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विभिन्न प्रकार की शिक्षायोजना से व्यक्ति की... किस प्रकार किया जा सकता है यह अब देखेंगे ।
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विभिन्न प्रकार की शिक्षायोजना से व्यक्ति की अंतर्निहित क्षमताओं का विकास करना चाहिए यह हमने पूर्व के अध्याय में देखा। अब प्रश्न यह है कि अपनी विकसित क्षमताओं का व्यक्ति क्या करेगा? इस विषय में यदि कोई निश्चित विचार नहीं रहा तो वह भटक जायेगा। वैसे भी अपनी प्राकृतिक अवस्था में जिस प्रकार पानी नीचे की ओर ही बहता है, उसे ऊपर की ओर उठाने के लिए विशेष प्रयास करने होते हैं उसी प्रकार बिना किसी प्रयास के बलवान और जिद्दी मन विकृति की ओर ही खींच कर ले जाता है । अत: क्षमताओं के विकास के साथ साथ उन क्षमताओं के सम्यक् उपयोग के मार्ग भी विचार में लेने चाहिए। यह शिक्षा का दूसरा पहलू है। अथवा यह भी कह सकते हैं कि मनुष्य के व्यक्तित्व विकास का यह दूसरा आयाम है।
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अंतर्निहित क्षमताओं का विकास करना चाहिए यह हमने
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इस दूसरे आयाम को हम व्यक्ति का सृष्टि के साथ समायोजन कह सकते हैं। सृष्टि में जैसे पूर्व के अध्याय में बताया है, मनुष्य के साथ साथ प्राणी, वनस्पति और पंचमहाभूत हैं। हमने यह भी देखा कि इन चार सत्ताओं के दो वर्ग होते हैं , एक वर्ग में मनुष्य है और दूसरे में शेष तीनों। हम सुविधा के लिए इन्हें क्रमश: समष्टि और सृष्टि कहेंगे । इस सृष्टि को निसर्ग भी कह सकते हैं । अत: मनुष्य को दो स्तरों पर समायोजन करना है, एक समष्टि के स्तर पर अर्थात अपने जैसे अन्य मनुष्यों के साथ और दूसरा निसर्ग के साथ । इस समायोजन के लिए शिक्षा का विचार किस प्रकार किया जा सकता है यह अब देखेंगे।<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १) - अध्याय १२, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>
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पूर्व के अध्याय में देखा अब प्रश्न यह है कि अपनी
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== समष्टि के साथ समायोजन ==
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मनुष्य अकेला नहीं रह सकता अपनी अनेक प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे अन्य मनुष्यों की सहायता की आवश्यकता होती है। मनुष्य की अल्पतम आवश्यकताओं की अर्थात् अन्न, वस्त्र और आवास की ही बात करें तो कोई भी अकेला व्यक्ति अपने लिए अनाज उगाना, वस्त्र बनाना और आवास निर्माण करना स्वयं नहीं कर सकता । फिर मनुष्य की इतनी कम आवश्यकताएँ भी तो नहीं होतीं । इन तीनों के अलावा उसे औषधि चाहिए, वाहन चाहिए, परिवहन चाहिए। जैसे जैसे सभ्यता का विकास होता जाता है उसकी दैनंदिन आवश्यकताएँ बढ़ती जाती हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उसे कुछ व्यवस्था बिठानी होती है।
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विकसित क्षमताओं का व्यक्ति क्या करेगा ? इस विषय में मनुष्य अकेला नहीं रह सकता अपनी अनेक प्रकार
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दूसरा भी एक विचार है। कदाचित अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति वह अकेला कर भी ले, अथवा अपनी आवश्यकताएँ इतनी कम कर दे कि उसे अन्य किसीकी सहायता लेने की नौबत ही न आये तो भी वह अकेला नहीं रह सकता । उसे बात करने के लिए, खेलने के लिए,सैर करने के लिए दूसरा व्यक्ति चाहिए । सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा को भी अकेला रहना अच्छा नहीं लगता था अतः तो उसने सृष्टि बनाई । जब उसे ही अकेले रहना अच्छा नहीं लगता तो उसके ही प्रतिरूप मनुष्य को कैसे लगेगा ? अतः: केवल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही नहीं तो संवाद के लिए भी मनुष्य को अन्य मनुष्यों की आवश्यकता होती है । इन दोनों बातों का एक साथ विचार कर हमारे आर्षद्रष्टा मनीषियों ने मनुष्यों के लिए एक रचना बनाई । इस रचना को भी हम चार चरण में विभाजित कर समझ सकते हैं
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यदि कोई निश्चित विचार नहीं रहा तो वह भटक जायेगा ... की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे अन्य मनुष्यों की
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=== परिवार ===
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मनुष्य का मनुष्य के साथ समायोजन का प्रथम चरण है स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध स्त्रीधारा और पुरुषधारा इस सृष्टि की मूल दो धाराएँ हैं । इनका ही परस्पर समायोजन होने से शेष के लिए सुविधा होती है । अतः सर्वप्रथम दोनों को साथ रहने हेतु विवाह संस्कार की योजना हुई और उन्हें दंपती बनाकर कुटुम्ब का केंद्र बिंदु  बनाया। विवाह के परिणामस्वरूप बच्चोंं का जन्म हुआ और कुटुम्ब का विस्तार होने लगा । प्रथम चरण में मातापिता और संतानों का सम्बन्ध बना और दूसरे क्रम में सहोदरों का अर्थात भाई बहनों का सम्बन्ध बनता गया । इन दोनों आयामों को लेकर लंब और क्षैतिज दोनों प्रकार के सम्बन्ध बनते गए । पहली बात यह है कि कुटुम्ब रक्तसंबंध से बनता है।  परंतु रक्तसंबंध के साथ साथ भावात्मक सम्बन्ध भी होता है। केवल मनुष्य ही अन्नमय और प्राणमय के साथ साथ मनोमय से आनंदमय तक और उससे भी परे आत्मिक स्तर पर भी पहुँचता है यह हमने विकास के प्रथम आयाम में देखा ही है । अत: स्त्रीपुरुष के वैवाहिक सम्बन्ध को केवल जैविक स्तर पर सीमित न करते हुए आत्मिक स्तर तक पहुंचाने की मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति बनी । पति-पत्नी के सम्बन्ध का आदर्श एकात्म सम्बन्ध बना । सम्बन्ध की इसी एकात्मता का विस्तार सर्वत्र स्थापित किया गया | अपने अंतः:करण को इतना उदार बनाना कि सम्पूर्ण वसुधा एक ही कुटुम्ब लगे, यह मनुष्य का आदर्श बना ।
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वैसे भी अपनी प्राकृतिक अवस्था में जिस प्रकार पानी नीचे... सहायता की आवश्यकता होती है । मनुष्य की अल्पतम
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इस परिवारभावना की नींव पर मनुष्य को संपूर्ण समष्टि और सृष्टि के साथ समायोजन बनाना चाहिए और शिक्षा के द्वारा इस परिवारभावना को सिखाना यह शिक्षा का केन्द्रवर्ती विषय है ।
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की ओर ही बहता है, उसे ऊपर की ओर उठाने के लिए... आवश्यकताओं की अर्थात्‌ अन्न, वस््र और आवास की ही
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कुटुम्ब समाज जीवन की लघुतम इकाई है, व्यक्ति नहीं यह प्रथम सूत्र है। इस इकाई का संचालन करना सीखने का प्रथम चरण है । कुटुम्ब उत्तम पद्धति से चले इस दृष्टि से कुटुम्ब के सभी सदस्यों को मिलकर कुछ इस प्रकार की बातों का ध्यान रखना होता है।
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विशेष प्रयास करने होते हैं उसी प्रकार बिना किसी प्रयास... बात करें तो कोई भी अकेला व्यक्ति अपने लिए अनाज
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=== सब के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार ===
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* बड़ों का छोटों के प्रति वात्सल्यभाव और छोटों का बड़ों के प्रति आदर का भाव होना मुख्य बात है। अपने से छोटों का रक्षण करना, उपभोग के समय छोटों का अधिकार प्रथम मानना, कष्ट सहने के समय बड़ों का क्रम प्रथम होना, अन्यों की सुविधा का सदा ध्यान रखना, कुटुम्बीजनों की सुविधा हेतु अपनी सुविधा का त्याग करना, बड़ों की आज्ञा का पालन करना, बड़ों की सेवा करना, कुटुम्ब के नियमों का पालन करना, अपने पूर्वजों की रीतियों का पालन करना, सबने मिलकर कुटुम्ब का गौरव बढ़ाना आदि सब कुटुम्ब के सदस्यों के लिए सीखने की और आचरण में लाने की बातें हैं।
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* कुटुम्ब में साथ रहने के लिए अनेक काम सीखने होते हैं। भोजन बनाना, घर की स्वच्छता करना, साज सज्जा करना, पूजा, उत्सव, व्रत, यज्ञ, अतिथिसत्कार, परिचर्या, शिशुसंगोपन, आवश्यक वस्तुओं की खरीदी आदि अनेक बातें ऐसी हैं जो कुटुम्बीजनों को आनी चाहिए। ये सारी बातें शिक्षा से ही आती हैं।
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* कुटुम्ब में वंशपस्म्परा चलती है। रीतिरिवाज, गुणदोष, कौशल, मूल्य, पद्धतियाँ, खूबियाँ आदि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होते हैं। इन सभी बातों की रक्षा करने का यही एक मार्ग है। ये सारे संस्कृति के आयाम हैं । पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित होते हुए संस्कृति न केवल जीवित रहती है अपितु वह समय के अनुरूप परिवर्तित होकर परिष्कृत भी होती रहती है । संस्कृति की धारा जब इस प्रकार प्रवाहित रहती है तब उसकी शुद्धता बनी रहती है। संस्कृति की ऐसी नित्य प्रवाहमान धारा के लिए ही चिरपुरातन नित्यनूतन कहा जाता है। ये दोनों मिलकर संस्कृति का सनातनत्व होता है ।
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* वंशपरम्परा खंडित नहीं होने देना कुटुम्ब का कर्तव्य है। इस दृष्टि से पीढ़ी दर पीढ़ी समर्थ संतानों को जन्म देना भी पतिपत्नी का कर्तव्य है, साथ ही अपनी संतानों को भी समर्थ बालक को जन्म देने वाले मातापिता बनाना उनका कर्तव्य है । अर्थात्‌ अच्छे कुटुंब के लिए अपने पुत्रों को अच्छे पुरुष, अच्छे पति, अच्छे गृहस्थ और अच्छे पिता बनाने की तथा पुत्रियों को अच्छी स्त्री, अच्छी पत्नी, अच्छी गृहिणी और अच्छी माता बनाने की शिक्षा देना कुटुम्ब का कर्तव्य है।
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* कुटुम्ब का एक अन्य महत्त्वपूर्ण काम होता है सबकी सब प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अर्थार्जन करना । इस दृष्टि से कोई न कोई हुनर सीखना, उत्पादन और वितरण, क्रय और विक्रय की कला सीखना बहुत आवश्यक होता है । अर्थार्जन जिस प्रकार कुटुम्ब का विषय है उसी प्रकार वह कुटुम्ब को समाज के साथ भी जोड़ता है । व्यवसाय की ही तरह विवाह भी कुटुम्ब को अन्य कुटुंब के साथ जोड़ने का माध्यम है। यह भी समाज के साथ सम्बन्ध बनाता है। इन दो बातों से एक कुटुम्ब समाज का अंग बनता है । अत: समाज के साथ समरस कैसे होना यह भी कुटुम्ब में सीखने का विषय है।
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* खानपान, वेशभूषा, भाषा, कुलधर्म, नाकनक्शा, इष्टदेवता, कुलदेवता, सम्प्रदाय, व्यवसाय, कौशल, आचार विचार, सद्गुण, दुर्गुण आदि मिलकर कुटुंब की एक विशिष्ट पहचान बनती है । कुटुम्ब की इस विशिष्ट पहचान को बनाए रखना, बढ़ाना, उत्तरोत्तर उससे प्राप्त होने वाली सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि करना कुटुम्ब के हर सदस्य का कर्तव्य है और पूर्व पीढ़ी ने नई पीढ़ी को इसके लायक बनने हेतु शिक्षित और दीक्षित करना उसका दायित्व है । शिक्षा का यह बहुत बड़ा क्षेत्र है जिसकी आज अत्यधिक उपेक्षा हो रही है। अनौपचारिक शिक्षा का यह एक बहुत बड़ा क्षेत्र है।
