Difference between revisions of "बाल संस्कार - पुण्यभूमि भारत"
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भारत के पश्चिमी तट के गुजरात महाराष्ट्र तथा कर्नाटक राज्य में सह्याद्रि पर्वतमाला का विस्तार है। दक्षिण भारत की प्रमुख नदियों (गोदावरी, कृष्णा, कावेरी) के उद्गम-स्थान इसी श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। त्रयम्बकेश्वर, महाबलेश्वर,भीमशकिर, ब्रह्मगिरि, भगवती भवानी, बौद्ध चैत्य प्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र इसी पर्वत-श्रेणी में विराजमान हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज से सम्बन्धित कई दुर्ग (शिवनेरी, पन्हालगढ़, प्रतापगढ़, चाकन, रायगढ़) और शिवाजी महाराज की समाधि इस पर्वत की ऐतिहासिक धरोहर हैं। सह्याद्रि उत्तर-दक्षिण खड़ी दीवार के रूप में है। तटीय क्षेत्र में जाने के लिए थाल घाट, भोरघाट, नाना दरी, पालघाट होकर रेल व सड़क मार्ग बनाये गये हैं। सूरत, मुम्बई, रत्नागिरि, पजिम, मंगलौरआदि नगर इसके पश्चिम में समुद्र की ओर स्थित हैं। ब्रह्माजी ने सृष्टि के प्रारम्भ में यहाँ पर यज्ञ किया। दो देंत्यों अतिबल और महाबल ने यज्ञ में बाधा डाली तो विष्णुऔर भगवती आदि ने उनको मारकर यज्ञ को निर्विघ्न पूर्ण करा दिया। भगवान् विष्णु यहाँ पर अतिबलेश्वर, ब्रह्मा कोटीश्वर तथा शंकर महाबलेश्वर के रूप में विराजमान होकर आज भी प्रतिष्ठित हैं। परशुराम का आवास इसी पर्वत पर है। मील दूर पर वसुधारा तीर्थ है जहाँ आठ वसुओं ने अपनी मुक्ति के लिए तप किया था। सदीं के दिनों में इस मन्दिर के कपाट बन्द रहते हैं तथा गर्मी आने पर पुन: खुल जाते हैं। जोशीमठ में शीतकाल में बद्रीनाथ की चल प्रतिमा लाकर स्थापित की जाती है और यहीं पर इसकी पूजा-अर्चना की जाती हैं। | भारत के पश्चिमी तट के गुजरात महाराष्ट्र तथा कर्नाटक राज्य में सह्याद्रि पर्वतमाला का विस्तार है। दक्षिण भारत की प्रमुख नदियों (गोदावरी, कृष्णा, कावेरी) के उद्गम-स्थान इसी श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। त्रयम्बकेश्वर, महाबलेश्वर,भीमशकिर, ब्रह्मगिरि, भगवती भवानी, बौद्ध चैत्य प्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र इसी पर्वत-श्रेणी में विराजमान हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज से सम्बन्धित कई दुर्ग (शिवनेरी, पन्हालगढ़, प्रतापगढ़, चाकन, रायगढ़) और शिवाजी महाराज की समाधि इस पर्वत की ऐतिहासिक धरोहर हैं। सह्याद्रि उत्तर-दक्षिण खड़ी दीवार के रूप में है। तटीय क्षेत्र में जाने के लिए थाल घाट, भोरघाट, नाना दरी, पालघाट होकर रेल व सड़क मार्ग बनाये गये हैं। सूरत, मुम्बई, रत्नागिरि, पजिम, मंगलौरआदि नगर इसके पश्चिम में समुद्र की ओर स्थित हैं। ब्रह्माजी ने सृष्टि के प्रारम्भ में यहाँ पर यज्ञ किया। दो देंत्यों अतिबल और महाबल ने यज्ञ में बाधा डाली तो विष्णुऔर भगवती आदि ने उनको मारकर यज्ञ को निर्विघ्न पूर्ण करा दिया। भगवान् विष्णु यहाँ पर अतिबलेश्वर, ब्रह्मा कोटीश्वर तथा शंकर महाबलेश्वर के रूप में विराजमान होकर आज भी प्रतिष्ठित हैं। परशुराम का आवास इसी पर्वत पर है। मील दूर पर वसुधारा तीर्थ है जहाँ आठ वसुओं ने अपनी मुक्ति के लिए तप किया था। सदीं के दिनों में इस मन्दिर के कपाट बन्द रहते हैं तथा गर्मी आने पर पुन: खुल जाते हैं। जोशीमठ में शीतकाल में बद्रीनाथ की चल प्रतिमा लाकर स्थापित की जाती है और यहीं पर इसकी पूजा-अर्चना की जाती हैं। | ||
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+ | द्वारिका धाम | ||
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+ | चारधाम तथा सप्तपुरियों मेंश्रेष्ठ द्वारिका भगवान् कृष्ण को अति प्रिय रही है। आदि शांकराचार्य ने यहाँ शारदा पीठ की स्थापना की और अपने शिष्य सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र) को पीठाधीश्वर के रूप में अधिष्ठित किया ।महाभारत, हरिवंश पुराण, वायुपुराण,भागवत, स्कन्दपुराण में द्वारिका का गौरवपूर्ण वर्णन है। भगवान् कृष्ण ने अपना अन्तिम समय यहीं पर व्यतीत किया। कृष्ण ने पापी कांस का वध मथुरा में किया, उससे क्रोधित होकर मगधराज जरासंघ ने कालयवन को साथ लेकरमथुरा पर आक्रमण किया। कृष्ण ने बचाव के लिए सौराष्ट्र में समुद्रतट पर जाना उचित समझा। वहाँउन्होंने सुदूढ़दुर्ग का निर्माण कियाऔरद्वारिका की स्थापना की। कृष्णा के इहलोक लीला-संवरण के साथ ही द्वारिका समुद्र में डूब गयी।आज द्वारिका एक छोटा नगरअवश्य है, परन्तुअपनेअन्तस्तल में गौरवपूर्ण सांस्कृतिक व ऐतिहासिक धरोहर छिपाकर रखे हुए है। यहाँ के मन्दिरों में रणछोड़राय का प्रमुख मन्दिर है। इसे द्वारिकाधीश मन्दिर भी कहते हैं। यह सात मंजिलों वाला भव्य मन्दिर है। कहते हैं रणछोड़राय की मूल मूर्ति को बोडाणा भक्त डाकोरजी ले गये। आजकल वह वहीं विराजमान है और रणछोड़राय मन्दिरमें स्थापित मूर्ति लाडवा ग्राम के एक कुप से प्राप्त हुईथी। रणछोड़रायजी के मन्दिर के दक्षिण में त्रिविक्रम मन्दिर तथा उत्तर में प्रद्युम्न जी का मन्दिरहै। बेट द्वारिका, सुदामा पुरी (पोरबन्दर)पास में ही स्थित है। महाप्रभु वल्लभाचार्य तथा श्री रामानुजाचार्य द्वारिका पधारे थे। स्वामी माधवाचार्य सन 1236-40 के मध्य यहाँ आये| | ||
