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आपके बिना यह कार्य और कौन कर सकता हैं ? आपको छोड़कर हम किससे निवेदन कर सकते हैं ? आप इस संकट का निवारण करने की कृपा करें ।
 
आपके बिना यह कार्य और कौन कर सकता हैं ? आपको छोड़कर हम किससे निवेदन कर सकते हैं ? आप इस संकट का निवारण करने की कृपा करें ।
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८. यह कोई साधारण कार्य नहीं है । इसके लिए सामर्थ्य चाहिए । यह सामर्थ्य धन या सत्ता या बल का सामर्थ्य नहीं है। यह सामर्थ्य तप और ज्ञान का है । यह सामर्थ्य निष्ठा का है । ऐसा सामर्थ्य आपके ही पास है। धर्म का अपना ही सामर्थ्य होता है। आप धर्माचार्य हैं । इसलिए आप ही राष्ट्र का यह संकट दूर कर सकते हैं ।
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८. यह कोई साधारण कार्य नहीं है । इसके लिए सामर्थ्य चाहिए । यह सामर्थ्य धन या सत्ता या बल का सामर्थ्य नहीं है। यह सामर्थ्य तप और ज्ञान का है । यह सामर्थ्य निष्ठा का है । ऐसा सामर्थ्य आपके ही पास है। धर्म का अपना ही सामर्थ्य होता है। आप धर्माचार्य हैं । अतः आप ही राष्ट्र का यह संकट दूर कर सकते हैं ।
    
९. धर्म ही जीवन का आधार है । धर्म ही विश्व का आधार है। धर्म से ही राष्ट्रजीवन बना रहता है । धर्म से ही समृद्धि है । धर्म से ही कल्याण है । धर्म से ही सुख है। धर्म से ही यश है । धर्म से ही सार्थकता है । उस धर्म की ही उपेक्षा होने से आधार नष्ट होता है और बिना आधार के सब कुछ नष्ट होता है ।
 
९. धर्म ही जीवन का आधार है । धर्म ही विश्व का आधार है। धर्म से ही राष्ट्रजीवन बना रहता है । धर्म से ही समृद्धि है । धर्म से ही कल्याण है । धर्म से ही सुख है। धर्म से ही यश है । धर्म से ही सार्थकता है । उस धर्म की ही उपेक्षा होने से आधार नष्ट होता है और बिना आधार के सब कुछ नष्ट होता है ।
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१२. राष्ट्रजीवन के लिये धर्म की जो व्यवस्था है वह धर्माचार्यों के अधीन होती है । वे ही सामान्यजनों को धर्म का पालन करने के निर्देश देते हैं । वे ही व्यवहार शास्त्रों की रचना करते हैं । उन शास्त्रों के अनुसार चलने से श्रेय और प्रेय की प्राप्ति होती है ।
 
१२. राष्ट्रजीवन के लिये धर्म की जो व्यवस्था है वह धर्माचार्यों के अधीन होती है । वे ही सामान्यजनों को धर्म का पालन करने के निर्देश देते हैं । वे ही व्यवहार शास्त्रों की रचना करते हैं । उन शास्त्रों के अनुसार चलने से श्रेय और प्रेय की प्राप्ति होती है ।
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१३. सत्ययुग में धर्म का पालन करवाने के लिये किसी दूंडविधान की आवश्यकता नहीं थी । उसी प्रकार किसी शास्त्र की भी आवश्यकता नहीं थी । धर्म लोगों के अन्तःकरणों में स्वयं ही रहता था और मनुष्य के जीवन का निर्देश करता था । तब जीवन सुखमय था |
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१३. सत्ययुग में धर्म का पालन करवाने के लिये किसी दूंडविधान की आवश्यकता नहीं थी । उसी प्रकार किसी शास्त्र की भी आवश्यकता नहीं थी । धर्म लोगोंं के अन्तःकरणों में स्वयं ही रहता था और मनुष्य के जीवन का निर्देश करता था । तब जीवन सुखमय था |
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१४. परन्तु अब कलियुग है । बिना शास्त्र के और बिना दंडविधान के धर्म का पालन नहीं हो सकता । उससे भी शास्त्र अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि राज्य भी शास्त्र के अनुसार ही चलता है । बिना राज्य के शाख्र तो हो सकता है परन्तु बिना शास्त्र के राज्य नहीं चल सकता । इस प्रकार धर्म स्वयं शासन करने वालों का भी शासक है ।
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१४. परन्तु अब कलियुग है । बिना शास्त्र के और बिना दंडविधान के धर्म का पालन नहीं हो सकता । उससे भी शास्त्र अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि राज्य भी शास्त्र के अनुसार ही चलता है । बिना राज्य के शास्त्र तो हो सकता है परन्तु बिना शास्त्र के राज्य नहीं चल सकता । इस प्रकार धर्म स्वयं शासन करने वालों का भी शासक है ।
    
१५. धर्म की बात करने वाला, धर्म की प्रतिष्ठा के लिये प्रयास करने वाला यदि वह नहीं करेगा तो समाज कैसे रह सकता है ? धर्माचार्य यह नहीं करते तो और कौन करेगा ? हम इसीलिए आपके पास आए हैं ।
 
१५. धर्म की बात करने वाला, धर्म की प्रतिष्ठा के लिये प्रयास करने वाला यदि वह नहीं करेगा तो समाज कैसे रह सकता है ? धर्माचार्य यह नहीं करते तो और कौन करेगा ? हम इसीलिए आपके पास आए हैं ।
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१६. धर्म को लोगों तक ले जाने के लिए शिक्षा सशक्त माध्यम होती है यह तो हमने प्रारंभ में ही कहा है । परन्तु जब वह धर्म के क्षेत्र से विस्थापित होकर राज्य के अधीन कर ली जाती है तब अनर्थ का ही कारण बनती है । शिक्षा धर्मानुसारी बने यह देखने का काम शिक्षकों का है परन्तु शिक्षकों को धर्माचार्यों का मार्गदर्शन और सहायता चाहिए । ऐसी सहायता मांगने के लिए हम आपके पास आए हैं ।
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१६. धर्म को लोगोंं तक ले जाने के लिए शिक्षा सशक्त माध्यम होती है यह तो हमने प्रारंभ में ही कहा है । परन्तु जब वह धर्म के क्षेत्र से विस्थापित होकर राज्य के अधीन कर ली जाती है तब अनर्थ का ही कारण बनती है । शिक्षा धर्मानुसारी बने यह देखने का काम शिक्षकों का है परन्तु शिक्षकों को धर्माचार्यों का मार्गदर्शन और सहायता चाहिए । ऐसी सहायता मांगने के लिए हम आपके पास आए हैं ।
    
१७. समाज की वर्तमान स्थिति में आप उदासीन नहीं रह सकते । आप भी तो धर्म की प्रतिष्ठा चाहते हैं । धर्म की प्रतिष्ठा करनी है तो धर्माचार्यों और शिक्षकों को एकदूसरे के अनुकूल बनना होगा । आपसे निवेदन है कि आप हमारी बात पर विचार करें और हमारा निवेदन स्वीकार करें ।
 
