया जाता है।आचार-पद्धति ही सदाचार या शिष्टाचार कहलाती है। मनीषियोंने पवित्र और सात्त्विक आचारको ही धर्मका मूल बताया है-

धर्ममूलमिदं स्मृतम्।

धर्मका मूल श्रुति- स्मृतिमूलक आचार ही है इतना ही नहीं, षडङ्ग-वेदज्ञानी भी यदि आचारसे हीन हो तो वेद भी उसे पवित्र नहीं बनाते-

आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः।

आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च । तस्मादेतत्समायुक्तं गृह्णीयादात्मनो द्विजः ॥।

आचारालभ्यते पूजा आचारालभ्यते प्रजा । आचारादनमक्षय्यं तदाचारस्य लक्षणम् ।।

आचारात्प्राप्यते स्वर्ग आचारात्प्राप्यते सुखम् । आचारात्माप्यते मोक्ष भाचाराकिं न लभ्यते ॥

तस्मात्चतुर्णामपि वर्णानामाचारो धर्मपालनम् । आचारस्रष्टदेहानां भवेद्धर्मः परामुखः ।।

दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः । दुःखभोगी च सततं रोगी चाल्पायुषी भवेत् ।। दक्षः

आचार आयुकी वृद्धि करता है, आचारसे इच्छित संतानकी प्राप्ति होती है, वह शाश्वत एवं असीम धन देता है और दोष-दुर्लक्षणोंको भी दूर कर देता है । जो आचारसे भ्रष्ट हो गया है, वह चाहे सभी अङ्गों- सहित वेद-वेदान्तका पारगामी क्यो न हो, उसे पतित तथा सभी कर्मोंसे बहिष्कृत समझना चाहिये ।

वर्तमान के समय में आचरण के पालन में बाधा करने वाले निम्नकारण हैं-

विधि को न जानना,विधि पर अश्रद्धा,विजातीय अनुकरण की अत्यन्त अधिकता,स्वेछाचारी होने की प्रबलता,स्वाभाविक आलस्य आदि की अधिकता ही समाज में आचार को न्यूनता की ओर प्रेरित करने में अग्रसर है।

शास्त्रोक्त विधि का प्रतिपालन ही सदाचार कहा जाता था-

संक्षेपमें हमारे श्रुति-स्मृतिमूलक संस्कार देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और आत्माका मलापनयन(परिशुद्धि) कर उनमें अतिशयाधान करते हुए किञ्चित् हीन अङ्ग की पूर्ति कर उन्हें विमल कर देते हैं। संस्कारोंकी उपेक्षा करनेसे समाजमें उच्छृङ्खलताकी वृद्धि हो जाती है, जिसका दुष्परिणाम सर्वगोचर एवं सर्वविदित है।

वर्तमानमें मनुष्यकी बढ़ती हुई भोगवादी कुप्रवृत्तिके कारण आचार-विचार का उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है एवं स्वेच्छाचारकी कुत्सित मनोवृत्ति भी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है, जिसका दुष्परिणाम संसार के समस्त प्राणियों को भोगना पड़ रहा है। ऐसी भयावह परिस्थितिमें मानव के लिये स्वस्थ दिशा बोध प्रदान करनेके लिये आचार-विचार का ज्ञान और उसके अनुसार आचरण करना यह पथ-प्रदर्शक होगा।

Brahma Muhurta - Scientific Aspects (ब्राह्ममुहूर्त का वैज्ञानिक अंश)

ब्राह्ममुहूर्त में जागरण।

ब्राह्म-मुहूर्त सूर्योदयसे चार घड़ी (ढाई घड़ीका एक घंटा होता है लगभग डेढ़ घंटे) पूर्व ब्राह्ममुहूर्तमें ही जग जाना चाहिये। रातकी अन्तिम चार घड़ियोंमें पहलेकी दो घड़ियां ब्राह्ममुहूर्त नामसे और अन्तिम दो घड़ियां रौद्रमुहूर्त नामसे कही जाती हैं। इनमें ब्राह्ममुहूर्तमें ही शय्या त्याग कहा गया है।

