Difference between revisions of "Importance of kusha (कुशा का महत्त्व)"
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महाभाष्यकार श्रीपतञ्जलि जी ने श्रीपाणिनिमुनिकी अष्टाध्यायी-निर्माणके समय में भी उनका, हाथों में कुशके पवित्रे पहिनना दिखलाया है। | महाभाष्यकार श्रीपतञ्जलि जी ने श्रीपाणिनिमुनिकी अष्टाध्यायी-निर्माणके समय में भी उनका, हाथों में कुशके पवित्रे पहिनना दिखलाया है। | ||
− | प्रमाणभूत आचार्यो दर्भपवित्रपाणिः शुचौ अवकाशे, प्राङ्मुख उपविश्य, महता प्रयत्नेन सूत्राणि प्रणयति स्म । तत्राशक्यं वर्णेनापि अनर्थकेन भवितुम्; किं पुनरियता सूत्रेण ॥<ref>पतञ्जलि महाभाष्य १।१।१ सूत्र तृतीय आह्निक</ref> | + | प्रमाणभूत आचार्यो दर्भपवित्रपाणिः शुचौ अवकाशे, प्राङ्मुख उपविश्य, महता प्रयत्नेन सूत्राणि प्रणयति स्म । तत्राशक्यं वर्णेनापि अनर्थकेन भवितुम्; किं पुनरियता सूत्रेण ॥<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A5%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%BD%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A5%E0%A4%AE%E0%A4%83_%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%83 पतञ्जलि] महाभाष्य १।१।१ सूत्र तृतीय आह्निक</ref> |
यहां श्रीपाणिनिका पूर्वमुख होने तथा दर्भसे पवित्र हाथवाला होनेसे उनके सूत्र-प्रणयनकर्मकी सफलता तथा निरर्थकताका अभाव दिखलाया है। | यहां श्रीपाणिनिका पूर्वमुख होने तथा दर्भसे पवित्र हाथवाला होनेसे उनके सूत्र-प्रणयनकर्मकी सफलता तथा निरर्थकताका अभाव दिखलाया है। | ||
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=== '''तर्पण - श्राद्ध''' === | === '''तर्पण - श्राद्ध''' === | ||
− | विष्णोदेहसमुद्भूताः कुशाः कृष्णास्तिलास्तथा । श्राद्धस्य रक्षणायालमेतत् प्राहुर्दिवौकसः॥ (मत्स्यपुराण २२।८९) | + | विष्णोदेहसमुद्भूताः कुशाः कृष्णास्तिलास्तथा । श्राद्धस्य रक्षणायालमेतत् प्राहुर्दिवौकसः॥(मत्स्यपुराण २२।८९) <ref>(मत्स्यपुराण अध्याय २२, श्लोक सं० ८९)[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A8%E0%A5%A8]</ref> |
'''अनु''' - कुश तथा काला तिल-ये दोनों भगवान् विष्णुके शरीरसे प्रादुर्भूत हुए हैं। अत: ये श्राद्धकी रक्षा करनेमें सर्वसमर्थ हैं-ऐसा देवगण कहते हैं। | '''अनु''' - कुश तथा काला तिल-ये दोनों भगवान् विष्णुके शरीरसे प्रादुर्भूत हुए हैं। अत: ये श्राद्धकी रक्षा करनेमें सर्वसमर्थ हैं-ऐसा देवगण कहते हैं। | ||
− | + | कुशोंकी भूमिको विद्युत के निरोधमें क्षमता संकेतित की गई है। तभी तो ध्यानके समय भूमिकी विद्युत्से विघ्न न हो, अतः भूमिपर रखे हुए आसनपर भगवान्ने कुशका निवेश भी आवश्यक माना है। इसी कारण पिण्डपितृयज्ञमें पिण्डोंके नीचे भी कुश रखे जाते हैं। | |
समूलाग्र हरित (जड़से अन्त तक हरे) तथा गोकर्णमात्र परिमाणके कुश श्राद्धमें उत्तम कहे गये हैं। | समूलाग्र हरित (जड़से अन्त तक हरे) तथा गोकर्णमात्र परिमाणके कुश श्राद्धमें उत्तम कहे गये हैं। | ||
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देवताओं को एक-एक, मनष्यों को दो-दो और पितरों को तीन-तीन अङ्जलि जल देना चाहिये। | देवताओं को एक-एक, मनष्यों को दो-दो और पितरों को तीन-तीन अङ्जलि जल देना चाहिये। | ||
− | ये तु पिण्डास्तृता दर्भा यैः कृतं पितृतर्पणम् अमेध्याशुचिलिप्ता ये तेषां त्यागो विधीयते ।। | + | ये तु पिण्डास्तृता दर्भा यैः कृतं पितृतर्पणम् अमेध्याशुचिलिप्ता ये तेषां त्यागो विधीयते ।। |
