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सृष्टि में कई बातें ऐसी हैं जिन्हें हम केवल हमारे ज्ञानेंद्रियो से जान नहीं सकते। जिन बातों को हम प्रत्यक्ष इंद्रियों से अनुभव नहीं कर सकते उन के लिये अनुमान प्रमाण भी उतना ही प्रामाणिक माना जाता है जितना प्रत्यक्ष प्रमाण। किंतु शर्त यह होती है कि यह अनुमान वर्तमान में इंद्रियों द्वारा अनुभव की हुई बातों के आधार पर किये गए हों।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय १०, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
 
सृष्टि में कई बातें ऐसी हैं जिन्हें हम केवल हमारे ज्ञानेंद्रियो से जान नहीं सकते। जिन बातों को हम प्रत्यक्ष इंद्रियों से अनुभव नहीं कर सकते उन के लिये अनुमान प्रमाण भी उतना ही प्रामाणिक माना जाता है जितना प्रत्यक्ष प्रमाण। किंतु शर्त यह होती है कि यह अनुमान वर्तमान में इंद्रियों द्वारा अनुभव की हुई बातों के आधार पर किये गए हों।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय १०, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
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=== सृष्टि निर्माण की धार्मिक (धार्मिक) मान्यता ===
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=== सृष्टि निर्माण की धार्मिक मान्यता ===
सृष्टि निर्माण से पूर्व अकेले परमात्मा का ही अस्तित्व था। जो अनादि है, अनंत है, सर्वशक्तिमान है, सगुण साकार भी है और निर्गुण निराकार भी है। वह अनंत चैतन्यमय है। अकेलेपन से वह उकता गया। उसे इच्छा हुई कि:<blockquote>'एकाकी न रमते । सोऽकामयत्। एकोऽहं बहुस्याम:।{{Citation needed}}'</blockquote><blockquote>भावार्थ: अकेले मन नहीं रमता। इसलिये अनेक हो जाऊँ। </blockquote>परमात्मा ने तप किया। वह अनेक हो गया। विविध रूपों में प्रकट हो गया। अपने में से ही सारी सृष्टि का निर्माण किया। इस लिये कण कण, चर अचर सब परमात्मा के ही रूप हैं। मिट्टी, जल, जंगल, जमीन, जानवर, जन, ग्रह, तारे और ब्रह्मांड आदि सभी परमात्मा के ही व्यक्त रूप हैं। सारी सृष्टि यह उस परमात्म तत्व का या आत्मतत्व का ही विस्तार मात्र है। इसलिये चराचर में परस्पर आत्मीयता का संबंध है। इस आत्मीयता की भावना को ही सामान्य शब्दावलि में ‘परिवार भावना’ कहा जाता है। जब किसी की आत्मीयता का या परिवार भावना का दायरा चराचर सृष्टि के सभी अस्तित्वों तक बढता है तब वह परमात्मस्वरूप हो जाता है। इसी को संत तुकाराम ‘उरलो उपकारापुरता’ (अब जीना तो बस केवल परोपकार के लिये ही रह गया है) कहते हैं। इसी को धार्मिक (धार्मिक) मान्यताएँ मोक्ष कहतीं हैं।
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सृष्टि निर्माण से पूर्व अकेले परमात्मा का ही अस्तित्व था। जो अनादि है, अनंत है, सर्वशक्तिमान है, सगुण साकार भी है और निर्गुण निराकार भी है। वह अनंत चैतन्यमय है। अकेलेपन से वह उकता गया। उसे इच्छा हुई कि:<blockquote>'एकाकी न रमते । सोऽकामयत्। एकोऽहं बहुस्याम:।{{Citation needed}}'</blockquote><blockquote>भावार्थ: अकेले मन नहीं रमता। इसलिये अनेक हो जाऊँ। </blockquote>परमात्मा ने तप किया। वह अनेक हो गया। विविध रूपों में प्रकट हो गया। अपने में से ही सारी सृष्टि का निर्माण किया। इस लिये कण कण, चर अचर सब परमात्मा के ही रूप हैं। मिट्टी, जल, जंगल, जमीन, जानवर, जन, ग्रह, तारे और ब्रह्मांड आदि सभी परमात्मा के ही व्यक्त रूप हैं। सारी सृष्टि यह उस परमात्म तत्व का या आत्मतत्व का ही विस्तार मात्र है। इसलिये चराचर में परस्पर आत्मीयता का संबंध है। इस आत्मीयता की भावना को ही सामान्य शब्दावलि में ‘परिवार भावना’ कहा जाता है। जब किसी की आत्मीयता का या परिवार भावना का दायरा चराचर सृष्टि के सभी अस्तित्वों तक बढता है तब वह परमात्मस्वरूप हो जाता है। इसी को संत तुकाराम ‘उरलो उपकारापुरता’ (अब जीना तो बस केवल परोपकार के लिये ही रह गया है) कहते हैं। इसी को धार्मिक मान्यताएँ मोक्ष कहतीं हैं।
    
