Difference between revisions of "धर्माचार्य और शिक्षा"

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
m (Text replacement - "शुरू" to "आरम्भ")
m (Text replacement - "वेदान्त" to "वेदांत")
Tags: Mobile edit Mobile web edit
 
(6 intermediate revisions by the same user not shown)
Line 7: Line 7:
 
आपके बिना यह कार्य और कौन कर सकता हैं ? आपको छोड़कर हम किससे निवेदन कर सकते हैं ? आप इस संकट का निवारण करने की कृपा करें ।
 
आपके बिना यह कार्य और कौन कर सकता हैं ? आपको छोड़कर हम किससे निवेदन कर सकते हैं ? आप इस संकट का निवारण करने की कृपा करें ।
  
८. यह कोई साधारण कार्य नहीं है । इसके लिए सामर्थ्य चाहिए । यह सामर्थ्य धन या सत्ता या बल का सामर्थ्य नहीं है। यह सामर्थ्य तप और ज्ञान का है । यह सामर्थ्य निष्ठा का है । ऐसा सामर्थ्य आपके ही पास है। धर्म का अपना ही सामर्थ्य होता है। आप धर्माचार्य हैं । इसलिए आप ही राष्ट्र का यह संकट दूर कर सकते हैं ।
+
८. यह कोई साधारण कार्य नहीं है । इसके लिए सामर्थ्य चाहिए । यह सामर्थ्य धन या सत्ता या बल का सामर्थ्य नहीं है। यह सामर्थ्य तप और ज्ञान का है । यह सामर्थ्य निष्ठा का है । ऐसा सामर्थ्य आपके ही पास है। धर्म का अपना ही सामर्थ्य होता है। आप धर्माचार्य हैं । अतः आप ही राष्ट्र का यह संकट दूर कर सकते हैं ।
  
 
९. धर्म ही जीवन का आधार है । धर्म ही विश्व का आधार है। धर्म से ही राष्ट्रजीवन बना रहता है । धर्म से ही समृद्धि है । धर्म से ही कल्याण है । धर्म से ही सुख है। धर्म से ही यश है । धर्म से ही सार्थकता है । उस धर्म की ही उपेक्षा होने से आधार नष्ट होता है और बिना आधार के सब कुछ नष्ट होता है ।
 
९. धर्म ही जीवन का आधार है । धर्म ही विश्व का आधार है। धर्म से ही राष्ट्रजीवन बना रहता है । धर्म से ही समृद्धि है । धर्म से ही कल्याण है । धर्म से ही सुख है। धर्म से ही यश है । धर्म से ही सार्थकता है । उस धर्म की ही उपेक्षा होने से आधार नष्ट होता है और बिना आधार के सब कुछ नष्ट होता है ।
Line 17: Line 17:
 
१२. राष्ट्रजीवन के लिये धर्म की जो व्यवस्था है वह धर्माचार्यों के अधीन होती है । वे ही सामान्यजनों को धर्म का पालन करने के निर्देश देते हैं । वे ही व्यवहार शास्त्रों की रचना करते हैं । उन शास्त्रों के अनुसार चलने से श्रेय और प्रेय की प्राप्ति होती है ।
 
१२. राष्ट्रजीवन के लिये धर्म की जो व्यवस्था है वह धर्माचार्यों के अधीन होती है । वे ही सामान्यजनों को धर्म का पालन करने के निर्देश देते हैं । वे ही व्यवहार शास्त्रों की रचना करते हैं । उन शास्त्रों के अनुसार चलने से श्रेय और प्रेय की प्राप्ति होती है ।
  
१३. सत्ययुग में धर्म का पालन करवाने के लिये किसी दूंडविधान की आवश्यकता नहीं थी । उसी प्रकार किसी शास्त्र की भी आवश्यकता नहीं थी । धर्म लोगों के अन्तःकरणों में स्वयं ही रहता था और मनुष्य के जीवन का निर्देश करता था । तब जीवन सुखमय था |
+
१३. सत्ययुग में धर्म का पालन करवाने के लिये किसी दूंडविधान की आवश्यकता नहीं थी । उसी प्रकार किसी शास्त्र की भी आवश्यकता नहीं थी । धर्म लोगोंं के अन्तःकरणों में स्वयं ही रहता था और मनुष्य के जीवन का निर्देश करता था । तब जीवन सुखमय था |
  
 
१४. परन्तु अब कलियुग है । बिना शास्त्र के और बिना दंडविधान के धर्म का पालन नहीं हो सकता । उससे भी शास्त्र अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि राज्य भी शास्त्र के अनुसार ही चलता है । बिना राज्य के शास्त्र तो हो सकता है परन्तु बिना शास्त्र के राज्य नहीं चल सकता । इस प्रकार धर्म स्वयं शासन करने वालों का भी शासक है ।
 
१४. परन्तु अब कलियुग है । बिना शास्त्र के और बिना दंडविधान के धर्म का पालन नहीं हो सकता । उससे भी शास्त्र अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि राज्य भी शास्त्र के अनुसार ही चलता है । बिना राज्य के शास्त्र तो हो सकता है परन्तु बिना शास्त्र के राज्य नहीं चल सकता । इस प्रकार धर्म स्वयं शासन करने वालों का भी शासक है ।
Line 23: Line 23:
 
१५. धर्म की बात करने वाला, धर्म की प्रतिष्ठा के लिये प्रयास करने वाला यदि वह नहीं करेगा तो समाज कैसे रह सकता है ? धर्माचार्य यह नहीं करते तो और कौन करेगा ? हम इसीलिए आपके पास आए हैं ।
 
१५. धर्म की बात करने वाला, धर्म की प्रतिष्ठा के लिये प्रयास करने वाला यदि वह नहीं करेगा तो समाज कैसे रह सकता है ? धर्माचार्य यह नहीं करते तो और कौन करेगा ? हम इसीलिए आपके पास आए हैं ।
  
१६. धर्म को लोगों तक ले जाने के लिए शिक्षा सशक्त माध्यम होती है यह तो हमने प्रारंभ में ही कहा है । परन्तु जब वह धर्म के क्षेत्र से विस्थापित होकर राज्य के अधीन कर ली जाती है तब अनर्थ का ही कारण बनती है । शिक्षा धर्मानुसारी बने यह देखने का काम शिक्षकों का है परन्तु शिक्षकों को धर्माचार्यों का मार्गदर्शन और सहायता चाहिए । ऐसी सहायता मांगने के लिए हम आपके पास आए हैं ।
+
१६. धर्म को लोगोंं तक ले जाने के लिए शिक्षा सशक्त माध्यम होती है यह तो हमने प्रारंभ में ही कहा है । परन्तु जब वह धर्म के क्षेत्र से विस्थापित होकर राज्य के अधीन कर ली जाती है तब अनर्थ का ही कारण बनती है । शिक्षा धर्मानुसारी बने यह देखने का काम शिक्षकों का है परन्तु शिक्षकों को धर्माचार्यों का मार्गदर्शन और सहायता चाहिए । ऐसी सहायता मांगने के लिए हम आपके पास आए हैं ।
  
 
१७. समाज की वर्तमान स्थिति में आप उदासीन नहीं रह सकते । आप भी तो धर्म की प्रतिष्ठा चाहते हैं । धर्म की प्रतिष्ठा करनी है तो धर्माचार्यों और शिक्षकों को एकदूसरे के अनुकूल बनना होगा । आपसे निवेदन है कि आप हमारी बात पर विचार करें और हमारा निवेदन स्वीकार करें ।
 
१७. समाज की वर्तमान स्थिति में आप उदासीन नहीं रह सकते । आप भी तो धर्म की प्रतिष्ठा चाहते हैं । धर्म की प्रतिष्ठा करनी है तो धर्माचार्यों और शिक्षकों को एकदूसरे के अनुकूल बनना होगा । आपसे निवेदन है कि आप हमारी बात पर विचार करें और हमारा निवेदन स्वीकार करें ।
Line 43: Line 43:
 
२३. इतना निवेदन कर आचार्य विश्वावसु मौन हुए । श्रोता सब तछ्लीन होकर सुन रहे थे। स्वामीजी भी एकाग्रतापूर्वक आचार्य कि बातें सुन रहे थे । आचार्य का निवेदन पूर्ण हुआ तब श्रोता आश्वस्ति का अनुभव कर रहे थे क्योंकि स्वामीजी के मुख पर सहमति के भाव दिखाई दे रहे थे । आचार्य विश्वसु भी आश्वस्त हुए ।
 
२३. इतना निवेदन कर आचार्य विश्वावसु मौन हुए । श्रोता सब तछ्लीन होकर सुन रहे थे। स्वामीजी भी एकाग्रतापूर्वक आचार्य कि बातें सुन रहे थे । आचार्य का निवेदन पूर्ण हुआ तब श्रोता आश्वस्ति का अनुभव कर रहे थे क्योंकि स्वामीजी के मुख पर सहमति के भाव दिखाई दे रहे थे । आचार्य विश्वसु भी आश्वस्त हुए ।
  
२४. कुछ क्षण की शान्ति के बाद स्वामीजी ने कहा कि आपकी बात सुनकर मैं बहुत विचार करने लगा हूँ । मेरी आपसे पूर्ण सहमति है । मैं इस बात से भी सहमत हूँ कि हम लोगों को साथ मिलकर प्रयास करने चाहिए । मैं यह भी मानता हूँ कि अब तक बहुत विलम्ब हो चुका है । अब और अधिक विलम्ब नहीं करना चाहिए ।
+
२४. कुछ क्षण की शान्ति के बाद स्वामीजी ने कहा कि आपकी बात सुनकर मैं बहुत विचार करने लगा हूँ । मेरी आपसे पूर्ण सहमति है । मैं इस बात से भी सहमत हूँ कि हम लोगोंं को साथ मिलकर प्रयास करने चाहिए । मैं यह भी मानता हूँ कि अब तक बहुत विलम्ब हो चुका है । अब और अधिक विलम्ब नहीं करना चाहिए ।
  
२५. मैं मानता हूँ कि यह एक भगीरथ कार्य है । सहज साध्य नहीं है । दो पाँच व्यक्तियों का काम नहीं है । यह बहुत विचारपूर्वक अनेक समर्थ लोगों द्वारा किया जानेवाला काम है । हम सबने हमारा निश्चय पक्का करना. चाहिए, योजना. बनानी चाहिए. और निरन्तरतापूर्वक उसे साकार करने में लग जाना चाहिए |
+
२५. मैं मानता हूँ कि यह एक भगीरथ कार्य है । सहज साध्य नहीं है । दो पाँच व्यक्तियों का काम नहीं है । यह बहुत विचारपूर्वक अनेक समर्थ लोगोंं द्वारा किया जानेवाला काम है । हम सबने हमारा निश्चय पक्का करना. चाहिए, योजना. बनानी चाहिए. और निरन्तरतापूर्वक उसे साकार करने में लग जाना चाहिए |
  
 
२६. आप सब मुझे यह कार्य सौंपना चाहते हैं । मैं आप सबका आभारी हूँ कि आपने मुझे धर्माचार्य के नाते मेरे कर्तव्य का स्मरण करवाया । अब इस विषय पर गम्भीरता से जो करना चाहिए वह करूँगा । आपके संकेत का स्वागत करूँगा ।
 
२६. आप सब मुझे यह कार्य सौंपना चाहते हैं । मैं आप सबका आभारी हूँ कि आपने मुझे धर्माचार्य के नाते मेरे कर्तव्य का स्मरण करवाया । अब इस विषय पर गम्भीरता से जो करना चाहिए वह करूँगा । आपके संकेत का स्वागत करूँगा ।
  