पिण्ड के नीचे तथा ऊपर की, तर्पण की तथा अपवित्र जगह में पड़ी हुई कुशाओं को त्याग देना चाहिये। | पिण्ड के नीचे तथा ऊपर की, तर्पण की तथा अपवित्र जगह में पड़ी हुई कुशाओं को त्याग देना चाहिये। | ||
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'स्नानमें, हवन, जपमें, दान, स्वाध्यायमें, पितृकर्ममें, सन्ध्योपासनमें और अभिवादनमें दोनों हाथों में कुश धारण करने चाहिये। कुशादिके बिना कोई भी कर्म पूर्ण नहीं होता है। | 'स्नानमें, हवन, जपमें, दान, स्वाध्यायमें, पितृकर्ममें, सन्ध्योपासनमें और अभिवादनमें दोनों हाथों में कुश धारण करने चाहिये। कुशादिके बिना कोई भी कर्म पूर्ण नहीं होता है। | ||
− | विना दर्भेण यत्कर्म विना सूत्रेण वा पुनः । राक्षसं तद्भवेत्सर्वन्नामुत्रेह फलप्रदम् | + | विना दर्भेण यत्कर्म विना सूत्रेण वा पुनः । राक्षसं तद्भवेत्सर्वन्नामुत्रेह फलप्रदम्| ( कूर्मपुराण, उत्तरार्ध १८।५० )|<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D-%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4 कूर्मपुराण, उत्तरार्ध, अष्टादशोऽध्यायः,। १८।५०] </ref> |
कुश और यज्ञोपवीतके बिना किया हुआ समस्त कर्म राक्षस कहलाता है और वह इहलोकमें फलप्रद नहीं होता है। | कुश और यज्ञोपवीतके बिना किया हुआ समस्त कर्म राक्षस कहलाता है और वह इहलोकमें फलप्रद नहीं होता है। | ||
− | + | कुशकी लोकोत्तर-शक्ति, पवित्र करनेकी योग्यता और पापको दूर कर देनेकी क्षमता बताई है। और उसका यज्ञकी वेदीमें उपयोग भी बताया है | |
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'एष एव विधिर्यत्र क्वचिद्धोमः ।<ref>पारस्कर गृह्यसूत्र १।१।५</ref> | 'एष एव विधिर्यत्र क्वचिद्धोमः ।<ref>पारस्कर गृह्यसूत्र १।१।५</ref> | ||
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तब यज्ञोंमें गृह्यसूत्रप्रोक्त कुशकण्डिकाकी वैदिकता भी सिद्ध हुई,और हवनात्मक यज्ञादि ( अग्निमुख गार्ह्य, स्मार्त्त, तान्त्रिक | तब यज्ञोंमें गृह्यसूत्रप्रोक्त कुशकण्डिकाकी वैदिकता भी सिद्ध हुई,और हवनात्मक यज्ञादि ( अग्निमुख गार्ह्य, स्मार्त्त, तान्त्रिक | ||
− | और लौकिक हवन ) सभी शान्तिक, पौष्टिक तथा प्रायश्चित्तादि कर्मोमें कुशकण्डिका करनी ही चाहिये कार्यों में कुशकण्डिका आवश्यक है यह भी सिद्ध | + | और लौकिक हवन ) सभी शान्तिक, पौष्टिक तथा प्रायश्चित्तादि कर्मोमें कुशकण्डिका करनी ही चाहिये हवनात्मक कार्यों में कुशकण्डिका आवश्यक है यह भी सिद्ध हुआ। |
− | अर्कः पलाशः खदिरो हपामार्गश्च पिप्पलः । औदुम्बरं शमी दूर्वा कुशाश्च समिधो नव ॥ | + | अर्कः पलाशः खदिरो हपामार्गश्च पिप्पलः । औदुम्बरं शमी दूर्वा कुशाश्च समिधो नव ॥<ref>मुकुन्द वल्लभ ज्यौतिषाचार्यः,कर्मठगुरुः,मोतीलाल बनारसीदास, पृ ़़१७५</ref> |
नवग्रहों की समिधा में कुश को केतु की समिधा बताया गया है केतु शांति विधानों में कुशा की मुद्रिका और कुशा की आहूतियां विशेष रूप से दी जाती हैं। | नवग्रहों की समिधा में कुश को केतु की समिधा बताया गया है केतु शांति विधानों में कुशा की मुद्रिका और कुशा की आहूतियां विशेष रूप से दी जाती हैं। | ||
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+ | सर्वाण्यभिविधायैवं कुशकूर्च समन्वितं।<ref>श्री मद्देवीभागवत,द्वितीय खण्ड,गीताप्रेस गोरखपुर पृ ़७५८</ref> | ||
