Difference between revisions of "Adiparva Adhyaya 1 (आदिपर्वणि अध्यायः १)"
m (corrections) |
m (Text replacement - "सृष्टी" to "सृष्टि") |
||
(13 intermediate revisions by one other user not shown) | |||
Line 114: | Line 114: | ||
प्रविश्य योगं ज्ञानेन सोऽपश्यत्सर्वमन्ततः। | प्रविश्य योगं ज्ञानेन सोऽपश्यत्सर्वमन्ततः। | ||
निष्प्रभेऽस्मिन्निरालोके सर्वतस्तमसावृते॥ 1-1-35 | निष्प्रभेऽस्मिन्निरालोके सर्वतस्तमसावृते॥ 1-1-35 | ||
− | [[:Category:beginning of creation|''beginning of creation'']] [[:Category:beginning|''beginning'']][[:Category:creation|''creation'']] [[:Category:Egglike structure|''Egglike structure'']] [[:Category:सृष्टि |''सृष्टि'']] [[:Category:प्रारम्भ|''प्रारम्भ'']] [[:Category:अंड|''अंड'']] [[:Category:प्रकट|''प्रकट'']] [[:Category: | + | [[:Category:beginning of creation|''beginning of creation'']] [[:Category:beginning|''beginning'']][[:Category:creation|''creation'']] [[:Category:Egglike structure|''Egglike structure'']] [[:Category:सृष्टि |''सृष्टि'']] [[:Category:प्रारम्भ|''प्रारम्भ'']] [[:Category:अंड|''अंड'']] [[:Category:प्रकट|''प्रकट'']] [[:Category:सृष्टि के प्रारम्भ मे अंड प्रकट,|''सृष्टि के प्रारम्भ मे अंड प्रकट'']] |
बृहदण्डमभूदेकं प्रजानां बीजमव्ययम्। | बृहदण्डमभूदेकं प्रजानां बीजमव्ययम्। | ||
Line 268: | Line 268: | ||
यदि ज्ञानहुताशेन सम्यङ्नोज्ज्वलितं भवेत्। | यदि ज्ञानहुताशेन सम्यङ्नोज्ज्वलितं भवेत्। | ||
तमसान्धस्य लोकस्य वेष्टितस्य स्वकर्मभिः॥ 1-1-91 | तमसान्धस्य लोकस्य वेष्टितस्य स्वकर्मभिः॥ 1-1-91 | ||
− | [[:Category:Vyasdev|''Vyasdev'']] [[:Category:calls|''calls'']] | + | [[:Category:Vyasdev|''Vyasdev'']] [[:Category:calls|''calls'']] [[:Category:Ganesh|''Ganesh'']] [[:Category:Vyasdev calls Ganesh|''Vyasdev calls Ganesh'']] [[:Category:व्यासदेव|''व्यासदेव'']] [[:Category:गणेश|''गणेश'']] [[:Category:व्यासदेवका गणेशको बुलाना|''व्यासदेवका गणेशको बुलाना'']] |
ज्ञानाञ्जनशलाकाभिः बुद्धिनेत्रोत्सवः कृतः। | ज्ञानाञ्जनशलाकाभिः बुद्धिनेत्रोत्सवः कृतः। | ||
Line 288: | Line 288: | ||
मौसलः श्रुतिसंक्षेपः शिष्टद्विजनिषेवितः। | मौसलः श्रुतिसंक्षेपः शिष्टद्विजनिषेवितः। | ||
सर्वेषां कविमुख्यानामुपजीव्यो भविष्यति॥ 1-1-99 | सर्वेषां कविमुख्यानामुपजीव्यो भविष्यति॥ 1-1-99 | ||
− | |||
[[:Category:parva|''parva'']] [[:Category:chapter|''chapter'']] [[:Category:significance|''significance'']] [[:Category:पर्व|''पर्व'']] [[:Category:महत्त्व|''महत्त्व'']] [[:Category:पर्वका महत्त्व|''पर्वका महत्त्व'']] | [[:Category:parva|''parva'']] [[:Category:chapter|''chapter'']] [[:Category:significance|''significance'']] [[:Category:पर्व|''पर्व'']] [[:Category:महत्त्व|''महत्त्व'']] [[:Category:पर्वका महत्त्व|''पर्वका महत्त्व'']] | ||
+ | पर्जन्य इव भूतानामाश्र[मक्ष]यो भारतद्रुमः। | ||
सौतिरुवाच एवमाभाष्यं तं ब्रह्मा जगाम स्वं निवेशनम्। | सौतिरुवाच एवमाभाष्यं तं ब्रह्मा जगाम स्वं निवेशनम्। | ||
भगवान्स जगत्स्रष्टा ऋषिर्देवगणैस्सह॥ | भगवान्स जगत्स्रष्टा ऋषिर्देवगणैस्सह॥ | ||
Line 306: | Line 306: | ||
ससदस्यैः सहासीनः श्रावयामास भारतम्। | ससदस्यैः सहासीनः श्रावयामास भारतम्। | ||
कर्मान्तरेषु यज्ञस्य चोद्यमानः पुनः पुनः॥ 1-1-106 | कर्मान्तरेषु यज्ञस्य चोद्यमानः पुनः पुनः॥ 1-1-106 | ||
− | [[:Category:Vyasdev|''Vyasdev'']] [[:Category:beget|''beget'']] [[:Category:Dhrtarashtra|''Dhrtarashtra'']] | + | [[:Category:Vyasdev|''Vyasdev'']] [[:Category:beget|''beget'']] [[:Category:Dhrtarashtra|''Dhrtarashtra'']] [[:Category:Pandu|''Pandu'']] [[:Category:Vidur|''Vidur'']] [[:Category:व्यासदेव|''व्यासदेव'']] [[:Category:तीन|''तीन'']] [[:Category:पुत्र|''पुत्र'']] [[:Category:धृतराष्ट्र|''धृतराष्ट्र'']] [[:Category:पाण्डु|''पाण्डु'']] [[:Category:विदुर|''विदुर'']] |
विस्तरं कुरुवंशस्य गान्धार्या धर्मशीलताम्। | विस्तरं कुरुवंशस्य गान्धार्या धर्मशीलताम्। | ||
Line 319: | Line 319: | ||
अनुक्रमणिकाध्यायं वृत्तानां[न्तं] सर्वपर्वणाम्॥ 1-1-111 | अनुक्रमणिकाध्यायं वृत्तानां[न्तं] सर्वपर्वणाम्॥ 1-1-111 | ||
[[:Category:Mahabharata|''Mahabharata'']] [[:Category:Contents|''Contents'']] [[:Category:महाभारत|''महाभारत'']] [[:Category:विषय|''विषय'']] [[:Category:महाभारतके विषय|''महाभारतके विषय'']] | [[:Category:Mahabharata|''Mahabharata'']] [[:Category:Contents|''Contents'']] [[:Category:महाभारत|''महाभारत'']] [[:Category:विषय|''विषय'']] [[:Category:महाभारतके विषय|''महाभारतके विषय'']] | ||
− | |||
इदं द्वैपायनः पूर्वं पुत्रमध्यापयच्छुकम्। | इदं द्वैपायनः पूर्वं पुत्रमध्यापयच्छुकम्। | ||
Line 361: | Line 360: | ||
मृतः पाण्डुर्महापुण्ये शतशृङ्गे महागिरौ॥) | मृतः पाण्डुर्महापुण्ये शतशृङ्गे महागिरौ॥) | ||
मुनिभिश्च समानीता[ऋषिभिर्यत्तदाऽऽनीता] धार्तराष्ट्रान्प्रति स्वयम्॥ 1-1-122 | मुनिभिश्च समानीता[ऋषिभिर्यत्तदाऽऽनीता] धार्तराष्ट्रान्प्रति स्वयम्॥ 1-1-122 | ||
− | [[:Category:curse|''curse'']] [[:Category:Pandu|''Pandu'']] [[:Category:Maharshi|''Maharshi'']] [:Category:Sage|''Sage'']] [[:Category:महर्षि|''महर्षि'']] [[:Category:पाण्डु|''पाण्डु'']] [[:Category:पाण्डुको शाप|''पाण्डुको शाप'']] [[:Category:Pandavas|''Pandavas'']] [[:Category:Birth|''Birth'']] [[:Category:Birth of Pandavas|''Birth of Pandavas'']] [[:Category:पांण्डवोंका जन्म|''पांण्डवोंका जन्म'']] [[:Category:पाण्डव|''पाण्डव'']] [[:Category:जन्म|''जन्म'']] | + | [[:Category:curse|''curse'']] [[:Category:Pandu|''Pandu'']] [[:Category:Maharshi|''Maharshi'']] [[:Category:Sage|''Sage'']] [[:Category:महर्षि|''महर्षि'']] [[:Category:पाण्डु|''पाण्डु'']] [[:Category:पाण्डुको शाप|''पाण्डुको शाप'']] [[:Category:Pandavas|''Pandavas'']] [[:Category:Birth|''Birth'']] [[:Category:Birth of Pandavas|''Birth of Pandavas'']] [[:Category:पांण्डवोंका जन्म|''पांण्डवोंका जन्म'']] [[:Category:पाण्डव|''पाण्डव'']] [[:Category:जन्म|''जन्म'']] |
शिशवश्चाभिरूपाश्च जटिला ब्रह्मचारिणः। | शिशवश्चाभिरूपाश्च जटिला ब्रह्मचारिणः। | ||
Line 401: | Line 400: | ||
मणिकाञ्चनरत्नानि गोहस्त्यश्वरथानि च। | मणिकाञ्चनरत्नानि गोहस्त्यश्वरथानि च। | ||
विचित्राणि च वासांसि प्रावारावरणानि च॥ 1-1-139 | विचित्राणि च वासांसि प्रावारावरणानि च॥ 1-1-139 | ||
+ | [[:Category:Rajasuya|''Rajasuya'']] [[:Category:sacrifice|''sacrifice'']] [[:Category:Rajasuya sacrifice|''Rajasuya sacrifice'']] [[:Category:राजसूय|''राजसूय'']] [[:Category:महायज्ञ|''महायज्ञ'']] [[:Category:राजसूय महायज्ञ|''राजसूय महायज्ञ'']] | ||
+ | |||
कम्बलाजिनरत्नानि राङ्कवास्तरणानि च। | कम्बलाजिनरत्नानि राङ्कवास्तरणानि च। | ||
− | [[:Category: | + | समृद्धां तां तथा दृष्ट्वा पाण्डवानां तदाश्रियम्॥ 1-1-140 |
− | + | ईर्ष्यासमुत्थः सुमहांस्तस्य मन्युरजायत। | |
− | + | विमानप्रतिमां तत्र मयेन सुकृतां सभाम्॥ 1-1-141 | |
− | + | पाण्डवानामुपहृतां स दृष्ट्वा पर्यतप्यत। | |
− | + | तत्रावहसितश्चासीत्प्रस्कन्दन्निव सम्भ्रमात्॥ 1-1-142 | |
− | + | प्रत्यक्षं वासुदेवस्य भीमेनानभिजातवत्। | |
− | + | स भोगान्विविधान्भुञ्जन्रत्नानि विविधानि च॥ 1-1-143 | |
− | + | [[:Category:Duryodhana|''Duryodhana'']] [[:Category:Jealousy|''Jealousy'']] [[:Category:Insult|''Insult'']] [[:Category:दुर्योधन|''दुर्योधन'']] [[:Category:ईर्ष्या|''ईर्ष्या'']] [[:Category:अपमान|''अपमान'']] [[:Category:दुर्योधनकी ईर्ष्या|''दुर्योधनकी ईर्ष्या'']] | |
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | + | कथितो धृतराष्ट्रस्य विवर्णो हरिणः कृशः। | |
+ | अन्वजानात्ततो द्यूतं धृतराष्ट्रः सुतप्रियः॥ 1-1-144 | ||
+ | [[:Category:gambling|''gambling'']] [[:Category:match|''match'']] [[:Category:invite|''invite'']] [[:Category:gambling match invite|''gambling match invite'']] [[:Category:पांडवोके साथ जुआ|''पांडवोके साथ जुआ'']] [[:Category:जुआ|''जुआ'']] [[:Category:मैच|''मैच'']] | ||
− | + | तच्छ्रुत्वा वासुदेवस्य कोपः समभवन्महान्। | |
+ | नातिप्रीतमनाश्चासीद्विवादांश्चान्वमोदत॥ 1-1-145 | ||
+ | द्यूतादीननयान्घोरान्विविधांश्चाप्युपैक्षत। | ||
+ | निरस्य विदुरं भीष्मं द्रोणं शारद्वतं कृपम्॥ 1-1-146 | ||
+ | [[:Category:Krishna|''Krishna'']] [[:Category:Ignore|''Ignore'']] [[:Category:gambling|''gambling'']] [[:Category:match|''match'']] [[:Category:gambling match|''gambling match'']] [[:Category:उपेक्षा|''उपेक्षा'']] [[:Category:जुआ|''जुआ'']] [[:Category:मैच|''मैच'']] [[:Category:कृष्णने जुआकी उपेक्षा|''कृष्णने जुआकी उपेक्षा'']] | ||
− | + | विग्रहे तुमुले तस्मिन्दहन्क्षत्रं परस्परम्। | |
+ | जयत्सु पाण्डुपुत्रेषु श्रुत्वा सुमहदप्रियम्॥ 1-1-147 | ||
+ | दुर्योधनमतं ज्ञात्वा कर्णस्य शकुनेस्तथा। | ||
+ | धृतराष्ट्रश्चिरं ध्यात्वा संजयं वाक्यमब्रवीत्॥ 1-1-148 | ||
+ | शृणु संजय सर्वं मे न चासूयितुमर्हसि। | ||
+ | श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान्प्राज्ञसम्मतः॥ 1-1-149 | ||
+ | न विग्रहे मम मति न च प्रीये कुलक्षये। | ||
+ | न मे विशेषः पुत्रेषु स्वेषु पाण्डुसुतेषु वा॥ 1-1-150 | ||
+ | वृद्धं मामभ्यसूयन्ति पुत्रा मन्युपरायणाः। | ||