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+ | छब्जाथपुरी | ||
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+ | जगन्नाथ पुरी उड़ीसा में गांगा सागर तट पर स्थित पावन तीर्थ स्थान | ||
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+ | है। यह शैव, वैष्णव तथा बौद्ध सम्प्रदाय के भक्तों का श्रद्धा-कन्द्र है। यह | ||
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+ | चारपावन धामों तथा 51शक्तिपीठोंमें सेएक है। पुराणोंमेंपुरुषोत्तम तीर्थ | ||
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+ | नाम से इसका वर्णन किया गया है। स्कन्द व ब्रह्मपुराण के अनुसारइसकी | ||
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+ | जगन्नाथ मन्दिर गांगवंशीय राजा अनंग भीमदेव ने 12वीं शताब्दी में | ||
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+ | बनवाया। 16वीं शताब्दी में बंगाल के मुसलमान शासक हुसेनशाह तथा | ||
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+ | पठान काला पहाड़ ने पुरी के मन्दिर को क्षतिग्रस्त किया। मराठों ने | ||
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+ | जगन्नाथ मन्दिर की व्यवस्था के लिए वार्षिक 27 हजार रुपये की राशि | ||
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+ | अनुदान के रूप में स्वीकृत की। श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा की | ||
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+ | काष्ठ-मूर्तियाँ मन्दिरमें प्रतिष्ठित हैं। इन मूर्तियों को रथयात्रा केअवसर | ||
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+ | पर निकाल कर रथोंमें स्थापित कर समुद्रतट-स्थित मौसी जी के मन्दिर | ||
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+ | में 10 दिन रखा जाता है। यात्रा में लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं। मूतियों | ||
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+ | की वापसीभी बड़ेधूमधाम और हर्षोंल्लास के साथ सम्पन्न होती है। इस | ||
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+ | तीर्थ की विशेषता यह है कि यहाँ किसी प्रकार के जाति-भेद को कोई | ||
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+ | स्थान नहीं है। इस संबंध में एक लोकोक्ति प्रसिद्ध हो गयी है : | ||
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+ | "जगन्नाथ का भात, जगत् पसारे हाथ, पूछे जात न पात।" | ||
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+ | जगन्नाथपुरी में कई पवित्र स्थल स्नान के लिए महत्वपूर्ण हैं जिनमें | ||
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+ | महोदधि, रोहिणीकुण्ड, शवेत गांग, लोकनाथ सरोवर तथा चक्रतीर्थ प्रमुख | ||
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+ | हैं। गुंडीचा मन्दिर (मौसी का मन्दिर),श्री लोकनाथ मन्दिर, सिद्धि-विनायक | ||
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+ | मन्दिर यहाँ के अन्य मन्दिर हैं। जगन्नाथपुरी से 18 कि.मी. दूर साक्षी | ||
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+ | गोपाल मन्दिर है,इसके दर्शन के बिना जगन्नाथपुरी की यात्रा अधूरी मानी | ||
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+ | जाती है।आदि शांकराचार्य ने इस पवित्र स्थान की यात्रा की और गोवर्धन | ||
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+ | पीठ की स्थापना की। रामानुजाचार्य और रामानन्द ने भी इस क्षेत्र की | ||
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+ | यात्रा की। रामानन्द जी के प्रमुख शिष्य कबीर ने समता का संदेश प्रचारित | ||
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+ | किया। आज भी बड़ी संख्या कबीरपंथी पुरी में रहते हैं तथा भगवान् | ||
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+ | जगन्नाथ की रथयात्रा में बढ़चढ़कर भागीदारी करते हैं। मलूक दास, | ||
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+ | चैतन्य महाप्रभु भी यहाँ पधारे। | ||
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+ | स्थापना उज्जयिनी-नरेश इन्द्रद्युम्न ने सत्ययुग में की थी। वर्तमान | ||
==References== | ==References== |
Revision as of 16:12, 5 January 2021
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्वेश्चेव दक्षिणम्।
वर्ष तद्भारत नाम भारती यत्र सन्तति:।
