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===== शिक्षा सरकार के अधीन =====
 
===== शिक्षा सरकार के अधीन =====
आज शिक्षाक्षेत्र सरकार के अधीन है । विश्वविद्यालय आरम्भ करना है तो उसका कानून संसद में अथवा राज्य की विधानसभा में पारित होता है। उसमें कानून पारित हुए बिना विश्वविद्यालय बन ही नहीं सकता । उसके बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से उसे मान्यता प्राप्त करनी पड़ती है । इस आयोग की रचना भी संसद ने पारित किये हुए कानून के तहत हुई है । विश्वविद्यालय आयोग के साथ और भी परिषदें हैं जो विभिन्न प्रकार की शिक्षासंस्थाओं को मान्यता देती है। ये सब सरकारी है।  विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति सर्कार के परामर्श के साथ राज्यपाल या राष्ट्रपति करते है।  राज्यपाल राज्य के सभी विश्वविद्यालयों के और राष्ट्रपति सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते है। इसी प्रकार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड भी सरकार द्वारा की गई रचना ही होती है। प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति भी वैसी ही है । राज्य और केन्द्र के शिक्षामन्त्री और शिक्षासचिव नीति और प्रशासन के क्षेत्र में सर्वोच्च होते हैं और वे शिक्षक हों यह आवश्यक नहीं होता । इसके अलावा आयुक्त और निदेशक भी सरकारी ही होते हैं । आयुक्त का शिक्षक होना आवश्यक नहीं, निदेशक शिक्षक होता हैं । अर्थात्‌ शिक्षाविषयक नीतियाँ और शिक्षा का प्रशासन शिक्षक नहीं ऐसे लोगों के हाथो में ही है । यह खास ब्रिटिश व्यवस्था है, या कहें कि यह पश्चिम की सोच है।
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आज शिक्षाक्षेत्र सरकार के अधीन है । विश्वविद्यालय आरम्भ करना है तो उसका कानून संसद में अथवा राज्य की विधानसभा में पारित होता है। उसमें कानून पारित हुए बिना विश्वविद्यालय बन ही नहीं सकता । उसके बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से उसे मान्यता प्राप्त करनी पड़ती है । इस आयोग की रचना भी संसद ने पारित किये हुए कानून के तहत हुई है । विश्वविद्यालय आयोग के साथ और भी परिषदें हैं जो विभिन्न प्रकार की शिक्षासंस्थाओं को मान्यता देती है। ये सब सरकारी है।  विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति सर्कार के परामर्श के साथ राज्यपाल या राष्ट्रपति करते है।  राज्यपाल राज्य के सभी विश्वविद्यालयों के और राष्ट्रपति सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते है। इसी प्रकार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड भी सरकार द्वारा की गई रचना ही होती है। प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति भी वैसी ही है । राज्य और केन्द्र के शिक्षामन्त्री और शिक्षासचिव नीति और प्रशासन के क्षेत्र में सर्वोच्च होते हैं और वे शिक्षक हों यह आवश्यक नहीं होता । इसके अलावा आयुक्त और निदेशक भी सरकारी ही होते हैं । आयुक्त का शिक्षक होना आवश्यक नहीं, निदेशक शिक्षक होता हैं । अर्थात्‌ शिक्षाविषयक नीतियाँ और शिक्षा का प्रशासन शिक्षक नहीं ऐसे लोगोंं के हाथो में ही है । यह खास ब्रिटिश व्यवस्था है, या कहें कि यह पश्चिम की सोच है।
    
देश के लिये आवश्यक मात्रा में शिक्षा की व्यवस्था करना किसी भी सरकार के बस की बात नहीं है इसलिये दो प्रकार की व्यवस्था है। समाज के कुछ सेवाभावी सज्जन विद्यालय आरम्भ करने के इच्छुक होते  हैं । भारत में तो शिक्षा की सेवा करना पुण्य का काम माना गया है। इन सज्जनों को संस्था बनानी होती है जो सोसायटी अथवा ट्रस्ट कहा जाता है, उसे सोसायटी और ट्रस्ट के लिये कानून के अन्तर्गत पंजीकृत करवाना होता है,  उसकी शर्तों के अनुसार भवन तथा अन्य भौतिक सुविधायें जुटानी होती हैं । सरकार शिक्षकों का वेतन अनुदान के रूप में देती है, शेष व्यय ट्रस्ट को करनी पड़ती है । सरकार और ट्रस्टी मिलकर शिक्षकों का चयन और नियुक्ति करते हैं । दूसरा एक प्रकार होता है जिसमें सरकार शिक्षकों के वेतन के लिये भी अनुदान नहीं देती । विद्यार्थियों से शुल्क लिया जाता है, उसमें से शिक्षकों को वेतन दिया जाता है । भवन आदि अन्य आवश्यकताओं के लिये समाज का सहयोग लिया जाता है । ट्रस्टियों की सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर और शिक्षा के लिये दान देना चाहिये ऐसी मानसिकता.के कारण विद्यालय हेतु दान मिलता है।   
 
