Difference between revisions of "सभी विषयों का अधिष्ठान अध्यात्म"

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Revision as of 15:16, 6 March 2021

विविध विषयों का अधिष्टान

किसी भी देश की शिक्षा में उस देश की जीवनदृष्टि का

सर्वतोपरी महत्त्व है । जीवनदृष्टि ही ज्ञान के क्षेत्र का मूल

अधिष्ठान होती है । भारत की पहचान आध्यात्मिक देश के

रूप में है। इसलिये हमारी सभी विषयों की संकल्पना

आध्यात्मिक अधिष्ठान लिये हुए है । इस कथन के सन्दर्भ में

विद्वानों में और सामानयों में बहुत सम्ध्रम फैला हुआ है ।

कोई अध्यात्म को संन्यास के साथ जोड़ते हैं तो कोई

मढठों और मंदिरों के साथ । कोई तो धर्म को ही अध्यात्म

समझते हैं और सम्प्रदाय को धर्म । कोई पूजा, अर्चना,

कीर्तन, भजन, तीर्थयात्रा, व्रत, उपवास, यज्ञ आदि को

अध्यात्म समझते हैं तो कोई कथाश्रवण और उपनिषदों के

पठन को । कोई योग को अध्यात्म समझते हैं तो कोई

तन्त्र-साधना को । किसी भी रूप में हो लोग अध्यात्म को

दैनंदिन जीवन का अंग नहीं समझते रोज-रोज की दुनिया से

कोई अलग ही वस्तु समझते हैं ।

ऐसी अवस्था में हम यदि अध्यात्म के अधिष्ठान की

बात करेंगे तो सामान्य से लेकर विद्वानों तक लोग अनास्था

से ही हमारी ओर देखेंगे । इसलिये हमें इस विषय में स्पष्ट

होने की महती आवश्यकता है ।

वास्तव में अध्यात्म दैनंदिन जीवन से अलग नहीं है,

हो भी नहीं सकता । विचित्रता तो यह है कि हरेक व्यक्ति

आध्यात्मिकता की प्रशंसा तो करता है और उसे चाहता भी

है परन्तु वह जिसे चाहता है उसे अध्यात्म नहीं कहता ।

उसके लिये किन्हीं अजीब कारणों से दूसरे शब्दों का प्रयोग

करता है ।

अध्यात्म का अर्थ है आत्मतत्त्व को सारे विचारों,

भावनाओं, व्यवहारों, व्यवस्थाओं के आधार के रूप में

स्वीकार करना । आत्मतत्त्व को सामान्य लोग भगवान

२५७

कहते हैं, ईश्वर कहते हैं, परमात्मा कहते हैं । वह सर्वज्ञ है,

सर्वव्यापी है, सर्वशक्तिमान है, ऐसा भी कहते हैं । उसने ही

सारा विश्व बनाया है, ऐसा भी कहते हैं । किसी एकान्त

कोने में छिपकर भी कुछ करो तो वह उसे जानता है।

व्यक्ति के मन में क्या चल रहा है उसे भी वह जानता है ।

कौन कैसा है इसकी पूरी जानकारी उसे होती है। वह

पापियों को, दुर्जनों को दण्ड देता है और सजझ्जनों की रक्षा

करता है । उसके घर में देर है, अन्धेर नहीं है । लोक में

प्रचलित और लोकमानस में दृढ़ता से प्रतिष्ठित ये मान्यतायें

वास्तव में अध्यात्म का ही लोकभाषा में प्रकटीकरण है ।

लोकमानस में अध्यात्म की स्वीकृति और बौद्धिक

जगत में अध्यात्म विषयक अज्ञान आज के अनेक संकटों

का उद्म स्थान है। बौद्धिक स्पष्टठा के आअभाव में

लोकमानस अप्रतिष्ठित हो जाता है, धीरे-धीरे अव्यवस्थित

भी हो जाता है और हेय भी हो जाता है । इसलिये बौद्धिक

स्पष्टता आवश्यक है ।

आत्मतत्त्व अनुभूति का क्षेत्र है । अनुभूति के आधार