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के बलवान और जिद्दी मन विकृति की ओर ही खींच कर... उगाना, वस्त्र बनाना और आवास निर्माण करना स्वयं नहीं
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=== समुदाय ===
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सम्पूर्ण समाज व्यवस्था में कुटुम्ब एक इकाई होता है। ऐसे अनेक कुटुम्ब मिलकर समुदाय बनाता है । समुदाय राष्ट्रजीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। मुख्य रूप से समुदाय समाज की आर्थिक इकाई है, समान आचार, समान सम्प्रदाय, अर्थार्जन हेतु समान व्यवसाय, समान शिक्षा आदि समानताओं के आधार पर समुदाय बनाते हैं । उदाहरण के लिए वर्णव्यवस्था जब अपने श्रेष्ठ स्वरूप में भारत में प्रतिष्ठित थी तब ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों के समाज बनते थे, सुथार, कृषक, धोबी, वैद्य आदि व्यवसायों के समुदाय बनते थे । इन समुदायों में विवाह सम्बन्ध होते थे। समुदाय के बाहर कोई विवाह सम्बन्ध नहीं जोड़ता था । आज वर्णव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो गई है, [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] की उससे भी अधिक दुर्गति हुई है तब भी समुदाय तो बनेंगे ही । उदाहरण के लिए चिकित्सकों का एक समुदाय, उद्योजकों का एक समुदाय, संप्रदायों का एक समुदाय आदि । इन समुदायों में भी उपसमुदाय बनेंगे। उदाहरण के लिए शिक्षकों का एक समुदाय जिसमें विश्वविद्यालयीन शिक्षकों का एक, माध्यमिक विद्यालय के शिक्षकों का दूसरा, प्राथमिक शिक्षकों का तीसरा ऐसे उपसमुदाय बनेंगे। पूर्व में वर्ण और जाति के विवाह और व्यवसाय के नियम और कानून जितने आग्रहपूर्वक पालन किये जाते थे उतने इन व्यवसायों के नहीं हैं यह ठीक है परंतु समुदाय बनते अवश्य हैं। इन समुदायों में विचारपद्धति, व्यावसायिक कौशल, व्यवसाय के अनुरूप वेषभूषा आदि का अन्तर थोड़ी बहुत मात्रा में आज भी देखने को मिलता है, जैसे कि राजकीय क्षेत्र का, उद्योग क्षेत्र का या शिक्षा क्षेत्र का व्यक्ति उसकी बोलचाल से और कभी कभी तो अंगविन्यास से भी पहचाना जाता है।
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ले जाता है । अत: क्षमताओं के विकास के साथ साथ उन... कर सकता फिर मनुष्य की इतनी कम आवश्यकताएँ भी
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समुदाय की व्यवस्था उत्तम होने के लिए अर्थव्यवस्था ठीक करनी होती है। धार्मिक समुदाय व्यवस्था के प्रमुख लक्षणों में एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि व्यवसाय भी सम्पूर्ण परिवार मिलकर करता था। इससे अर्थार्जन हेतु शिक्षा का केन्द्र घर ही होता था और शिक्षा हेतु पैसे खर्च नहीं करने पड़ते थे । साथ ही राज्य को अर्थार्जन की शिक्षा देने हेतु आज की तरह बड़ा जंजाल नहीं खड़ा करना पड़ता था
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क्षमताओं के सम्यकू उपयोग के मार्ग भी विचार में लेने... तो नहीं होतीं इन तीनों के अलावा उसे औषधि चाहिए,
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आर्थिक स्वतन्त्रता, व्यवसाय में स्वामित्वभाव, आर्थिक सुरक्षा जैसे अति मूल्यवान तत्वों की रक्षा समुदायगत समाज व्यवस्था करने में होती है । आज कुटुम्ब को नहीं अपितु व्यक्ति को इकाई मानने के कारण मनुष्य के लिए आर्थिक क्षेत्र का व्यावहारिक तथा मानसिक संकट निर्माण हो गया है समुदायगत व्यवस्था ठीक से बैठाने हेतु शिक्षा की विशेष व्यवस्था हमें करनी होगी।
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चाहिए । यह शिक्षा का दूसरा पहलू है । अथवा यह भी कह... वाहन चाहिए, परिवहन चाहिए। जैसे जैसे सभ्यता का
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श्रेष्ठ समाज अथवा समुदाय के दो लक्षण होते हैं। एक होता है समृद्धि और दूसरा होता है संस्कृति। अर्थात्‌ जिस प्रकार समृद्धि हेतु अर्थकरी शिक्षा की उत्तम व्यवस्था चाहिए तथा उसकी उत्तम शिक्षा चाहिए उसी प्रकार व्यक्तियों को सुसंस्कृत बनाने की शिक्षा भी चाहिए। इस दृष्टि से व्यवसाय का दृष्टिकोण बदलना चाहिए । व्यवसाय केवल अर्थार्जन के लिए ही नहीं होता। व्यवसाय के परिणामस्वरूप उपभोक्ता को आवश्यक वस्तु प्राप्त होती है। अत: उपभोक्ता का विचार करना, उसकी सेवा हेतु व्यवसाय करना यह भी महत्त्वपूर्ण पक्ष है। जब उपभोक्ता का विचार करके व्यवसाय किया जाता है तब उपभोक्ता की आवश्यकता, उसके लाभ और हानि, उत्पादन की गुणवत्ता आदि का भी ध्यान रखा जाता है। एक ही बात का विचार करने से दृष्टिकोण का मुद्दा समझ में आएगा। किसी भी उत्पादन का विज्ञापन किया जाता है तब उत्पादक अपने उत्पादन की भरपूर प्रशंसा करता है। ऐसा करने का एकमात्र कारण उपभोक्ता को उत्पादन की ओर आकर्षित कर उसे खरीदने के लिए बाध्य करना है। ऐसा करने की आवश्यकता क्यों होती है? केवल अतः कि हमने उत्पादित किया वह पदार्थ बिकना चाहिए । इस उद्देश्य से प्रेरित होकर जो नहीं हैं ऐसे गुण बढ़ाचढ़ाकर बताए जाते हैं और उपभोक्ता को चाहिए या नहीं इसका ध्यान कम रखा जाता है, अपना माल बिकना चाहिए इसका अधिक विचार किया जाता है । यह नीतिमत्ता नहीं है । तो भी यह आज भारी मात्रा में किया जाता है क्योंकि उत्पादन केवल अर्थार्जन हेतु ही किया जाता है, उपभोक्ता की सेवा के लिए नहीं । विकसित और शिक्षित समाज में यह दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता होती है। समुदाय को सुसंस्कृत बनाने के लिए यह आवश्यक है।
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सकते हैं कि मनुष्य के व्यक्तित्व विकास का यह दूसरा... विकास होता जाता है उसकी दैनंदिन आवश्यकताएँ बढ़ती
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समुदायगत व्यवस्था में विवाह की व्यवस्था भी विचारपूर्वक करनी होती है। उदाहरण के लिए जननशास्त्र का एक सिद्धांत कहता है कि सगोत्र विवाह करने से कुछ ही पीढ़ियों में सम्पूर्ण जाति का नाश होता है। वर्तमान पारसियों का उदाहरण इस दृष्टि से विचारणीय है । वे सगोत्र विवाह करते हैं। इसके परिणामस्वरूप आज उनकी जनसंख्या में भारी गिरावट आई है और एक बुद्धिमान जाति के अस्तित्व पर संकट उतर आया है । सगोत्र विवाह नहीं करना यह वैज्ञानिक नियम है । परन्तु आज किसी को गोत्र मालूम नहीं होता है। यदि मालूम भी होता है तो उसकी चिन्ता नहीं है क्योंकि सिद्धांत का ज्ञान भी नहीं है और उसका पालन करने की आवश्यकता भी नहीं लगती। ऐसे विवाह करने से सम्पूर्ण समाज का सामर्थ्य कम होता जाता है। सामर्थ्यहीन समाज अपना विकास नहीं कर सकता । गोत्र का सिद्धांत तो एक है । ऐसे तो विवाह विषयक कई सिद्धांत हैं। हमारे समाज चिंतकों ने बहुत विचारपूर्वक विवाहशास्त्र की रचना हुई है। आज उसके विषय में घोर अज्ञान और उपेक्षा का व्यवहार होने के कारण समाज पर सांस्कृतिक संकट छाया है। यह विषय स्वतंत्र चर्चा का विषय है, यहाँ केवल इतना ही बताना प्रासंगिक है कि व्यवसाय की तरह विवाह भी सामाजिक संगठन के लिए अत्यंत आवश्यक विषय है। कुल मिलाकर शिक्षा का यह एक महत्त्वपूर्ण अंग है।
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सम्टि के साथ समायोजन
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समुदायगत जीवन में सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक सम्मान की ओर ध्यान देना चाहिए । इस दृष्टि से परिवार में ही व्यक्तिगत रूप से शिक्षा होनी चाहिए । उदाहरण के लिए पराई स्त्री की ओर माता कि दृष्टि से ही देखना चाहिए तथा स्त्री की रक्षा हेतु सदैव तत्पर रहना चाहिए यह घर में सिखाया जाना चाहिए । समुदाय में कोई भूखा न रहे इस दृष्टि से कुटुम्ब में दानशीलता बढ़नी चाहिए। श्रम प्रतिष्ठा ऐसा ही सामाजिक मूल्य है। सद्गुण और सदाचार सामाजिक सुरक्षा और सम्मान के लिए ही होता है । सार्वजनिक कामों और व्यवस्थाओं की सुरक्षा भी शिक्षा का ही विषय है । समुदाय में एकता, सौहार्द, सहयोग, शान्ति बनी रहे इस दृष्टि से व्यवसाय, कानून, विवाह, शिक्षा आदि की व्यवस्था होना अपेक्षित है।
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आयाम है । जाती हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उसे कुछ
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ये सब तो, क्या सिखाना चाहिए, उसके बिंदु हैं। परन्तु शिक्षा और पौरोहित्य ये दो ऐसे विषय हैं जिनकी विशेष रूप से चिन्ता करनी चाहिए । हर समुदाय ने अपने सदस्यों की शिक्षा का प्रबन्ध अपनी ज़िम्मेदारी से करना चाहये। राज्य के ऊपर इसका बोझ नहीं डालना चाहिए। जिस प्रकार कुटुम्ब के लोग अपनी ज़िम्मेदारी पर कुटुम्ब चलाते हैं उसी प्रकार समाज ने अपनी शिक्षा की व्यवस्था स्वयं करनी चाहिए । उसी प्रकार समुदाय को धर्मविषयक मार्गदर्शन करने वाले पुरोहित की भी विशेष व्यवस्था समुदाय ने करनी चाहिए। आज ऐसी कोई व्यवस्था है ही नहीं, और होनी चाहिए ऐसा लगता भी नहीं है, तब तो इस पर विशेष विचार करना चाहिए समाज के नीतिमूल्यों की रक्षा हेतु, सांस्कृतिक दृष्टि से करणीय अकरणीय बातें बताने के लिए और सिखाने के लिए हमारे समाज में पुरोहित की व्यवस्था होती थी । विगत कई पीढ़ियों से हमने उसे छोड़ दी है। इस पर पुन: विचार करना चाहिए।
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इस दूसरे आयाम को हम व्यक्ति का सृष्टि के साथ... व्यवस्था बिठानी होती है ।
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इस प्रकार व्यक्ति के कुटुम्ब में और कुटुम्ब के समुदाय में समायोजन का हमने विचार किया। आगे व्यक्ति की राष्ट्रीता होती है। इसका विचार अब करेंगे।
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समायोजन कह सकते हैं सृष्टि में जैसे पूर्व के अध्याय में दूसरा भी एक विचार है। कदाचित अपनी
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=== राष्ट्र ===
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हर व्यक्ति जिस प्रकार अपने परिवार और समुदाय का सदस्य होता है उसी प्रकार वह एक राष्ट्र का अंश होता है । परिवार सामाजिक इकाई है, समुदाय मुख्य रूप से आर्थिक इकाई है और राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई है राष्ट्र एक ऐसी प्रजा का समूह है जिसकी एक भूमि होती है, उस भूमि के साथ उसका मातृवत सम्बन्ध होता है और जिसका एक जीवनदर्शन होता है । एक राष्ट्र के नाते वह विश्वसमुदाय का सदस्य होता है ।
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बताया है मनुष्य के साथ साथ प्राणी, वनस्पति और आवश्यकताओं की पूर्ति वह अकेला कर भी ले, अथवा