+ | अहं त्वचक्षुः कार्पण्यात्पुत्रप्रीत्या सहामि तत्॥ 1-1-151 | ||
+ | मुह्यन्तं चानुमुह्यामि दुर्योधनमचेतनम्। | ||
+ | राजसूये श्रियं दृष्ट्वा पाण्डवस्य महौजसः॥ 1-1-152 | ||
+ | तच्चावहसनं प्राप्य सभारोहणदर्शने। | ||
+ | अमर्षणः स्वयं जेतुमशक्तः पाण्डवान्रणे॥ 1-1-153 | ||
+ | निरुत्साहश्च सम्प्राप्तुं सुश्रियं क्षत्रियोऽपिसन्। | ||
+ | गान्धारराजसहितश्छद्मद्यूतममन्त्रयत्॥ 1-1-154 | ||
+ | तत्र यद्यद्यथा ज्ञातं मया संजय तच्छृणु। | ||
+ | श्रुत्वा तु मम वाक्यानि बुद्धियुक्तानि तत्त्वतः। | ||
+ | ततो ज्ञास्यसि मां सौते प्रज्ञाचक्षुषमित्युत॥ 1-1-155 | ||
+ | यदाश्रौषं धनुरायम्य चित्रं विद्धं लक्ष्यं पातितं वै पृथिव्याम्। | ||
+ | कृष्णां हृतां प्रेक्षतां सर्वराज्ञां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-156 | ||
+ | यदाश्रौषं द्वारकायां सुभद्रां प्रसह्योढां माधवीमर्जुनेन। | ||
+ | इन्द्रप्रस्थं वृष्णिवीरौ च यातौ तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-157 | ||
+ | यदाश्रौषं देवराजं प्रविष्टं शरैर्दिव्यैर्वारितं चार्जुनेन। | ||
+ | अग्निं तथा तर्पितं खाण्डवे च तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-158 | ||
+ | यदाश्रौषं पुनरामन्त्र्य द्यूते महात्मनां प्रस्थितानां वनाय। | ||
+ | ज्येष्ठप्रीत्या क्लिश्यतां पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ | ||
+ | यदाश्रौषं जातुषाद्वेश्मनस्तान्मुक्तान्पार्थान्पञ्च कुन्त्या समेतान्। | ||
+ | युक्तं चैषां विदुरं स्वार्थसिद्धौ तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-159 | ||
+ | यदाश्रौषं द्रौपदीं रङ्गमध्ये लक्ष्यं भित्त्वा निर्जितामर्जुनेन। | ||
+ | शूरान्पञ्चालान्पाण्डवेयांश्च युक्तांस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-160 | ||
+ | यदाश्रौषं मागधानां वरिष्ठं जरासन्धं क्षत्रमध्ये ज्वलन्तम्। | ||
+ | दोर्भ्यां हतं भीमसेनेन गत्वा तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-161 | ||
+ | यदाश्रौषं दिग्जये पाण्डुपुत्रैर्वशीकृतान्भूमिपालान्प्रसह्य। | ||
+ | महाक्रतुं राजसूयं कृतं च तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-162 | ||
+ | यदाश्रौषं द्रौपदीमश्रुकण्ठीं सभां नीतां दुःखितामेकवस्त्राम्। | ||
+ | रजस्वलां नाथवतीमनाथवत्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-163 | ||
+ | यदाश्रौषं वाससां तत्र राशिं समाक्षिपत्कितवो मन्दबुद्धिः। | ||
+ | दुःशासनो गतवान्नैव चान्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-164 | ||
+ | यदाश्रौषं हृतराज्यं युधिष्ठिरं पराजितं सौबलेनाक्षवत्याम्। | ||
+ | अन्वागतं भ्रातृभिरप्रमेयैस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-165 | ||
+ | यदाश्रौषं विविधास्तत्र चेष्टा धर्मात्मनां प्रस्थितानां वनाय। | ||
+ | ज्येष्ठप्रीत्या क्लिश्यतां पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-166 | ||
+ | यदाश्रौषं स्नातकानां सहस्रैरन्वागतं धर्मराजं वनस्थम्। | ||
+ | भिक्षाभुजां ब्राह्मणानां महात्मनां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-167 | ||
+ | यदाश्रौषमर्जुनं देवदेवं किरातरूपं त्र्यम्बकं तोष्य युद्धे। | ||
+ | अवाप्तवन्तं पाशुपतं महास्त्रं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-168 | ||
+ | (यदाश्रौषं वनवासे तु पार्थान्समागतान्महर्षिभिः पुगणैः। | ||
+ | उपास्यमानान्सगणैर्जातसख्यान्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥) | ||
+ | यदाश्रौषं त्रिदिवस्थं धनञ्जयं शक्रात्साक्षाद्दिव्यमस्त्रं यथावत्। | ||
+ | अधीयानं शंसितं सत्यसन्धं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-169 | ||
+ | यदाश्रौषं तीर्थयात्रानिवृत्तं पाण्डोस्सुतं सहितं रोमशेन। | ||
+ | तस्मादश्रौषीदर्जुनस्यार्थलाभं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ | ||
+ | यदाश्रौषं कालकेयाः ततस्ते पौलोमानो वरदानाच्च दृप्ताः। | ||
+ | देवैरजेया निर्जिताश्चार्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-170 | ||
+ | यदाश्रौषमसुराणां वधार्थे किरीटिनं यान्तममित्रकर्शनम्। | ||
+ | कृतार्थं चाप्यागतं शक्रलोकात् तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-171 | ||
+ | (यदाश्रौषं तीर्थयात्राप्रवृत्तं पाण्डोः सुतं सहितं लोमशेन। | ||
+ | तस्मादश्रौषीदर्जुनस्यार्थलाभं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥) | ||
+ | यदाश्रौषं वैश्रवणेन सार्धं समागतं भीममन्यांश्च पार्थान्। | ||
+ | तस्मिन्देशे मानुषाणामगम्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-172 | ||
+ | यदाश्रौषं घोषयात्रागतानां बन्धं गन्धर्वैर्मोक्षणं चार्जुनेन। | ||
+ | स्वेषां सुतानां कर्णबुद्धौ रतानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-173 | ||
+ | यदाश्रौषं यक्षरूपेण धर्मं समागतं धर्मराजेन सूत। | ||
+ | प्रश्नान्कांश्चिद्विब्रुवाणं च सम्यक्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-174 | ||
+ | यदाश्रौषं न विदुर्मामकास्तान्प्रच्छन्नरूपान्वसतः पाण्डवेयान्। | ||
+ | विराटराष्ट्रे सह कृष्णया च तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-175 | ||
+ | यदाश्रौषं तान्यथाऽज्ञातवासेऽज्ञायमानान्मामकानां सकाशे। | ||
+ | दक्षान्पार्थान्चरितश्चाग्निकल्पां स्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ | ||
+ | (यदाश्रौषं कीचकानां वरिष्ठं निषूदितं भ्रातृशतेन सार्धम्। | ||
+ | द्रौपद्यर्थं भीमसेनेन संख्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय॥) | ||
+ | यदाश्रौषं मामकानां वरिष्ठान्धनञ्जयेनैकरथेन भग्नान्। | ||
+ | विराटराष्ट्रे वसता महात्मना तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-176 | ||
+ | यदाश्रौषं सत्कृतां मत्स्यराज्ञा सुतां दत्तामुत्तरामर्जुनाय। | ||
+ | तां चार्जुनः प्रत्यगृह्णात्सुतार्थे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-177 | ||
+ | यदाश्रौषं निर्जितस्याधनस्य प्रव्राजितस्य स्वजनात्प्रच्युतस्य। | ||
+ | अक्षौहिणीः सप्त युधिष्ठिरस्य तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-178 | ||
+ | यदाश्रौषं माधवं वासुदेवं सर्वात्मना पाण्डवार्थे निविष्टम्। | ||
+ | यस्येमां गां विक्रममेकमाहुस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-179 | ||
+ | यदाश्रौषं नरनारायणौ तौ कृष्णार्जुनौ वदतो नारदस्य। | ||
+ | अहं द्रष्टा ब्रह्मलोके च सम्यक्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-180 | ||
+ | यदाश्रौषं लोकहिताय कृष्णं शमार्थिनमुपयातं कुरूणाम्। | ||
+ | शमं दुर्वार[कुर्वाण]मकृतार्थं च यातं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-181 | ||
+ | यदाश्रौषं कर्णदुर्योधनाभ्यां बुद्धिं कृतां निग्रहे केशवस्य। | ||
+ | तं चात्मानं बहुधा दर्शयानं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-182 | ||
+ | यदाश्रौषं वासुदेवे प्रयाते रथस्यैकामग्रतस्तिष्ठमानाम्। | ||
+ | आर्तां पृथां सान्त्वितां केशवेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-183 | ||
+ | यदाश्रौषं मन्त्रिणं वासुदेवं तथा भीष्मं शान्तनवं च तेषाम्। | ||
+ | भारद्वाजं चाशिषोऽनुब्रुवाणं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-184 | ||
+ | यदाश्रौषं कर्ण उवाच भीष्मं नाहं योत्स्ये युध्यमाने त्वयीति। | ||
+ | हित्वा सेनामपचक्राम चापि तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-185 | ||
+ | यदाश्रौषं वासुदेवार्जुनौ तौ तथा धनुर्गाण्डीवमप्रमेयम्। | ||
+ | त्रीण्युग्रवीर्याणि समागतानि तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-186 | ||
+ | यदाश्रौषं कश्मलेनाभिपन्ने रथोपस्थे सीदमानेऽर्जुने वै। | ||
+ | कृष्णं लोकान्दर्शयानं शरीरे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-187 | ||
+ | यदाश्रौषं भीष्मममित्रकर्शनं निघ्नन्तमाजावयुतं रथानाम्। | ||
+ | नैषां कश्चिद्विद्यते[बध्यते] ख्यातरूपस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-188 | ||
+ | यदाश्रौषं चापगेयेन संख्ये स्वयं मृत्युं विहितं धार्मिकेण। | ||
+ | तञ्चा[च्चा]कार्षुः पाण्डवेयाः प्रहृष्टास्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-189 | ||
+ | यदाश्रौषं भीष्ममत्यन्तशूरं विहत्य[हतं] पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम्। | ||
+ | शिखण्डिनं पुरतः स्थापयित्वा तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-190 | ||
+ | यदाश्रौषं शरतल्पे शयानं वृद्धं वीरं सादितं चित्रपुङ्खैः। | ||
+ | भीष्मं कृत्वा सोमक अनल्पशेषांस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-191 | ||
+ | यदाश्रौषं शान्तनवे शयाने पानीयार्थे चोदितेनार्जुनेन। | ||
+ | भूमिं भित्त्वा तर्पितं तत्र भीष्मं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-192 | ||
+ | यदा वायुश्शक्र[श्चन्द्र]सूर्यौ च युक्तौ कौन्तेयानामनुलोमा जयाय। | ||
+ | नित्यं चास्माञ्श्वापदा भीषयन्ति तदा नाशंसे बिजयाय संजय॥ 1-1-193 | ||
+ | यदा द्रोणो विविधानस्त्रमार्गान्निदर्शयन्समरे चित्रयोधी। | ||
+ | न पाण्डवाञ्श्रेष्ठतरान्निहन्ति तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-194 | ||
+ | यदाश्रौषं चास्मदीयान्महारथान्व्यवस्थितानर्जुनस्यान्तकाय। | ||
+ | संशप्तक अन्निहतानर्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-195 | ||
+ | यदाश्रौषं व्यूहमभेद्यमन्यैर्भारद्वाजेनात्तशस्त्रेण गुप्तम्। | ||
+ | भित्त्वा सौभद्रं वीरमेकं प्रविष्टं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-196 | ||
