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| − | पीढ़ी निर्माण का प्रथम चरण लालयेत् पंचवर्षाणि
| + | {{One source|date=August 2020}} |
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| − | मनुष्यका इस जन्म का जीवन गर्भाधान से शुरू होता... नवविवाहित दम्पति पितृऋण से उकऋरण होने के लिये सन्तान
| + | मनुष्य के इस जन्म का जीवन गर्भाधान से आरम्भ होता है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। जीवन की शुरूआत की यह कथा रोमांचक है। इस घटना को भारत की मनीषा ने इतना महत्त्वपूर्ण माना है कि इसके अनेक शास्त्रों की रचना हुई है और आचार का विस्तार से वर्णन किया गया है। सभी शास्त्रों का समन्वय करने पर हमें अधिजनन अर्थात् जन्म के सम्बन्ध में शास्त्र प्राप्त होता है। योग, ज्योतिष, धर्मशासत्र, संगोपनशास्त्र आदि विभिन्न शास्त्रों का इस शास्त्र की रचना में योगदान है। इसकी स्वतन्त्र रूप से विस्तृत चर्चा करना बहुत उपयोगी सिद्ध होगा । यहाँ हम उस शास्त्र की चर्चा न करके इस जन्म का जीवन कैसे शुरू होता है और कैसे विकसित होता जाता है, इसकी ही चर्चा करेंगे ।मनुष्य के इस जन्म के जीवन और प्रारम्भ के चरण की चर्चा के कुछ बिन्दु इस प्रकार हैं: |
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| − | @ | जीवन की शुरूआत की यह कथा रोमांचक है । इस. की इच्छा करते हैं । उनकी योग्यता के अनुसार पूर्व जन्म
| + | == गर्भाधान == |
| | + | मनुष्य गत जन्म के संचित संस्कारों को लेकर इस जन्म हेतु योग्य मातापिता की खोज में रहता है। इधर नवविवाहित दम्पति पितृक्रण से उक्रण होने के लिये संतान की इच्छा करते हैं। उनकी योग्यता के अनुसार पूर्व जन्म के संस्कारों से युक्त उनके संभोग के समय स्त्रीबीज और पुरुषबीज के युग्म में प्रवेश करना है तब गर्भाधान होता है ।यह क्रिया शारीरिक से आत्मिक सभी स्तरों पर एक साथ होती है। इस क्षण से इस जन्म का जीवन शुरू होता है । |
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| − | घटना को भारत की मनीषा ने इतना महत्त्वपूर्ण माना है कि... के संस्कारों से युक्त उनके संभोग के समय स्त्रीबीज और
| + | गर्भाधान से पूर्व होनेवाले मातापिता उचित पूर्व तैयारी करते हैं। वे अपने आने वाले बालक के विषय में कल्पना करते हैं, आकांक्षा रखते हैं, चाह करते हैं। इस चाह, आकांक्षा और कल्पना में वे जितना स्पष्ट और निश्चित होते हैं उतना ही वे उसके अनुरूप जीव को निमन्त्रित करने में यशस्वी होते हैं। चाह के साथ साथ वे शरीरशुद्धि और मनःशुद्धि भी करते हैं। क्षेत्र और बीज जितने शुद्ध और उत्तम होते हैं उतना ही उत्तम जीव उनके पास आता है। इस पूर्वतैयारी और उसके अनुरूप योग्य जीव और उसके वैश्विक प्रयोजन को लेकर अनेक कथायें प्रसिद्ध हैं । सृष्टि पर तारकासुर का आतंक बहुत बढ़ गया था । परन्तु उसको परास्त कर सके ऐसा देवों की सेना का नेतृत्व कर सके ऐसा, सेनापति देवों के पास नहीं था । उन्हें ध्यान में आया कि भगवान शिव और देवी पार्वती का पुत्र ही ऐसा सेनापति बन सकता है । भगवान शंकर और देवी पार्वती के विवाह में अनेक अवरोध थे। इन अवरोधों को अनेक प्रयासों से पार कर जब शिव और पार्वती के पुत्र के रूप में कार्तिकेय का जन्म हुआ, बड़े होकर उसने जब देवों की सेना का सेनापति पद ग्रहण किया तब तारकासुर का वध हुआ । कथा का तात्पर्य यह है कि मातापिता की तपश्चर्या के परिणाम स्वरूप उत्तम संस्कारों से युक्त जीव उनकी सन्तान के रूप में जन्म लेता है । इस पूर्व तैयारी के एक हिस्से के रूप में गर्भाधान संस्कार होता है । ये होता दिखाई देता है मातापिता पर परन्तु वास्तव में असली असर माता के माध्यम से आने वाले शिशु पर ही होता है । जीवन का प्रथम संस्कार माता पर करने से ही मातापिता और बालक का जुड़ाव हो जाता है । गर्भाधान के समय एक जीव के पूर्वजन्मों के, माता की पाँच पीढी और पिता की चौदह पीढ़ियों के संस्कारों का मिलन होकर एक मानसिक पिण्ड बनता है, जिसमें आने वाले बालक की सम्पूर्ण जीवन की निश्चिति हो जाती है। उसका स्वभाव, उसकी आयु, उसके भोग आदि प्रमुख बातों का इसमें समावेश होता है । |
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| − | इसके अनेक शाख्रों की रचना हुई है और आचार का... पुरुषबीज के युग्म में प्रवेश करना है तब गर्भाधान होता है ।
| + | == गर्भावस्था == |
| | + | जीवन की यात्रा आरम्भ हुई । यह यात्रा माता के साथ साथ और माता के सहारे चलती है। ये प्रारम्भ के दिन अत्यन्त संस्कारक्षम होते हैं। उसका शारीरिक पिण्ड तो अभी बना नहीं है। अभी तो वह कलल, बुद्बुद, भ्रूण जैसी अवस्थाओं में से गुजरकर चार मास में गर्भ बनता है। इसलिये सीखने के उसके करण सक्रिय होने की सम्भावना नहीं है। उसके अन्तःकरण में भी अभी शेष तीन तो अक्रिय हैं, अप्रकट हैं परन्तु चित्त सर्वाधित सक्रिय है। वह तो गर्भाधान से ही सक्रिय है। उसकी सक्रियता सर्वाधिक है। भावी जीवन में कभी भी उसका चित्त इतना सक्रिय और संस्कारक्षम कभी नहीं रहेगा जितना अभी है। इसलिये वह संस्कार ग्रहण करता ही रहता है । बाहर के जगत में उसके आसपास जो हो रहा है उसके संस्कार वह माता के माध्यम से ग्रहण करता है। माता के खानपान, वेशभूषा, दिनचर्या, विचार, भावनायें, दृष्टिकोण, मनःस्थिति आदि को वह संस्कारों के रूप में ग्रहण करता रहता है और अपने पूर्वजन्म के संस्कारों का जो पुंज उसके पास है उसके साथ इन प्राप्त संस्कारों का संयोजन होता रहता है। इससे उसका चरित्र बनता है। संस्कारों के इन दो आयामों के साथ गर्भाधान के समय में प्राप्त आनुवंशिक संस्कारों का पुंज भी है। अतः पूर्वजन्म के, आनुवंशिक और माता के माध्यम से होने वाले जगत के संस्कारों का संयोजन होते होते उसका चरित्र विकसित होता है। पूर्वजन्म से और आनुवंशिक संस्कारों का स्वरूप तो निश्चित हो ही गया है। अब माता के माध्यम से होने वाले जगत के संस्कारों का ही विषय शेष है । इसलिये शास्त्र तथा परम्परा दोनों कहते हैं कि गर्भस्थ शिशु के लिये माता को अपने आहारविहार की तथा आसपास के लोगोंं को माता की शारीरिक और मानसिक सुरक्षा की अत्यधिक चिन्ता करनी चाहिये । गर्भअवस्था माता पर ही निर्भर है और जीवन के इस प्रथम चरण में वह माता से ही संस्कार ग्रहण करता है इसलिये कहा गया है , “माता प्रथमो गुरु: - माता प्रथम गुरु है । जैसा गुरु वैसा विद्यार्थी । भावी जीवन की विकास की सारी सम्भावनायें अनुकूल आहारविहार से खिल भी सकती है और प्रतिकूल आहारविहार से कुण्ठित भी हो सकती हैं। |
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| − | विस्तार से वर्णन किया गया है । सभी शास्त्रों का समन्वय... यह क्रिया शारीरिक से आत्मिक सभी स्तरों पर एक साथ
| + | गर्भावस्था के नौ मास के दौरान पुंसवन और सीमन्तोन्नयन नामक दो संस्कार भी किये जाते हैं। ये भी विकास के लिये अनुकूल हैं। गर्भावस्था के संस्कारों के विषय में भी शास्त्रों में और लोक में बहुत कहा गया है। इन संस्कारों के उदाहरण प्राचीन काल के भी मिलते है और अर्वाचीन के भी, भारत के भी मिलते हैं और अन्य देशों के भी। विश्व के सभी जानकार और समझदार लोग तो इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं है परन्तु इसकी शिक्षा की गम्भीरतापूर्वक व्यवस्था नहीं करेंगे तब तक होनेवाले माता पिता आज्ञानी रहेंगे ही। इसका परिणाम भावी पर भी होगा। |
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| − | करने पर हमें अधिजनन अर्थात् जन्म के सम्बन्ध में शास्त्र... होती है । इस क्षण से इस जन्म का जीवन शुरू होता है ।
| + | == जन्म == |
| | + | संस्कार की दृष्टि से यह क्षण भी अतिविशिष्ट महत्त्व रखता है । उस समय अवकाश के ग्रहों और नक्षत्रों, पंचमहाभूतों की स्थिति, माता तथा परिवारजनों की मानसिक स्थिति, जहाँ जन्म हो रहा है वह स्थान शिशु के चरित्र को प्रभावित करते हैं । कुछ विशेष बातें इस प्रकार हैं: |