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राष्ट्र की अपनी एक जीवनशैली होती है जो उसके जीवनदर्शन के आधार पर विकसित हुई होती है । राष्ट्र के हर सदस्य को उस जीवनशैली को अपनाना होता है । भारत एक राष्ट्र है और उसकी जीवनशैली की स्वाभाविक विशेषतायें इस प्रकार हैं:
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* हम इस सृष्टि को एक ही मानते हैं और सब एकात्म सम्बन्ध से जुड़े हैं ऐसा मानते हैं । अतः सबको अपना मानते हैं । जिन्हें अपना माना उसका हित चाहते हैं, उसके साथ प्रेम का व्यवहार करते हैं। जिसके लिए प्रेम होता है उसके लिए त्याग करने के लिए उद्यत होते हैं और उसकी सेवा भी करते हैं । हम किसी का शोषण नहीं करते। हम मानते हैं कि चराचर जगत के सभी पदार्थों की स्वतंत्र सत्ता है । इस कारण से सबका सम्मान करना चाहिए, सबकी स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिए। हमारे जीवन के निर्वाह हेतु हमें सबसे कुछ न कुछ लेना पड़ता है। इसके लिए हमें सबके प्रति कृतज्ञता का व्यवहार करना चाहिए। एकात्मता और सबकी स्वतंत्र सत्ता का स्वीकार करने के कारण हम संघर्ष में नहीं अपितु समन्वय में या सामंजस्य में मानते हैं। हम सहअस्तित्व में मानते हैं। हम सबका हित और सबका सुख चाहते हैं,सबके हित और सुख की रक्षा करते हैं।
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* इस सृष्टि के सृजन के साथ साथ उसे धारण करने वाली अर्थात उसका नाश न होने देने वाली व्यवस्था भी बनी है। इस व्यवस्था के कुछ नियम हैं। इन सार्वभौम सनातन विश्वनियम का नाम धर्म है। सृष्टि के चालक, नियामक और नियंत्रक तत्व धर्म को हमने अपने जीवन का भी चालक, नियामक और नियंत्रक तत्व बनाया है । अतः हमारे हर व्यवहार, हर व्यवस्था, हर रचना का निकष धर्म है। जो कुछ भी धर्म के अविरोधी है वह स्वीकार्य है, जो भी धर्म के विरोधी है वह त्याज्य है। इसके परिणामस्वरूप हमारा भी नाश नहीं होता और हम किसीके नाश का कारण नहीं बनते।
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* कर्तव्य और अधिकार एक सिक्के के दो पहलू हैं। हम कर्तव्य के पहलू को सामने रखकर व्यवहार करते हैं । इसका अर्थ यह है कि हम दूसरों के अधिकार का विचार प्रथम करते हैं। इससे हमारे अधिकार की भी रक्षा अपने आप हो जाती है । हमारा व्यवहार आपसी लेनदेन से चलता है । लेनदेन के व्यवहार में हम देने की ही चिन्ता करते हैं लेने की नहीं । परिणामस्वरूप हमें भी जो चाहिए वह बिना चिन्ता किये मिल जाता है।
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* प्रेम, आनंद, सौन्दर्य, ज्ञान, सत्य जीवन के मूल आधार हैं । इसके अनुसार व्यवहार करने से किसी एक के नहीं अपितु सबके जीवन में सुख, शान्ति, सौहार्द, समृद्धि और सार्थकता आती है । किसी भी छोटे, क्षुद्र स्वार्थ के लिए इन्हें नहीं छोड़ना यही हमारा सिद्धांत है ।
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* हम स्वकेन्द्री नहीं हैं, परमात्मकेन्द्री हैं । हमारा अनुभव है कि स्वकेन्द्री होने से किसीको भी सुख नहीं मिलता, किसीका भी हित नहीं होता । स्वकेन्द्री होने से संघर्ष और हिंसा ही फैलते हैं जिसका परिणाम नाश ही है । हम श्रेष्ठ होना चाहते हैं, सर्वश्रेष्ठ नहीं ।
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* हमारे राष्ट्रीय जीवन के ये आधारभूत तत्व हैं । यहबात सत्य है कि आज इनकी प्रतिष्ठा नहीं है । हम कदाचित इन्हें भूल गए हैं और इन्हें मानते भी नहीं हैं । हमारी सारी व्यवस्थायें और व्यवहार इनसे ठीक उल्टा हो रहा है । परन्तु यह विस्मृति है । युगों से हमारा राष्ट्र इन्हीं आधारों पर चलता आया है । हमारे शास्त्र और धर्मग्रन्थ इनकी ही महिमा बताते हैं । हमारे सन्त महात्मा इनका ही उपदेश देते हैं । हमारा इतिहास इनके ही उदाहरण प्रस्तुत करता है । हमारे अन्तर्मन में इनकी ही प्रतिष्ठा है। अतः ये आज ऊपर से दिखाई न देते हों तो भी नींव में तो हैं ही।
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* शिक्षा के द्वारा इनकी पुनः: प्रतिष्ठा होनी चाहिए । यही उसका मूल प्रयोजन है । शिक्षा की सार्थकता ही उसमें है कि वह धर्म सिखाती है । आज हमने शिक्षा के अधार्मिक प्रतिमान की प्रतिष्ठा कर इन सनातन तत्वों को ही विस्मृत कर दिया है अतः सर्वत्र अव्यवस्था फैली हुई है । शिक्षा का धार्मिक प्रतिमान लागू करने से इसका उपाय हो सकता है।
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* और एक बात की स्पष्टता करने की आवश्यकता है । हमने राष्ट्र और देश इन दो संज्ञाओं को एक मान लिया है । ऐसा अँग्रेजी के नेशन शब्द के अनुवाद से हुआ है । वास्तव में देश एक सांविधानिक राजकीय भौगोलिक संकल्पना है जबकि राष्ट्र सांस्कृतिक, आध्यात्मिक। दोनों में कोई विरोध नहीं है । देश राज्यव्यवस्था है, राष्ट्र जीवनदर्शन है। राज्य संविधान के आधार पर चलता है, राष्ट्र धर्म के आधार पर। राष्ट्र राज्य का भी आधार है, राज्य का भी निकष है। हम राज्यव्यवस्था में नागरिक हैं, राष्ट्रव्यवस्था में राष्ट्रीय हैं। आज इस भेद को भी ध्यान में नहीं लिया जाता है अतः राष्ट्रीय बनाने की शिक्षा भी नहीं दी जाती है । धार्मिक शिक्षा में इसका समावेश अनिवार्य रूप से होना चाहिए ।
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पंचमहाभूत हैं । हमने यह भी देखा कि इन चार सत्ताओं के. अपनी आवश्यकताएँ इतनी कम कर दे कि उसे अन्य
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=== विश्व ===
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विश्व से तात्पर्य है दुनिया के सभी राष्ट्रों का मानव समुदाय। हमारा सामंजस्य विश्व के सभी मानव समुदायों के साथ होना अपेक्षित है । यह सामंजस्य हम कैसे स्थापित कर सकते हैं ? आज कहा जाता है कि संचार माध्यमों के प्रभाव से विश्व बहुत छोटा हो गया है अतः अब एक देश की नागरिकता के स्थान पर विश्वनागरिकता का ही विचार करना चाहिए। राष्ट्रवाद संकुचित कल्पना है, अब विश्ववाद को स्वीकार करना चाहिए। परन्तु ऐसा हो नहीं सकता एक तो यह समुचित तर्क नहीं है । हम समुदाय के सदस्य होने पर भी परिवार के सदस्य होते ही हैं। परिवार के सदस्य होते हुए भी व्यक्ति होते ही हैं। उसी प्रकार हम विश्व के अंग होने पर भी राष्ट्रीय हो ही सकते हैं। हम अच्छे राष्ट्रीय होने पर ही विश्वनागरिक बन सकते हैं।
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दो वर्ग होते हैं , एक वर्ग में मनुष्य है और दूसरे में शेष. किसीकी सहायता लेने की नौबत ही न आये तो भी वह
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सामंजस्य बिठाने का सही तरीका तो यह है कि हम स्वीकार करें कि विश्व के हर राष्ट्र का अपना अपना स्वभाव होता है । विश्व के हर राष्ट्र को विश्वजीवन में विश्वव्यवस्था में अपनी अपनी भूमिका निभानी होती है। भारत की भूमिका धर्मचक्र की गति को अबाधित रखना है। भारत भारत होकर ही यह भूमिका निभा सकता है। सर्वेषामविरोधेन जीवनव्यवस्था कैसे की जाती है इसका उदाहरण भारत को प्रस्तुत करना है ताकि विश्व के अन्य राष्ट्र स्वयं का भी सही सन्दर्भ समझ सकें । भारत विश्व के अन्य राष्ट्रों पर सामरिक अथवा राजकीय विजय प्राप्त कर उन्हें अपना दास बनाने के लिए नहीं है, वह धर्म और संस्कृति के प्रसार और शिक्षा के माध्यम से सबको सुख, स्वास्थ्य, समृद्धि और संस्कार प्राप्त करने हेतु सामर्थ्य प्राप्त करने में सहायता करने के लिए है। अतः आवश्यक है कि हम विश्व में गरिमा लिए संचार करें। आज हम धार्मिक होने के लिए हीनताबोध से ग्रस्त हैं और स्वत्व को भुला रहे हैं। दूसरों की नकल करने में ही गौरव का अनुभव कर रहे हैं। शिक्षा सर्वप्रथम इस हीनताबोध को दूर करने के लिए प्रयास करे यह पहली आवश्यकता है। आज संपूर्ण विश्व पर पश्चिम के देश, मुख्य रूप से अमेरिका, छा जाने का प्रयास कर रहे हैं। उनकी जीवनदृष्टि भौतिकवादी है अतः उनका व्यवहार एवं व्यवस्थायें अर्थनिष्ठ है। भारत धर्मनिष्ठ है। स्पष्ट है कि टिकाऊ तो भारत ही है क्योंकि धर्म के अधीन अर्थ की व्यवस्था समृद्धि का साधन है,  जबकि धर्मविहीन अर्थ विनाश के मार्ग पर ले जाने वाला है। भारत को अपनी व्यवस्थाओं में परिवर्तन कर विश्व के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करना है।
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तीनों । हम सुविधा के लिए इन्हें क्रमश: समष्टि और सृष्टि _ अकेला नहीं रह सकता । उसे बात करने के लिए, खेलने
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पश्चिम के बाजार के आक्रमण से हमें बचना है। इस दृष्टि से हमारी अर्थव्यवस्था तो ठीक होनी ही चाहिए, साथ ही अर्थ विषयक हमारी दृष्टि भी बदलनी चाहिए बाजार का आक्रमण पश्चिम की ही पद्धति से उत्पादन बढ़ाने का और विश्वव्यापार बढ़ाने की होड में उतरने से हम परावृत नहीं कर सकते है, अपनी पद्धति अपनाने से ही वह संभव है । उसी प्रकार से हमारी समाजव्यवस्था पर, परिवारजीवन पर भी पश्चिम की मान्यतायें हावी हो रही हैं। हमारे हीनताबोध के कारण हम उन्हें आधुनिक कहकर अपना रहे हैं। उससे असंस्कार का साम्राज्य फैल रहा है। हमें परिवारजीवन पुन: सुदृढ़ बनाकर विश्व के अन्य देशों को सामाजिक सुरक्षा का रास्ता बताना है।
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कहेंगे । इस सृष्टि को निसर्ग भी कह सकते हैं अत: मनुष्य... के लिए,सैर करने के लिए दूसरा व्यक्ति चाहिए । सृष्टि के
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अपने दीर्घ इतिहास में भारत ने विश्वविजय का सांस्कृतिक स्वरूप बताया है। इतिहास प्रमाण है कि हम विश्व के लगभग सभी देशों में ज्ञान, कौशल, संस्कार लेकर गए हैं और उन्हें हमारी ही तरह श्रेष्ठ जीवन जीने का मार्ग बताया है। आज भी वैसा करने की आवश्यकता है क्योंकि विश्व आज विपरीत दिशा का अवलंबन कर अनेक प्रकार के संकटों से घिर गया है। हमारा उद्घोष रहा है, “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्"ऐसा कर सकने के लिए भी भारत को भारत बनने की महती आवश्यकता है । विश्व को जीतने का अर्थ उसे पराजित करना नहीं है, उसे अपना कर अपना बनाना है और जीवन के शाश्वत मूल्यों में सबकी श्रद्धा और विश  है। भारत इसके लिए ही बना है।
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को दो स्तरों पर समायोजन करना है, एक समष्टि के स्तर. प्रारम्भ में परमात्मा को भी अकेला रहना अच्छा नहीं
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इस प्रकार परिवार, समुदाय, राष्ट्र और विश्व के स्तरों पर मनुष्य को समायोजन साधने की आवश्यकता है । जो शिक्षा उसे इस योग्य बनाती है वही सही शिक्षा है । केवल व्यक्तिगत क्षमतायें बढ़ाने से कुछ सिद्ध नहीं होता है ।
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पर अर्थात अपने जैसे अन्य मनुष्यों के साथ और दूसरा. लगता था इसलिए तो उसने सृष्टि बनाई । जब उसे ही
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== सृष्टि के साथ समायोजन ==
 