देश के लिये आवश्यक मात्रा में शिक्षा की व्यवस्था करना किसी भी सरकार के बस की बात नहीं है इसलिये दो प्रकार की व्यवस्था है। समाज के कुछ सेवाभावी सज्जन विद्यालय आरम्भ करने के इच्छुक होते  हैं । भारत में तो शिक्षा की सेवा करना पुण्य का काम माना गया है। इन सज्जनों को संस्था बनानी होती है जो सोसायटी अथवा ट्रस्ट कहा जाता है, उसे सोसायटी और ट्रस्ट के लिये कानून के अन्तर्गत पंजीकृत करवाना होता है,  उसकी शर्तों के अनुसार भवन तथा अन्य भौतिक सुविधायें जुटानी होती हैं । सरकार शिक्षकों का वेतन अनुदान के रूप में देती है, शेष व्यय ट्रस्ट को करनी पड़ती है । सरकार और ट्रस्टी मिलकर शिक्षकों का चयन और नियुक्ति करते हैं । दूसरा एक प्रकार होता है जिसमें सरकार शिक्षकों के वेतन के लिये भी अनुदान नहीं देती । विद्यार्थियों से शुल्क लिया जाता है, उसमें से शिक्षकों को वेतन दिया जाता है । भवन आदि अन्य आवश्यकताओं के लिये समाज का सहयोग लिया जाता है । ट्रस्टियों की सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर और शिक्षा के लिये दान देना चाहिये ऐसी मानसिकता.के कारण विद्यालय हेतु दान मिलता है।   
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भारत स्वाधीन तो हो गया परन्तु व्यवस्थायें सारी कारण प्रजाजीवन की सारी व्यवस्थाओं को बाजार का स्वरूप प्राप्त हुआ । आज शिक्षाक्षेत्र को यह आयाम भी चिपक गया है । अतः शासन की नीतियाँ, प्रशासन के नियम और बाजार का व्यापारवाद तीनों मिलकर शिक्षा का.नियमन कर रहे हैं । शासन मालिक है, प्रशासन नियन्त्रक है और विद्यार्थी यदि छोटा है तो उसके मातापिता और वयस्क है तो विद्यार्थी स्वयं ग्राहक है । इस तन्त्र में शिक्षक का स्थान कहाँ  है? वह शासक का नौकर है और विद्यार्थी के लिए विक्रयिक (सेल्समेन ) दूसरे का माल दूसरे को बेचने वाला है। इसका उसे वेतन मिलता है।  
 
भारत स्वाधीन तो हो गया परन्तु व्यवस्थायें सारी कारण प्रजाजीवन की सारी व्यवस्थाओं को बाजार का स्वरूप प्राप्त हुआ । आज शिक्षाक्षेत्र को यह आयाम भी चिपक गया है । अतः शासन की नीतियाँ, प्रशासन के नियम और बाजार का व्यापारवाद तीनों मिलकर शिक्षा का.नियमन कर रहे हैं । शासन मालिक है, प्रशासन नियन्त्रक है और विद्यार्थी यदि छोटा है तो उसके मातापिता और वयस्क है तो विद्यार्थी स्वयं ग्राहक है । इस तन्त्र में शिक्षक का स्थान कहाँ  है? वह शासक का नौकर है और विद्यार्थी के लिए विक्रयिक (सेल्समेन ) दूसरे का माल दूसरे को बेचने वाला है। इसका उसे वेतन मिलता है।  
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बाजारतन्त्र में ग्राहक की मर्जी सम्हालनी होती है। यह तो प्रकट व्यवहार है । परन्तु प्रच्छन्न रूप से उत्पादक व्यापारी उसने जो बनाया है वह माल ग्राहकों को बेचना चाहता है। बेचने के लिये अनेक प्रकार के विज्ञापनों का सहारा लेता है । राजकीय पक्ष यही करते हैं । अंग्रेज भारत में ऐसा ही करते थे। उनका शासन स्थिररूप से जमा रहे इस हेतु से भारत के लोगों का भला करने की भाषा बोलते हए शिक्षा के माध्यम से प्रजा को गुलाम और निवीर्य बनाते थे । स्वतन्त्र भारत की सरकारें भी ऐसा ही करती रही हैं ऐसा मानने में क्षोभ का अनुभव होता है तो भी यह सत्य है ऐसा मानना पडता है।  
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बाजारतन्त्र में ग्राहक की मर्जी सम्हालनी होती है। यह तो प्रकट व्यवहार है । परन्तु प्रच्छन्न रूप से उत्पादक व्यापारी उसने जो बनाया है वह माल ग्राहकों को बेचना चाहता है। बेचने के लिये अनेक प्रकार के विज्ञापनों का सहारा लेता है । राजकीय पक्ष यही करते हैं । अंग्रेज भारत में ऐसा ही करते थे। उनका शासन स्थिररूप से जमा रहे इस हेतु से भारत के लोगोंं का भला करने की भाषा बोलते हए शिक्षा के माध्यम से प्रजा को गुलाम और निवीर्य बनाते थे । स्वतन्त्र भारत की सरकारें भी ऐसा ही करती रही हैं ऐसा मानने में क्षोभ का अनुभव होता है तो भी यह सत्य है ऐसा मानना पडता है।  
    
