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* दो शब्दों की सन्धि होने पर जिस प्रकार एक ही शब्द बन जाता है ( उदाहरण के लिए गण - ईश - गणेश ) उसी प्रकार अध्ययन और अध्यापन करते हुए शिक्षक और विद्यार्थों दो नहीं रहते, एक ही व्यक्तित्व बन जाते हैं । इतना घनिष्ठ सम्बन्ध शिक्षक और विद्यार्थी का होना अपेक्षित है । शिक्षक का विद्यार्थी के लिए वात्सल्यभाव और विद्यार्थी का शिक्षक के लिए आदर तथा दोनों की विद्याप्रीति के कारण से ऐसा सम्बन्ध बनता है । ऐसा सम्बन्ध बनता है तभी विद्या निष्पन्न होती है अर्थात्‌ ज्ञान का उदय होता है अर्थात्‌ विद्यार्थी ज्ञानार्जन करता है । विद्यार्थी को शिक्षक का मानसपुत्र कहा गया है जो देहज पुत्र से भी अधिक प्रिय होता है ।
 
* दो शब्दों की सन्धि होने पर जिस प्रकार एक ही शब्द बन जाता है ( उदाहरण के लिए गण - ईश - गणेश ) उसी प्रकार अध्ययन और अध्यापन करते हुए शिक्षक और विद्यार्थों दो नहीं रहते, एक ही व्यक्तित्व बन जाते हैं । इतना घनिष्ठ सम्बन्ध शिक्षक और विद्यार्थी का होना अपेक्षित है । शिक्षक का विद्यार्थी के लिए वात्सल्यभाव और विद्यार्थी का शिक्षक के लिए आदर तथा दोनों की विद्याप्रीति के कारण से ऐसा सम्बन्ध बनता है । ऐसा सम्बन्ध बनता है तभी विद्या निष्पन्न होती है अर्थात्‌ ज्ञान का उदय होता है अर्थात्‌ विद्यार्थी ज्ञानार्जन करता है । विद्यार्थी को शिक्षक का मानसपुत्र कहा गया है जो देहज पुत्र से भी अधिक प्रिय होता है ।
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* शिक्षक को विद्यार्थी इसलिए प्रिय नहीं होता क्योंकि वह उसकी सेवा करता है, विनय दर्शाता है या अच्छी दक्षिणा देने वाला है । विद्यार्थी शिक्षक को इसलिए प्रिय होता है क्योंकि विद्यार्थी को विद्या प्रिय है । विद्यार्थी के लिए शिक्षक इसलिए आदरणीय नहीं है क्योंकि वह उसका पालनपोषण और रक्षण करता है और प्रेमपूर्ण व्यवहार करता है । शिक्षक इसलिए आदरणीय है क्योंकि वह विद्या के प्रति प्रेम रखता है । दोनों एकदूसरे को विद्याप्रीति के कारण ही प्रिय हैं । उनका सम्बन्ध जोड़ने वाली विद्या ही है । दोनों मिलकर ज्ञानसाधना करते हैं ।
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* शिक्षक को विद्यार्थी अतः प्रिय नहीं होता क्योंकि वह उसकी सेवा करता है, विनय दर्शाता है या अच्छी दक्षिणा देने वाला है । विद्यार्थी शिक्षक को अतः प्रिय होता है क्योंकि विद्यार्थी को विद्या प्रिय है । विद्यार्थी के लिए शिक्षक अतः आदरणीय नहीं है क्योंकि वह उसका पालनपोषण और रक्षण करता है और प्रेमपूर्ण व्यवहार करता है । शिक्षक अतः आदरणीय है क्योंकि वह विद्या के प्रति प्रेम रखता है । दोनों एकदूसरे को विद्याप्रीति के कारण ही प्रिय हैं । उनका सम्बन्ध जोड़ने वाली विद्या ही है । दोनों मिलकर ज्ञानसाधना करते हैं ।
    