रात्रि में जल में भिगो कर रखी कुशा के जल का प्रयोग कलश स्थापन में सभी पूजा में देवताओं के अभिषेक, प्राण प्रतिष्ठा, प्रायश्चित कर्म आदि में किया जाता है। | रात्रि में जल में भिगो कर रखी कुशा के जल का प्रयोग कलश स्थापन में सभी पूजा में देवताओं के अभिषेक, प्राण प्रतिष्ठा, प्रायश्चित कर्म आदि में किया जाता है। | ||
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केतु को अध्यात्म और मोक्ष का कारक माना गया है। देव पूजा में प्रयुक्त कुशा का पुन: उपयोग किया जा सकता है, परन्तु पितृ एवं प्रेत कर्म में प्रयुक्त कुशा अपवित्र हो जाती है। | केतु को अध्यात्म और मोक्ष का कारक माना गया है। देव पूजा में प्रयुक्त कुशा का पुन: उपयोग किया जा सकता है, परन्तु पितृ एवं प्रेत कर्म में प्रयुक्त कुशा अपवित्र हो जाती है। | ||
− | यज्ञ, हवन, यज्ञोपवीत, ग्रहशांति पूजन कार्यो में रुद्र कलश एवं वरुण कलश में जल भर कर सर्वप्रथम कुशा डालते | + | यज्ञ, हवन, यज्ञोपवीत, ग्रहशांति पूजन कार्यो में रुद्र कलश एवं वरुण कलश में जल भर कर सर्वप्रथम कुशा डालते हैं।कलश में कुशा डालने का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि कलश में भरा हुआ जल लंबे समय तक जीवाणु से मुक्त रहता है। |
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== कुशा आसन का महत्त्व == | == कुशा आसन का महत्त्व == | ||
− | कौशेयं कम्बलं चैव अजिनं पट्टमेव च । दारुजं तालपत्रं वा आसनं परिकल्पयेत्॥ | + | कौशेयं कम्बलं चैव अजिनं पट्टमेव च । दारुजं तालपत्रं वा आसनं परिकल्पयेत्॥<ref>पं लालबिहारी मिश्र ,नित्यकर्म पूजाप्रकाश, गीताप्रेस गोरखपुर। (पृ ३५)</ref> |
'''अनु''' - कुश, कम्बल, मृगचर्म, व्याघ्रचर्म और रेशमका आसन जपादिके लिये विहित है । | '''अनु''' - कुश, कम्बल, मृगचर्म, व्याघ्रचर्म और रेशमका आसन जपादिके लिये विहित है । |
Revision as of 16:34, 26 May 2021
कु पापं श्यति नाशयति इति कुश: - जो पापों का शमन करने वाला हो उसे कुश कहते हैं । अध्यात्म और कर्मकांड शास्त्र में प्रमुख रूप से काम आने वाली वनस्पतियों में कुश का प्रमुख स्थान है कुश का प्रयोग प्राचीन काल से ही किया जाता रहा है। यह एक प्रकार की घास है, जिसे अत्यधिक पावन मान कर पूजा में इसका प्रयोग किया जाता है।। इसको कुश ,दर्भ अथवा दाब भी कहते हैं। जिस प्रकार अमृतपान के कारण केतु को अमरत्व का वर मिला है, उसी प्रकार कुश भी अमृत तत्त्व से युक्त है।कुश जिसे सामान्य घास समझा जाता है उसका बहुत ही बड़ा महत्व है , कुशा के अग्र भाग जो की बहुत ही तीखा होता है इसीलिए उसे कुशाग्र कहते हैं तीक्ष्ण बुद्धि वालो को भी कुशाग्र इसीलिए कहा जाता है ।
कुशोंका महत्त्व और भी देखिये-
त्वामाहुर्देव वर्म ! त्वां दर्भ ! ब्रह्मणस्पतिम् । त्वामिन्द्रस्य आहुर्वमे, त्वं राष्ट्राणि रक्षसि॥ (अथर्व० १६।३०।३)
इस मन्त्रमें कुशोंको देवताओंका कवचरूप माना गया है। तब कुशों की भूत-प्रेतोंकी बाधाको दूर करने में क्षमता भी सिद्ध हो गई कई व्यक्ति भूतप्रेतोंको कीटाणुरूपमें मानते हैं; तब इनकी कीटाणुओंको दूर करनेकी शक्ति भी सिद्ध होगई।
कुशमें त्रिदेवका निवास -
कुशमूले स्थितो ब्रह्मा कुशमध्ये जनार्दनः ।
कुशाग्रे शङ्करो देवः त्रयो देवाः कुशे स्थिताः॥(य.मी [1] )
अनु - कुशके मूल में ब्रह्मा, कुशके मध्य में जनार्दन (विष्णु) और कुशके अग्रभागमें भगवान् शङ्कर-ये तीनों देवता कुश में निवास करते हैं।[1]
