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२१. व्यक्तिगत हो या राष्ट्रजीवन हो, काम और अर्थ नियन्त्रक बन गए हैं । होना यह चाहिए कि अर्थ और काम दोनों धर्म के नियमन में रहने चाहिए । तभी सुख और समृद्धि प्राप्त होती है । इसे समर्थन देने वाला अर्थशास्त्र विश्वविद्यालयों में पढाया जाता है । यही सारी समस्याओं की जड है ।
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२१. व्यक्तिगत हो या राष्ट्रजीवन हो, काम और अर्थ नियन्त्रक बन गए हैं । होना यह चाहिए कि अर्थ और काम दोनों धर्म के नियमन में रहने चाहिए । तभी सुख और समृद्धि प्राप्त होती है । इसे समर्थन देने वाला अर्थशास्त्र विश्वविद्यालयों में पढाया जाता है । यही सारी समस्याओं की जड़ है ।
    
२२. संसद में, विश्वविद्यालयों में, बौद्धिकों में शिक्षा के विषयमें चर्चा तो बहुत होती है । समस्‍यायें बताई जाती हैं । उपाय सुझाए जाते हैं । मंथन तो बहुत चलता है । लोग त्रस्त हैं । परन्तु शिक्षा धर्म नहीं सिखाती अतः ये सारी समस्‍यायें हैं और धर्म का सन्दर्भ लेने से तत्काल मार्ग दिखाई देने लगेगा इतनी सीधी सरल बात कहीं पर भी नहीं होती ।
 
२२. संसद में, विश्वविद्यालयों में, बौद्धिकों में शिक्षा के विषयमें चर्चा तो बहुत होती है । समस्‍यायें बताई जाती हैं । उपाय सुझाए जाते हैं । मंथन तो बहुत चलता है । लोग त्रस्त हैं । परन्तु शिक्षा धर्म नहीं सिखाती अतः ये सारी समस्‍यायें हैं और धर्म का सन्दर्भ लेने से तत्काल मार्ग दिखाई देने लगेगा इतनी सीधी सरल बात कहीं पर भी नहीं होती ।
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२४. मैंने संक्षेप में आप सबके सम्मुख समस्या का निरूपण किया है । आप यह सब नहीं जानते हैं ऐसा तो नहीं हैं । आप न केवल जानते हैं, अपितु आप भुक्तभोगी भी हैं । मेरा निवेदन केवल इतना ही है कि हम केवल चिन्ता न करें अपितु उपाय क्‍या करें इसकी योजना करें । अभी हम आज चर्चा को विराम देंगे । आप आश्रम में आराम से रहें, चिंतन करें । कल हम फिर से इस विषय पर चर्चा आरम्भ करेंगे ।
 
२४. मैंने संक्षेप में आप सबके सम्मुख समस्या का निरूपण किया है । आप यह सब नहीं जानते हैं ऐसा तो नहीं हैं । आप न केवल जानते हैं, अपितु आप भुक्तभोगी भी हैं । मेरा निवेदन केवल इतना ही है कि हम केवल चिन्ता न करें अपितु उपाय क्‍या करें इसकी योजना करें । अभी हम आज चर्चा को विराम देंगे । आप आश्रम में आराम से रहें, चिंतन करें । कल हम फिर से इस विषय पर चर्चा आरम्भ करेंगे ।
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२५. स्वामीजी रुके । उनकी बातों में जानकारी तो नई नहीं थी परन्तु आवाहन का स्वरूप नया था । धर्माचर्यों को जिम्मेदारी की बात नई लगी । आज तक शिक्षा का धर्म के साथ सम्बन्ध नहीं जोडा गया था । आश्चर्य तो उसी बात का होना चाहिए था कि ऐसा कैसे हुआ । धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध इतना स्वाभाविक है कि वह अब नहीं रहा है यही बात ध्यान में नहीं आई ।
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२५. स्वामीजी रुके । उनकी बातों में जानकारी तो नई नहीं थी परन्तु आवाहन का स्वरूप नया था । धर्माचर्यों को जिम्मेदारी की बात नई लगी । आज तक शिक्षा का धर्म के साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया था । आश्चर्य तो उसी बात का होना चाहिए था कि ऐसा कैसे हुआ । धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध इतना स्वाभाविक है कि वह अब नहीं रहा है यही बात ध्यान में नहीं आई ।
    