१७. समाज की वर्तमान स्थिति में आप उदासीन नहीं रह सकते । आप भी तो धर्म की प्रतिष्ठा चाहते हैं । धर्म की प्रतिष्ठा करनी है तो धर्माचार्यों और शिक्षकों को एकदूसरे के अनुकूल बनना होगा । आपसे निवेदन है कि आप हमारी बात पर विचार करें और हमारा निवेदन स्वीकार करें ।
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२३. इतना निवेदन कर आचार्य विश्वावसु मौन हुए । श्रोता सब तछ्लीन होकर सुन रहे थे। स्वामीजी भी एकाग्रतापूर्वक आचार्य कि बातें सुन रहे थे । आचार्य का निवेदन पूर्ण हुआ तब श्रोता आश्वस्ति का अनुभव कर रहे थे क्योंकि स्वामीजी के मुख पर सहमति के भाव दिखाई दे रहे थे । आचार्य विश्वसु भी आश्वस्त हुए ।
 
२३. इतना निवेदन कर आचार्य विश्वावसु मौन हुए । श्रोता सब तछ्लीन होकर सुन रहे थे। स्वामीजी भी एकाग्रतापूर्वक आचार्य कि बातें सुन रहे थे । आचार्य का निवेदन पूर्ण हुआ तब श्रोता आश्वस्ति का अनुभव कर रहे थे क्योंकि स्वामीजी के मुख पर सहमति के भाव दिखाई दे रहे थे । आचार्य विश्वसु भी आश्वस्त हुए ।
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२४. कुछ क्षण की शान्ति के बाद स्वामीजी ने कहा कि आपकी बात सुनकर मैं बहुत विचार करने लगा हूँ । मेरी आपसे पूर्ण सहमति है । मैं इस बात से भी सहमत हूँ कि हम लोगों को साथ मिलकर प्रयास करने चाहिए । मैं यह भी मानता हूँ कि अब तक बहुत विलम्ब हो चुका है । अब और अधिक विलम्ब नहीं करना चाहिए ।
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२४. कुछ क्षण की शान्ति के बाद स्वामीजी ने कहा कि आपकी बात सुनकर मैं बहुत विचार करने लगा हूँ । मेरी आपसे पूर्ण सहमति है । मैं इस बात से भी सहमत हूँ कि हम लोगोंं को साथ मिलकर प्रयास करने चाहिए । मैं यह भी मानता हूँ कि अब तक बहुत विलम्ब हो चुका है । अब और अधिक विलम्ब नहीं करना चाहिए ।
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२५. मैं मानता हूँ कि यह एक भगीरथ कार्य है । सहज साध्य नहीं है । दो पाँच व्यक्तियों का काम नहीं है । यह बहुत विचारपूर्वक अनेक समर्थ लोगों द्वारा किया जानेवाला काम है । हम सबने हमारा निश्चय पक्का करना. चाहिए, योजना. बनानी चाहिए. और निरन्तरतापूर्वक उसे साकार करने में लग जाना चाहिए |
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२५. मैं मानता हूँ कि यह एक भगीरथ कार्य है । सहज साध्य नहीं है । दो पाँच व्यक्तियों का काम नहीं है । यह बहुत विचारपूर्वक अनेक समर्थ लोगोंं द्वारा किया जानेवाला काम है । हम सबने हमारा निश्चय पक्का करना. चाहिए, योजना. बनानी चाहिए. और निरन्तरतापूर्वक उसे साकार करने में लग जाना चाहिए |
    
२६. आप सब मुझे यह कार्य सौंपना चाहते हैं । मैं आप सबका आभारी हूँ कि आपने मुझे धर्माचार्य के नाते मेरे कर्तव्य का स्मरण करवाया । अब इस विषय पर गम्भीरता से जो करना चाहिए वह करूँगा । आपके संकेत का स्वागत करूँगा ।
 
२६. आप सब मुझे यह कार्य सौंपना चाहते हैं । मैं आप सबका आभारी हूँ कि आपने मुझे धर्माचार्य के नाते मेरे कर्तव्य का स्मरण करवाया । अब इस विषय पर गम्भीरता से जो करना चाहिए वह करूँगा । आपके संकेत का स्वागत करूँगा ।
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२७. परन्तु इस कार्य में और धर्माचार्यों के सहयोग की आवश्यकता रहेगी । मेरा आश्रम और मेरे शिष्य इसकी जिम्मेदारी लेंगे इसमें कोई सन्देह नहीं । परन्तु हम और लोगों को भी साथ लेंगे । आप में से कुछ प्रमुख लोग यहाँ रुक जाइए । हम साथ मिलकर कुछ सिद्धत्ता करेंगे और धमचिार्यों की एक सभा बुलाएँगे । उस सभा में चर्चा होगी, योजना बनेगी और बात आगे बढेगी ।
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२७. परन्तु इस कार्य में और धर्माचार्यों के सहयोग की आवश्यकता रहेगी । मेरा आश्रम और मेरे शिष्य इसकी जिम्मेदारी लेंगे इसमें कोई सन्देह नहीं । परन्तु हम और लोगोंं को भी साथ लेंगे । आप में से कुछ प्रमुख लोग यहाँ रुक जाइए । हम साथ मिलकर कुछ सिद्धत्ता करेंगे और धमचिार्यों की एक सभा बुलाएँगे । उस सभा में चर्चा होगी, योजना बनेगी और बात आगे बढेगी ।
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२८. स्वामीजी का कथन सबको स्वीकार्य था । आचार्य विश्वावसु और काश्मीर तथा वाराणसी के दस आचार्य और पाँच श्रेष्ठी सभा की तैयारी के लिए रुकेंगे ऐसा विचार हुआ और शेष लोगों ने स्वामीजी को प्रणाम कर जाने की अनुमती मागी । आचार्य प्रत्यक्ष योजना बनाने वाले थे और श्रेष्ठी उसमें अर्थ का दायित्व सम्हालने वाले थे, यद्यपि श्रेष्ठी भी केवल व्यापारी नहीं थे । धर्मचर्चा और ज्ञानचर्चा में सहभागी होने के लिए समर्थ थे ।
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२८. स्वामीजी का कथन सबको स्वीकार्य था । आचार्य विश्वावसु और काश्मीर तथा वाराणसी के दस आचार्य और पाँच श्रेष्ठी सभा की तैयारी के लिए रुकेंगे ऐसा विचार हुआ और शेष लोगोंं ने स्वामीजी को प्रणाम कर जाने की अनुमती मागी । आचार्य प्रत्यक्ष योजना बनाने वाले थे और श्रेष्ठी उसमें अर्थ का दायित्व सम्हालने वाले थे, यद्यपि श्रेष्ठी भी केवल व्यापारी नहीं थे । धर्मचर्चा और ज्ञानचर्चा में सहभागी होने के लिए समर्थ थे ।
    
२९. स्वामीजी और धर्माचार्यों का वार्तालाप समाप्त हुआ । आज ज्ञानलाभपंचमी थी । आगामी गीताजयन्ती अर्तात्‌ मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को धमचिर्यों की सभा बुलाने का निर्णय हुआ । स्वामीजी के शिष्य सभी प्रमुख धर्माचार्यों को निमंत्रण देने में प्रवृत्त हुए
 