हिन्द महासागर के उत्तर में तथा हिमालय के दक्षिण में स्थित महान देश भारतवर्ष के नाम से जाना जाता है, यहाँ का पुत्र रूप समाज भारतीय हैं । प्रत्येक भारतीय को यह देश प्राणों से प्यारा है। क्योंकि इसका कण-कण पवित्र है, तभी तो प्रत्येक सच्चा भारतीय (हिन्दू) गाता है-"कण-कण में सोया शहीद, पत्थर-पत्थर इतिहास है"। इस भूमि पर पग-पग में उत्सर्ग और शौर्य का इतिहास अंकित है। स्वामी विवेकानन्द ने श्रीपाद शिला पर इसका जगन्माता के रूप में साक्षात्कार किया। वह भारत माता हमारी आराध्या है। उसके स्वरूप का वर्णन वाणी व लेखनी द्वारा असंभव है, फिर भी माता के पुत्र के नाते उसके भव्य-दिव्य स्वरूप का अधिकाधिक ज्ञान हमें प्राप्त करना चाहिए। कैलास से कन्याकुमारी, अटक से कटक तक विस्तृत इस महान भारत के प्रमुख ऐतिहासिक स्थलों व धार्मिक स्थानों का वर्णन यहाँ दिया जा रहा हैं ।
इस लेख में पुण्यभूमि भारत की विशेष परिचयों को दर्शाया गया है जिनसे हमारे पुरातन इतिहास को वर्त्तमान की धारा के साथ परिचय बनाया जा सके | इतिहास के शौर्य को भुलाने के कारण आज की पीढ़ी अपने आपको निर्बल और असहाय समझती है |
पुण्यभूमि भारत का परिचय निम्नलिखित बिन्दुओ द्वारा :-
- पवित्र नदियाँ
- पंच सरोवर
- सप्त पर्वत
- चार धाम
- मोक्षदायिनी सप्तपुरी
- द्वादश ज्योतिलिंग
- शक्तिपीठ
- उत्तर-पश्चिम एवं उत्तर भारत
- पूर्वोत्तर एवं पूर्वी भारत
- मध्य भारत
- दक्षिण भारत
आइये अब हम सभी इन सभी बिन्दुओ को विस्तृत रूप से जानने का प्रयास करेंगे |
पवित्र नदियाँ
अनेक पवित्र नदियाँ अपने पवित्र जल से भारत माता का अभिसिंचन करती हैं। सम्पूर्ण देश में इन नदियों को आदर व श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता है। इनके पवित्र तटों पर विभिन्न धार्मिक व सांस्कृतिक आयोजन किये जाते हैं, प्रत्येक हिन्दू इनके जल में डुबकी लगाकर अपने आपको को धन्य मानता है। ये नदियाँ भारत के उतार-चढ़ाव की साक्षी हैं। हमारी सांस्कृतिक धरोहर के रूप में अंसख्य तीर्थ इन नदियों के तटों पर विकसित हुए।
गंगा
गंगा भारत की पवित्रतम नदी है। सूर्यवंशी राजा भगीरथ के प्रयासों से यह भारत-भूमि पर अवतरित हुई। उत्तरप्रदेश के उत्तरकाशी जिले में गंगोत्री शिखर पर गोमुख इसका उद्गम स्थान है। गंगोत्री के हिम से पुण्यसलिला गंगा अनवरत जल प्राप्त करती रहती है। यह गंगा-जल की ही विशेषता है कि अनेक वर्षों तक रखा रहने पर भी यह दूषित नहीं होता। गंगा-जल का एक छींटा पापी को भी पवित्र करने की क्षमता रखता है। गंगा के तट पर हरिद्वार, प्रयाग, काशी, पाटलिपुत्र आदि पवित्र नगर श्रद्धालुजनों को आध्यात्मिक शान्ति प्रदान करते हैं। गंगा भागीरथी, जाह्नवी, देवनदी आदि नामों से भी पुकारी जाती है। यमुना, गण्डक, सोन, कोसी के जल को समेटते हुए गंगा समुद्र में मिलने से लगभग 300 कि मी. पहले ही कई शाखाओं में विभक्त होकर ब्रह्मपुत्र के साथ मिलकर विश्व के सबसे बड़े त्रिभुजाकार तटवर्ती मैदान (डेल्टा) का निर्माण करती, गोमुख गंगोत्री से १४५० कि.मी. लम्बी यात्रा पूर्ण कर पतितपावनी गंगा गंगासागर में मिल जाती है। लगभग १२५ कि. मी. दक्षिण में गांगासागर नाम का पवित्र स्थल है, यहीं पर कपिल मुनि का आश्रम था जहाँ सगर-पुत्रों की भस्मी को आत्मसात कर गंगा ने उनका उद्धार किया था। हिन्दू की मान्यता है कि गंगा के किनारे किये गये पुण्य कर्मों का फल कई गुना अधिक हो जाता है। गंगा-तट पर पहुँचकर पापी के हुदय में अच्छे भावों का संचार होने लगता है। आषाढ़, कार्तिक, माघ, वैशाख की पूर्णिमा, ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, माघ शुक्ल सप्तमी तथा सोमवती अमावस्या को गंगा में स्नान करने से अक्षय पुण्य प्राप्त होता है। ऋग्वेद, महाभारत, भागवत पुराण, रामायण आदि में गंगा का महात्म्य विस्तार से वर्णित है। सच्चाई तो यह है कि गांगा सब तीर्थों का प्राण है। भागवत पुराण के अनुसार गंगावतरण वैशाख शुक्ल तृतीया को तथा हिमालय से मैदान में निर्गम ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को हुआ।
यमुना
सूर्य-पुत्री यमुना भारत की पवित्रतम नदियों में से एक है। गांगा के स्मरण के साथ-साथ यमुना का भी स्मरण किया जाता है, तभी तो स्नान करते समय इसका आहवान करके पवित्र होने की कामना की जाती है
“गंगे च यमुने चैव गोदावर सरस्वती। नर्मदे सिन्धु कावेरेि जलेअस्मिन् सन्निधिों कुरू।"
यमुना का उद्गम यमुनोत्री शिखर से है। जहाँ देवी यमुना का मन्दिर बना हुआ है। हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र में १५० कि.मी. की यात्रा करते हुए यह नदी अनेक छोटे-बड़े स्त्रोतों से जल ग्रहण कर बड़ी नदी बनकर मैदानी भाग में प्रवेश करती है। गांगा के लगभग समानान्तर बहते हुए यमुना प्रयाग में गंगा में मिल जाती है। मथुरा, वृदांवन, आगरा, इन्द्रप्रस्थ(दिल्ली) आदि प्राचीन नगर इसके किनारे बसे हैं। यमुना को यम की बहिन कहा जाता है। यम द्वितीय (मैयादूज) को यमुना में स्नान करना बड़ा पुण्य-प्रदाता है। कार्तिक मास यमुनास्नान के लिए सर्वोत्तम माना जाता है।
सिन्धु