इस समय सोना शास्त्रमें निषिद्ध है-

ब्राह्मे मुहूर्ते या निद्रा सा पुण्यक्षयकारिणी। ।

जैसे कल्पका प्रारम्भ ब्रह्माके दिनका प्रारम्भ होता है, उसीसमय ब्रह्माका दीर्घनिद्रामें विश्रान्त हुई सृष्टि के निर्माण एवं उत्थानका काल होता है। ज्ञानरूप वेदका प्राकट्यकाल भी वही होता है, उत्तम ज्ञानवाली एवं शुद्ध-मेधावती ऋषि-सृष्टि भी तभी होती है, सत्त्वयुग वा सत्ययुग भी तभी होता है; धार्मिक प्रजा भी उसी प्रारम्भिक कालमें होती है, यह काल भी वैसा ही होता है।उसी ब्राह्मदिनका संक्षिप्त संस्करण यह 'ब्राह्ममुहूर्त' होता है। यह भी सत्सृष्टि-निर्माणका प्रतिनिधि होनेसे सृष्टिका सचमुच निर्माण ही करता है। अपने निर्माण कार्यमें इस ब्राह्ममुहूर्तका उपयोग लेना हमारा एक आवश्यक कर्तव्य हो जाता है। इसके उपयोगसे हमें ऐहलौकिक-अभ्युदय एवं पारलौकिक-निःश्रेयस प्राप्त होकर सर्वाङ्गीण धर्मलाभ सम्भव हो जाता है।

जागरण का फल

सनातनधर्ममें ब्राह्ममुहूर्तमें उठनेकी आज्ञा है। ब्राह्ममुहूर्तकी निद्रा पुण्यका नाश करनेवाली है । उस समय जो कोई भी शयन करता है, उसे छुटकारा पानेके लिये पादकृच्छ्र नामक (व्रत) प्रायश्चित्त करना चाहिये-

तां करोति द्विजो मोहात् पादकृच्छ्रेण शुद्ध्यति ।।

रोगकी अवस्थामें या कीर्तन आदि शास्त्रविहित कार्यों के कारण इस समय यदि नींद आ जाय तो उसके लिये प्रायश्चित्तकी आवश्यकता नहीं होती-

अव्याधितं चेत् स्वपन्तं विहितकर्मश्रान्ते तु न॥

ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थों चानुचिन्तयेत् । कायक्लेशांश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च ।। (मनु० ४।९२)

अर्थात् ब्राह्म मुहुर्त में उठकर धर्म अर्थ का चिन्तन, कायक्लेश का निदान तथा वेदतत्त्व परमात्मा का स्मरण करना चाहिये । शास्त्रों में भी कहा गया है कि-

वर्णं कीर्तिं गतिं लक्ष्मी स्वास्थ्यमायुश्च विदन्ति। ब्राह्मे मुहूर्ते संजाग्रच्छि वा पंकज यथा।। (भैषज्य सारः 63)

अर्थात् ब्रह्म मुहूर्त में जागने से व्यक्ति को अच्छा रुप, धन, दौलत, अच्छा स्वास्थ्य और लंबी आयु की प्राप्ति होती है। इस समय उठने से शरीर कमल के फूल के समान सुन्दर हो जाता है।

ब्राह्ममुहूर्तमें उठानेकी प्रकृतिकी 'टाइमपीस-घड़ी' मुर्गाहुआ करता है।

धार्मिक महत्व

वाल्मिकी द्वारा रचित रामायण के अनुसार रावण की लंका में अशोक वाटिका में हनुमान जी ब्रह्म मुहूर्त में ही पहुंचते थे। और उन्होंने सीता माता द्वारा किए जा रहे मंत्रों की आवाज सुनीं और वे सीता जी से मिले थे। ब्रह्म मुहूर्त में पहुंचने से उनका काम आसान हो गया था।

ब्रह्म मुहूर्त के चमत्कारी फायदों के बारे में सिर्फ शास्त्रों में ही नहीं बल्कि विज्ञान और आयुर्वेद में भी बहुत विस्तार से बताया गया है-

वैज्ञानिक अंश

इस समयका वातावरण सात्त्विक, शान्त, जीवनप्रद और स्वास्थ्यप्रदायक होता है। इसी समय वृक्ष अशुद्ध वायुको आत्मसात् कर लेते हैं और शुद्ध वायु (आक्सिजन गैस) हमें देते हैं। कमल आदि इसी समय खिलते हैं। नदी आदिका जल सम्पूर्ण रात्रिके, तारामण्डलके, एवं चन्द्रमाके प्रभावको आत्मसात् करके इसी समय उसे व्यक्त करता है। इसके संसर्गसे ही सुरभित, और उदय होनेवाले दिनकरके निर्मल किरणों के प्रभावसे पवित्र हुई वायु हमारा आत्मिक एवं मानसिक कल्याण करती है। सूर्य ही समस्त क्रियाओं तथा विद्युत्शक्ति, प्राणशक्ति आदि समस्त शक्तियों का आकर होता है। सभी धातुएँ, सभी जीव, सब मनुष्य इसीकी शक्तिका अवलम्बन लेते हैं, और बहुत सबल रह ते है। उसके प्रभावसे हमारे मन और बुद्धि आलोकित हो उठते हैं। रात्रिमूलक-तमोगुण और तमोमूलक-जड़ता हट जाती है। यदि इस सुन्दर समयमें भी हम निद्रादेवी में आसक्त रहे, तब हम अपनी आयुको स्वयं घटानेवाले सिद्ध हो सकते हैं। क्योंकि निद्रामें तन्मूलक दौर्बल्यवश वह वायु हमें लाभके बदले हानि भी पहुँचा सकती है-