प्रादेशमात्रं दर्भ: स्याद् द्विगुणं कुशमुच्यते । कृतरनिर्भवेद्बर्हिस्तदूर्ध्वं तृणमुच्यते ॥[2]
अनु - एक प्रादेश (अँगूठा और तर्जनी फैलाना) का दर्भ, दो प्रादेश की कुशा और हाथ की कोहनी से कनिष्ठा अँगुली की जड़ पर्यन्त का बर्हि कहा जाता है, इससे लम्बा तृण कहलाता है।
मेध्या वैदर्भाः, मेध्यो भूत्वा दीः इति । पवित्रं वै दर्भाः। पवित्रपूतो दीः इति । तस्माद् एनं दर्भ-पवित्रेण पावयति' (शतपथ ३।१।३।१८)
अनु -यहाँ मनुष्यको असत्यभाषी होनेसे भीतरसे अपवित्र बताया गया है किन्तु असत्यभाषी अपवित्र मनुष्यकी भी पवित्रता कुशों के धारण करने से बताई गई हैं।
यद् द्वमन्त्य उदायन् ,तस्माद् दर्भाः। ता ह एताः शुद्धा मेधा आपो वृत्राभिप्रक्षरिता यद् दर्भा, यदु दर्भाः, तेन ओषधयः' (१२।३।२) यहां पर पापों तथा रोगोंकी दूर करनेकी शक्ति दर्भमैं कहकर उन्हें ओषधिस्वरूप बताया गया है।
सनातनधर्म के प्रत्येक कर्मोमें-चाहे मृतककर्म हो, चाहे विवाहादि शुभ कर्म हो कुशों का उपयोग आदिष्ट किया गया है। वेदमें अन्य भी इसके लिए कहा है-
ब्राह्मणभागात्मक वेद-शतपथ (वाजसनेयक)में भी कहा है-'या वै वृत्राद्बीभत्समाना आपो धन्व भन्त्य उदायन, ते दर्भा अभवन [यहाँ दर्भ की उत्पत्ति बतलाई गई है] ।
यद् द्वमन्त्य उदायन् ,तस्माद् दर्भाः। ता ह एताः शुद्धा मेधा आपो वृत्राभिप्रक्षरिता यद् दर्भा, यदु दर्भाः, तेन ओषधयः' (१२।३।२) यहां पर पापों तथा रोगोंकी दूर करनेकी शक्ति दर्भमैं कहकर उन्हें ओषधिस्वरूप बताया गया है।
स नोऽयं दर्भः परिपातु विश्वतो देवो मणिरायुषा संसृजाति नः' (अथर्व० १६।३३।३)
दर्भो य उग्र ओषधिः तं ते बध्नामि आयुपे' (अ० १६।२।१)
इसमें कुशको आयु देनेवाला कहा गया है-उसमें कारण शरीरको दूषित करनेवाले कीटाणुओंका दूर करना ही है ।
कुश के सिरे नुकीले होते हैं उखाडते समय सावधानी रखनी पडती है कि जड सहित उखडे और हाथ भी न कटे पुरातन समय में गुरुजन अपने शिष्यों की परीक्षा लेते समय उन्हें कुश लाने के लिये कहते थे। कुश लाने में जिनके हाथ ठीक होते थे उन्हें कुशल कहा जाता था अर्थात उसे ही ज्ञान का सद्पात्र माना जाता था(कुशान् लाति यः सः कुशलः)कुशल शब्द इसीलिए बना ।
कुशा अमृत तत्त्व से युक्त
महर्षि कश्यप की दो पत्नियां थीं। एक का नाम कद्रू था और दूसरी का नाम विनता। कद्रू और विनता दोनों महर्षि कश्यप की खूब सेवा करती थीं।
महर्षि कश्यप ने उनकी सेवा-भावना से अभिभूत हो वरदान मांगने को कहा। कद्रू ने कहा, मुझे एक हजार पुत्र चाहिए। महर्षि ने ‘तथास्तु’ कह कर उन्हें वरदान दे दिया। विनता ने कहा कि मुझे केवल दो प्रतापी पुत्र चाहिए। महर्षि कश्यप उन्हें भी दो तेजस्वी पुत्र होने का वरदान देकर अपनी साधना में तल्लीन हो गए।
कद्रू के पुत्र सर्प रूप में हुए, जबकि विनता के दो प्रतापी पुत्र हुए। किंतु विनता को भूल के कारण कद्रू की दासी बनना पड़ा।
विनता के पुत्र गरुड़ ने जब अपनी मां की दुर्दशा देखी तो दासता से मुक्ति का प्रस्ताव कद्रू के पुत्रों के सामने रखा। कद्रू के पुत्रों ने कहा कि यदि गरुड़ उन्हें स्वर्ग से अमृत लाकर दे दें तो वे विनता को दासता से मुक्त कर देंगे।
गरुड़ ने उनकी बात स्वीकार कर अमृत कलश स्वर्ग से लाकर दे दिया और अपनी मां विनता को दासता से मुक्त करवा लिया।
यह अमृत कलश ‘कुश’ नामक घास पर रखा था, जहां से इंद्र इसे पुन: उठा ले गए तथा कद्रू के पुत्र अमृतपान से वंचित रह गए।
