Line 53: |
Line 53: |
| अंगांगी भाव से तात्पर्य यही है कि अंग हमेशा अंगी के अधीन और अनुकूल होना चाहिये अथवा रहना चाहिये । अंग हमेशा अंगी के अविरोधी होना चाहिये । अंगरूप विषयों के सभी तथ्यों के निकष अंगी में होंगे । अंगरूप विषयों के सभी खुलासे अंगी में मिलने चाहिये । अंग को अंगी से ही मान्यता मिलेगी । अंगरूप विषय का समर्थन यदि अंगी में नहीं है तो वह त्याज्य होगा । अर्थात् धर्मशास्त्र को अध्यात्मशास्त्र का समर्थन चाहिये, समाजशास्त्र को धर्मशास्त्र का समर्थन चाहिये, अर्थशास्त्र को समाजशास्त्र का समर्थन चाहिये, आहारशास्र को आरोग्यशास्त्र का समर्थन चाहिये, भौतिक विज्ञानों को प्राणिक विज्ञानों का समर्थन चाहिये, प्राणिक विज्ञानों को मनोविज्ञान का समर्थन चाहिये और मनोविज्ञान को फिर अध्यात्मशास्त्र का समर्थन चाहिये । निर्माण के सभी शास्त्रों को रचना के सभी शास्त्रों का समर्थन चाहिये, रचना को व्यवस्था के, व्यवस्था को व्यवहार के, व्यवहार को तत्त्व के और तत्त्व को अनुभूति के शास्त्र का समर्थन चाहिये । सभी शास्त्रों की यह अन्तर्भूत प्रमाणव्यवस्था है । | | अंगांगी भाव से तात्पर्य यही है कि अंग हमेशा अंगी के अधीन और अनुकूल होना चाहिये अथवा रहना चाहिये । अंग हमेशा अंगी के अविरोधी होना चाहिये । अंगरूप विषयों के सभी तथ्यों के निकष अंगी में होंगे । अंगरूप विषयों के सभी खुलासे अंगी में मिलने चाहिये । अंग को अंगी से ही मान्यता मिलेगी । अंगरूप विषय का समर्थन यदि अंगी में नहीं है तो वह त्याज्य होगा । अर्थात् धर्मशास्त्र को अध्यात्मशास्त्र का समर्थन चाहिये, समाजशास्त्र को धर्मशास्त्र का समर्थन चाहिये, अर्थशास्त्र को समाजशास्त्र का समर्थन चाहिये, आहारशास्र को आरोग्यशास्त्र का समर्थन चाहिये, भौतिक विज्ञानों को प्राणिक विज्ञानों का समर्थन चाहिये, प्राणिक विज्ञानों को मनोविज्ञान का समर्थन चाहिये और मनोविज्ञान को फिर अध्यात्मशास्त्र का समर्थन चाहिये । निर्माण के सभी शास्त्रों को रचना के सभी शास्त्रों का समर्थन चाहिये, रचना को व्यवस्था के, व्यवस्था को व्यवहार के, व्यवहार को तत्त्व के और तत्त्व को अनुभूति के शास्त्र का समर्थन चाहिये । सभी शास्त्रों की यह अन्तर्भूत प्रमाणव्यवस्था है । |
| | | |
− | निम्नलिखित वचन यही बात समझाते हैं<ref>श्रीमद भगवद्गीता ७.११ </ref> -<blockquote>बलं बलवतामस्मि कामरागविवर्जितम्।</blockquote><blockquote>धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।</blockquote>सभी प्राणियों में धर्म के अविरोधी काम मैं हूँ । | + | निम्नलिखित वचन यही बात समझाते हैं<ref>श्रीमद भगवद्गीता ७.११ </ref> -<blockquote>बलं बलवतामस्मि कामरागविवर्जितम्।</blockquote><blockquote>धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।</blockquote><blockquote>सभी प्राणियों में धर्म के अविरोधी काम मैं हूँ ।</blockquote><blockquote>अर्थशास्त्रात तु बलवत् धर्म शास्त्रं इति स्मृत: {{Citation needed}}।</blockquote><blockquote>अर्थशास्त्र से धर्म शास्त्र बलवान है ।</blockquote>एक प्रश्न अभी भी उत्तर देने योग्य रहता है। |