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परमात्मा की सृष्टि में मनुष्य के साथ साथ और भी बहुत कुछ है जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं उसके साथ साथ असंख्य ग्रह नक्षत्र हैं । पृथ्वी पर अरण्य, पहाड़, महासागर आदि हैं । पृथ्वी पर असंख्य जातियों के कीट पतंग, जीव, जंतु, पशु, पक्षी, प्राणी आदि विचरण करते हैं । वायु बहती है। सूर्य गर्मी और प्रकाश देता है । चंद्र शीतलता प्रदान करता है मनुष्येतर यह सृष्टि पंचमहाभूत, वनस्पति और प्राणियों की बनी है पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश पाँचमहाभूत हैं वनस्पति और प्राणिजगत का तो हमें परिचय है ही इन सबके साथ समायोजन करने के बिंदु इस प्रकार हैं:
निसर्ग के साथ । इस समायोजन के लिए शिक्षा का विचार... अकेले रहना अच्छा नहीं लगता तो उसके ही प्रतिरूप
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* मनुष्य के समान ही ये सब भी परमात्मा के ही अंश हैं। उनकी भी अपनी अपनी स्वतंत्र सत्ता है उन सबका कोई न कोई प्रयोजन है । हमें ज्ञात हो अथवा न हो बिना प्रयोजन का कोई भी पदार्थ सृष्टि में हो ही नहीं सकता । इन सबकी स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करना और सम्मान करना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है । अत: सर्वप्रथम सबके साथ आत्मीयता और प्रेम होना अपेक्षित है । ये सब मनुष्य के उपयोग के लिए नहीं बने हैं, मनुष्य के ही समान परमात्मा का प्रयोजन पूर्ण करने के लिए बने हैं । मनुष्य के उपभोग के लिए किसीका भी नाश करना अथवा अपव्यय करना उचित नहीं है ।
 