===== शिक्षा की सभी व्यवस्थाएँ वही की वही =====
 
===== शिक्षा की सभी व्यवस्थाएँ वही की वही =====
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ऐसा प्रयोग भी हो सकता है - शिक्षकों द्वारा आरम्भ किया गया प्रयोग निःशुल्क चलाना । इस विद्यालय को चलाने के लिये समाज का सहयोग प्राप्त करने हेतु शिक्षकों और अभिभावकों और विद्यार्थी आदि बड़े हैं तो विद्यार्थी शिक्षकों का सहयोग करें ऐसी व्यवस्था हो सकती है।
 
ऐसा प्रयोग भी हो सकता है - शिक्षकों द्वारा आरम्भ किया गया प्रयोग निःशुल्क चलाना । इस विद्यालय को चलाने के लिये समाज का सहयोग प्राप्त करने हेतु शिक्षकों और अभिभावकों और विद्यार्थी आदि बड़े हैं तो विद्यार्थी शिक्षकों का सहयोग करें ऐसी व्यवस्था हो सकती है।
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ऐसे और भी अनेक मौलिक प्रयोग हो सकते हैं । इस दिशा में विचार आरम्भ किया तो भारत के लोगों को अनेक नई नई बातें सुझ सकती हैं क्योंकि भारत के अन्तर्मन में शिक्षा और शिक्षक को उन्नत स्थान पर बिठाकर उनका सम्मान करने की चाह होती ही है।
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ऐसे और भी अनेक मौलिक प्रयोग हो सकते हैं । इस दिशा में विचार आरम्भ किया तो भारत के लोगोंं को अनेक नई नई बातें सुझ सकती हैं क्योंकि भारत के अन्तर्मन में शिक्षा और शिक्षक को उन्नत स्थान पर बिठाकर उनका सम्मान करने की चाह होती ही है।
    
अभी तो अविचार की स्थिति है। हमें वास्तविकता  का खास ज्ञान और भान ही नहीं है । यदि भान आये तो  मार्ग भी निकल सकता है।धर्म की तरह शिक्षा भी उसका सम्मान करने से ही हमें सम्मान दिला सकती है।
 
अभी तो अविचार की स्थिति है। हमें वास्तविकता  का खास ज्ञान और भान ही नहीं है । यदि भान आये तो  मार्ग भी निकल सकता है।धर्म की तरह शिक्षा भी उसका सम्मान करने से ही हमें सम्मान दिला सकती है।
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* इस व्यवस्था हेतु विद्यालय स्वायत्त होने चाहिए । आज की शेष व्यवस्था वैसी ही रखकर यह व्यवस्था नहीं हो सकती। फिर भी संचालक मंडल, शिक्षक, अभिभावक और शासन को साथ मिलकर यह प्रयोग कैसे हो इसका विचार करना चाहिए । एक विद्यालय यदि दस वर्ष की योजना बनाता है तो यह आज भी व्यावहारिक बन सकती है।  
 
* इस व्यवस्था हेतु विद्यालय स्वायत्त होने चाहिए । आज की शेष व्यवस्था वैसी ही रखकर यह व्यवस्था नहीं हो सकती। फिर भी संचालक मंडल, शिक्षक, अभिभावक और शासन को साथ मिलकर यह प्रयोग कैसे हो इसका विचार करना चाहिए । एक विद्यालय यदि दस वर्ष की योजना बनाता है तो यह आज भी व्यावहारिक बन सकती है।  
 
* शिक्षकों को इस बात में अग्रसर होना चाहिए । वे स्वयं विद्यालय आरम्भ करें । प्रथम कुछ वर्ष इसे समाज के सहयोग से चलाएं । प्रारम्भ से गुरुदक्षिणा का विषय नहीं हो सकता । प्रयोग व्यावहारिक बन सके अतः बारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों से आरम्भ करें । ये विद्यार्थी बीस वर्ष के होते होते अर्थार्जन आरम्भ करेंगे, साथ ही चयनित छात्र विद्यालय में अध्यापन आरम्भ करेंगे।
 
* शिक्षकों को इस बात में अग्रसर होना चाहिए । वे स्वयं विद्यालय आरम्भ करें । प्रथम कुछ वर्ष इसे समाज के सहयोग से चलाएं । प्रारम्भ से गुरुदक्षिणा का विषय नहीं हो सकता । प्रयोग व्यावहारिक बन सके अतः बारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों से आरम्भ करें । ये विद्यार्थी बीस वर्ष के होते होते अर्थार्जन आरम्भ करेंगे, साथ ही चयनित छात्र विद्यालय में अध्यापन आरम्भ करेंगे।
* किसी भी विचार को मूर्त रूप देने के लिए बौद्धिक और मानसिक तैयारी करनी होती है वह इसमें भी करनी चाहिए । शिक्षा के धार्मिक प्रतिमान के लिए यह करणीय कार्य है इसका बौद्धिक स्वीकार प्रथम चरण है। सम्बन्धित लोगों की मानसिकता बनाना दूसरा चरण है। व्यावहारिक पक्ष की योजना बनाना तीसरा चरण है।  
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* किसी भी विचार को मूर्त रूप देने के लिए बौद्धिक और मानसिक तैयारी करनी होती है वह इसमें भी करनी चाहिए । शिक्षा के धार्मिक प्रतिमान के लिए यह करणीय कार्य है इसका बौद्धिक स्वीकार प्रथम चरण है। सम्बन्धित लोगोंं की मानसिकता बनाना दूसरा चरण है। व्यावहारिक पक्ष की योजना बनाना तीसरा चरण है।  
 