२७. परन्तु इस कार्य में और धर्माचार्यों के सहयोग की आवश्यकता रहेगी । मेरा आश्रम और मेरे शिष्य इसकी जिम्मेदारी लेंगे इसमें कोई सन्देह नहीं । परन्तु हम और लोगों को भी साथ लेंगे । आप में से कुछ प्रमुख लोग यहाँ रुक जाइए । हम साथ मिलकर कुछ सिद्धत्ता करेंगे और धमचिार्यों की एक सभा बुलाएँगे । उस सभा में चर्चा होगी, योजना बनेगी और बात आगे बढेगी ।
+
२७. परन्तु इस कार्य में और धर्माचार्यों के सहयोग की आवश्यकता रहेगी । मेरा आश्रम और मेरे शिष्य इसकी जिम्मेदारी लेंगे इसमें कोई सन्देह नहीं । परन्तु हम और लोगोंं को भी साथ लेंगे । आप में से कुछ प्रमुख लोग यहाँ रुक जाइए । हम साथ मिलकर कुछ सिद्धत्ता करेंगे और धमचिार्यों की एक सभा बुलाएँगे । उस सभा में चर्चा होगी, योजना बनेगी और बात आगे बढेगी ।
  
२८. स्वामीजी का कथन सबको स्वीकार्य था । आचार्य विश्वावसु और काश्मीर तथा वाराणसी के दस आचार्य और पाँच श्रेष्ठी सभा की तैयारी के लिए रुकेंगे ऐसा विचार हुआ और शेष लोगों ने स्वामीजी को प्रणाम कर जाने की अनुमती मागी । आचार्य प्रत्यक्ष योजना बनाने वाले थे और श्रेष्ठी उसमें अर्थ का दायित्व सम्हालने वाले थे, यद्यपि श्रेष्ठी भी केवल व्यापारी नहीं थे । धर्मचर्चा और ज्ञानचर्चा में सहभागी होने के लिए समर्थ थे ।
+
२८. स्वामीजी का कथन सबको स्वीकार्य था । आचार्य विश्वावसु और काश्मीर तथा वाराणसी के दस आचार्य और पाँच श्रेष्ठी सभा की तैयारी के लिए रुकेंगे ऐसा विचार हुआ और शेष लोगोंं ने स्वामीजी को प्रणाम कर जाने की अनुमती मागी । आचार्य प्रत्यक्ष योजना बनाने वाले थे और श्रेष्ठी उसमें अर्थ का दायित्व सम्हालने वाले थे, यद्यपि श्रेष्ठी भी केवल व्यापारी नहीं थे । धर्मचर्चा और ज्ञानचर्चा में सहभागी होने के लिए समर्थ थे ।
  
 
२९. स्वामीजी और धर्माचार्यों का वार्तालाप समाप्त हुआ । आज ज्ञानलाभपंचमी थी । आगामी गीताजयन्ती अर्तात्‌ मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को धमचिर्यों की सभा बुलाने का निर्णय हुआ । स्वामीजी के शिष्य सभी प्रमुख धर्माचार्यों को निमंत्रण देने में प्रवृत्त हुए
 
२९. स्वामीजी और धर्माचार्यों का वार्तालाप समाप्त हुआ । आज ज्ञानलाभपंचमी थी । आगामी गीताजयन्ती अर्तात्‌ मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को धमचिर्यों की सभा बुलाने का निर्णय हुआ । स्वामीजी के शिष्य सभी प्रमुख धर्माचार्यों को निमंत्रण देने में प्रवृत्त हुए
Line 61: Line 61:
 
भ्रष्टाचार कहता है उस दुर्व्यवहार के बिना अर्थतन्त्र चलता ही नहीं है । कानून भ्रष्टाचार को समर्थन नहीं देता परन्तु भ्रष्टाचार के बिना न उद्योग चलते हैं न बाजार चलता है ।
 
भ्रष्टाचार कहता है उस दुर्व्यवहार के बिना अर्थतन्त्र चलता ही नहीं है । कानून भ्रष्टाचार को समर्थन नहीं देता परन्तु भ्रष्टाचार के बिना न उद्योग चलते हैं न बाजार चलता है ।
  
११. लोगों के घरों में अनाचार सहज हो गया है । भोजन अपवित्र, वाणी अशुद्ध, इच्छायें पशुसमान और इच्छापूर्ति के तरीके भी निकृष्ट; दिनचर्या और जीवनचर्या अत्यंत अधार्मिक और अवैज्ञानिक होते हैं । आचारविचार में दिखावा अधिक, सच्चाई कम दिखाई देती है ।
+
११. लोगोंं के घरों में अनाचार सहज हो गया है । भोजन अपवित्र, वाणी अशुद्ध, इच्छायें पशुसमान और इच्छापूर्ति के तरीके भी निकृष्ट; दिनचर्या और जीवनचर्या अत्यंत अधार्मिक और अवैज्ञानिक होते हैं । आचारविचार में दिखावा अधिक, सच्चाई कम दिखाई देती है ।
  
१२. एक ओर धार्मिक कर्मकांडों की भरमार, दूसरी ओर अधार्सिक आचारविचारों की परिसीमा । लोगों का जीवन दुहरा हो गया है । यह सब हम देख ही रहे हैं । मुझे और अधिक विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है ।
+
१२. एक ओर धार्मिक कर्मकांडों की भरमार, दूसरी ओर अधार्सिक आचारविचारों की परिसीमा । लोगोंं का जीवन दुहरा हो गया है । यह सब हम देख ही रहे हैं । मुझे और अधिक विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है ।
  
 
१३. यह हमारी शिकायत का नहीं चिन्ता का विषय होना चाहिए । शिकायत करने से समस्या दूर नहीं होती | हमें इस समस्या को कैसे दूर किया जाय इस पर विचार करना चाहिए । समस्या का निराकरण करने का प्रयास करना चाहिए। हमें समस्या का कारण और स्वरूप ठीक प्रकार से समझना चाहिये ।
 
१३. यह हमारी शिकायत का नहीं चिन्ता का विषय होना चाहिए । शिकायत करने से समस्या दूर नहीं होती | हमें इस समस्या को कैसे दूर किया जाय इस पर विचार करना चाहिए । समस्या का निराकरण करने का प्रयास करना चाहिए। हमें समस्या का कारण और स्वरूप ठीक प्रकार से समझना चाहिये ।
  
१४. इस समस्या का मूल कारण यह है कि धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध टूट गया है । शिक्षा मनुष्य को दूसरी दिशा में ले जा रही है, धर्म दूसरी दिशा में जाने के लिए निर्देश दे रहा है । ये दोनों दिशायें एकदूसरी से सर्वथा विपरीत हैं । दो विपरीत दिशाओं में मनुष्य एकसाथ नहीं चल सकता । इसलिए एक मार्ग वास्तविक है दूसरा आभासी |
+
१४. इस समस्या का मूल कारण यह है कि धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध टूट गया है । शिक्षा मनुष्य को दूसरी दिशा में ले जा रही है, धर्म दूसरी दिशा में जाने के लिए निर्देश दे रहा है । ये दोनों दिशायें एकदूसरी से सर्वथा विपरीत हैं । दो विपरीत दिशाओं में मनुष्य एकसाथ नहीं चल सकता । अतः एक मार्ग वास्तविक है दूसरा आभासी |
  
 
१५. सामान्य जीवन धर्मविमुख हो जाने का कारण प्रत्यक्ष में तो शासन व्यवस्था, बाजार, विज्ञापन, रासायनिक खाद, मनुष्य का स्वार्थ आदि ही दिखता है । परन्तु इन सबको मान्यता और समर्थन देने वाला कौनसा तत्त्व है इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है ।
 
१५. सामान्य जीवन धर्मविमुख हो जाने का कारण प्रत्यक्ष में तो शासन व्यवस्था, बाजार, विज्ञापन, रासायनिक खाद, मनुष्य का स्वार्थ आदि ही दिखता है । परन्तु इन सबको मान्यता और समर्थन देने वाला कौनसा तत्त्व है इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है ।
  
१६. शासन लोकतंत्रात्मक है । लोगों का मत पवित्र होता है। परन्तु अपने मत की पवित्रता लोग क्यों नहीं मानते ? मनुष्य स्वार्थी हैं इसलिए । परन्तु स्वार्थी क्यों हैं ? क्या कलियुग के प्रभाव से ? या उन्हें अपने मत को पवित्र मानना चाहिए इसकी शिक्षा नहीं मिली इसलिए ? पवित्रता क्या होती है यह नहीं सिखाया गया इसलिए ?
+
१६. शासन लोकतंत्रात्मक है । लोगोंं का मत पवित्र होता है। परन्तु अपने मत की पवित्रता लोग क्यों नहीं मानते ? मनुष्य स्वार्थी हैं अतः । परन्तु स्वार्थी क्यों हैं ? क्या कलियुग के प्रभाव से ? या उन्हें अपने मत को पवित्र मानना चाहिए इसकी शिक्षा नहीं मिली अतः ? पवित्रता क्या होती है यह नहीं सिखाया गया अतः ?
  
१७. कानून का प्रावधान होने के बाद भी लोग भ्रष्टाचार करते हैं इसका कारण क्या है ? यही कि भ्रष्टाचार नहीं करना चाहिए ऐसा सिखाया नहीं गया है इसलिए । पैसा कम कमाएंगे परन्तु अनीति नहीं करेंगे यह नहीं सिखाया जाता । संतोष गुण की शिक्षा नहीं दी जाती है |
+
१७. कानून का प्रावधान होने के बाद भी लोग भ्रष्टाचार करते हैं इसका कारण क्या है ? यही कि भ्रष्टाचार नहीं करना चाहिए ऐसा सिखाया नहीं गया है अतः । पैसा कम कमाएंगे परन्तु अनीति नहीं करेंगे यह नहीं सिखाया जाता । संतोष गुण की शिक्षा नहीं दी जाती है |
  
१८. विज्ञापन का झूठ जानते हुए भी वस्तुयें खरीदने से कोई परावृत्त नहीं होता क्योंकि मन को संयम नहीं सिखाया जाता । धर्म के लक्षण प्रसिद्ध हैं । वे शिक्षा का अंग नहीं है । वे केवल उपदेश के लिए हैं । धर्म के बिना परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ जाता है, पैसा कमाया जाता है, जीवनयापन किया जा सकता है । इसलिए लोगों को धर्म की आवश्यकता नहीं लगती ।
+
१८. विज्ञापन का झूठ जानते हुए भी वस्तुयें खरीदने से कोई परावृत्त नहीं होता क्योंकि मन को संयम नहीं सिखाया जाता । धर्म के लक्षण प्रसिद्ध हैं । वे शिक्षा का अंग नहीं है । वे केवल उपदेश के लिए हैं । धर्म के बिना परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ जाता है, पैसा कमाया जाता है, जीवनयापन किया जा सकता है । अतः लोगोंं को धर्म की आवश्यकता नहीं लगती ।
  
 
१९. असत्य बोलने पर उच्च शिक्षा में प्रवेश नहीं मिलता ऐसा नहीं होता । अपवित्र जीवनशैली के रहते ज्ञान ग्रहण नहीं किया जा सकता ऐसी स्थिति नहीं है । व्यसनी छात्र, बलात्कार करने वाले छात्र परीक्षा में नकल करने वाला छात्र पढ़ नहीं सकता या नौकरी प्राप्त नहीं कर सकता ऐसा नहीं होता । इसका अर्थ यह है कि शिक्षा और अर्थाजन के लिए धर्म कि आवश्यकता नहीं है ।
 