देवो दुर्बल-घातकः।

वैसा करने पर हमारा आलस्य बढ़ जाता है, स्फूर्ति नष्ट हो जाती है। उस समय उठ बैठनेसे निद्रामूलक दुर्बलता नष्ट होकर हममें बल उत्पन्न होता है। तब वही वायु हमें लाभदायक सिद्ध होता है-

सभी सहायक सबलके।

इस समय सम्पूर्ण दिनकी थकावट और चिन्ता आदि रात्रिके सोनेसे दूर होकर हमारा मस्तिष्क शुद्ध तथा शान्त एवं नवशक्तियुक्त हो जाता है, और मुखको कान्ति एवं रक्तिमा चमक जाती है। मन प्रफुल्ल हो उठता है, शरीर नीरोग रहता है। यही समय शुद्ध मेधाका होता है। इसी समय मनः-प्रसत्ति होनेसे प्रतिभाका उदय होता है। उत्तम ग्रन्थकार इसी समय ग्रन्थ लिख रहे होते हैं।

आयुर्वेदीय लाभ

ब्राह्ममुहूर्त में जागरण के अनन्तर जल पीने के आयुर्वेदीय लाभ-आठ अंजलि (लगभग १ गिलास) रात्रि में ताम्र पात्र में रखा पानी पीता है और ऐसा नियमपूर्वक करता है वह जरा-वृद्धत्व को सहज प्राप्त नहीं होकर, आरोग्य लाभ प्राप्त करते शतायु होने का गुण लाभ प्राप्त करता है।

भाव प्रकाश में स्पष्ट उल्लेख है कि-

सवितुरूदयकाले प्रसृतिः सलिलस्य य: पिवेदष्टौ।रोगजरापरिमुक्तो जीवेद्वत्सरशतं साग्रम् ॥

अम्भसः प्रसृतोरष्टौ सूर्याऽनुदिते पिबेत् । वातपित्तकफान् जित्वा जीवेद्वर्षशतं सुखी॥

भावार्थ- यह कि सूर्योदय पूर्व में जल की आठ अंजलि जो मनुष्य पीता है, वह वृद्धावस्था से मुक्त होकर सौ वर्ष तक जीता है। सूर्योदय पूर्व जलपान से वात-पित्त-कफ विकृति दूर होकर शतायु का वरदान प्राप्त होता है।साथ ही उष: पान विधान से बवासीर-कोष्ठबद्धता, कब्ज, शोथ, संग्रहणी, ज्वर, जठर, जरा, कुष्ठ, मेद विकार, मूत्राघात, रक्तपत्ति, कर्णविकार, गलरोग, शिरारोग, कटिशूल, नेत्र रोगों का पलायन होता है।

रात्रि का अंधकार दूर होने पर जो मनुष्य प्रात:काल नाक से पानी पीता है, उसकी बुद्धि सचेष्ट होते, नेत्रों की दृष्टि गरूड़ के सदृश्य हो जाती है तथा विविध रोगों के नष्ट होने की पात्रता प्राप्त होती है। अधिक जल पीने से अन्न नहीं पचता। मनुष्य को अग्नि बढाने के लिये जल थोड़ा-थोड़ा, बार-बार पीना चाहिये।मूर्छा-पित्त-गरमी-दाह-विष-रक्त विकारमदात्य-परिश्रम, भ्रम, तमकश्वास, वमन और उर्ध्वगत रक्त पित्त इन रोगों में शीतल जल पीना चाहिये। परन्तु पसली के दर्द, जुकाम, वायु विकार, गले के रोग, कब्ज-कोष्ठबद्धता, जुलाब लेने के बाद, नवज्वर, अरूचि, संग्रहणी, गुल्म, खांसी, हिचकी रोग में शीतल जल नहीं पीना चाहिए कुछ गरम करके जल पीना चाहिये।