* इस प्रकार करने से विद्यालय परिवार की भी संकल्पना साकार हो सकती है। अनौपचारिक पद्धति से कहीं कहीं पर आज भी यह चलती है, परन्तु इसे एक व्यवस्था में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है ।
 
* इस प्रकार करने से विद्यालय परिवार की भी संकल्पना साकार हो सकती है। अनौपचारिक पद्धति से कहीं कहीं पर आज भी यह चलती है, परन्तु इसे एक व्यवस्था में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है ।
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समाज मनुष्यों का समूह है। परन्तु समूह तो प्राणियों का भी होता है। कई प्राणी कभी भी अकेले नहीं रहते, छोटे बड़े समूह में ही रहते हैं और घूमते हैं। उनके समूह को समाज नहीं कहते । जो मनुष्य प्राणियों की तरह केवल आहार, निद्रा, मैथुन और भय से प्रेरित होकर उन वृत्तियों को सन्तुष्ट करने के लिये ही जीते हैं उनके समूह को भी समाज नहीं कहते । जो मनुष्य संस्कारयुक्त हैं, किसी उदात्त लक्ष्य के लिये जीते हैं, उदार अन्तःकरण से युक्त हैं ऐसे मनुष्यों के समूह को समाज कहते हैं।  
 
समाज मनुष्यों का समूह है। परन्तु समूह तो प्राणियों का भी होता है। कई प्राणी कभी भी अकेले नहीं रहते, छोटे बड़े समूह में ही रहते हैं और घूमते हैं। उनके समूह को समाज नहीं कहते । जो मनुष्य प्राणियों की तरह केवल आहार, निद्रा, मैथुन और भय से प्रेरित होकर उन वृत्तियों को सन्तुष्ट करने के लिये ही जीते हैं उनके समूह को भी समाज नहीं कहते । जो मनुष्य संस्कारयुक्त हैं, किसी उदात्त लक्ष्य के लिये जीते हैं, उदार अन्तःकरण से युक्त हैं ऐसे मनुष्यों के समूह को समाज कहते हैं।  
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उदार अन्तःकरण से युक्त लोगों की एक जीवनशैली होती है, एक रीति होती है । इस रीति को संस्कृति कहते हैं। संस्कृति का प्रेरक तत्व धर्म होता है। वर्तमान परिस्थिति में धर्म संज्ञा के सम्बन्ध में हमें बार बार खुलासा करना पडता है। धर्म संज्ञा सम्प्रदाय, पंथ, मत, मजहब, रिलिजन आदि में सीमित नहीं है। वह अत्यन्त व्यापक है। धर्म एक ऐसी व्यवस्था है जो विश्वनियमों से बनी है और सृष्टि को धारण करती है अर्थात् नष्ट नहीं होने देती । धर्म मनुष्य समाज के लिये भी ऐसी ही व्यवस्था देता है जो उसे नष्ट होने से बचाती है। संस्कृति धर्म की ही व्यवहार प्रणाली है।
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उदार अन्तःकरण से युक्त लोगोंं की एक जीवनशैली होती है, एक रीति होती है । इस रीति को संस्कृति कहते हैं। संस्कृति का प्रेरक तत्व धर्म होता है। वर्तमान परिस्थिति में धर्म संज्ञा के सम्बन्ध में हमें बार बार खुलासा करना पडता है। धर्म संज्ञा सम्प्रदाय, पंथ, मत, मजहब, रिलिजन आदि में सीमित नहीं है। वह अत्यन्त व्यापक है। धर्म एक ऐसी व्यवस्था है जो विश्वनियमों से बनी है और सृष्टि को धारण करती है अर्थात् नष्ट नहीं होने देती । धर्म मनुष्य समाज के लिये भी ऐसी ही व्यवस्था देता है जो उसे नष्ट होने से बचाती है। संस्कृति धर्म की ही व्यवहार प्रणाली है।
    
अर्थात् जो धर्म के अनुसार अपनी जीवन रचना करते हैं ऐसे मनुष्यों का समूह समाज कहा जाता है ।  
 
अर्थात् जो धर्म के अनुसार अपनी जीवन रचना करते हैं ऐसे मनुष्यों का समूह समाज कहा जाता है ।  
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===== शिक्षा संस्कृति का हस्तान्तरण करती है =====
 
===== शिक्षा संस्कृति का हस्तान्तरण करती है =====
संस्कृति को एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित करते हुए नित्य प्रवाहित रखने का महत्व पूर्ण कार्य शिक्षा करती है । वह घर में मातापिता द्वारा सन्तानों को, विद्यालय में शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को और समाज में धर्माचार्यो द्वारा लोगों को हस्तान्तरित की जाती है ।
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संस्कृति को एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित करते हुए नित्य प्रवाहित रखने का महत्व पूर्ण कार्य शिक्षा करती है । वह घर में मातापिता द्वारा सन्तानों को, विद्यालय में शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को और समाज में धर्माचार्यो द्वारा लोगोंं को हस्तान्तरित की जाती है ।
    