२६. सब इस नए सन्दर्भ से उत्साह में तो आ गए परन्तु कुछ असमंजस में भी थे । एक तो आवाहन नया और अपरिचित, अश्रुतपूर्व था और साथ ही शिक्षा के बारे में वे बहुत कुछ जानते नहीं थे । अतः समस्या की और उसके हल की चर्चा कैसे चलेगी इसकी बहुत कल्पना वे नहीं कर पा रहे थे । अनेक लोगोंं ने तो केवल श्रोता बनकर विषय को समझने का ही निश्चय किया ।
 
२६. सब इस नए सन्दर्भ से उत्साह में तो आ गए परन्तु कुछ असमंजस में भी थे । एक तो आवाहन नया और अपरिचित, अश्रुतपूर्व था और साथ ही शिक्षा के बारे में वे बहुत कुछ जानते नहीं थे । अतः समस्या की और उसके हल की चर्चा कैसे चलेगी इसकी बहुत कल्पना वे नहीं कर पा रहे थे । अनेक लोगोंं ने तो केवल श्रोता बनकर विषय को समझने का ही निश्चय किया ।
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९. आचरण यदि पवित्र नहीं है, लोगोंं की सेवा करने हेतु जो कष्ट सहते नहीं हैं, कर्तव्य का पालन करने के लिए त्याग करने की आवश्यकता हो तब त्याग करते नहीं हैं, स्वार्थ के लिए लोगोंं का उपयोग करते हैं, संयम का पालन करते नहीं हैं वे केवल रामायण या महाभारत की कथा सुनकर या भजन गाकर धार्मिक नहीं हो जाते ।
 
९. आचरण यदि पवित्र नहीं है, लोगोंं की सेवा करने हेतु जो कष्ट सहते नहीं हैं, कर्तव्य का पालन करने के लिए त्याग करने की आवश्यकता हो तब त्याग करते नहीं हैं, स्वार्थ के लिए लोगोंं का उपयोग करते हैं, संयम का पालन करते नहीं हैं वे केवल रामायण या महाभारत की कथा सुनकर या भजन गाकर धार्मिक नहीं हो जाते ।
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१०. सर्व प्राणीमात्र में एक ही आत्मतत्त्व है इस सिद्धान्त के अनुसार व्यवहार नहीं करने वाले केवल उपनिषद पढ़कर या वेदांत दर्शन का अध्ययन कर धार्मिक नहीं हो जाते । वे पण्डित हो सकते हैं परन्तु धार्मिक नहीं । व्यक्ति को पहले धार्मिक होना चाहिए, बाद में पण्डित । परन्तु इन्हें यह बात कहाँ समझती हैं ।
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१०. सर्व प्राणीमात्र में एक ही आत्मतत्त्व है इस सिद्धान्त के अनुसार व्यवहार नहीं करने वाले केवल उपनिषद पढ़कर या [[Vedanta_([[Vedanta_([[Vedanta_(वेदान्तः)|वेदांत]]ः)|वेदांत]]ः)|वेदांत]] दर्शन का अध्ययन कर धार्मिक नहीं हो जाते । वे पण्डित हो सकते हैं परन्तु धार्मिक नहीं । व्यक्ति को पहले धार्मिक होना चाहिए, बाद में पण्डित । परन्तु इन्हें यह बात कहाँ समझती हैं ।
    
११. सत्संग, कथावार्ता, यज्ञयाग, तीर्थयात्रा, दर्शन, पूजा, धर्मग्रंथों का अध्ययन ये सब धर्म के अंग तभी सार्थक होते हैं जब व्यवहार और विचार भी उनके अनुकूल हों । सत्य तो यह है कि ये सारी बातें धार्मिक आचरण के परिणामस्वरूप होती हैं, कारण नहीं । निर्द्शक तो जरा भी नहीं । बिना आचरण के ये केवल निरोर्थक ही नहीं तो अनर्थक हो जाती हैं । क्योंकि वे आभासी विश्व निर्माण करती हैं । सत्य इसके पीछे ढक जाता हैं |
 
११. सत्संग, कथावार्ता, यज्ञयाग, तीर्थयात्रा, दर्शन, पूजा, धर्मग्रंथों का अध्ययन ये सब धर्म के अंग तभी सार्थक होते हैं जब व्यवहार और विचार भी उनके अनुकूल हों । सत्य तो यह है कि ये सारी बातें धार्मिक आचरण के परिणामस्वरूप होती हैं, कारण नहीं । निर्द्शक तो जरा भी नहीं । बिना आचरण के ये केवल निरोर्थक ही नहीं तो अनर्थक हो जाती हैं । क्योंकि वे आभासी विश्व निर्माण करती हैं । सत्य इसके पीछे ढक जाता हैं |

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