साथ ही कथन यह भी कि- मंदाग्नि, शोध-सूजन, क्षय, मुख से जल बहने, उदर रोग, नेत्र रोग, ज्वर, अल्सर तथा मधुमेह में थोड़ा पानी पीना चाहिए। शीतल जल का पाचन दो प्रहर में होता है तथा गरम करके शीतल किया हुआ जल १ प्रहर में ही पच जाता है। गुनगुना पानी अगर पिया जाए तो चार घड़ी में ही पच जाता है। आहार तथा पानी कभी साथ साथ नहीं लेना चाहिए। पानी और भोजन साथ साथ लेने से गैस-वायु विकार बनता है तथा पाचक रस मन्द होते, पाचन क्रिया शिथिल होती है। मल आंतों में जमकर रक्त रस का निर्माण न्यून हो जाता है भोजन के मध्य भाग में कुछ जल पीना तथा भोजनोपरान्त १ या आधा घंटे बाद पानी पीना हितकर रहता है । ताम्बे के पात्र में रात में रखा जल सुबह सूर्योदय पूर्व तुलसी के पत्तों के साथ पीने से सोने में सुहागे समान धर्म समझना चाहिये।

निष्कर्ष

  • धार्मिक महत्व
  • वातावरण की सात्त्विकता एवं शुद्ध वायु की प्राप्ति (आक्सिजन गैस)
  • सूर्य शक्ति का अवलम्बन
  • मस्तिष्क का शुद्ध तथा शान्त एवं नवशक्तियुक्त होना(मानसिक लाभ)
  • आयुर्वेदीय लाभ (जल पान आदि से शारीरिक लाभ)

प्रातःस्मरण एवं दैनिक कृत्य सूची निर्धारण।

प्रातः काल में किया हुआ गान भी अपने तथा दूसरों के आकर्षणका साधन होता है। जब उसमें भी भगवद्भक्ति ओत-प्रोत हो; तो फिर तो क्या कहना इसलिए प्रातः भगवान्को आकृष्ट करनेके लिए, तथा स्वयं भी तन्मयीभावार्थ कई राग वा भजन गाये जाते हैं, जिससे हमारा भावी दैनिक कार्यक्रम भी सुन्दर और निष्पाप बने। पर हमारी लौकिक भाषा अपभ्रंश भाषा होनेसे भगवान् के उतने निकट नहीं पहुँच पाती। देवभाषा देवोंसे प्राप्त हुई एक भाषा है, इससे हम देवों तथा देवाधिपति भगवान के निकट उन शब्दोंको शीघ्र पहुँचा सकते हैं। यद्यपि वैदिक-शब्द तो उससे भी बहुत निकटताकारक हैं। पर उस समय हम अस्नात(स्नानादि न किया हुआ) होनेसे उनमें अधिकृत नहीं। उनका तो स्नानोत्तर सन्ध्या आदिमें उपयोग करना पड़ता है। अतः शयनसे उठते ही संस्कृत पद्योंकी आवश्यकता पड़ती है। पद्यकी रचना लययुक्त होनेसे तन्मयतामें विशेष साधन बन जाती है। इनमें कई इस प्रकारके भी पद्य होते हैं, जो भगवान के ध्यानके साथ ही हमें धर्म तथा अपने देशके आन्तरिक परिचय करानेवाले भी होते हैं। इससे हम उस अपने देश तथा अपने धर्मको छोड़ने वा उससे द्रोह करनेका कभी स्वप्न भी नहीं देख पाते। अपने जीवनदाता एवं त्राणकर्ता उस प्रभुको तथा पूर्वोल्लिखित वेदमन्त्रों में कहे हुए देवोंको उस सात्त्विक समयमें स्मरण करना हमें भविष्यत्में भी असन्मार्ग में जाने नहीं देता। प्रातः स्मरणके कुछ पद्य -

प्रातःस्मरणीय श्लोक गणेशस्मरण

प्रातः स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुसिन्दूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मम्। उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डमाखण्डलादिसुरनायकवृन्दवन्द्यम्॥

अनु- अनाथोंके बन्धु, सिन्दूरसे शोभायमान दोनों गण्डस्थल- वाले, प्रबल विघ्नका नाश करनेमें समर्थ एवं इन्द्रादि देवोंसे नमस्कृत श्रीगणेशजीका मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ। (विष्णुस्मरण)

प्रातः स्मरामि भवभीतिमहार्तिनाशं नारायणं गरुडवाहनमब्जनाभम्। ग्राहाभिभूतवरवारणमुक्तिहेतुंचक्रायुधं तरुणवारिजपत्रनेत्रम्॥