घर में भावात्मक, विद्यालय में ज्ञानात्मक और धर्माचार्य द्वारा प्रबोधनात्मक पद्धति से शिक्षा संस्कृति का हस्तान्तरण करती है। भावात्मक शिक्षा के आधार पर ज्ञानात्मक शिक्षा होती है। विद्यालय में जो ज्ञान प्राप्त किया उसे जीवनभर व्यवहार में प्रकट करना है। उस समय निरन्तर प्रबोधन करने का काम विद्वान धर्माचार्य करते हैं।
 
घर में भावात्मक, विद्यालय में ज्ञानात्मक और धर्माचार्य द्वारा प्रबोधनात्मक पद्धति से शिक्षा संस्कृति का हस्तान्तरण करती है। भावात्मक शिक्षा के आधार पर ज्ञानात्मक शिक्षा होती है। विद्यालय में जो ज्ञान प्राप्त किया उसे जीवनभर व्यवहार में प्रकट करना है। उस समय निरन्तर प्रबोधन करने का काम विद्वान धर्माचार्य करते हैं।
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====== ये विद्यालय गुरुकुलों की तरह सांस्कृतिक उद्देश्यों के लिए चलने चाहिये । ======
 
====== ये विद्यालय गुरुकुलों की तरह सांस्कृतिक उद्देश्यों के लिए चलने चाहिये । ======
इन विद्यालयों के अभिभावकों का व्यवहार और मानस बहुत अस्वाभाविक होता है। बच्चे छात्रावास में रहते हैं इसलिये घर के लोगों के स्नेह से, घर की सुविधाओं और स्वतन्त्रता से, घर के भोजन से वे वंचित रह जाते हैं ऐसा उन्हें लगता है । इसलिये जब अवकाश में घर आते हैं तब टीवी, होटेल, घूमना फिरना, काम नहीं करना आदि बातों की इतनी अधिकता हो जाती है कि बच्चे भी आवासीय विद्यालय के अनुशासन, भोजन, व्यवस्था आदि को बन्धन मानने लगते हैं और सदैव उससे मुक्ति चाहते हैं । छात्रालय का जीवन मानो उनके लिये मजबूरी बन जाता है। अनुशासन, व्यवस्था आदि का यदि अच्छे मन से स्वीकार नहीं किया जाय तो वे जीवन का अंग नहीं बनतीं । वर्षों तक आवासीय विद्यालय में रहने के बाद भी विद्यार्थियों के चरित्र का गठन नहीं हो पाता क्योंकि अभिभावकों और शिक्षकों की ना समझी और अकुशलता के कारण विद्यार्थी उसका स्वीकार ही नहीं कर पाते । बच्चे उद्दण्ड हैं इसलिये यदि आवासीय विद्यालय में भेज दिये गये हैं तब तो उनके और अधिक उद्दण्ड बनने की सम्भावना ही अधिक होती है क्योंकि शिक्षक यदि गुरुकुल के शिक्षक जैसे नहीं हैं तो विद्यालय का कृत्रिम अनुशासन सुधारगृह का ही अनुभव करवाता है।।
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इन विद्यालयों के अभिभावकों का व्यवहार और मानस बहुत अस्वाभाविक होता है। बच्चे छात्रावास में रहते हैं इसलिये घर के लोगोंं के स्नेह से, घर की सुविधाओं और स्वतन्त्रता से, घर के भोजन से वे वंचित रह जाते हैं ऐसा उन्हें लगता है । इसलिये जब अवकाश में घर आते हैं तब टीवी, होटेल, घूमना फिरना, काम नहीं करना आदि बातों की इतनी अधिकता हो जाती है कि बच्चे भी आवासीय विद्यालय के अनुशासन, भोजन, व्यवस्था आदि को बन्धन मानने लगते हैं और सदैव उससे मुक्ति चाहते हैं । छात्रालय का जीवन मानो उनके लिये मजबूरी बन जाता है। अनुशासन, व्यवस्था आदि का यदि अच्छे मन से स्वीकार नहीं किया जाय तो वे जीवन का अंग नहीं बनतीं । वर्षों तक आवासीय विद्यालय में रहने के बाद भी विद्यार्थियों के चरित्र का गठन नहीं हो पाता क्योंकि अभिभावकों और शिक्षकों की ना समझी और अकुशलता के कारण विद्यार्थी उसका स्वीकार ही नहीं कर पाते । बच्चे उद्दण्ड हैं इसलिये यदि आवासीय विद्यालय में भेज दिये गये हैं तब तो उनके और अधिक उद्दण्ड बनने की सम्भावना ही अधिक होती है क्योंकि शिक्षक यदि गुरुकुल के शिक्षक जैसे नहीं हैं तो विद्यालय का कृत्रिम अनुशासन सुधारगृह का ही अनुभव करवाता है।।
    
जिन आवासीय विद्यालयों में कुछ छात्र स्थानिक होते हैं और केवल पढाई के लिये ही विद्यालय में आते हैं वहाँ वातावरण, व्यवस्था, मानसिकता बिगड जाने की सम्भावनायें ही अधिक होती हैं। बाहर के वातावरण के दूषण और आन्तरिक व्यवस्था की कृत्रिमता विद्यार्थियों को असहज बना देते हैं।
 