+ | यदाभिमन्युं परिवार्य बालं सर्वे हत्वा हृष्टरूपा बभूवुः। | ||
+ | महारथाः पार्थमशक्नुवन्तस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-197 | ||
+ | यदाश्रौषमभिमन्युं निहत्य हर्षान्मूढान्क्रोशतो धार्तराष्ट्रान्। | ||
+ | क्रोधादुक्तं सैन्धवे चार्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-198 | ||
+ | यदाश्रौषं सैन्धवार्थे प्रतिज्ञां प्रतिज्ञातां तद्वधायार्जुनेन। | ||
+ | सत्यां तीर्णां शत्रुमध्ये च तेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-199 | ||
+ | यदाश्रौषं श्रान्तहये धनञ्जये मुक्त्वाहयान्पाययित्वोपवृत्तान्। | ||
+ | पुनर्युक्त्वा वासुदेवं प्रयातं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-200 | ||
+ | यदाश्रौषं वाहनेष्वक्षमेषु रथोपस्थे तिष्ठता पाण्डवेन। | ||
+ | सर्वान्योधान्वारितानर्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-201 | ||
+ | यदाश्रौषं नागबलैः सुदुःसहं द्रोणानीकं युयुधानं प्रमथ्य। | ||
+ | यातं वार्ष्णेयं यत्र तौ कृष्णपार्थौ तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-202 | ||
+ | यदाश्रौषं कर्णमासाद्य मुक्तं वधाद्भीमं कुत्सयित्वा वचोभिः। | ||
+ | धनुष्कोट्याऽऽतुद्य कर्णेन वीरं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-203 | ||
+ | यदा द्रोणः कृतवर्मा कृपश्च कर्णो द्रौणिर्मद्रराजश्च शूरः। | ||
+ | अमर्षयन्सैन्धवं वध्यमानं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-204 | ||
+ | यदाश्रौषं देवराजेन दत्तां दिव्यां शक्तिं व्यंसितां माधवेन। | ||
+ | घटोत्कचे राक्षसे घोररूपे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-205 | ||
+ | यदाश्रौषं कर्णघटोत्कचाभ्यां युद्धे मुक्तां सूतपुत्रेण शक्तिम्। | ||
+ | यया वध्यः समरे सव्यसाची तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-206 | ||
+ | यदाश्रौषं द्रोणमाचार्यमेकं धृष्टद्युम्नेनाभ्यतिक्रम्य धर्मम्। | ||
+ | रथोपस्थे प्रायगतं विशस्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-207 | ||
+ | यदाश्रौषं द्रौणिना द्वैरथस्थं माद्रीसुतं नकुलं लोकमध्ये। | ||
+ | समं युद्धे मण्डलश[लेभ्य]श्चरन्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-208 | ||
+ | यदा द्रोणे निहते द्रोणपुत्रो नारायणं दिव्यमस्त्रं विकुर्वन्। | ||
+ | नैषामन्तं गतवान्पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-209 | ||
+ | यदाश्रौषं भीमसेनेन पीतं रक्तं भ्रातुर्युधि दुःशासनस्य। | ||
+ | निवारितं नान्यतमेन भीमं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-210 | ||
+ | यदाश्रौषं कर्णमत्यन्तशूरं हतं पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम्। | ||
+ | तस्मिन्भ्रातॄणां विग्रहे देवगुह्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-211 | ||
+ | यदाश्रौषं द्रोणपुत्रं च शूरं दुःशासनं कृतवर्माणमुग्रम्। | ||
+ | युधिष्ठिरं धर्मराजं जयन्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-212 | ||
+ | यदाश्रौषं निहतं मद्रराजं रणे शूरं धर्मराजेन सूत। | ||
+ | सदा संग्रामे स्पर्धते यस्तु कृष्णं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-213 | ||
+ | यदाश्रौषं कलहद्यूतमूलं मायाबलं सौबलं पाण्डवेन। | ||
+ | हतं संग्रामे सहदेवेन पापं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-214 | ||
+ | यदाश्रौषं श्रान्तमेकं शयानं ह्रदं गत्वा स्तम्भयित्वा तदम्भः। | ||
+ | दुर्योधनं विरतं भग्नशक्तिं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-215 | ||
+ | यदाश्रोषं पाण्डवांस्तिष्ठमानान्गत्वा ह्रदे वासुदेवेन सार्धम्। | ||
+ | अमर्षणं धर्षयतः सुतं मे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-216 | ||
+ | यदाश्रौषं विविधांश्चित्रमार्गान्गदायुद्धे मण्डलशश्चरन्तम्। | ||
+ | मिथ्याहतं वासुदेवस्य बुद्ध्या तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-217 | ||
+ | यदाश्रौषं द्रोणपुत्रादिभिस्तैहृतान्पञ्चालान्द्रौपदेयांश्चसुप्तान्। | ||
+ | कृतं बीभत्समयशस्यं च कर्म तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-218 | ||
+ | यदाश्रौषं भीमसेनानुयातेनाश्वत्थाम्ना परमास्त्रं प्रयुक्तम्। | ||
+ | क्रुद्धेनैषीकमवधीद्येन गर्भं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-219 | ||
+ | यदाश्रौषं ब्रह्मशिरोऽर्जुनेन स्वस्तीत्युक्त्वास्त्रमस्त्रेण शान्तम्। | ||
+ | अश्वत्थाम्ना मणिरत्नं च दत्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-220 | ||
+ | यदाश्रौषं द्रोणपुत्रेण गर्भे वैराट्या वै पात्यमाने महास्त्रैः। | ||
+ | द्वैपायनः केशवो द्रोणपुत्रं परस्परेणाभिशापैः शशाप॥ 1-1-221 | ||
+ | शोच्या गान्धारी पुत्रपौत्रैविहीना तथा बन्धुभिः पितृभिर्भ्रातृभिश्च। | ||
+ | कृतं कार्यं दुष्करं पाण्डवेयैः प्राप्तं राज्यमसपत्नं पुनस्तैः॥ 1-1-222 | ||
+ | कष्टं युद्धे दश शेषाः श्रुता मे त्रयोऽस्माकं पाण्डवानां च सप्त। | ||
+ | द्व्यूना विंशतिराहताक्षौहिणीनां तस्मिन्संग्रामे भैरवे क्षत्रियाणाम्॥ 1-1-223 | ||
+ | तमस्त्वतीव विस्तीर्णं मोह आविशतीव माम्। | ||
+ | संज्ञां नोपलभे सूत मनो विह्वलतीव मे॥ 1-1-224 | ||
+ | [[:Category:Dhrtarashtra|''Dhrtarashtra'']] [[:Category:Discussion|''Discussion'']] [[:Category:Sanjay|''Sanjay'']] [[:Category:reasons|''reasons'']] [[:Category:hope|''hope'']] [[:Category:loss of hope|''loss of hope'']] [[:Category:victory|''victory'']] [[:Category:धृतराष्ट्र|''धृतराष्ट्र'']] [[:Category:वार्तालाप|''वार्तालाप'']] [[:Category:संजय|''संजय'']] [[:Category:कारण|''कारण'']] [[:Category:विजय|''विजय'']] [[:Category:आशा|''आशा'']] [[:Category:ध्रतराष्ट्रका संजयके साथ वार्तालाप|''ध्रतराष्ट्रका संजयके साथ वार्तालाप'']] [[:Category:ध्रतराष्ट्रने विजयकी आशा छोड़ने के कारण|''ध्रतराष्ट्रने विजयकी आशा छोड़ने के कारण'']] | ||
− | + | सौतिरुवाच इत्युक्त्वा धृतराष्ट्रोऽथ विलप्य बहुदुःखितः। | |
+ | मूर्च्छितः पुनराश्वस्तः संजयं वाक्यमब्रवीत्॥ 1-1-225 | ||
+ | धृतराष्ट्र उवाच संजयैवं गते प्राणांस्त्यक्तुमिच्छामि मा चिरम्। | ||
+ | स्तोकं ह्यपि न पश्यामि फलं जीवितधारणे॥ 1-1-226 | ||
+ | सौतिरुवाच तं तथावादिनं दीनं विलपन्तं महीपतिम्। | ||
+ | निःश्वसन्तं यथा नागं मुह्यमानं पुनः पुनः। | ||
+ | गावल्गणिरिदं धीमान्महार्थं वाक्यमब्रवीत्॥ 1-1-227 | ||
+ | संजय उवाच श्रुतवानसि वै राजन्महोत्साहान्महाबलान्। | ||
+ | द्वैपायनस्य वदतो नारदस्य च धीमतः॥ 1-1-228 | ||
+ | महत्सु राजवंशेषु गुणैः समुदितेषु च। | ||
+ | जातान्दिव्यास्त्रविदुषः शक्रप्रतिमतेजसः॥ 1-1-229 | ||
+ | धर्मेण पृथिवीं जित्वा यज्ञैरिष्ट्वाप्तदक्षिणैः। | ||
+ | अस्मिँल्लोके यशः प्राप्य ततः कालवशंगतान्॥ 1-1-230 | ||
+ | शैब्यं महारथं वीरं सृञ्जयं जयतां वरम्। | ||
+ | सुहोत्रं रन्तिदेवं च काक्षीवन्तम्महाद्युतिम्[मथौशिजम्]॥ 1-1-231 | ||
+ | बाह्लीकं दमनं चैव[द्यं] शर्यातिमजितं नलम्। | ||
+ | विश्वामित्रममित्रघ्नमम्बरीषं महाबलम्॥ 1-1-232 | ||
+ | मरुत्तं मनुमिक्ष्वाकुं गयं भरतमेव च। | ||
+ | रामं दाशरथिं चैव शशबिन्दुं भगीरथम्॥ 1-1-233 | ||
+ | कृतवीर्यं महाभागं तथैव जनमेजयम्। | ||
+ | ययातिं शुभकर्माणं देवैर्यो याजितः स्वयम्॥ 1-1-234 | ||
+ | चैत्ययूपाङ्किता भूमिर्यस्येयं सवनाकरा। | ||
+ | इति राज्ञां चतुर्विंशन्नारदेन सुरर्षिणा॥ 1-1-235 | ||
+ | पुत्रशोकाभितप्ताय पुरा श्यैब्या[श्वैत्या]य कीर्तितम्। | ||
+ | तेभ्यश्चान्ये गताः पूर्वं राजानो बलवत्तराः॥ 1-1-236 | ||
+ | महारथा महात्मानः सर्वैः समुदिता गुणैः। | ||
+ | पूरुः कुरुर्यदुः शूरो विष्वगश्वो महाद्युतिः॥ 1-1-237 | ||
+ | अणुहो युवनाश्वश्च ककुत्स्थो विक्रमी रघुः। | ||
+ | विजयो वीतिहोत्रोऽङ्गो भवः श्वेतो बृहद्गुरुः॥ 1-1-238 | ||
+ | उशीनरः शतरथः कङ्को दुलिदुहो द्रुमः। | ||
+ | दम्भोद्भवः परो वेनः सगरः संकृतिर्निमिः॥ 1-1-239 | ||
+ | अजेयः परशुः पुण्ड्रः शम्भुर्देवावृधोऽनघः। | ||
+ | देवाह्वयः सुप्रतिमः सुप्रतीको बृहद्रथः॥ 1-1-240 | ||
+ | महोत्साहो विनीतात्मा सुक्रतुः नैषधो नलः। | ||
+ | सत्यव्रतः शान्तभयः सुमित्रः सुबलः प्रभुः॥ 1-1-241 | ||
+ | जानुजङ्घोऽनरण्योऽर्कः प्रियभृत्यः शुभ[चि]व्रतः। | ||
+ | बलबन्धुर्निरामर्दः केतुशृङ्गो बृहद्बलः। | ||
+ | धृष्टकेतुर्बृहत्केतुर्दीप्तकेतुर्निरामयः॥ 1-1-242 | ||
+ | अवीक्षिच्चपलो धूर्तः कृतबन्धुर्दृढेषुधिः। | ||
+ | महापुराणसम्भाव्यः प्रत्यङ्गः परहा श्रुतिः॥ 1-1-243 | ||
+ | एते चान्ये च राजानः शतशोऽथ सहस्रशः। | ||
+ | श्रूयन्ते शतशश्चान्ये संख्याताश्चैव पद्मशः॥ 1-1-244 | ||
+ | हित्वा सुविपुलान्भोगान्बुद्धिमन्तोमहाबलाः। | ||
+ | राजानो निधनं प्राप्तास्तव पुत्रा इव प्रभो॥ 1-1-245 | ||
+ | येषां दिव्यानि कर्माणि विक्रमस्त्याग एव च। | ||
+ | माहात्म्यमपि चास्तिक्यंसत्यंशौचं दयार्जवम्॥ 1-1-246 | ||
+ | विद्वद्भिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमैः। | ||
+ | सर्वर्द्धिगुणसम्पन्नास्ते चापि निधनं गताः॥ 1-1-247 | ||
+ | तव पुत्रा दुरात्मानः प्रतप्ताश्चैव मन्युना। | ||
+ | लुब्धा दुर्वृत्तभूयिष्ठा न ताञ्छोचितुमर्हसि॥ 1-1-248 | ||
+ | श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान्प्राज्ञसम्मतः। | ||
+ | येषां शास्त्रानुगा बुद्धिर्न ते मुह्यन्ति भारत॥ 1-1-249 | ||
+ | निग्रहानुग्रहौ चापि विदितौ ते नराधिप। | ||
+ | नात्यन्तमेवानुवृत्तिः कार्या ते पुत्ररक्षणे॥ 1-1-250 | ||
+ | भवितव्यं तथा तच्च नानुशोचितुमर्हसि। | ||
+ | दैवं प्रज्ञाविशेषेण को निवर्तितुमर्हति॥ 1-1-251 | ||
+ | विधातृविहितं मार्गं न कश्चिदतिवर्तते। | ||