अनु- संसारके भयरूपी महान् दुःखको नष्ट करनेवाले, ग्राहसे गजराजको मुक्त करनेवाले, चक्रधारी एवं नवीन कमलदलके समान नेत्रवाले, पद्मनाभ गरुडवाहन भगवान् श्रीनारायणका मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ। (शिवस्मरण)

प्रातः स्मरामि भवभीतिहरं सुरेशं गङ्गाधरं वृषभवाहनमम्बिकेशम्। खट्वाङ्गशूलवरदाभयहस्तमीशंसंसाररोगहरमौषधमद्वितीयम् ॥

अनु-संसारके भयको नष्ट करनेवाले, देवेश, गंगाधर, वृषभवाहन, पार्वतीपति, हाथमें खट्वांग एवं त्रिशूल लिये और संसाररूपी रोगका नाश करनेके लिये अद्वितीय औषध-स्वरूप, अभय एवं वरद मुद्रायुक्त हस्तवाले भगवान् शिवका मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ। (देवीस्मरण)

प्रात: स्मरामि शरदिन्दुकरोज्ज्वलाभां सद्रलवन्मकरकुण्डलहारभूषाम् । दिव्यायुधोर्जितसुनीलसहस्त्रहस्तां रक्तोत्पलाभचरणां भवतीं परेशाम्॥

अनु-शरत्कालीन चन्द्रमाके समान उज्ज्वल आभावाली, उत्तम रत्नोंसे जटित मकरकुण्डलों तथा हारोंसे सुशोभित, दिव्यायुधोंसे दीप्त सुन्दर नीले हजारों हाथोंवाली, लाल कमलकी आभायुक्त

चरणोंवाली भगवती दुर्गादेवीका मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ।

(सूर्यस्मरण)

प्रातः स्मरामि खलु तत्सवितुर्वरेण्यं रूपं हि मण्डलमृचोऽथ तनुर्यजूंषि सामानि यस्य किरणाः प्रभवादिहेतुं ब्रह्माहरात्मकमलक्ष्यमचिन्त्यरूपम् ॥

अनु-सूर्यका वह प्रशस्त रूप जिसका मण्डल ऋग्वेद, कलेवर यजुर्वेद तथा किरणें सामवेद हैं । जो सृष्टि आदिके कारण हैं, ब्रह्मा और शिवके स्वरूप हैं तथा जिनका रूप अचिन्त्य और अलक्ष्य है, प्रात:काल मैं उनका स्मरण करता हूँ। ( त्रिदेवोंके साथ नवग्रहस्मरण)

ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च । गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥(मार्क०स्मृ०)

अनु-ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु-ये सभी मेरे प्रात:कालको मंगलमय करें। (ऋषिस्मरण)

भृगुर्वसिष्ठः क्रतुरङ्गिराश्च मनुः पुलस्त्यः पुलहश्च गौतमः। रैभ्यो मरीचिश्च्यवनश्च दक्षः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥(वामनपु०१४।३३)

अनु-भृगु, वसिष्ठ, क्रतु, अंगिरा, मनु, पुलस्त्य, पुलह, गौतम, रैभ्य, मरीचि, च्यवन और दक्ष-ये समस्त मुनिगण मेरे प्रात:कालको मंगलमय करें।

सनत्कुमारः सनकः सनन्दनः सनातनोऽप्यासुरिपिङ्गलौ।सप्त स्वराः सप्त रसातलानि कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥

सप्तार्णवाः सप्त कुलाचलाश्च सप्तर्षयो द्वीपवनानि सप्त।भूरादिकृत्वा भुवनानिसप्त कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥ (वामनपु० १४॥ २४, २७)

अनु-धैवत सनत्कुमार, सनक, सनन्दन, सनातन, आसुरि और पिंगल-ये ऋषिगण; षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, तथा निषाद- ये सप्त स्वर; अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल तथा पाताल-ये सात अधोलोक सभी मेरे प्रात:कालको मंगलमय करें। सातों समुद्र, सातों कुलपर्वत, सप्तर्षिगण, सातों वन तथा सातों द्वीप, भूर्लोक, भुवर्लोक आदि सातों लोक सभी मेरे प्रात:कालको मंगलमय करें। (प्रकृतिस्मरण)

पृथ्वी सगन्धा सरसास्तथापः स्पर्शी च वायुर्चलितं च तेजः। नभः सशब्दं महता सहैव कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥(वामनपु० १४ । २६)