* शिक्षक और विद्यार्थी में अध्ययन होता कैसे है ? दोनों साथ रहते हैं । साथ रहना अध्ययन का उत्तम प्रकार है। साथ रहते रहते विद्यार्थी शिक्षक का व्यवहार देखता है। साथ रहते रहते ही शिक्षक के व्यवहार के स्थूल और सूक्ष्म स्वरूप को समझता है। शिक्षक के विचार और भावनाओं को ग्रहण करता है और उसके रहस्यों को समझता है। शिक्षक की सेवा करते करते, उसका व्यवहार देखते देखते, उससे जानकारी प्राप्त करते करते वह शिक्षक की दृष्टि और दृष्टिकोण भी ग्रहण करता है । उसके हृदय को ग्रहण करता है । अध्ययन केवल शब्द सुनकर नहीं होता, शब्द तो केवल जानकारी है। अध्ययन जानकारी नहीं है। अध्ययन समझ है, अध्ययन अनुभव है, अध्ययन दृष्टि है जो शिक्षक के साथ रहकर, उससे संबन्धित होकर ही प्राप्त होने वाले तत्त्व हैं ।
 
* शिक्षक और विद्यार्थी में अध्ययन होता कैसे है ? दोनों साथ रहते हैं । साथ रहना अध्ययन का उत्तम प्रकार है। साथ रहते रहते विद्यार्थी शिक्षक का व्यवहार देखता है। साथ रहते रहते ही शिक्षक के व्यवहार के स्थूल और सूक्ष्म स्वरूप को समझता है। शिक्षक के विचार और भावनाओं को ग्रहण करता है और उसके रहस्यों को समझता है। शिक्षक की सेवा करते करते, उसका व्यवहार देखते देखते, उससे जानकारी प्राप्त करते करते वह शिक्षक की दृष्टि और दृष्टिकोण भी ग्रहण करता है । उसके हृदय को ग्रहण करता है । अध्ययन केवल शब्द सुनकर नहीं होता, शब्द तो केवल जानकारी है। अध्ययन जानकारी नहीं है। अध्ययन समझ है, अध्ययन अनुभव है, अध्ययन दृष्टि है जो शिक्षक के साथ रहकर, उससे संबन्धित होकर ही प्राप्त होने वाले तत्त्व हैं ।
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== समग्रता में सिखाना ==
 