+ | कालमूलमिदं सर्वं भावाभावौ सुखासुखे॥ 1-1-252 | ||
+ | कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः। | ||
+ | कालः प्रजाः निर्दहति[संहरन्तं प्रजाः कालं] कालः शमयते पुनः॥ 1-1-253 | ||
+ | कालो हि कुरुते भावान्सर्वलोके शुभाशुभान्। | ||
+ | कालः संक्षिपते सर्वाः प्रजा विसृजते पुनः॥ 1-1-254 | ||
+ | कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः। | ||
+ | कालः सर्वेषु भूतेषु चरत्यविधृतः समः॥ 1-1-255 | ||
+ | अतीतानागता भावा ये च वर्तन्ति साम्प्रतम्। | ||
+ | तान्कालनिर्मितान्बुद्धवा न संज्ञां हातुमर्हसि॥ 1-1-256 | ||
+ | सौतिरुवाच इत्येवं पुत्रशोकार्तं धृतराष्ट्रं जनेश्वरम्। | ||
+ | आश्वास्य स्वस्थमकरोत्सूतो गावल्गणिस्तदा॥ 1-1-257 | ||
+ | अत्रोपनिषदं पुण्यां कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत्। | ||
+ | विद्वद्भिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमैः॥ 1-1-258 | ||
+ | [[:Category:Sanjay|''Sanjay'']] [[:Category:Consoles|''Consoles'']] [[:Category:grieving|''grieving'']] [[:Category:Dhrtarashtra|''Dhrtarashtra'']] [[:Category:grief|''grief'']] [[:Category:Dhrtarashtra|''Dhrtarashtra'']][[:Category:पुत्रशोक|''पुत्रशोक'']] [[:Category:पुत्रशोक|''पुत्रशोक'']] [[:Category:व्याकुल|''व्याकुल'']] [[:Category:संजय|''संजय'']][[:Category:समजाना|''समजाना'']] | ||
− | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अनुक्रमणिकापर्वणि ग्रन्थारम्भे प्रथमोऽध्यायः॥ 1 ॥ | + | भारताध्ययनं पुण्यमपि पादमधीयतः। |
+ | श्रद्दधानस्य पूयन्ते सर्वपापान्यशेषतः॥ 1-1-259 | ||
+ | देवा देवर्षयो ह्यत्र तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः। | ||
+ | कीर्त्यन्ते शुभकर्माणस्तथा यक्षा महोरगाः॥ 1-1-260 | ||
+ | भगवान्वासुदेवश्च कीर्त्यतेऽत्र सनातनः। | ||
+ | स हि सत्यमृतं चैव पवित्रं पुण्यमेव च॥ 1-1-261 | ||
+ | शाश्वतं ब्रह्म परमं ध्रुवं ज्योतिः सनातनम्। | ||
+ | यस्य दिव्यानि कर्माणि कथयन्ति मनीषिणः॥ 1-1-262 | ||
+ | असच्च सदसच्चैव यस्माद्विश्वं प्रवर्तते। | ||
+ | संततिश्च प्रवृत्तिश्च जन्ममृत्युपुनर्भवाः॥ 1-1-263 | ||
+ | अध्यात्मं श्रूयते यच्च पञ्चभूतगुणात्मकम्। | ||
+ | अव्यक्तादि परं यच्च स एव परिगीयते॥ 1-1-264 | ||
+ | यत्तद्यतिवरा मुक्ता ध्यानयोगबलान्विताः। | ||
+ | प्रतिबिम्बमिवादर्शे पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्॥ 1-1-265 | ||
+ | श्रद्दधानः सदा युक्तः सदा धर्मपरायणः। | ||
+ | आसेवन्निममध्यायं नरः पापात्प्रमुच्यते॥ 1-1-266 | ||
+ | अनुक्रमणिकाध्यायं भारतस्येममादितः। | ||
+ | आस्तिकः सततं शृण्वन्न कृच्छ्रेष्ववसीदति॥ 1-1-267 | ||
+ | उभे संध्ये जपन्किंचित्सद्यो मुच्येत किल्बिषात्। | ||
+ | अनुक्रमण्या यावत्स्यादह्ना रात्र्या च संचितम्॥ 1-1-268 | ||
+ | भारतस्य वपुर्ह्येतत्सत्यं चामृतमेव च। | ||
+ | नवनीतं यथा दध्नो द्विपदां ब्राह्मणो यथा॥ 1-1-269 | ||
+ | आरण्यकं च वेदेभ्य ओषधिभ्योऽमृतं यथा। | ||
+ | ह्रदानामुदधिः श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम्॥ 1-1-270 | ||
+ | यथैतानीतिहासानां तथा भारतमुच्यते। | ||
+ | यश्चैनं श्रावयेच्छ्राद्धे ब्राह्मणान्पादमन्ततः॥ 1-1-271 | ||
+ | अक्षय्यमन्नपानं वै पितॄंस्तस्योपतिष्ठते। | ||
+ | इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्॥ 1-1-272 | ||
+ | बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रत[ह]रिष्यति। | ||
+ | कार्ष्णं वेदमिमं विद्वान्श्रावयित्वार्थमश्नुते॥ 1-1-273 | ||
+ | भ्रूणहत्यादिकं चापि पापं जह्यादसंशयम्। | ||
+ | य इमं शुचिरध्यायं पठेत्पर्वणि पर्वणि॥ 1-1-274 | ||
+ | अधीतं भारतं तेन कृत्स्नं स्यादिति मे मतिः। | ||
+ | यश्यैनं शृणुयान्नित्यमार्षं श्रद्धासमन्वितः॥ 1-1-275 | ||
+ | स दीर्घमायुः कीर्तिं च स्वर्गतिं चाप्नुयान्नरः। | ||
+ | एकतश्चतुरो वेदान्भारतं चैतदेकतः॥ 1-1-276 | ||
+ | पुरा किल सुरैः सर्वैः समेत्य तुलया धृतम्। | ||
+ | चतुर्भ्यः सरहस्येभ्यो वेदेभ्यो ह्यधिकं यदा॥ 1-1-277 | ||
+ | तदा प्रभृति लोकेऽस्मिन्महाभारतमुच्यते। | ||
+ | महत्त्वे च गुरुत्वे च ध्रियमाणं यतोऽधिकम्॥ 1-1-278 | ||
+ | महत्त्वाद्भारवत्त्वाच्च महाभारतमुच्यते। | ||
+ | निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ 1-1-279 | ||
+ | तपो न कल्कोऽध्ययनं न कल्कः स्वाभाविको वेदविधिर्न कल्कः। | ||
+ | प्रसह्य वित्ताहरणं न कल्कस्तान्येव भावोपहतानि कल्कः॥ 1-1-280 | ||
+ | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अनुक्रमणिकापर्वणि ग्रन्थारम्भे प्रथमोऽध्यायः॥ 1 ॥ | ||
+ | [[:Category:significance of Mahabharat|''significance of Mahabharat'']] [[:Category:importance of Mahabharat|''importance of Mahabharat'']] [[:Category:importance|''importance'']] [[:Category:significance|''significance'']] [[:Category:significance of first chapter of Mahabharat|''Category:significance of first chapter of Mahabharat'']] [[:Category:Significance of anukramanika adhyaya of Mahabharat|''Category:Significance of anukramanika adhyaya of Mahabharat'']] [[:Category:first|''first'']] [[:Category:chapter|''chapter'']] [[:Category:anukramanika|''anukramanika'']] [[:Category:adhyaya|''adhyaya'']] [[:Category:महाभारत का महत्व|''महाभारत का महत्व'']] [[:Category:अनुक्रमाणिका अध्याय का महत्व|''अनुक्रमाणिका अध्याय का महत्व'']] [[:Category:महाभारत|''महाभारत'']] [[:Category:महत्त्व|''महत्त्व'']] [[:Category:अनुक्रमाणिका|''अनुक्रमाणिका'']] [[:Category:अध्याय|''अध्याय'']] |
Latest revision as of 23:17, 12 December 2020
रो[लो]महर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सौतिः पौराणिको। नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपतेर्द्वादशवार्षिके सत्रे वर्तमाने॥ 1-1-1 सुखासीनानभ्यगच्छन्महर्षीन्संशितव्रतान्। विनयावनतो भूत्वा कदाचित्सूतनन्दनः॥ 1-1-2 Ugrashrava talks Naimisharanya sages उग्रश्रवा नैमिषारण्य ऋषि ऋषियों संवाद
तमाश्रममनुप्राप्तं नैमिशारण्यवासिनाम्।
चित्राः श्रोतुं कथास्तत्र परिवव्रुस्तपस्विनः॥ 1-1-3
अभिवाद्य मुनींस्तांस्तु सर्वानेव कृताञ्जलिः।
अपृच्छत्तपसोवृद्धिं[स तपोवृद्धिं] ऋषिभिश्चाभिनन्दितः[सद्भिश्चैवाभिपूजितः]॥ 1-1-4
अथ तेषूपविष्टेषु सर्वेष्वेव तपस्विषु। निर्दिष्टमासनं भेजे विनयाद्रौ[ल्लौ]महर्षणिः॥ 1-1-5 Lomharshana Son Ugrashrava लोमहर्षण पुत्र उग्रश्रवा
सुखासीनं ततस्तं ते[तु] विश्रान्तमुपलक्ष्य च। अथापृच्छदृषिस्तत्र काश्चित्प्रस्तावयन्कथाः॥ 1-1-6 Question First Question Ugrashrava First पेहला प्र्श्न रिशियोका प्र्श्न पेहला उग्रश्रवा रिशियो
कुत आगम्यते सौते क्व चायं विहृतस्त्वया।
कालः कमलपत्राक्ष शंसैतत्पृच्छतो मम॥ 1-1-7
एवं पृष्टोऽब्रवीत्सम्यग्यथावद्रौ[ल्लौ]महर्षणिः। वाक्यं वचनसम्पन्नस्तेषां च चरिताश्रयम्॥ 1-1-8 Ugrashrava Expert Orator उग्रश्रवा कुश्ल वक्ता
तस्मिन्सदसि विस्तीर्णे मुनीनां भावितात्मनाम्। सौतिरुवाच जनमेजयस्य राजर्षेः सर्पसत्रे महात्मनः॥ 1-1-9 समीपे पार्थिवेन्द्रस्य सम्यक्पारिक्षितस्य च। कृष्णद्वैपायनप्रोक्ताः सुपुण्या विविधाः कथाः॥ 1-1-10 कथिताश्चापि विधिवद्या वैशम्पायनेन वै। श्रुत्वाहं ता विचित्रार्था महाभारतसंश्रिताः॥ 1-1-11 Ugrashrava Mahabharata Stories Vyasdev उग्रश्रवा महाभारत व्यासदेव
बहूनि सम्परिक्रम्य तीर्थान्यायतनानि च। श[स]मन्तपञ्चकं नाम पुण्यं द्विजनिषेवितम्॥ 1-1-12 गतवानस्मि तं देशं युद्धं यत्राभवत्पुरा। पाण्डवानां कुरूणां [कुरूणां पाण्डवानां] च सर्वेषां च महीक्षिताम्॥ 1-1-13 Ugrashrava visits Kurukshetra UgrashravaKurukshetra Visit उग्रश्रवा कुरुक्षेत्र उग्रश्रवाका कुरुक्षेत्र जाना
दिदृक्षुरागतस्तस्मात्समीपं भवतामिह। आयुष्मन्तः सर्व एव ब्रह्मभूता हि मे मताः॥ 1-1-14 Ugrashrava KurukshetraNaimisharanya उग्रश्रवा कुरुक्षेत्र नैमिषारण्य
अस्मिन्यज्ञे महाभागाः सूर्यपावकवर्चसः। कृताभिषेकाः शुचयः कृतजप्याहुताग्नयः॥ 1-1-15 भवन्त आसते[ने] स्वस्था ब्रवीमि किमहं द्विजाः। पुराणसंहिताः पुण्याः कथा धर्मार्थसंश्रिताः॥ 1-1-16 Ugrashrava like sages listen puranas king stories उग्रश्रवा ऋषियों सुनना सुन पौराणिक कथा इतिहास राजऋषियों राजऋषियोंका इतिहास
इति वृत्तं नरेन्द्राणामृषीणां च महात्मनाम्। ऋषय ऊचुः द्वैपायनेन यत्प्रोक्तं पुराणं परमर्षिणा॥ 1-1-17 सुरैर्ब्रह्मर्षिभिश्चैव श्रुत्वा यदभिपूजितम्। तस्याख्यानवरिष्ठस्य विचित्रपदपर्वणः॥ 1-1-18 सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेद अर्थैर्भूषितस्य च। भारताख्ये[तस्ये]तिहासस्य पुण्यां ग्रन्थार्थसंयुताम्॥ 1-1-19 संस्कारोपगतां ब्राह्मीं नानाशास्त्रोपबृंहिताम्। जनमेजयस्य यां राज्ञो वैशम्पायन उक्तवान्॥ 1-1-20 थावत्स मुनि[ऋषि]स्तुष्ट्या सत्रे द्वैपायनाज्ञया। वेदैश्चतुर्भिः संहितां[संयुक्तां] व्यासस्याद्भुतकर्मणः॥ 1-1-21 Janamejay wedding wedding of Janamejay coronation coronation of Janamejay जनमेजयका विवाह जनमेजय विवाह जनमेजयका राज्याभिषेक राज्याभिषेक
संहितां श्रोतुमिच्छामः पुण्यां पापभयापहाम्। सौतिरुवाच आद्यं पुरुषमीशानं पुरुहूतं पुरुष्टुतम्॥ 1-1-22 ऋतमेकाक्षरं ब्रह्म व्यक्ताव्यक्तं सनातनम्। असच्च सदसच्चैव यद्विश्वं सदसत्परम्॥ 1-1-23 परावराणां स्रष्टारं पुराणं परमव्ययम्। मङ्गल्यं मङ्गलं विष्णुं वरेण्यमनघं शुचिम्॥ 1-1-24 नमस्कृत्य हृषीकेशं चराचरगुरुं हरिम्। महर्षेः पूजितस्येह सर्वलोकैर्महात्मनः॥ 1-1-25 Ugrashrava Vyasdev description supreme lord उग्रश्रवा व्यासदेव मत वर्णन परमात्मा दृष्टिकोण