२९. स्वामीजी और धर्माचार्यों का वार्तालाप समाप्त हुआ । आज ज्ञानलाभपंचमी थी । आगामी गीताजयन्ती अर्तात्‌ मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को धमचिर्यों की सभा बुलाने का निर्णय हुआ । स्वामीजी के शिष्य सभी प्रमुख धर्माचार्यों को निमंत्रण देने में प्रवृत्त हुए
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भ्रष्टाचार कहता है उस दुर्व्यवहार के बिना अर्थतन्त्र चलता ही नहीं है । कानून भ्रष्टाचार को समर्थन नहीं देता परन्तु भ्रष्टाचार के बिना न उद्योग चलते हैं न बाजार चलता है ।
 
भ्रष्टाचार कहता है उस दुर्व्यवहार के बिना अर्थतन्त्र चलता ही नहीं है । कानून भ्रष्टाचार को समर्थन नहीं देता परन्तु भ्रष्टाचार के बिना न उद्योग चलते हैं न बाजार चलता है ।
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११. लोगों के घरों में अनाचार सहज हो गया है । भोजन अपवित्र, वाणी अशुद्ध, इच्छायें पशुसमान और इच्छापूर्ति के तरीके भी निकृष्ट; दिनचर्या और जीवनचर्या अत्यंत अधार्मिक और अवैज्ञानिक होते हैं । आचारविचार में दिखावा अधिक, सच्चाई कम दिखाई देती है ।
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११. लोगोंं के घरों में अनाचार सहज हो गया है । भोजन अपवित्र, वाणी अशुद्ध, इच्छायें पशुसमान और इच्छापूर्ति के तरीके भी निकृष्ट; दिनचर्या और जीवनचर्या अत्यंत अधार्मिक और अवैज्ञानिक होते हैं । आचारविचार में दिखावा अधिक, सच्चाई कम दिखाई देती है ।
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१२. एक ओर धार्मिक कर्मकांडों की भरमार, दूसरी ओर अधार्सिक आचारविचारों की परिसीमा । लोगों का जीवन दुहरा हो गया है । यह सब हम देख ही रहे हैं । मुझे और अधिक विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है ।
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१२. एक ओर धार्मिक कर्मकांडों की भरमार, दूसरी ओर अधार्सिक आचारविचारों की परिसीमा । लोगोंं का जीवन दुहरा हो गया है । यह सब हम देख ही रहे हैं । मुझे और अधिक विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है ।
    
१३. यह हमारी शिकायत का नहीं चिन्ता का विषय होना चाहिए । शिकायत करने से समस्या दूर नहीं होती | हमें इस समस्या को कैसे दूर किया जाय इस पर विचार करना चाहिए । समस्या का निराकरण करने का प्रयास करना चाहिए। हमें समस्या का कारण और स्वरूप ठीक प्रकार से समझना चाहिये ।
 
१३. यह हमारी शिकायत का नहीं चिन्ता का विषय होना चाहिए । शिकायत करने से समस्या दूर नहीं होती | हमें इस समस्या को कैसे दूर किया जाय इस पर विचार करना चाहिए । समस्या का निराकरण करने का प्रयास करना चाहिए। हमें समस्या का कारण और स्वरूप ठीक प्रकार से समझना चाहिये ।
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१४. इस समस्या का मूल कारण यह है कि धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध टूट गया है । शिक्षा मनुष्य को दूसरी दिशा में ले जा रही है, धर्म दूसरी दिशा में जाने के लिए निर्देश दे रहा है । ये दोनों दिशायें एकदूसरी से सर्वथा विपरीत हैं । दो विपरीत दिशाओं में मनुष्य एकसाथ नहीं चल सकता । इसलिए एक मार्ग वास्तविक है दूसरा आभासी |
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१४. इस समस्या का मूल कारण यह है कि धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध टूट गया है । शिक्षा मनुष्य को दूसरी दिशा में ले जा रही है, धर्म दूसरी दिशा में जाने के लिए निर्देश दे रहा है । ये दोनों दिशायें एकदूसरी से सर्वथा विपरीत हैं । दो विपरीत दिशाओं में मनुष्य एकसाथ नहीं चल सकता । अतः एक मार्ग वास्तविक है दूसरा आभासी |
    
१५. सामान्य जीवन धर्मविमुख हो जाने का कारण प्रत्यक्ष में तो शासन व्यवस्था, बाजार, विज्ञापन, रासायनिक खाद, मनुष्य का स्वार्थ आदि ही दिखता है । परन्तु इन सबको मान्यता और समर्थन देने वाला कौनसा तत्त्व है इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है ।
 
१५. सामान्य जीवन धर्मविमुख हो जाने का कारण प्रत्यक्ष में तो शासन व्यवस्था, बाजार, विज्ञापन, रासायनिक खाद, मनुष्य का स्वार्थ आदि ही दिखता है । परन्तु इन सबको मान्यता और समर्थन देने वाला कौनसा तत्त्व है इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है ।
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१६. शासन लोकतंत्रात्मक है । लोगों का मत पवित्र होता है। परन्तु अपने मत की पवित्रता लोग क्यों नहीं मानते ? मनुष्य स्वार्थी हैं इसलिए । परन्तु स्वार्थी क्यों हैं ? क्या कलियुग के प्रभाव से ? या उन्हें अपने मत को पवित्र मानना चाहिए इसकी शिक्षा नहीं मिली इसलिए ? पवित्रता क्या होती है यह नहीं सिखाया गया इसलिए ?
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१६. शासन लोकतंत्रात्मक है । लोगोंं का मत पवित्र होता है। परन्तु अपने मत की पवित्रता लोग क्यों नहीं मानते ? मनुष्य स्वार्थी हैं अतः । परन्तु स्वार्थी क्यों हैं ? क्या कलियुग के प्रभाव से ? या उन्हें अपने मत को पवित्र मानना चाहिए इसकी शिक्षा नहीं मिली अतः ? पवित्रता क्या होती है यह नहीं सिखाया गया अतः ?
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१७. कानून का प्रावधान होने के बाद भी लोग भ्रष्टाचार करते हैं इसका कारण क्या है ? यही कि भ्रष्टाचार नहीं करना चाहिए ऐसा सिखाया नहीं गया है इसलिए । पैसा कम कमाएंगे परन्तु अनीति नहीं करेंगे यह नहीं सिखाया जाता । संतोष गुण की शिक्षा नहीं दी जाती है |
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१७. कानून का प्रावधान होने के बाद भी लोग भ्रष्टाचार करते हैं इसका कारण क्या है ? यही कि भ्रष्टाचार नहीं करना चाहिए ऐसा सिखाया नहीं गया है अतः । पैसा कम कमाएंगे परन्तु अनीति नहीं करेंगे यह नहीं सिखाया जाता । संतोष गुण की शिक्षा नहीं दी जाती है |
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१८. विज्ञापन का झूठ जानते हुए भी वस्तुयें खरीदने से कोई परावृत्त नहीं होता क्योंकि मन को संयम नहीं सिखाया जाता । धर्म के लक्षण प्रसिद्ध हैं । वे शिक्षा का अंग नहीं है । वे केवल उपदेश के लिए हैं । धर्म के बिना परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ जाता है, पैसा कमाया जाता है, जीवनयापन किया जा सकता है । इसलिए लोगों को धर्म की आवश्यकता नहीं लगती ।
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१८. विज्ञापन का झूठ जानते हुए भी वस्तुयें खरीदने से कोई परावृत्त नहीं होता क्योंकि मन को संयम नहीं सिखाया जाता । धर्म के लक्षण प्रसिद्ध हैं । वे शिक्षा का अंग नहीं है । वे केवल उपदेश के लिए हैं । धर्म के बिना परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ जाता है, पैसा कमाया जाता है, जीवनयापन किया जा सकता है । अतः लोगोंं को धर्म की आवश्यकता नहीं लगती ।
    