| | + | # जन्म सामान्य प्रसूति से होता है कि सीझर से यह बहुत मायने रखता है । सीझर से होता है तब जन्म लेने के और जन्म देने के प्रत्यक्ष अनुभव से शिशु और माता दोनों वंचित रह जाते हैं जिसका उनके सम्बन्ध पर परिणाम होता है। इसलिये सीझर न करना पड़े इसकी सावधानी सगर्भावस्था में रखनी चाहिये । इस दृष्टि से व्यायाम का महत्त्व है । |
| | + | # जन्म के समय ज्ञानेन्द्रियाँ अतिशय कोमल होती हैं। अब तक वे माता के गर्भाशय में सुरक्षित थीं । अब वे अचानक बाहर के विश्व में आ गई हैं जहाँ वातावरण सर्वथा विपरीत है । उन्हें तेज गंध, तीखी और कर्कश आवाज, अपरिचित व्यक्तियों के दर्शन, कठोर स्पर्श आदि से परेशानी होती है । उनकी संवेदन ग्रहण करने की क्षमता का क्षरण हो जाता है, लोकभाषा में कहें तो वे भोथरी बन जाती हैं । |
| | + | # भावी जीवन में ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से बाह्य जगत् के जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त करना है उसमें बहुत बड़े अवरोध निर्माण हो जाते हैं । इस मुद्दे का विचार कर ही घर में, घर के परिजनों के मध्य, विशेष रूप से बनाये गये कक्ष में, सुन्दर वातावरण में सुखप्रसूति का महत्त्व बताया गया है। यह कैसे होगा इसका विस्तृत वर्णन किया गया है क्योंकि आनेवाला शिशु राष्ट्र की, संस्कृति की, कुल की और मातापिता की मूल्यवान सम्पत्ति है । इस जगत् में उसका आगमन सविशेष सम्मान और सुरक्षापूर्वक होना चाहिये । यह क्षण जीवन में एक ही बार आता है, इसे चूकना नहीं चाहिये । जन्म के बाद दसदिन तक उसे कड़ी सुरक्षा की आवश्यकता होती है । प्रकाश, ध्वनि, स्पर्श, गन्ध, दृश्य आदि ज्ञानेन्द्रियों के विषय में सजगता बरती जाती है । शिशु के कक्ष में किसी को प्रवेश की अनुमति नहीं होती, न शिशु को कक्ष के बाहर लाया जाता है । बाहर के वातावरण के साथ समायोजन करने के लिये जितना समय चाहिये उतना दिया जाता है । गर्भाधान, गर्भावस्था और जन्म की अवस्थायें ऐसी हैं जिनमें दो पीढ़ियों का जीवन शारीरिक दृष्टि से भी असम्पृक्त होकर ही विकसित होता है । स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर एकदूसरे से जुड़े हैं, सारे अनुभव साँझे हैं, शिशु माता के जीवन का अंग ही है । इसलिय जन्म होने तक वह स्वतन्त्र व्यक्ति नहीं माना जाता है । व्यक्ति की आयु का हिसाब जन्म से ही आरम्भ होता है क्योंकि जन्म के बाद ही वह स्वतन्त्र होकर जीवनयात्रा आरम्भ करता है । |
| | + | # स्वतन्त्र जीवन की प्रथम अवस्था है शिशुअवस्था । इस अवस्था की औसत आयु होती है जन्म से पाँच वर्ष की । गर्भावस्था के आधार पर यह पाँच सात मास तक अधिक भी हो सकती है परन्तु औसत पाँच वर्ष ही माना जाता है । इस अवस्था की शिक्षा नींव की शिक्षा है । इस अवस्था में भी प्रमुखता चित्त की ही है, परन्तु ज्ञानार्जन के अन्य करण भी सक्रिय होने लगते हैं । हम क्रमशः इस अवस्था की शिक्षा का विचार करे । |
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| − | प्राप्त होता है। योग, ज्योतिष, धर्मशास्त्र, संगोपनशास्त्र गर्भाधान से पूर्व होनेवाले मातापिता उचित पूर्वतैयारी | + | == शुभ अनुभवों की अनिवार्यता == |
| | + | इस अवस्था में चित्त तो सक्रिय होता ही है, साथ ही ज्ञानेन्द्रियाँ भी सक्रिय होकर अनुभव प्राप्त करती हैं । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध के उसके अनुभव शुभ होना आवश्यक है । उसी प्रकार चित्त पर पड़नेवाले संस्कार भी शुभ होना आवश्यक है । जीवन में सुन्दर असुन्दर, शुभ और अशुभ दोनों अनुभव होते हैं । दोनों ग्रहण करने के अवसर आते ही हैं । दोनों को सहना भी पड़ता है । परन्तु प्रारंभ के अनुभव सुन्दर और शुभ होना इसलिये आवश्यक है क्योंकि इससे उसका जीवनविषयक दृष्टिकोण सकारात्मक बनता है । जीवन और जगत् अच्छे हैं यह उसके विचार और व्यवहार का आधार बनता है । इस दृष्टि से उसका खानपान, उसके खानेपीने के पात्र, उसका बिस्तर, उसके कपड़े, आभूषण और खिलौने आदि का चयन ज्ञानेन्द्रियों की अनुभवक्षमता को ध्यान में रखकर करने चाहिये । सूती या रेशमी वस्त्र, देशी गाय के घी-दूध-मक्खन, लकड़ी के खिलौने, सोने-चाँदी और रत्नों के आभूषण आदि का प्रावधान करना चाहिये । उसी प्रकार मधुर संगीत, उत्तम दृश्य, मधुर गन्ध आदि का भी अनुभव आवश्यक है । ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञानार्जन प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं । साथ ही बाह्य जगत् के साथ जुड़ने का ये एकमात्र माध्यम हैं । जगत का परिचय और ज्ञानार्जन की क्षमता दोनों दृष्टि से इन अनुभवों का विचार करना चाहिये । |
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| − | आदि विभिन्न शास्त्रों का इस शास्त्र की रचना में योगदान... करते हैं । वे अपने आने वाले बालक के विषय में कल्पना | + | उसके मानसिक अनुभव मन से नहीं अपितु चित्त से ग्रहण किये जाते हैं। उसे भाषा की आवश्यकता नहीं होती । आसपास के लोगोंं के मनोभाव, विचारप्रक्रिया, एकदूसरे के प्रति व्यवहार शिशु के प्रति भाव आदि को वह यथावत् ग्रहण करता है, ग्रहण करने में वह कोई चूक नहीं करता। इस अवस्था में उसके साथ के वार्तालाप, कहानी, लोरी, टी.वी. के दृश्य आदि से वह प्रेरणा ग्रहण करता है। उसका मनसिक पिण्ड बनाने में इन सबका योगदान होता है। इस अवस्था में कठोरता का, निषेध का, अस्वीकार का अनुभव उचित नहीं होता। इसलिये शिशु को किसी बातकी मनाही करने, डाँटने, दण्ड देने का निषेध है। उसे स्वीकृति चाहिये। इस मामले में बड़ों की बहुत गलतियाँ होती हैं। ये गलतियाँ अज्ञान और असावधानी के कारण होती हैं परन्तु उनका दुष्परिणाम शिशु पर होता है । |
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| − | है। इसकी स्वतन्त्र रूप से विस्तृत चर्चा करना बहुत. करते हैं, आकांक्षा रखते हैं, चाह करते हैं । इस चाह,
| + | == जीवन का घनिष्ठतम अनुभव == |
| | + | शिशु जीवन का घनिष्ठतम अनुभव प्राप्त करना चाहता है । यह उसकी अन्तःकरण की प्रेरणा होती है । उसके विकास के लिये यह आवश्यक है । विकास की इच्छा भी उसके अन्तःकरण में सहज ही होती है । उसी प्रेरणा से विकास के लिये आवश्यक पुरुषार्थ भी वह करता है । इस पुरुषार्थ का स्वरूप कैसा है ? पहले पहले वह वस्तुओं को पकड़कर मुँह में डालता है । आगे चलकर वस्तुओं को पीटता है, फैंकता है, मरोड़ता है, तोड़ता है । ये सब बड़ों की शब्दावली के अंग है । शिशु तो स्वाद, ध्वनि, अन्तरंग आदि की परख करने के लिये प्रयोग करता है । सबकुछ स्वयं ही करना चाहता है । वह उत्तम विद्यार्थी है । उसकी कर्मेन्द्रियाँ सक्रिय होने लगती है । वह मिट्टी, पानी, रेत आदि से आकर्षित होता है । उससे खेलना उसे पसन्द है । चढना, उतरना, छलाँगे लगाना, चीखना, चिल्लाना आदि उसके सीखने के उपाय हैं। वह अनुकरणशील है । बड़े जो काम करते हैं वे सब उसे करने होते हैं । कपड़े धोना, अनाज साफ करना, रोटी बेलना, झाड़ू लगाना, अखबार पढ़ना, लिखना, फोन उठाना, दरवाजे की घण्टी बजी तो दरवाजा खोलना आदि सब उसे करना होता है । यह जिज्ञासा है जो ज्ञान ग्रहण करने का प्रथम सोपान है। यदि यह सब उसे करने दिया और बड़ों ने उसे सहायता की और उचित पद्धति से निखारा तो दोनों पीढ़ियों के लिये यह बहुत लाभकारी होता है । वह अपने आसपास के लोगोंं के साथ जुड़ता है, घर से जुड़ता है और जगत से जुड़ता है । समष्टित और सृष्टिगत विकास के लिये यह आवश्यक नींव है । |
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| − | उपयोगी सिद्ध होगा । यहाँ हम उस शास्त्र की चर्चा न करके... आकांक्षा और कल्पना में वे जितना स्पष्ट और निश्चित होते
| + | == भाषाविकास == |