प्रवक्ष्यामि मतं कृत्स्नं[पुण्यं] व्यासस्यामिततेजसः[व्यासस्याद्भुतकर्मणः]। ओं नमो भगवते तस्मै व्यासायामिततेजसे॥ 1-1-26 यस्य प्रसादाद्वक्ष्यामि नारायणकथामिमाम्। सर्वाश्रमाभिगमनं सर्वतीर्थावगाहनम्॥ 1-1-27 Mahabharata sung times several past present महाभारत इतिहास वर्णन भूतकाल वर्त्तमान भविष्य बार
न तथा फलदं लोके नारायणकथा यथा।
नास्ति नारायणसमो न भूतो न भविष्यति॥ 1-1-28
एतेन सत्यवाक्येन सर्वार्थान्साधयाम्यहम्।
आचख्युः कवयः केचित्सम्प्रत्याचक्षते परे॥ 1-1-29
आख्यास्यन्ति तथैवान्य[न्ये] इतिहासमिमं भुवि। एतद्धि हि[इदं तु] त्रिषु लोकेषु महज्ज्ञानं प्रतिष्ठितम्॥ 1-1-30 Mahabharata symbol knowledge symbol of knowledge महाभारत ज्ञान प्रतिक ज्ञानका प्रतिक
विस्तरैश्च समासैश्च धार्यते यद्द्विजातिभिः। अलंकृतं शुभैः शब्दैः समयैर्दिव्यमानुषैः॥ 1-1-31 Mahabharata scholars Mahabharata for scholars Ornamental language ornamental language महाभारत विद्वानो का ग्र्न्थ ग्र्न्थ
तपसा ब्रह्मचर्येण व्यस्य वेदं सनातनम्।
इतिहासमिमं चक्रे पुण्यं सत्यवतीसुतः॥
वेदार्थानां सारभूतमखिलार्थप्रदं ऋणाम्॥ 1-1-32
पुण्ये हिमवतः पादे मध्ये गिरिगुहालये।
विशोध्य देहं धर्मात्मा दर्भसंस्तरमाश्रितः॥ 1-1-33
शुचिः सनियमो व्यासः शान्तात्मा तपसि स्थितः।
भारतस्येतिहासस्य धर्मेणान्वीक्ष्य तां गतिम्॥ 1-1-34
प्रविश्य योगं ज्ञानेन सोऽपश्यत्सर्वमन्ततः। निष्प्रभेऽस्मिन्निरालोके सर्वतस्तमसावृते॥ 1-1-35 beginning of creation beginningcreation Egglike structure सृष्टि प्रारम्भ अंड प्रकट सृष्टि के प्रारम्भ मे अंड प्रकट
बृहदण्डमभूदेकं प्रजानां बीजमव्ययम्।
युगस्यादौ निमित्तं तन्महद्दिव्यं प्रचक्षते॥ 1-1-36
यस्मिन्संश्रूयते सत्यं ज्योतिर्ब्रह्म सनातनम्। अद्भुतं चाप्यजातं[चिन्त्यं] च सर्वत्र समतां गतम्॥ 1-1-37 description of brahman description brahman ब्रह्म वर्णन ब्रह्मका वर्णन
अव्यक्तं कारणं सूक्ष्मं यत्तत्सदसदात्मकम्। यस्मात्पितामहो जज्ञे प्रभुरेकः प्रजापतिः॥ 1-1-38 ब्रह्मा सुरगुरुः स्थाणुर्मनुश्च[नुः] परमेष्ठिजः[ष्ठ्यथ]। प्राचेतसस्तथा दक्षो दक्षपुत्राश्च सप्त वै॥ 1-1-39 ततः प्रजानां पतयः प्राभवन्नेकविंशतिः। पुरुषश्चाप्रमेयात्मा यं सर्व ऋषयो विदुः॥ 1-1-40 विश्वेदेवास्तथादित्या वसवोऽथाश्विनावपि। यक्षाः साध्याः पिशाचाश्च गुह्यकाः पितरस्तथा॥ 1-1-41 सप्तर्षयश्च[ततः प्रसूता] विद्वांसः शिष्टा ब्रह्मर्षिसत्तमाः। राजर्षयश्च बहवः सभूतां भूरितेजसः[सर्वे समुदिता गुणैः]॥ 1-1-42 आपो द्यौः पृथिवी वायुरन्तरिक्षं दिशस्तथा। संवत्सरर्तवो मासाः पक्षाहोरात्रयः क्रमात्॥ 1-1-43 eggshaped universe products अंडके आकारका ब्रह्माण्ड अंड आकार ब्रह्माण्ड
यच्चान्यदपि तत्सर्वं सम्भूतं लोकसंज्ञितम्[साक्षिकम्]। यदिदं दृश्यते किञ्चिद्भूतं स्थावरजङ्गमम्॥ 1-1-44 creation maintenance destruction उत्पत्ति स्तिथि लय
पुनः संक्षिप्यते सर्वं जगत्प्राप्ते युगक्षये। यथर्तावृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यये॥ 1-1-45 creation maintenance destruction analogy उत्पत्ति स्तिथि लय उपमिति
दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु। एवमेतदनाद्यन्तं भूतसङ्घात[हार]कारकम्॥ 1-1-46 creation maintenance destruction description उत्पत्ति स्तिथि लय विवरण
अनादिनिधनं लोके चक्रं सम्परिवर्तते। त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रयस्त्रिंशच्छतानि च॥ 1-1-47 त्रयस्त्रिंशच्च देवानां सृष्टिः संक्षेपलक्षणा। दिवःपुत्रो बृहद्भानुश्चक्षुरात्मा विभावसुः॥ 1-1-48 सविता स ऋचीकोऽर्को भानुराशावहो रविः। सुता[पुरा] विवस्वतः सर्वे मह्यस्तेषां तथावरः॥ 1-1-49 देवभ्राट्तनयस्तस्य सुभ्राडिति ततः स्मृतः। सुभ्राजस्तु त्रयः पुत्राः प्रजावन्तो बहुश्रुताः॥ 1-1-50 दशज्योतिः शतज्योतिः सहस्रज्योतिरेव च। दशपुत्रसहस्राणि दशज्योतेर्महात्मनः॥ 1-1-51 ततो दशगुणाश्चान्ये शतज्योतेरिहात्मजाः। भूयस्ततो दशगुणाः सहस्रज्योतिषः सुताः॥ 1-1-52 तेभ्योऽयं कुरुवंशश्च यदूनां भरतस्य च। ययातीक्ष्वाकुवंशश्च राजर्षीणां च सर्वशः॥ 1-1-53 सम्भूता बहवो वंशा भूतसर्गाः सुविस्तराः। भूतस्थानानि सर्वाणि रहस्यं त्रिविधं च यत्॥ 1-1-54 वेदा योगः सविज्ञानो धर्मोऽर्थः काम एव च। धर्मार्थकाम[र्मकामार्थ]युक्तानि शास्त्राणि विविधानि च॥ 1-1-55 लोकयात्राविधानं च सर्वं तद्दृष्टवानृषिः। नीतिर्भरतवंशस्य विस्तारश्चैव सर्वशः। इतिहासाः सवैयाख्या विविधाः श्रुतयोऽपि च॥ 1-1-56 इह सर्वमनुक्रान्तमुक्तं ग्रन्थस्य लक्षणम्। संक्षेपेणेतिहासस्य ततो वक्ष्यति विस्तरम्। विस्तीर्यैतन्महज्ज्ञानमृषिः संक्षिप्य चाब्रवीत्॥ 1-1-57 इष्टं हि विदुषां लोके समासव्यासधारणम्। मन्वादि भारतं केचिदास्तीकादि तथा परे॥ 1-1-58 तथोपरिचराद्यन्ये विप्राः सम्यगधीयते। विविधं संहिताज्ञानं दीपयन्ति मनीषिणः॥ 1-1-59 व्याख्याने कुशलाः केचिद्ग्रन्थस्य धारणे। तपसा ब्रह्मचर्येण व्यस्य वेदं सनातनम्॥ 1-1-60 इतिहासमिमं चक्रे पुण्यं सत्यवतीसुतः। पराशरात्मजो विद्वान्ब्रह्मर्षिः संशितव्रतः॥ 1-1-61 मातुर्नियोगाद्धर्मात्मा गाङ्गेयस्य च धीमतः॥ क्षेत्रे विचित्रवीर्यस्य कृष्णद्वैपायनः पुरा। त्रीनग्नीनिव कौरव्याञ्जनयामास वीर्यवान्॥ उत्पाद्य धृतराष्ट्रं च पाण्डुं विदुरमेव च। जगाम तपसे श्रीमान्पुनरेवाश्रसं प्रति॥ तेष्वात्मजेषु वृद्धेषु गतेषु च परां गतिम्। अब्रवीद्भारतं लोके मानुषेऽस्मिन्महानृषिः॥ जनमेजयेन पृष्टः सन्ब्राह्मणैश्च सहस्रशः। शशास शिष्यमासीनं वैशम्पायनमन्तिके॥ स सदस्यैः समासीनं श्रावयामास भारतम्। कर्मान्तरेषु यज्ञस्य चोद्यमानः पुनः पुनः॥ विस्तरं कुरुवंशस्य गान्धार्याः सर्पशीलताम्। क्षत्तुः प्रज्ञां धृतिं कुन्त्याः सम्यग्द्वैपायनोऽब्रवीत्॥ वासुदेवस्य माहात्म्यं पाण्डवानां च सत्यताम्। दुर्वृत्तं धार्तराष्ट्राणां उक्तवान्भगवानृषिः॥ इदं शतसहस्राग्रं श्लोकानां पुण्यकर्मणः। उपाख्यानैः सह ज्ञेयं श्राव्यं भारतमुत्तमम्॥ चतुर्विंशतिसाहस्रं चक्रे भारत संज्ञितम्। उपाख्यानै र्विना तावद्भारतं प्रोच्यते बुधैः॥ ततोऽप्यर्धशतं भूयः संक्षेपं कृतवानृषिः। तस्याभ्यासवरिष्ठस्य कृष्णद्वैपायनः प्रभुः। कथमध्यापयानीह स शिष्यान्नित्यचिन्तयत्॥ 1-1-62 तस्य तच्चिन्तितं ज्ञात्वा ऋषेर्द्वैपायनस्य च। तत्राजगाम भगवान्ब्रह्मा लोकगुरुः स्वयम्॥ 1-1-63 प्रीत्यर्थं तस्य चैवर्षेर्लोकानां हितकाम्यया। तं दृष्ट्वा विस्मितो भूत्वा प्राञ्जलिः प्रणतः स्थितः॥ 1-1-64 333333 devta ३३३३३३ देवताकी सृष्टि देवता सृष्टि तैतीस Sun God lineage सूर्यदेवता वंशावली Subhrata Sons पुत्र सुभ्रता दशज्योति Dashjyoti Shatjyoti शतज्योति
आसनं कल्पयामास सर्वैर्देवगणैर्वृतः[सर्वैर्मुनिगणैर्वृतः]। हिरण्यगर्भमासीनं तस्मिंस्तु परमासने॥ 1-1-65 परिवृत्यासनाभ्याशे वासवेयः स्थितोऽभवत्। अनुज्ञातोऽथ कृष्णस्तु ब्रह्मणा परमेष्ठिना॥ 1-1-66 निषसादासनाभ्याशे प्रीयमाणः सुवि[शुचि]स्मितः। उवाच स महातेजा ब्रह्माणं परमेष्ठिनम्॥ 1-1-67 कृतं मयेदं भगवन्काव्यं परमपूजितम्। ब्रह्मन्वेदरहस्यं च यच्चाप्यभिहितं[यच्चान्यत्स्थापितं] मया॥ 1-1-68 साङ्गोपनिषदां चैव वेदानां विस्तरक्रिया। इतिहासपुराणानामुन्मेषं निर्मितं च यत्॥ 1-1-69 भूतं भव्यं भविष्यं च त्रिविधं कालसंज्ञितम्। जरामृत्युभयव्याधिभावाभावविनिश्चयः॥ 1-1-70 विविधस्य च धर्मस्य ह्याश्रमाणां च लक्षणम्। चातुर्वर्ण्यविधानं च पुराणानां च कृत्स्नशः॥ 1-1-71 तपसो ब्रह्मचर्यस्य पृथिव्याश्चन्द्रसूर्ययोः। ग्रहनक्षत्रताराणां प्रमाणं च युगैः सह॥ 1-1-72 ऋचो यजूंषि सामानि वेदाध्यात्मं तथैव च। न्यायशिक्षाचिकित्सा च ज्ञा[दा]नं पाशुपतं तथा॥ 1-1-73 इत्यनेकाश्रयं[हेतुनैव समं] जन्म दिव्यमानुषसंश्रि[ज्ञि]तम्। तीर्थानां चैव पुण्यानां देशानां चैव कीर्तनम्॥ 1-1-74 नदीनां पर्वतानां च वनानां सागरस्य च। पुराणां चैव दिव्यानां कल्पानां युद्धकौशलम्॥ 1-1-75 वाक्यजातिविशेषाश्च लोकयात्राक्रमश्च यः। यच्चापि सर्वगं वस्तु तच्चैव प्रतिपादितम्॥ 1-1-76 Mahabharata Contents Mahabharata contents महाभारत विषयों महाभारतके विषयों
परं न लेखकः कश्चिदेतस्य भुवि विद्यते। ब्रह्मोवाच तपोविशिष्टादपि वै वशिष्ठान्मु[विशिष्टान्मु]निसंचयात्॥ 1-1-77 मन्ये श्रेष्ठतरं त्वां वै रहस्यज्ञानवेदनात्। जन्मप्रभृति सत्यां ते वेद्मि गां ब्रह्मवादिनीम्॥ 1-1-78 त्वया च काव्यमित्युक्तं तस्मात्काव्यं भविष्यति। अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे॥ 1-1-79 Mahabharata topmost poetry poetic composition topmost poetic composition महाभारत श्रेष्ट काव्य महाभारत श्रेष्ट काव्य
विशेषणे गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमाः। काव्यस्य लेखनार्थाय गणेशः स्मर्यतां मुने॥ 1-1-80 सौतिरुवाच एवमाभाष्य तं ब्रह्मा जगाम स्वं निवेशनम्। ततः सस्मार हेरम्बं व्यासः सत्यवतीसुतः॥ 1-1-81 स्मृतमात्रो गणेशानो भक्तचिन्तितपूरकः। तत्राजगाम विघ्नेशो वेदव्यासो यतः स्थितः॥ 1-1-82 पूजितश्चोपविष्टश्च व्यासेनोक्तस्तदाऽनघ। लेखको भारतस्यास्य भव त्वं गणनायक॥ 1-1-83 मयैव प्रोच्यमानस्य मनसा कल्पितस्य च। श्रुत्वैतत्प्राह विघ्नेशो यदि मे लेखनी क्षणम्॥ 1-1-84 लिखतो नावतिष्ठेत तदा स्यां लेखको ह्यहम्। व्यासोऽप्युवाच तं देवमबुद्ध्वा मा लिख क्वचित्॥ 1-1-85 ओमित्युक्त्वा गणेशोऽपि बभूव किल लेखकः। ग्रन्थग्रन्थिं तदा चक्रे मुनिर्गूढं कुतूहलात्॥ 1-1-86 यस्मिन्प्रतिज्ञया प्राह मुनिर्द्वैपायनस्त्विदम्। अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च॥ 1-1-87 अहं वेद्मि शुको वेत्ति संजयो वेत्ति वा न वा। तच्छ्लोककूटमद्यापि ग्रथितं सुदृढं मुने॥ 1-1-88 भेत्तुं न शक्यतेऽर्थस्य गूढत्वात्प्रश्रितस्य च। सर्वज्ञोऽपि गणेशो यत्क्षणमास्ते विचारयन्॥ 1-1-89 तावच्चकार व्यासोऽपि श्लोकानन्यान्बहूनपि। जडान्धबधिरोन्मत्ततमोभूतं जगद्भवेत्॥ 1-1-90 यदि ज्ञानहुताशेन सम्यङ्नोज्ज्वलितं भवेत्। तमसान्धस्य लोकस्य वेष्टितस्य स्वकर्मभिः॥ 1-1-91 Vyasdev calls Ganesh Vyasdev calls Ganesh व्यासदेव गणेश व्यासदेवका गणेशको बुलाना