सिन्धु को केवल भारतवर्ष की वरन विश्व की विशाल नदी होने का श्रेय प्राप्त है। सिन्धु का उद्गम-स्थान तिब्बत में स्थित केंलास-मानसरोवर के पास है। २५० कि. मी. तिब्बत में तथा ५५० कि.मी. जम्मू-कश्मीर राज्य में बहने के बाद यह पाकिस्तान में प्रवेश करती है। कश्मीर में सिन्धु नदी ५२०० मीटर गहरी घाटी में होकर बहती है। पाकिस्तान में सिन्धु नदी में सतलुज तथा सहायक नदियाँ झेलम (वितस्ता), चिनाव(चन्द्रभाग), रावी, व्यास आपस में संगम बनाती हुई मिलती हैं। सिन्धु के समान विशालता के कारण ही इसका नाम सिन्धु पड़ा। इसकी लम्बाई २८८० कि. मी. है। इसका जल-ग्रहण क्षेत्र ११,६६,००० वर्ग कि.मी. में विस्तृत है। कराची के समीप यह नदी सिन्धुसागर में मिल जाती है। कैलास मानसरोवर, साधुवेला, सक्खर इसी के तट पर स्थित हैं। ऋग्वेद में वर्णित सप्त सिन्धु प्रदेश इसके दोनों ओर पंजाब तक विस्तृत था। महाभारत में इस प्रदेश को सौवीर कहा गया है। वर्तमान पाकिस्तान में सिन्ध प्रान्त इसी नदी के आस-पास स्थित प्रदेश है। वैदिक संस्कृति का विकास यहीं हुआ। मोहन जोदड़ो व हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त जानकारी से इस प्रदेश के प्राचीन वैभव का पता चलता है।
सरस्वती
वेदों में उल्लिखित यह पवित्र नदी हिमालय से निकलकर वर्तमान हरियाणा, राजस्थान, गुजरात प्रदेशों को सींचती हुई सिन्धुसागर में मिलती थी। कालान्तर में भूगर्भित हलचलों के कारण अम्बाला के आस-पास का क्षेत्र ऊंचा हो गया, जिससे इस नदी का जल अन्य सरेिताओं में मिल गया और यह नदी विलुप्त हो गयी। एक अन्य खोज के अनुसार इस नदी का जल रिस-रिसकर पृथ्वी के अन्दर चला गया। आज भी हरियाणा तथा राजस्थान प्रदेशों में पृथ्वी के अन्दर ही अन्दर प्रवाहित हो रही है। गुजरात के कच्छ के रण में विलीन होने वाली लूनी नदी को इसका अवशेष कहा जा सकता है। वेदों की रचना इस नदी के आसपास के प्रदेश (सारस्वत प्रदेश) में हुई। मनु के अनुसार पृथूदक (पेहव) इसी नदी के तट पर बसा था |
"सरस्वत्यश्च तीथॉनि तीर्थभ्यश्च पृथूदकम्।
पृथूदकात् पुण्यतमं नान्यत तीर्थ नरोत्तम।" (महाभारत वनपर्व)
ऋग्वेद में सरस्वती का वर्णन केवल नदी के रूप में नहीं , वाणी व विद्या की देवी के रूप में भी हुआ है। यह सत्य तथा अच्छाई की प्रेरणा देती है। गंगा के समान इसके तट पर अनेक तीर्थों का विकास हुआ है। महाभारत, स्कन्द व पद्म पुराण, देवी भागवत आदि ग्रन्थों में इसका वर्णन बड़ी श्रद्धाभक्ति के साथ किया गया है। सरस्वती हिमालय से निकल कर पृथूदक, कुरूक्षेत्र, विराट, पुष्कर, अर्बुदारण्य, सिद्धपुर, प्रभास आदि स्थानों से होते हुए सागर से मिलती है।
गण्डकी
यह पवित्र नदी नेपाल में मुक्तिनाथ से थोड़ा आगे दामोदर कुण्ड से निकलती है। इसे नारायणी तथा शालिग्रामी भी कहते हैं। इस नदी क्षेत्र से प्राकृत और विभिन्न स्वरूप वाले शालिग्राम प्राप्त होते हैं। मुक्तिनाथ इसके तट पर स्थित प्रमुख शक्तिपीठ है। सती का गण्डस्थल यहीं गिरा था जहाँ आज भव्य मन्दिर है। इसी कारण इसे गण्डकी के नाम से पुकारा जाता है। यह नदी बिहार राज्य में प्रवेश करती है और गंगा में मिल जाती हैं ।
ब्रह्मपुत्र
सप्त महानदों (पुल्लिंग) में ब्रह्मपुत्र प्रमुख है। इसका उद्गम-स्थान पवित्र मानसरोवर के समीप एक विशाल हिमानी है। तिब्बत में १२०० कि मी. पूर्व की ओर बहते हुए दक्षिण-पश्चिम की ओर मुड़कर भारत में प्रवेश करती है। तिब्बती क्षेत्र में इसे सांपों नाम दिया गया। अरुणाचल व असम में इसे लोहित कहा जाता है। कामाख्या शक्ति-पीठ इसके तट पर स्थित है।अपुनर्भव, भस्मकूट, उर्वशीकुण्ड, मणिकणेश्वर, पण्डुनाथ पर्वत (मधु-कैटभ का वध-स्थल), अश्वकरत्न (कल्कि अवतार से सम्बन्धित) आदि प्रमुख तटवर्ती तीर्थ हैं। तेजपुर, गुवाहाटी, डिब्रूगढ़, शिवसागरआदि समीपवर्ती नगर हैं। भारत में ५०० किमी. से अधिक दूरी तक बहने के बाद यह दक्षिण दिशा की ओर मुड़कर बांग्लादेश में पहुँचती है। बंगाल में गंगा (पद्म) व मेघना से मिलकर विश्वविख्यात सुन्दरवन डेल्टा का निर्माण करती हैं। ब्रह्मपुत्र की लम्बाई २९०० कि.मी. से कुछ अधिक ही है।
रेवा (नर्मदा )
अमरकोश के अनुसार रेवा नर्मदा का ही दूसरा नाम है | रेवा को मैकाल - कन्या के नाम से भी पुकारा जाता है क्योंकि मैकाल से इसका एक स्त्रोत प्रारंभ होता है जबकि दूसरा भाग अमरकोटक से उद्भूत होता है और फिर दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। नर्मदा मध्य भारत में गंगा के समान वन्दनीय है। अमरकंटक से पश्चिम दिशा में बहते हुए भड़ौच के पास खंभात की खाड़ी के समुद्र में मिल जाती है। नर्मदा के तट के साथ असंख्य तीर्थों का प्रादुर्भाव हुआ है। रुद्र के अंश से उत्पन्न होने के कारण यह जड़-चेतन सबको पवित्र करने में समर्थ है। इसका नाम रुद्र कन्या भी है। इसके तट पर ओंकारेश्वर, मान्धाता, शुक्ल तीर्थ, भेड़ाघाट, जबलपुर, अमरकण्टक, कपिलधारा आदि पावन स्थल व नगर स्थापित हैं। व्यास व शुकदेव ने बरकेल नामक स्थान पर आकर नर्मदा में स्नान किया। बरकेल आज भी सामवेदी ब्राह्मणों के लिए प्रसिद्ध है। यहीं पर व्यासजी का मन्दिर व शुकदेव महादेव के मन्दिर बने हैं। सती अनसूया का मन्दिर भी पास हो बना है। नर्मदा की कुल लम्बाई १३०० कि.मी. है।
गोदावरी