जिन आवासीय विद्यालयों में कुछ छात्र स्थानिक होते हैं और केवल पढाई के लिये ही विद्यालय में आते हैं वहाँ वातावरण, व्यवस्था, मानसिकता बिगड जाने की सम्भावनायें ही अधिक होती हैं। बाहर के वातावरण के दूषण और आन्तरिक व्यवस्था की कृत्रिमता विद्यार्थियों को असहज बना देते हैं।
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आवासीय विद्यालय यदि गुरुकुलों के समान और विशेष सांस्कृतिक उद्देश्य और पद्धति से नहीं चलाये गये तो दो पीढियों में अन्तर निर्माण करने के निमित्त बन जाते हैं । वैसे भी वर्तमान वातावरण में मातापिता और सन्तानों में दूरत्व निर्माण करने वाले अनेक साधन उत्पन्न हो ही गये हैं उनमें यह एक बडा निमित्त जुड़ जाता है। दो पीढियों में समरस सम्बन्ध निर्माण नहीं होने से सांस्कृतिक परम्परा खण्डित होती है । परम्परा खण्डित होना किसी भी समाज के लिये घाटे का ही सौदा होता है । इसलिये समाज हितचिन्तक सदा परम्परा को बनाये रखने हेतु हर सम्भव प्रयास करने का ही परामर्श देते हैं।
 
आवासीय विद्यालय यदि गुरुकुलों के समान और विशेष सांस्कृतिक उद्देश्य और पद्धति से नहीं चलाये गये तो दो पीढियों में अन्तर निर्माण करने के निमित्त बन जाते हैं । वैसे भी वर्तमान वातावरण में मातापिता और सन्तानों में दूरत्व निर्माण करने वाले अनेक साधन उत्पन्न हो ही गये हैं उनमें यह एक बडा निमित्त जुड़ जाता है। दो पीढियों में समरस सम्बन्ध निर्माण नहीं होने से सांस्कृतिक परम्परा खण्डित होती है । परम्परा खण्डित होना किसी भी समाज के लिये घाटे का ही सौदा होता है । इसलिये समाज हितचिन्तक सदा परम्परा को बनाये रखने हेतु हर सम्भव प्रयास करने का ही परामर्श देते हैं।
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आज समाज में धनवान लोगों की यह मानसिकता भी बढने लगी है कि अच्छी पढाई हेतु अपनी सन्तानों को बड़े नगरों में या विदेशों में भेजना अच्छा है। ऐसा नहीं है कि ऐसी पढाई हेतु अपने ही स्थान पर कोई महाविद्यालय नहीं है। परन्तु महानगरों, दूर स्थित महानगरों और विदेशों का दोनों पीढियों को आकर्षण है । बड़ों को उसमें प्रतिष्ठा का अनुभव होता है और युवाओं को प्रतिष्ठा के साथ साथ मुक्ति का भी अनुभव होता है । अपनी सन्तानों के भले के लिये ही यह सब कर रहे हैं ऐसा बड़ों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता ऋण लेकर भी अपनी सांतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते है परन्तु यह शैक्षिक दॄष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता। सामाजिक सांस्कृतिक दॄष्टि से यह हानिकारक है।  
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आज समाज में धनवान लोगोंं की यह मानसिकता भी बढने लगी है कि अच्छी पढाई हेतु अपनी सन्तानों को बड़े नगरों में या विदेशों में भेजना अच्छा है। ऐसा नहीं है कि ऐसी पढाई हेतु अपने ही स्थान पर कोई महाविद्यालय नहीं है। परन्तु महानगरों, दूर स्थित महानगरों और विदेशों का दोनों पीढियों को आकर्षण है । बड़ों को उसमें प्रतिष्ठा का अनुभव होता है और युवाओं को प्रतिष्ठा के साथ साथ मुक्ति का भी अनुभव होता है । अपनी सन्तानों के भले के लिये ही यह सब कर रहे हैं ऐसा बड़ों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता ऋण लेकर भी अपनी सांतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते है परन्तु यह शैक्षिक दॄष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता। सामाजिक सांस्कृतिक दॄष्टि से यह हानिकारक है।  
    
यह सब कर रहे हैं ऐसा बड़ों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता क्रण लेकर भी अपनी संतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते हैं परन्तु यह शैक्षिक दृष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता । सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टि से यह हानिकारक है ।
 
यह सब कर रहे हैं ऐसा बड़ों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता क्रण लेकर भी अपनी संतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते हैं परन्तु यह शैक्षिक दृष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता । सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टि से यह हानिकारक है ।
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इनमें बच्चों के प्रवेश हों, उन्हें प्रोत्साहन मिले इस हेतु से प्रवेशोत्सव मनाये जाते हैं । विद्यार्थी मध्य में ही विद्यालय छोड़कर न जाय इसका भी ध्यान रखा जाता है । गरीबों को अपने बच्चों को पढ़ाने की सुविधा हो इस दृष्टि से मद्यत्ह्य भोजन योजना चलाई जाती है । बच्चों को पुस्तकें, गणवेश, बस्ता आदि भी दिया जाता है । सरकार अनेक प्रयास करती है। सर्व शिक्षा अभियान चलता है। तो भी सरकारी विद्यालयों की हालत अत्यन्त दयनीय और चिन्ताजनक है । आँकडे भी दयनीय स्थिति दर्शाते हैं जबकि वास्तविक स्थिति आँकडों से अधिक दयनीय होती है यह सब जानते हैं ।
 