ज्ञानाञ्जनशलाकाभिः बुद्धिनेत्रोत्सवः कृतः। (अज्ञानतिमिरान्धस्य लोकस्य तु विचेष्टतः। ज्ञानाञ्जनशलाकाभिर्नेत्रोन्मीलनकारकम्॥) धर्मार्थकाममोक्षार्थैः समासव्यासकीर्तनैः॥ 1-1-92 तथा भारतसूर्येण नृणां विनिहतं तमः। पुराणपूर्णचन्द्रेण श्रुतिज्योत्स्नाः प्रकाशिताः॥ 1-1-93 नृबुद्धिकैरवाणां च कृतमेतत्प्रकाशनम्। इतिहासप्रदीपेन मोहावरणघातिना॥ 1-1-94 लोकगर्भगृहं कृत्स्नं यथावत्सम्प्रकाशितम्। संग्रहाध्यायबीजो वै पौलोमास्तीकमूलवान्॥ 1-1-95 सम्भवस्कन्धविस्तारः सभारण्यविटङ्कवान्। अरणीपर्वरूपाढ्यो विराटोद्योगसारवान्॥ 1-1-96 भीष्मपर्वमहाशाखो द्रोणपर्वपलाशवान्। कर्णपर्वसितैः पुष्पैः शल्यपर्वसुगन्धिभिः॥ 1-1-97 स्त्रीपर्वैषीकविश्रामः शान्तिपर्वमहाफलः। अश्वमेधामृतरसस्त्वाश्रमस्थानसंश्रयः॥ 1-1-98 मौसलः श्रुतिसंक्षेपः शिष्टद्विजनिषेवितः। सर्वेषां कविमुख्यानामुपजीव्यो भविष्यति॥ 1-1-99 parva chapter significance पर्व महत्त्व पर्वका महत्त्व
पर्जन्य इव भूतानामाश्र[मक्ष]यो भारतद्रुमः। सौतिरुवाच एवमाभाष्यं तं ब्रह्मा जगाम स्वं निवेशनम्। भगवान्स जगत्स्रष्टा ऋषिर्देवगणैस्सह॥ तस्य वृक्षस्य वक्ष्यामि शाखापु[शश्वत्पु]ष्पफलोदयम्॥ 1-1-100 स्वादुमेध्यरसोपेतमच्छेद्यममरैरपि। मातुर्नियोगाद्धर्मात्मा गाङ्गेयस्य च धीमतः॥ 1-1-101 क्षेत्रे विचित्रवीर्यस्य कृष्णद्वैपायनः पुरा। त्रीनग्नीनिव कौरव्यान्जनयामास वीर्यवान्॥ 1-1-102 उत्पाद्य धृतराष्ट्रं च पाण्डुं विदुरमेव च। जगाम तपसे धीमान्पुनरेवाश्रमं प्रति॥ 1-1-103 तेषु जातेषु वृद्धेषु गतेषु परमां गतिम्। अब्रवीद्भारतं लोके मानुषेऽस्मिन्महानृषिः॥ 1-1-104 जनमेजयेन पृष्टः सन्ब्राह्मणैश्च सहस्रशः। शशास शिष्यमासीनं वैशम्पायनमन्तिके॥ 1-1-105 ससदस्यैः सहासीनः श्रावयामास भारतम्। कर्मान्तरेषु यज्ञस्य चोद्यमानः पुनः पुनः॥ 1-1-106 Vyasdev beget Dhrtarashtra Pandu Vidur व्यासदेव तीन पुत्र धृतराष्ट्र पाण्डु विदुर
विस्तरं कुरुवंशस्य गान्धार्या धर्मशीलताम्। क्षत्तुः प्रज्ञां धृतिं कुन्त्याः सम्यग्द्वैपायनोऽब्रवीत्॥ 1-1-107 वासुदेवस्य माहात्म्यं पाण्डवानां च सत्यताम्। दुर्वृत्तं धार्तराष्ट्राणामुक्तवान्भगवानृषिः॥ 1-1-108 इदं शतसहसाख्यं[स्रं तु] लोकानां पुण्यकर्मणाम्। उपाख्यानैः सह ज्ञेयमाद्यं भारतमुत्तमम्॥ 1-1-109 चतुर्विंशतिसाहस्रीं चक्रे भारतसंहिताम्। उपाख्यानैर्विना तावद्भारतं प्रोच्यते बुधैः॥ 1-1-110 ततोऽप्यर्धशतं भूयः संक्षेपं कृतवानृषिः। अनुक्रमणिकाध्यायं वृत्तानां[न्तं] सर्वपर्वणाम्॥ 1-1-111 Mahabharata Contents महाभारत विषय महाभारतके विषय
इदं द्वैपायनः पूर्वं पुत्रमध्यापयच्छुकम्। ततोऽन्येभ्योऽनुरूपेभ्यः शिष्येभ्यः प्रददौ विभुः॥ 1-1-112 Vyasdev teaches Mahabharata Sukhdev Goswami Sukhdev Goswami व्यासदेव सुखदेव गोस्वामी सुखदेव गोस्वामी
षष्टिं शतसहस्राणि चकारान्यां स संहिताम्। त्रिंशच्छतसहस्रं च देवलोके प्रतिष्ठितम्॥ 1-1-113 पित्र्ये पञ्चदश प्रोक्तं गन्धर्वेषु चतुर्दश। एकं शतसहस्रं तु मानुषेषु प्रतिष्ठितम्॥ 1-1-114 नारदोऽश्रावयद्देवानसितो देवलः पितॄन्। गन्धर्वयक्षरक्षांसि श्रावयामास वै शुकः॥ 1-1-115 (अस्मिंस्तु मानुषे लोके वैशम्पायन उक्तवान्। शिष्यो व्यासस्य धर्मात्मा सर्ववेदविदां वरः। एकं शतसहस्रं तु मयोक्तं वै निबोधत॥ वैशम्पायनविप्रर्षिः श्रावयामास पार्थिवम्। पारिक्षितं महाबाहुं नाम्ना तु जनमेजयम्॥) Mahabharata Shlokas Mahabharata shlokas composition महाभारत श्लोक रचना महाभारत श्लोकोकि रचना
दुर्योधनो मन्युमयो महाद्रुमः स्कन्धः कर्णः शकुनिस्तस्य शाखाः। दुःशासनः पुष्पफले समृद्धे मूलं राजा धृतराष्ट्रोऽमनीषी॥ 1-1-116 युधिष्ठिरो धर्ममयो महाद्रुमः स्कन्धोऽर्जुनो भीमसेनोऽस्य शाखाः। माद्रीसुतौ पुष्पफले समृद्धे मूलं कृष्णो ब्रह्म च ब्राह्मणाश्च॥ 1-1-117 Symbolic Value Kauravas Pandavas कौरव पाण्डव मूल अर्थ
पाण्डुर्जित्वा बहून्देशान्बुद्ध्या विक्रमणेन च। अरण्ये मृगयाशीलो न्यवसन्मुनिभिः सह॥ 1-1-118 मृगव्यवायनिधनात्कृच्छ्रां प्राप स आपदम्। जन्मप्रभृति पार्थानां तत्राचारविधिक्रमः॥ 1-1-119 मात्रोरभ्युपपत्तिश्च धर्मोपनिषदं प्रति। धर्मस्य वायोः शक्रस्य देवयोश्च तथाश्विनोः॥ 1-1-120 जाताः पार्थास्ततस्सर्वे कुन्त्या माद्र्या च मन्त्रतः। (ततो धर्मोपनिषदः श्रुत्वा भर्तुः प्रिया पृथा। धर्मानिलेन्द्रान्स्तुतिभिर्जुहाव सुतवाञ्छया। तद्दत्तोपनिषन्माद्री चाश्विनावाजुहाव च।) जाताः पार्थास्ततः कामी पाण्डुर्माद्र्या दिवं गतः। तापसैः सह संवृद्धा मातृभ्यां परिरक्षिताः॥ 1-1-121 मेध्यारण्येषु पुण्येषु महतामाश्रमेषु च। (तेषु जातेषु सर्वेषु पाण्डवेषु महात्मसु। माद्र्यात्सह सङ्गम्य ऋषिशापप्रभावतः। मृतः पाण्डुर्महापुण्ये शतशृङ्गे महागिरौ॥) मुनिभिश्च समानीता[ऋषिभिर्यत्तदाऽऽनीता] धार्तराष्ट्रान्प्रति स्वयम्॥ 1-1-122 curse Pandu Maharshi Sage महर्षि पाण्डु पाण्डुको शाप Pandavas Birth Birth of Pandavas पांण्डवोंका जन्म पाण्डव जन्म
शिशवश्चाभिरूपाश्च जटिला ब्रह्मचारिणः। पुत्राश्च भ्रातरश्चेमे शिष्याश्च सुहृदश्च वः॥ 1-1-123 पाण्डवा एत इत्युक्त्वा मुनयोऽन्तर्हितास्ततः। तांस्तैर्निवेदितान्दृष्ट्वा पाण्डवान्कौरवास्तदा॥ 1-1-124 शिष्टाश्च वर्णाः पौरा ये ते हर्षाच्चुक्रुशुर्भृशम्। आहुः केचिन्न तस्यैते तस्यैत इति चापरे॥ 1-1-125 यदा चिरमृतः पाण्डुः कथं तस्येति चापरे। स्वागतं सर्वथा दिष्ट्या पाण्डोः पश्याम संततिम्॥ 1-1-126 उच्यतां स्वागतमिति वाचोऽश्रूयन्त सर्वशः। तस्मिन्नुपरते शब्दे दिशः सर्वा निनादयन्॥ 1-1-127 अन्तर्हितानां भूतानां निःस्वनस्तुमुलोऽभवत्। पुष्पवृष्टिः शुभा गन्धाः शङ्खदुन्दुभिनिःस्वनाः॥ 1-1-128 आसन्प्रवेशे पार्थानां तदद्भुतमिवाभवत्। तत्प्रीत्या चैव सर्वेषां पौराणां हर्षसम्भवः॥ 1-1-129 शब्द आसीन्महांस्तत्र दिवःस्पृक्कीर्तिवर्धनः। तेऽधीत्य निखिलान्वेदाञ्छास्त्राणि विविधानि च॥ 1-1-130 न्यवसन्पाण्डवास्तत्र पूजिता अकुतोभयाः। युधिष्ठिरस्य शीले[शौचे]न प्रीताः प्रकृतयोऽभवन्॥ 1-1-131 धृत्या च भीमसेनस्य विक्रमेणार्जुनस्य च। गुरुशुश्रूषया कु[क्षा]न्त्या यमयोर्विनयेन च॥ 1-1-132 Pandavas welcome kurus kurus welcome Pandavas पांण्डवोंका स्वागत कुरु प्रजा
तुतोष लोकः सकलस्तेषां शौर्यगुणेन च। समवाये ततो राज्ञां कन्यां भर्तृस्वयंवराम्॥ 1-1-133 प्राप्तवानर्जुनः कृष्णां कृत्वा कर्म सुदुष्करम्। ततः प्रभृति लोकेऽस्मिन्पूज्यः सर्वधनुष्मताम्॥ 1-1-134 Arjuna fame Arjuna wins Draupadi Draupadi wins अर्जुनका शौर्य शौर्य अर्जुन अर्जुनने द्रौपदीको जीता
आदित्य इव दुष्प्रेक्ष्यः समरेष्वपि चाभवत्। ससर्वान्पार्थिवान्जित्वा सर्वांश्च महतो गणान्॥ 1-1-135 आजहारार्जुनो राज्ञे राजसूयं महाक्रतुम्। अन्नवान्दक्षिणावांश्च सर्वैः समुदितो गुणैः॥ 1-1-136 युधिष्ठिरेण सम्प्राप्तो राजसूयो महाक्रतुः। सुनयाद्वासुदेवस्य भीमार्जुनबलेन च॥ 1-1-137 घातयित्वा जरासन्धं चैद्यं च बलगर्वितम्। दुर्योधनं समागच्छन्नर्हणानि ततस्ततः॥ 1-1-138 मणिकाञ्चनरत्नानि गोहस्त्यश्वरथानि च। विचित्राणि च वासांसि प्रावारावरणानि च॥ 1-1-139 Rajasuya sacrifice Rajasuya sacrifice राजसूय महायज्ञ राजसूय महायज्ञ
कम्बलाजिनरत्नानि राङ्कवास्तरणानि च। समृद्धां तां तथा दृष्ट्वा पाण्डवानां तदाश्रियम्॥ 1-1-140 ईर्ष्यासमुत्थः सुमहांस्तस्य मन्युरजायत। विमानप्रतिमां तत्र मयेन सुकृतां सभाम्॥ 1-1-141 पाण्डवानामुपहृतां स दृष्ट्वा पर्यतप्यत। तत्रावहसितश्चासीत्प्रस्कन्दन्निव सम्भ्रमात्॥ 1-1-142 प्रत्यक्षं वासुदेवस्य भीमेनानभिजातवत्। स भोगान्विविधान्भुञ्जन्रत्नानि विविधानि च॥ 1-1-143 Duryodhana Jealousy Insult दुर्योधन ईर्ष्या अपमान दुर्योधनकी ईर्ष्या
कथितो धृतराष्ट्रस्य विवर्णो हरिणः कृशः। अन्वजानात्ततो द्यूतं धृतराष्ट्रः सुतप्रियः॥ 1-1-144 gambling match invite gambling match invite पांडवोके साथ जुआ जुआ मैच
तच्छ्रुत्वा वासुदेवस्य कोपः समभवन्महान्। नातिप्रीतमनाश्चासीद्विवादांश्चान्वमोदत॥ 1-1-145 द्यूतादीननयान्घोरान्विविधांश्चाप्युपैक्षत। निरस्य विदुरं भीष्मं द्रोणं शारद्वतं कृपम्॥ 1-1-146 Krishna Ignore gambling match gambling match उपेक्षा जुआ मैच कृष्णने जुआकी उपेक्षा
विग्रहे तुमुले तस्मिन्दहन्क्षत्रं परस्परम्। जयत्सु पाण्डुपुत्रेषु श्रुत्वा सुमहदप्रियम्॥ 1-1-147 दुर्योधनमतं ज्ञात्वा कर्णस्य शकुनेस्तथा। धृतराष्ट्रश्चिरं ध्यात्वा संजयं वाक्यमब्रवीत्॥ 1-1-148 शृणु संजय सर्वं मे न चासूयितुमर्हसि। श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान्प्राज्ञसम्मतः॥ 1-1-149 न विग्रहे मम मति न च प्रीये कुलक्षये। न मे विशेषः पुत्रेषु स्वेषु पाण्डुसुतेषु वा॥ 1-1-150 वृद्धं मामभ्यसूयन्ति पुत्रा मन्युपरायणाः। अहं त्वचक्षुः कार्पण्यात्पुत्रप्रीत्या सहामि तत्॥ 1-1-151 मुह्यन्तं चानुमुह्यामि दुर्योधनमचेतनम्। राजसूये श्रियं दृष्ट्वा पाण्डवस्य महौजसः॥ 1-1-152 तच्चावहसनं प्राप्य सभारोहणदर्शने। अमर्षणः स्वयं जेतुमशक्तः पाण्डवान्रणे॥ 1-1-153 निरुत्साहश्च सम्प्राप्तुं सुश्रियं क्षत्रियोऽपिसन्। गान्धारराजसहितश्छद्मद्यूतममन्त्रयत्॥ 1-1-154 तत्र यद्यद्यथा ज्ञातं मया संजय तच्छृणु। श्रुत्वा तु मम वाक्यानि बुद्धियुक्तानि तत्त्वतः। ततो ज्ञास्यसि मां सौते प्रज्ञाचक्षुषमित्युत॥ 