अनु-गन्धयुक्त पृथ्वी, रसयुक्त जल, स्पर्शयुक्त वायु, प्रज्वलित तेज, शब्दसहित आकाश एवं महत्तत्त्व-ये सभी मेरे प्रात:कालको मंगलमय करें।

इत्थं प्रभाते परमं पवित्रं पठेत् स्मरेद्वा शृणुयाच्च भक्त्या। दुःस्वप्ननाशस्त्विह सुप्रभातं भवेच्च नित्यं भगवत्प्रसादात्॥

अनु-इस प्रकार उपर्युक्त इन प्रात:स्मरणीय परम पवित्र श्लोकोंका जो मनुष्य भक्तिपूर्वक प्रात:काल पाठ करता है, स्मरण करता है अथवा सुनता है, भगवद्दयासे उसके दु:स्वप्नका नाश हो जाता है और उसका प्रभात मंगलमय होता है। पुण्यश्लोकोंका स्मरण

पुण्यश्लोको नलो राजा पुण्यश्लोको जनार्दनः। पुण्यश्लोका च वैदेही पुण्यश्लोको युधिष्ठिरः॥

अश्वत्थामा बलिया॑सो हनूमांश्च विभीषणः। कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः॥

अनु-राजा नल पुण्यकीर्तिवाले हैं, भगवान् जनार्दन पुण्यकीर्तिवाले हैं, माता सीता पुण्यकीर्तिशालिनी हैं और धर्मराज युधिष्ठिर पुण्यकीर्तिवाले हैं। अश्वत्थामा, बलि. वेदव्यास, हनुमान्, विभीषण, कृपाचार्य और परशुरामये सात चिरजीवी हैं।

सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्। जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः॥

इन सातों तथा आठवें जो मार्कण्डेयजी हैं, उनका नित्य स्मरण करना चाहिये । जो ऐसा करता है, उसकी अकालमृत्यु नहीं होती और वह सौ वर्षसे भी अधिक जीता है।

उमा उषा च वैदेही रमा गङ्गेति पञ्चकम्। प्रातरेव पठेन्नित्यं सौभाग्यं वर्धते सदा॥ सोमनाथो वैद्यनाथो धन्वन्तरिरथाश्विनौ। पञ्चैतान् यः स्मरेन्नित्यं व्याधिस्तस्य न जायते॥

अनु- उमा, उषा, सीता, लक्ष्मी तथा गंगा-इन पाँच नामोंका नित्य प्रात:काल पाठ करना चाहिये, इससे सौभाग्यकी सदा वृद्धि होती है। सोमनाथ, वैद्यनाथ, धन्वन्तरि तथा दोनों अश्विनीकुमारों-इन पाँचोंका जो नित्य स्मरण करता है, उसे कोई रोग नहीं होता।

कपिला कालियोऽनन्तो वासुकिस्तक्षकस्तथा।पञ्चैतान् स्मरतो नित्यं विषबाधा न जायते॥

हरं हरिं हरिश्चन्द्रं हनूमन्तं हलायुधम्। पञ्चक वैस्मरेन्नित्यं घोरसङ्कटनाशनम॥ (वामनपु० १४॥ २८)

कपिला गौ, कालिय, अनन्त, वासुकि तथा तक्षक नाग-इन पाँचोंका नित्य नाम-स्मरण करनेसे विषकी बाधा नहीं होती। भगवान् शिव, भगवान् विष्णु, हरिश्चन्द्र, हनुमान् तथा बलराम-इन पाँचोंका नित्य स्मरण करना चाहिये, यह (स्मरण) घोर संकटका नाश करनेवाला है।

आदित्यश्च उपेन्द्रश्च चक्रपाणिमहेश्वरः।दण्डपाणि: प्रतापी स्यात् क्षुत्तृड्बाधा न बाधते॥

वसुर्वरुणसोमौ च सरस्वती च सागरः।पञ्चैतान् संस्मरेद् यस्तु तृषा तस्य न बाधते॥(पद्मपु० ५१।६-७)

आदित्य, उपेन्द्र, चक्रपाणि विष्णु, महेश्वर तथा प्रतापी दण्डपाणिका स्मरण करनेसे भूख और प्यासको

दैनिक कृत्य-सूची-निर्धारण-इसी समय दिन-रातके कार्योंकी सूची तैयार कर लें।

आज धर्मके कौन-कौनसे कार्य करने हैं?

धनके लिये क्या करना है ?

शरीरमें कोई कष्ट तो नहीं है ?

यदि है तो उसके कारण क्या हैं और उनका प्रतीकार क्या है?