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* मनुष्य का जीवन सृष्टि के इन पदार्थों के बिना चल नहीं सकता। सृष्टि को मनुष्य के बिना चल सकता है। मनुष्य के बिना वायु बह सकती है, पृथ्वी टिक सकती है, जल बह सकता है, सूर्य प्रकाशित हो सकता है। इन सबके बिना मनुष्य का जीवन एक क्षण के लिए भी संभव नहीं है। मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ बनाकर उसका जीवन शेष सब पर आधारित बनाने में अद्भुत सन्तुलन दिखाई देता है। ऐसा होने के कारण मनुष्य को सृष्टि के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए। मनुष्य का सृष्टि पर अधिकार नहीं है, सृष्टि का मनुष्य पर उपकार है। उपकार का सदैव स्मरण रखने से समायोजन ठीक बैठता है। आज हम कृतज्ञ नहीं हो रहे हैं अपितु अपना अधिकार जमाकर उसे अपमानित कर रहे हैं। इस व्यवहार को बदलने की आवश्यकता है।
Qo
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* समझदार लोग कहते हैं कि परमात्मा ने जब सृष्टि की रचना की तब उसके संचालन के नियम बनाए । साथ ही उसके पालन और पोषण की भी व्यवस्था की । अत: सब यदि ठीक चलता है तो कोई भूखा नहीं रहेगा, कोई भी अनिवार्य आवश्यक बातों से वंचित नहीं रहेगा । इस तथ्य को ध्यान में रखकर हमें प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्वक उपयोग करना चाहिए । मनुष्य दो बातों से प्रेरित होकर उपभोग करता है। एक होती हैं आवश्यकतायें और दूसरी होती हैं इच्छायें। आवश्यकतायें सीमित होती हैं जबकि इच्छायें अपरिमित । मनुष्य इच्छापूर्ति के पीछे लगता है तो वह एक असंभव बात को संभव बनाने का प्रयास ही कर रहा होता है। अत: धर्म का आदेश इच्छाओं को संयमित करने का रहता है। आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करना चाहिए,शोषण नहीं। प्रकृति के साथ समायोजन करने के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण आयाम है।
 