१९. असत्य बोलने पर उच्च शिक्षा में प्रवेश नहीं मिलता ऐसा नहीं होता । अपवित्र जीवनशैली के रहते ज्ञान ग्रहण नहीं किया जा सकता ऐसी स्थिति नहीं है । व्यसनी छात्र, बलात्कार करने वाले छात्र परीक्षा में नकल करने वाला छात्र पढ़ नहीं सकता या नौकरी प्राप्त नहीं कर सकता ऐसा नहीं होता । इसका अर्थ यह है कि शिक्षा और अर्थाजन के लिए धर्म कि आवश्यकता नहीं है ।
  
२०. काम करने से काम करवाना अच्छा है, बिना काम किए पैसे मिलते हों तो अच्छा है, येन केन प्रकारेण पैसा कमाना ही व्यवसाय का लक्ष्य है, लोगों के लिए लाभकारी या आवश्यक है ऐसी वस्तुओं का नहीं अपितु सस्ते में, सरलता से उत्पादन किया जा सके और कीमत अधिक मिले ऐसी वस्तुओं का उत्पादन करना बुद्धिमानी है ऐसा विचार अधार्मिक है परन्तु वर्तमान व्यवस्थापन की और अर्थशास्त्र की शिक्षा इसे मान्यता देती है, किंबहुना सिखाती है ।
+
२०. काम करने से काम करवाना अच्छा है, बिना काम किए पैसे मिलते हों तो अच्छा है, येन केन प्रकारेण पैसा कमाना ही व्यवसाय का लक्ष्य है, लोगोंं के लिए लाभकारी या आवश्यक है ऐसी वस्तुओं का नहीं अपितु सस्ते में, सरलता से उत्पादन किया जा सके और कीमत अधिक मिले ऐसी वस्तुओं का उत्पादन करना बुद्धिमानी है ऐसा विचार अधार्मिक है परन्तु वर्तमान व्यवस्थापन की और अर्थशास्त्र की शिक्षा इसे मान्यता देती है, किंबहुना सिखाती है ।
  
 
............. page-347 .............
 
............. page-347 .............
  
२१. व्यक्तिगत हो या राष्ट्रजीवन हो, काम और अर्थ नियन्त्रक बन गए हैं । होना यह चाहिए कि अर्थ और काम दोनों धर्म के नियमन में रहने चाहिए । तभी सुख और समृद्धि प्राप्त होती है । इसे समर्थन देने वाला अर्थशास्त्र विश्वविद्यालयों में पढाया जाता है । यही सारी समस्याओं की जड है ।
+
२१. व्यक्तिगत हो या राष्ट्रजीवन हो, काम और अर्थ नियन्त्रक बन गए हैं । होना यह चाहिए कि अर्थ और काम दोनों धर्म के नियमन में रहने चाहिए । तभी सुख और समृद्धि प्राप्त होती है । इसे समर्थन देने वाला अर्थशास्त्र विश्वविद्यालयों में पढाया जाता है । यही सारी समस्याओं की जड़ है ।
  
२२. संसद में, विश्वविद्यालयों में, बौद्धिकों में शिक्षा के विषयमें चर्चा तो बहुत होती है । समस्‍यायें बताई जाती हैं । उपाय सुझाए जाते हैं । मंथन तो बहुत चलता है । लोग त्रस्त हैं । परन्तु शिक्षा धर्म नहीं सिखाती इसलिए ये सारी समस्‍यायें हैं और धर्म का सन्दर्भ लेने से तत्काल मार्ग दिखाई देने लगेगा इतनी सीधी सरल बात कहीं पर भी नहीं होती ।
+
२२. संसद में, विश्वविद्यालयों में, बौद्धिकों में शिक्षा के विषयमें चर्चा तो बहुत होती है । समस्‍यायें बताई जाती हैं । उपाय सुझाए जाते हैं । मंथन तो बहुत चलता है । लोग त्रस्त हैं । परन्तु शिक्षा धर्म नहीं सिखाती अतः ये सारी समस्‍यायें हैं और धर्म का सन्दर्भ लेने से तत्काल मार्ग दिखाई देने लगेगा इतनी सीधी सरल बात कहीं पर भी नहीं होती ।
  
 
२३. प्रकट समारोहों में तो लोग धर्म का नाम लेने से भी डरते हैं। वे मूल्यशिक्षा ऐसा शब्द बोलेंगे परन्तु धर्मानुसारी शिक्षा ऐसा नहीं बोलेंगे । प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरीके से शिक्षा क्षेत्र से धर्म निष्कासित हो गया है । शिक्षा से ही निष्कासित हो जाएगा तो जीवन के सभी क्षेत्रों से होगा ही ।
 
२३. प्रकट समारोहों में तो लोग धर्म का नाम लेने से भी डरते हैं। वे मूल्यशिक्षा ऐसा शब्द बोलेंगे परन्तु धर्मानुसारी शिक्षा ऐसा नहीं बोलेंगे । प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरीके से शिक्षा क्षेत्र से धर्म निष्कासित हो गया है । शिक्षा से ही निष्कासित हो जाएगा तो जीवन के सभी क्षेत्रों से होगा ही ।
Line 91: Line 91:
 
२४. मैंने संक्षेप में आप सबके सम्मुख समस्या का निरूपण किया है । आप यह सब नहीं जानते हैं ऐसा तो नहीं हैं । आप न केवल जानते हैं, अपितु आप भुक्तभोगी भी हैं । मेरा निवेदन केवल इतना ही है कि हम केवल चिन्ता न करें अपितु उपाय क्‍या करें इसकी योजना करें । अभी हम आज चर्चा को विराम देंगे । आप आश्रम में आराम से रहें, चिंतन करें । कल हम फिर से इस विषय पर चर्चा आरम्भ करेंगे ।
 
२४. मैंने संक्षेप में आप सबके सम्मुख समस्या का निरूपण किया है । आप यह सब नहीं जानते हैं ऐसा तो नहीं हैं । आप न केवल जानते हैं, अपितु आप भुक्तभोगी भी हैं । मेरा निवेदन केवल इतना ही है कि हम केवल चिन्ता न करें अपितु उपाय क्‍या करें इसकी योजना करें । अभी हम आज चर्चा को विराम देंगे । आप आश्रम में आराम से रहें, चिंतन करें । कल हम फिर से इस विषय पर चर्चा आरम्भ करेंगे ।
  
२५. स्वामीजी रुके । उनकी बातों में जानकारी तो नई नहीं थी परन्तु आवाहन का स्वरूप नया था । धर्माचर्यों को जिम्मेदारी की बात नई लगी । आज तक शिक्षा का धर्म के साथ सम्बन्ध नहीं जोडा गया था । आश्चर्य तो उसी बात का होना चाहिए था कि ऐसा कैसे हुआ । धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध इतना स्वाभाविक है कि वह अब नहीं रहा है यही बात ध्यान में नहीं आई ।
+
२५. स्वामीजी रुके । उनकी बातों में जानकारी तो नई नहीं थी परन्तु आवाहन का स्वरूप नया था । धर्माचर्यों को जिम्मेदारी की बात नई लगी । आज तक शिक्षा का धर्म के साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया था । आश्चर्य तो उसी बात का होना चाहिए था कि ऐसा कैसे हुआ । धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध इतना स्वाभाविक है कि वह अब नहीं रहा है यही बात ध्यान में नहीं आई ।
  
२६. सब इस नए सन्दर्भ से उत्साह में तो आ गए परन्तु कुछ असमंजस में भी थे । एक तो आवाहन नया और अपरिचित, अश्रुतपूर्व था और साथ ही शिक्षा के बारे में वे बहुत कुछ जानते नहीं थे । इसलिए समस्या की और उसके हल की चर्चा कैसे चलेगी इसकी बहुत कल्पना वे नहीं कर पा रहे थे । अनेक लोगों ने तो केवल श्रोता बनकर विषय को समझने का ही निश्चय किया ।
+
२६. सब इस नए सन्दर्भ से उत्साह में तो आ गए परन्तु कुछ असमंजस में भी थे । एक तो आवाहन नया और अपरिचित, अश्रुतपूर्व था और साथ ही शिक्षा के बारे में वे बहुत कुछ जानते नहीं थे । अतः समस्या की और उसके हल की चर्चा कैसे चलेगी इसकी बहुत कल्पना वे नहीं कर पा रहे थे । अनेक लोगोंं ने तो केवल श्रोता बनकर विषय को समझने का ही निश्चय किया ।
  
 
२७. इसके साथ ही सभा विसर्जित हुई । आचार्य विश्वावसु और उनके साथ आए हुए प्राध्यापक आश्वस्त दिखाई दे रहे थे । उन्हें लगा कि इस चर्चा का कोई परिणाम अवश्य निकलेगा । उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक स्वामीजी को प्रणाम किया और अपने निवास की ओर चले |
 
२७. इसके साथ ही सभा विसर्जित हुई । आचार्य विश्वावसु और उनके साथ आए हुए प्राध्यापक आश्वस्त दिखाई दे रहे थे । उन्हें लगा कि इस चर्चा का कोई परिणाम अवश्य निकलेगा । उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक स्वामीजी को प्रणाम किया और अपने निवास की ओर चले |
Line 119: Line 119:
 
२. बहुत देर तक मौन रहने के बाद स्वामीजी ने बोलना आरम्भ किया । उन्होंने कहा कि सारे धर्माचार्य बहुत ही नासमझी का व्यवहार कर रहे थे । उनका मिथ्या अहंकार उन्हें स्थिति को समझने ही नहीं दे रहा है । वे आज्ञानी होकर भी अपने आपको ज्ञानवान समझ रहे हैं। परन्तु ज्ञानियों जैसा विनय उनमें लेश मात्र नहीं है।
 
२. बहुत देर तक मौन रहने के बाद स्वामीजी ने बोलना आरम्भ किया । उन्होंने कहा कि सारे धर्माचार्य बहुत ही नासमझी का व्यवहार कर रहे थे । उनका मिथ्या अहंकार उन्हें स्थिति को समझने ही नहीं दे रहा है । वे आज्ञानी होकर भी अपने आपको ज्ञानवान समझ रहे हैं। परन्तु ज्ञानियों जैसा विनय उनमें लेश मात्र नहीं है।
  
३. इनके बड़े बड़े मठ हैं । इनकी बड़ी बडी संस्थायें चलती हैं । इनके अनुयायीओं की संख्या बहुत बडी है। परन्तु यही बातें आवरण बनकर उन्हें सत्य को समझने से रोक रही हैं । धर्म के नाम पर ये अधर्म की दुनिया में विहार कर रहे हैं । विपरीत दिशा में जा रहे हैं और लोगों को ले जा रहे हैं ।
+
३. इनके बड़े बड़े मठ हैं । इनकी बड़ी बडी संस्थायें चलती हैं । इनके अनुयायीओं की संख्या बहुत बडी है। परन्तु यही बातें आवरण बनकर उन्हें सत्य को समझने से रोक रही हैं । धर्म के नाम पर ये अधर्म की दुनिया में विहार कर रहे हैं । विपरीत दिशा में जा रहे हैं और लोगोंं को ले जा रहे हैं ।
  
४. धर्म को अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए साधन के रूप में प्रयुक्त करने की इच्छा रखने वाले राजनीतिक लोगों की चाटूकारिता से ये मुग्ध हो जाते हैं । उन्हें लगता है कि वे सब उनके कार्य से प्रभावित होकर आते हैं । परन्तु इन नासमझ लोगों को यह नहीं समझता कि इनके अनुयायीओं की संख्या देखकर चुनाव में इनका उपयोग हो सकता है ऐसा उद्देश्य मन में रखकर वे आ रहे हैं ।
+
४. धर्म को अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए साधन के रूप में प्रयुक्त करने की इच्छा रखने वाले राजनीतिक लोगोंं की चाटूकारिता से ये मुग्ध हो जाते हैं । उन्हें लगता है कि वे सब उनके कार्य से प्रभावित होकर आते हैं । परन्तु इन नासमझ लोगोंं को यह नहीं समझता कि इनके अनुयायीओं की संख्या देखकर चुनाव में इनका उपयोग हो सकता है ऐसा उद्देश्य मन में रखकर वे आ रहे हैं ।
  