उन्होंने गरुड़ से इसकी शिकायत की कि इंद्र अमृत कलश उठा ले गए। गरुड़ ने उन्हें समझाया कि अब अमृत कलश मिलना तो संभव नहीं, हां यदि तुम सब उस घास (कुश) को, जिस पर अमृत कलश रखा था, जीभ से चाटो तो तुम्हें आंशिक लाभ होगा।
कद्रू के पुत्र कुश को चाटने लगे, जिससे कि उनकी जीभें चिर गई इसी कारण आज भी सर्प की जीभ दो भागों वाली चिरी हुई दिखाई पड़ती है एवं‘कुश’ घास की महत्ता अमृत कलश रखने के कारण बढ़ और गई इस घास के प्रयोग का तात्पर्य मांगलिक कार्य एवं सुख-समृद्धिकारी है, क्योंकि इसका स्पर्श अमृत से हुआ है।[3]
जब भगवान विष्णु ने वराह रूप धारण कर समुद्रतल में छिपे महान असुर हिरण्याक्ष का वध कर दिया और पृथ्वी को उससे मुक्त कराकर बाहर निकले तो उन्होंने अपने बालों को फटकारा। उस समय कुछ रोम पृथ्वी पर गिरे। वहीं कुश के रूप में प्रकट हुए।[4]
सनातन धर्म में किए जाने वाले विभिन्न धार्मिक कर्म-कांडों में अक्सर कुश (विशेष प्रकार की घास) का उपयोग किया जाता है। इसका धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक कारण भी है।वैज्ञानिक शोधों से यह भी पता चला है कि कुश ऊर्जा का कुचालक है। इसीलिए सूर्य व चंद्रग्रहण के समय इसे भोजन तथा पानी में डाल दिया जाता है जिससे ग्रहण के समय पृथ्वी पर आने वाली किरणें कुश से टकराकर परावर्तित हो जाती हैं तथा भोजन व पानी पर उन किरणों का विपरीत असर नहीं पड़ता।
कुशा का प्रयोग
भारत में सनातन धर्मी लोग इसे निम्न लिखित विषयों मे प्रयोग कर्ते हैं-
- देव-पूजा(नित्य,नैमित्तिक,काम्य आदि)
- तर्पण - श्राद्ध (एकोद्दिष्ट,पार्वणिक,काम्य(त्रिपिण्डी श्राद्ध,नारायण बली )आदि)
- यज्ञ या हवन
संध्योपासन,नित्य पूजन,गणेश गौरी कलश विष्णु आदि देव पूजन में अग्र और मूल सहित दो कुशाओं की पवित्री दोनों हाथों की अनामिका उंगली में धारण करनी चाहिये एवं संकल्प आदि विविध पूजन संबन्धी कार्यों में कुश की आवश्यकता पड़ती है।
जपहोमहरा ह्य ते श्रसुरा दैत्यरूपिणः ।पवित्रकृतहस्तस्य विद्रवन्ति दिशो दश ।।
यथा वज्रं सुरेन्द्रस्य यथा चकं हरेस्तथा।त्रिशूलं च त्रिनेत्रस्य ब्राह्मणस्य पवित्रकम ।।[5]
अनु - जप और होमके फलको हरण करनेवाले दैत्यरूपी असुर हाथमें पवित्र धारण किये हुए ब्राह्मण को देखकर दशों दिशाओं में भाग जाते हैं। जैसे इन्द्रका वज्र, विष्णुका चक्र और शिवका त्रिशूल शस्त्र कहा गया है, वैसे ही ब्राह्मण का रक्षक शस्त्र पवित्र कहा गया है।
कुशेन रहिता पूजा विफला कथिता मया ॥[6]
अनु- कुशके बिना जो पूजा होती है, वह निष्फल कही गई है ।
जपे होमे तथा दाने स्वाध्याये पितृकर्मणि । अशून्यं तु करं कुर्यात् सुवर्णरजतैः कुशैः॥[7]
अर्थात् जप, होम, दान, स्वाध्याय तथा पितृकार्यमें कुशकी पवित्री अथवा सुवर्ण, रजत आदि धारण करना चाहिये किन्तु हाथ शून्य न रहे ।
उदकेन विना पूजा विना दर्भेण या क्रिया । श्राज्येन च विना होमः फलं दास्यन्ति नैव ते।।[8]
अनु- जलके बिना जो पूजा है, कुशके बिना जो यज्ञादि क्रिया है और घृतके बिना जो होम है, वह कदापि फलप्रद नहीं होता।
कुशोपयोग शास्त्रीय ही है -
महाभाष्यकार श्रीपतञ्जलि जी ने श्रीपाणिनिमुनिकी अष्टाध्यायी-निर्माणके समय में भी उनका, हाथों में कुशके पवित्रे पहिनना दिखलाया है।
प्रमाणभूत आचार्यो दर्भपवित्रपाणिः शुचौ अवकाशे, प्राङ्मुख उपविश्य, महता प्रयत्नेन सूत्राणि प्रणयति स्म । तत्राशक्यं वर्णेनापि अनर्थकेन भवितुम्; किं पुनरियता सूत्रेण ॥[9]
यहां श्रीपाणिनिका पूर्वमुख होने तथा दर्भसे पवित्र हाथवाला होनेसे उनके सूत्र-प्रणयनकर्मकी सफलता तथा निरर्थकताका अभाव दिखलाया है।