1-1-155 यदाश्रौषं धनुरायम्य चित्रं विद्धं लक्ष्यं पातितं वै पृथिव्याम्। कृष्णां हृतां प्रेक्षतां सर्वराज्ञां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-156 यदाश्रौषं द्वारकायां सुभद्रां प्रसह्योढां माधवीमर्जुनेन। इन्द्रप्रस्थं वृष्णिवीरौ च यातौ तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-157 यदाश्रौषं देवराजं प्रविष्टं शरैर्दिव्यैर्वारितं चार्जुनेन। अग्निं तथा तर्पितं खाण्डवे च तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-158 यदाश्रौषं पुनरामन्त्र्य द्यूते महात्मनां प्रस्थितानां वनाय। ज्येष्ठप्रीत्या क्लिश्यतां पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ यदाश्रौषं जातुषाद्वेश्मनस्तान्मुक्तान्पार्थान्पञ्च कुन्त्या समेतान्। युक्तं चैषां विदुरं स्वार्थसिद्धौ तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-159 यदाश्रौषं द्रौपदीं रङ्गमध्ये लक्ष्यं भित्त्वा निर्जितामर्जुनेन। शूरान्पञ्चालान्पाण्डवेयांश्च युक्तांस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-160 यदाश्रौषं मागधानां वरिष्ठं जरासन्धं क्षत्रमध्ये ज्वलन्तम्। दोर्भ्यां हतं भीमसेनेन गत्वा तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-161 यदाश्रौषं दिग्जये पाण्डुपुत्रैर्वशीकृतान्भूमिपालान्प्रसह्य। महाक्रतुं राजसूयं कृतं च तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-162 यदाश्रौषं द्रौपदीमश्रुकण्ठीं सभां नीतां दुःखितामेकवस्त्राम्। रजस्वलां नाथवतीमनाथवत्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-163 यदाश्रौषं वाससां तत्र राशिं समाक्षिपत्कितवो मन्दबुद्धिः। दुःशासनो गतवान्नैव चान्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-164 यदाश्रौषं हृतराज्यं युधिष्ठिरं पराजितं सौबलेनाक्षवत्याम्। अन्वागतं भ्रातृभिरप्रमेयैस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-165 यदाश्रौषं विविधास्तत्र चेष्टा धर्मात्मनां प्रस्थितानां वनाय। ज्येष्ठप्रीत्या क्लिश्यतां पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-166 यदाश्रौषं स्नातकानां सहस्रैरन्वागतं धर्मराजं वनस्थम्। भिक्षाभुजां ब्राह्मणानां महात्मनां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-167 यदाश्रौषमर्जुनं देवदेवं किरातरूपं त्र्यम्बकं तोष्य युद्धे। अवाप्तवन्तं पाशुपतं महास्त्रं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-168 (यदाश्रौषं वनवासे तु पार्थान्समागतान्महर्षिभिः पुगणैः। उपास्यमानान्सगणैर्जातसख्यान्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥) यदाश्रौषं त्रिदिवस्थं धनञ्जयं शक्रात्साक्षाद्दिव्यमस्त्रं यथावत्। अधीयानं शंसितं सत्यसन्धं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-169 यदाश्रौषं तीर्थयात्रानिवृत्तं पाण्डोस्सुतं सहितं रोमशेन। तस्मादश्रौषीदर्जुनस्यार्थलाभं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ यदाश्रौषं कालकेयाः ततस्ते पौलोमानो वरदानाच्च दृप्ताः। देवैरजेया निर्जिताश्चार्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-170 यदाश्रौषमसुराणां वधार्थे किरीटिनं यान्तममित्रकर्शनम्। कृतार्थं चाप्यागतं शक्रलोकात् तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-171 (यदाश्रौषं तीर्थयात्राप्रवृत्तं पाण्डोः सुतं सहितं लोमशेन। तस्मादश्रौषीदर्जुनस्यार्थलाभं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥) यदाश्रौषं वैश्रवणेन सार्धं समागतं भीममन्यांश्च पार्थान्। तस्मिन्देशे मानुषाणामगम्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-172 यदाश्रौषं घोषयात्रागतानां बन्धं गन्धर्वैर्मोक्षणं चार्जुनेन। स्वेषां सुतानां कर्णबुद्धौ रतानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-173 यदाश्रौषं यक्षरूपेण धर्मं समागतं धर्मराजेन सूत। प्रश्नान्कांश्चिद्विब्रुवाणं च सम्यक्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-174 यदाश्रौषं न विदुर्मामकास्तान्प्रच्छन्नरूपान्वसतः पाण्डवेयान्। विराटराष्ट्रे सह कृष्णया च तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-175 यदाश्रौषं तान्यथाऽज्ञातवासेऽज्ञायमानान्मामकानां सकाशे। दक्षान्पार्थान्चरितश्चाग्निकल्पां स्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ (यदाश्रौषं कीचकानां वरिष्ठं निषूदितं भ्रातृशतेन सार्धम्। द्रौपद्यर्थं भीमसेनेन संख्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय॥) यदाश्रौषं मामकानां वरिष्ठान्धनञ्जयेनैकरथेन भग्नान्। विराटराष्ट्रे वसता महात्मना तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-176 यदाश्रौषं सत्कृतां मत्स्यराज्ञा सुतां दत्तामुत्तरामर्जुनाय। तां चार्जुनः प्रत्यगृह्णात्सुतार्थे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-177 यदाश्रौषं निर्जितस्याधनस्य प्रव्राजितस्य स्वजनात्प्रच्युतस्य। अक्षौहिणीः सप्त युधिष्ठिरस्य तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-178 यदाश्रौषं माधवं वासुदेवं सर्वात्मना पाण्डवार्थे निविष्टम्। यस्येमां गां विक्रममेकमाहुस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-179 यदाश्रौषं नरनारायणौ तौ कृष्णार्जुनौ वदतो नारदस्य। अहं द्रष्टा ब्रह्मलोके च सम्यक्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-180 यदाश्रौषं लोकहिताय कृष्णं शमार्थिनमुपयातं कुरूणाम्। शमं दुर्वार[कुर्वाण]मकृतार्थं च यातं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-181 यदाश्रौषं कर्णदुर्योधनाभ्यां बुद्धिं कृतां निग्रहे केशवस्य। तं चात्मानं बहुधा दर्शयानं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-182 यदाश्रौषं वासुदेवे प्रयाते रथस्यैकामग्रतस्तिष्ठमानाम्। आर्तां पृथां सान्त्वितां केशवेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-183 यदाश्रौषं मन्त्रिणं वासुदेवं तथा भीष्मं शान्तनवं च तेषाम्। भारद्वाजं चाशिषोऽनुब्रुवाणं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-184 यदाश्रौषं कर्ण उवाच भीष्मं नाहं योत्स्ये युध्यमाने त्वयीति। हित्वा सेनामपचक्राम चापि तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-185 यदाश्रौषं वासुदेवार्जुनौ तौ तथा धनुर्गाण्डीवमप्रमेयम्। त्रीण्युग्रवीर्याणि समागतानि तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-186 यदाश्रौषं कश्मलेनाभिपन्ने रथोपस्थे सीदमानेऽर्जुने वै। कृष्णं लोकान्दर्शयानं शरीरे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-187 यदाश्रौषं भीष्मममित्रकर्शनं निघ्नन्तमाजावयुतं रथानाम्। नैषां कश्चिद्विद्यते[बध्यते] ख्यातरूपस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-188 यदाश्रौषं चापगेयेन संख्ये स्वयं मृत्युं विहितं धार्मिकेण। तञ्चा[च्चा]कार्षुः पाण्डवेयाः प्रहृष्टास्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-189 यदाश्रौषं भीष्ममत्यन्तशूरं विहत्य[हतं] पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम्। शिखण्डिनं पुरतः स्थापयित्वा तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-190 यदाश्रौषं शरतल्पे शयानं वृद्धं वीरं सादितं चित्रपुङ्खैः। भीष्मं कृत्वा सोमक अनल्पशेषांस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-191 यदाश्रौषं शान्तनवे शयाने पानीयार्थे चोदितेनार्जुनेन। भूमिं भित्त्वा तर्पितं तत्र भीष्मं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-192 यदा वायुश्शक्र[श्चन्द्र]सूर्यौ च युक्तौ कौन्तेयानामनुलोमा जयाय। नित्यं चास्माञ्श्वापदा भीषयन्ति तदा नाशंसे बिजयाय संजय॥ 1-1-193 यदा द्रोणो विविधानस्त्रमार्गान्निदर्शयन्समरे चित्रयोधी। न पाण्डवाञ्श्रेष्ठतरान्निहन्ति तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-194 यदाश्रौषं चास्मदीयान्महारथान्व्यवस्थितानर्जुनस्यान्तकाय। संशप्तक अन्निहतानर्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-195 यदाश्रौषं व्यूहमभेद्यमन्यैर्भारद्वाजेनात्तशस्त्रेण गुप्तम्। भित्त्वा सौभद्रं वीरमेकं प्रविष्टं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-196 यदाभिमन्युं परिवार्य बालं सर्वे हत्वा हृष्टरूपा बभूवुः। महारथाः पार्थमशक्नुवन्तस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-197 यदाश्रौषमभिमन्युं निहत्य हर्षान्मूढान्क्रोशतो धार्तराष्ट्रान्। क्रोधादुक्तं सैन्धवे चार्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-198 यदाश्रौषं सैन्धवार्थे प्रतिज्ञां प्रतिज्ञातां तद्वधायार्जुनेन। सत्यां तीर्णां शत्रुमध्ये च तेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-199 यदाश्रौषं श्रान्तहये धनञ्जये मुक्त्वाहयान्पाययित्वोपवृत्तान्। पुनर्युक्त्वा वासुदेवं प्रयातं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-200 यदाश्रौषं वाहनेष्वक्षमेषु रथोपस्थे तिष्ठता पाण्डवेन। सर्वान्योधान्वारितानर्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-201 यदाश्रौषं नागबलैः सुदुःसहं द्रोणानीकं युयुधानं प्रमथ्य। यातं वार्ष्णेयं यत्र तौ कृष्णपार्थौ तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-202 यदाश्रौषं कर्णमासाद्य मुक्तं वधाद्भीमं कुत्सयित्वा वचोभिः। धनुष्कोट्याऽऽतुद्य कर्णेन वीरं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-203 यदा द्रोणः कृतवर्मा कृपश्च कर्णो द्रौणिर्मद्रराजश्च शूरः। अमर्षयन्सैन्धवं वध्यमानं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-204 यदाश्रौषं देवराजेन दत्तां दिव्यां शक्तिं व्यंसितां माधवेन। घटोत्कचे राक्षसे घोररूपे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-205 यदाश्रौषं कर्णघटोत्कचाभ्यां युद्धे मुक्तां सूतपुत्रेण शक्तिम्। यया वध्यः समरे सव्यसाची तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-206 यदाश्रौषं द्रोणमाचार्यमेकं धृष्टद्युम्नेनाभ्यतिक्रम्य धर्मम्। रथोपस्थे प्रायगतं विशस्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-207 यदाश्रौषं द्रौणिना द्वैरथस्थं माद्रीसुतं नकुलं लोकमध्ये। समं युद्धे मण्डलश[लेभ्य]श्चरन्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-208 यदा द्रोणे निहते द्रोणपुत्रो नारायणं दिव्यमस्त्रं विकुर्वन्। नैषामन्तं गतवान्पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-209 यदाश्रौषं भीमसेनेन पीतं रक्तं भ्रातुर्युधि