५. अनेक बार तो ये आचार्य भी उनका असली उद्देश्य क्या है यह जानते हैं । परन्तु वे भी अपने संस्थाओं के लिए भूमि, धन और अन्य सुविधायें चाहते हैं । धर्माचार्यों के पास संख्या है और राजीतिक लोगों के पास सत्ता है । दोनों एकदूसरे की सहायता चाहते हैं और एकदूसरे का उपयोग कर लेने का प्रयास करते हैं । इसे वे धर्म का प्रभाव कहते हैं । कुछ तो सही में अज्ञानी हैं, कुछ जानते हुए भी ढोंग कर रहे हैं ।
+
५. अनेक बार तो ये आचार्य भी उनका असली उद्देश्य क्या है यह जानते हैं । परन्तु वे भी अपने संस्थाओं के लिए भूमि, धन और अन्य सुविधायें चाहते हैं । धर्माचार्यों के पास संख्या है और राजीतिक लोगोंं के पास सत्ता है । दोनों एकदूसरे की सहायता चाहते हैं और एकदूसरे का उपयोग कर लेने का प्रयास करते हैं । इसे वे धर्म का प्रभाव कहते हैं । कुछ तो सही में अज्ञानी हैं, कुछ जानते हुए भी ढोंग कर रहे हैं ।
  
६. ये अज्ञानी लोग समझते हैं कि कथाओं, तीर्थयात्राओं , सत्संगों में सम्मिलित होने वाले लोग वास्तव में धार्मिक हैं । यह बहुत बड़ा भ्रम है । इन्हें यह नहीं समझता कि यह भी उनके लिए एक मनोरंजन कार्यक्रम से विशेष कुछ नहीं है । केवल कथा सुनने से या भजन गाने से कोई भक्त नहीं हो जाता । यह बात धर्माचार्यों को ही लोगों को बतानी चाहिए परन्तु ऐसा करने के स्थान पर वे स्वयं अज्ञानियों के स्वर्ग में विहार करते हैं।
+
६. ये अज्ञानी लोग समझते हैं कि कथाओं, तीर्थयात्राओं , सत्संगों में सम्मिलित होने वाले लोग वास्तव में धार्मिक हैं । यह बहुत बड़ा भ्रम है । इन्हें यह नहीं समझता कि यह भी उनके लिए एक मनोरंजन कार्यक्रम से विशेष कुछ नहीं है । केवल कथा सुनने से या भजन गाने से कोई भक्त नहीं हो जाता । यह बात धर्माचार्यों को ही लोगोंं को बतानी चाहिए परन्तु ऐसा करने के स्थान पर वे स्वयं अज्ञानियों के स्वर्ग में विहार करते हैं।
  
 
७. धर्म आचरण का विषय है । स्वयम्‌ असत्य बोलते हैं ऐसे लोग सत्यवादी हरिश्चन्द्र या युधिष्टि की कथा सुनकर धार्मिक नहीं हो जाते । अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाने वाले अथवा जानबूझकर छोड देने वाले केवल भजन सुनकर या गाकर भक्त नहीं हो जाते । अपने स्वार्थ के लिए मंदिरों में जाने वाले दर्शनार्थी नहीं होते केवल प्रयोजनार्थी होते हैं । यह बात धर्माचार्यों को समझनी चाहिए । परन्तु वे नहीं समझते हैं।
 
७. धर्म आचरण का विषय है । स्वयम्‌ असत्य बोलते हैं ऐसे लोग सत्यवादी हरिश्चन्द्र या युधिष्टि की कथा सुनकर धार्मिक नहीं हो जाते । अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाने वाले अथवा जानबूझकर छोड देने वाले केवल भजन सुनकर या गाकर भक्त नहीं हो जाते । अपने स्वार्थ के लिए मंदिरों में जाने वाले दर्शनार्थी नहीं होते केवल प्रयोजनार्थी होते हैं । यह बात धर्माचार्यों को समझनी चाहिए । परन्तु वे नहीं समझते हैं।
  
८. गोस्वामी तुलसीदासजी ने परहित को सबसे बड़ा धर्म और परपीडा को सबसे बडा अधर्म कहा । ऐसा नहीं कर केवल भजन पूजन करने वाले धार्मिक नहीं हो सकते । लोगों का भला किसमें है इसे नहीं जानने
+
८. गोस्वामी तुलसीदासजी ने परहित को सबसे बड़ा धर्म और परपीडा को सबसे बडा अधर्म कहा । ऐसा नहीं कर केवल भजन पूजन करने वाले धार्मिक नहीं हो सकते । लोगोंं का भला किसमें है इसे नहीं जानने
  
 
............. page-350 .............
 
............. page-350 .............
Line 135: Line 135:
 
वाले और अपने शिष्यों या अनुयायीओं को नहीं समझाने वाले धर्माचार्य कैसे हो सकते हैं ।
 
वाले और अपने शिष्यों या अनुयायीओं को नहीं समझाने वाले धर्माचार्य कैसे हो सकते हैं ।
  
९. आचरण यदि पवित्र नहीं है, लोगों की सेवा करने हेतु जो कष्ट सहते नहीं हैं, कर्तव्य का पालन करने के लिए त्याग करने की आवश्यकता हो तब त्याग करते नहीं हैं, स्वार्थ के लिए लोगों का उपयोग करते हैं, संयम का पालन करते नहीं हैं वे केवल रामायण या महाभारत की कथा सुनकर या भजन गाकर धार्मिक नहीं हो जाते ।
+
९. आचरण यदि पवित्र नहीं है, लोगोंं की सेवा करने हेतु जो कष्ट सहते नहीं हैं, कर्तव्य का पालन करने के लिए त्याग करने की आवश्यकता हो तब त्याग करते नहीं हैं, स्वार्थ के लिए लोगोंं का उपयोग करते हैं, संयम का पालन करते नहीं हैं वे केवल रामायण या महाभारत की कथा सुनकर या भजन गाकर धार्मिक नहीं हो जाते ।
  
१०. सर्व प्राणीमात्र में एक ही आत्मतत्त्व है इस सिद्धान्त के अनुसार व्यवहार नहीं करने वाले केवल उपनिषद पढ़कर या वेदांत दर्शन का अध्ययन कर धार्मिक नहीं हो जाते । वे पण्डित हो सकते हैं परन्तु धार्मिक नहीं । व्यक्ति को पहले धार्मिक होना चाहिए, बाद में पण्डित । परन्तु इन्हें यह बात कहाँ समझती हैं ।
+
१०. सर्व प्राणीमात्र में एक ही आत्मतत्त्व है इस सिद्धान्त के अनुसार व्यवहार नहीं करने वाले केवल उपनिषद पढ़कर या [[Vedanta_([[Vedanta_([[Vedanta_(वेदान्तः)|वेदांत]]ः)|वेदांत]]ः)|वेदांत]] दर्शन का अध्ययन कर धार्मिक नहीं हो जाते । वे पण्डित हो सकते हैं परन्तु धार्मिक नहीं । व्यक्ति को पहले धार्मिक होना चाहिए, बाद में पण्डित । परन्तु इन्हें यह बात कहाँ समझती हैं ।
  
 
११. सत्संग, कथावार्ता, यज्ञयाग, तीर्थयात्रा, दर्शन, पूजा, धर्मग्रंथों का अध्ययन ये सब धर्म के अंग तभी सार्थक होते हैं जब व्यवहार और विचार भी उनके अनुकूल हों । सत्य तो यह है कि ये सारी बातें धार्मिक आचरण के परिणामस्वरूप होती हैं, कारण नहीं । निर्द्शक तो जरा भी नहीं । बिना आचरण के ये केवल निरोर्थक ही नहीं तो अनर्थक हो जाती हैं । क्योंकि वे आभासी विश्व निर्माण करती हैं । सत्य इसके पीछे ढक जाता हैं |
 
११. सत्संग, कथावार्ता, यज्ञयाग, तीर्थयात्रा, दर्शन, पूजा, धर्मग्रंथों का अध्ययन ये सब धर्म के अंग तभी सार्थक होते हैं जब व्यवहार और विचार भी उनके अनुकूल हों । सत्य तो यह है कि ये सारी बातें धार्मिक आचरण के परिणामस्वरूप होती हैं, कारण नहीं । निर्द्शक तो जरा भी नहीं । बिना आचरण के ये केवल निरोर्थक ही नहीं तो अनर्थक हो जाती हैं । क्योंकि वे आभासी विश्व निर्माण करती हैं । सत्य इसके पीछे ढक जाता हैं |
Line 145: Line 145:
 
१३. मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त मिलकर अन्तःकरण है। मन सद्गुणी बनता है, बुद्धि और अहंकार आत्मनिष्ठ बनते हैं, चित्त शुद्द बनता है तब व्यक्ति धार्मिक बनता है । ऐसा व्यक्ति भजन, पूजन, कीर्तन, सत्संग करे या न करे वह धार्मिक ही बना रहता है । वास्तव में धर्म की रक्षा तो ऐसा व्यक्ति ही कर रहा होता है । ऐसे व्यक्ति का संग ही सत्संग है ।
 
१३. मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त मिलकर अन्तःकरण है। मन सद्गुणी बनता है, बुद्धि और अहंकार आत्मनिष्ठ बनते हैं, चित्त शुद्द बनता है तब व्यक्ति धार्मिक बनता है । ऐसा व्यक्ति भजन, पूजन, कीर्तन, सत्संग करे या न करे वह धार्मिक ही बना रहता है । वास्तव में धर्म की रक्षा तो ऐसा व्यक्ति ही कर रहा होता है । ऐसे व्यक्ति का संग ही सत्संग है ।
  
१४. लोगों को अन्तःकरण पवित्र कैसे बनाये सिखाना धर्म सिखाना है । यही धर्माचार्यों का कर्तव्य है । ऐसा करने से धर्म की रक्षा होती है । ऐसा धर्म फिर समाज की रक्षा करता है । आज इस बात का विस्मरण हुआ है । गाडी उल्टी पटरी पर चढ गई है ।
+
१४. लोगोंं को अन्तःकरण पवित्र कैसे बनाये सिखाना धर्म सिखाना है । यही धर्माचार्यों का कर्तव्य है । ऐसा करने से धर्म की रक्षा होती है । ऐसा धर्म फिर समाज की रक्षा करता है । आज इस बात का विस्मरण हुआ है । गाडी उल्टी पटरी पर चढ गई है ।
  
 
१५. धर्म का विचार वास्तव में व्यवहार, व्यवस्था और वातावरण के संदर्भ में ही करना चाहिए । इन सबके साथ सम्बन्ध विच्छेद हो गया तो धर्म धर्म नहीं रहता है, वह धर्म का आभास होता है जो अधर्म से भी अधिक हानिकारक होता है क्योंकि अधार्मिक व्यक्ति की कभी न कभी धार्मिक बनने की सम्भावना होती है परन्तु जो आभासी धर्म का पालन करता है उसकी तो दुर्गति होती है ।
 
१५. धर्म का विचार वास्तव में व्यवहार, व्यवस्था और वातावरण के संदर्भ में ही करना चाहिए । इन सबके साथ सम्बन्ध विच्छेद हो गया तो धर्म धर्म नहीं रहता है, वह धर्म का आभास होता है जो अधर्म से भी अधिक हानिकारक होता है क्योंकि अधार्मिक व्यक्ति की कभी न कभी धार्मिक बनने की सम्भावना होती है परन्तु जो आभासी धर्म का पालन करता है उसकी तो दुर्गति होती है ।
Line 159: Line 159:
 