१९. असत्य बोलने पर उच्च शिक्षा में प्रवेश नहीं मिलता ऐसा नहीं होता । अपवित्र जीवनशैली के रहते ज्ञान ग्रहण नहीं किया जा सकता ऐसी स्थिति नहीं है । व्यसनी छात्र, बलात्कार करने वाले छात्र परीक्षा में नकल करने वाला छात्र पढ़ नहीं सकता या नौकरी प्राप्त नहीं कर सकता ऐसा नहीं होता । इसका अर्थ यह है कि शिक्षा और अर्थाजन के लिए धर्म कि आवश्यकता नहीं है ।
 
१९. असत्य बोलने पर उच्च शिक्षा में प्रवेश नहीं मिलता ऐसा नहीं होता । अपवित्र जीवनशैली के रहते ज्ञान ग्रहण नहीं किया जा सकता ऐसी स्थिति नहीं है । व्यसनी छात्र, बलात्कार करने वाले छात्र परीक्षा में नकल करने वाला छात्र पढ़ नहीं सकता या नौकरी प्राप्त नहीं कर सकता ऐसा नहीं होता । इसका अर्थ यह है कि शिक्षा और अर्थाजन के लिए धर्म कि आवश्यकता नहीं है ।
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२०. काम करने से काम करवाना अच्छा है, बिना काम किए पैसे मिलते हों तो अच्छा है, येन केन प्रकारेण पैसा कमाना ही व्यवसाय का लक्ष्य है, लोगों के लिए लाभकारी या आवश्यक है ऐसी वस्तुओं का नहीं अपितु सस्ते में, सरलता से उत्पादन किया जा सके और कीमत अधिक मिले ऐसी वस्तुओं का उत्पादन करना बुद्धिमानी है ऐसा विचार अधार्मिक है परन्तु वर्तमान व्यवस्थापन की और अर्थशास्त्र की शिक्षा इसे मान्यता देती है, किंबहुना सिखाती है ।
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२०. काम करने से काम करवाना अच्छा है, बिना काम किए पैसे मिलते हों तो अच्छा है, येन केन प्रकारेण पैसा कमाना ही व्यवसाय का लक्ष्य है, लोगोंं के लिए लाभकारी या आवश्यक है ऐसी वस्तुओं का नहीं अपितु सस्ते में, सरलता से उत्पादन किया जा सके और कीमत अधिक मिले ऐसी वस्तुओं का उत्पादन करना बुद्धिमानी है ऐसा विचार अधार्मिक है परन्तु वर्तमान व्यवस्थापन की और अर्थशास्त्र की शिक्षा इसे मान्यता देती है, किंबहुना सिखाती है ।
    
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२१. व्यक्तिगत हो या राष्ट्रजीवन हो, काम और अर्थ नियन्त्रक बन गए हैं । होना यह चाहिए कि अर्थ और काम दोनों धर्म के नियमन में रहने चाहिए । तभी सुख और समृद्धि प्राप्त होती है । इसे समर्थन देने वाला अर्थशास्त्र विश्वविद्यालयों में पढाया जाता है । यही सारी समस्याओं की जड है ।
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२१. व्यक्तिगत हो या राष्ट्रजीवन हो, काम और अर्थ नियन्त्रक बन गए हैं । होना यह चाहिए कि अर्थ और काम दोनों धर्म के नियमन में रहने चाहिए । तभी सुख और समृद्धि प्राप्त होती है । इसे समर्थन देने वाला अर्थशास्त्र विश्वविद्यालयों में पढाया जाता है । यही सारी समस्याओं की जड़ है ।
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२२. संसद में, विश्वविद्यालयों में, बौद्धिकों में शिक्षा के विषयमें चर्चा तो बहुत होती है । समस्‍यायें बताई जाती हैं । उपाय सुझाए जाते हैं । मंथन तो बहुत चलता है । लोग त्रस्त हैं । परन्तु शिक्षा धर्म नहीं सिखाती इसलिए ये सारी समस्‍यायें हैं और धर्म का सन्दर्भ लेने से तत्काल मार्ग दिखाई देने लगेगा इतनी सीधी सरल बात कहीं पर भी नहीं होती ।
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२२. संसद में, विश्वविद्यालयों में, बौद्धिकों में शिक्षा के विषयमें चर्चा तो बहुत होती है । समस्‍यायें बताई जाती हैं । उपाय सुझाए जाते हैं । मंथन तो बहुत चलता है । लोग त्रस्त हैं । परन्तु शिक्षा धर्म नहीं सिखाती अतः ये सारी समस्‍यायें हैं और धर्म का सन्दर्भ लेने से तत्काल मार्ग दिखाई देने लगेगा इतनी सीधी सरल बात कहीं पर भी नहीं होती ।
    
२३. प्रकट समारोहों में तो लोग धर्म का नाम लेने से भी डरते हैं। वे मूल्यशिक्षा ऐसा शब्द बोलेंगे परन्तु धर्मानुसारी शिक्षा ऐसा नहीं बोलेंगे । प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरीके से शिक्षा क्षेत्र से धर्म निष्कासित हो गया है । शिक्षा से ही निष्कासित हो जाएगा तो जीवन के सभी क्षेत्रों से होगा ही ।
 