अंडज, स्वेदज, योनिज, उद्भिज आदि चार प्रकार के जीव जी सकें इस लिये परमात्मा ने अपने में से ही सर्वप्रथम जड़ जगत का निर्माण किया।  
 
अंडज, स्वेदज, योनिज, उद्भिज आदि चार प्रकार के जीव जी सकें इस लिये परमात्मा ने अपने में से ही सर्वप्रथम जड़ जगत का निर्माण किया।  
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यहाँ डार्विन के विकासवाद की और मिलर के जीव निर्माण की अधूरी और अयुक्तिसंगत परिकल्पनाओं की निरर्थकता की भी थोड़ी चर्चा करना उचित होगा ।  
 
यहाँ डार्विन के विकासवाद की और मिलर के जीव निर्माण की अधूरी और अयुक्तिसंगत परिकल्पनाओं की निरर्थकता की भी थोड़ी चर्चा करना उचित होगा ।  
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इस सब का तात्पर्य यह है कि सभी चराचर सृष्टि यह एक ही आत्मतत्व का विस्तार है। आत्मतत्व के ही अनगिनत भिन्न भिन्न रूप हैं। धार्मिक (धार्मिक) विचार में अनंत चैतन्य परमात्मा की इच्छा और शक्ति से सृष्टि निर्माण हुई है ऐसा माना गया है। इसलिये सृष्टि के कण कण में चेतना विद्यमान है। सृष्टि का सब से छोटा अस्तित्व परमाणू का माना जाता है। इस परमाणू की रचना में ॠणाणू होते हैं जो चिर काल से अपने केंद्रक के इर्दगिर्द एक कक्षा में घूम रहे हैं । और जबतक सृष्टि का अस्तित्व बना हुवा है घूमते रहेंगे। इन ॠणाणुओं को घूमने के लिये ऊर्जा का स्रोत क्या है? साइंटिस्ट नहीं जानते।
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इस सब का तात्पर्य यह है कि सभी चराचर सृष्टि यह एक ही आत्मतत्व का विस्तार है। आत्मतत्व के ही अनगिनत भिन्न भिन्न रूप हैं। धार्मिक विचार में अनंत चैतन्य परमात्मा की इच्छा और शक्ति से सृष्टि निर्माण हुई है ऐसा माना गया है। इसलिये सृष्टि के कण कण में चेतना विद्यमान है। सृष्टि का सब से छोटा अस्तित्व परमाणू का माना जाता है। इस परमाणू की रचना में ॠणाणू होते हैं जो चिर काल से अपने केंद्रक के इर्दगिर्द एक कक्षा में घूम रहे हैं । और जबतक सृष्टि का अस्तित्व बना हुवा है घूमते रहेंगे। इन ॠणाणुओं को घूमने के लिये ऊर्जा का स्रोत क्या है? साइंटिस्ट नहीं जानते।
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भौतिक शास्त्र की एक प्रगत शाखा है। पार्टिकल फिजिक्स अर्थात् कण भौतिकी। इस शाखा के अंतर्गत ॠणाणू पर कुछ प्रयोग किये गये हैं। एक है  ‘जुडवाँ ॠणाणू’ का और दूसरा है ‘ॠणाणू धारा’ का। इन प्रयोगों के कारण आधुनिक साइंटिस्ट भी ॠणाणू को भी मन और बुध्दि हो सकते हैं ऐसा विचार करने लग गये हैं। धार्मिक (धार्मिक) विचार के अनुसार तो सृष्टि में पूर्णत: चेतना विहीन तो कुछ भी नहीं है। सारा विश्व पंचमहाभूत, मन, बुध्दि और अहंकार इन आठ तत्वों से बनीं अष्टधा प्रकृति का ही बना हुआ है। इसी बात को डॉ जगदीशचंद्र बोस ने धातु और वनस्पति पर