अपनी संस्थाओं के केंद्र हैं इस बात का गर्व करते हैं । यह धर्म नहीं, भौतिक यश का मद है ।
 
अपनी संस्थाओं के केंद्र हैं इस बात का गर्व करते हैं । यह धर्म नहीं, भौतिक यश का मद है ।
  
१९. अकिंचन, अपरिग्रही, परिश्रमी, स्वार्थत्यागी, अनिकेत होना संन्यासी का लक्षण है । सादगी, संयम, सरलता, सुलभता, ऋजुता, सन्त के लक्षण हैं। समाज को जीवन की सही दिशा बताना और लोगों को सही मार्ग पर चलाना धर्माचार्य का कर्तव्य है । समाज यदि सही मार्ग पर नहीं चलता है तो संन्यासी, सन्त और धर्माचार्य का ही दोष माना जाना चाहिए ।
+
१९. अकिंचन, अपरिग्रही, परिश्रमी, स्वार्थत्यागी, अनिकेत होना संन्यासी का लक्षण है । सादगी, संयम, सरलता, सुलभता, ऋजुता, सन्त के लक्षण हैं। समाज को जीवन की सही दिशा बताना और लोगोंं को सही मार्ग पर चलाना धर्माचार्य का कर्तव्य है । समाज यदि सही मार्ग पर नहीं चलता है तो संन्यासी, सन्त और धर्माचार्य का ही दोष माना जाना चाहिए ।
  
 
२०. आज तो सभी धर्माचार्यों के मठ, मन्दिर, आश्रम वैभव से युक्त दिखाई देते हैं । यह वैभव प्राकृतिक नहीं होता है। वर्तमान समय की प्रदूषण बढ़ाने वाली अनेक स्चनायें यहाँ भी दिखाई देती हैं । इनमें साधनशुद्धि का अंश नहीं होता । समाज में भ्रष्टाचार से जो कमाई होती है उसी धन से ये सब अपनी संस्थायें चलाते हैं । इसका परिणाम इनके कार्य पर हुए बिना नहीं रह सकता । अन्यों को शुद्ध बनाने के स्थान पर ये स्वयं अशुद्ध बन जाते हैं ।
 
२०. आज तो सभी धर्माचार्यों के मठ, मन्दिर, आश्रम वैभव से युक्त दिखाई देते हैं । यह वैभव प्राकृतिक नहीं होता है। वर्तमान समय की प्रदूषण बढ़ाने वाली अनेक स्चनायें यहाँ भी दिखाई देती हैं । इनमें साधनशुद्धि का अंश नहीं होता । समाज में भ्रष्टाचार से जो कमाई होती है उसी धन से ये सब अपनी संस्थायें चलाते हैं । इसका परिणाम इनके कार्य पर हुए बिना नहीं रह सकता । अन्यों को शुद्ध बनाने के स्थान पर ये स्वयं अशुद्ध बन जाते हैं ।
  
२१. स्वामीजी बहुत खिन्नता का अनुभव कर रहे थे । वे स्वयं संन्यासी थे । अपने ही प्रकार के लोगों के लिए ये सारी बातें वे कर रहे थे । इसका उन्हें दुःख था परन्तु वे वास्तविक चित्र जानते थे । कल की धर्मसभा में प्रत्यक्ष अनुभव भी हो गया था । इसलिए वे दुःखी हो रहे थे । आचार्य विश्वावसु उनका दुःख समझ रहे थे । वे भी खिन्नता का अनुभव कर ही रहे थे ।
+
२१. स्वामीजी बहुत खिन्नता का अनुभव कर रहे थे । वे स्वयं संन्यासी थे । अपने ही प्रकार के लोगोंं के लिए ये सारी बातें वे कर रहे थे । इसका उन्हें दुःख था परन्तु वे वास्तविक चित्र जानते थे । कल की धर्मसभा में प्रत्यक्ष अनुभव भी हो गया था । अतः वे दुःखी हो रहे थे । आचार्य विश्वावसु उनका दुःख समझ रहे थे । वे भी खिन्नता का अनुभव कर ही रहे थे ।
  
२२. परन्तु वे जानते थे कि दुःखी होने से समस्या का हल नहीं प्राप्त होता, कुछ करने से ही परिणाम मिलता है । इसलिए कुछ क्षण मौन रहकर वे अपने विचार बताने लगे । वे मुख्य रूप से धर्माचार्यों का शिक्षा से क्या संबंध है उसकी बात करना चाहते थे । स्वामीजी भी उनकी बात ध्यानपूर्वक सुन रहे थे ।
+
२२. परन्तु वे जानते थे कि दुःखी होने से समस्या का हल नहीं प्राप्त होता, कुछ करने से ही परिणाम मिलता है । अतः कुछ क्षण मौन रहकर वे अपने विचार बताने लगे । वे मुख्य रूप से धर्माचार्यों का शिक्षा से क्या संबंध है उसकी बात करना चाहते थे । स्वामीजी भी उनकी बात ध्यानपूर्वक सुन रहे थे ।
  
 
=== धर्माचार्यों की भूमिका ===
 
=== धर्माचार्यों की भूमिका ===

Latest revision as of 20:04, 16 January 2021

ToBeEdited.png
This article needs editing.

Add and improvise the content from reliable sources.

text to be added

आपके बिना यह कार्य और कौन कर सकता हैं ? आपको छोड़कर हम किससे निवेदन कर सकते हैं ? आप इस संकट का निवारण करने की कृपा करें ।

८. यह कोई साधारण कार्य नहीं है । इसके लिए सामर्थ्य चाहिए । यह सामर्थ्य धन या सत्ता या बल का सामर्थ्य नहीं है। यह सामर्थ्य तप और ज्ञान का है । यह सामर्थ्य निष्ठा का है । ऐसा सामर्थ्य आपके ही पास है। धर्म का अपना ही सामर्थ्य होता है। आप धर्माचार्य हैं । अतः आप ही राष्ट्र का यह संकट दूर कर सकते हैं ।

९. धर्म ही जीवन का आधार है । धर्म ही विश्व का आधार है। धर्म से ही राष्ट्रजीवन बना रहता है । धर्म से ही समृद्धि है । धर्म से ही कल्याण है । धर्म से ही सुख है। धर्म से ही यश है । धर्म से ही सार्थकता है । उस धर्म की ही उपेक्षा होने से आधार नष्ट होता है और बिना आधार के सब कुछ नष्ट होता है ।

१०. धर्म का पालन करने से धर्म भी जीवित रहता है । धर्म आचरण का विषय है धर्म का वाचिक स्वरूप सत्य है । धर्म का आचरण नहीं किया तो सत्य भी मिथ्या हो जाता है। सत्य और धर्म के बिना मनुष्य का जीवन मनुष्य का नहीं रह जाता है । वह पशु के समान बन जाता है ।

११. मनुष्य पशु के समान बनकर पशु से भी नीचे गिर जाता है, क्योंकि पशु को नियन्त्रित करने के लिए प्रकृति होती है, मनुष्य को नियंत्रित करने वाला स्वयं मनुष्य ही होता है । मनुष्य स्वेच्छा से जब धर्म का नियंत्रण स्वीकार करता है तभी वह नियंत्रित होता है ।

१२. राष्ट्रजीवन के लिये धर्म की जो व्यवस्था है वह धर्माचार्यों के अधीन होती है । वे ही सामान्यजनों को धर्म का पालन करने के निर्देश देते हैं । वे ही व्यवहार शास्त्रों की रचना करते हैं । उन शास्त्रों के अनुसार चलने से श्रेय और प्रेय की प्राप्ति होती है ।

१३. सत्ययुग में धर्म का पालन करवाने के लिये किसी दूंडविधान की आवश्यकता नहीं थी । उसी प्रकार किसी शास्त्र की भी आवश्यकता नहीं थी । धर्म लोगोंं के अन्तःकरणों में स्वयं ही रहता था और मनुष्य के जीवन का निर्देश करता था । तब जीवन सुखमय था |

१४. परन्तु अब कलियुग है । बिना शास्त्र के और बिना दंडविधान के धर्म का पालन नहीं हो सकता । उससे भी शास्त्र अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि राज्य भी शास्त्र के अनुसार ही चलता है । बिना राज्य के शास्त्र तो हो सकता है परन्तु बिना शास्त्र के राज्य नहीं चल सकता । इस प्रकार धर्म स्वयं शासन करने वालों का भी शासक है ।

१५. धर्म की बात करने वाला, धर्म की प्रतिष्ठा के लिये प्रयास करने वाला यदि वह नहीं करेगा तो समाज कैसे रह सकता है ? धर्माचार्य यह नहीं करते तो और कौन करेगा ? हम इसीलिए आपके पास आए हैं ।

१६. धर्म को लोगोंं तक ले जाने के लिए शिक्षा सशक्त माध्यम होती है यह तो हमने प्रारंभ में ही कहा है । परन्तु जब वह धर्म के क्षेत्र से विस्थापित होकर राज्य के अधीन कर ली जाती है तब अनर्थ का ही कारण बनती है । शिक्षा धर्मानुसारी बने यह देखने का काम शिक्षकों का है परन्तु शिक्षकों को धर्माचार्यों का मार्गदर्शन और सहायता चाहिए । ऐसी सहायता मांगने के लिए हम आपके पास आए हैं ।

१७. समाज की वर्तमान स्थिति में आप उदासीन नहीं रह सकते । आप भी तो धर्म की प्रतिष्ठा चाहते हैं । धर्म की प्रतिष्ठा करनी है तो धर्माचार्यों और शिक्षकों को एकदूसरे के अनुकूल बनना होगा । आपसे निवेदन है कि आप हमारी बात पर विचार करें और हमारा निवेदन स्वीकार करें ।

१८. आजकल शिक्षा और धर्म दोनों का सन्दर्भ कुछ बदला हुआ सा लगता है । हम अनुभव कर रहे हैं कि शिक्षक ज्ञान की चिन्ता कम और छात्र की चिन्ता अधिक करता है । उसी प्रकार धर्माचार्य धर्म की चिन्ता कम और समाज की चिन्ता अधिक करते हैं । देखने में तो यह ठीक लगता है परन्तु ठीक है नहीं ।

१९. धर्म समाज के लिए नहीं अपितु समाज धर्म के लिए

............. page-344 .............