१४५० कि.मी. लम्बी गोदावरी दक्षिण भारत की गांगा कहलाती है। महाराष्ट्र प्रान्त के नासिक जिले में एक गाँव है त्रयम्बक। यहीं ब्रह्मगिरि से निकल कर गोदावरी पूर्व की ओर बहती हुई गंगा सागर में मिलती है। इसका एक नाम गौतमी भी है, क्योंकि गौतम ऋषि की तपस्या के कारण यह अवतरित है। त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिग, नासिक(पंचवटी), पैठण, राजमहेन्द्र,भद्राचलमू, नान्देड़ (गुरु गोविन्द सिंह की समाधि), कोटा पल्ली आदि पावन क्षेत्र इसके तट पर हैं। मुस्लिम आक्रान्ताओं ने तीर्थों की पवित्रता को अनेक बार भंग किया। मराठा उत्थान के समय अनेक मन्दिरों का निर्माण व जीणोद्धार किया गया। वधाँ, प्राणहिता, इन्द्रावती, साबरी प्रवरा, वैन गांगा आदि इसकी सहायक नदियाँ हैं।
कृष्णा
कृष्णा प्रायद्वीपीय भारत की प्रमुख नदी है। यही नदी सहयाद्रि पर्वत-माला में महाबलेश्वर के उत्तर में स्थित कराड नामक स्थान से निकलती है। यह स्थान सिन्धु सागर के ६० किमी. पूर्व में है। वारणा से होते हुए यह दक्षिण-पूर्व की ओर बढ़कर कर्नाटक में प्रवेश करती है। कृष्ण की दो प्रमुख सहायक नदियाँ भीमा और तुगभद्रा हैं। चन्द्रभागा पण्ढरपुर के समीप भीमा से मिलती है। आन्ध्रप्रदेश के काफी विस्तृत क्षेत्र में बहते हुए कृष्णा महेन्द्र पर्वत-श्रृंखला को काट कर गंगासागर की ओर बढ़ती है और बृहद डेल्टा बनाते हुए सागर में मिल जाती है। इस नदी के तट पर सतारा, सांगली, रायचूर, विजयवाड़ा, नागार्जुन सागर आदि स्थित हैं। नदी की कुल लम्बाई १२८० कि.मी. है।
कावेरी
कावेरी प्रमुख नदियों में सबसे दक्षिण में स्थित है। यह कूर्ग जिले में स्थित है। सहयाद्रि पर्वत के दक्षिणी छोर से निकल कर दक्षिण-पूर्व बहते हुए सागर में मिलती है। मिलने से पूर्व कई शाखाओं में बँट जाती है और उपजाऊ डेल्टा बनाती है। इसकी लम्बाई ८०० कि.मी.है। अग्नि व विष्णु पुराण में कावेरी का वर्णन विस्तार से हुआ है। कावेरी के उद्गम स्थल के पास ही देवी कावेरी का प्राचीन मन्दिर है। कई छोटी-छोटी नदियाँ कावेरी में मिलती हैं। कनकवती, हेमवती, लक्ष्मणतीर्थ प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। यह नदी कहीं पर बहुत चौड़ी व संकरी है। तीन स्थानों पर यह दो शाखाओं में बँटकर पुन:एक हो जाती है। इस प्रकार बीच में तीन पवित्र द्वीप बन गये हैं। आदिरंगमू या श्रीरंगपत्तन, मध्य में शिवसमुद्रम् तथा अन्तरंगम् या श्रीरंगमू में भगवान विष्णु के पवित्र मन्दिर बने हैं। चिदम्बरम् नामक पवित्र शैव तीर्थ तथा प्राचीन जम्बूकेश्वरम् मन्दिर श्रीरंगम के पास स्थित हैं। तंजावूर, कुंभकोणम तथा त्रिचिरापल्ली इसी पवित्र नदी के समीपवर्ती तीर्थ हैं। प्रसिद्ध कम्बारामायण के रचयिता कवि कम्बन का क्षेत्र कावेरी-तट ही हैं।
महानदी
उत्कल (उड़ीसा) राज्य की यह प्रमुख नदी मध्यप्रदेश के रायपुर जिले के दक्षिण पूर्व में सिहाँवा पर्वत श्रेणी से निकलकर उड़ीसा में कटक के पास सागर में मिलती है। नदी का कुल बहाव ८६० कि.मी. है। बहाव की आधी दूरी छत्तीसगढ़ के रायपुर, बस्तर, बिलासपुर तथा रायगढ़ जिलों में कोयना, पंचगंगा, घटप्रभा, मल्लप्रभा आदि लघु सरिताओं का जल समेटे तय करती है। शिवनाथ, जोंक, हस्दों इसकी सहायक नदियाँ हैं। महानदी का जल सिंचाई व विद्युत-निर्माण के लिए उपयोग किया जाता है। विश्व का सबसे लम्बा बांध हीराकुण्ड महानदी पर ही बना है। उपर्युक्त प्रमुख नदियों के अतिरिक्त निम्न नदियों का भी स्मरण बड़ी श्रद्धाभक्ति के साथ किया जाता है। इनमें स्नान करने पर शाप-ताप शान्त हो जाते हैं तथा मानव देवत्व की ओर अग्रसर होता हैं। ये नदियाँ हैं महेन्द्रतनया, वेत्रिवती, क्षिप्रा, भीमा, ताप्ती, चम्बल, गोमती, चर्मण्वती आदि।
पॉच सरोवर
जिस प्रकार भारत के चार कोनों पर चार धाम (उत्तरी सीमा पर बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम्, पूर्व में जगन्नाथपुरीतथा पश्चिम में द्वारिका स्थापित कर देश की एकता को सुदृढ़ किया गया। उसी प्रकार मनीषियों ने पंच सरोवरों की मान्यता देकर समस्त भारतवासियों को प्रान्त व जातिभेद से ऊपर उठकर भारत को एक राष्ट्र के रूप में सुदूढ़ करने की प्रेरणा दी। सभी हिन्दू इनके प्रतिश्रद्धाभाव रखते हैं। ये पॉच सरोवर निम्नलिखित हैं)
१. विन्दु सरोवर
२. नारायण सरोवर
३. पम्पा सरोवर
४. पुष्कर झील
५, मान सरोवर
विन्दु सरोवर
विन्दु सरोवर दो हैं : 1. भुवनेश्वर के मुख्य बाजार में स्थित 2. विन्दु सरोवर सिद्धपुर। देश की एकात्मता की दृष्टि सेपूर्व दिशा स्थित भुवनेश्वर का विन्दुसरोवर अधिक महत्वपूर्ण है। यह एक सुविस्तृत सरोवर है। सरोवर के मध्य एकविशाल मन्दिरहै। इसमेंभगवान् नारायण,शिव-पार्वती, गणेश की सुन्दर प्रतिमाएँ हैं। सरोवर केचारों ओर बहुत सेमन्दिरबने हैं। इस सरोवर में समस्त तीथों का जल लाकर डाला हुआ है,अतः यह परम पवित्र माना जाता हैं। भारतवर्ष में पितृश्राद्ध के लिए गया प्रसिद्ध है तो मातृश्राद्ध के लिए सिद्धपुर स्थित विन्दुसरोवर की मान्यता है। इसे मातृगया भी कहा जाता है| प्राचीन नाम श्रीस्थल है। पवित्र सरस्वती से लगभग डेढ़-दो किलोमीटर दूरएक सरोवरहै। लगभग 12 मीटर लम्बा व 12मीटरचौड़ा यह सरोवर कर्दम ऋषि, कपिल मुनि, समुद्र-मन्थन औरभगवान परशुराम की कथाओं से सम्बद्ध है। सरोवर के पास गोविन्द माधव मन्दिर विद्यमान है। तीर्थयात्री सरोवरमें स्नान कर मातृ-श्राद्ध करते हैं। दक्षिणी छोरपर बने मन्दिर में महर्षि कर्दम, देवहूति और महर्षि कपिल की मूर्तियाँ हैं। इसके अतिरिक्त राधा-कृष्ण, लक्ष्मी-नारायण, सिद्धेश्वरमहादेव के मन्दिर,ज्ञानवापी(बावली) तथा वल्लभाचार्य महाप्रभु की बैठक यहाँ विद्यमान है।