| | + | मनुष्य की विशेषता भाषा है। आज हम भाषा को जितना महत्त्व देते हैं उससे उसका कई गुना अधिक महत्त्व है। भाषा ज्ञानक्षेत्र के सभी आधारभूत विषयों का भी आधार है। किसी भी प्रकार का संवाद करने के लिये, विचारों और भावनाओं की अभिव्यक्ति और अनुभूति के लिये शास्त्र समझने के लिये, उसकी रचना करने के लिये भाषा आवश्यक है। शिशु को भाषा के संस्कार गर्भावस्था से ही होते हैं। वह अनिवार्य रूप से मातृभाषा ही होती है। अतः जन्म के बाद भी भाषा सीखने के लिये मातृभाषा ही सहायक होती है। यह हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत का नहीं अपितु भाषा का प्रश्न है। |
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| − | इस जन्म का जीवन कैसे शुरू होता है और कैसे विकसित... हैं उतना ही वे उसके अनुरूप जीव को निमन्त्रित करने में | + | भाषा के दो पक्ष हैं - शब्द और अर्थ। आश्चर्यजनक रीति से शिशु अर्थ प्रथम ग्रहण करता है बाद में शब्द। जिस भाषा में उसने अर्थ ग्रहण किया है उसी भाषा का शब्द भी उसे सिखाना चाहिये। इस दृष्टि से मातृभाषा का महत्त्व सर्वाधिक है। शिशु प्रथम अर्थ ग्रहण करता है इसलिये उसे जिसमें अच्छे भाव, गहनअर्थ, स्पष्ट विचार हों ऐसी ही भाषा सुनने को मिलनी चाहिये। हमें लगता है कि उसे गहन बातें नहीं समझती हैं, परन्तु यह हमारा श्रम है। उसे शब्द नहीं समझते और शब्दों में अभिव्यक्ति भी नहीं आती परन्तु बोलने वाले का विचार यदि स्पष्ट है, वह यदि समझकर बोलता है, प्रामाणिकता से बोलता है, सत्य बोलता है, श्रद्धापूर्वक बोलता है तो उसी रूप में शिशु भी उसे ग्रहण करता है। उसे ऐसी भाषा सुनने को मिले यह देखने का दायित्व बड़ों का है। इस दृष्टि से वाचन, चर्चा, भाषण, श्रवण आदि का बहुत उपयोग होता है। यह सब सुनते सुनते वह अपने आप बोलने लगता है। जैसा सुना वैसा बोला यह भाषा का मूल नियम है। उस दृष्टि से उसे बोलने के अधिकाधिक अवसर मिलना आवश्यक है। पाँच वर्ष की आयु तक शुद्ध उच्चारण, समुचित आरोहअवरोह, विराम चिह्नों का बोध, शब्द और अर्थ का सम्बन्ध, आधारभूत व्याकरण, वाक्यरचना आदि का क्रियात्मक ज्ञान हो जाता है। यदि नहीं हुआ तो शिक्षकों की कुछ गड़बड़ है ऐसा मानना चाहिये। नासमझ मातापिता मौखिक भाषाव्यवहार सिखाने के स्थान पर पढ़ने और लिखने पर अधिक जोर देते हैं और सम्भावनाओं को नष्ट कर देते हैं। |
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| − | होता जाता है, इसकी ही चर्चा करेंगे । यशस्वी होते हैं । चाह के साथ साथ वे शरीरशुद्धि और
| + | अंग्रेजी सिखाने का मोह तो और भी नाश करता है। इससे समझदारीपूर्वक बचने की आवश्यकता है। भाषा के सम्बन्ध में और भी एक बात उल्लेखनीय है । शिशु को पुस्तकों की दुनिया से परिचित करना चाहिये। इसका अर्थ उन्हें पुस्तक पढ़ना सिखाना नहीं है। उसे पुस्तकों का स्पर्श करना, खोलना, बन्द करना, आलमारी से निकालना और रखना, पुस्तकों के विषय में बातें करना पढ़ने के प्रति आकर्षण निर्माण करना बहुत लाभकारी रहता है। इसी को संस्कार करना कहते हैं। इसी माध्यम से विद्याप्रीति निर्माण करने का काम भी किया जाता है। विद्या की देवी सरस्वती, लिपिविधाता गणेश, आद्यसम्पादक वेदव्यास आदि का परिचय भी बहुत मायने रखता है । घर में सब पढ़ते हों तो विद्याकीय वातावरण भी बनता है। भाषा अर्थात् सत्य के विविध आविष्कार। इस सृष्टि को धारण करने वाले विश्वनियम हैं धर्म और धर्म की वाचिक अभिव्यक्ति है सत्य। सत्य भाषा के अर्थ पक्ष का मूल स्रोत है। भाषा के शब्द पक्ष का मूल स्रोत है ओंकार जिसे नादब्रह्म कहा गया है। अर्थात् भाषा के माध्यम से नादब्रह्म और सत्य को ही हम जीवन के विभिन्न सन्दर्भों में प्रस्तुत कर रहे हैं। इतनी श्रेष्ठ भाषा को हम पढ़ने लिखने की यान्त्रिक क्रिया में जकड़ कर संकुचित बना देते हैं। इसीसे बचना चाहिये। भाषा का सम्बन्ध वाक् कर्मन्द्रिय से है। वाक् कर्मन्द्रिय का दूसरा विषय है स्वर। स्वर संगीत का मूल है । संगीत की देवी भी सरस्वती ही है । इस दृष्टि से संगीत का अच्छा अनुभव मिलना उसके विकास की दृष्टि से आवश्यक है। सद्गुण और सदाचार की प्रेरणा के लिये, मानसिक शान्ति और सन्तुलन के लिये तथा स्वर को ग्रहण करने और व्यक्त करने के लिये संगीत का अनुभव आवश्यक है। इस प्रकार वागीन्द्रिय के विकास की सारी सम्भावनाओं को पूर्ण साकार करने के प्रयास शिशुअवस्था में ही मातापिता को करना चाहिये। व्यक्तित्व विकास का यह महत्त्वपूर्ण आयाम है। |
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| − | मनुष्य के इस जन्म के जीवन और प्रारम्भ के चरण. मनश्शुद्धि भी करते हैं । क्षेत्र और बीज जितने शुद्ध और | + | == काम करने की आवश्यकता == |
| | + | इस सुभाषित का स्मरण करें<ref>'''''भर्तृहरिरचित नीतिशतकम्, श्लोक १२''''' </ref>: <blockquote>साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।</blockquote><blockquote>तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥12॥</blockquote><blockquote>अर्थात् साहित्य, संगीत और कला जिसे अवगत नहीं । ऐसा मनुष्य पूँछ और सींग से रहित पशु जैसा है। वह घास खाये बिना ही जीवित रहता है इसे पशुओं का बहुत भाग्य समझना चाहिये ।</blockquote>साहित्य और संगीत की चर्चा हमने ऊपर की । अब कला का विचार करना चाहिये । भाषा और संगीत वाक् कर्मन्द्रिय से जुड़े विषय हैं उस प्रकार कला का सम्बन्ध हाथ नामक कर्मेन्द्रिय से है । मनुष्य को हाथ काम करने के लिये ही प्राप्त हुए हैं । काम करने के संस्कार शिशु को प्रारंभ से ही मिलने चाहिए । शिशु यह करना भी चाहता है। उसे अवसर मिलना चाहिये । वस्तु को पकड़ने, तोड़ने और फैंकने से उसका प्रारम्भ होता है । पानी में, रेत में, मिट्टी में खेलने से हाथ का अभ्यास होता है । घर के बर्तन, डिब्बे, अन्य सामान आदि को इधर से उधर रखने से, डिब्बे भरने और खाली करने से, बर्तन रखने से, आसन, चाद, बिस्तर बिछाने और समटने से, कपड़े धोने से हाथ नामक कर्मेन्द्रिय का विकास होता है । अन्य लाभ तो मूल्यवान हैं ही । तीन वर्ष की आयु के बाद तह करना, काटना, चूरा करना, गूँधना, कूटना, छीलना, मरोड़ना, खींचना, झेलना आदि अनेक कामों का अविरत अभ्यास होना चाहिये । रंग, आकृति, नकाशी आदि का अनुभव आवश्यक है । सूई धागे का प्रयोग, मोती पिरोना, मिट्टी के खिलौने बनाना, गेरु से रंगना आदि असंख्य काम करने के अवसर उसे मिलने चाहिये । हाथ को कुशल कारीगर बनाना यही ध्येय है । हाथ से काम करते आना भौतिक समृद्धि का स्रोत भी है। इस प्रकार से कर्मन्द्रियाँ भी ज्ञानार्जन की दिशा में प्रगति करने का बडा माध्यम है । |
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| − | की चर्चा के कुछ बिन्दु इस प्रकार है उत्तम होते हैं उतना ही उत्तम जीव उनके पास आता है । | + | == सद्गुण और सदाचार == |
| | + | # घर के लोगोंं का चरित्र जैसा होगा वैसा ही बालक का भी बनेगा । घर के लोग दुश्वरित्र हों और बालक को सदूगुणी बनाने का विशेष कार्यक्रम बनाया जाय तो वह यशस्वी नहीं होता । |
| | + | # संयोगवश दुश्चरित्र मातापिता के घर में भी पूर्वजन्म के अच्छे संस्कार लेकर शिशु ने जन्म लिया है तो उसके सच्चरित्र बनने की सम्भावना बनती है । |
| | + | # सद्गुणी और सदाचारी मातापिता को अपने शिशु को चरित्रवान बनाने हेतु प्रथम आहारविहार की ओर ध्यान देना चाहिये । सात्विक आहारविहार से सद्गुर्णों की रक्षा होती है । |
| | + | # अच्छी कहानियाँ, लोरियाँ, गीत, चित्र आदि सहायक बन सकते हैं । |
| | + | # स्तोत्र, मन्त्र, श्लोक, सुभाषित अधिकतम मात्रा में कण्ठस्थ करने की यह उचित आयु है। तत्काल वाणीशुद्धि के रूप में और बड़ी आयु में मनःशुद्धि के लिये इसका उपयोग हो सकता है । |
| | + | # दान देना, पशु पक्षी को खिलाना, वृक्ष को पानी देना आदि सदाचार के काम प्रत्यक्ष करना भी आवश्यक है। |