होता है । ज्ञान छात्र के लिये नहीं अपितु छात्र ज्ञान के लिए होता है । धर्माचार्य समाज को धर्म के अनुकूल बनाता है, शिक्षक छात्र को ज्ञान के अनुकूल बनाता है । छात्र ज्ञाननिष्ठ होना चाहिए, ज्ञान छात्रनिष्ठ नहीं । समाज धर्मनिष्ठ होना चाहिए, धर्म समाजनिष्ठ नहीं । यह तो सीधी समझ में आने वाली बात है ।

२०. धर्माचारी को ज्ञानवान होना चाहिए, शिक्षक को धार्मिक । धर्म और ज्ञान का सम्बन्धविच्छेद्‌ कभी हो नहीं सकता । धर्म और ज्ञान एक सिक्के के दो पक्ष हैं । वे एकदूसरे से अलग नहीं हो सकते । शिक्षक में ज्ञान का पक्ष ऊपर रहता है अर्थात्‌ दिखाई देता है, धर्माचार्य में धर्म का ।

२१. शिक्षा को धर्मानुसारी बनाने के लिए धर्माचार्यों को ही नेतृत्व लेना होगा । यह उनका अधिकार भी है और कर्तव्य भी । आपसे निवेदन है कि आप हमारे निवेदन का स्वीकार करें । हम आपके प्रयासों में सहयोगी बनने के लिए सिद्ध हैं ।

२२. आपके पास आने से पूर्व हम अन्य धर्माचार्यों को भी मिले हैं । उन सबने आपको ही नेतृत्व लेकर निर्देश देने योग्य माना है । अतः आपसे पुनः पुनः निवेदन है कि अब इस विषय में विलम्ब नहीं करना चाहिए । आप शीघ्रता करें ।

२३. इतना निवेदन कर आचार्य विश्वावसु मौन हुए । श्रोता सब तछ्लीन होकर सुन रहे थे। स्वामीजी भी एकाग्रतापूर्वक आचार्य कि बातें सुन रहे थे । आचार्य का निवेदन पूर्ण हुआ तब श्रोता आश्वस्ति का अनुभव कर रहे थे क्योंकि स्वामीजी के मुख पर सहमति के भाव दिखाई दे रहे थे । आचार्य विश्वसु भी आश्वस्त हुए ।

२४. कुछ क्षण की शान्ति के बाद स्वामीजी ने कहा कि आपकी बात सुनकर मैं बहुत विचार करने लगा हूँ । मेरी आपसे पूर्ण सहमति है । मैं इस बात से भी सहमत हूँ कि हम लोगोंं को साथ मिलकर प्रयास करने चाहिए । मैं यह भी मानता हूँ कि अब तक बहुत विलम्ब हो चुका है । अब और अधिक विलम्ब नहीं करना चाहिए ।

२५. मैं मानता हूँ कि यह एक भगीरथ कार्य है । सहज साध्य नहीं है । दो पाँच व्यक्तियों का काम नहीं है । यह बहुत विचारपूर्वक अनेक समर्थ लोगोंं द्वारा किया जानेवाला काम है । हम सबने हमारा निश्चय पक्का करना. चाहिए, योजना. बनानी चाहिए. और निरन्तरतापूर्वक उसे साकार करने में लग जाना चाहिए |

२६. आप सब मुझे यह कार्य सौंपना चाहते हैं । मैं आप सबका आभारी हूँ कि आपने मुझे धर्माचार्य के नाते मेरे कर्तव्य का स्मरण करवाया । अब इस विषय पर गम्भीरता से जो करना चाहिए वह करूँगा । आपके संकेत का स्वागत करूँगा ।

२७. परन्तु इस कार्य में और धर्माचार्यों के सहयोग की आवश्यकता रहेगी । मेरा आश्रम और मेरे शिष्य इसकी जिम्मेदारी लेंगे इसमें कोई सन्देह नहीं । परन्तु हम और लोगोंं को भी साथ लेंगे । आप में से कुछ प्रमुख लोग यहाँ रुक जाइए । हम साथ मिलकर कुछ सिद्धत्ता करेंगे और धमचिार्यों की एक सभा बुलाएँगे । उस सभा में चर्चा होगी, योजना बनेगी और बात आगे बढेगी ।

२८. स्वामीजी का कथन सबको स्वीकार्य था । आचार्य विश्वावसु और काश्मीर तथा वाराणसी के दस आचार्य और पाँच श्रेष्ठी सभा की तैयारी के लिए रुकेंगे ऐसा विचार हुआ और शेष लोगोंं ने स्वामीजी को प्रणाम कर जाने की अनुमती मागी । आचार्य प्रत्यक्ष योजना बनाने वाले थे और श्रेष्ठी उसमें अर्थ का दायित्व सम्हालने वाले थे, यद्यपि श्रेष्ठी भी केवल व्यापारी नहीं थे । धर्मचर्चा और ज्ञानचर्चा में सहभागी होने के लिए समर्थ थे ।

२९. स्वामीजी और धर्माचार्यों का वार्तालाप समाप्त हुआ । आज ज्ञानलाभपंचमी थी । आगामी गीताजयन्ती अर्तात्‌ मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को धमचिर्यों की सभा बुलाने का निर्णय हुआ । स्वामीजी के शिष्य सभी प्रमुख धर्माचार्यों को निमंत्रण देने में प्रवृत्त हुए

............. page-345 .............

............. page-346 .............

भ्रष्टाचार कहता है उस दुर्व्यवहार के बिना अर्थतन्त्र चलता ही नहीं है । कानून भ्रष्टाचार को समर्थन नहीं देता परन्तु भ्रष्टाचार के बिना न उद्योग चलते हैं न बाजार चलता है ।

११. लोगोंं के घरों में अनाचार सहज हो गया है । भोजन अपवित्र, वाणी अशुद्ध, इच्छायें पशुसमान और इच्छापूर्ति के तरीके भी निकृष्ट; दिनचर्या और जीवनचर्या अत्यंत अधार्मिक और अवैज्ञानिक होते हैं । आचारविचार में दिखावा अधिक, सच्चाई कम दिखाई देती है ।

१२. एक ओर धार्मिक कर्मकांडों की भरमार, दूसरी ओर अधार्सिक आचारविचारों की परिसीमा । लोगोंं का जीवन दुहरा हो गया है । यह सब हम देख ही रहे हैं । मुझे और अधिक विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है ।

१३. यह हमारी शिकायत का नहीं चिन्ता का विषय होना चाहिए । शिकायत करने से समस्या दूर नहीं होती | हमें इस समस्या को कैसे दूर किया जाय इस पर विचार करना चाहिए । समस्या का निराकरण करने का प्रयास करना चाहिए। हमें समस्या का कारण और स्वरूप ठीक प्रकार से समझना चाहिये ।

१४. इस समस्या का मूल कारण यह है कि धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध टूट गया है । शिक्षा मनुष्य को दूसरी दिशा में ले जा रही है, धर्म दूसरी दिशा में जाने के लिए निर्देश दे रहा है । ये दोनों दिशायें एकदूसरी से सर्वथा विपरीत हैं । दो विपरीत दिशाओं में मनुष्य एकसाथ नहीं चल सकता । अतः एक मार्ग वास्तविक है दूसरा आभासी |

१५. सामान्य जीवन धर्मविमुख हो जाने का कारण प्रत्यक्ष में तो शासन व्यवस्था, बाजार, विज्ञापन, रासायनिक खाद, मनुष्य का स्वार्थ आदि ही दिखता है । परन्तु इन सबको मान्यता और समर्थन देने वाला कौनसा तत्त्व है इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है ।

१६. शासन लोकतंत्रात्मक है । लोगोंं का मत पवित्र होता है। परन्तु अपने मत की पवित्रता लोग क्यों नहीं मानते ? मनुष्य स्वार्थी हैं अतः । परन्तु स्वार्थी क्यों हैं ? क्या कलियुग के प्रभाव से ? या उन्हें अपने मत को पवित्र मानना चाहिए इसकी शिक्षा नहीं मिली अतः ? पवित्रता क्या होती है यह नहीं सिखाया गया अतः ?

१७. कानून का प्रावधान होने के बाद भी लोग भ्रष्टाचार करते हैं इसका कारण क्या है ? यही कि भ्रष्टाचार नहीं करना चाहिए ऐसा सिखाया नहीं गया है अतः । पैसा कम कमाएंगे परन्तु अनीति नहीं करेंगे यह नहीं सिखाया जाता । संतोष गुण की शिक्षा नहीं दी जाती है |

१८. विज्ञापन का झूठ जानते हुए भी वस्तुयें खरीदने से कोई परावृत्त नहीं होता क्योंकि मन को संयम नहीं सिखाया जाता । धर्म के लक्षण प्रसिद्ध हैं । वे शिक्षा का अंग नहीं है । वे केवल उपदेश के लिए हैं । धर्म के बिना परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ जाता है, पैसा कमाया जाता है, जीवनयापन किया जा सकता है । अतः लोगोंं को धर्म की आवश्यकता नहीं लगती ।

१९. असत्य बोलने पर उच्च शिक्षा में प्रवेश नहीं मिलता ऐसा नहीं होता । अपवित्र जीवनशैली के रहते ज्ञान ग्रहण नहीं किया जा सकता ऐसी स्थिति नहीं है । व्यसनी छात्र, बलात्कार करने वाले छात्र परीक्षा में नकल करने वाला छात्र पढ़ नहीं सकता या नौकरी प्राप्त नहीं कर सकता ऐसा नहीं होता । इसका अर्थ यह है कि शिक्षा और अर्थाजन के लिए धर्म कि आवश्यकता नहीं है ।

२०. काम करने से काम करवाना अच्छा है, बिना काम किए पैसे मिलते हों तो अच्छा है, येन केन प्रकारेण पैसा कमाना ही व्यवसाय का लक्ष्य है, लोगोंं के लिए लाभकारी या आवश्यक है ऐसी वस्तुओं का नहीं अपितु सस्ते में, सरलता से उत्पादन किया जा सके और कीमत अधिक मिले ऐसी वस्तुओं का उत्पादन करना बुद्धिमानी है ऐसा विचार अधार्मिक है परन्तु वर्तमान व्यवस्थापन की और अर्थशास्त्र की शिक्षा इसे मान्यता देती है, किंबहुना सिखाती है ।

............. page-347 .............

२१. व्यक्तिगत हो या राष्ट्रजीवन हो, काम और अर्थ नियन्त्रक बन गए हैं । होना यह चाहिए कि अर्थ और काम दोनों धर्म के नियमन में रहने चाहिए । तभी सुख और समृद्धि प्राप्त होती है । इसे समर्थन देने वाला अर्थशास्त्र विश्वविद्यालयों में पढाया जाता है । यही सारी समस्याओं की जड़ है ।

२२. संसद में, विश्वविद्यालयों में, बौद्धिकों में शिक्षा के विषयमें चर्चा तो बहुत होती है । समस्‍यायें बताई जाती हैं । उपाय सुझाए जाते हैं । मंथन तो बहुत चलता है । लोग त्रस्त हैं । परन्तु शिक्षा धर्म नहीं सिखाती अतः ये सारी समस्‍यायें हैं और धर्म का सन्दर्भ लेने से तत्काल मार्ग दिखाई देने लगेगा इतनी सीधी सरल बात कहीं पर भी नहीं होती ।

२३. प्रकट समारोहों में तो लोग धर्म का नाम लेने से भी डरते हैं। वे मूल्यशिक्षा ऐसा शब्द बोलेंगे परन्तु धर्मानुसारी शिक्षा ऐसा नहीं बोलेंगे । प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरीके से शिक्षा क्षेत्र से धर्म निष्कासित हो गया है । शिक्षा से ही निष्कासित हो जाएगा तो जीवन के सभी क्षेत्रों से होगा ही ।

२४. मैंने संक्षेप में आप सबके सम्मुख समस्या का निरूपण किया है । आप यह सब नहीं जानते हैं ऐसा तो नहीं हैं । आप न केवल जानते हैं, अपितु आप भुक्तभोगी भी हैं । मेरा निवेदन केवल इतना ही है कि हम केवल चिन्ता न करें अपितु उपाय क्‍या करें इसकी योजना करें । अभी हम आज चर्चा को विराम देंगे । आप आश्रम में आराम से रहें, चिंतन करें । कल हम फिर से इस विषय पर चर्चा आरम्भ करेंगे ।

२५. स्वामीजी रुके । उनकी बातों में जानकारी तो नई नहीं थी परन्तु आवाहन का स्वरूप नया था । धर्माचर्यों को जिम्मेदारी की बात नई लगी । आज तक शिक्षा का धर्म के साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया था । आश्चर्य तो उसी बात का होना चाहिए था कि ऐसा कैसे हुआ । धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध इतना स्वाभाविक है कि वह अब नहीं रहा है यही बात ध्यान में नहीं आई ।