== समग्रता में सिखाना ==
* अध्ययन हमेशा समग्रता में होता है। आज अध्ययन खण्ड खण्ड में करने का प्रचलन इतना बढ़ गया है कि इस बात को बार बार समझना आवश्यक हो गया है । उदाहरण के लिये शिक्षक रोटी के बारे में बता रहा है तो आहारशास्त्र, कृषिशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, अर्थशास्त्र और पाकशास्त्र को जोड़कर ही पढ़ाता है । केवल अर्थशास्त्र केवल आहार शास्त्र आदि टुकड़ो में नहीं पढ़ाता। आहार की बात करता है तो सात्विकता, पौष्टिकता, स्वादिष्टता, उपलब्धता, सुलभता आदि सभी आयामों की एक साथ बात करता है और भोजन बनाने की कुशलता भी सिखाता है । समग्रता में सिखाना इतना स्वाभाविक है कि इसे विशेष रूप से बताने की आवश्यकता ही नहीं होती है । परन्तु आज इसका इतना विपर्यास हुआ है कि इसे समझाना पड़ता है । इस विपर्यास के कारण शिक्षा, शिक्षा ही नहीं रह गई है।
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* अध्ययन सदा समग्रता में होता है। आज अध्ययन खण्ड खण्ड में करने का प्रचलन इतना बढ़ गया है कि इस बात को बार बार समझना आवश्यक हो गया है । उदाहरण के लिये शिक्षक रोटी के बारे में बता रहा है तो आहारशास्त्र, कृषिशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, अर्थशास्त्र और पाकशास्त्र को जोड़कर ही पढ़ाता है । केवल अर्थशास्त्र केवल आहार शास्त्र आदि टुकड़ो में नहीं पढ़ाता। आहार की बात करता है तो सात्विकता, पौष्टिकता, स्वादिष्टता, उपलब्धता, सुलभता आदि सभी आयामों की एक साथ बात करता है और भोजन बनाने की कुशलता भी सिखाता है । समग्रता में सिखाना इतना स्वाभाविक है कि इसे विशेष रूप से बताने की आवश्यकता ही नहीं होती है । परन्तु आज इसका इतना विपर्यास हुआ है कि इसे समझाना पड़ता है । इस विपर्यास के कारण शिक्षा, शिक्षा ही नहीं रह गई है।
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* शिक्षक विद्यार्थी को ज्ञान नहीं देता, ज्ञान प्राप्त करने की युक्ति देता है । जिस प्रकार मातापिता बालक को हमेशा गोद में उठाकर ही एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं ले जाते या हमेशा खाना नहीं खिलाते अपितु उसे अपने पैरों से चलना सिखाते हैं और अपने हाथों से खाना सिखाते हैं उसी प्रकार शिक्षक विद्यार्थी को ज्ञान प्राप्त करना सिखाता है । जिस प्रकार माता हमेशा पुत्री को खाना बनाकर खिलाती ही नहीं है या पिता हमेशा पुत्रों के लिये अथार्जिन करके नहीं देता है अपितु पुत्री को खाना बनाना सिखाती है और पुत्रों को थर्जिन करना सिखाता है । ( यहाँ कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि पुत्री को खाना ही बनाना है और पुत्रों को अर्थार्जन ही करना है। पुत्रों को भी खाना बनाना सिखाया जा सकता है और पुत्रियों को भी अर्थार्जन सिखाया जा सकता है। ) अर्थात जीवन व्यवहार में भावी पीढ़ी को स्वतन्त्र बनाया जाता है । स्वतन्त्र बनाना ही अच्छी शिक्षा है । उसी प्रकार ज्ञान के क्षेत्र में शिक्षक विद्यार्थी को स्वतन्त्रता सिखाता है । जिस प्रकार मातापिता अपनी संतानों के लिये आवश्यक है तब तक काम करके देते हैं और धीरे धीरे साथ काम करते करते काम करना सिखाते हैं उसी प्रकार शिक्षक भी आवश्यक है तब तक तैयार सामाग्री देकर धीरे धीरे पढ़ने की कला भी सिखाता है । जीवन के और ज्ञान के क्षेत्र में विद्यार्थी को स्वतन्त्र बनाना ही उत्तम शिक्षा है।   
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* शिक्षक विद्यार्थी को ज्ञान नहीं देता, ज्ञान प्राप्त करने की युक्ति देता है । जिस प्रकार मातापिता बालक को सदा गोद में उठाकर ही एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं ले जाते या सदा खाना नहीं खिलाते अपितु उसे अपने पैरों से चलना सिखाते हैं और अपने हाथों से खाना सिखाते हैं उसी प्रकार शिक्षक विद्यार्थी को ज्ञान प्राप्त करना सिखाता है । जिस प्रकार माता सदा पुत्री को खाना बनाकर खिलाती ही नहीं है या पिता सदा पुत्रों के लिये अथार्जिन करके नहीं देता है अपितु पुत्री को खाना बनाना सिखाती है और पुत्रों को थर्जिन करना सिखाता है । ( यहाँ कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि पुत्री को खाना ही बनाना है और पुत्रों को अर्थार्जन ही करना है। पुत्रों को भी खाना बनाना सिखाया जा सकता है और पुत्रियों को भी अर्थार्जन सिखाया जा सकता है। ) अर्थात जीवन व्यवहार में भावी पीढ़ी को स्वतन्त्र बनाया जाता है । स्वतन्त्र बनाना ही अच्छी शिक्षा है । उसी प्रकार ज्ञान के क्षेत्र में शिक्षक विद्यार्थी को स्वतन्त्रता सिखाता है । जिस प्रकार मातापिता अपनी संतानों के लिये आवश्यक है तब तक काम करके देते हैं और धीरे धीरे साथ काम करते करते काम करना सिखाते हैं उसी प्रकार शिक्षक भी आवश्यक है तब तक तैयार सामाग्री देकर धीरे धीरे पढ़ने की कला भी सिखाता है । जीवन के और ज्ञान के क्षेत्र में विद्यार्थी को स्वतन्त्र बनाना ही उत्तम शिक्षा है।   
 