कुश का वैज्ञानिक महत्व
कुश की अंगूठी बनाकर अनामिका उंगली में पहनने का विधान है, ताकि हाथ द्वारा संचित आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए, क्योंकि अनामिका के मूल में सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की उंगली है।[10]
सूर्य से हमें जीवनी शक्ति, तेज और यश प्राप्त होता है। दूसरा कारण इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकना भी है। कर्मकांड के दौरान यदि भूलवश हाथ भूमि पर लग जाए, तो बीच में कुश का ही स्पर्श होगा। इसलिए कुश को हाथ में भी धारण किया जाता है। इसके पीछे मान्यता यह भी है कि हाथ की ऊर्जा की रक्षा न की जाए, तो इसका दुष्परिणाम हमारे मस्तिष्क और हृदय पर पडता है।
तर्पण - श्राद्ध
विष्णोदेहसमुद्भूताः कुशाः कृष्णास्तिलास्तथा । श्राद्धस्य रक्षणायालमेतत् प्राहुर्दिवौकसः॥(मत्स्यपुराण २२।८९) [11]
अनु - कुश तथा काला तिल-ये दोनों भगवान् विष्णुके शरीरसे प्रादुर्भूत हुए हैं। अत: ये श्राद्धकी रक्षा करनेमें सर्वसमर्थ हैं-ऐसा देवगण कहते हैं।
कुशोंकी भूमिको विद्युत के निरोधमें क्षमता संकेतित की गई है। तभी तो ध्यानके समय भूमिकी विद्युत्से विघ्न न हो, अतः भूमिपर रखे हुए आसनपर भगवान्ने कुशका निवेश भी आवश्यक माना है। इसी कारण पिण्डपितृयज्ञमें पिण्डोंके नीचे भी कुश रखे जाते हैं।
समूलाग्र हरित (जड़से अन्त तक हरे) तथा गोकर्णमात्र परिमाणके कुश श्राद्धमें उत्तम कहे गये हैं।
अग्रैस्तु तर्पयेद देवान् मनुष्यान् कुशमध्यतः।पितृस्तु कुशमूलाविधिः कौशो यथाक्रमम् ॥ १२२.
देवताओं को एक-एक, मनष्यों को दो-दो और पितरों को तीन-तीन अङ्जलि जल देना चाहिये।
ये तु पिण्डास्तृता दर्भा यैः कृतं पितृतर्पणम् अमेध्याशुचिलिप्ता ये तेषां त्यागो विधीयते ।।
पिण्ड के नीचे तथा ऊपर की, तर्पण की तथा अपवित्र जगह में पड़ी हुई कुशाओं को त्याग देना चाहिये।
चितौ दर्भाः पथिदर्भा ये दर्भा यज्ञभूमिषु । स्तरणासनपिण्डेषु षट् कुशान् परिवर्जयेत् ॥ हता मूत्रपुरीषाभ्यां तेषां त्यागो विधीयते॥(श्राद्धसंग्रह, श्राद्धविवेक, श्राद्धकल्पलता)
यज्ञ या हवन
स्नाने होमे जपे दाने स्वाध्याये पितृकर्मणि । करौ सदर्भी कुर्वीत तथा सन्ध्याभिवादने । (प्रयोगपारिजात )
'स्नानमें, हवन, जपमें, दान, स्वाध्यायमें, पितृकर्ममें, सन्ध्योपासनमें और अभिवादनमें दोनों हाथों में कुश धारण करने चाहिये। कुशादिके बिना कोई भी कर्म पूर्ण नहीं होता है।
विना दर्भेण यत्कर्म विना सूत्रेण वा पुनः । राक्षसं तद्भवेत्सर्वन्नामुत्रेह फलप्रदम्| ( कूर्मपुराण, उत्तरार्ध १८।५० )|[12]
कुश और यज्ञोपवीतके बिना किया हुआ समस्त कर्म राक्षस कहलाता है और वह इहलोकमें फलप्रद नहीं होता है।
कुशकी लोकोत्तर-शक्ति, पवित्र करनेकी योग्यता और पापको दूर कर देनेकी क्षमता बताई है। और उसका यज्ञकी वेदीमें उपयोग भी बताया है
'एष एव विधिर्यत्र क्वचिद्धोमः ।[13]
'उपयमनप्रभृत्यौपासनस्य परिचरणम् ।' ( पा० गृ० सू० १।६।१ )
तब यज्ञोंमें गृह्यसूत्रप्रोक्त कुशकण्डिकाकी वैदिकता भी सिद्ध हुई,और हवनात्मक यज्ञादि ( अग्निमुख गार्ह्य, स्मार्त्त, तान्त्रिक
और लौकिक हवन ) सभी शान्तिक, पौष्टिक तथा प्रायश्चित्तादि कर्मोमें कुशकण्डिका करनी ही चाहिये हवनात्मक कार्यों में कुशकण्डिका आवश्यक है यह भी सिद्ध हुआ।
अर्कः पलाशः खदिरो हपामार्गश्च पिप्पलः । औदुम्बरं शमी दूर्वा कुशाश्च समिधो नव ॥[14]
नवग्रहों की समिधा में कुश को केतु की समिधा बताया गया है केतु शांति विधानों में कुशा की मुद्रिका और कुशा की आहूतियां विशेष रूप से दी जाती हैं।