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* परमात्मा ने बनाई हुई इस सृष्टि में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ सृजन है, धार्मिक विचारधारा में श्रेष्ठ का कर्तव्य है कि वह अपने से कनिष्ठ सबका रक्षण और पोषण करे। इस दृष्टि से मनुष्य को सृष्टि का रक्षण करना चाहिए।
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* इस प्रकार प्रेम, कृतज्ञता, दोहन और रक्षण का व्यवहार करने से मनुष्य सृष्टि के साथ समायोजन कर सकता है। स्पष्ट है कि आज ऐसा होता नहीं है । शिक्षा को यह विषय गंभीरता से लेना चाहिए। यहाँ मनुष्य के विकास के दो आयामों की हमने चर्चा की। एक आयाम है मनुष्य की सर्व अंतर्निहित क्षमताओं का विकास और दूसरा है सम्पूर्ण सृष्टि के साथ समायोजन। एक है सर्वागीण विकास और दूसरा है परमेष्टिगत विकास। दोनों मिलकर होता है समग्र विकास।
 
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पर्व २ : उद्देश्यनिर्धारण
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मनुष्य को कैसे लगेगा ? अतः: केवल आवश्यकताओं की
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पूर्ति के लिए ही नहीं तो संवाद के लिए भी मनुष्य को
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अन्य मनुष्यों की आवश्यकता होती है । इन दोनों बातों का
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एकसाथ विचार कर हमारे आर्षद्रष्टा मनीषियों ने मनुष्यों के
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लिए एक स्चना बनाई इस स्वना को भी हम चार चरण में
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विभाजित कर समझ सकते हैं
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परिवार
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मनुष्य का मनुष्य के साथ समायोजन का प्रथम चरण
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है स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध स््रीधारा और पुरुषधारा इस
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सृष्टि की मूल दो धाराएँ हैं इनका ही परस्पर समायोजन
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होने से शेष के लिए सुविधा होती है । इसलिए सर्वप्रथम
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दोनों को साथ रहने हेतु विवाह संस्कार की योजना हुई और
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उन्हें दंपती बनाकर कुट्म्ब का केन्ट्रबिन्दु बनाया । विवाह
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के परिणामस्वरूप बच्चों का जन्म हुआ और कुट्म्ब का
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विस्तार होने लगा प्रथम चरण में मातापिता और संतानों
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का सम्बन्ध बना और दूसरे क्रम में सहोदरों का अर्थात
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भाईबहनों का सम्बन्ध बनता गया । इन दोनों आयामों को
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लेकर लंब और क्षैतिज दोनों प्रकार के सम्बन्ध बनते गए ।
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पहली बात यह है कि कुट्म्ब रक्तसंबंध से बनता है ।
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परंतु रक्तसंबंध के साथ साथ भावात्मक सम्बन्ध भी होता
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है । केवल मनुष्य ही अन्नमय और प्राणमय के साथ साथ
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मनोमय से आनंदमय तक और उससे भी परे आत्मिक स्तर
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पर भी पहुँचता है यह हमने विकास के प्रथम आयाम में
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देखा ही है । अत: स्त्रीपुरुष के वैवाहिक सम्बन्ध को केवल
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जैविक स्तर पर सीमित न करते हुए आत्मिक स्तर तक
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पहुंचाने की मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति बनी । पति-पत्नी
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के सम्बन्ध का आदर्श एकात्म सम्बन्ध बना । सम्बन्ध की
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इसी एकात्मता का विस्तार सर्वत्र स्थापित किया गया |
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अपने अंतः:करण को इतना उदार बनाना कि सम्पूर्ण वसुधा
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Uh St Hera लगे यह मनुष्य का आदर्श बना ।
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इस परिवारभावना की नींव पर मनुष्य को संपूर्ण
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समष्टि और सृष्टि के साथ समायोजन बनाना चाहिए और
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शिक्षा के द्वारा इस परिवारभावना को सिखाना यह शिक्षा
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का केन्द्रवर्ती विषय है ।
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कुट्म्ब समाज जीवन की लघुतम
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इकाई है, व्यक्ति नहीं यह प्रथम सूत्र है। इस इकाई का
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संचालन करना सीखने का प्रथम चरण है । कुट्म्ब उत्तम
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पद्धति से चले इस दृष्टि से कुट्म्ब के सभी सदस्यों को
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मिलकर कुछ इस प्रकार की बातों का ध्यान रखना होता
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है...
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सब के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार
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०. asl a छोटों के प्रति वात्सल्यभाव और छोटों का
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बड़ों के प्रति आदर का भाव होना मुख्य बात है
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अपने से छोटों का रक्षण करना, उपभोग के समय
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छोटों का अधिकार प्रथम मानना, कष्ट सहने के समय
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बड़ों का क्रम प्रथम होना, अन्यों की सुविधा का
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हमेशा ध्यान रखना, कुट्म्बीजनों की सुविधा हेतु
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अपनी सुविधा का त्याग करना, बड़ों की आज्ञा का
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पालन करना, बड़ों की सेवा करना, कुट्म्ब के
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नियमों का पालन करना, अपने पूर्वजों की रीतियों
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का पालन करना, सबने मिलकर कुट्म्ब का गौरव
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बढ़ाना आदि सब कुट्म्ब के सदस्यों के लिए सीखने
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की और आचरण में लाने की बातें हैं ।
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© कुट्म्ब में साथ रहने के लिए अनेक काम सीखने होते
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हैं । भोजन बनाना, घर की स्वच्छता करना, साज सज्जा
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करना, पूजा, उत्सव, ब्रत, यज्ञ, अतिथिसत्कार,
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परिचर्या, शिशुसंगोपन, आवश्यक वस्तुओं की खरीदी
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आदि अनेक बातें ऐसी हैं जो कुट्म्बीजनों को आनी
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चाहिए । ये सारी बातें शिक्षा से ही आती हैं ।
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०. कुट्म्ब में वंशपस्म्परा चलती है। रीतिरिवाज,
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गुणदोष, कौशल, मूल्य, पद्धतियाँ, खूबियाँ आदि
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एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होते हैं ।
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इन सभी बातों की रक्षा करने का यही एक मार्ग है ।
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ये सारे संस्कृति के आयाम हैं । पीढ़ी दर पीढ़ी
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हस्तान्तरित होते हुए संस्कृति न केवल जीवित रहती
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है अपितु वह समय के अनुरूप परिवर्तित होकर
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परिष्कृत भी होती रहती है । संस्कृति की धारा जब
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इस प्रकार प्रवाहित रहती है तब उसकी शुद्धता बनी
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रहती है। संस्कृति की ऐसी नित्य
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प्रवाहमान धारा के लिए ही चिरपुरातन नित्यनूतन
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कहा जाता है। ये दोनों मिलकर संस्कृति का
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सनातनत्व होता है ।
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वंशपरम्परा खंडित नहीं होने देना कुट्म्ब का कर्तव्य
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है। इस दृष्टि से पीढ़ी दर पीढ़ी समर्थ संतानों को
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जन्म देना भी पतिपत्नी का कर्तव्य है, साथ ही
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अपनी संतानों को भी समर्थ बालक को जन्म देने
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वाले मातापिता बनाना उनका कर्तव्य है । अर्थात्‌
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अच्छे Hers के लिए अपने पुत्रों को अच्छे पुरुष,
  −
 
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अच्छे पति, अच्छे गृहस्थ और अच्छे पिता बनाने
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की तथा पुत्रियों को अच्छी स्त्री, अच्छी पत्नी,
  −
 
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अच्छी गृहिणी और अच्छी माता बनाने की शिक्षा
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देना कुट्म्ब का कर्तव्य है ।
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कुट्म्ब का एक अन्य महत्त्वपूर्ण काम होता है सबकी
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सब प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अथर्जिन
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करना । इस दृष्टि से कोई न कोई हुनर सीखना,
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उत्पादन और वितरण, क्रय और विक्रय की कला
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सीखना बहुत आवश्यक होता है । अथर्जिन जिस
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प्रकार कुट्म्ब का विषय है उसी प्रकार वह कुट्म्ब
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को समाज के साथ भी जोड़ता है । व्यवसाय की ही
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तरह विवाह भी कुट्म्ब को अन्य aera के साथ
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जोड़ने का माध्यम है। यह भी समाज के साथ
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सम्बन्ध बनाता है। इन दो बातों से एक कुटुम्ब
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समाज का अंग बनता है । अत: समाज के साथ
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समरस कैसे होना यह भी कुट्म्ब में सीखने का विषय
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है।
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खानपान, वेशभूषा, भाषा, कुलधर्म, नाकनक्शा,
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इष्टदेवता, कुलदेवता, सम्प्रदाय, व्यवसाय, कौशल,
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आचार विचार, सदुण दुर्गुण आदि Pree Herat
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की एक विशिष्ट पहचान बनती है । कुट्म्ब की इस
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विशिष्ट पहचान को बनाए रखना, बढ़ाना, उत्तरोत्तर
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  −
उससे प्राप्त होने वाली सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि
  −
 
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करना कुट्म्ब के हर सदस्य का कर्तव्य है और पूर्व
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पीढ़ी ने नई पीढ़ी को इसके लायक बनने हेतु शिक्षित
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RR
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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और दीक्षित करना उसका दायित्व है । शिक्षा का यह
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बहुत बड़ा क्षेत्र है जिसकी आज अत्यधिक उपेक्षा हो
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रही है । अनौपचारिक शिक्षा का यह एक बहुत बड़ा
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क्षेत्र है ।
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समुदाय
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  −
सम्पूर्ण समाज व्यवस्था में Hera UH इकाई होता
  −
 
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है । ऐसे अनेक कुट्म्ब मिलकर समुदाय बनाता है ।
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समुदाय राष्ट्रजीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। मुख्य रूप
  −
 
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से समुदाय समाज की आर्थिक इकाई है, समान
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  −
आचार, समान सम्प्रदाय, Aub हेतु समान
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व्यवसाय, समान शिक्षा आदि समानताओं के आधार
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पर समुदाय बनाते हैं । उदाहरण के लिए वर्णव्यवस्था
  −
 
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जब अपने श्रेष्ठ स्वरूप में भारत में प्रतिष्ठित थी तब
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ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों के समाज बनते थे,
  −
 
  −
सुथार, कृषक, धोबी, वैद्य आदि व्यवसायों के
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  −
समुदाय बनते थे । इन समुदायों में विवाह सम्बन्ध
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होते थे । समुदाय के बाहर कोई विवाह सम्बन्ध नहीं
  −
 
  −
जोड़ता था । आज वर्णव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो गई
  −
 
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है, जाति व्यवस्था की उससे भी अधिक दुर्गति हुई है
  −
 
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तब भी समुदाय तो बनेंगे ही । उदाहरण के लिए
  −
 
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चिकित्सकों का एक समुदाय, उद्योजकों का एक
  −
 
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समुदाय, संप्रदायों का एक समुदाय आदि । इन
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समुदायों में भी उपसमुदाय बनेंगे । उदाहरण के लिए
  −
 
  −
शिक्षकों का एक समुदाय जिसमें विश्वविद्यालयीन
  −
 
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शिक्षकों का एक, माध्यमिक विद्यालय के शिक्षकों
  −
 
  −
का. दूसरा, प्राथमिक शिक्षकों का तीसरा ऐसे
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उपसमुदाय बनेंगे । पूर्व में वर्ण और जाति के विवाह
  −
 
  −
और व्यवसाय के नियम और कानून जितने
  −
 
  −
अग्रहपूर्वक पालन किये जाते थे उतने इन व्यवसायों
  −
 
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के नहीं हैं यह ठीक है परंतु समुदाय बनते अवश्य
  −
 
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हैं। इन समुदायों में विचारपद्धति, व्यावसायिक
  −
 
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कौशल, व्यवसाय के अनुरूप वेषभूषा आदि का
  −
 
  −
अन्तर थोड़ीबहुत मात्रा में आज भी देखने को मिलता
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है, जैसे कि राजकीय क्षेत्र का, उद्योगक्षेत्र का या
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पर्व २ : उद्देश्यनिर्धारण
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शिक्षाक्षेत्र का व्यक्ति उसकी बोलचाल से और कभी
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कभी तो अंगविन्यास से भी पहचाना जाता है ।
  −
 
  −
समुदाय की व्यवस्था उत्तम होने के लिए अर्थव्यवस्था
  −
 
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ठीक करनी होती है । भारतीय समुदाय व्यवस्था के
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  −
प्रमुख लक्षणों में एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि
  −
 
  −
व्यवसाय भी सम्पूर्ण परिवार मिलकर करता था ।
  −
 
  −
इससे अथर्जिन हेतु शिक्षा का केन्द्र घर ही होता था
  −
 
  −
और शिक्षा हेतु पैसे खर्च नहीं करने पड़ते थे । साथ
  −
 
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ही राज्य को अथर्जिन की शिक्षा देने हेतु आज की
  −
 