* शिक्षक से उत्तम शिक्षा प्राप्त हो सके इसलिये विद्यार्थी के लिये कुछ निर्देश भगवद्गीता में बताये गए हैं । श्री भगवान कहते हैं<ref>श्रीमद् भगवद्गीता 4.34</ref>: तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। अर्थात ज्ञान प्राप्त करना है तो ज्ञान देने वाले को प्रश्न पूछना चाहिये, उसे प्रणिपात करना चाहिये और उसकी सेवा करनी चाहिये । प्रश्न पूछने से तात्पर्य है सीखने वाले में जिज्ञासा होनी चाहिये । प्रणिपात का अर्थ है विद्यार्थी में नम्रता होनी चाहिये । सेवा का अर्थ केवल परिचर्या नहीं है। अर्थात शिक्षक का आसन बिछाना, शिक्षक के पैर दबाना या उसके कपड़े धोना या उसके लिये भोजन बनाना नहीं है। सेवा का अर्थ है शिक्षक के अनुकूल होना, उसे इच्छित है, ऐसा व्यवहार करना, उसका आशय समझना । जो शिक्षक के बताने के बाद भी नहीं करता वह विद्यार्थी निकृष्ट है, जो बताने के बाद करता है वह मध्यम है और जो बिना बताए केवल आशय समझकर करता है वह उत्तम विद्यार्थी है। उत्तम विद्यार्थी को ज्ञान सुलभ होता है। विद्यार्थी निकृष्ट है तो शिक्षक के चाहने पर और प्रयास करने पर भी विद्यार्थी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। इसीको कहते हैं कि शिक्षक विद्यार्थीपरायण और विद्यार्थी शिक्षकपरायण होना चाहिये ।  
 
* शिक्षक से उत्तम शिक्षा प्राप्त हो सके इसलिये विद्यार्थी के लिये कुछ निर्देश भगवद्गीता में बताये गए हैं । श्री भगवान कहते हैं<ref>श्रीमद् भगवद्गीता 4.34</ref>: तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। अर्थात ज्ञान प्राप्त करना है तो ज्ञान देने वाले को प्रश्न पूछना चाहिये, उसे प्रणिपात करना चाहिये और उसकी सेवा करनी चाहिये । प्रश्न पूछने से तात्पर्य है सीखने वाले में जिज्ञासा होनी चाहिये । प्रणिपात का अर्थ है विद्यार्थी में नम्रता होनी चाहिये । सेवा का अर्थ केवल परिचर्या नहीं है। अर्थात शिक्षक का आसन बिछाना, शिक्षक के पैर दबाना या उसके कपड़े धोना या उसके लिये भोजन बनाना नहीं है। सेवा का अर्थ है शिक्षक के अनुकूल होना, उसे इच्छित है, ऐसा व्यवहार करना, उसका आशय समझना । जो शिक्षक के बताने के बाद भी नहीं करता वह विद्यार्थी निकृष्ट है, जो बताने के बाद करता है वह मध्यम है और जो बिना बताए केवल आशय समझकर करता है वह उत्तम विद्यार्थी है। उत्तम विद्यार्थी को ज्ञान सुलभ होता है। विद्यार्थी निकृष्ट है तो शिक्षक के चाहने पर और प्रयास करने पर भी विद्यार्थी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। इसीको कहते हैं कि शिक्षक विद्यार्थीपरायण और विद्यार्थी शिक्षकपरायण होना चाहिये ।  
 