इनमें बच्चों के प्रवेश हों, उन्हें प्रोत्साहन मिले इस हेतु से प्रवेशोत्सव मनाये जाते हैं । विद्यार्थी मध्य में ही विद्यालय छोड़कर न जाय इसका भी ध्यान रखा जाता है । गरीबों को अपने बच्चों को पढ़ाने की सुविधा हो इस दृष्टि से मद्यत्ह्य भोजन योजना चलाई जाती है । बच्चों को पुस्तकें, गणवेश, बस्ता आदि भी दिया जाता है । सरकार अनेक प्रयास करती है। सर्व शिक्षा अभियान चलता है। तो भी सरकारी विद्यालयों की हालत अत्यन्त दयनीय और चिन्ताजनक है । आँकडे भी दयनीय स्थिति दर्शाते हैं जबकि वास्तविक स्थिति आँकडों से अधिक दयनीय होती है यह सब जानते हैं ।
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सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । प्रजा को इन विद्यालयों पर कोई भरोसा नहीं है । अब ऐसा कहा जाता है कि सरकारी विद्यालयों में अच्छे लोगों के बच्चे पढ़ते ही नहीं हैं, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, नशा करने वाले, असंस्कारी मातापिता के बच्चे पढते हैं जिनकी संगत में हमारे बच्चें बिगड जायेंगे । परन्तु यह तो परिणाम है । “अच्छे' घर के लोगों ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया इसलिये अब 'पिछडे' बच्चे रह गये हैं । दो पीढ़ियों पूर्व आज के विद्वान लोग भी सरकारी विद्यालयों में पढ़े हुए ही हैं । धीरे धीरे पढ़ाना बन्द हुआ इसलिये लोगों ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया । झुग्गी झॉंपडियों में नहीं रहनेवाले सुसंस्कृत और झुग्गी झेंपडियों में रहनेवाले पिछडे यह वर्गीकरण तो बडी भ्रान्ति है परन्तु इस भ्रान्ति को दूर करने की चिन्ता कोई नहीं करता, उल्टे उसका ही लोग फायदा उठाने का प्रयास करते हैं । सरकारी विद्यालयों के शिक्षक सदा शिकायत करते हैं कि हमारे यहाँ बच्चे पढने के लिये आते ही नहीं हैं, केवल खाने के लिये ही आते हैं, अच्छे घर के आते ही नहीं है तो हम किसे पढायें । यह भी सत्य नहीं है परन्तु इस सम्बन्ध में कोई प्रयास नहीं किया जाता ।
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सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । प्रजा को इन विद्यालयों पर कोई भरोसा नहीं है । अब ऐसा कहा जाता है कि सरकारी विद्यालयों में अच्छे लोगोंं के बच्चे पढ़ते ही नहीं हैं, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, नशा करने वाले, असंस्कारी मातापिता के बच्चे पढते हैं जिनकी संगत में हमारे बच्चें बिगड जायेंगे । परन्तु यह तो परिणाम है । “अच्छे' घर के लोगोंं ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया इसलिये अब 'पिछडे' बच्चे रह गये हैं । दो पीढ़ियों पूर्व आज के विद्वान लोग भी सरकारी विद्यालयों में पढ़े हुए ही हैं । धीरे धीरे पढ़ाना बन्द हुआ इसलिये लोगोंं ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया । झुग्गी झॉंपडियों में नहीं रहनेवाले सुसंस्कृत और झुग्गी झेंपडियों में रहनेवाले पिछडे यह वर्गीकरण तो बडी भ्रान्ति है परन्तु इस भ्रान्ति को दूर करने की चिन्ता कोई नहीं करता, उल्टे उसका ही लोग फायदा उठाने का प्रयास करते हैं । सरकारी विद्यालयों के शिक्षक सदा शिकायत करते हैं कि हमारे यहाँ बच्चे पढने के लिये आते ही नहीं हैं, केवल खाने के लिये ही आते हैं, अच्छे घर के आते ही नहीं है तो हम किसे पढायें । यह भी सत्य नहीं है परन्तु इस सम्बन्ध में कोई प्रयास नहीं किया जाता ।
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अनेक बार लोगों द्वारा शिकायतें की जाती हैं, अखबारों में सचित्र समाचार छपते हैं कि गाँवों में विद्यालय के भवन अच्छे नहीं हैं, बैठने की, शौचालयों की सुविधा नहीं है, शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई है, यदि हुई है तो वे शिक्षक आते नहीं हैं, अपने स्थान पर अन्य किसी नौसीखिये को भेजकर स्वयं दूसरा व्यवसाय करते हैं । इस बात में सचाई होने पर भी इस कारण से शिक्षा नहीं दी जा सकती ऐसा नहीं है । नगरों और महानगरों के प्राथमिक विद्यालयों में अच्छा भवन, अच्छा मैदान, शिक्षक, साधनसामग्री, विद्यार्थी सबकुछ है तो भी शिक्षा की स्थिति तो वैसी ही दयनीय है । इसका क्या कारण है ?
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अनेक बार लोगोंं द्वारा शिकायतें की जाती हैं, अखबारों में सचित्र समाचार छपते हैं कि गाँवों में विद्यालय के भवन अच्छे नहीं हैं, बैठने की, शौचालयों की सुविधा नहीं है, शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई है, यदि हुई है तो वे शिक्षक आते नहीं हैं, अपने स्थान पर अन्य किसी नौसीखिये को भेजकर स्वयं दूसरा व्यवसाय करते हैं । इस बात में सचाई होने पर भी इस कारण से शिक्षा नहीं दी जा सकती ऐसा नहीं है । नगरों और महानगरों के प्राथमिक विद्यालयों में अच्छा भवन, अच्छा मैदान, शिक्षक, साधनसामग्री, विद्यार्थी सबकुछ है तो भी शिक्षा की स्थिति तो वैसी ही दयनीय है । इसका क्या कारण है ?
    