हस्तदर्शन का विज्ञान एवं भूमि वन्दन

प्रातः हाथका दर्शन शुभ हुआ करता है। कहा भी गया है-

कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती। करपृष्ठे च गोविन्दः प्रभाते कर-दर्शनम्।

इस पद्यमें हाथके अग्रभागमें लक्ष्मीका, मध्यभागमें सरस्वतीका और पृष्ठभागमें गोविन्दका निवास कहा है।

यह केवल 'कथनमात्र' नहीं; किन्तु ठीक भी है। हाथका महत्त्व किससे छिपा है | इसी हाथसे हम लक्ष्मी कमाते हैं, तब 'कराग्रे वसते लक्ष्मीः ठीक ही हुआ। इसी हाथसे लिखना-पढ़ना सीखकर हम सरस्वतीदेवीको प्राप्त करते हैं, तब 'करमध्ये सरस्वती' भी कहना ठीक हुआ। इसी हाथसे हम मालाकी मणियां घुमाकर भगवान् का स्मरण तथा जप करके गोविन्द को प्राप्त करते हैं। तब 'करपृष्ठे च गोविन्दः' कहना भी ठीक हुआ।

संसारके सर्वस्व लक्ष्मी, सरस्वती और गोविन्द' जब हाथमें आ गये; तो हाथमें बड़ी शक्ति सिद्ध हुई । संसारमें यही तो वस्तुएँ अपेक्षित हैं, और चाहिये क्या ? ऐसी शक्तिको धारण करनेवाले, हमारी संसार-यात्राके एकमात्र अवलम्ब एवं लक्ष्मी आदिके प्रतिनिधि हाथका प्रातःकाल दर्शन शुभकारक ही सिद्ध हुआ; क्योंकि इसी हाथसे ही तो हमें सभी कार्य करने हैं।

केवल पुराण ही हाथकी महत्ता बताते हों; ऐसा भी नहीं है। वेद भी उस हाथकी महत्ता इससे भी बढ़कर बताते हैं । देखिये-

अयं मे हस्तो भगवान अयं मे भगवत्तरः । अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः' (ऋ० १०।६०।१२)

इस मन्त्रका देवता भी 'हस्त' है। इसमें हाथको भगवान और अतिशयितसामर्थ्ययुक्त और सब रोगोंका भेषजभूत (दवाईरूप) साधन-सम्पन्न स्वीकृत किया है।

जो जितनी अधिक शक्तिवाला होगा; उसके हाथ में शक्ति भी उतनी ही अधिक होगी। इसलिए हम जिनकी वन्दना करके उनका आशीर्वाद चाहते हैं; वे भी अपने हाथसे ही हमारे सिरको स्पर्श करके आशीर्वाद देते हैं। कई ज्यौतिष(सामुद्रिक)विद्याविशारद इसी हाथमें स्थित रेखाओं द्वारा विविध रोगियोंके रोगोंको दूर कर देते हैं ।हाथमें अमृत के भी स्थित होनेसे गुरुओं द्वारा शिष्यको हाथसे मारने पर भी

उन्हीं के सन्तान विद्वान्, सभ्य और सुशिक्षित होते हैं, जो पढ़ाने में सन्तानों का लाड़न कभी नहीं करते किन्तु ताड़ना ही करते रहते हैं। इसमें व्याकरण महाभाष्य का प्रमाण है-

सामृतैः पाणिभिर्घ्नन्ति गुरवो न विषोक्षितैः।

लालनाश्रयिणो दोषास्ताडनाश्रयिणो गुणाः।।

अर्थ-जो माता, पिता और आचार्य, सन्तान और शिष्यों का ताड़न करते हैं वे जानो अपने सन्तान और शिष्यों को अपने हाथ से अमृत पिला रहे हैं और जो सन्तानों वा शिष्यों का लाड़न करते हैं वे अपने सन्तानों और शिष्यों को विष पिला के नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं। क्योंकि लाड़न से सन्तान और शिष्य दोषयुक्त तथा ताड़ना से गुणयुक्त होते हैं और सन्तान और शिष्य लोग भी ताड़ना से प्रसन्न और लाड़न से अप्रसन्न सदा रहा करें। परन्तु माता, पिता तथा अध्यापक लोग ईर्ष्या, द्वेष से ताड़न न करें किन्तु ऊपर से भयप्रदान और भीतर से कृपादृष्टि रक्खें।

यह कथन प्रसिद्ध है। इससे हाथमें हानिजनक शत्रुओंकेलिए विष भी सन्निहित है-यह भी प्रतीत होता है। इस प्रकारके हमारे अवलम्बभूत, यजुर्वेद (बृहदारण्यकोपनिषद्) के