* जब शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध आत्मीय नहीं होता तभी सामग्री, पद्धति, सुविधा आदि के प्रश्न निर्माण होते हैं। दोनों में यदि विद्याप्रीति है और परस्पर विश्वास है तो प्रश्न बहुत कम निर्माण होते हैं । अध्ययन बहुत सहजता से चलता है।  
 
* जब शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध आत्मीय नहीं होता तभी सामग्री, पद्धति, सुविधा आदि के प्रश्न निर्माण होते हैं। दोनों में यदि विद्याप्रीति है और परस्पर विश्वास है तो प्रश्न बहुत कम निर्माण होते हैं । अध्ययन बहुत सहजता से चलता है।  
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# महाकवि कालीदास वाकू और अर्थ का तथा शिव और पार्वती का सम्बन्ध एक जैसा है ऐसा बताते हैं । जो शिव और पार्वती के सम्बन्ध को जानता है वह वाक् और अर्थ की एकात्मता को समझ सकता है और जो वाक्‌ और अर्थ के सम्बन्ध को जानता है वह शिव और पार्वती के सम्बन्ध को समझ सकता है।
 
# महाकवि कालीदास वाकू और अर्थ का तथा शिव और पार्वती का सम्बन्ध एक जैसा है ऐसा बताते हैं । जो शिव और पार्वती के सम्बन्ध को जानता है वह वाक् और अर्थ की एकात्मता को समझ सकता है और जो वाक्‌ और अर्थ के सम्बन्ध को जानता है वह शिव और पार्वती के सम्बन्ध को समझ सकता है।
 
# ज्ञान और विज्ञान का अन्तर और सम्बन्ध समझाने के लिए एक शिक्षक ने छात्रों को पानी में नमक डालकर चम्मच से पानी को हिलाने के लिए कहा | छात्रों ने वैसा ही किया । फिर शिक्षक ने पूछा कि नमक कहाँ है । छात्रों ने कहा कि नमक पानी के अन्दर है । शिक्षक ने पूछा कि कैसे पता चला । छात्रों ने चखने से पता चला ऐसा कहा । तब शिक्षक ने कहा कि अब नमक पानी में सर्वत्र है । वह पानी से अलग दिखाई नहीं देता परन्तु स्वादेंद्रिय के अनुभव से उसके अस्तित्व का पता चलता है। शिक्षक ने कहा कि इसे घुलना कहते हैं । प्रयोग कर के स्वादेंद्रिय से चखकर घुलने की प्रक्रिया तो समझ में आती है परन्तु घुलना क्या होता है इसका पता कैसे चलेगा ? घुलने का अनुभव तो नमक को हुआ है और अब वह बताने के लिए नमक तो है नहीं । घुलने की प्रक्रिया जानना विज्ञान है परन्तु घुलने का अनुभव करना ज्ञान है । विज्ञान ज्ञान तक पहुँचने में सहायता करता है परन्तु विज्ञान स्वयं ज्ञान नहीं है ।
 