सर्वाण्यभिविधायैवं कुशकूर्च समन्वितं।[15]
रात्रि में जल में भिगो कर रखी कुशा के जल का प्रयोग कलश स्थापन में सभी पूजा में देवताओं के अभिषेक, प्राण प्रतिष्ठा, प्रायश्चित कर्म आदि में किया जाता है।
केतु को अध्यात्म और मोक्ष का कारक माना गया है। देव पूजा में प्रयुक्त कुशा का पुन: उपयोग किया जा सकता है, परन्तु पितृ एवं प्रेत कर्म में प्रयुक्त कुशा अपवित्र हो जाती है।
यज्ञ, हवन, यज्ञोपवीत, ग्रहशांति पूजन कार्यो में रुद्र कलश एवं वरुण कलश में जल भर कर सर्वप्रथम कुशा डालते हैं।कलश में कुशा डालने का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि कलश में भरा हुआ जल लंबे समय तक जीवाणु से मुक्त रहता है।
कुशा आसन का महत्त्व
कौशेयं कम्बलं चैव अजिनं पट्टमेव च । दारुजं तालपत्रं वा आसनं परिकल्पयेत्॥[16]
अनु - कुश, कम्बल, मृगचर्म, व्याघ्रचर्म और रेशमका आसन जपादिके लिये विहित है ।
इसपर बैठकर साधना करने से आरोग्य, लक्ष्मी प्राप्ति, यश और तेज की वृद्घि होती है। साधक की एकाग्रता भंग नहीं होती। कुशा की पवित्री उन लोगों को जरूर धारण करनी चाहिए, जिनकी राशि पर ग्रहण पड़ रहा है। कुशा मूल की माला से जाप करने से अंगुलियों के एक्यूप्रेशर बिंदु दबते रहते हैं, जिससे शरीर में रक्त संचार ठीक रहता है।
कुश से बने आसन पर बैठकर तप, ध्यान तथा पूजन आदि धार्मिक कर्म-कांडों से प्राप्त ऊर्जा धरती में नहीं जा पाती क्योंकि धरती व शरीर के बीच कुश का आसन कुचालक का कार्य करता है।
कुशके अभाव में दूर्वा ग्राह्य है कुशस्थाने च दूर्वाः स्युर्मङ्गलस्याभिवृद्धये।[17]
अनु -माङ्गलिक कार्योंकी अभिवृद्धिके लिये कुशके स्थानमें दूर्वा ग्राह्य है।
जब लंका पति रावण माता सीता जी का हरण कर उन्हें अशोक वाटिका ले गया , उसके बाद वह बार बार उन्हें प्रलोभित करने जाता था और माता सीता "इस कुशा को अपना सुरक्षा कवच बनाकर "" उससे बात करती थी।
कुशोत्पाटिनी अमावस्या का महत्व
- कुशोत्पाटिनी अमावस्या
- कुशके भेद
- कौन सा कुश उखाड़ेंं
- कुशाग्रहणी अमावस्या का पौराणिक महत्व
कुशोत्पाटिनी अमावस्या
मासि मास्वाहता दस्तित्तन्यास्येव चादृताः । [18]
कुश प्रत्येक दिन नई उखाडनी पडती है लेकिन अमावाश्या की तोडी कुशा पूरे महीने काम दे सकती है और भादों(भाद्रपद मास) की अमावश्या के दिन की तोडी कुशा पूरे साल काम आती है। इसलिए लोग इसे तोड के रख लते हैं।भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अमावस्या को शास्त्रों में कुशाग्रहणी या कुशोत्पाटिनी अमावस्या कहा जाता है खास बात ये है कि कुश उखाडऩे से एक दिन पहले बड़े ही आदर के साथ उसे अपने घर लाने का निमंत्रण दिया जाता है। हाथ जोड़कर प्रार्थना की जाती है।मंत्र का जाप करते हुए कुश को उखाडऩा है उसे अपने साथ घर लाना है और एक साल तक घर पर रखने से आपको शुभ फल प्राप्त होंगे।कुश का प्रयोग पूजा करते समय जल छिड़कने, उन्गलि में पवित्री पहनने, विवाह में मंडप छाने तथा अन्य मांगलिक कार्यों में किया जाता है। इस घास के प्रयोग का तात्पर्य मांगलिक कार्य एवं सुख-समृद्धिकारी है।
पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि।
अत: प्रत्येक गृहस्थ को इस दिन कुश का संचय करना चाहिये
कुशके भेद
शास्त्रों में सात प्रकार के कुशों का वर्णन मिलता है-
कुशाः काशास्तथा दूर्वा यवपत्राणि बोहयः।
बल्वजाः पुण्डरीकाश्च कुशाः सप्त प्रकीर्तिताः॥( पद्मपुराण, सृष्टिखण्ड ४६।३४,३५)