२३. प्रकट समारोहों में तो लोग धर्म का नाम लेने से भी डरते हैं। वे मूल्यशिक्षा ऐसा शब्द बोलेंगे परन्तु धर्मानुसारी शिक्षा ऐसा नहीं बोलेंगे । प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरीके से शिक्षा क्षेत्र से धर्म निष्कासित हो गया है । शिक्षा से ही निष्कासित हो जाएगा तो जीवन के सभी क्षेत्रों से होगा ही ।
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२४. मैंने संक्षेप में आप सबके सम्मुख समस्या का निरूपण किया है । आप यह सब नहीं जानते हैं ऐसा तो नहीं हैं । आप न केवल जानते हैं, अपितु आप भुक्तभोगी भी हैं । मेरा निवेदन केवल इतना ही है कि हम केवल चिन्ता न करें अपितु उपाय क्‍या करें इसकी योजना करें । अभी हम आज चर्चा को विराम देंगे । आप आश्रम में आराम से रहें, चिंतन करें । कल हम फिर से इस विषय पर चर्चा शुरू करेंगे ।
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२४. मैंने संक्षेप में आप सबके सम्मुख समस्या का निरूपण किया है । आप यह सब नहीं जानते हैं ऐसा तो नहीं हैं । आप न केवल जानते हैं, अपितु आप भुक्तभोगी भी हैं । मेरा निवेदन केवल इतना ही है कि हम केवल चिन्ता न करें अपितु उपाय क्‍या करें इसकी योजना करें । अभी हम आज चर्चा को विराम देंगे । आप आश्रम में आराम से रहें, चिंतन करें । कल हम फिर से इस विषय पर चर्चा आरम्भ करेंगे ।
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२५. स्वामीजी रुके । उनकी बातों में जानकारी तो नई नहीं थी परन्तु आवाहन का स्वरूप नया था । धर्माचर्यों को जिम्मेदारी की बात नई लगी । आज तक शिक्षा का धर्म के साथ सम्बन्ध नहीं जोडा गया था । आश्चर्य तो उसी बात का होना चाहिए था कि ऐसा कैसे हुआ । धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध इतना स्वाभाविक है कि वह अब नहीं रहा है यही बात ध्यान में नहीं आई ।
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२५. स्वामीजी रुके । उनकी बातों में जानकारी तो नई नहीं थी परन्तु आवाहन का स्वरूप नया था । धर्माचर्यों को जिम्मेदारी की बात नई लगी । आज तक शिक्षा का धर्म के साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया था । आश्चर्य तो उसी बात का होना चाहिए था कि ऐसा कैसे हुआ । धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध इतना स्वाभाविक है कि वह अब नहीं रहा है यही बात ध्यान में नहीं आई ।
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२६. सब इस नए सन्दर्भ से उत्साह में तो आ गए परन्तु कुछ असमंजस में भी थे । एक तो आवाहन नया और अपरिचित, अश्रुतपूर्व था और साथ ही शिक्षा के बारे में वे बहुत कुछ जानते नहीं थे । इसलिए समस्या की और उसके हल की चर्चा कैसे चलेगी इसकी बहुत कल्पना वे नहीं कर पा रहे थे । अनेक लोगों ने तो केवल श्रोता बनकर विषय को समझने का ही निश्चय किया ।
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२६. सब इस नए सन्दर्भ से उत्साह में तो आ गए परन्तु कुछ असमंजस में भी थे । एक तो आवाहन नया और अपरिचित, अश्रुतपूर्व था और साथ ही शिक्षा के बारे में वे बहुत कुछ जानते नहीं थे । अतः समस्या की और उसके हल की चर्चा कैसे चलेगी इसकी बहुत कल्पना वे नहीं कर पा रहे थे । अनेक लोगोंं ने तो केवल श्रोता बनकर विषय को समझने का ही निश्चय किया ।
    
२७. इसके साथ ही सभा विसर्जित हुई । आचार्य विश्वावसु और उनके साथ आए हुए प्राध्यापक आश्वस्त दिखाई दे रहे थे । उन्हें लगा कि इस चर्चा का कोई परिणाम अवश्य निकलेगा । उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक स्वामीजी को प्रणाम किया और अपने निवास की ओर चले |
 
२७. इसके साथ ही सभा विसर्जित हुई । आचार्य विश्वावसु और उनके साथ आए हुए प्राध्यापक आश्वस्त दिखाई दे रहे थे । उन्हें लगा कि इस चर्चा का कोई परिणाम अवश्य निकलेगा । उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक स्वामीजी को प्रणाम किया और अपने निवास की ओर चले |
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=== धर्मचर्चा ===
 
=== धर्मचर्चा ===
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१. सभा पुनः शुरू हुई । वातावरण कुछ गम्भीर था । सबको विषय बहुत महत्त्वपूर्ण लग रहा था परन्तु उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि समस्या का हल कैसे निकाला जाय । कल सब आपस में बहुत चर्चा कर रहे थे परन्तु ठीक से जानकारी नहीं होने के कारण चर्चा बार बार भटक जाती थी ।
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१. सभा पुनः आरम्भ हुई । वातावरण कुछ गम्भीर था । सबको विषय बहुत महत्त्वपूर्ण लग रहा था परन्तु उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि समस्या का हल कैसे निकाला जाय । कल सब आपस में बहुत चर्चा कर रहे थे परन्तु ठीक से जानकारी नहीं होने के कारण चर्चा बार बार भटक जाती थी ।
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२. सभा शुरू हुई । स्वामीजीने खुली चर्चा का आयोजन किया था । उन्होंने प्रारम्भ में ही जिसे भी जो कहना हो वह कहने के लिए आवाहन किया । एक महात्मा खडे हुए । वे एक बड़ी पीठ के पीठाधीश थे । उनकी पीठ लौकिक दृष्टि से भी बहुत समृद्ध थी और सेवाकार्यों के लिए भी प्रसिद्ध थी । उन्होंने प्रभावी शैली में बात का प्रारम्भ किया ।
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२. सभा आरम्भ हुई । स्वामीजीने खुली चर्चा का आयोजन किया था । उन्होंने प्रारम्भ में ही जिसे भी जो कहना हो वह कहने के लिए आवाहन किया । एक महात्मा खडे हुए । वे एक बड़ी पीठ के पीठाधीश थे । उनकी पीठ लौकिक दृष्टि से भी बहुत समृद्ध थी और सेवाकार्यों के लिए भी प्रसिद्ध थी । उन्होंने प्रभावी शैली में बात का प्रारम्भ किया ।
    
३. मैं स्वामीजी को और सभाजनों को प्रणाम करता हूँ । कल मैंने सारी चर्चा सुनी । शिक्षा का विषय महत्त्वपूर्ण है इस बात से मेरी सहमति है । हमारे पीठ में जिस प्रकार सेवाकार्य होते हैं, अन्नसत्र चलाया जाता है, धर्मादाय चिकित्सालय चलाया जाता है उस प्रकार शिक्षा का भी प्रबन्ध किया गया है ।
 
३. मैं स्वामीजी को और सभाजनों को प्रणाम करता हूँ । कल मैंने सारी चर्चा सुनी । शिक्षा का विषय महत्त्वपूर्ण है इस बात से मेरी सहमति है । हमारे पीठ में जिस प्रकार सेवाकार्य होते हैं, अन्नसत्र चलाया जाता है, धर्मादाय चिकित्सालय चलाया जाता है उस प्रकार शिक्षा का भी प्रबन्ध किया गया है ।
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१. स्वामीजी और आचार्य विश्वावसु स्वामीजी की कुटीर के बाहर एक वृक्ष के नीचे बैठे थे । दोनों चिन्तित दिखाई दे रहे थे । कल की धर्मसभा कोलाहलसभा में परिवर्तित हो गई थी इसकी ही उन्हें चिन्ता हो रही थी । उन्हें ध्माचार्यों से बहुत अपेक्षा थी । परन्तु धर्माचार्यों ने उन अपेक्षाओं की कोई दखल ही नहीं ली।
 