प्रयोगों के द्वारा प्रमाणित कर दिखाया था। जड़ तो चेतना के निम्न या अक्रिय स्तर को कहा जाता है। जहाँ अल्पस्तर की चेतना होती है उसे वनस्पति कहते हैं। उससे अधिक चेतना के स्तर को प्राणि कहते हैं। प्राणि आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों से नियंत्रित हो कर प्राण के स्तर पर जीते हैं। उस से भी अधिक चेतना का स्तर अर्थात् मन का स्तर प्राण या ऊर्जा से अत्यंत सूक्ष्म (व्यापक और बलवान) होता है। उस स्तरपर जीनेवाले को मानव कहते हैं। इस से ऊपर के स्तर पर यानी बुध्दि के स्तर पर जीनेवाला श्रेष्ठ मानव होता है। और उससे भी अधिक सूक्ष्म स्तर जो आत्मिक स्तर है उस स्तर पर जीनेवाले मानव को महामानव कहा जा सकता है। आगे का चेतना का स्तर तो अनंत चैतन्य परमात्मा का ही होता है।
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भौतिक शास्त्र की एक प्रगत शाखा है। पार्टिकल फिजिक्स अर्थात् कण भौतिकी। इस शाखा के अंतर्गत ॠणाणू पर कुछ प्रयोग किये गये हैं। एक है  ‘जुडवाँ ॠणाणू’ का और दूसरा है ‘ॠणाणू धारा’ का। इन प्रयोगों के कारण आधुनिक साइंटिस्ट भी ॠणाणू को भी मन और बुध्दि हो सकते हैं ऐसा विचार करने लग गये हैं। धार्मिक विचार के अनुसार तो सृष्टि में पूर्णत: चेतना विहीन तो कुछ भी नहीं है। सारा विश्व पंचमहाभूत, मन, बुध्दि और अहंकार इन आठ तत्वों से बनीं अष्टधा प्रकृति का ही बना हुआ है। इसी बात को डॉ जगदीशचंद्र बोस ने धातु और वनस्पति पर प्रयोगों के द्वारा प्रमाणित कर दिखाया था। जड़ तो चेतना के निम्न या अक्रिय स्तर को कहा जाता है। जहाँ अल्पस्तर की चेतना होती है उसे वनस्पति कहते हैं। उससे अधिक चेतना के स्तर को प्राणि कहते हैं। प्राणि आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों से नियंत्रित हो कर प्राण के स्तर पर जीते हैं। उस से भी अधिक चेतना का स्तर अर्थात् मन का स्तर प्राण या ऊर्जा से अत्यंत सूक्ष्म (व्यापक और बलवान) होता है। उस स्तरपर जीनेवाले को मानव कहते हैं। इस से ऊपर के स्तर पर यानी बुध्दि के स्तर पर जीनेवाला श्रेष्ठ मानव होता है। और उससे भी अधिक सूक्ष्म स्तर जो आत्मिक स्तर है उस स्तर पर जीनेवाले मानव को महामानव कहा जा सकता है। आगे का चेतना का स्तर तो अनंत चैतन्य परमात्मा का ही होता है।
    
इसी सृष्टि निर्माण की मान्यता के कारण यह स्थापित होता है कि चराचर में उसी परमात्मा का वास है। एक ही आत्मतत्व की जड़ और चेतन अभिव्यक्तियों से विश्व बना हुआ है। इसी का अर्थ है कि चराचर के सभी अस्तित्व एक दूसरे से आत्मीयता के बंधन से जुडे हए हैं। इस आत्मीयता की समझने में अत्यंत सहज और सरल अभिव्यक्ति परिवार भावना है। परिवार और परिवार भावना के विषय में अधिक जानकारी हम [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|कुटुंब]] अध्याय में लेंगे ।  
 