नारायणसरोवर
कच्छ के रनों का यह अति प्राचीन तीर्थ क्षेत्र है। यहाँ स्वच्छ जल का एक पवित्र तालाब है।इसका निर्माण नारायण भगवान् ने गांगोत्री से पवित्रजल लाकर किया।स्वयं नाराण यहाँपर कुछ काल रहे। सरोवर के पास आदि नारायण, गोवर्द्धननाथ और टीकम जी के सुन्दर मन्दिर बने हैं। श्रीवल्लभाचार्य महाप्रभु की बैठक भी नारायण सरोवर के पास है। नारायणसरोवर से लगभग 3 कि.मी. दूर कोटेश्वर महादेव का प्राचीन मन्दिर है।कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर यहाँ एक मेला लगता है। तीर्थ-यात्रियों की सुविधा के लिए यहाँ कई धर्मशालाएँ बनी हुई हैं।
मानसरोवर
सम्पूर्ण हिमालय पार कर तिब्बत (त्रिविष्टप) के शीतल पठार में स्थित मानसरोवरआदिकाल से मानव को आमंत्रित करता आ रहा है। युगों से लोग इसे पवित्र तथा शान्तिदायक क्षेत्र मानकर कलास-मानसरोवर की यात्रा करते आ रहे हैं। यहाँ पर दो सरोवर हैं। एक को राक्षसताल कहते हैं, राक्षसराज रावण ने यहाँ खड़े होकर भगवान् शांकर की आराधना की थी। दूसरा सरोवर मानसरोवर है, इस सरोवर का जल अत्यन्त स्वच्छ व नीलाभ है। मानसरोवर का आकारअण्डाकारहै, यहाँ पहुँच करतीर्थयात्री अमित सन्तोष व शान्ति का अनुभव करता है। मानसरोवर में हंस मिलते हैं। मानसरोवर का जल अधिक शीतल नहींहै, इसमें आनन्दपूर्वक स्नान किया जा सकता है। यद्यपि मानसरोवर से प्रत्यक्ष रूप से कोई झरना या नदी नहीं निकलती किन्तु पर्याप्त ऊंचाई पर होने के कारण सरयू और पुष्टि करतेहैं। मानसरोवर से लगभग 32 कि.मी. उत्तर-पश्चिम में कैलास पर्वत है। कैलास पर्वत भगवान् शिव का स्थान है। कुछ लोग तो केंलास को शिवस्वरूप मानते हैं। पास में ही गौरीकुण्डहै। मानसरोवर कीमहत्ता शक्तिपीठ के रूप में मान्य हैं। सती की दाहिनी हथेली यहाँ गिरी थी। तभी से यह स्थान शक्तिपीठ के रूप में पूजित है।
पुष्कर
महाभारत के वन पर्व में ऋषि पुलस्त्य भीष्मजी के सामने अनेक तीर्थों का वर्णन करते हुए पुष्कर को सबसे अधिक पवित्र बताते हैं।पुष्करतीर्थों के गुरु हैं। वाल्मीकि-रामायण में भी पुष्कर की महिमा गायी गयी है। सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी यहाँ निरन्तर वास करते हैं। ब्रह्माजी ने पुष्कर की स्थापना की। यहाँ एक पवित्र सरोवर है जिसमें स्नान करने से मानव शान्ति प्राप्त करता है। सरोवर के पास ब्रह्मा जी का विशाल व भव्य मन्दिर है। श्री बद्री नारायण मन्दिर, वाराह मन्दिर, कपालेश्वर महादेव, श्री रंग मन्दिर आदि यहाँ के प्रमुख मन्दिर हैं। पुष्कर में पुष्कर सरोवर के अतिरिक्त सरस्वती नदी में स्नान करना पुण्यकारक माना जाता है। ब्रह्मा जी का मन्दिर व वाराहजी का मन्दिर मुस्लिम धर्मान्धता के कारण औरंगजेब के काल में तोड़ दिये गये थे। ब्रह्माजी का वर्तमान मन्दिर सन 1809 में बनाया गया और वाराह मन्दिर सन 1727 में बना। पुष्कर को मन्दिरों की नगरी कहा जा सकता है। यहाँ लगभग चार सौ मन्दिर हैं।
सर्वतीर्थयू राजेन्द्र तीर्थ त्रैलोक्यविश्रुतम्।
पुष्करं नाम विख्यात महाभाग: समविशेत्।
पम्पा सरोवर
दक्षिण दिशा में स्थित है।भगवान् श्रीराम ने अपने अनुज लक्ष्मण के साथ इस सरोवर के तीर परविश्राम किया था। वाल्मीकि-रामायण में पम्पासार का सुन्दर वर्णन किया गया है।तुगंभद्रा नदी के दक्षिण में यह सरोवरस्थित है। किष्किन्धा, ऋष्यमूक पर्वत, स्फटिक-शिला पम्पा सरोवर के समीप फेंले रामायणकालीन ऐतिहासिक स्थान हैं। पम्पा सरोवर के पास पहाड़ी पर छोटे-छोटे जीर्ण मन्दिर हैं। एक मन्दिर में लक्ष्मीनारायण की ब्रह्मपुत्र का उद्गम-स्थान वास्तव में यही सरोवर है, अनेक विद्वान इसकी युगल मूर्ति है। पास में शबरी गुफा भी स्थित है।
सप्त पर्वत
जिस प्रकार पीयूष-प्रवाहिनी नदियाँ राष्ट्र की एकात्मता को सुदृढ़ कड़ियाँ हैं वैसे ही देश के विभिन्न क्षेत्रों में स्थित पर्वत और शिखर सर्वत्र सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं। एकात्मता-स्तोत्र में वर्णित पर्वतों के नाम हैं-हिमालय, महेन्द्र, मलयगिरी, सहयाद्रि, रैवतक, विंध्याचल तथा अरावली। इनके अतिरिक्त अमरकण्टक, सरगमाथा, अर्बुदांचल, कैलास आदि शिखरऔर बद्रीनाथ, केदारनाथ आदि पर्वतीय स्थल भी वन्दनीय हैं।
हिमालय
यह विश्व का सर्वोच्च पर्वत है जिसमें अनेक हिमाच्छादित श्रृंग, हिमानियाँ तथा विस्तृत घाटियाँ हैं। यहाँ पर देवी-देवताओं का वास है। अत: महाकवि कालिदास ने इसका देवतात्मा' नाम से उल्लेख किया। सिन्धु, गांगा, सतलुज, गण्डक, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों के उद्गम यहीं हैं। बद्रीनाथ, केदारनाथ, कलास, मानसरोवर, वैष्णवी देवी, अमरनाथ नामक सैकड़ों पुण्यस्थल हिमालय में हैं। अनेक ऋषि-महात्माओं का यह तप स्थल रहा है। संसार का सबसे ऊँचा पर्वत-शखर "सागरमाथा (एवरेस्ट)' हिमालय केअन्तर्गतआता है। कचनजघा, नन्दादेवी, गौरीशांकर, धौलागिरि आदि मेंभी हिमालय की अन्य जॉची चोटियाँ हैं। हिमालय भारत के उत्तरी भाग में २४०० कि. मी. लम्बाई व १५० से ४०० कि.मी. चौड़ाई में विस्तृत है। ऋग्वेद केअनुसार हिमालय ईश्वर की महानता का परिचायक हैं, वह निम्न प्रकार वर्णित हैं:
"यस्येमे हिमवन्तो महित्वा, यस्य समुद्र रसयाहाहु:।
यस्येमे प्रदिशो यस्यबाहू, कस्मै देवाय हविषाविधेम।" (ऋग्वेद १-१२१-४)
अरावली
दिल्ली के दक्षिणी सिरे से प्रारम्भ होकर हरियाणा, राजस्थान व गुजरात तक दक्षिण-पश्चिम दिशा में यह पर्वतमाला फैली हुई है। यह विश्व के प्राचीन पर्वतों में से एक है। स्कन्दपुराण व महाभारत में इसका वर्णन आया है।यह पर्वत महाराणा प्रताप के उत्सर्ग, कर्तृत्व तथा शौर्य का साक्षी है। मेवाड़ को विदेशी आक्रान्ताओं से मुक्त कराने का महान व सफल अभियान इसी पर्वत की उपत्यकाओं में फलीभूत हुआ। इस पर्वत की गोद में अनेक प्राचीन पावन तीर्थस्थल तथा ऐतिहासिक नगर विद्यमान हैं।अरावली का सर्वोच्च शिखरआबू(अर्बुदांचल) है। यह जैन तीर्थ के रूप में विख्यात है। सात कुल-पर्वतों मेंअरावली की गणना की जाती है। पारियात्र’इसी का संस्कृत नाम है। सात कुल-पर्वतों की नामावली निम्न श्लोक में दी हुई है
महेन्द्रो मलय: सहूयो सुक्तिमान् ऋक्षवानपिं।
विन्ध्यश्च पारियात्रश्च सप्तैता: कुलपर्वताः। (मार्कण्डेय पुराण)
विंध्याचल
भारत के मध्यवर्ती भाग में गुजरात से लेकर बिहार व उत्कल तक विस्तृत है। यह पर्वत नर्मदा के उत्तर में ४0,000 वर्गमील क्षेत्र में फैला है। इसकी पूर्व से पश्चिम तक लम्बाई लगभग 1000 कि.मी.है। विंध्याचल की औसत ऊंचाई ७00 मीटर है। केवल कुछ शिखर लगभग १000 मीटर ऊँचे हैं। अम्बा पानी, होरोया, दशारती, सलकनपुर, मृगनाथ, भानुआ भण्ड इस श्रेणी के प्रमुख शिखरहैं। विंध्याचल से मध्यभारत की कई प्रमुख व पवित्र नदियाँ निकलती हैं।चम्बल, बेतवा, केन, क्षिप्रा, बनास, सोन इनमें प्रमुख हैं। नर्मदा नदी का उद्गम-स्थल अमरकण्टक, विंध्याचल व सतपुड़ा श्रृंखला को आपस में मिलाता है। उज्जयिनी, जबलपुर जैसे नगर इस पर्वत की गोदमें बसेहैं। नागोद(चूना पत्थर) तथा पन्ना की प्रसिद्ध खानें भी इसी में हैं। कई तीर्थ स्थान जैसे विंध्यवासिनी (मिर्जापुर), महाकाली मन्दिर (काली खोह), अष्टभुजा देवी इसी के अन्तर्गत आते हैं। दुग सप्तशती, देवी भागवत तथा स्कन्द पुराण मेंइस पर्वत के विषय में उल्लेख मिलता हैं। 1. अस्युक्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः (कुमारसंभवम्) विंध्याचल सात कुल-पर्वतों मेंप्रमुख है। महर्षि अगस्त्य इस पर्वत को पार कर उत्तर व दक्षिण का भेद मिटाने के लिए यात्रा पर निकले तथा कावेरी नदी के तट पर आश्रम बनाकर तपस्यारत हो गये।
रैवतक पर्वत
गुजरात प्रान्त के काठियावाड़ जिले में यह पर्वत स्थित है। यह पर्वत पावन प्रभास क्षेत्र तक विस्तृत है। जैन सम्प्रदाय के ५ पवित्र तीर्थों में से एक शत्रुजय या पालीताना भी इसी के अन्तर्गत आता है। यह गिरनार के नाम से भी जाना जाता है। माघकवि द्वारा रचित ग्रन्थ शिशुपाल-वध" में इसका सुन्दर वर्णन किया गया है। कोटिरुद्र संहिता के अनुसार भगवान् शांकर ने यहाँ निवास किया। सोमनाथ नामक ज्योतिर्लिग यहाँ से थोड़ी ही दूरी पर विराजमान है। रैवतक पर्वत शिव का प्रिय स्थान है, अत: उन्होंने अन्य देवताओं को भी वहाँ आमन्त्रित कर वहीं वास करने को राजी कर लिया। इस पर्वत पर अनेक पवित्र मन्दिर व पवित्र जलकुण्ड विद्यमान हैं। रैवतक पर्वत का गोरखनाथ शिखर सबसे ऊँचा है। सम्पूर्ण देश से तीर्थयात्री यहाँ आते हैं।
महेन्द्र पर्वत
उत्कल(उड़ीसा) का यह प्रमुख पर्वत गांजाम जिले में फैला हुआ है। भारत के पूर्वी तट पर स्थित पूर्वी घाट पर्वतमाला का यह उत्तरी छोर तथा उच्च पर्वत है। समुद्र-तल से इसकी ऊँचाई लगभग १५00 मीटर है। पुराणों में वर्णित सात कुल-पर्वतों में इसका भी स्थान है। रामायण, महाभारत, पुराण आदि ग्रन्थों में इसका श्रद्धा के साथ उल्लेख आता है। कालिदास ने रघुदिग्विजय प्रसंग में इस पर्वत का तीर्थ तथा मनोरम स्थल के रूप में वर्णन किया है। यहाँ पर अनेक प्राचीन व भव्य मन्दिर बने हैं। गोकर्णीश्वर मन्दिर यहाँ का सबसे प्रमुख मन्दिर है।राजेन्द्र चोल ने अपनी विजय की स्मृति में एक स्तंभ का निर्माण कराया। उड़िया कवि राधानाथ राय ने महेन्द्र पर्वत की सुरम्यता व शान्त वातावरण का सजीव चित्रण किया है। महेन्द्रतनय नामक स्रोत का प्रादुर्भाव यहीं से है। सप्त चिरंजीवियों में से एक भगवान
मलयपर्वत
कर्नाटक के दक्षिणी भाग तथा तमिलनाडु राज्य में मलय पर्वत का विस्तार है। भारतीय वाडमय में मलयगिरेि का वर्णन अनेक कवियों ने किया है। यहाँ पर चन्दन के सघन वन हैं।अनेक सुवासित ओषधियाँ तथा मसालों की कृषि भी इसके ढालों पर की जाती है। नीलगिरि इसका अन्य नाम है। कई ऋषियों ने यहाँ तपस्या की। उनसे सम्बन्धित स्थान व तीर्थ स्थान इस पर्वत पर आज भी विद्यमान हैं।
सह्याद्री