१. स्वामीजी और आचार्य विश्वावसु स्वामीजी की कुटीर के बाहर एक वृक्ष के नीचे बैठे थे । दोनों चिन्तित दिखाई दे रहे थे । कल की धर्मसभा कोलाहलसभा में परिवर्तित हो गई थी इसकी ही उन्हें चिन्ता हो रही थी । उन्हें ध्माचार्यों से बहुत अपेक्षा थी । परन्तु धर्माचार्यों ने उन अपेक्षाओं की कोई दखल ही नहीं ली।
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२. बहुत देर तक मौन रहने के बाद स्वामीजी ने बोलना शुरू किया । उन्होंने कहा कि सारे धर्माचार्य बहुत ही नासमझी का व्यवहार कर रहे थे । उनका मिथ्या अहंकार उन्हें स्थिति को समझने ही नहीं दे रहा है । वे आज्ञानी होकर भी अपने आपको ज्ञानवान समझ रहे हैं। परन्तु ज्ञानियों जैसा विनय उनमें लेश मात्र नहीं है।
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२. बहुत देर तक मौन रहने के बाद स्वामीजी ने बोलना आरम्भ किया । उन्होंने कहा कि सारे धर्माचार्य बहुत ही नासमझी का व्यवहार कर रहे थे । उनका मिथ्या अहंकार उन्हें स्थिति को समझने ही नहीं दे रहा है । वे आज्ञानी होकर भी अपने आपको ज्ञानवान समझ रहे हैं। परन्तु ज्ञानियों जैसा विनय उनमें लेश मात्र नहीं है।
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३. इनके बड़े बड़े मठ हैं । इनकी बड़ी बडी संस्थायें चलती हैं । इनके अनुयायीओं की संख्या बहुत बडी है। परन्तु यही बातें आवरण बनकर उन्हें सत्य को समझने से रोक रही हैं । धर्म के नाम पर ये अधर्म की दुनिया में विहार कर रहे हैं । विपरीत दिशा में जा रहे हैं और लोगों को ले जा रहे हैं ।
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३. इनके बड़े बड़े मठ हैं । इनकी बड़ी बडी संस्थायें चलती हैं । इनके अनुयायीओं की संख्या बहुत बडी है। परन्तु यही बातें आवरण बनकर उन्हें सत्य को समझने से रोक रही हैं । धर्म के नाम पर ये अधर्म की दुनिया में विहार कर रहे हैं । विपरीत दिशा में जा रहे हैं और लोगोंं को ले जा रहे हैं ।
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४. धर्म को अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए साधन के रूप में प्रयुक्त करने की इच्छा रखने वाले राजनीतिक लोगों की चाटुकारिता से ये मुग्ध हो जाते हैं । उन्हें लगता है कि वे सब उनके कार्य से प्रभावित होकर आते हैं । परन्तु इन नासमझ लोगों को यह नहीं समझता कि इनके अनुयायीओं की संख्या देखकर चुनाव में इनका उपयोग हो सकता है ऐसा उद्देश्य मन में रखकर वे आ रहे हैं ।
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४. धर्म को अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए साधन के रूप में प्रयुक्त करने की इच्छा रखने वाले राजनीतिक लोगोंं की चाटूकारिता से ये मुग्ध हो जाते हैं । उन्हें लगता है कि वे सब उनके कार्य से प्रभावित होकर आते हैं । परन्तु इन नासमझ लोगोंं को यह नहीं समझता कि इनके अनुयायीओं की संख्या देखकर चुनाव में इनका उपयोग हो सकता है ऐसा उद्देश्य मन में रखकर वे आ रहे हैं ।
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५. अनेक बार तो ये आचार्य भी उनका असली उद्देश्य क्या है यह जानते हैं । परन्तु वे भी अपने संस्थाओं के लिए भूमि, धन और अन्य सुविधायें चाहते हैं । धर्माचार्यों के पास संख्या है और राजीतिक लोगों के पास सत्ता है । दोनों एकदूसरे की सहायता चाहते हैं और एकदूसरे का उपयोग कर लेने का प्रयास करते हैं । इसे वे धर्म का प्रभाव कहते हैं । कुछ तो सही में अज्ञानी हैं, कुछ जानते हुए भी ढोंग कर रहे हैं ।
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५. अनेक बार तो ये आचार्य भी उनका असली उद्देश्य क्या है यह जानते हैं । परन्तु वे भी अपने संस्थाओं के लिए भूमि, धन और अन्य सुविधायें चाहते हैं । धर्माचार्यों के पास संख्या है और राजीतिक लोगोंं के पास सत्ता है । दोनों एकदूसरे की सहायता चाहते हैं और एकदूसरे का उपयोग कर लेने का प्रयास करते हैं । इसे वे धर्म का प्रभाव कहते हैं । कुछ तो सही में अज्ञानी हैं, कुछ जानते हुए भी ढोंग कर रहे हैं ।
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६. ये अज्ञानी लोग समझते हैं कि कथाओं, तीर्थयात्राओं , सत्संगों में सम्मिलित होने वाले लोग वास्तव में धार्मिक हैं । यह बहुत बड़ा भ्रम है । इन्हें यह नहीं समझता कि यह भी उनके लिए एक मनोरंजन कार्यक्रम से विशेष कुछ नहीं है । केवल कथा सुनने से या भजन गाने से कोई भक्त नहीं हो जाता । यह बात धर्माचार्यों को ही लोगों को बतानी चाहिए परन्तु ऐसा करने के स्थान पर वे स्वयं अज्ञानियों के स्वर्ग में विहार करते हैं।
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६. ये अज्ञानी लोग समझते हैं कि कथाओं, तीर्थयात्राओं , सत्संगों में सम्मिलित होने वाले लोग वास्तव में धार्मिक हैं । यह बहुत बड़ा भ्रम है । इन्हें यह नहीं समझता कि यह भी उनके लिए एक मनोरंजन कार्यक्रम से विशेष कुछ नहीं है । केवल कथा सुनने से या भजन गाने से कोई भक्त नहीं हो जाता । यह बात धर्माचार्यों को ही लोगोंं को बतानी चाहिए परन्तु ऐसा करने के स्थान पर वे स्वयं अज्ञानियों के स्वर्ग में विहार करते हैं।
    
७. धर्म आचरण का विषय है । स्वयम्‌ असत्य बोलते हैं ऐसे लोग सत्यवादी हरिश्चन्द्र या युधिष्टि की कथा सुनकर धार्मिक नहीं हो जाते । अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाने वाले अथवा जानबूझकर छोड देने वाले केवल भजन सुनकर या गाकर भक्त नहीं हो जाते । अपने स्वार्थ के लिए मंदिरों में जाने वाले दर्शनार्थी नहीं होते केवल प्रयोजनार्थी होते हैं । यह बात धर्माचार्यों को समझनी चाहिए । परन्तु वे नहीं समझते हैं।
 
७. धर्म आचरण का विषय है । स्वयम्‌ असत्य बोलते हैं ऐसे लोग सत्यवादी हरिश्चन्द्र या युधिष्टि की कथा सुनकर धार्मिक नहीं हो जाते । अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाने वाले अथवा जानबूझकर छोड देने वाले केवल भजन सुनकर या गाकर भक्त नहीं हो जाते । अपने स्वार्थ के लिए मंदिरों में जाने वाले दर्शनार्थी नहीं होते केवल प्रयोजनार्थी होते हैं । यह बात धर्माचार्यों को समझनी चाहिए । परन्तु वे नहीं समझते हैं।
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८. गोस्वामी तुलसीदासजी ने परहित को सबसे बड़ा धर्म और परपीडा को सबसे बडा अधर्म कहा । ऐसा नहीं कर केवल भजन पूजन करने वाले धार्मिक नहीं हो सकते । लोगों का भला किसमें है इसे नहीं जानने
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८. गोस्वामी तुलसीदासजी ने परहित को सबसे बड़ा धर्म और परपीडा को सबसे बडा अधर्म कहा । ऐसा नहीं कर केवल भजन पूजन करने वाले धार्मिक नहीं हो सकते । लोगोंं का भला किसमें है इसे नहीं जानने
    