इसी सृष्टि निर्माण की मान्यता के कारण यह स्थापित होता है कि चराचर में उसी परमात्मा का वास है। एक ही आत्मतत्व की जड़ और चेतन अभिव्यक्तियों से विश्व बना हुआ है। इसी का अर्थ है कि चराचर के सभी अस्तित्व एक दूसरे से आत्मीयता के बंधन से जुडे हए हैं। इस आत्मीयता की समझने में अत्यंत सहज और सरल अभिव्यक्ति परिवार भावना है। परिवार और परिवार भावना के विषय में अधिक जानकारी हम [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|कुटुंब]] अध्याय में लेंगे ।  
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ये सभी प्राणि आज जैसे दिखाई देते हैं उसी रूप में उन्हें परमात्मा ने प्रकृति के साथ संयोग कर उन का निर्माण किया। अमीबा बना तो जैसा आज है वैसा ही निर्माण हुआ और मानव बना तो आज जैसा है वैसा ही निर्माण किया गया।
 
ये सभी प्राणि आज जैसे दिखाई देते हैं उसी रूप में उन्हें परमात्मा ने प्रकृति के साथ संयोग कर उन का निर्माण किया। अमीबा बना तो जैसा आज है वैसा ही निर्माण हुआ और मानव बना तो आज जैसा है वैसा ही निर्माण किया गया।
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मानव भी निर्माण हुआ तो समाज के और यज्ञ के साथ निर्माण हुआ। श्रीमद्भगवद्गीता में अध्याय 3 में श्लोक 10 और 11 में भगवान कहते हैं<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3.10 and 3.11</ref> -<blockquote>सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति ।</blockquote><blockquote>अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ 10 ॥</blockquote>अर्थ : कल्प के आदि में ब्रह्माने यज्ञसहित प्रजाओं का निर्माण कर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ (नि:स्वार्थ लोकहितरूपी कार्य सामान्य शब्दों में पारिवारिक व्यवहार) के द्वारा वृध्दिको प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगोंं को इच्छित भोग प्रदान करनेवाला हो। यह है मानव और अन्य मानव यानी सामाजिक संबंधों की धार्मिक (धार्मिक) मान्यता। <blockquote>देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व: ।</blockquote><blockquote>परस्परं भावयंत: श्रेय: परमवाप्स्यथ ॥ 11 ॥</blockquote>अर्थ : तुम लोग इस यज्ञ (सूर्य, पृथ्वी, वायू, जल, अग्नि आदि महाभूतों को जिन्हें देवता माना गया है उन की पुष्टि के लिये होम-हवन आदि) के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगोंं को उन्नत करें। इस प्रकार नि:स्वार्थ भाव से (सामान्य शब्दों में पारिवारिक व्यवहार) एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।
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मानव भी निर्माण हुआ तो समाज के और यज्ञ के साथ निर्माण हुआ। श्रीमद्भगवद्गीता में अध्याय 3 में श्लोक 10 और 11 में भगवान कहते हैं<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3.10 and 3.11</ref> -<blockquote>सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति ।</blockquote><blockquote>अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ 10 ॥</blockquote>अर्थ : कल्प के आदि में ब्रह्माने यज्ञसहित प्रजाओं का निर्माण कर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ (नि:स्वार्थ लोकहितरूपी कार्य सामान्य शब्दों में पारिवारिक व्यवहार) के द्वारा वृध्दिको प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगोंं को इच्छित भोग प्रदान करनेवाला हो। यह है मानव और अन्य मानव यानी सामाजिक संबंधों की धार्मिक मान्यता। <blockquote>देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व: ।</blockquote><blockquote>परस्परं भावयंत: श्रेय: परमवाप्स्यथ ॥ 11 ॥</blockquote>अर्थ : तुम लोग इस यज्ञ (सूर्य, पृथ्वी, वायू, जल, अग्नि आदि महाभूतों को जिन्हें देवता माना गया है उन की पुष्टि के लिये होम-हवन आदि) के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगोंं को उन्नत करें। इस प्रकार नि:स्वार्थ भाव से (सामान्य शब्दों में पारिवारिक व्यवहार) एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।
    
कुछ अन्य बिंदु इस प्रकार हैं:
 