'सर्वेषां कर्मणार्थ हस्तौ एकायनम्' (२।४।११)

इन शब्दों में सब कर्मोके मूल-जिसके न होनेसे हम 'निहत्थे' कहे जाते हैं-सारी रात्रिके ग्रहनक्षत्रादि के प्रभावसे तथा प्रातःकालिक वायुसे पवित्र उस हाथके दर्शनसे हमारा शुभ होना सोपपत्तिक ही है।

प्रातः भूमिवन्दन

उस पर उठते ही पांव न रखना।

प्रातः उठते ही अपनी आश्रयभूत भारतभूमिकी वन्दना करनी श्रेयस्कर हुआ करती है। तभी तो कहा है-

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।

जन्मभूमिको स्वर्गसे भी बढ़कर माना गया है। इसीलिए वेदने भी उसे नमस्कार करनेका आदेश दिया है

शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमिः संधृता धृता। तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः' (अथर्व० १२।१।२६)।

नमो मात्रे पृथिव्यै नमो मात्रे पृथिव्यै' (यजु०६।२२)

यहाँ पर दो बार पृथिवी माताकी वन्दना करके वेदने अपने भक्तोंको उसकी पूजाका आदेश दे दिया है। इसीलिए वेदानुसारी पुराणोंने भी उसे नमस्कार करके उस पर पांव रखनेकी क्षमा चाही है।

समुद्रवसने देवि ! पर्वतस्तनमण्डिते। विष्णु-पत्नि ! नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे॥

इससे हम भारत-भूमिके भक्त भी बने रहेंगे, विलायती भूमियोंके प्रेमी न बनेंगे।

उठते ही पृथिवीपर एकदम पाँव रखना लौकिक दृष्टिसे भी ठीक नहीं, क्योंकि-सारी रात हम बिस्तर पर सोते हैं; उसमें भी शीतकालमें रजाईसे अपने आपको ढककर सोते हैं। इस कारण निद्राके सबबसे हमारे अन्दर उष्णता पर्याप्त होती है, विशेषकर पैरोंमें; क्योंकि तब पांव प्रायः ढके रहते हैं; उस समय ठण्डे परमाणुओंसे युक्त भूमिमें एकदम ही पाँव रखना ठीक नहीं; क्योंकि-गर्मी-सर्दी पांवके ही द्वारा हमारे शरीर में तत्क्षण संक्रांत होती है। अतः कुछ देर तक खाट पर बैठकर निद्रा पूर्णतया दूर करके जब अधिक ऊष्मा हटकर उसका समीभाव हो जाता है, तब पांवका भूमि पर रखना ठीक होता है।

इसके अतिरिक्त भारतभूमि हमारी माता है, हम उसके पुत्र हैं, जैसे कि अथर्ववेदसंहितामें कहा है-'माता भूमिः, पुत्रो अहं पपृथिव्याः' (१२।१।१२) और भूमि देवतारूप भी है। अतः उस पर पांव रखना उचित नहीं दीखता; पर अनिवार्य होनेसे कुछ समय उससे पादस्पर्शकेलिए क्षमा मांगना उचित भी है। हम जड़ पृथिवीसे प्रार्थना क्यों करें; तब हमें मूर्तिपूजक बनना पड़ेगा' ऐसा सोचना अपने आपको वेदानभिज्ञ सिद्ध करना है। अथर्व० तक

शौचाचार एवं स्नानविधि।

वस्त्रधारण एवं भस्मादि तिलक धारण विधि।

संध्याका समय,संध्या की आवश्यकता एवं संध्योपासन विधि।

पंचमहायज्ञ(ब्रह्मयज्ञ,पितृयज्ञ,देवयज्ञ,भूतयज्ञ,नृ(अतिथि)यज्ञ)।

भोजन विधि ।

पुराणादि अवलोकन,सायान्हकृत्य प्रभृति रात्रि शयनान्त विधि।

  1. मन्त्रपुष्पम् स्वमीदेवरूपानन्दः,रामकृष्ण मठ,खार,मुम्बई(नारायणोपनिषद ७९)पृ० ६१।
  2. श्रीमद्देवीभागवत,उत्तरखण्ड,गीताप्रेस गोरखपुर,(एकादश स्कन्ध अ० 1श्० 9/10 पृ० 654)।
  3. अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।१) पृ०४६२।
  4. (अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।३) पृ०४६१।
  5. अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।७) पृ०४६१।