पर ही इसका बौद्धिक स्वरूप बना है। यह एक ऐसी

संकल्पना है जो सम्पूर्ण जगत के सारे व्यवहारों, घटनाओं,

भावनाओं, व्यवस्थाओं का खुलासा करती है । जगत

गतिशील और परिवर्तनशील है, इस बात को स्वीकार तो

सब करते हैं परन्तु सर्व प्रकार के परिवर्तनों का आलम्बन,

सारे परिवर्तनों और गतियों को नियमन में रखने वाले तत्त्वों

का भी आलम्बन आत्मतत्त्व ही है यह नहीं मानते । सारे के

सारे. परिवर्तनशील पदार्थों के पीछे एक. सर्वथा

अपरिवर्तनशील, सारे के सारे अन्त:करण और इंद्रियों से

गम्य पदार्थों के पीछे एक सर्वथा अगम्य, सारे के सारे

aera और चिन्तनीय पदार्थों के पीछे एक सर्वथा

अकल्प्य और अचिन्त्य, सारे के सारे क्षरणशील और

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जर्जरित होने वाले पदार्थों के पीछे एक

अक्षर और अजर, सारे के सारे मरणशील और नाशवान

पदार्थों के पीछे एक अमर और अविनाशी सारे के सारे

SREY और अन्त को प्राप्त होने वाले पदार्थों के पीछे एक

अनादि और अनन्त, सारे के सारे ट्रन्ट्रात्समक, दट्रिविध,

त्रिविध, अनेकविध, विविध पदार्थों के पीछे एकमेवाद्धितीय

तत्त्व की अनुभूति करना और उस अनुभूति को बुद्धिगम्य

बनाना, उसके आधार पर व्यावहारिक जीवन की रचना

करना भारत के आर्षद्रूशा ऋषियों के सामर्थ्य का निदरद्शक

है। मनुष्य को परमात्मा ने अपने ही प्रतिरूप में बनाया

इसका यह प्रमाण है । यह सामर्थ्य आत्मानुभूति का है ।

आत्मानुभूति ही आत्मबल है जो बुद्धिबल, मनोबल,

प्राणबल और देहबल के रूप में आवश्यकता के अनुसार

प्रकट होता है और संसार के सारे व्यवहार चलाता है ।

इस आत्मतत्त्व के अधिष्ठान के बिना सारा सामर्थ्य,

सारी क्षमतायें, सारा अस्तित्व अनाश्रित हो जायेगा । इस

आत्मतत्त्व को स्वीकारना ही जीवन को आध्यात्मिक

बनाना है । शिक्षा में इस तत्त्व के अधिष्ठान को स्वीकार

करना ही शिक्षा को सार्थक बनाता है ।

व्यावहारिक जीवन में जब आत्मतत्त्व का अधिष्टान

स्वीकृत होता है तब जीवन की जो शैली बनती है उसे

भारत में संस्कृति कहते हैं, व्यवस्था के जो नियम बनते हैं,

उसे धर्म कहते हैं ।

चूँकि संस्कृति का सम्बन्ध सीधासीधा व्यवहार से ही

है इसलिये सारे विषयों को आध्यात्मिक कहने के स्थान पर

यदि हम सांस्कृतिक कहें तो भी अर्थ एक ही है ।

आज जिस अधिष्ठान पर सारा शिक्षा विचार प्रतिष्ठित

है, वह भौतिक है । भारत की जीवन रचना में भौतिक

आयाम सांस्कृतिक आयाम का एक अंग है, स्वयमू

अधिष्ठान नहीं । इसलिये भारत में भौतिकता का स्वीकार

तो होता है, उसे सर्वथा हेय भी नहीं माना जाता है तथापि

संस्कृति के प्रकाश में ही उसका स्वीकार होता है ।

भौतिकता को मुख्य न मानकर संस्कृति का अंग मानने से

भौतिकता भी अधिक समृद्ध, अधिक सार्थक, अधिक

कल्याणकारी होती है, यह भारत की सहस्रों वर्षों की

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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप

जीवनव्यवस्था ने सिद्ध कर दिया है । इसलिये sad ate

प्रकट करने की कोई आवश्यकता नहीं है ।

इसलिये हमें सभी विषयों के भौतिक नहीं अपितु

सांस्कृतिक स्वरूप का विचार करना चाहिये । उदाहरण के

लिये भारत का मानचित्र लाओ ऐसा कहने पर जो मानचित्र

लाते हैं उस पर लिखा होता है “भारत का राजकीय

मानचित्र' । यह गौण को मुख्य बना देने का कार्य है।

राजकीय क्षेत्र सम्पूर्ण सांस्कृतिक जीवन का एक अंग है,

राजकीय मानचित्र लाना है तो “राजकीय मानचित्र' ऐसा

विशेष उल्लेख करना होगा । खाली मानचित्र लाओ कहने पर

जो मानचित्र लाया जाता है वह सांस्कृतिक मानचित्र होता

है तब संस्कृति मुख्य और राजकीय क्षेत्र गौण ऐसा अर्थ

होता है। इसी प्रकार हमारा अर्थशास्त्र, इतिहास,

राजनीतिशास्त्र, वाणिज्यशास्त्र, तन्त्रशाख्र, विज्ञान आदि

जितने भी विषयों की हम कल्पना कर सकते हैं वे सब

सांस्कृतिक होने चाहिये, भौतिक नहीं ।

यह सांस्कृतिक अधिष्ठान केवल विषयों के स्वरूप में

ही सीमित है ऐसा नहीं है । वह अध्ययन अध्यापन की

शैली, विद्यालयों की व्यवस्था, अध्यापक अध्येता का

सम्बन्ध, शिक्षा की अर्थव्यवस्था आदि सभी पहलुओं को

लागू है । परन्तु यहाँ हम केवल विषयों के स्वरूप तक ही

अपने को सीमित रखेंगे ।

शिक्षा की विषयवस्तु को अध्यात्म विचार पर

अधिष्टित करना सबसे प्रथम और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण

चरण है, इसके बिना शेष सारे प्रयास बिना एक के शून्य

जैसे निररर्थक हो जायेंगे ।

अतः: हमें विशेष ध्यान देकर सारे विषयों का

सांस्कृतिक स्वरूप निश्चित करना होगा और आन्तरिक

सम्बन्ध भी बनाना होगा ।

हमारे प्रमाणग्रन्थ

श्रीमद्‌ भगवद गीता में भगवान कहते हैं,

य: शाख्रविधिमुत्सूज्यवर्तते कामकारत: ।

न स सिद्धिमबाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌ ।।

अर्थात्‌

जो शास्त्रों में बताये हुए व्यवहार को छोड़कर

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पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप

मनमाना व्यवहार करता है उसे न सिद्धि प्राप्त होती है, न... प्रमाणग्रन्थ हैं । याज्ञवल्क्य, कौटिल्य,

सुख प्राप्त होता है, न ही मोक्ष प्राप्त होता है । aco, विश्वामित्र, वसिष्ठ आदि ऋषि हमारे लिये प्रमाण

और हैं। आरषट्र्टा ऋषि हमारे लिये स्वतःप्रमाण हैं । विभिन्न

तस्माच्छाख्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ । विषयों के लिये मूल ग्रन्थों की ऐसी एक सूची ही हम बना

ज्ञात्वा शाख्रविधानोक्क॑ कर्म कर्तुमिहाईसि ।। सकते हैं । इस मूल प्रमाण के बाद व्यावहारिक सन्दर्भ का

कया करना और क्या नहीं करना इसका निश्चय करने .... विचार तो हमें ही करना होगा । इस दृष्टि से हमारा विवेक

में शास्त्र ही तेरे लिये प्रमाण हैं । हमेशा जागृत रहना चाहिये ।

तात्पर्य यह है कि हमें हर विषय के निरूपण में शास्त्र कहीं-कहीं हम पाश्चात्य शास्त्रों का सन्दर्भ भी ले

को ही प्रमाण मानना होगा । सकते हैं परन्तु वे भारतीय शास्त्रों के अविरोधी हों तभी

प्रमाण के लिये हमारे शाख्र कौन से हैं ? वेद और... उपयोगी होंगे अन्यथा त्याज्य होंगे ।

उपनिषद, दर्शन का निरूपण करने वाले सूत्र ग्रन्थ, वेदांग, यह सब होते हुए भी अधिकांश हमें युगानुकूल

उपवेद, इतिहास के लिये पुराण आदि हमारे लिये... प्रस्तुति की ही चिन्ता करनी होगी, यह तो स्पष्ट है ।