कुछ अन्य बिंदु इस प्रकार हैं:
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# सृष्टि में परस्पर संबद्धता है। सृष्टि का हर पदार्थ अन्य सभी पदार्थोंको प्रभावित भी करता है और उन से प्रभावित भी होता है। सृष्टि का प्रत्येक घटक एक दूसरे से अपरोक्ष या परोक्ष रूप में अन्गांगी भाव से जुड़ा है।   
 
# सृष्टि में परस्पर संबद्धता है। सृष्टि का हर पदार्थ अन्य सभी पदार्थोंको प्रभावित भी करता है और उन से प्रभावित भी होता है। सृष्टि का प्रत्येक घटक एक दूसरे से अपरोक्ष या परोक्ष रूप में अन्गांगी भाव से जुड़ा है।   
 
# सृष्टि में जिसे जड़ पदार्थ माना जाता है उस के 3 प्रकार होते हैं। एक प्रकार के पदार्थ ऐसे हैं जिनका पुनर्निर्माण चक्रियता से होता रहता है। जैसे हवा में प्राणवायू का प्रमाण, जल की उपलब्धता आदि। दूसरे पदार्थ ऐसे हैं जिनका कुछ मात्रा में पुनर्भरण किया जा सकता है। लकड़ी, जल, हवा, खेतों की उर्वरता आदि ।  लेकिन तीसरे ‘खनिज’, ऐसे पदार्थ होते हैं जिनका पुनर्निर्माण सहजता से और अल्प अवधि में संभव नहीं है। इनके तीनों के उपभोग के लिये भी अलग अलग निकष अनिवार्य हैं। प्रकृति में विपुल मात्रा में उपलब्ध चक्रीयता से पुनर्निर्माण होनेवाले पदार्थों का उपयोग जितना चाहें करें। इसमें उन पदार्थों की विपुलता होना आवश्यक शर्त है। साथ ही में उस का दुरूपयोग (प्रदूषण) नहीं हो। दूसरे प्रकार के लकडी जैसे पदार्थो का उपयोग भी उन पदार्थों के पुनर्भरण करने की क्षमता जितना या उससे थोडा कम ही करें। और खनिजों का उपयोग तो न्यूनतम करें। अनिवार्यता में ही करें।  
 