२६. सब इस नए सन्दर्भ से उत्साह में तो आ गए परन्तु कुछ असमंजस में भी थे । एक तो आवाहन नया और अपरिचित, अश्रुतपूर्व था और साथ ही शिक्षा के बारे में वे बहुत कुछ जानते नहीं थे । अतः समस्या की और उसके हल की चर्चा कैसे चलेगी इसकी बहुत कल्पना वे नहीं कर पा रहे थे । अनेक लोगोंं ने तो केवल श्रोता बनकर विषय को समझने का ही निश्चय किया ।

२७. इसके साथ ही सभा विसर्जित हुई । आचार्य विश्वावसु और उनके साथ आए हुए प्राध्यापक आश्वस्त दिखाई दे रहे थे । उन्हें लगा कि इस चर्चा का कोई परिणाम अवश्य निकलेगा । उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक स्वामीजी को प्रणाम किया और अपने निवास की ओर चले |

धर्मचर्चा

१. सभा पुनः आरम्भ हुई । वातावरण कुछ गम्भीर था । सबको विषय बहुत महत्त्वपूर्ण लग रहा था परन्तु उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि समस्या का हल कैसे निकाला जाय । कल सब आपस में बहुत चर्चा कर रहे थे परन्तु ठीक से जानकारी नहीं होने के कारण चर्चा बार बार भटक जाती थी ।

२. सभा आरम्भ हुई । स्वामीजीने खुली चर्चा का आयोजन किया था । उन्होंने प्रारम्भ में ही जिसे भी जो कहना हो वह कहने के लिए आवाहन किया । एक महात्मा खडे हुए । वे एक बड़ी पीठ के पीठाधीश थे । उनकी पीठ लौकिक दृष्टि से भी बहुत समृद्ध थी और सेवाकार्यों के लिए भी प्रसिद्ध थी । उन्होंने प्रभावी शैली में बात का प्रारम्भ किया ।

३. मैं स्वामीजी को और सभाजनों को प्रणाम करता हूँ । कल मैंने सारी चर्चा सुनी । शिक्षा का विषय महत्त्वपूर्ण है इस बात से मेरी सहमति है । हमारे पीठ में जिस प्रकार सेवाकार्य होते हैं, अन्नसत्र चलाया जाता है, धर्मादाय चिकित्सालय चलाया जाता है उस प्रकार शिक्षा का भी प्रबन्ध किया गया है ।

४. हमारे पूर्व प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक के कुल चालीस विद्याकेन्द्र चलते हैं। हमारा अपना

............. page-348 .............

............. page-349 .............

१३, इतना वाद होने की ही देर थी कि सारे साधु महात्मा अपनी अपनी बात कहने लगे । अब सब बोल ही रहे थे, कोई किसीकि सुन नहीं रहा था । सभागृह में कोलाहल मच गया । धर्मसभा बिखर गई । कई लोग सभा छोड़कर चले गए । स्वामीजी और आचार्य विश्वावसु निराश होकर सब देख रहे थे । कुछ समय बाद सभा में फिर से शान्ति स्थापित हुई परन्तु अब किसी का भी चर्चा करने का मन नहीं था । स्वामीजीने सभा समाप्ति की घोषणा की और आचार्य विश्वावसु को साथ लेकर अपने निवास की ओर चले ।

स्वामीजी और आचार्य विश्वावसु

१. स्वामीजी और आचार्य विश्वावसु स्वामीजी की कुटीर के बाहर एक वृक्ष के नीचे बैठे थे । दोनों चिन्तित दिखाई दे रहे थे । कल की धर्मसभा कोलाहलसभा में परिवर्तित हो गई थी इसकी ही उन्हें चिन्ता हो रही थी । उन्हें ध्माचार्यों से बहुत अपेक्षा थी । परन्तु धर्माचार्यों ने उन अपेक्षाओं की कोई दखल ही नहीं ली।

२. बहुत देर तक मौन रहने के बाद स्वामीजी ने बोलना आरम्भ किया । उन्होंने कहा कि सारे धर्माचार्य बहुत ही नासमझी का व्यवहार कर रहे थे । उनका मिथ्या अहंकार उन्हें स्थिति को समझने ही नहीं दे रहा है । वे आज्ञानी होकर भी अपने आपको ज्ञानवान समझ रहे हैं। परन्तु ज्ञानियों जैसा विनय उनमें लेश मात्र नहीं है।

३. इनके बड़े बड़े मठ हैं । इनकी बड़ी बडी संस्थायें चलती हैं । इनके अनुयायीओं की संख्या बहुत बडी है। परन्तु यही बातें आवरण बनकर उन्हें सत्य को समझने से रोक रही हैं । धर्म के नाम पर ये अधर्म की दुनिया में विहार कर रहे हैं । विपरीत दिशा में जा रहे हैं और लोगोंं को ले जा रहे हैं ।

४. धर्म को अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए साधन के रूप में प्रयुक्त करने की इच्छा रखने वाले राजनीतिक लोगोंं की चाटूकारिता से ये मुग्ध हो जाते हैं । उन्हें लगता है कि वे सब उनके कार्य से प्रभावित होकर आते हैं । परन्तु इन नासमझ लोगोंं को यह नहीं समझता कि इनके अनुयायीओं की संख्या देखकर चुनाव में इनका उपयोग हो सकता है ऐसा उद्देश्य मन में रखकर वे आ रहे हैं ।

५. अनेक बार तो ये आचार्य भी उनका असली उद्देश्य क्या है यह जानते हैं । परन्तु वे भी अपने संस्थाओं के लिए भूमि, धन और अन्य सुविधायें चाहते हैं । धर्माचार्यों के पास संख्या है और राजीतिक लोगोंं के पास सत्ता है । दोनों एकदूसरे की सहायता चाहते हैं और एकदूसरे का उपयोग कर लेने का प्रयास करते हैं । इसे वे धर्म का प्रभाव कहते हैं । कुछ तो सही में अज्ञानी हैं, कुछ जानते हुए भी ढोंग कर रहे हैं ।

६. ये अज्ञानी लोग समझते हैं कि कथाओं, तीर्थयात्राओं , सत्संगों में सम्मिलित होने वाले लोग वास्तव में धार्मिक हैं । यह बहुत बड़ा भ्रम है । इन्हें यह नहीं समझता कि यह भी उनके लिए एक मनोरंजन कार्यक्रम से विशेष कुछ नहीं है । केवल कथा सुनने से या भजन गाने से कोई भक्त नहीं हो जाता । यह बात धर्माचार्यों को ही लोगोंं को बतानी चाहिए परन्तु ऐसा करने के स्थान पर वे स्वयं अज्ञानियों के स्वर्ग में विहार करते हैं।

७. धर्म आचरण का विषय है । स्वयम्‌ असत्य बोलते हैं ऐसे लोग सत्यवादी हरिश्चन्द्र या युधिष्टि की कथा सुनकर धार्मिक नहीं हो जाते । अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाने वाले अथवा जानबूझकर छोड देने वाले केवल भजन सुनकर या गाकर भक्त नहीं हो जाते । अपने स्वार्थ के लिए मंदिरों में जाने वाले दर्शनार्थी नहीं होते केवल प्रयोजनार्थी होते हैं । यह बात धर्माचार्यों को समझनी चाहिए । परन्तु वे नहीं समझते हैं।

८. गोस्वामी तुलसीदासजी ने परहित को सबसे बड़ा धर्म और परपीडा को सबसे बडा अधर्म कहा । ऐसा नहीं कर केवल भजन पूजन करने वाले धार्मिक नहीं हो सकते । लोगोंं का भला किसमें है इसे नहीं जानने

............. page-350 .............

वाले और अपने शिष्यों या अनुयायीओं को नहीं समझाने वाले धर्माचार्य कैसे हो सकते हैं ।

९. आचरण यदि पवित्र नहीं है, लोगोंं की सेवा करने हेतु जो कष्ट सहते नहीं हैं, कर्तव्य का पालन करने के लिए त्याग करने की आवश्यकता हो तब त्याग करते नहीं हैं, स्वार्थ के लिए लोगोंं का उपयोग करते हैं, संयम का पालन करते नहीं हैं वे केवल रामायण या महाभारत की कथा सुनकर या भजन गाकर धार्मिक नहीं हो जाते ।

१०. सर्व प्राणीमात्र में एक ही आत्मतत्त्व है इस सिद्धान्त के अनुसार व्यवहार नहीं करने वाले केवल उपनिषद पढ़कर या [[Vedanta_([[Vedanta_(वेदांतः)|वेदांत]]ः)|वेदांत]] दर्शन का अध्ययन कर धार्मिक नहीं हो जाते । वे पण्डित हो सकते हैं परन्तु धार्मिक नहीं । व्यक्ति को पहले धार्मिक होना चाहिए, बाद में पण्डित । परन्तु इन्हें यह बात कहाँ समझती हैं ।

११. सत्संग, कथावार्ता, यज्ञयाग, तीर्थयात्रा, दर्शन, पूजा, धर्मग्रंथों का अध्ययन ये सब धर्म के अंग तभी सार्थक होते हैं जब व्यवहार और विचार भी उनके अनुकूल हों । सत्य तो यह है कि ये सारी बातें धार्मिक आचरण के परिणामस्वरूप होती हैं, कारण नहीं । निर्द्शक तो जरा भी नहीं । बिना आचरण के ये केवल निरोर्थक ही नहीं तो अनर्थक हो जाती हैं । क्योंकि वे आभासी विश्व निर्माण करती हैं । सत्य इसके पीछे ढक जाता हैं |

१२. भूमि, भवन, सुविधा, कार्यक्रम आदि में धर्म नहीं होता । भजन, पूजन, संगीत, नृत्य, कीर्तन में धर्म नहीं होता । अध्ययन और प्रवचन में धर्म नहीं होता । भगवे या सफेद वस्त्रों में धर्म नहीं होता । ये सब अत्यन्त भौतिक स्वरूप के पदार्थ हैं । धर्म अन्तःकरण की प्रवृत्तियों में होता है ।

१३. मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त मिलकर अन्तःकरण है। मन सद्गुणी बनता है, बुद्धि और अहंकार आत्मनिष्ठ बनते हैं, चित्त शुद्द बनता है तब व्यक्ति धार्मिक बनता है । ऐसा व्यक्ति भजन, पूजन, कीर्तन, सत्संग करे या न करे वह धार्मिक ही बना रहता है । वास्तव में धर्म की रक्षा तो ऐसा व्यक्ति ही कर रहा होता है । ऐसे व्यक्ति का संग ही सत्संग है ।

१४. लोगोंं को अन्तःकरण पवित्र कैसे बनाये सिखाना धर्म सिखाना है । यही धर्माचार्यों का कर्तव्य है । ऐसा करने से धर्म की रक्षा होती है । ऐसा धर्म फिर समाज की रक्षा करता है । आज इस बात का विस्मरण हुआ है । गाडी उल्टी पटरी पर चढ गई है ।

१५. धर्म का विचार वास्तव में व्यवहार, व्यवस्था और वातावरण के संदर्भ में ही करना चाहिए । इन सबके साथ सम्बन्ध विच्छेद हो गया तो धर्म धर्म नहीं रहता है, वह धर्म का आभास होता है जो अधर्म से भी अधिक हानिकारक होता है क्योंकि अधार्मिक व्यक्ति की कभी न कभी धार्मिक बनने की सम्भावना होती है परन्तु जो आभासी धर्म का पालन करता है उसकी तो दुर्गति होती है ।

१६. धर्म की परीक्षा धारणा से ही होती है । जो धारण करता है वह धर्म है। जो जो भी बात धारण नहीं करती वह धर्म नहीं है। ऐसी बातों में उलझना अधार्मिक न भी हो तो भी वह धार्मिक नहीं है । धारण करने का अर्थ किसी भी पदार्थ, स्थिति या रचना को बनाए रखना, नष्ट नहीं होने देना, विकृत नहीं होने देना ऐसा होता है । इस एक मापदंड पर मूल्यांकन करने से कोई भी क्रिया धार्मिक है कि नहीं और है तो कितनी धार्मिक है इसका पता चलता है ।

१७. हमारे आज के धर्माचार्य इस बात को भूल गए हैं और बाहरी बातों में उलझ गए हैं । वे स्वयं तो उलझे हैं, दूसरों को भी उलझाते हैं । स्वयं के उलझाने से भी दूसरों को उलझाना अधिक बड़ा दोष हैं । कुछ लोग अज्ञानवश ऐसा करते हैं, कुछ समझकर भी करते हैं । वे साक्षात्‌ धर्म की ही दुर्गति का कारण बनते हैं ।

१८. इन्हें विदेशी शिष्य होते हैं तो गर्व और गौरव का अनुभव होता है। इनके कारण विदेशी शिष्य गौरवान्वित नहीं होते, विदेशी शिष्य के कारण ये गौरवान्वित होते हैं, यह गुरु का गौरव नहीं है, गुरु होकर भी ये श्रेष्ठ नहीं हैं । इसी प्रकार विदेशों में भी

............. page-351 .............