| | | |
− | “अर्थशास्त्रात तु बलवत् धर्म शास्त्रं इति स्मृत: ।'
| + | सामाजिकशास्त्र और प्राकृतिकशास्त्रों में भी क्या अंग अंगी भाव रहेगा ? यदि हाँ, तो कौन सा अंग होगा और कौन सा अंगी ? प्राकृतिक रचना परमात्मा की रचना है, परमात्मा से निःसृत हुई है, जबकि सांस्कृतिक रचना मनुष्य निर्मित है । मनुष्य भी प्राकृतिक रचना का एक अंग है । इसलिये सामाजिक शास्त्रों का निकष प्राकृतिक शास्त्रों में होना चाहिये । प्राकृतिक शास्त्रों को ही आज विज्ञान कहा जाता है । इसलिये आज वैज्ञानिकता को ही अन्तिम निकष माना जाता है । परन्तु यह प्रमेय इतना सरल नहीं है । हम इसके कुछ आयाम देखेंगे । |
| | | |
− | अर्थशास्त्र से धर्मशास््र बलवान है ।
| + | मनुष्य को छोडकर सारी सृष्टि - प्राणि, वनस्पति और पंचमहाभूत - प्रकृति के नियमन और नियन्त्रण में रहते हैं। वे अपनी या अन्यों की स्थिति में परिवर्तन नहीं कर सकते । परन्तु उनकी रचना को समझना और उसका संरक्षण करना मनुष्य का दायित्व है। इस दायित्व को निभाने की बात सांस्कृतिकशास्त्र के अन्तर्गत आती है । प्रकृति को जानना प्राकृतिकशास्त्रों के अन्तर्गत आता है । प्रकृति के साथ मनुष्य को कैसा व्यवहार करना चाहिये यह धर्मशास्त्र का और उसके अन्तर्गत नीतिशास्त्र का विषय है । समस्त सृष्टि अन्नमय और प्राणमय कोश में अवस्थित है। मनुष्य इससे ऊपर उठता हुआ मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय में अवस्थित होता है । उसे इन सब कोशों के आवरणों से मुक्त होकर अपने स्वस्वरूप का बोध करना है । अत: मनुष्य जगत के जो अन्नमय और प्राणमय कोश के विषय हैं वहाँ प्राकृतिक विज्ञान निकष हैं परन्तु उसके मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश से सम्बन्धित विषयों के लिये सामाजिक शास्त्र ही अन्तिम निकष होते हैं । इस अर्थ में आज की “वैज्ञानिकता' बहुत ही सीमित स्वरूप में निकष बन सकती है। और फिर सृष्टिधारणा और समाजधारणा यह मनुष्य के सभी व्यवहार का प्रयोजन है । व्यक्तिगत और सामुदायिक श्रेय और प्रेय की प्राप्ति सभी व्यापारों का लक्ष्य है । और फिर अध्यात्म तो अन्तिम निकष है ही । |
| | | |
− | एक प्रश्न अभी भी उत्तर देने योग्य रहता है।
| + | == वर्तमान का विचार == |
− | | + | वर्तमान शिक्षाव्यवस्था में इस क्षेत्र की घोर अनवस्था दिखाई देती है । इस अनवस्था के कुछ प्रमुख आयाम इस प्रकार हैं । |
− | सामाजिकशास्त्र और प्राकृतिकशास्त्रों में भी क्या अंग अंगी
| + | * अध्यात्मशास्त्र पूर्णरूप से अनुपस्थित है । अत: पूर्ण ज्ञानक्षेत्र अधिष्ठान के बिना खड़ा है । इस कारण से उसका भटक जाना अवश्यम्भावी है । |