# सृष्टि में जिसे जड़ पदार्थ माना जाता है उस के 3 प्रकार होते हैं। एक प्रकार के पदार्थ ऐसे हैं जिनका पुनर्निर्माण चक्रियता से होता रहता है। जैसे हवा में प्राणवायू का प्रमाण, जल की उपलब्धता आदि। दूसरे पदार्थ ऐसे हैं जिनका कुछ मात्रा में पुनर्भरण किया जा सकता है। लकड़ी, जल, हवा, खेतों की उर्वरता आदि ।  लेकिन तीसरे ‘खनिज’, ऐसे पदार्थ होते हैं जिनका पुनर्निर्माण सहजता से और अल्प अवधि में संभव नहीं है। इनके तीनों के उपभोग के लिये भी अलग अलग निकष अनिवार्य हैं। प्रकृति में विपुल मात्रा में उपलब्ध चक्रीयता से पुनर्निर्माण होनेवाले पदार्थों का उपयोग जितना चाहें करें। इसमें उन पदार्थों की विपुलता होना आवश्यक शर्त है। साथ ही में उस का दुरूपयोग (प्रदूषण) नहीं हो। दूसरे प्रकार के लकडी जैसे पदार्थो का उपयोग भी उन पदार्थों के पुनर्भरण करने की क्षमता जितना या उससे थोडा कम ही करें। और खनिजों का उपयोग तो न्यूनतम करें। अनिवार्यता में ही करें।  
# यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे यह तत्व सृष्टि में चराचर को लागू है। धातु जैसी एक जड़ वस्तु के एक कण में वैसे ही गुण लक्षण पाए जाते हैं जैसे उसी धातु के बडे या विशाल धातुखंड में पाए जाते हैं। उसी तरह हर जीवंत इकाई में भी गुण लक्षणों में समानता होती है। मानव जैसा ही मानव समाज भी एक जीवंत इकाई है। इसलिये मानव की तरह ही समाज की भी आवश्यकताएँ, इच्छाएँ, सुख दुख भावनाएँ होतीं हैं। दुनिया के सभी अस्तित्व अष्टधा प्रकृति से बनें हैं। सत्व गुण (बुध्दि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) और पृथ्वी, आप, तेज, वायू और आकाश ये अष्टधा प्रकृति के आठ तत्व हैं। इन में से मन, बुध्दि और अहंकार का स्तर मानव में बहुत अधिक होता है। पशू, पक्षी, प्राणियों में भी सत्व, रज, तम ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन उनका स्तर निम्न होता है। धातू, मिट्टी, जल जैसे पंचमहाभौतिक पदार्थों में भी सत्व गुण (बुध्दि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन अक्रिय होते हैं। या इन का स्तर अत्यंत निम्न होता है। डॉ. जगदीशचंद्र बोस ने वनस्पति और धातु पर प्रयोग कर उपर्युक्त प्राचीन काल से ज्ञात धार्मिक (धार्मिक) ज्ञान की पुष्टि ही की थी। इस की जानकारी हमने [[Concept of Creation of Universe (सृष्टि निर्माण की मान्यता)|इस]] अध्याय में प्राप्त की है ।  
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# यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे यह तत्व सृष्टि में चराचर को लागू है। धातु जैसी एक जड़ वस्तु के एक कण में वैसे ही गुण लक्षण पाए जाते हैं जैसे उसी धातु के बडे या विशाल धातुखंड में पाए जाते हैं। उसी तरह हर जीवंत इकाई में भी गुण लक्षणों में समानता होती है। मानव जैसा ही मानव समाज भी एक जीवंत इकाई है। इसलिये मानव की तरह ही समाज की भी आवश्यकताएँ, इच्छाएँ, सुख दुख भावनाएँ होतीं हैं। दुनिया के सभी अस्तित्व अष्टधा प्रकृति से बनें हैं। सत्व गुण (बुध्दि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) और पृथ्वी, आप, तेज, वायू और आकाश ये अष्टधा प्रकृति के आठ तत्व हैं। इन में से मन, बुध्दि और अहंकार का स्तर मानव में बहुत अधिक होता है। पशू, पक्षी, प्राणियों में भी सत्व, रज, तम ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन उनका स्तर निम्न होता है। धातू, मिट्टी, जल जैसे पंचमहाभौतिक पदार्थों में भी सत्व गुण (बुध्दि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन अक्रिय होते हैं। या इन का स्तर अत्यंत निम्न होता है। डॉ. जगदीशचंद्र बोस ने वनस्पति और धातु पर प्रयोग कर उपर्युक्त प्राचीन काल से ज्ञात धार्मिक ज्ञान की पुष्टि ही की थी। इस की जानकारी हमने [[Concept of Creation of Universe (सृष्टि निर्माण की मान्यता)|इस]] अध्याय में प्राप्त की है ।  
 
# जीवन से सम्बंधित विभिन्न विषय एक दूसरे से अन्गांगी भाव से जुड़े होते हैं । अंग को हानि अंगी की और अंगी की हानि अंग की हानि होती है । फिर भी अंग से अंगी का महत्व अधिक होता है । अंग नहीं होने पर भी अंगी नष्ट नहीं होता लेकिन अंगी के नष्ट होने पर अंग नष्ट होता ही है ।  क्यों कि अंग का अस्तित्व ही अन्गी पर निर्भर करता है ।  जीवन और जगत का निर्माण आत्मतत्व से होने के कारण आत्मतत्व का ज्ञान याने अध्यात्म यह परा, अपरा से लेकर सामाजिक शास्त्रों से लेकर विज्ञान तन्त्रज्ञान तक सभी विषयों का अंगी है । अन्य सभी विषय उसके अंग-उपांग हैं ।   
 
# जीवन से सम्बंधित विभिन्न विषय एक दूसरे से अन्गांगी भाव से जुड़े होते हैं । अंग को हानि अंगी की और अंगी की हानि अंग की हानि होती है । फिर भी अंग से अंगी का महत्व अधिक होता है । अंग नहीं होने पर भी अंगी नष्ट नहीं होता लेकिन अंगी के नष्ट होने पर अंग नष्ट होता ही है ।  क्यों कि अंग का अस्तित्व ही अन्गी पर निर्भर करता है ।  जीवन और जगत का निर्माण आत्मतत्व से होने के कारण आत्मतत्व का ज्ञान याने अध्यात्म यह परा, अपरा से लेकर सामाजिक शास्त्रों से लेकर विज्ञान तन्त्रज्ञान तक सभी विषयों का अंगी है । अन्य सभी विषय उसके अंग-उपांग हैं ।   
 