दुःशासनस्य। निवारितं नान्यतमेन भीमं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-210 यदाश्रौषं कर्णमत्यन्तशूरं हतं पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम्। तस्मिन्भ्रातॄणां विग्रहे देवगुह्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-211 यदाश्रौषं द्रोणपुत्रं च शूरं दुःशासनं कृतवर्माणमुग्रम्। युधिष्ठिरं धर्मराजं जयन्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-212 यदाश्रौषं निहतं मद्रराजं रणे शूरं धर्मराजेन सूत। सदा संग्रामे स्पर्धते यस्तु कृष्णं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-213 यदाश्रौषं कलहद्यूतमूलं मायाबलं सौबलं पाण्डवेन। हतं संग्रामे सहदेवेन पापं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-214 यदाश्रौषं श्रान्तमेकं शयानं ह्रदं गत्वा स्तम्भयित्वा तदम्भः। दुर्योधनं विरतं भग्नशक्तिं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-215 यदाश्रोषं पाण्डवांस्तिष्ठमानान्गत्वा ह्रदे वासुदेवेन सार्धम्। अमर्षणं धर्षयतः सुतं मे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-216 यदाश्रौषं विविधांश्चित्रमार्गान्गदायुद्धे मण्डलशश्चरन्तम्। मिथ्याहतं वासुदेवस्य बुद्ध्या तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-217 यदाश्रौषं द्रोणपुत्रादिभिस्तैहृतान्पञ्चालान्द्रौपदेयांश्चसुप्तान्। कृतं बीभत्समयशस्यं च कर्म तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-218 यदाश्रौषं भीमसेनानुयातेनाश्वत्थाम्ना परमास्त्रं प्रयुक्तम्। क्रुद्धेनैषीकमवधीद्येन गर्भं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-219 यदाश्रौषं ब्रह्मशिरोऽर्जुनेन स्वस्तीत्युक्त्वास्त्रमस्त्रेण शान्तम्। अश्वत्थाम्ना मणिरत्नं च दत्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-220 यदाश्रौषं द्रोणपुत्रेण गर्भे वैराट्या वै पात्यमाने महास्त्रैः। द्वैपायनः केशवो द्रोणपुत्रं परस्परेणाभिशापैः शशाप॥ 1-1-221 शोच्या गान्धारी पुत्रपौत्रैविहीना तथा बन्धुभिः पितृभिर्भ्रातृभिश्च। कृतं कार्यं दुष्करं पाण्डवेयैः प्राप्तं राज्यमसपत्नं पुनस्तैः॥ 1-1-222 कष्टं युद्धे दश शेषाः श्रुता मे त्रयोऽस्माकं पाण्डवानां च सप्त। द्व्यूना विंशतिराहताक्षौहिणीनां तस्मिन्संग्रामे भैरवे क्षत्रियाणाम्॥ 1-1-223 तमस्त्वतीव विस्तीर्णं मोह आविशतीव माम्। संज्ञां नोपलभे सूत मनो विह्वलतीव मे॥ 1-1-224 Dhrtarashtra Discussion Sanjay reasons hope loss of hope victory धृतराष्ट्र वार्तालाप संजय कारण विजय आशा ध्रतराष्ट्रका संजयके साथ वार्तालाप ध्रतराष्ट्रने विजयकी आशा छोड़ने के कारण
सौतिरुवाच इत्युक्त्वा धृतराष्ट्रोऽथ विलप्य बहुदुःखितः। मूर्च्छितः पुनराश्वस्तः संजयं वाक्यमब्रवीत्॥ 1-1-225 धृतराष्ट्र उवाच संजयैवं गते प्राणांस्त्यक्तुमिच्छामि मा चिरम्। स्तोकं ह्यपि न पश्यामि फलं जीवितधारणे॥ 1-1-226 सौतिरुवाच तं तथावादिनं दीनं विलपन्तं महीपतिम्। निःश्वसन्तं यथा नागं मुह्यमानं पुनः पुनः। गावल्गणिरिदं धीमान्महार्थं वाक्यमब्रवीत्॥ 1-1-227 संजय उवाच श्रुतवानसि वै राजन्महोत्साहान्महाबलान्। द्वैपायनस्य वदतो नारदस्य च धीमतः॥ 1-1-228 महत्सु राजवंशेषु गुणैः समुदितेषु च। जातान्दिव्यास्त्रविदुषः शक्रप्रतिमतेजसः॥ 1-1-229 धर्मेण पृथिवीं जित्वा यज्ञैरिष्ट्वाप्तदक्षिणैः। अस्मिँल्लोके यशः प्राप्य ततः कालवशंगतान्॥ 1-1-230 शैब्यं महारथं वीरं सृञ्जयं जयतां वरम्। सुहोत्रं रन्तिदेवं च काक्षीवन्तम्महाद्युतिम्[मथौशिजम्]॥ 1-1-231 बाह्लीकं दमनं चैव[द्यं] शर्यातिमजितं नलम्। विश्वामित्रममित्रघ्नमम्बरीषं महाबलम्॥ 1-1-232 मरुत्तं मनुमिक्ष्वाकुं गयं भरतमेव च। रामं दाशरथिं चैव शशबिन्दुं भगीरथम्॥ 1-1-233 कृतवीर्यं महाभागं तथैव जनमेजयम्। ययातिं शुभकर्माणं देवैर्यो याजितः स्वयम्॥ 1-1-234 चैत्ययूपाङ्किता भूमिर्यस्येयं सवनाकरा। इति राज्ञां चतुर्विंशन्नारदेन सुरर्षिणा॥ 1-1-235 पुत्रशोकाभितप्ताय पुरा श्यैब्या[श्वैत्या]य कीर्तितम्। तेभ्यश्चान्ये गताः पूर्वं राजानो बलवत्तराः॥ 1-1-236 महारथा महात्मानः सर्वैः समुदिता गुणैः। पूरुः कुरुर्यदुः शूरो विष्वगश्वो महाद्युतिः॥ 1-1-237 अणुहो युवनाश्वश्च ककुत्स्थो विक्रमी रघुः। विजयो वीतिहोत्रोऽङ्गो भवः श्वेतो बृहद्गुरुः॥ 1-1-238 उशीनरः शतरथः कङ्को दुलिदुहो द्रुमः। दम्भोद्भवः परो वेनः सगरः संकृतिर्निमिः॥ 1-1-239 अजेयः परशुः पुण्ड्रः शम्भुर्देवावृधोऽनघः। देवाह्वयः सुप्रतिमः सुप्रतीको बृहद्रथः॥ 1-1-240 महोत्साहो विनीतात्मा सुक्रतुः नैषधो नलः। सत्यव्रतः शान्तभयः सुमित्रः सुबलः प्रभुः॥ 1-1-241 जानुजङ्घोऽनरण्योऽर्कः प्रियभृत्यः शुभ[चि]व्रतः। बलबन्धुर्निरामर्दः केतुशृङ्गो बृहद्बलः। धृष्टकेतुर्बृहत्केतुर्दीप्तकेतुर्निरामयः॥ 1-1-242 अवीक्षिच्चपलो धूर्तः कृतबन्धुर्दृढेषुधिः। महापुराणसम्भाव्यः प्रत्यङ्गः परहा श्रुतिः॥ 1-1-243 एते चान्ये च राजानः शतशोऽथ सहस्रशः। श्रूयन्ते शतशश्चान्ये संख्याताश्चैव पद्मशः॥ 1-1-244 हित्वा सुविपुलान्भोगान्बुद्धिमन्तोमहाबलाः। राजानो निधनं प्राप्तास्तव पुत्रा इव प्रभो॥ 1-1-245 येषां दिव्यानि कर्माणि विक्रमस्त्याग एव च। माहात्म्यमपि चास्तिक्यंसत्यंशौचं दयार्जवम्॥ 1-1-246 विद्वद्भिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमैः। सर्वर्द्धिगुणसम्पन्नास्ते चापि निधनं गताः॥ 1-1-247 तव पुत्रा दुरात्मानः प्रतप्ताश्चैव मन्युना। लुब्धा दुर्वृत्तभूयिष्ठा न ताञ्छोचितुमर्हसि॥ 1-1-248 श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान्प्राज्ञसम्मतः। येषां शास्त्रानुगा बुद्धिर्न ते मुह्यन्ति भारत॥ 1-1-249 निग्रहानुग्रहौ चापि विदितौ ते नराधिप। नात्यन्तमेवानुवृत्तिः कार्या ते पुत्ररक्षणे॥ 1-1-250 भवितव्यं तथा तच्च नानुशोचितुमर्हसि। दैवं प्रज्ञाविशेषेण को निवर्तितुमर्हति॥ 1-1-251 विधातृविहितं मार्गं न कश्चिदतिवर्तते। कालमूलमिदं सर्वं भावाभावौ सुखासुखे॥ 1-1-252 कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः। कालः प्रजाः निर्दहति[संहरन्तं प्रजाः कालं] कालः शमयते पुनः॥ 1-1-253 कालो हि कुरुते भावान्सर्वलोके शुभाशुभान्। कालः संक्षिपते सर्वाः प्रजा विसृजते पुनः॥ 1-1-254 कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः। कालः सर्वेषु भूतेषु चरत्यविधृतः समः॥ 1-1-255 अतीतानागता भावा ये च वर्तन्ति साम्प्रतम्। तान्कालनिर्मितान्बुद्धवा न संज्ञां हातुमर्हसि॥ 1-1-256 सौतिरुवाच इत्येवं पुत्रशोकार्तं धृतराष्ट्रं जनेश्वरम्। आश्वास्य स्वस्थमकरोत्सूतो गावल्गणिस्तदा॥ 1-1-257 अत्रोपनिषदं पुण्यां कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत्। विद्वद्भिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमैः॥ 1-1-258 Sanjay Consoles grieving Dhrtarashtra grief Dhrtarashtraपुत्रशोक पुत्रशोक व्याकुल संजयसमजाना
भारताध्ययनं पुण्यमपि पादमधीयतः। श्रद्दधानस्य पूयन्ते सर्वपापान्यशेषतः॥ 1-1-259 देवा देवर्षयो ह्यत्र तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः। कीर्त्यन्ते शुभकर्माणस्तथा यक्षा महोरगाः॥ 1-1-260 भगवान्वासुदेवश्च कीर्त्यतेऽत्र सनातनः। स हि सत्यमृतं चैव पवित्रं पुण्यमेव च॥ 1-1-261 शाश्वतं ब्रह्म परमं ध्रुवं ज्योतिः सनातनम्। यस्य दिव्यानि कर्माणि कथयन्ति मनीषिणः॥ 1-1-262 असच्च सदसच्चैव यस्माद्विश्वं प्रवर्तते। संततिश्च प्रवृत्तिश्च जन्ममृत्युपुनर्भवाः॥ 1-1-263 अध्यात्मं श्रूयते यच्च पञ्चभूतगुणात्मकम्। अव्यक्तादि परं यच्च स एव परिगीयते॥ 1-1-264 यत्तद्यतिवरा मुक्ता ध्यानयोगबलान्विताः। प्रतिबिम्बमिवादर्शे पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्॥ 1-1-265 श्रद्दधानः सदा युक्तः सदा धर्मपरायणः। आसेवन्निममध्यायं नरः पापात्प्रमुच्यते॥ 1-1-266 अनुक्रमणिकाध्यायं भारतस्येममादितः। आस्तिकः सततं शृण्वन्न कृच्छ्रेष्ववसीदति॥ 1-1-267 उभे संध्ये जपन्किंचित्सद्यो मुच्येत किल्बिषात्। अनुक्रमण्या यावत्स्यादह्ना रात्र्या च संचितम्॥ 1-1-268 भारतस्य वपुर्ह्येतत्सत्यं चामृतमेव च। नवनीतं यथा दध्नो द्विपदां ब्राह्मणो यथा॥ 1-1-269 आरण्यकं च वेदेभ्य ओषधिभ्योऽमृतं यथा। ह्रदानामुदधिः श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम्॥ 1-1-270 यथैतानीतिहासानां तथा भारतमुच्यते। यश्चैनं श्रावयेच्छ्राद्धे ब्राह्मणान्पादमन्ततः॥ 1-1-271 अक्षय्यमन्नपानं वै पितॄंस्तस्योपतिष्ठते। इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्॥ 1-1-272 बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रत[ह]रिष्यति। कार्ष्णं वेदमिमं विद्वान्श्रावयित्वार्थमश्नुते॥ 1-1-273 भ्रूणहत्यादिकं चापि पापं जह्यादसंशयम्। य इमं शुचिरध्यायं पठेत्पर्वणि पर्वणि॥ 1-1-274 अधीतं भारतं तेन कृत्स्नं स्यादिति मे मतिः। यश्यैनं शृणुयान्नित्यमार्षं श्रद्धासमन्वितः॥ 1-1-275 स दीर्घमायुः कीर्तिं च स्वर्गतिं चाप्नुयान्नरः। एकतश्चतुरो वेदान्भारतं चैतदेकतः॥ 1-1-276 पुरा किल सुरैः सर्वैः समेत्य तुलया धृतम्। चतुर्भ्यः सरहस्येभ्यो वेदेभ्यो ह्यधिकं यदा॥ 1-1-277 तदा प्रभृति लोकेऽस्मिन्महाभारतमुच्यते। महत्त्वे च गुरुत्वे च ध्रियमाणं यतोऽधिकम्॥ 1-1-278 महत्त्वाद्भारवत्त्वाच्च महाभारतमुच्यते। निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ 1-1-279 तपो न कल्कोऽध्ययनं न कल्कः स्वाभाविको वेदविधिर्न कल्कः। प्रसह्य वित्ताहरणं न कल्कस्तान्येव भावोपहतानि कल्कः॥ 1-1-280 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अनुक्रमणिकापर्वणि ग्रन्थारम्भे प्रथमोऽध्यायः॥ 1 ॥ significance of Mahabharat importance of Mahabharat importance significance Category:significance of first chapter of Mahabharat Category:Significance of anukramanika adhyaya of Mahabharat first chapter anukramanika adhyaya महाभारत का महत्व अनुक्रमाणिका अध्याय का महत्व महाभारत महत्त्व अनुक्रमाणिका अध्याय