  −
तरह बड़ा जंजाल नहीं खड़ा करना पड़ता था ।
  −
 
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आर्थिक स्वतन्त्रता, व्यवसाय में स्वामित्वभाव,
  −
 
  −
आर्थिक सुरक्षा जैसे अति मूल्यवान तत्त्वों की रक्षा
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समुदायगत समाज व्यवस्था करने में होती है । आज
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aes a नहीं अपितु व्यक्ति को इकाई मानने के
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  −
कारण मनुष्य के लिए आर्थिक क्षेत्र का व्यावहारिक
  −
 
  −
तथा मानसिक संकट निर्माण हो गया है । समुदायगत
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  −
व्यवस्था ठीक से बैठाने हेतु शिक्षा की विशेष
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व्यवस्था हमें करनी होगी ।
  −
 
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श्रेष्ठ समाज अथवा समुदाय के दो लक्षण होते हैं ।
  −
 
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एक होता है समृद्धि और दूसरा होता है संस्कृति ।
  −
 
  −
अर्थात्‌ जिस प्रकार समृद्धि हेतु अर्थकरी शिक्षा की
  −
 
  −
उत्तम व्यवस्था चाहिए तथा उसकी उत्तम शिक्षा
  −
 
  −
चाहिए उसी प्रकार व्यक्तियों को सुसंस्कृत बनाने की
  −
 
  −
शिक्षा भी चाहिए । इस दृष्टि से व्यवसाय का दृष्टिकोण
  −
 
  −
बदलना चाहिए । व्यवसाय केवल अआथर्जिन के लिए
  −
 
  −
ही नहीं होता । व्यवसाय के परिणामस्वरूप उपभोक्ता
  −
 
  −
को आवश्यक वस्तु प्राप्त होती है । अत: उपभोक्ता
  −
 
  −
का विचार करना, उसकी सेवा हेतु व्यवसाय करना
  −
 
  −
यह भी महत्त्वपूर्ण पक्ष है । जब उपभोक्ता का विचार
  −
 
  −
करके व्यवसाय किया जाता है तब उपभोक्ता की
  −
 
  −
आवश्यकता, उसके लाभ और हानि, उत्पादन की
  −
 
  −
गुणवत्ता आदि का भी ध्यान रखा जाता है । एक ही
  −
 
  −
बात का विचार करने से दृष्टिकोण का मुद्दा समझ में
  −
 
  −
आएगा । किसी भी उत्पादन का विज्ञापन किया जाता
  −
 
  −
है तब उत्पादक अपने उत्पादन की भरपूर प्रशंसा
  −
 
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९३
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  −
करता है । ऐसा करने का एकमात्र
  −
 
  −
कारण उपभोक्ता को उत्पादन की ओर आकर्षित कर
  −
 
  −
उसे खरीदने के लिए बाध्य करना है । ऐसा करने की
  −
 
  −
आवश्यकता क्यों होती है ? केवल इसलिए कि हमने
  −
 
  −
उत्पादित किया वह पदार्थ बिकना चाहिए । इस उद्देश्य
  −
 
  −
से प्रेरित होकर जो नहीं हैं ऐसे गुण बढ़ाचढ़ाकर बताए
  −
 
  −
जाते हैं और उपभोक्ता को चाहिए या नहीं इसका
  −
 
  −
ध्यान कम रखा जाता है, अपना माल बिकना चाहिए
  −
 
  −
इसका अधिक विचार किया जाता है । यह नीतिमत्ता
  −
 
  −
नहीं है । तो भी यह आज भारी मात्रा में किया जाता
  −
 
  −
है क्योंकि उत्पादन केवल अथर्जिन हेतु ही किया
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  −
जाता है, उपभोक्ता की सेवा के लिए नहीं । विकसित
  −
 
  −
और शिक्षित समाज में यह दृष्टिकोण बदलने की
  −
 
  −
आवश्यकता होती है । समुदाय को सुसंस्कृत बनाने के
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  −
लिए यह आवश्यक है ।
  −
 
  −
समुदायगत व्यवस्था में विवाह की व्यवस्था भी
  −
 
  −
विचारपूर्वक करनी होती है । उदाहरण के लिए
  −
 
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जननशास्त्र का एक सिद्धांत कहता है कि सगोत्र विवाह
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करने से कुछ ही पीढ़ियों में सम्पूर्ण जाती का नाश
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होता है । वर्तमान पारसियों का उदाहरण इस दृष्टि से
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विचारणीय है । वे सगोत्र विवाह करते हैं । इसके
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परिणामस्वरूप आज उनकी जनसंख्या में भारी गिरावट
  −
 
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आई है और एक बुद्धिमान जाती के अस्तित्व पर
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संकट उतर आया है । सगोत्र विवाह नहीं करना यह
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वैज्ञानिक नियम है । परन्तु आज किसीको गोत्र मालूम
  −
 
  −
नहीं होता है । यदि मालूम भी होता है तो उसकी
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  −
चिन्ता नहीं है क्योंकि सिद्धांत का ज्ञान भी नहीं है
  −
 
  −
और उसका पालन करने की आवश्यकता भी नहीं
  −
 
  −
लगती । ऐसे विवाह करने से सम्पूर्ण समाज का
  −
 
  −
सामर्थ्य कम होता जाता है। सामर्थ्यहीन समाज
  −
 
  −
अपना विकास नहीं कर सकता । गोत्र का सिद्धांत तो
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  −
एक है । ऐसे तो विवाहविषयक कई सिद्धांत हैं ।
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  −
हमारे समाज चिंतकों ने बहुत विचारपूर्वक विवाहशास्त्
  −
 
  −
की रचना की हुई है । आज उसके विषय में घोर
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  −
अज्ञान और उपेक्षा का व्यवहार होने के कारण समाज
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पर सांस्कृतिक संकट छाया है । यह
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विषय स्वतंत्र चर्चा का विषय है, यहाँ केवल इतना ही
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बताना प्रासंगिक है कि व्यवसाय की तरह विवाह भी
  −
 
  −
सामाजिक संगठन के लिए अत्यंत आवश्यक विषय
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है । कुल मिलाकर शिक्षा का यह एक महत्त्वपूर्ण अंग
  −
 
  −
है।
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  −
समुदायगत जीवन में सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक
  −
 
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सम्मान की ओर ध्यान देना चाहिए । इस दृष्टि से
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  −
परिवार में ही व्यक्तिगत रूप से शिक्षा होनी चाहिए ।
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उदाहरण के लिए पराई स्त्री की ओर माता कि दृष्टि से
  −
 
  −
ही देखना चाहिए तथा ख्त्री की रक्षा हेतु सदैव तत्पर
  −
 
  −
रहना चाहिए यह घर में सिखाया जाना चाहिए ।
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समुदाय में कोई भूखा न रहे इस दृष्टि से कुट्म्ब में
  −
 
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दानशीलता बढ़नी चाहिए । श्रम प्रतिष्ठा ऐसा ही
  −
 
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सामाजिक Aes S| AGT और सदाचार सामाजिक
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सुरक्षा और सम्मान के लिए ही होता है । सार्वजनिक
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कामों और व्यवस्थाओं की सुरक्षा भी शिक्षा का ही
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विषय है । समुदाय में एकता, सौहार्द, सहयोग, शान्ति
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  −
बनी रहे इस दृष्टि से व्यवसाय, कानून, विवाह, शिक्षा
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आदि की व्यवस्था होना अपेक्षित है ।
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ये सब तो क्या सिखाना चाहिए उसके बिंदु हैं । परन्तु
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शिक्षा और पौरोहित्य ये दो ऐसे विषय हैं जिनकी
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विशेष रूप से चिन्ता करनी चाहिए । हर समुदाय ने
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अपने सदस्यों की शिक्षा का प्रबन्ध अपनी ज़िम्मेदारी
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से करना चाहये । राज्य के ऊपर इसका बोझ नहीं
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डालना चाहिए । जिस प्रकार Hers के लोग अपनी
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ज़िम्मेदारी पर कुट्म्ब चलाते हैं उसी प्रकार समाज ने
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अपनी शिक्षा की व्यवस्था स्वयं करनी चाहिए । उसी
  −
 
  −
प्रकार समुदाय को धर्मविषयक मार्गदर्शन करने वाले
  −
 
  −
पुरोहित की भी विशेष व्यवस्था समुदाय ने करनी
  −
 
  −
चाहिए । आज ऐसी कोई व्यवस्था है ही नहीं, और
  −
 
  −
होनी चाहिए ऐसा लगता भी नहीं है, तब तो इस पर
  −
 
  −
विशेष विचार करना चाहिए । समाज के नीतिमूल्यों
  −
 
  −
की रक्षा हेतु, सांस्कृतिक दृष्टि से करणीय अकरणीय
  −
 
  −
बातें बताने के लिए और सिखाने के लिए हमारे
  −
 
  −
gy
  −
 
  −
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
  −
 
  −
समाज में पुरोहित की व्यवस्था होती थी । विगत कई
  −
 
  −
पीढ़ियों से हमने उसे छोड़ दी है । इस पर पुन: विचार
  −
 
  −
करना चाहिए ।
  −
 
  −
इस प्रकार व्यक्ति के कुट्म्ब में और कुट्म्ब के
  −
 
  −
समुदाय में समायोजन का हमने विचार किया । आगे
  −
 
  −
व्यक्ति की राष्ट्रीता होती है । इसका विचार अब
  −
 
  −
करेंगे ।
  −
 
  −
राष्ट्र
  −
 
  −
हर व्यक्ति जिस प्रकार अपने परिवार और समुदाय का
  −
 
  −
सदस्य होता है उसी प्रकार वह एक राष्ट्र का अंश होता है ।
  −
 
  −
परिवार सामाजिक इकाई है, समुदाय मुख्य रूप से आर्थिक
  −
 
  −
इकाई है और राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई है । राष्ट्र एक ऐसी प्रजा
  −
 