# जब भी पृथ्वी पर पाप बढ़ जाता है आसमानी संकट का सामना मानव जाति के उस समूह को करना पड़ता है ।  शायद बड़ी संख्या में लोगोंं को उनके बुरे कर्मों का फल देने की यह व्यवस्था है ।  
 
# जब भी पृथ्वी पर पाप बढ़ जाता है आसमानी संकट का सामना मानव जाति के उस समूह को करना पड़ता है ।  शायद बड़ी संख्या में लोगोंं को उनके बुरे कर्मों का फल देने की यह व्यवस्था है ।  
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# सृष्टि की व्यवस्था के नियमों को धर्म कहते हैं । इन धर्म के नियमों का अनुपालन करने से प्रकृति के उपभोग से सुख शान्ति मिलती है।  नियमों को तोड़ने की सामर्थ्य केवल मनुष्य को प्राप्त है । अन्य किसी प्राणी में सृष्टि के संतुलन को बिगाड़ने या प्रदूषित करने की सामर्थ्य नहीं है। अतः प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने की जिम्मेदारी भी मानव जाति की ही है ।   
 
# सृष्टि की व्यवस्था के नियमों को धर्म कहते हैं । इन धर्म के नियमों का अनुपालन करने से प्रकृति के उपभोग से सुख शान्ति मिलती है।  नियमों को तोड़ने की सामर्थ्य केवल मनुष्य को प्राप्त है । अन्य किसी प्राणी में सृष्टि के संतुलन को बिगाड़ने या प्रदूषित करने की सामर्थ्य नहीं है। अतः प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने की जिम्मेदारी भी मानव जाति की ही है ।   
 
# विविधता सृष्टि का वास्तव है । अनंत प्रकारकी विविधता सृष्टि में है । अरबों पत्तोंवाले पेड़ के कोई भी दो पत्ते एकदम एक जैसे नहीं होते । दोनों में अंतर होता ही है । अतः विविधता बनाए रखना सृष्टि सुसंगत होता है ।  इस दृष्टि से यांत्रिकता सृष्टि के स्वभाव की विरोधी होती है । सामान्यत: यंत्र निर्माण किये हुए पदार्थों में समानता लाने का प्रयास करते हैं । ऐसे यंत्र सृष्टि के स्वाभाविक जीवन के विरोधी हैं ।   
 
# विविधता सृष्टि का वास्तव है । अनंत प्रकारकी विविधता सृष्टि में है । अरबों पत्तोंवाले पेड़ के कोई भी दो पत्ते एकदम एक जैसे नहीं होते । दोनों में अंतर होता ही है । अतः विविधता बनाए रखना सृष्टि सुसंगत होता है ।  इस दृष्टि से यांत्रिकता सृष्टि के स्वभाव की विरोधी होती है । सामान्यत: यंत्र निर्माण किये हुए पदार्थों में समानता लाने का प्रयास करते हैं । ऐसे यंत्र सृष्टि के स्वाभाविक जीवन के विरोधी हैं ।   
# सृष्टि में सीधी रेखा में कोई चीज नहीं होती । सीधी रेखा हिंसा निर्माण करती है । तीर या बन्दूक की गोली सीधी रेखा में ही जाते हैं । और हिंसा के ये सबसे बड़े साधन हैं । धार्मिक (धार्मिक) शिल्प में, इमारतों या घरों की बनावट में इसीलिये यथासंभव सीधी रेखाओं को टाला जाता है ।
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# सृष्टि में सीधी रेखा में कोई चीज नहीं होती । सीधी रेखा हिंसा निर्माण करती है । तीर या बन्दूक की गोली सीधी रेखा में ही जाते हैं । और हिंसा के ये सबसे बड़े साधन हैं । धार्मिक शिल्प में, इमारतों या घरों की बनावट में इसीलिये यथासंभव सीधी रेखाओं को टाला जाता है ।
    
==References==
 
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