# ज्ञान और विज्ञान का अन्तर और सम्बन्ध समझाने के लिए एक शिक्षक ने छात्रों को पानी में नमक डालकर चम्मच से पानी को हिलाने के लिए कहा | छात्रों ने वैसा ही किया । फिर शिक्षक ने पूछा कि नमक कहाँ है । छात्रों ने कहा कि नमक पानी के अन्दर है । शिक्षक ने पूछा कि कैसे पता चला । छात्रों ने चखने से पता चला ऐसा कहा । तब शिक्षक ने कहा कि अब नमक पानी में सर्वत्र है । वह पानी से अलग दिखाई नहीं देता परन्तु स्वादेंद्रिय के अनुभव से उसके अस्तित्व का पता चलता है। शिक्षक ने कहा कि इसे घुलना कहते हैं । प्रयोग कर के स्वादेंद्रिय से चखकर घुलने की प्रक्रिया तो समझ में आती है परन्तु घुलना क्या होता है इसका पता कैसे चलेगा ? घुलने का अनुभव तो नमक को हुआ है और अब वह बताने के लिए नमक तो है नहीं । घुलने की प्रक्रिया जानना विज्ञान है परन्तु घुलने का अनुभव करना ज्ञान है । विज्ञान ज्ञान तक पहुँचने में सहायता करता है परन्तु विज्ञान स्वयं ज्ञान नहीं है ।
# गणित की एक कक्षा में क्षेत्रफल के सवाल चल रहे थे । शिक्षक क्षेत्रफल का नियम बता रहे थे । आगंतुक व्यक्ति ने एक छात्र से पूछा कि चार फीट लम्बे और तीन फिट चौड़े टेबल का क्षेत्रफल कितना होगा । छात्रों ने नियम लागू कर के कहा कि बारह वर्ग फीट । आगंतुक ने पूछ कि चार गुणा तीन कितना होता है । छात्रों ने कहा बारह । आगंतुक ने पूछा चार फीट गुणा तीन फिट बारह फीट होगा कि नहीं । छात्रों ने हाँ कहा । आगंतुक ने पूछा कि फिर उसमें वर्ग फीट कहाँ से आ गया | छात्रों को उत्तर नहीं आता था । वे नियम जानते थे और गुणाकार भी जानते थे परन्तु एक परिमाण और द्विपरिमाण का अन्तर नहीं जानते थे । आगंतुक उन्हें बाहर मैदान में ले गया । वहाँ छात्रों को चार फीट लंबा और तीन फीट चौड़ा आयत बनाने के लिए कहा । छात्रों ने बनाया । अब आगंतुक ने कहा कि यह रेखा नहीं है । चार फिट की दो और तीन फीट की दो रेखायें जुड़ी हुई हैं जो जगह घेरती हैं । इस जगह को क्षेत्र कहते हैं । अब चार और तीन फीट में एक एक फुट के अन्तर पर रेखायें बनाएँगे तो एक एक फीट के वर्ग बनेंगे । इनकी संख्या गिनो तो बारह होगी । चार फीट लंबी और तीन फीट चौड़ी आयताकार जगह बारह वर्ग फीट की बनती है इसलिए केवल बारह नहीं अपितु बारह वर्ग फीट बनाता है । रेखा और क्षेत्र में परिमाणों का अन्तर है। यह अन्तर नहीं समझा तो भूमिति की समझ ही विकसित नहीं होती । यह कुशलता है ।
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# गणित की एक कक्षा में क्षेत्रफल के सवाल चल रहे थे । शिक्षक क्षेत्रफल का नियम बता रहे थे । आगंतुक व्यक्ति ने एक छात्र से पूछा कि चार फीट लम्बे और तीन फिट चौड़े टेबल का क्षेत्रफल कितना होगा । छात्रों ने नियम लागू कर के कहा कि बारह वर्ग फीट । आगंतुक ने पूछ कि चार गुणा तीन कितना होता है । छात्रों ने कहा बारह । आगंतुक ने पूछा चार फीट गुणा तीन फिट बारह फीट होगा कि नहीं । छात्रों ने हाँ कहा । आगंतुक ने पूछा कि फिर उसमें वर्ग फीट कहाँ से आ गया | छात्रों को उत्तर नहीं आता था । वे नियम जानते थे और गुणाकार भी जानते थे परन्तु एक परिमाण और द्विपरिमाण का अन्तर नहीं जानते थे । आगंतुक उन्हें बाहर मैदान में ले गया । वहाँ छात्रों को चार फीट लंबा और तीन फीट चौड़ा आयत बनाने के लिए कहा । छात्रों ने बनाया । अब आगंतुक ने कहा कि यह रेखा नहीं है । चार फिट की दो और तीन फीट की दो रेखायें जुड़ी हुई हैं जो जगह घेरती हैं । इस जगह को क्षेत्र कहते हैं । अब चार और तीन फीट में एक एक फुट के अन्तर पर रेखायें बनाएँगे तो एक एक फीट के वर्ग बनेंगे । इनकी संख्या गिनो तो बारह होगी । चार फीट लंबी और तीन फीट चौड़ी आयताकार जगह बारह वर्ग फीट की बनती है अतः केवल बारह नहीं अपितु बारह वर्ग फीट बनाता है । रेखा और क्षेत्र में परिमाणों का अन्तर है। यह अन्तर नहीं समझा तो भूमिति की समझ ही विकसित नहीं होती । यह कुशलता है ।
 