| | + | # इस प्रकार सद्गुण और सदाचार हेतु अनेक उपाय किये जा सकते हैं परन्तु मातापिता के पुण्य, उनका स्वयं का चरित्र और शिशु के पूर्वजन्म के संस्कार ही शिशु को सदगुणी और सदाचारी बनाते हैं । |
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| − | इस पूर्वतैयारी और उसके अनुरूप योग्य जीव और उसके
| + | == मातृहस्तेन भोजनम् == |
| | + | शिशु के विकास हेतु सबसे बड़ी आवश्यकता है माता के हाथ से भोजन । यह एक प्रतीक है जो कहता है कि शिशु की सबसे बड़ी आवश्यकता है प्रेम । लाड और प्यार उसके साथ व्यवहार की प्रथम शर्त है । उसके साथ कठोर व्यवहार, डाँट, ताने, वक़वाणी, दण्डवर्जित हैं । किसी बात का निषेध, किसी कार्य में अवरोध, जबरदस्ती वर्जित हैं । उल्टे उसका कहना मानना, उसकी आज्ञा का पालन करना, उसके अनुकूल बनना आवश्यकता है । यह बड़ों की परीक्षा है । जो इस परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं उन्हें अच्छी सन्तानों के मातापिता बनने का भाग्य प्राप्त होता है। |
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| − | १. गर्भाधान वैश्विक प्रयोजन को लेकर अनेक कथायें प्रसिद्ध हैं ।
| + | इस प्रकार मनुष्य की आजीवन शिक्षा का प्रथम चरण घर में होता है । पाँच वर्ष के बाद विद्यालय में जाकर उसका अध्ययन आरम्भ होता है उसके लिये यह मूल्यवान पूर्वतैयारी है । यह पढाई यदि ठीक नहीं हुई तो आगे के अध्ययन के लिये बाधा निर्माण होती है । इसलिये कहा गया है कि कुट्म्ब ही प्रथम पाठशाला है । इस पाठशाला का कोई विकल्प नहीं है । इसी प्रकार प्रथम गुरु माता का भी कोई विकल्प नहीं है। जिन्हें इस शिक्षक से शिशुअवस्था में अच्छी शिक्षा मिलती है वे भाग्यवान हैं । अन्यथा पाँच वर्ष तो किसी भी प्रकार से बीत ही जाते हैं और व्यक्ति अशिक्षित रह जाता है । इसकी भरपाई भी आगे जाकर नहीं हो सकती । |
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| − | मनुष्य गत जन्म के संचित संस्कारों को लेकर इस सृष्टि पर तारकासुर का आतंक बहुत बढ गया था ।
| + | ==References== |
| | + | <references /> |
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| − | जन्म हेतु योग्य मातापिता की खोज में रहता है। इधर. परन्तु उसको परास्त कर सके ऐसा देवों की सेना का नेतृत्व
| + | [[Category:पर्व 5: कुटुम्ब शिक्षा एवं लोकशिक्षा]] |
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| − | कर सके ऐसा, सेनापति देवों के पास
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| − | पार्वती का पुत्र ही ऐसा सेनापति बन सकता है । भगवान
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| − | शंकर और देवी पार्वती के विवाह में अनेक अवरोध थे ।
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| − | इन अवरोधों को अनेक प्रयासों से पार कर जब शिव और
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| − | पार्वती के पुत्र के रूप में कार्तिकेय का जन्म हुआ, बड़े
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| − | तब तारकासुर का वध हुआ । कथा का तात्पर्य यह है कि
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| − | मातापिता की तपश्चर्या के परिणाम स्वरूप उत्तम संस्कारों से
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| − | युक्त जीव उनकी सन्तान के रूप में जन्म लेता है ।
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| − | इस पूर्वतैयारी के एक हिस्से के रूप में गर्भाधान
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| − | परन्तु वास्तव में माता के माध्यम से आने वाले शिशु पर
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| − | मातापिता और बालक का जुड़ाव हो जाता है । गर्भाधान
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| − | | |
| − | के समय एक जीव के पूर्वजन्मों के, माता की पाँच पीढी
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| − | | |
| − | और पिता की चौदह पीढ़ियों के संस्कारों का मिलन होकर
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| − | | |
| − | एक मानसिक पिण्ड बनता है, जिसमें आने वाले बालक
| |
| − | | |
| − | की सम्पूर्ण जीवन की निश्चिति हो जाती है। उसका
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| − | | |
| − | स्वभाव, उसकी आयु, उसके भोग आदि प्रमुख बातों का
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| − | | |
| − | इसमें समावेश होता है ।
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| − | | |
| − | २. गर्भावस्था
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| − | | |
| − | जीवन की यात्रा शुरू हुई । यह यात्रा माता के साथ
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| − | | |
| − | साथ और माता के सहारे चलती है । ये प्रास्भ के दिन
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| − | | |
| − | अत्यन्त संस्कारक्षम होते हैं । उसका शारीरिक पिण्ड तो
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| − | | |
| − | अभी बना नहीं है। अभी तो वह कलल, बुद्बुद, भ्रूण
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| − | | |
| − | जैसी अवस्थाओं में से गुजरकर चार मास में गर्भ बनता है ।
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| − | | |
| − | इसलिये सीखने के उसके करण सक्रिय होने की सम्भावना
| |
| − | | |
| − | नहीं है । उसके अन्तःकरण में भी अभी शेष तीन तो
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| − | | |
| − | अक्रिय हैं, अप्रकट हैं परन्तु चित्त सर्वाधित सक्रिय है । वह
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| − | | |
| − | तो गर्भाधान से ही सक्रिय है । उसकी सक्रियता सर्वाधिक
| |
| − | | |
| − | है। भावी जीवन में कभी भी उसका चित्त इतना सक्रिय
| |
| − | | |
| − | और संस्कारक्षम कभी नहीं रहेगा जितना अभी है । इसलिये
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| − | | |
| − | वह संस्कार ग्रहण करता ही रहता है । बाहर के जगत में
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| − | | |
| − | श्९८
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| − | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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| − | | |
| − | उसके आसपास जो हो रहा है उसके संस्कार वह माता के
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| − | | |
| − | माध्यम से ग्रहण करता है । माता के खानपान, वेशभूषा,
| |
| − | | |
| − | दिनचर्या, विचार, भावनायें, दृष्टिकोण, मनःस्थिति आदि को
| |
| − | | |
| − | वह संस्कारों के रूप में ग्रहण करता रहता है और अपने
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| − | | |
| − | पूर्वजन्म के संस्कारों का जो पुंज उसके पास है उसके साथ
| |
| − | | |
| − | इन प्राप्त संस्कारों का संयोजन होता रहता है । इससे उसका
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| − | | |
| − | चरित्र बनता है । संस्कारों के इन दो आयामों के साथ
| |
| − | | |
| − | गर्भाधान के समय में प्राप्त आनुवंशिक संस्कारों का पुंज भी
| |
| − | | |
| − | है । अतः पूर्वजन्म के, आनुवंशिक और माता के माध्यम
| |
| − | | |
| − | से होने वाले जगत के संस्कारों का संयोजन होते होते
| |
| − | | |
| − | उसका चरित्र विकसित होता है। पूर्वजन्म से और
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| − | | |
| − | आनुवंशिक संस्कारों का स्वरूप तो निश्चित हो ही गया है ।
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| − | | |
| − | अब माता के माध्यम से होने वाले जगतू् के संस्कारों का
| |
| − | | |