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वाले और अपने शिष्यों या अनुयायीओं को नहीं समझाने वाले धर्माचार्य कैसे हो सकते हैं ।
 
वाले और अपने शिष्यों या अनुयायीओं को नहीं समझाने वाले धर्माचार्य कैसे हो सकते हैं ।
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९. आचरण यदि पवित्र नहीं है, लोगों की सेवा करने हेतु जो कष्ट सहते नहीं हैं, कर्तव्य का पालन करने के लिए त्याग करने की आवश्यकता हो तब त्याग करते नहीं हैं, स्वार्थ के लिए लोगों का उपयोग करते हैं, संयम का पालन करते नहीं हैं वे केवल रामायण या महाभारत की कथा सुनकर या भजन गाकर धार्मिक नहीं हो जाते ।
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९. आचरण यदि पवित्र नहीं है, लोगोंं की सेवा करने हेतु जो कष्ट सहते नहीं हैं, कर्तव्य का पालन करने के लिए त्याग करने की आवश्यकता हो तब त्याग करते नहीं हैं, स्वार्थ के लिए लोगोंं का उपयोग करते हैं, संयम का पालन करते नहीं हैं वे केवल रामायण या महाभारत की कथा सुनकर या भजन गाकर धार्मिक नहीं हो जाते ।
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१०. सर्व प्राणीमात्र में एक ही आत्मतत्त्व है इस सिद्धान्त के अनुसार व्यवहार नहीं करने वाले केवल उपनिषद पढ़कर या वेदांत दर्शन का अध्ययन कर धार्मिक नहीं हो जाते । वे पण्डित हो सकते हैं परन्तु धार्मिक नहीं । व्यक्ति को पहले धार्मिक होना चाहिए, बाद में पण्डित । परन्तु इन्हें यह बात कहाँ समझती हैं ।
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१०. सर्व प्राणीमात्र में एक ही आत्मतत्त्व है इस सिद्धान्त के अनुसार व्यवहार नहीं करने वाले केवल उपनिषद पढ़कर या [[Vedanta_([[Vedanta_([[Vedanta_(वेदान्तः)|वेदांत]]ः)|वेदांत]]ः)|वेदांत]] दर्शन का अध्ययन कर धार्मिक नहीं हो जाते । वे पण्डित हो सकते हैं परन्तु धार्मिक नहीं । व्यक्ति को पहले धार्मिक होना चाहिए, बाद में पण्डित । परन्तु इन्हें यह बात कहाँ समझती हैं ।
    
११. सत्संग, कथावार्ता, यज्ञयाग, तीर्थयात्रा, दर्शन, पूजा, धर्मग्रंथों का अध्ययन ये सब धर्म के अंग तभी सार्थक होते हैं जब व्यवहार और विचार भी उनके अनुकूल हों । सत्य तो यह है कि ये सारी बातें धार्मिक आचरण के परिणामस्वरूप होती हैं, कारण नहीं । निर्द्शक तो जरा भी नहीं । बिना आचरण के ये केवल निरोर्थक ही नहीं तो अनर्थक हो जाती हैं । क्योंकि वे आभासी विश्व निर्माण करती हैं । सत्य इसके पीछे ढक जाता हैं |
 
११. सत्संग, कथावार्ता, यज्ञयाग, तीर्थयात्रा, दर्शन, पूजा, धर्मग्रंथों का अध्ययन ये सब धर्म के अंग तभी सार्थक होते हैं जब व्यवहार और विचार भी उनके अनुकूल हों । सत्य तो यह है कि ये सारी बातें धार्मिक आचरण के परिणामस्वरूप होती हैं, कारण नहीं । निर्द्शक तो जरा भी नहीं । बिना आचरण के ये केवल निरोर्थक ही नहीं तो अनर्थक हो जाती हैं । क्योंकि वे आभासी विश्व निर्माण करती हैं । सत्य इसके पीछे ढक जाता हैं |
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१३. मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त मिलकर अन्तःकरण है। मन सद्गुणी बनता है, बुद्धि और अहंकार आत्मनिष्ठ बनते हैं, चित्त शुद्द बनता है तब व्यक्ति धार्मिक बनता है । ऐसा व्यक्ति भजन, पूजन, कीर्तन, सत्संग करे या न करे वह धार्मिक ही बना रहता है । वास्तव में धर्म की रक्षा तो ऐसा व्यक्ति ही कर रहा होता है । ऐसे व्यक्ति का संग ही सत्संग है ।
 
१३. मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त मिलकर अन्तःकरण है। मन सद्गुणी बनता है, बुद्धि और अहंकार आत्मनिष्ठ बनते हैं, चित्त शुद्द बनता है तब व्यक्ति धार्मिक बनता है । ऐसा व्यक्ति भजन, पूजन, कीर्तन, सत्संग करे या न करे वह धार्मिक ही बना रहता है । वास्तव में धर्म की रक्षा तो ऐसा व्यक्ति ही कर रहा होता है । ऐसे व्यक्ति का संग ही सत्संग है ।
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१४. लोगों को अन्तःकरण पवित्र कैसे बनाये सिखाना धर्म सिखाना है । यही धर्माचार्यों का कर्तव्य है । ऐसा करने से धर्म की रक्षा होती है । ऐसा धर्म फिर समाज की रक्षा करता है । आज इस बात का विस्मरण हुआ है । गाडी उल्टी पटरी पर चढ गई है ।
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१४. लोगोंं को अन्तःकरण पवित्र कैसे बनाये सिखाना धर्म सिखाना है । यही धर्माचार्यों का कर्तव्य है । ऐसा करने से धर्म की रक्षा होती है । ऐसा धर्म फिर समाज की रक्षा करता है । आज इस बात का विस्मरण हुआ है । गाडी उल्टी पटरी पर चढ गई है ।
    
१५. धर्म का विचार वास्तव में व्यवहार, व्यवस्था और वातावरण के संदर्भ में ही करना चाहिए । इन सबके साथ सम्बन्ध विच्छेद हो गया तो धर्म धर्म नहीं रहता है, वह धर्म का आभास होता है जो अधर्म से भी अधिक हानिकारक होता है क्योंकि अधार्मिक व्यक्ति की कभी न कभी धार्मिक बनने की सम्भावना होती है परन्तु जो आभासी धर्म का पालन करता है उसकी तो दुर्गति होती है ।
 
१५. धर्म का विचार वास्तव में व्यवहार, व्यवस्था और वातावरण के संदर्भ में ही करना चाहिए । इन सबके साथ सम्बन्ध विच्छेद हो गया तो धर्म धर्म नहीं रहता है, वह धर्म का आभास होता है जो अधर्म से भी अधिक हानिकारक होता है क्योंकि अधार्मिक व्यक्ति की कभी न कभी धार्मिक बनने की सम्भावना होती है परन्तु जो आभासी धर्म का पालन करता है उसकी तो दुर्गति होती है ।
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अपनी संस्थाओं के केंद्र हैं इस बात का गर्व करते हैं । यह धर्म नहीं, भौतिक यश का मद है ।
 