# रोटी में किसान की मेहनत है, माँ का प्रेम है, मिट्टी की महक है, बैल की मजदूरी है, गेहूं का स्वाद है, चूल्हे की आग है, कुएं का पानी है ऐसा बताने वाला शिक्षक रोटी का समग्रता में परिचय देता है । वह रोटी को केवल विज्ञान या पाकशास्त्र का विषय नहीं बनाता |
 
# रोटी में किसान की मेहनत है, माँ का प्रेम है, मिट्टी की महक है, बैल की मजदूरी है, गेहूं का स्वाद है, चूल्हे की आग है, कुएं का पानी है ऐसा बताने वाला शिक्षक रोटी का समग्रता में परिचय देता है । वह रोटी को केवल विज्ञान या पाकशास्त्र का विषय नहीं बनाता |
 
# न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का नियम खोजा, आइन्स्टाइन ने सापेक्षता का सिद्धान्त सवा, जगदीशचन्द्र बसु ने वनस्पति में भी जीव है यह सिद्ध किया परन्तु गुरुत्वाकर्षण का सृजन किसने किया, सापेक्षता की रचना किसने की, वनस्पति में जीव कैसे आया आदि प्रश्न जगाकर इस विश्व की रचना की ओर ले जाने का अर्थात “विज्ञान' से “अध्यात्म' की ओर ले जाने का काम कुशल शिक्षक करता है ।
 
# न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का नियम खोजा, आइन्स्टाइन ने सापेक्षता का सिद्धान्त सवा, जगदीशचन्द्र बसु ने वनस्पति में भी जीव है यह सिद्ध किया परन्तु गुरुत्वाकर्षण का सृजन किसने किया, सापेक्षता की रचना किसने की, वनस्पति में जीव कैसे आया आदि प्रश्न जगाकर इस विश्व की रचना की ओर ले जाने का अर्थात “विज्ञान' से “अध्यात्म' की ओर ले जाने का काम कुशल शिक्षक करता है ।
# नारियल के वृक्ष को समुद्र का खारा पानी चाहिये । वह खारा पानी जड़ से अन्दर जाकर फल तक पहुँचते पहुँचते मीठा हो जाता है । बिना स्वाद का पानी विभिन्न पदार्थों में विभिन्न स्वाद वाला हो जाता है । यह केवल रासायनिक प्रक्रिया नहीं है अपितु रसायनों को बनाने वाले की कमाल है । यदि केवल रासायनिक प्रक्रिया मानें तो रसायनशास्त्र ही अध्यात्म है ऐसा ही कहना होगा ।
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# नारियल के वृक्ष को समुद्र का खारा पानी चाहिये । वह खारा पानी जड़़ से अन्दर जाकर फल तक पहुँचते पहुँचते मीठा हो जाता है । बिना स्वाद का पानी विभिन्न पदार्थों में विभिन्न स्वाद वाला हो जाता है । यह केवल रासायनिक प्रक्रिया नहीं है अपितु रसायनों को बनाने वाले की कमाल है । यदि केवल रासायनिक प्रक्रिया मानें तो रसायनशास्त्र ही अध्यात्म है ऐसा ही कहना होगा ।
    
== अध्यापन की आदर्श स्थिति ==
 
== अध्यापन की आदर्श स्थिति ==

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