− | | + | * प्राकृतिकशास्त्रों के अन्नमय और प्राणमय कोश की सीमितता को समझे बिना उसे सभी सामाजिक शास्त्रों के लिये निकष बना दिया गया है । एक असम्भव बात को सम्भव बनाने के प्रयास से अनवस्था निर्माण होना स्वाभाविक है । |
− | भाव रहेगा ? यदि हाँ, तो कौन सा अंग होगा और कौन
| + | * विषयों के अंगांगी भाव को विस्मृत कर सभी विषयों का स्वतन्त्र और समान रूप से अध्ययन और अध्यापन करना यह ज्ञान के क्षेत्र का आतंक है । इससे समाजजीवन में सभी प्रकार की विशृंखलता निर्माण होना अपरिहार्य बन जाता है । ज्ञान के क्षेत्र का सबसे बड़ा खतरा यही है । |
− | | + | * विश्वविद्यालयों , महाविद्यालयों , माध्यमिक विद्यालयों, प्राथमिक विद्यालयों और पूर्वप्राथमिक विद्यालयों की शिक्षायोजना में कोई आन्तरिक विचारसूत्र नहीं दिखाई देता इसका भी कारण यही अंगांगी भाव का विस्मरण ही है । |
− | सा अंगी ? प्राकृतिक रचना परमात्मा की रचना है,
| + | * समाजजीवन की सभी व्यवस्थाओं और व्यवहारों तथा शिक्षा संस्थाओं में पढ़ाये जाने वाले विषयों में सामंजस्य का अभाव भी इसीका परिणाम है । ज्ञान के क्षेत्र की यह गम्भीर समस्या है। इसे सुलझाना हमारा प्रथम कर्तव्य होता है । |
− | | |
− | परमात्मा से निःसृत हुई है, जबकि सांस्कृतिक रचना मनुष्य
| |
− | | |
− | निर्मित है । मनुष्य भी प्राकृतिक रचना का एक अंग है ।
| |
− | | |
− | इसलिये सामाजिक शास्त्रों का निकष प्राकृतिक शास्त्रों में
| |
− | | |
− | होना चाहिये । प्राकृतिक शास्त्रों को ही आज विज्ञान कहा
| |
− | | |
− | जाता है । इसलिये आज वैज्ञानिकता को ही अन्तिम निकष
| |
− | | |
− | माना जाता है । परन्तु यह प्रमेय इतना सरल नहीं है । हम
| |
− | | |
− | इसके कुछ आयाम देखेंगे ।
| |
− | | |
− | मनुष्य को छोडकर सारी सृष्टि - प्राणि, वनस्पति
| |
− | | |
− | और पंचमहाभूत - प्रकृति के नियमन और नियन्त्रण
| |
− | | |
− | में रहते हैं। वे अपनी या अन्यों की स्थिति में
| |
− | | |
− | परिवर्तन नहीं कर सकते । परन्तु उनकी रचना को
| |
− | | |
− | समझना और उसका संरक्षण करना मनुष्य का
| |
− | | |
− | दायित्व है। इस दायित्व को निभाने की बात
| |
− | | |
− | सॉस्कृतिकशास््र के अन्तर्गत आती है । प्रकृति को
| |
− | | |
− | जानना प्राकृतिकशास्त्रों के अन्तर्गत आता है ।
| |
− | | |
− | प्रकृति के साथ मनुष्य को कैसा व्यवहार करना
| |
− | | |
− | चाहिये यह धर्मशाख्र का और उसके अन्तर्गत
| |
− | | |
− | नीतिशाख्त्र का विषय है ।
| |
− | | |
− | समस्त सृष्टि अन्नमय और प्राणमय कोश में अवस्थित
| |
− | | |
− | है। मनुष्य इससे ऊपर उठता हुआ मनोमय,
| |
− | | |
− | विज्ञानमय और आनन्दमय में अवस्थित होता है ।
| |
− | | |
− | उसे इन सब कोशों के आवरणों से मुक्त होकर अपने
| |
− | | |
− | स्वस्वरूप का बोध करना है । अत: मनुष्य जगत के
| |
− | | |
− | जो अन्नमय और प्राणमय कोश के विषय हैं वहाँ
| |
− | | |
− | प्राकृतिक विज्ञान निकष हैं परन्तु उसके मनोमय,
| |
− | | |