भारत के पश्चिमी तट के गुजरात महाराष्ट्र तथा कर्नाटक राज्य में सह्याद्रि पर्वतमाला का विस्तार है। दक्षिण भारत की प्रमुख नदियों (गोदावरी, कृष्णा, कावेरी) के उद्गम-स्थान इसी श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। त्रयम्बकेश्वर, महाबलेश्वर,भीमशकिर, ब्रह्मगिरि, भगवती भवानी, बौद्ध चैत्य प्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र इसी पर्वत-श्रेणी में विराजमान हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज से सम्बन्धित कई दुर्ग (शिवनेरी, पन्हालगढ़, प्रतापगढ़, चाकन, रायगढ़) और शिवाजी महाराज की समाधि इस पर्वत की ऐतिहासिक धरोहर हैं। सह्याद्रि उत्तर-दक्षिण खड़ी दीवार के रूप में है। तटीय क्षेत्र में जाने के लिए थाल घाट, भोरघाट, नाना दरी, पालघाट होकर रेल व सड़क मार्ग बनाये गये हैं। सूरत, मुम्बई, रत्नागिरि, पजिम, मंगलौरआदि नगर इसके पश्चिम में समुद्र की ओर स्थित हैं। ब्रह्माजी ने सृष्टि के प्रारम्भ में यहाँ पर यज्ञ किया। दो देंत्यों अतिबल और महाबल ने यज्ञ में बाधा डाली तो विष्णुऔर भगवती आदि ने उनको मारकर यज्ञ को निर्विघ्न पूर्ण करा दिया। भगवान् विष्णु यहाँ पर अतिबलेश्वर, ब्रह्मा कोटीश्वर तथा शंकर महाबलेश्वर के रूप में विराजमान होकर आज भी प्रतिष्ठित हैं। परशुराम का आवास इसी पर्वत पर है। मील दूर पर वसुधारा तीर्थ है जहाँ आठ वसुओं ने अपनी मुक्ति के लिए तप किया था। सदीं के दिनों में इस मन्दिर के कपाट बन्द रहते हैं तथा गर्मी आने पर पुन: खुल जाते हैं। जोशीमठ में शीतकाल में बद्रीनाथ की चल प्रतिमा लाकर स्थापित की जाती है और यहीं पर इसकी पूजा-अर्चना की जाती हैं।
द्वारिका धाम
चारधाम तथा सप्तपुरियों मेंश्रेष्ठ द्वारिका भगवान् कृष्ण को अति प्रिय रही है। आदि शांकराचार्य ने यहाँ शारदा पीठ की स्थापना की और अपने शिष्य सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र) को पीठाधीश्वर के रूप में अधिष्ठित किया ।महाभारत, हरिवंश पुराण, वायुपुराण,भागवत, स्कन्दपुराण में द्वारिका का गौरवपूर्ण वर्णन है। भगवान् कृष्ण ने अपना अन्तिम समय यहीं पर व्यतीत किया। कृष्ण ने पापी कांस का वध मथुरा में किया, उससे क्रोधित होकर मगधराज जरासंघ ने कालयवन को साथ लेकरमथुरा पर आक्रमण किया। कृष्ण ने बचाव के लिए सौराष्ट्र में समुद्रतट पर जाना उचित समझा। वहाँउन्होंने सुदूढ़दुर्ग का निर्माण कियाऔरद्वारिका की स्थापना की। कृष्णा के इहलोक लीला-संवरण के साथ ही द्वारिका समुद्र में डूब गयी।आज द्वारिका एक छोटा नगरअवश्य है, परन्तुअपनेअन्तस्तल में गौरवपूर्ण सांस्कृतिक व ऐतिहासिक धरोहर छिपाकर रखे हुए है। यहाँ के मन्दिरों में रणछोड़राय का प्रमुख मन्दिर है। इसे द्वारिकाधीश मन्दिर भी कहते हैं। यह सात मंजिलों वाला भव्य मन्दिर है। कहते हैं रणछोड़राय की मूल मूर्ति को बोडाणा भक्त डाकोरजी ले गये। आजकल वह वहीं विराजमान है और रणछोड़राय मन्दिरमें स्थापित मूर्ति लाडवा ग्राम के एक कुप से प्राप्त हुईथी। रणछोड़रायजी के मन्दिर के दक्षिण में त्रिविक्रम मन्दिर तथा उत्तर में प्रद्युम्न जी का मन्दिरहै। बेट द्वारिका, सुदामा पुरी (पोरबन्दर)पास में ही स्थित है। महाप्रभु वल्लभाचार्य तथा श्री रामानुजाचार्य द्वारिका पधारे थे। स्वामी माधवाचार्य सन 1236-40 के मध्य यहाँ आये|
छब्जाथपुरी
जगन्नाथ पुरी उड़ीसा में गांगा सागर तट पर स्थित पावन तीर्थ स्थान
है। यह शैव, वैष्णव तथा बौद्ध सम्प्रदाय के भक्तों का श्रद्धा-कन्द्र है। यह
चारपावन धामों तथा 51शक्तिपीठोंमें सेएक है। पुराणोंमेंपुरुषोत्तम तीर्थ
नाम से इसका वर्णन किया गया है। स्कन्द व ब्रह्मपुराण के अनुसारइसकी
जगन्नाथ मन्दिर गांगवंशीय राजा अनंग भीमदेव ने 12वीं शताब्दी में
बनवाया। 16वीं शताब्दी में बंगाल के मुसलमान शासक हुसेनशाह तथा
पठान काला पहाड़ ने पुरी के मन्दिर को क्षतिग्रस्त किया। मराठों ने
जगन्नाथ मन्दिर की व्यवस्था के लिए वार्षिक 27 हजार रुपये की राशि
अनुदान के रूप में स्वीकृत की। श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा की
काष्ठ-मूर्तियाँ मन्दिरमें प्रतिष्ठित हैं। इन मूर्तियों को रथयात्रा केअवसर
पर निकाल कर रथोंमें स्थापित कर समुद्रतट-स्थित मौसी जी के मन्दिर
में 10 दिन रखा जाता है। यात्रा में लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं। मूतियों
की वापसीभी बड़ेधूमधाम और हर्षोंल्लास के साथ सम्पन्न होती है। इस
तीर्थ की विशेषता यह है कि यहाँ किसी प्रकार के जाति-भेद को कोई
स्थान नहीं है। इस संबंध में एक लोकोक्ति प्रसिद्ध हो गयी है :
"जगन्नाथ का भात, जगत् पसारे हाथ, पूछे जात न पात।"
जगन्नाथपुरी में कई पवित्र स्थल स्नान के लिए महत्वपूर्ण हैं जिनमें
महोदधि, रोहिणीकुण्ड, शवेत गांग, लोकनाथ सरोवर तथा चक्रतीर्थ प्रमुख
हैं। गुंडीचा मन्दिर (मौसी का मन्दिर),श्री लोकनाथ मन्दिर, सिद्धि-विनायक
मन्दिर यहाँ के अन्य मन्दिर हैं। जगन्नाथपुरी से 18 कि.मी. दूर साक्षी
गोपाल मन्दिर है,इसके दर्शन के बिना जगन्नाथपुरी की यात्रा अधूरी मानी
जाती है।आदि शांकराचार्य ने इस पवित्र स्थान की यात्रा की और गोवर्धन
पीठ की स्थापना की। रामानुजाचार्य और रामानन्द ने भी इस क्षेत्र की
यात्रा की। रामानन्द जी के प्रमुख शिष्य कबीर ने समता का संदेश प्रचारित
किया। आज भी बड़ी संख्या कबीरपंथी पुरी में रहते हैं तथा भगवान्
जगन्नाथ की रथयात्रा में बढ़चढ़कर भागीदारी करते हैं। मलूक दास,
चैतन्य महाप्रभु भी यहाँ पधारे।
स्थापना उज्जयिनी-नरेश इन्द्रद्युम्न ने सत्ययुग में की थी। वर्तमान