| − | ही विषय शेष है । इसलिये शास्त्र तथा परम्परा दोनों कहते
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| − | | |
| − | हैं कि गर्भस्थ शिशु के लिये माता को अपने आहारविहार
| |
| − | | |
| − | की तथा आसपास के लोगों को माता की शारीरिक और
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| − | | |
| − | मानसिक सुरक्षा की अत्यधिक चिन्ता करनी चाहिये ।
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| − | | |
| − | गर्भअवस्था माता पर ही निर्भर है और जीवन के इस प्रथम
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| − | | |
| − | चरण में वह माता से ही संस्कार ग्रहण करता है इसलिये
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| − | | |
| − | कहा गया है , “माता प्रथमो गुरु: - माता प्रथम गुरु है ।
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| − | | |
| − | जैसा गुरु वैसा विद्यार्थी । भावी जीवन की विकास की सारी
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| − | | |
| − | सम्भावनायें अनुकूल आहारविहार से खिल भी सकती है
| |
| − | | |
| − | और प्रतिकूल आहारविहार से कुण्ठित भी हो सकती हैं ।
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| − | | |
| − | गर्भावस्था के नौ मास के दौरान पुंसवन और
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| − | | |
| − | सीमन्तोन्नयन नामक दो संस्कार भी किये जाते हैं । ये भी
| |
| − | | |
| − | विकास के लिये अनुकूल हैं ।
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| − | | |
| − | गर्भावस्था के संस्कारों के विषय में भी शास्त्रों में और
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| − | | |
| − | लोक में बहुत कहा गया है । इन संस्कारों के उदाहरण
| |
| − | | |
| − | प्राचीन काल के भी मिलते है और अर्वाचीन के भी, भारत
| |
| − | | |
| − | के भी मिलते हैं और अन्य देशों के भी । विश्व के सभी
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| − | | |
| − | जानकार और समझदार लोग तो इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं
| |
| − | | |
| − | है परन्तु इसकी शिक्षा की गम्भीरतापूर्वक व्यवस्था नहीं
| |
| − | | |
| − | करेंगे तब तक होनेवाले माता पिता आज्ञानी रहेंगे ही ।
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| − | | |
| − | इसका परिणाम भावी पर भी होगा ।
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| − | | |
| − | ............. page-215 .............
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| − | | |
| − | पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
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| − | | |
| − | ३. जन्म
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| − | | |
| − | संस्कार की दृष्टि से यह क्षण भी अतिविशिष्ट महत्त्व
| |
| − | | |
| − | रखता है । उस समय अवकाश के ग्रहों और नक्षत्रों,
| |
| − | | |
| − | पंचमहाभूतों की स्थिति, माता तथा परिवारजनों की
| |
| − | | |
| − | मानसिक स्थिति, जहाँ जन्म हो रहा है वह स्थान शिशु के
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| − | | |
| − | चरित्र को प्रभावित करते हैं । कुछ विशेष बातें इस प्रकार
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| − | | |
| − | १, जन्म सामान्य प्रसूति से होता है कि सीझर से यह
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| − | | |
| − | बहुत मायने रखता है । सीझर से होता है तब जन्म लेने के
| |
| − | | |
| − | और जन्म देने के प्रत्यक्ष अनुभव से शिशु और माता दोनों
| |
| − | | |
| − | वंचित रह जाते हैं जिसका उनके सम्बन्ध पर परिणाम होता
| |
| − | | |
| − | है। इसलिये सीझर न करना पड़े इसकी सावधानी
| |
| − | | |
| − | सगर्भावस्था में रखनी चाहिये । इस दृष्टि से व्यायाम का
| |
| − | | |
| − | महत्त्व है ।
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| − | | |
| − | २. जन्म के समय ज्ञानेन्द्रियाँ अतिशय कोमल होती
| |
| − | | |
| − | हैं। अब तक वे माता के गर्भाशय में सुरक्षित थीं । अब वे
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| − | | |
| − | अचानक बाहर के विश्व में आ गई हैं जहाँ वातावरण सर्वथा
| |
| − | | |
| − | विपरीत है । उन्हें तेज गंध, तीखी और कर्कश आवाज,
| |
| − | | |
| − | अपरिचित व्यक्तियों के दर्शन, कठोर स्पर्श आदि से परेशानी
| |
| − | | |
| − | होती है । उनकी संवेदन ग्रहण करने की क्षमता का क्षरण हो
| |
| − | | |
| − | जाता है, लोकभाषा में कहें तो वे भोथरी बन जाती हैं ।
| |
| − | | |
| − | भावी जीवन में ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से बाह्य जगत् के
| |
| − | | |
| − | जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त करना है उसमें बहुत बड़े
| |
| − | | |
| − | अवरोध निर्माण हो जाते हैं । इस मुद्दे का विचार कर ही घर
| |
| − | | |
| − | में, घर के परिजनों के मध्य, विशेष रूप से बनाये गये कक्ष
| |
| − | | |
| − | में, सुन्दर वातावरण में सुखप्रसूति का महत्त्व बताया गया
| |
| − | | |
| − | है। यह कैसे होगा इसका विस्तृत वर्णन किया गया है
| |
| − | | |
| − | क्योंकि आनेवाला शिशु राष्ट्र की, संस्कृति की, कुल की
| |
| − | | |
| − | और मातापिता की मूल्यवान सम्पत्ति है । इस जगत् में
| |
| − | | |
| − | उसका आगमन सविशेष सम्मान और सुरक्षापूर्वक होना
| |
| − | | |
| − | चाहिये । यह क्षण जीवन में एक ही बार आता है, इसे
| |
| − | | |
| − | चूकना नहीं चाहिये ।
| |
| − | | |
| − | जन्म के बाद दसदिन तक उसे कड़ी सुरक्षा की
| |
| − | | |
| − | आवश्यकता होती है । प्रकाश, ध्वनि, स्पर्श, गन्ध, दृश्य
| |
| − | | |
| − | आदि ज्ञानेन्द्रियों के विषय में सजगता बरती जाती है ।
| |
| − | | |
| − | 888
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| − | | |
| − | शिशु के कक्ष में किसी को प्रवेश की
| |
| − | | |
| − | अनुमति नहीं होती, न शिशु को कक्ष के बाहर लाया जाता
| |
| − | | |
| − | है । बाहर के वातावरण के साथ समायोजन करने के लिये
| |
| − | | |
| − | जितना समय चाहिये उतना दिया जाता है । गर्भाधान,
| |
| − | | |
| − | गर्भावस्था और जन्म की अवस्थायें ऐसी हैं जिनमें दो
| |
| − | | |
| − | पीढ़ियों का जीवन शारीरिक दृष्टि से भी असम्पृक्त होकर ही
| |
| − | | |
| − | विकसित होता है । स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर एकदूसरे
| |
| − | | |
| − | से जुड़े हैं, सारे अनुभव साँझे हैं, शिशु माता के जीवन का
| |
| − | | |
| − | अंग ही है । इसलिय जन्म होने तक वह स्वतन्त्र व्यक्ति नहीं
| |
| − | | |
| − | माना जाता है । व्यक्ति की आयु का हिसाब जन्म से ही
| |
| − | | |
| − | शुरू होता है क्योंकि जन्म के बाद ही वह स्वतन्त्र होकर
| |
| − | | |
| − | जीवनयात्रा शुरू करता है ।
| |
| − | | |
| − | स्वतन्त्र जीवन की प्रथम अवस्था है शिशुअवस्था ।
| |
| − | | |
| − | इस अवस्था की औसत आयु होती है जन्म से पाँच वर्ष
| |
| − | | |
| − | की । गर्भावस्था के आधार पर यह पाँच सात मास तक
| |
| − | | |
| − | अधिक भी हो सकती है परन्तु औसत पाँच वर्ष ही माना
| |
| − | | |
| − | जाता है । इस अवस्था की शिक्षा नींव की शिक्षा है । इस
| |
| − | | |
| − | अवस्था में भी प्रमुखता चित्त की ही है, परन्तु ज्ञानार्जन के
| |
| − | | |
| − | अन्य करण भी सक्रिय होने लगते हैं । हम क्रमशः इस
| |
| − | | |
| − | अवस्था की शिक्षा का विचार करे ।
| |
| − | | |
| − | ४. शुभ अनुभवों की अनिवार्यता
| |
| − | | |
| − | इस अवस्था में चित्त तो सक्रिय होता ही है, साथ ही