− | विज्ञानमय और आनन्दमय कोश से सम्बन्धित विषयों
| |
− | | |
− | के लिये सामाजिक शास्त्र ही अन्तिम निकष होते हैं ।
| |
− | | |
− | इस अर्थ में आज की “वैज्ञानिकता' बहुत ही सीमित
| |
− | | |
− | स्वरूप में निकष बन सकती है। और फिर
| |
− | | |
− | २५६
| |
− | | |
− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
| |
− | | |
− | सृष्टिधारणा और समाजधारणा यह मनुष्य के सभी
| |
− | | |
− | व्यवहार का प्रयोजन है । व्यक्तिगत और सामुदायिक
| |
− | | |
− | श्रेय और प्रेय की प्राप्ति सभी व्यापारों का लक्ष्य है ।
| |
− | | |
− | और फिर अध्यात्म तो अन्तिम निकष है ही ।
| |
− | | |
− | ६. वर्तमान का विचार
| |
− | | |
− | वर्तमान शिक्षाव्यवस्था में इस क्षेत्र की घोर अनवस्था | |
− | | |
− | दिखाई देती है । इस अनवस्था के कुछ प्रमुख आयाम इस | |
− | | |
− | प्रकार हैं । | |
− | | |
− | ०... अध्यात्मशास्त्र पूर्णरूप से अनुपस्थित है । अत: पूर्ण
| |
− | | |
− | ज्ञानक्षेत्र अधिष्ठान के बिना खड़ा है । इस कारण से | |
− | | |
− | उसका भटक जाना अवश्यम्भावी है । | |
− | | |
− | प्राकृतिकशास्त्रों के अन्नमय और प्राणमय कोश की | |
− | | |
− | सीमितता को समझे बिना उसे सभी सामाजिक शास्त्रों | |
− | | |
− | के लिये fies sa दिया गया है । एक असम्भव | |
− | | |
− | बात को सम्भव बनाने के प्रयास से अनवस्था निर्माण | |
− | | |
− | होना स्वाभाविक है । | |
− | | |
− | विषयों के अंगांगी भाव को विस्मृत कर सभी विषयों | |
− | | |
− | का स्वतन्त्र और समान रूप से अध्ययन और | |
− | | |
− | अध्यापन करना यह ज्ञान के क्षेत्र का आतंक है । | |
− | | |
− | इससे समाजजीवन में सभी प्रकार की विशृंखलता | |
− | | |
− | निर्माण होना अपरिहार्य बन जाता है । ज्ञान के क्षेत्र | |
− | | |
− | का सबसे बड़ा खतरा यही है । | |
− | | |
− | विश्वविद्यालयों , महाविद्यालयों , माध्यमिक | |
− | | |
− | विद्यालयों, प्राथमिक विद्यालयों और पूर्वप्राथमिक | |
− | | |
− | विद्यालयों की शिक्षायोजना में कोई आन्तरिक | |
− | | |
− | विचारसूत्र नहीं दिखाई देता इसका भी कारण यही | |
− | | |
− | अंगांगी भाव का विस्मरण ही है । | |
− | | |
− | समाजजीवन की सभी व्यवस्थाओं और व्यवहारों | |
− | | |
− | तथा शिक्षा संस्थाओं में पढ़ाये जाने वाले विषयों में | |
− | | |
− | सामंजस्य का अभाव भी इसीका परिणाम है । | |
− | | |
− | ज्ञान के क्षेत्र की यह गम्भीर समस्या है। इसे | |
− | | |
− | सुलझाना हमारा प्रथम कर्तव्य होता है । | |
| | | |
| ==References== | | ==References== |
Line 197: |
Line 71: |
| | | |
| [[Category:पर्व 6: शिक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप]] | | [[Category:पर्व 6: शिक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप]] |
| + | [[Category:Dharmik Jeevan Pratimaan Paathykram]] |