'कुश, काश, दूर्वा, जौका पत्ता, धानका पत्ता, बल्वज और कमल--ये सात प्रकारके कुश कहे गये हैं। इन सात प्रकारके कुशोंमें क्रमशः पूर्व-पूर्व कथित कुश अधिक पवित्र माने गये हैं।
यानि कुश, काश , दूर्वा, जौ पत्र इत्यादि कोई भी कुश आज उखाड़ी जा सकती है और उसका घर में संचय किया जा सकता है। लेकिन इस बात का ध्यान रखना बेहद जरूरी है कि हरी पत्तेदार कुश जो कहीं से भी कटी हुई ना हो , एक विशेष बात और जान लीजिए कुश का स्वामी केतु है लिहाज़ा कुश को अगर आप अपने घर में रखेंगे तो केतु के बुरे फलों से बच सकते हैं।ज्योतिष शास्त्र के नज़रिए से कुश को विशेष वनस्पति का दर्जा दिया गया है।
कौन सा कुश उखाड़ेंं
कुश उखाडऩे से पूर्व यह ध्यान रखें कि जो कुश आप उखाड़ रहे हैं वह उपयोग करने योग्य हो। ऐसा कुश ना उखाड़ें जो गन्दे स्थान पर हो, जो जला हुआ हो, जो मार्ग में हो या जिसका अग्रभाग कटा हो, इस प्रकार का कुश ग्रहण करने योग्य नहीं होता है।चितौ दर्भाः पथिदर्भा ये दर्भा यज्ञभूमिषु । स्तरणासनपिण्डेषु षट् कुशान् परिवर्जयेत् ॥ हता मूत्रपुरीषाभ्यां तेषां त्यागो विधीयते॥(श्राद्धसंग्रह, श्राद्धविवेक, श्राद्धकल्पलता)
कुशाग्रहणी अमावस्या का पौराणिक महत्व
कुशाग्रहणी अमावस्या के दिन तीर्थ, स्नान, जप, तप और व्रत के पुण्य से ऋण और पापों से छुटकारा मिलता है. इसलिए यह संयम, साधना और तप के लिए श्रेष्ठ दिन माना जाता है. पुराणों में अमावस्या को कुछ विशेष व्रतों के विधान है।भगवान विष्णु की आराधना की जाती है यह व्रत एक वर्ष तक किया जाता है. जिससे तन, मन और धन के कष्टों से मुक्ति मिलती है।
कुशाग्रहणी अमावस्या का विधि-विधान-
कुशोत्पाटिनी अमावस्या के दिन साल भर के धार्मिक कृत्यों के लिये कुश एकत्र लेते हैं. प्रत्येक धार्मिक कार्यो के लिए कुशा का इस्तेमाल किया जाता है. शास्त्रों में भी सात तरह की कुशा का वर्णन प्राप्त होता है. जिस कुशा का मूल सुतीक्ष्ण हो, इसमें सात पत्ती हो, कोई भाग कटा न हो, पूर्ण हरा हो, तो वह कुशा देवताओं तथा पितृ दोनों कृत्यों के लिए उचित मानी जाती है. कुशा तोड़ते समय मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।
कुश से बनी पवित्री (अंगूठी) पूजा /तर्पण के समय पहनी जाती है जिस भाग्यवान् ने सोने की अंगूठी पहनी हो उसको जरूरत नहीं है।
अघोर चतुर्दशी के दिन तर्पण कार्य भी किए जाते हैं मान्यता है कि इस दिन शिव के गणों भूत-प्रेत आदि सभी को स्वतंत्रता प्राप्त होती है. कुश अमावस्या के दिन किसी पात्र में जल भर कर कुशा के पास दक्षिण दिशाकी ओर अपना मुख करके बैठ जाएं तथा अपने सभी पितरों को जल दें, अपने घर परिवार, स्वास्थ आदि की शुभता की प्रार्थना करनी चाहिए।
अमायाश्च पितर:॥[19]
शास्त्रों में अमावस्या तिथि का स्वामी पितृदेव को माना जाता है ।
इसलिए इस दिन पितरों की तृप्ति के लिए तर्पण, दान-पुण्य का महत्व है। [20]
शास्त्रोक्त विधि के अनुसार आश्विन कृष्ण पक्ष में चलने वाला पन्द्रह दिनों के पितृ पक्ष का शुभारम्भ भादों मास की अमावस्या से ही हो जाती है संयम, साधना और तप के लिए कुशाग्रहणीअमावस्या का दिन इसीलिये बहुत श्रेष्ठ कहा गया है।
इसका इस्तेमाल ग्रहण के दौरान खाने-पीने की चीज़ों में रखने के लिए होता है
References
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- ↑ बृहदवकहड़ा चक्रम् तिथि प्रकरण पृ ़३
- ↑ संक्षिप्त श्री वराहपुराण,गीताप्रेस गोरखपुर पृ ८१