| |
| − | | |
| − | ज्ञानेन्द्रियाँ भी सक्रिय होकर अनुभव प्राप्त करती हैं । शब्द,
| |
| − | | |
| − | स्पर्श, रूप, रस, गन्ध के उसके अनुभव शुभ होना
| |
| − | | |
| − | आवश्यक है । उसी प्रकार चित्त पर पड़नेवाले संस्कार भी
| |
| − | | |
| − | शुभ होना आवश्यक है । जीवन में सुन्दर असुन्दर, शुभ
| |
| − | | |
| − | और अशुभ दोनों अनुभव होते हैं । दोनों ग्रहण करने के
| |
| − | | |
| − | अवसर आते ही हैं । दोनों को सहना भी पड़ता है । परन्तु
| |
| − | | |
| − | प्रास्भ के अनुभव सुन्दर और शुभ होना इसलिये आवश्यक
| |
| − | | |
| − | है क्योंकि इससे उसका जीवनविषयक दृष्टिकोण सकारात्मक
| |
| − | | |
| − | बनता है । जीवन और जगत् अच्छे हैं यह उसके विचार
| |
| − | | |
| − | और व्यवहार का आधार बनता है । इस दृष्टि से उसका
| |
| − | | |
| − | खानपान, उसके खानेपीने के पात्र, उसका बिस्तर, उसके
| |
| − | | |
| − | कपड़े, आभूषण और खिलौने आदि का चयन ज्ञानेन्द्रियों
| |
| − | | |
| − | ............. page-216 .............
| |
| − | | |
| − | की अनुभवक्षमता को ध्यान में रखकर
| |
| − | | |
| − | करने चाहिये । सूती या रेशमी वस्त्र, देशी गाय के घी-दूध-
| |
| − | | |
| − | मक्खन, लकड़ी के खिलौने, सोने-चाँदी और रत्नों के
| |
| − | | |
| − | आभूषण आदि का प्रावधान करना चाहिये । उसी प्रकार
| |
| − | | |
| − | मधुर संगीत, उत्तम दृश्य, मधुर गन्ध आदि का भी अनुभव
| |
| − | | |
| − | आवश्यक है । ज्ञानेन्द्रियाँ WAN प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण
| |
| − | | |
| − | स्थान रखती हैं । साथ ही बाह्य जगत् के साथ जुड़ने का ये
| |
| − | | |
| − | एकमात्र माध्यम हैं । जगत्ू का परिचय और ज्ञानार्जन की
| |
| − | | |
| − | क्षमता दोनों दृष्टि से इन अनुभवों का विचार करना चाहिये ।
| |
| − | | |
| − | उसके मानसिक अनुभव मन से नहीं अपितु चित्त से ग्रहण
| |
| − | | |
| − | किये जाते हैं । उसे भाषा की आवश्यकता नहीं होती ।
| |
| − | | |
| − | आसपास के लोगों के मनोभाव, विचारप्रक्रिया, एकदूसरे के
| |
| − | | |
| − | प्रति व्यवहार शिशु के प्रति भाव आदि को वह यथावत्
| |
| − | | |
| − | ग्रहण करता है, ग्रहण करने में वह कोई चूक नहीं करता ।
| |
| − | | |
| − | इस अवस्था में उसके साथ के वार्तालाप, कहानी,
| |
| − | | |
| − | लोरी, टी.वी. के दृश्य आदि से वह प्रेरणा ग्रहण करता है ।
| |
| − | | |
| − | उसका मनसिक पिण्ड बनाने में इन सबका योगदान होता
| |
| − | | |
| − | है।
| |
| − | | |
| − | इस अवस्था में कठोरता का, निषेध का, अस्वीकार
| |
| − | | |
| − | का अनुभव उचित नहीं होता । इसलिये शिशु को किसी
| |
| − | | |
| − | बातकी मनाही करने, डाँटने, दण्ड देने का निषेध है । उसे
| |
| − | | |
| − | स्वीकृति चाहिये । इस मामले में बड़ों की बहुत गलतियाँ
| |
| − | | |
| − | होती हैं । ये गलतियाँ अज्ञान और असावधानी के कारण
| |
| − | | |
| − | होती हैं परन्तु उनका दुष्परिणाम शिशु पर होता है ।
| |
| − | | |
| − | ५. जीवन का घनिष्ठतम अनुभव
| |
| − | | |
| − | शिशु जीवन का घनिष्ठतम अनुभव प्राप्त करना चाहता
| |
| − | | |
| − | है । यह उसकी अन्तःकरण की प्रेरणा होती है । उसके
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| − | | |
| − | विकास के लिये यह आवश्यक है । विकास की इच्छा भी
| |
| − | | |
| − | उसके अन्तःकरण में सहज ही होती है । उसी प्रेरणा से
| |
| − | | |
| − | विकास के लिये आवश्यक पुरुषार्थ भी वह करता है । इस
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| − | | |
| − | पुरुषार्थ का स्वरूप कैसा है ? पहले पहले वह वस्तुओं को
| |
| − | | |
| − | पकड़कर मुँह में डालता है । आगे चलकर वस्तुओं को
| |
| − | | |
| − | पीटता है, फैंकता है, मरोड़ता है, तोड़ता है । ये सब बड़ों
| |
| − | | |
| − | की शब्दावली के अंग है । शिशु तो स्वाद, ध्वनि, अन्तरंग
| |
| − | | |
| − | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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| − | | |
| − | आदि की परख करने के लिये प्रयोग करता है । सबकुछ
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| − | | |
| − | स्वयं ही करना चाहता है । वह उत्तम विद्यार्थी है ।
| |
| − | | |
| − | उसकी कर्मेन्ट्रियाँ सक्रिय होने लगती है । वह मिट्टी,
| |
| − | | |
| − | पानी, रेत आदि से आकर्षित होता है । उससे खेलना उसे
| |
| − | | |
| − | पसन्द है । चढना, उतरना, छलाँगे लगाना, चीखना,
| |
| − | | |
| − | चि्ठाना आदि उसके सीखने के उपाय हैं। वह
| |
| − | | |
| − | अनुकरणशील है । बड़े जो काम करते हैं वे सब उसे करने
| |
| − | | |
| − | होते हैं । कपड़े धोना, अनाज साफ करना, रोटी बेलना,
| |
| − | | |
| − | झाड़ू लगाना, अखबार पढ़ना, लिखना, फोन उठाना,
| |
| − | | |
| − | दरवाजे की घण्टी बजी तो दरवाजा खोलना आदि सब उसे
| |
| − | | |
| − | करना होता है । यह जिज्ञासा है जो ज्ञान ग्रहण करने का
| |
| − | | |
| − | प्रथम सोपान है। यदि यह सब उसे करने दिया और बड़ों ने
| |
| − | | |
| − | उसे सहायता की और उचित पद्धति से निखारा तो दोनों
| |
| − | | |
| − | पीढ़ियों के लिये यह बहुत लाभकारी होता है । वह अपने
| |
| − | | |
| − | आसपास के लोगों के साथ जुड़ता है, घर से जुड़ता है और
| |
| − | | |
| − | wT से जुड़ता है । समष्टित और सृष्टिगत विकास के
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| − | | |
| − | लिये यह आवश्यक नींव है ।
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| − | | |
| − | ६. भाषाविकास
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| − | | |
| − | मनुष्य की विशेषता भाषा है । आज हम भाषा को
| |
| − | | |
| − | जितना महत्त्व देते हैं उससे उसका कई गुना अधिक महत्त्व
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| − | | |
| − | है। भाषा ज्ञानक्षेत्र के सभी आधारभूत विषयों का भी
| |
| − | | |
| − | आधार है । किसी भी प्रकार का संवाद करने के लिये,
| |
| − | | |
| − | विचारों और भावनाओं की अभिव्यक्ति और अनुभूति के
| |
| − | | |
| − | लिये शास्त्र समझने के लिये, उसकी रचना करने के लिये
| |
| − | | |
| − | भाषा आवश्यक है । शिशु को भाषा के संस्कार गर्भावस्था
| |
| − | | |
| − | से ही होते हैं । वह अनिवार्य रूप से मातृभाषा ही होती है ।
| |
| − | | |
| − | अतः जन्म के बाद भी भाषा सीखने के लिये मातृभाषा ही
| |
| − | | |
| − | सहायक होती है । यह हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत का नहीं
| |
| − | | |
| − | अपितु भाषा का प्रश्न है । भाषा के दो पक्ष हैं - शब्द और
| |
| − | | |
| − | अर्थ । आश्चर्यजनक रीति से शिशु अर्थ प्रथम ग्रहण करता है
| |
| − | | |
| − | बाद में शब्द । जिस भाषा में उसने अर्थ ग्रहण किया है उसी
| |
| − | | |
| − | भाषा का शब्द भी उसे सिखाना चाहिये । इस दृष्टि से
| |
| − | | |
| − | मातृभाषा का महत्त्व सर्वाधिक है ।
| |
| − | | |
| − | शिशु प्रथम अर्थ ग्रहण करता है इसलिये उसे जिसमें
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| − | | |
| − | ............. page-217 .............
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| − | | |
| − | पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा | |
| − | | |
| − | अच्छे भाव, गहनअर्थ, स्पष्ट विचार हों ऐसी ही भाषा सुनने
| |
| − | | |
| − | को मिलनी चाहिये । हमें लगता है कि उसे गहन बातें नहीं
| |
| − | | |
| − | समझती हैं, परन्तु यह हमारा श्रम है। उसे शब्द नहीं
| |
| − | | |
| − | समझते और शब्दों में अभिव्यक्ति भी नहीं आती परन्तु
