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| Karma Sannyasa Yoga (Samskrit: कर्मसन्न्यासयोगः) is the name commonly given to the fifth chapter of the Bhagavad Gita. In this chapter, Arjuna's quest to seek the superior path among 'the path of action' and that of 'renunciation of action' is addressed. | | Karma Sannyasa Yoga (Samskrit: कर्मसन्न्यासयोगः) is the name commonly given to the fifth chapter of the Bhagavad Gita. In this chapter, Arjuna's quest to seek the superior path among 'the path of action' and that of 'renunciation of action' is addressed. |
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| + | == परिचयः ॥ Introduction == |
| + | In spite of Sri Krishna’s clear instructions, Arjuna still seems to be confused. He now wants to know conclusively which is superior, the path of action or the path of renunciation of action. To this, Sri Krishna says that both the paths lead to the highest goal which is realisation of the Supreme. Sri Krishna further asserts that perfection can be attained and one can be established in the Atman only after the mind has been purified through the performance of selfless action. The Karma Yogi who is aware of the Atman and who is constantly engaged in action knows that although the intellect, mind and senses are active, he does not do anything. He is a spectator of everything. He dedicates all his actions to the Supreme being and thus abandons attachment, ever remaining pure and unaffected. He surrenders himself completely to the Divine power. Having completely rooted out all desires, attachments and the ego, he is not born again. The sage who has realised Brahman and is always absorbed in It does not have any rebirth. Such a sage sees the one Self in all beings and creatures. He is ever free from joy and grief and enjoys eternal peace and happiness. He does not depend upon the senses for his satisfaction. On the other hand, the enjoyments of the senses are generators of pain. They are impermanent. Sri Krishna reminds Arjuna that desire is the main cause of pain and suffering. It is the cause of anger. Therefore, the aspirant should try to eradicate desire and anger if he is to reach the Supreme. The Chapter concludes by describing how to control the senses, mind and intellect by concentrating between the eyebrows and practising Pranayama. For, one who has achieved perfect control of the outgoing senses and is freed from desire, anger and fear attains liberation and enjoys perfect peace.<ref>Swami Sivananda (2000), [https://holybooks-lichtenbergpress.netdna-ssl.com/wp-content/uploads/BHAGAVAD-GITA-By-SRI-SWAMI-SIVANANDA.pdf Bhagavad Gita], Uttar Pradesh: The Divine Life Society, The Yoga of Renunciation of Action.</ref> |
| [[Category:Bhagavad Gita]] | | [[Category:Bhagavad Gita]] |
| [[Category:Prasthana Trayi]] | | [[Category:Prasthana Trayi]] |
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| == Verses == | | == Verses == |
− | ॐ | + | ॐ श्रीपरमात्मने नमः '''अथ पञ्चमोऽध्यायः''' '''अर्जुन उवाच''' |
− | श्रीपरमात्मने नमः | + | |
− | '''अथ पञ्चमोऽध्यायः''' | + | संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि । यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥५- १॥ |
− | '''अर्जुन उवाच''' | |
− | संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि । | |
− | यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥५- १॥ | |
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| '''श्रीभगवानुवाच''' | | '''श्रीभगवानुवाच''' |
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| + | संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ । तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥५- २॥ |
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− | संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
| + | ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति । निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥५- ३॥ |
− | तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥५- २॥
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− | ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
| + | सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः । एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥५- ४॥ |
− | निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥५- ३॥
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− | सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
| + | यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स: पश्यति ॥५- ५॥ |
− | एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥५- ४॥
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− | यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
| + | संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः । योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥५- ६॥ |
− | एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स: पश्यति ॥५- ५॥
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− | संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
| + | योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः । सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥५- ७॥ |
− | योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥५- ६॥
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− | योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
| + | नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् । पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ॥५- ८॥ |
− | सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥५- ७॥
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− | नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ।
| + | प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥५- ९॥ |
− | पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ॥५- ८॥
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− | प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
| + | ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥५- १०॥ |
− | इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥५- ९॥
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− | ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
| + | कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि । योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥५- ११॥ |
− | लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥५- १०॥
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− | कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।
| + | युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् । अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥५- १२॥ |
− | योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥५- ११॥
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− | युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
| + | सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी । नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥५- १३॥ |
− | अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥५- १२॥
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− | सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
| + | न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥५- १४॥ |
− | नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥५- १३॥
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− | न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । | + | नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥५- १५॥ |
− | न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥५- १४॥
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− | नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
| + | ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः । तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥५- १६॥ |
− | अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥५- १५॥
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− | ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
| + | तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः । गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥५- १७॥ |
− | तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥५- १६॥
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− | तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
| + | विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥५- १८॥ |
− | गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥५- १७॥
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− | विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
| + | इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः । निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥५- १९॥ |
− | शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥५- १८॥
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− | इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
| + | न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् । स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः ॥५- २०॥ |
− | निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥५- १९॥
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− | न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
| + | बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत् सुखम् । स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥५- २१॥ |
− | स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः ॥५- २०॥
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− | बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत् सुखम् ।
| + | ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते । आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥५- २२॥ |
− | स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥५- २१॥
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− | ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
| + | शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् । कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥५- २३॥ |
− | आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥५- २२॥
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− | शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
| + | योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः । स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥५- २४॥ |
− | कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥५- २३॥
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− | योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
| + | लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः । छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥५- २५॥ |
− | स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥५- २४॥
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− | लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
| + | कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् । अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥५- २६॥ |
− | छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥५- २५॥
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− | कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।
| + | स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः । प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥५- २७॥ |
− | अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥५- २६॥
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− | स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
| + | यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः । विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥५- २८॥ |
− | प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥५- २७॥
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− | यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
| + | भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् । सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥५- २९॥ |
− | विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥५- २८॥
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− | भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
| + | ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसंन्यासयोगो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ |
− | सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥५- २९॥
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− | ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
| + | == References == |
− | श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसंन्यासयोगो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
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