अपनी संस्थाओं के केंद्र हैं इस बात का गर्व करते हैं । यह धर्म नहीं, भौतिक यश का मद है ।

१९. अकिंचन, अपरिग्रही, परिश्रमी, स्वार्थत्यागी, अनिकेत होना संन्यासी का लक्षण है । सादगी, संयम, सरलता, सुलभता, ऋजुता, सन्त के लक्षण हैं। समाज को जीवन की सही दिशा बताना और लोगोंं को सही मार्ग पर चलाना धर्माचार्य का कर्तव्य है । समाज यदि सही मार्ग पर नहीं चलता है तो संन्यासी, सन्त और धर्माचार्य का ही दोष माना जाना चाहिए ।

२०. आज तो सभी धर्माचार्यों के मठ, मन्दिर, आश्रम वैभव से युक्त दिखाई देते हैं । यह वैभव प्राकृतिक नहीं होता है। वर्तमान समय की प्रदूषण बढ़ाने वाली अनेक स्चनायें यहाँ भी दिखाई देती हैं । इनमें साधनशुद्धि का अंश नहीं होता । समाज में भ्रष्टाचार से जो कमाई होती है उसी धन से ये सब अपनी संस्थायें चलाते हैं । इसका परिणाम इनके कार्य पर हुए बिना नहीं रह सकता । अन्यों को शुद्ध बनाने के स्थान पर ये स्वयं अशुद्ध बन जाते हैं ।

२१. स्वामीजी बहुत खिन्नता का अनुभव कर रहे थे । वे स्वयं संन्यासी थे । अपने ही प्रकार के लोगोंं के लिए ये सारी बातें वे कर रहे थे । इसका उन्हें दुःख था परन्तु वे वास्तविक चित्र जानते थे । कल की धर्मसभा में प्रत्यक्ष अनुभव भी हो गया था । अतः वे दुःखी हो रहे थे । आचार्य विश्वावसु उनका दुःख समझ रहे थे । वे भी खिन्नता का अनुभव कर ही रहे थे ।

२२. परन्तु वे जानते थे कि दुःखी होने से समस्या का हल नहीं प्राप्त होता, कुछ करने से ही परिणाम मिलता है । अतः कुछ क्षण मौन रहकर वे अपने विचार बताने लगे । वे मुख्य रूप से धर्माचार्यों का शिक्षा से क्या संबंध है उसकी बात करना चाहते थे । स्वामीजी भी उनकी बात ध्यानपूर्वक सुन रहे थे ।

धर्माचार्यों की भूमिका

१. बार बार कहा जाता है कि शिक्षा धर्म सिखाती है । जब शिक्षा धर्मानुसारी न रहकर अर्थानुसारी बन जाती है तब समाजजीवन उल्टी दिशा में गति करता है । जीवन की सारी बातें उल्टी ही बन जाती हैं ।

२. वर्तमान समय ऐसा ही है । पश्चिमी जीवनदृष्टि के प्रभाव के कारण भारत की सारी व्यवस्थायें अर्थानुसारी बन गई हैं । इसमें से ही सारे संकट पैदा हुए हैं ।

३. इस स्थिति में धर्माचार्यों को शिक्षा को, और शिक्षा के माध्यम से समाज को धर्मनिष्ठ बनाने का दायित्व अपने उपर लेना चाहिये । उनके अलावा यह कार्य कोई नहीं कर सकता ।

४. ऐसा करने के लिये धर्माचार्यों को अपने आपको सम्प्रदाय दृष्टि से मुक्त होकर धर्मदृष्टि अपनाने की आवश्यकता है । हम जानते हैं कि सम्प्रदाय धर्म का एक आयाम है । केवल सम्प्रदाय ही धर्म नहीं है, धर्म अधिक व्यापक है । उस व्यापक धर्म के प्रकाश में ही सम्प्रदाय भी अपनी सार्थकता प्राप्त करता है ।

५. अपने साथ साथ अपेन भक्तों को भी सम्प्रदायदृष्टि से ऊपर उठकर धर्म को जीवन के हर पहलू के साथ जोड़ना सिखाना चाहिये । ऐसा नहीं किया तो उनका आचरण सही अर्थों में धार्मिक नहीं होगा इसका बार बार स्मरण करवाना चाहिये ।

६. दूसरी बात यह है कि आज समाज में भी “धर्म' संज्ञा अत्यन्त संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होती है । विशेष रूप से राजीनति के प्रभाव से धर्म विवाद के घेरे में आ गया है। इस विवाद से उसे मुक्त करने की महती आवश्यकता है । यह काम धर्माचार्य ही कर सकते हैं ।

७. धर्म को विवाद के घेरे में फैँसाने का काम साम्यवादियों ने किया है । धर्म अफीम की गोली है' ऐसा कहने से उनकी तोडफोड की गतिविधियाँ आरम्भ हुई हैं जो अब “कहीं पर भी धर्म नहीं चाहिये कहने तक पहुँची हैं । राजनीति इससे बहुत प्रभावित हो गई है जिससे मामला और उलझ गया है ।'

८. धर्म को राजनीति और साम्यवाद के घेरे से बाहर निकालना, धर्माचार्यों का प्रथम कर्तव्य है । “धर्म- निरपेक्षता' जैसी संकल्पना कितनी हास्यास्पद और

............. page-352 .............

अनर्थक है यह भी स्पष्ट करने की आवश्यकता है ।

९. इस दृष्टि से धर्माचार्यों को धर्मसभाओं का आयोजन करना चाहिये । देशभर के सभी धर्माचार्यों को आपसी संवाद बढाने की. अत्यन्त आवश्यकता है। साम्प्रदायिक सदूभाव बढाने के लिये भी यह आवश्यक हैं ही।

१०. धर्म प्रथम तो विश्वधर्म है, मानवधर्म है । विश्व की व्यवस्था विश्वधर्म है । मानवमात्र का कर्तव्य मानवधर्म है । व्यवस्था धर्म के अनुकूल होना ही कर्तव्यधर्म है । हमने आज कानून को धर्म बनाया है यह विपरीत गति है । इसके स्थान पर धर्म को कानून बनाना चाहिये ।

११. धर्म का क्षेत्र राजनीति के क्षेत्र से अधिक व्यापक और प्रभावी है । वह राजनीति से परे भी है । इसलिये जीवन का संचालन राजनीति से नहीं अपितु धर्म से होना चाहिये । राजनीति का संचालन भी धर्म से ही होना चाहिये । इन तथ्यों को जनमानस में बिठाने हेतु धर्माचार्यों को अपनी भूमिका सक्रियतापूर्वक निभानी चाहिये ।

१२. धर्म से कमाई करने की आवश्यकता पर बहुत अधिक आग्रह होना चाहिये । इसे अधिक व्यापकता से समझने और समझाने की आवश्यकता रहेगी । व्यक्तिगत स्तर पर अर्थव्यवहार में नीतिमत्ता होना तो आवश्यक है ही, परन्तु इससे भी अधिक व्यापक स्तर पर अर्थदृष्टि और अर्थनीति बदलने की आवश्यकता है । जब तक सरकारी स्तर पर और सामाजिक स्तर पर अर्थनीति धर्म के अनुकूल नहीं बनती तब तक व्यक्तिगत स्तर पर नैतिक आचरण करना सम्भव नहीं होता ।

१३. केवल अर्थनीति ही नहीं तो समाजव्यवस्था में भी धर्मदृष्टि होना अपेक्षित है । आज अनेक धर्माचार्य, मठपति, संन्यासी आदि हिन्‍्दु धर्म की वर्णव्यवस्था बहुत अच्छी है और आज उसकी पुनःस्थापना होनी चाहिये ऐसा कहते हैं । परन्तु उसकी सांगोपांग चर्चा किये बिना उसे पुनःस्थापित करना सम्भव नहीं होगा, सरल तो होगा ही नहीं ।

१४. यह व्यापक, मूलगत और वर्तमान सन्दर्भ के प्रकाश में अध्ययन करने का विषय है । इसे ही हमारी परम्परा में स्मृति की रचना करना कहा है । आज ऐसी स्मृति की रचना करना बहुत आवश्यक हो गया है क्योंकि अनवस्था बहुत फैल चुकी है ।

१५. इस अनवस्था का कारण दो सौ वर्षों की पश्चिमी शिक्षा ही है । ब्रिटीश भारत का यूरोपीकरण करना चाहते थे । शिक्षा को उन्होंने यूरोपीकरण का माध्यम बनाया | इसी कारण से सम्पूर्ण शास््रविचार ही बदल गया । इससे पूर्व भारत की सम्पूर्ण व्यवस्था आध्यात्मिक जीवनदृष्टि के अनुसार चलती थी । व्यवस्था को निर्देशित करने वाले सारे शास्त्र भी आध्यात्मिक जीवनदृष्टि पर आधारित ही होते थे । आज के सारे शास्त्र और व्यवस्थायें भौतिक जीवन दृष्टि पर आधारित हो गये हैं । भौतिक आधार को बदलकर सभी शास्त्रों तथा व्यवस्थाओं को आध्यात्मिक आधार देना ही मूल कार्य है । यह कार्य भी धर्माचार्य ही कर सकते हैं, कि बहुना उन्हें ही करना चाहिये । और किसी का नहीं, यह उनका ही अधिकार क्षेत्र है ।

१६. “आध्यात्मिक संज्ञा भी “धर्म' के ही समान विवाद का विषय है । उसे 'भौतिक' के विरोधी समझा जाता है । वह वास्तव में वैसा है नहीं । दोनों की तुलना नहीं हो सकती । दोनों एकदूसरे के विरोधी नहीं है। जो आध्यात्मिक होता है वह भौतिक दृष्टि से सम्पन्न नहीं होता ऐसा नहीं है। भौतिकता त्याज्य नहीं है। भौतिकता आध्यात्मिकता के अविरोधी होनी चाहिये यह सही कथन है । वास्तव में यह समझना तो बहुत सरल है परन्तु आज वह बहुत कठिन बन गया है । इसे समझाना धर्माचार्यों का महत्‌ कर्तव्य है ।

१७. इस सन्दर्भ में विभिन्न विषयों के नये शास्त्रों की रचना करने की आवश्यकता है । ऐसी रचना करने के लिये सारे वर्तमान शास्त्रों का अध्ययन करना कदाचित व्यावहारिक नहीं होगा । फिर विश्वविद्यालयों में ये विषय पढाये भी जाते हैं । इन्हें पढाने वाले प्राध्यापक

............. page-353 .............