| |
| − | | |
| − | बोलने वाले का विचार यदि स्पष्ट है, वह यदि समझकर
| |
| − | | |
| − | बोलता है, प्रामाणिकता से बोलता है, सत्य बोलता है,
| |
| − | | |
| − | श्रद्धापूर्वक बोलता है तो उसी रूप में शिशु भी उसे ग्रहण
| |
| − | | |
| − | करता है । उसे ऐसी भाषा सुनने को मिले यह देखने का
| |
| − | | |
| − | दायित्व बड़ों का है । इस दृष्टि से वाचन, चर्चा, भाषण,
| |
| − | | |
| − | श्रवण आदि का बहुत उपयोग होता है । यह सब सुनते
| |
| − | | |
| − | सुनते वह अपने आप बोलने लगता है । जैसा सुना वैसा
| |
| − | | |
| − | बोला यह भाषा का मूल नियम है । उस दृष्टि से उसे बोलने
| |
| − | | |
| − | के अधिकाधिक अवसर मिलना आवश्यक है । पाँच वर्ष
| |
| − | | |
| − | की आयु तक शुद्ध उच्चारण, समुचित आरोहअवरोह,
| |
| − | | |
| − | विरामचिह्ों का बोध, शब्द और अर्थ का सम्बन्ध,
| |
| − | | |
| − | आधारभूत व्याकरण, वाक्यरचना आदि का क्रियात्मक ज्ञान
| |
| − | | |
| − | हो जाता है । यदि नहीं हुआ तो शिक्षकों की कुछ गड़बड़
| |
| − | | |
| − | है ऐसा मानना चाहिये । नासमझ मातापिता मौखिक
| |
| − | | |
| − | भाषाव्यवहार सिखाने के स्थान पर पढ़ने और लिखने पर
| |
| − | | |
| − | अधिक जोर देते हैं और सम्भावनाओं को नष्ट कर देते हैं ।
| |
| − | | |
| − | अंग्रेजी सिखाने का मोह तो और भी नाश करता है । इससे
| |
| − | | |
| − | समझदारीपूर्वक बचने की आवश्यकता है ।
| |
| − | | |
| − | भाषा के सम्बन्ध में और भी एक बात उल्लेखनीय है ।
| |
| − | | |
| − | शिशु को पुस्तकों की दुनिया से परिचित करना चाहिये ।
| |
| − | | |
| − | इसका अर्थ उन्हें पुस्तक पढ़ना सिखाना नहीं है। उसे
| |
| − | | |
| − | पुस्तकों का स्पर्श करना, खोलना, बन्द करना, आलमारी
| |
| − | | |
| − | से निकालना और रखना, पुस्तकों के विषय में बातें करना
| |
| − | | |
| − | पढ़ने के प्रति आकर्षण निर्माण करना बहुत लाभकारी रहता
| |
| − | | |
| − | है। इसी को संस्कार करना कहते हैं। इसी माध्यम से
| |
| − | | |
| − | विद्याप्रीति निर्माण करने का काम भी किया जाता है । विद्या
| |
| − | | |
| − | की देवी सरस्वती, लिपिविधाता गणेश, आद्यसम्पादक
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| − | | |
| − | वेदव्यास आदि का परिचय भी बहुत मायने रखता है । घर
| |
| − | | |
| − | में सब पढ़ते हों तो विद्याकीय वातावरण भी बनता है ।
| |
| − | | |
| − | भाषा अर्थात् सत्य के विविध आविष्कार । इस सृष्टि
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| − | | |
| − | को धारण करने वाले विश्वनियम हैं धर्म और धर्म की
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| − | | |
| − | २०१
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| − | | |
| − | वाचिक अभिव्यक्ति है सत्य । सत्य
| |
| − | | |
| − | भाषा के अर्थ पक्ष का मूल स्रोत है । भाषा के शब्द पक्ष का
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| − | | |
| − | मूल स्रोत है 35कार जिसे नादब्रह्म कहा गया है । अर्थात्
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| − | | |
| − | भाषा के माध्यम से नादब्रह्म और सत्य को ही हम जीवन के
| |
| − | | |
| − | विभिन्न सन्दर्भों में प्रस्तुत कर रहे हैं । इतनी श्रेष्ठ भाषा को
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| − | | |
| − | हम पढ़ने लिखने की यान्त्रिक क्रिया में जकड़ कर संकुचित
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| − | | |
| − | बना देते हैं । इसीसे बचना चाहिये । भाषा का सम्बन्ध वाकू
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| − | | |
| − | कर्मन्द्रिय से है । वाक कर्मन्द्रिय का दूसरा विषय है स्वर ।
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| − | | |
| − | स्वर संगीत का मूल है । संगीत की देवी भी सरस्वती ही है ।
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| − | | |
| − | इस दृष्टि से संगीत का अच्छा अनुभव मिलना उसके विकास
| |
| − | | |
| − | की दृष्टि से आवश्यक है । सद्गुण और सदाचार की प्रेरणा
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| − | | |
| − | के लिये, मानसिक शान्ति और सन्तुलन के लिये तथा स्वर
| |
| − | | |
| − | को ग्रहण करने और व्यक्त करने के लिये संगीत का अनुभव
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| − | आवश्यक है । इस प्रकार वागीन्ट्रिय के विकास की सारी
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| − | सम्भावनाओं को पूर्ण साकार करने के प्रयास शिशुअवस्था
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| − | में ही मातापिता को करना चाहिये । व्यक्तित्व विकास का
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| − | यह महत्त्वपूर्ण आयाम है ।
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| − | ७. काम करने की आवश्यकता
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| − | इस सुभाषित का स्मरण करें
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| − | साहित्यसंगीत कलाविहीन:
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| − | साक्षात्पशु पुच्छविषाण हीनः ।
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| − | qa न खादन्नपि जीवमान:ः
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| − | तदूभागधेय॑ परम पशुनामू ।।
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| − | अर्थात्
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| − | साहित्य, संगीत और कला जिसे अवगत नहीं । ऐसा
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| − | मनुष्य पूँढ और सींग से रहित पशु जैसा है। वह घास
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| − | खाये बिना ही जीवित रहता है इसे पशुओं का महदू भाग्य
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| − | समझना चाहिये ।
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| − | साहित्य और संगीत की चर्चा हमने ऊपर की । अब
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| − | कला का विचार करना चाहिये । भाषा और संगीत वाक्
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| − | कर्मन्द्रिय से जुडे विषय हैं उस प्रकार कला का सम्बन्ध
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| − | हाथ नामक कर्मेन्द्रिय से है । मनुष्य को हाथ काम करने के
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| − | लिये ही प्राप्त हुए हैं । काम करने के संस्कार शिशु को
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| − | प्रासम्भ से ही मिलने चाहिए । शिशु यह करना भी चाहता
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| − | है । उसे अवसर मिलना चाहिये । व्स्त
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| − | को पकड़ने, तोड़ने और फैंकने से उसका प्रारम्भ होता है ।
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| − | पानी में, रेत में, मिट्टी में खेलने से हाथ का अभ्यास होता
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| − | है । घर के बर्तन, डिब्बे, अन्य सामान आदि को इधर से
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| − | उधर रखने से, डिब्बे भरने और खाली करने से, बर्तन
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| − | रखने से, आसन, ad, चह्दर, बिस्तर बिछाने और समटने
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| − | से, कपड़े धोने से हाथ नामक कर्मेन्दट्रिय का विकास होता