  −
का समूह है जिसकी एक भूमि होती है, उस भूमि के साथ
  −
 
  −
उसका मातृवत सम्बन्ध होता है और जिसका एक
  −
 
  −
जीवनदर्शन होता है । एक राष्ट्र के नाते वह विश्वसमुदाय का
  −
 
  −
सदस्य होता है ।
  −
 
  −
राष्ट्र की अपनी एक जीवनशैली होती है जो उसके
  −
 
  −
जीवनदर्शन के आधार पर विकसित हुई होती है । राष्ट्र के हर
  −
 
  −
सदस्य को उस जीवनशैली को अपनाना होता है ।
  −
 
  −
भारत एक राष्ट्र है और उसकी जीवनशैली की
  −
 
  −
स्वाभाविक विशेषतायें इस प्रकार हैं ...
  −
 
  −
०. हम इस सृष्टि को एक ही मानते हैं और सब एकात्म
  −
 
  −
सम्बन्ध से जुड़े हैं ऐसा मानते हैं । इसलिए सबको
  −
 
  −
अपना मानते हैं । जिन्हें अपना माना उसका हित
  −
 
  −
चाहते हैं, उसके साथ प्रेम का व्यवहार करते हैं ।
  −
 
  −
जिसके लिए प्रेम होता है उसके लिए त्याग करने के
  −
 
  −
लिए उद्यत होते हैं और उसकी सेवा भी करते हैं । हम
  −
 
  −
किसीका शोषण नहीं करते ।
  −
 
  −
हम मानते हैं कि चराचर जगत के सभी पदार्थों की
  −
 
  −
स्वतंत्र सत्ता है । इस कारण से सबका सम्मान करना
  −
 
  −
चाहिए, सबकी स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिए ।
  −
 
  −
हमारे जीवन के निर्वाह हेतु हमें सबसे कुछ न कुछ
  −
 
  −
लेना पड़ता है । इसके लिए हमें सबके प्रति कृतज्ञता
  −
 
  −
का व्यवहार करना चाहिए । एकात्मता और सबकी
  −
 
  −
स्वतंत्र सत्ता का स्वीकार करने के कारण हम संघर्ष में
  −
 
  −
............. page-111 .............
  −
 
  −
पर्व २ : उद्देश्यनिर्धारण
  −
 
  −
नहीं अपितु समन्वय में या सामंजस्य में मानते हैं । हम
  −
 
  −
सहअस्तित्व में मानते हैं । हम सबका हित और
  −
 
  −
सबका सुख चाहते हैं,सबके हित और सुख की रक्षा
  −
 
  −
करते हैं ।
  −
 
  −
०. इस सृष्टि के सृजन के साथ साथ उसे धारण करने
  −
 
  −
वाली अर्थात उसका नाश न होने देने वाली व्यवस्था
  −
 
  −
भी बनी है । इस व्यवस्था के कुछ नियम हैं । इन
  −
 
  −
सार्वभौम सनातन विश्वनियम का नाम धर्म है । सृष्टि के
  −
 
  −
चालक, नियामक और नियंत्रक तत्त्व धर्म को हमने
  −
 
  −
अपने जीवन का भी चालक, नियामक और नियंत्रक
  −
 
  −
तत्त्व बनाया है । इसलिए हमारे हर व्यवहार, हर
  −
 
  −
व्यवस्था, हर रचना का निकष धर्म है । जो कुछ भी
  −
 
  −
धर्म के अविरोधी है वह स्वीकार्य है, जो भी धर्म के
  −
 
  −
विरोधी है वह त्याज्य है । इसके परिणामस्वरूप हमारा
  −
 
  −
भी नाश नहीं होता और हम किसीके नाश का कारण
  −
 
  −
नहीं बनते ।
  −
 
  −
© | कर्तव्य और अधिकार एक सिक्के के दो पहलू हैं । हम
  −
 
  −
कर्तव्य के पहलू को सामने रखकर व्यवहार करते हैं ।
  −
 
  −
इसका अर्थ यह है कि हम दूसरों के अधिकार का
  −
 
  −
विचार प्रथम करते हैं । इससे हमारे अधिकार की भी
  −
 
  −
रक्षा अपने आप हो जाती है । हमारा व्यवहार आपसी
  −
 
  −
लेनदेन से चलता है । लेनदेन के व्यवहार में हम देने
  −
 
  −
की ही चिन्ता करते हैं लेने की नहीं । परिणामस्वरूप
  −
 
  −
हमें भी जो चाहिए वह बिना चिन्ता किये मिल जाता
  −
 
  −
है।
  −
 
  −
०"... प्रेम, आनंद, सौन्दर्य, ज्ञान, सत्य जीवन के मूल
  −
 
  −
आधार हैं । इसके अनुसार व्यवहार करने से किसी
  −
 
  −
एक के नहीं अपितु सबके जीवन में सुख, शान्ति,
  −
 
  −
सौहार्द, समृद्धि और सार्थकता आती है । किसी भी
  −
 
  −
छोटे, क्षुद्र स्वार्थ के लिए इन्हें नहीं छोड़ना यही हमारा
  −
 
  −
सिद्धांत है ।
  −
 
  −
© हम स्वकेन्द्री नहीं हैं, परमात्मकेन्द्री हैं । हमारा
  −
 
  −
अनुभव है कि स्वकेन्द्री होने से किसीको भी सुख नहीं
  −
 
  −
मिलता, किसीका भी हित नहीं होता । स्वकेन्द्री होने
  −
 
  −
से संघर्ष और हिंसा ही फैलते हैं जिसका परिणाम नाश
  −
 
  −
९५
  −
 
  −
ही है । हम श्रेष्ठ होना चाहते हैं
  −
 
  −
सर्वश्रेष्ठ नहीं ।
  −
 
  −
हमारे राष्ट्रीय जीवन के ये आधारभूत तत्त्व हैं । यह
  −
 
  −
बात सत्य है कि आज इनकी प्रतिष्ठा नहीं है । हम कदाचित
  −
 
  −
इन्हें भूल गए हैं और इन्हें मानते भी नहीं हैं । हमारी सारी
  −
 
  −
व्यवस्थायें और व्यवहार इनसे ठीक उल्टा हो रहा है । परन्तु
  −
 
  −
यह विस्मृति है । युगों से हमारा राष्ट्र इन्हीं आधारों पर चलता
  −
 
  −
आया है । हमारे शास्त्र और धर्मग्रन्थ इनकी ही महिमा बताते
  −
 
  −
हैं । हमारे सन्त महात्मा इनका ही उपदेश देते हैं । हमारा
  −
 
  −
इतिहास इनके ही उदाहरण प्रस्तुत करता है । हमारे अन्तर्मन
  −
 
  −
में इनकी ही प्रतिष्ठा है । इसलिए ये आज ऊपर से दिखाई न
  −
 
  −
देते हों तो भी नींव में तो हैं ही ।
  −
 
  −
शिक्षा के द्वारा इनकी पुनः: प्रतिष्ठा होनी चाहिए । यही
  −
 
  −
उसका मूल प्रयोजन है । शिक्षा की सार्थकता ही उसमें है कि
  −
 
  −
वह धर्म सिखाती है । आज हमने शिक्षा के अभारतीय
  −
 
  −
प्रतिमान की प्रतिष्ठा कर इन सनातन तत्त्वों को ही विस्मृत
  −
 
  −
कर दिया है इसलिए सर्वत्र अव्यवस्था फैली हुई है । शिक्षा
  −
 
  −
का भारतीय प्रतिमान लागू करने से इसका उपाय हो सकता
  −
 
  −
है।
  −
 
  −
और एक बात की स्पष्टता करने की आवश्यकता है ।
  −
 
  −
हमने राष्ट्र और देश इन दो संज्ञाओं को एक मान लिया है ।
  −
 
  −
ऐसा अँग्रेजी के नेशन शब्द के अनुवाद से हुआ है । वास्तव
  −
 
  −
में देश एक सांविधानिक राजकीय भौगोलिक संकल्पना है
  −
 
  −
जबकि राष्ट्र सांस्कृतिक, आध्यात्मिक । दोनों में कोई विरोध
  −
 
  −
नहीं है । देश राज्यव्यवस्था है, राष्ट्र जीवनदर्शन है । राज्य
  −
 
  −
संविधान के आधार पर चलता है, राष्ट्र धर्म के आधार पर ।
  −
 
  −
राष्ट्र राज्य का भी आधार है, राज्य का भी निकष है । हम
  −
 
  −
राज्यव्यवस्था में नागरिक हैं, राष्ट्रव्यवस्था में राष्ट्रीय हैं ।
  −
 
  −
आज इस भेद को भी ध्यान में नहीं लिया जाता है इसलिए
  −
 
  −
राष्ट्रीय बनाने की शिक्षा भी नहीं दी जाती है । भारतीय शिक्षा
  −
 
  −
में इसका समावेश अनिवार्य रूप से होना चाहिए ।
  −
 
  −
fag
  −
 
  −
विश्व से तात्पर्य है दुनिया के सभी राष्ट्रों का मानव
  −
 
  −
समुदाय । हमारा सामंजस्य विश्व के सभी मानव समुदायों के
  −
 
  −
............. page-112 .............
  −
 
  −
साथ होना अपेक्षित है । यह सामंजस्य
  −
 
  −
हम कैसे स्थापित कर सकते हैं ? आज कहा जाता है कि
  −
 
  −
संचार माध्यमों के प्रभाव से विश्व बहुत छोटा हो गया है
  −
 
  −
इसलिए अब एक देश की नागरिकता के स्थान पर
  −
 
  −
विश्वनागरिकता का ही विचार करना चाहिए । राष्ट्रवाद
  −
 
  −
संकुचित कल्पना है, अब विश्ववाद को स्वीकार करना
  −
 
  −
चाहिए । परन्तु ऐसा हो नहीं सकता । एक तो यह समुचित
  −
 
  −
तर्क नहीं है । हम समुदाय के सदस्य होने पर भी परिवार के
  −
 
  −
सदस्य होते ही हैं । परिवार के सदस्य होते हुए भी व्यक्ति
  −
 
  −
होते ही हैं । उसी प्रकार हम विश्व के अंग होने पर भी राष्ट्रीय
  −
 
  −
हो ही सकते हैं । किंबहुना हम अच्छे राष्ट्रीय होने पर ही
  −
 
  −
विश्वनागरिक बन सकते हैं ।
  −
 
  −
सामंजस्य बिठाने का सही तरीका तो यह है कि हम
  −
 
  −
स्वीकार करें कि विश्व के हर राष्ट्र का अपना अपना स्वभाव
  −
 
  −
होता है । विश्व के हर राष्ट्र को विश्वजीवन में विश्वव्यवस्था में
  −
 
  −
अपनी अपनी भूमिका निभानी होती है । भारत की भूमिका
  −
 
  −
धर्मचक्र की गति को अबाधित रखना है । भारत भारत
  −
 
  −
होकर ही यह भूमिका निभा सकता है। सर्वेषामविरोधेन
  −
 
  −
जीवनव्यवस्था कैसे की जाती है इसका उदाहरण भारत को
  −
 
  −
प्रस्तुत करना है ताकि विश्व के अन्य राष्ट्र स्वयं का भी सही
  −
 
  −
सन्दर्भ समझ सकें । भारत विश्व के अन्य राष्ट्रों पर सामरिक
  −
 
  −
अथवा राजकीय विजय प्राप्त कर उन्हें अपना दास बनाने के
  −
 
  −
लिए नहीं है, वह धर्म और संस्कृति के प्रसार और शिक्षा के
  −
 
  −
माध्यम से सबको सुख, स्वास्थ्य, समृद्धि और संस्कार प्राप्त
  −
 
  −
करने हेतु सामर्थ्य प्राप्त करने में सहायता करने के लिए है ।
  −
 
  −
इसलिए आवश्यक है कि हम विश्व में गरिमा लिए
  −
 
  −
संचार करें । आज हम भारतीय होने के लिए हीनताबोध से
  −
 
  −
ग्रस्त हैं और स्वत्व को भुला रहे हैं । दूसरों की नकल करने
  −
 
  −
में ही गौरव का अनुभव कर रहे हैं । शिक्षा सर्वप्रथम इस
  −
 
  −
हीनताबोध को दूर करने के लिए प्रयास करे यह पहली
  −
 
  −
आवश्यकता है ।
  −
 
  −
आज संपूर्ण विश्व पर पश्चिम के देश, मुख्य रूप से
  −
 
  −
अमेरिका, छा जाने का प्रयास कर रहे हैं । उनकी जीवनदृष्टि
  −
 
  −
भौतिकवादी है इसलिए उनका व्यवहार एवं व्यवस्थायें
  −
 
  −
अर्थनिष्ठ है । भारत धर्मनिष्ठ है । स्पष्ट है कि टिकाऊ तो
  −
 
  −
९६
  −
 
  −
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
  −
 
  −
भारत ही है क्योंकि धर्म के अधीन अर्थ की व्यवस्था समृद्धि
  −
 
  −
का साधन है जबकि धर्मविहीन अर्थ विनाश के मार्ग पर ले
  −
 
  −
जाने वाला है । भारत को अपनी व्यवस्थाओं में परिवर्तन
  −
 
  −
कर विश्व के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करना है ।
  −
 
  −
पश्चिम के बाजार के आक्रमण से हमें बचना है । इस
  −
 
  −
दृष्टि से हमारी अर्थव्यवस्था तो ठीक होनी ही चाहिए, साथ
  −
 
  −
ही अर्थ विषयक हमारी दृष्टि भी बदलनी चाहिए । बाजार का
  −
 
  −
आक्रमण पश्चिम की ही पद्धति से उत्पादन बढ़ाने का और
  −
 
  −
विश्वव्यापार बढ़ाने की होड में उतरने से हम परावृत नहीं कर
  −
 
  −
सकते है, अपनी पद्धति अपनाने से ही वह संभव है । उसी
  −
 
  −
प्रकार से हमारी समाजव्यवस्था पर, परिवारजीवन पर भी
  −
 
  −
पश्चिम की मान्यतायें हावी हो रही हैं । हमारे हीनताबोध के
  −
 
  −
कारण हम उन्हें आधुनिक कहकर अपना रहे हैं । उससे
  −
 
  −
असंस्कार का साप्राज्य फ़ेल रहा है । हमें परिवारजीवन पुन:
  −
 
  −
सुदृढ़ बनाकर विश्व के अन्य देशों को सामाजिक सुरक्षा का
  −
 
  −
रास्ता बताना है ।
  −
 
  −
अपने दीर्घ इतिहास में भारत ने विश्वविजय का
  −
 
  −
सांस्कृतिक स्वरूप बताया है । इतिहास प्रमाण है कि हम
  −
 
  −
विश्व के लगभग सभी देशों में ज्ञान, कौशल, संस्कार लेकर
  −
 
  −
गए हैं और उन्हें हमारी ही तरह श्रेष्ठ जीवन जीने का मार्ग
  −
 
  −
बताया है । आज भी वैसा करने की आवश्यकता है क्योंकि
  −
 
  −
विश्व आज विपरीत दिशा का अवलंबन कर अनेक प्रकार के
  −
 
  −
संकटों से घिर गया है । हमारा उद्घोष रहा है, “कृण्वन्तो
  −
 
  −
विश्वमार्यमू' । ऐसा कर सकने के लिए भी भारत को भारत
  −
 
  −
बनने की महती आवश्यकता है । विश्व को जीतने का अर्थ
  −
 
  −
उसे पराजित करना नहीं है, उसे अपना कर अपना बनाना है
  −
 
  −
और जीवन के शाश्वत मूल्यों में सबकी श्रद्धा और विश्वास
  −
 
  −
al Ges SAT है । भारत इसके लिए ही बना है।
  −
 
  −
इस प्रकार परिवार, समुदाय, राष्ट्र और विश्व के स्तरों
  −
 
  −
पर मनुष्य को समायोजन साधने की आवश्यकता है । जो
  −
 
  −
शिक्षा उसे इस योग्य बनाती है वही सही शिक्षा है । केवल
  −
 
  −
व्यक्तिगत क्षमतायें बढ़ाने से कुछ सिद्ध नहीं होता है ।
  −
 
  −
सृष्टि के साथ समायोजन
  −
 
  −
परमात्मा की सृष्टि में मनुष्य के साथ साथ और भी
  −
 
  −
............. page-113 .............
  −
 
  −
पर्व २ : उद्देश्यनिर्धारण
  −
 
  −
बहुत कुछ है । जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं उसके साथ साथ
  −
 
  −
असंख्य ग्रह नक्षत्र हैं । पृथ्वी पर अरणप्य, पहाड़, महासागर
  −
 
  −
आदि हैं । पृथ्वी पर असंख्य जातियों के कीट पतंग, जीव
  −
 
  −
जंतु, पशु, पक्षी, प्राणी आदि विचरण करते हैं । वायु बहती
  −
 
  −
है। सूर्य गर्मी और प्रकाश देता है । चंद्र शीतलता प्रदान
  −
 
  −
करता है । मनुष्येतर यह सृष्टि पंचमहाभूत, वनस्पति और
  −
 
  −
प्राणियों की बनी है । पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश
  −
 
  −
पाँचमहाभूत हैं । वनस्पति और प्राणिजगत का तो हमें
  −
 
  −
परिचय है ही । इन सबके साथ समायोजन करने के बिंदु इस
  −
 
  −
प्रकार हैं ...
  −
 
  −
०. मनुष्य के समान ही ये सब भी परमात्मा के ही अंश
  −
 
  −
हैं। उनकी भी अपनी अपनी स्वतंत्र सत्ता है । उन
  −
 
  −
सबका कोई न कोई प्रयोजन है । हमें ज्ञात हो अथवा
  −
 
  −
न हो बिना प्रयोजन का कोई भी पदार्थ सृष्टि में हो ही
  −
 
  −
नहीं सकता । इन सबकी स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार
  −
 
  −
करना और सम्मान करना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है ।
  −
 
  −
अत: सर्वप्रथम सबके साथ आत्मीयता और प्रेम होना
  −
 
  −
अपेक्षित है । ये सब मनुष्य के उपयोग के लिए नहीं
  −
 
  −
बने हैं, मनुष्य के ही समान परमात्मा का प्रयोजन पूर्ण
  −
 
  −
करने के लिए बने हैं । मनुष्य के उपभोग के लिए
  −
 
  −
किसीका भी नाश करना अथवा अपव्यय करना उचित
  −
 
  −
नहीं है ।
  −
 
  −
०. मनुष्य का जीवन सृष्टि के इन पदार्थों के बिना चल
  −
 
  −
नहीं सकता । सृष्टि को मनुष्य के बिना चल सकता
  −
 
  −
है । मनुष्य के बिना वायु बह सकती है, पृथ्वी टिक
  −
 
  −
सकती है, जल बह सकता है, सूर्य प्रकाशित हो
  −
 
  −
सकता है । इन सबके बिना मनुष्य का जीवन एक
  −
 
  −
क्षण के लिए भी संभव नहीं है । मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ
  −
 
  −
बनाकर उसका जीवन शेष सब पर आधारित बनाने में
  −
 
  −
अद्भुत सन्तुलन दिखाई देता है । ऐसा होने के कारण
  −
 
  −
मनुष्य को सृष्टि के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए । मनुष्य
  −
 
  −
का सृष्टि पर अधिकार नहीं है, सृष्टि का मनुष्य पर
  −
 
  −
उपकार है। उपकार का सदैव स्मरण रखने से
  −
 
  −
समायोजन ठीक बैठता है । आज हम कृतज्ञ नहीं हो
  −
 
  −
रहे हैं अपितु अपना अधिकार जमाकर उसे अपमानित
  −
 
  −
९७
  −
 
  −
कर रहे हैं। इस व्यवहार को
  −
 
  −
बदलने की आवश्यकता है।
  −
 
  −
०... समझदार लोग कहते हैं कि परमात्मा ने जब सृष्टि की
  −
 
  −
रचना की तब उसके संचालन के नियम बनाए । साथ
  −
 
  −
ही उसके पालन और पोषण की भी व्यवस्था की ।
  −
 
  −
अत: सब यदि ठीक चलता है तो कोई भूखा नहीं
  −
 
  −
रहेगा, कोई भी अनिवार्य आवश्यक बातों से वंचित
  −
 
  −
नहीं रहेगा । इस तथ्य को ध्यान में रखकर हमें
  −
 
  −
प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्वक उपयोग करना
  −
 
  −
चाहिए । मनुष्य दो बातों से प्रेरित होकर उपभोग
  −
 
  −
करता है । एक होती हैं आवश्यकतायें और दूसरी
  −
 
  −
होती हैं इच्छायें । आवश्यकतायें सीमित होती हैं
  −
 
  −
जबकि इच्छायें अपरिमित । मनुष्य इच्छापूर्ति के पीछे
  −
 
  −
लगता है तो वह एक असंभव बात को संभव बनाने
  −
 
  −
का प्रयास ही कर रहा होता है । अत: धर्म का आदेश
  −
 
  −
इच्छाओं को संयमित करने का रहता है।
  −
 
  −
आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्राकृतिक
  −
 
  −
संसाधनों का दोहन करना चाहिए,शोषण नहीं । प्रकृति
  −
 
  −
के साथ समायोजन करने के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण
  −
 
  −
आयाम है ।
  −
 
  −
०. परमात्मा ने बनाई हुई इस सृष्टि में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ
  −
 
  −
सृजन है , भारतीय विचारधारा में श्रेष्ठ का कर्तव्य है
  −
 
  −
कि वह अपने से कनिष्ठ सबका रक्षण और पोषण
  −
 
  −
करे । इस दृष्टि से मनुष्य को सृष्टि का रक्षण करना
  −
 
  −
चाहिए ।
  −
 
  −
इस प्रकार प्रेम, कृतज्ञता, दोहन और रक्षण का
  −
 
  −
व्यवहार करने से मनुष्य सृष्टि के साथ समायोजन कर सकता
  −
 
  −
है । स्पष्ट है कि आज ऐसा होता नहीं है । शिक्षा को यह
  −
 
  −
विषय गंभीरता से लेना चाहिए ।
  −
 
  −
यहाँ मनुष्य के विकास के दो आयामों की हमने चर्चा
  −
 
  −
की । एक आयाम है मनुष्य की सर्व अंतर्निहित क्षमताओं
  −
 
  −
का विकास और दूसरा है सम्पूर्ण सृष्टि के साथ समायोजन ।
  −
 
  −
एक है सर्वागीण विकास और दूसरा है परमेष्टिगत विकास |
  −
 
  −
दोनों मिलकर होता है समग्र विकास ।
  −
 
  −
............. page-114 .............
  −
 
  −
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
      
==References==
 
==References==
 
<references />
 
<references />
   −
[[Category:भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप]]
+
[[Category:पर्व 2: उद्देश्य निर्धारण]]
[[Category:उद्देश्य निर्धारण]]
+
[[Category:Dharmik Jeevan Pratimaan Paathykram]]

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