अपनी संस्थाओं के केंद्र हैं इस बात का गर्व करते हैं । यह धर्म नहीं, भौतिक यश का मद है ।
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१९. अकिंचन, अपरिग्रही, परिश्रमी, स्वार्थत्यागी, अनिकेत होना संन्यासी का लक्षण है । सादगी, संयम, सरलता, सुलभता, ऋजुता, सन्त के लक्षण हैं। समाज को जीवन की सही दिशा बताना और लोगों को सही मार्ग पर चलाना धर्माचार्य का कर्तव्य है । समाज यदि सही मार्ग पर नहीं चलता है तो संन्यासी, सन्त और धर्माचार्य का ही दोष माना जाना चाहिए ।
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१९. अकिंचन, अपरिग्रही, परिश्रमी, स्वार्थत्यागी, अनिकेत होना संन्यासी का लक्षण है । सादगी, संयम, सरलता, सुलभता, ऋजुता, सन्त के लक्षण हैं। समाज को जीवन की सही दिशा बताना और लोगोंं को सही मार्ग पर चलाना धर्माचार्य का कर्तव्य है । समाज यदि सही मार्ग पर नहीं चलता है तो संन्यासी, सन्त और धर्माचार्य का ही दोष माना जाना चाहिए ।
    
२०. आज तो सभी धर्माचार्यों के मठ, मन्दिर, आश्रम वैभव से युक्त दिखाई देते हैं । यह वैभव प्राकृतिक नहीं होता है। वर्तमान समय की प्रदूषण बढ़ाने वाली अनेक स्चनायें यहाँ भी दिखाई देती हैं । इनमें साधनशुद्धि का अंश नहीं होता । समाज में भ्रष्टाचार से जो कमाई होती है उसी धन से ये सब अपनी संस्थायें चलाते हैं । इसका परिणाम इनके कार्य पर हुए बिना नहीं रह सकता । अन्यों को शुद्ध बनाने के स्थान पर ये स्वयं अशुद्ध बन जाते हैं ।
 
२०. आज तो सभी धर्माचार्यों के मठ, मन्दिर, आश्रम वैभव से युक्त दिखाई देते हैं । यह वैभव प्राकृतिक नहीं होता है। वर्तमान समय की प्रदूषण बढ़ाने वाली अनेक स्चनायें यहाँ भी दिखाई देती हैं । इनमें साधनशुद्धि का अंश नहीं होता । समाज में भ्रष्टाचार से जो कमाई होती है उसी धन से ये सब अपनी संस्थायें चलाते हैं । इसका परिणाम इनके कार्य पर हुए बिना नहीं रह सकता । अन्यों को शुद्ध बनाने के स्थान पर ये स्वयं अशुद्ध बन जाते हैं ।
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२१. स्वामीजी बहुत खिन्नता का अनुभव कर रहे थे । वे स्वयं संन्यासी थे । अपने ही प्रकार के लोगों के लिए ये सारी बातें वे कर रहे थे । इसका उन्हें दुःख था परन्तु वे वास्तविक चित्र जानते थे । कल की धर्मसभा में प्रत्यक्ष अनुभव भी हो गया था । इसलिए वे दुःखी हो रहे थे । आचार्य विश्वावसु उनका दुःख समझ रहे थे । वे भी खिन्नता का अनुभव कर ही रहे थे ।
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२१. स्वामीजी बहुत खिन्नता का अनुभव कर रहे थे । वे स्वयं संन्यासी थे । अपने ही प्रकार के लोगोंं के लिए ये सारी बातें वे कर रहे थे । इसका उन्हें दुःख था परन्तु वे वास्तविक चित्र जानते थे । कल की धर्मसभा में प्रत्यक्ष अनुभव भी हो गया था । अतः वे दुःखी हो रहे थे । आचार्य विश्वावसु उनका दुःख समझ रहे थे । वे भी खिन्नता का अनुभव कर ही रहे थे ।
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२२. परन्तु वे जानते थे कि दुःखी होने से समस्या का हल नहीं प्राप्त होता, कुछ करने से ही परिणाम मिलता है । इसलिए कुछ क्षण मौन रहकर वे अपने विचार बताने लगे । वे मुख्य रूप से धर्माचार्यों का शिक्षा से क्या संबंध है उसकी बात करना चाहते थे । स्वामीजी भी उनकी बात ध्यानपूर्वक सुन रहे थे ।
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२२. परन्तु वे जानते थे कि दुःखी होने से समस्या का हल नहीं प्राप्त होता, कुछ करने से ही परिणाम मिलता है । अतः कुछ क्षण मौन रहकर वे अपने विचार बताने लगे । वे मुख्य रूप से धर्माचार्यों का शिक्षा से क्या संबंध है उसकी बात करना चाहते थे । स्वामीजी भी उनकी बात ध्यानपूर्वक सुन रहे थे ।
    
=== धर्माचार्यों की भूमिका ===
 
=== धर्माचार्यों की भूमिका ===
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६. दूसरी बात यह है कि आज समाज में भी “धर्म' संज्ञा अत्यन्त संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होती है । विशेष रूप से राजीनति के प्रभाव से धर्म विवाद के घेरे में आ गया है। इस विवाद से उसे मुक्त करने की महती आवश्यकता है । यह काम धर्माचार्य ही कर सकते हैं ।
 
६. दूसरी बात यह है कि आज समाज में भी “धर्म' संज्ञा अत्यन्त संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होती है । विशेष रूप से राजीनति के प्रभाव से धर्म विवाद के घेरे में आ गया है। इस विवाद से उसे मुक्त करने की महती आवश्यकता है । यह काम धर्माचार्य ही कर सकते हैं ।
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७. धर्म को विवाद के घेरे में फैँसाने का काम साम्यवादियों ने किया है । धर्म अफीम की गोली है' ऐसा कहने से उनकी तोडफोड की गतिविधियाँ शुरू हुई हैं जो अब “कहीं पर भी धर्म नहीं चाहिये कहने तक पहुँची हैं । राजनीति इससे बहुत प्रभावित हो गई है जिससे मामला और उलझ गया है ।'
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७. धर्म को विवाद के घेरे में फैँसाने का काम साम्यवादियों ने किया है । धर्म अफीम की गोली है' ऐसा कहने से उनकी तोडफोड की गतिविधियाँ आरम्भ हुई हैं जो अब “कहीं पर भी धर्म नहीं चाहिये कहने तक पहुँची हैं । राजनीति इससे बहुत प्रभावित हो गई है जिससे मामला और उलझ गया है ।'
    
८. धर्म को राजनीति और साम्यवाद के घेरे से बाहर निकालना, धर्माचार्यों का प्रथम कर्तव्य है । “धर्म- निरपेक्षता' जैसी संकल्पना कितनी हास्यास्पद और
 
८. धर्म को राजनीति और साम्यवाद के घेरे से बाहर निकालना, धर्माचार्यों का प्रथम कर्तव्य है । “धर्म- निरपेक्षता' जैसी संकल्पना कितनी हास्यास्पद और

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