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| − | है । अन्य लाभ तो मूल्यवान हैं ही । तीन वर्ष की आयु के
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| − | बाद तह करना, काटना, चूरा करना, गूँधना, कूटना,
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| − | Hed HE, छीलना, मरोड़ना, खींचना, झेलना आदि
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| − | अनेक कामों का अविरत अभ्यास होना चाहिये । रंग,
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| − | आकृति, नकाशी आदि का अनुभव आवश्यक है । सूई
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| − | धागे का प्रयोग, मोती पिरोना, मिट्टी के खिलौने बनाना,
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| − | गेरु से रंगना आदि असंख्य काम करने के अवसर उसे
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| − | मिलने चाहिये । हाथ को कुशल कारीगर बनाना यही ध्येय
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| − | है । हाथ से काम करते आना भौतिक समृद्धि का स्रोत भी
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| − | है।
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| − | इस प्रकार से कर्मन्द्रियाँ भी ज्ञानार्जन की दिशा में
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| − | प्रगति करने का बडा माध्यम है ।
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| − | ८. सद्गुण और सदाचार
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| − | १, घर के लोगों का चरित्र जैसा होगा वैसा ही
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| − | बालक का भी बनेगा । घर के लोग दुश्वरित्र हों और बालक
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| − | को सदूगुणी बनाने का विशेष कार्यक्रम बनाया जाय तो वह
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| − | यशस्वी नहीं होता ।
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| − | २. संयोगवश दुश्चरित्र मातापिता के घर में भी
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| − | पूर्वजन्म के अच्छे संस्कार लेकर शिशु ने जन्म लिया है तो
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| − | उसके सच्चरित्र बनने की सम्भावना बनती है ।
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| − | ३. सद्गुणी और सदाचारी मातापिता को अपने शिशु
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| − | को चरित्रवान बनाने हेतु प्रथम आहारविहार की ओर ध्यान
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| − | देना चाहिये । सात्तिक आहारविहार से सद्गुर्णों की रक्षा
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| − | होती है ।
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| − | ४. अच्छी कहानियाँ, लोरियाँ, गीत, चित्र आदि
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| − | सहायक बन सकते हैं ।
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| − | ५. स्तोत्र, मन्त्र, श्लोक, सुभाषित अधिकतम मात्रा
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| − | २०२
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| − | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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| − | में कण्ठस्थ करने की यह उचित आयु है। तत्काल
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| − | वाणीशुद्धि के रूप में और बड़ी आयु में मनःशुद्धि के लिये
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| − | इसका उपयोग हो सकता है ।
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| − | ६. दान देना, पशु पक्षी को खिलाना, वृक्ष को पानी
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| − | देना आदि सदाचार के काम प्रत्यक्ष करना भी आवश्यक
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| − | है।
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| − | इस प्रकार सद्गुण और सदाचार हेतु अनेक उपाय
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| − | किये जा सकते हैं परन्तु मातापिता के पुण्य, उनका स्वयं
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| − | का चरित्र और शिशु के पूर्वजन्म के संस्कार ही शिशु को
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| − | सदूगुणी और सदाचारी बनाते हैं ।
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| − | ९. मातृहस्तेन भोजनम्
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| − | शिशु के विकास हेतु सबसे बड़ी आवश्यकता है
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| − | माता के हाथ से भोजन । यह एक प्रतीक है जो कहता है
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| − | कि शिशु की सबसे बड़ी आवश्यकता है प्रेम । लाड और
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| − | प्यार उसके साथ व्यवहार की प्रथम शर्त है । उसके साथ
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| − | कठोर व्यवहार, डाँट, ताने, वक़वाणी, दण्डवर्जित हैं ।
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| − | किसी बात का निषेध, किसी कार्य में अवरोध, जबरदस्ती
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| − | वर्जित हैं । उल्टे उसका कहना मानना, उसकी आज्ञा का
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| − | पालन करना, उसके अनुकूल बनना आवश्यकता है । यह
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| − | बड़ों की परीक्षा है । जो इस परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं उन्हें
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| − | अच्छी सन्तानों के मातापिता बनने का भाग्य प्राप्त होता
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| − | है।
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| − | इस प्रकार मनुष्य की आजीवन शिक्षा का प्रथम चरण
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| − | घर में होता है । पाँच वर्ष के बाद विद्यालय में जाकर
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| − | उसका अध्ययन शुरू होता है उसके लिये यह मूल्यवान
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| − | पूर्वतैयारी है । यह पढाई यदि ठीक नहीं हुई तो आगे के
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| − | अध्ययन के लिये बाधा निर्माण होती है । इसलिये कहा
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| − | गया है कि कुट्म्ब ही प्रथम पाठशाला है । इस पाठशाला
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| − | का कोई विकल्प नहीं है । इसी प्रकार प्रथम गुरु माता का
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| − | भी कोई विकल्प नहीं है। जिन्हें इस शिक्षक से
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| − | शिशुअवस्था में aera में अच्छी शिक्षा मिलती है वे
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| − | भाग्यवान हैं । अन्यथा पाँच वर्ष तो किसी भी प्रकार से
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| − | बीत ही जाते हैं और व्यक्ति अशिक्षित रह जाता है । इसकी
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| − | भरपाई भी आगे जाकर नहीं हो सकती ।
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| − | पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
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