शैक्षिक दृष्टि से सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पर्याप्त व्यवस्था होती है । कई निजी विद्यालयों में शिक्षक उचित योग्यता वाले नहीं भी होते परन्तु सरकारी विद्यालयों में पर्याप्त योग्यता वाले होते ही हैं । उनके प्रशिक्षण की और निरीक्षण की पर्याप्त व्यवस्था होती है । साधनसामग्री, पुस्तकें आदि का अभाव नहीं होता । सरकारी शिक्षकों का जितना प्रशिक्षण होता है उतना तो अन्यत्र कहीं नहीं होता । वेतनमान भी निजी विद्यालयों की अपेक्षा अच्छा होता है । तो भी शिक्षा अच्छी नहीं होती इसका क्या कारण है ?
 
शैक्षिक दृष्टि से सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पर्याप्त व्यवस्था होती है । कई निजी विद्यालयों में शिक्षक उचित योग्यता वाले नहीं भी होते परन्तु सरकारी विद्यालयों में पर्याप्त योग्यता वाले होते ही हैं । उनके प्रशिक्षण की और निरीक्षण की पर्याप्त व्यवस्था होती है । साधनसामग्री, पुस्तकें आदि का अभाव नहीं होता । सरकारी शिक्षकों का जितना प्रशिक्षण होता है उतना तो अन्यत्र कहीं नहीं होता । वेतनमान भी निजी विद्यालयों की अपेक्षा अच्छा होता है । तो भी शिक्षा अच्छी नहीं होती इसका क्या कारण है ?
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# पढाने न पढाने का मूल्यांकन करने की पद्धति अत्यन्त कृत्रिम है। विद्यार्थी ज्ञानवान और चरित्रवान बनें इसका निकर्ष परीक्षा ही है । परीक्षा भी लिखित होती है। अंक दे सकें इस स्वरूप की होती है । अंक दे देना बहुत सरल है । समाज में या व्यक्तिगत जीवन में अज्ञान और असंस्कार दिखाई दे रहा है यह परीक्षा में उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण होने का निकष नहीं है । इसलिये अंक मिल जाते हैं परन्तु ज्ञान या संस्कार नहीं आता । इस परिणाम हेतु दण्डित या पुरस्कृत करना असम्भव है। इसलिये विद्यालय में पढाना सम्भव ही नहीं होता।
 
# पढाने न पढाने का मूल्यांकन करने की पद्धति अत्यन्त कृत्रिम है। विद्यार्थी ज्ञानवान और चरित्रवान बनें इसका निकर्ष परीक्षा ही है । परीक्षा भी लिखित होती है। अंक दे सकें इस स्वरूप की होती है । अंक दे देना बहुत सरल है । समाज में या व्यक्तिगत जीवन में अज्ञान और असंस्कार दिखाई दे रहा है यह परीक्षा में उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण होने का निकष नहीं है । इसलिये अंक मिल जाते हैं परन्तु ज्ञान या संस्कार नहीं आता । इस परिणाम हेतु दण्डित या पुरस्कृत करना असम्भव है। इसलिये विद्यालय में पढाना सम्भव ही नहीं होता।
 
# कहीं पर भी सीधी कारवाई होने की व्यवस्था सरकारी तन्त्र में नहीं होती। निरीक्षण करने वाला स्वयं कुछ नहीं कर सकता, केवल रिपोर्ट भेज सकता है । रिपोर्ट पढने वाला और उपर रिपोर्ट भेजता है। रिपोर्ट को सिद्ध करना बहुत कठिन होता है। उसमें फिर राजकीय हस्तक्षेप भी होते हैं । कारवाई करने वाले 'शिक्षक' नहीं होते, प्रशासकीय विभाग के होते हैं । वास्तव में निर्णय लेने या कारवाई करने की दृष्टि से यह शिक्षा का क्षेत्र नहीं है। नीतियाँ निश्चित करनेवाला राजकीय क्षेत्र है, कारवाई करनेवाला प्रशासकीय क्षेत्र है, शिक्षा का क्षेत्र तो उनके अधीन है। राजकीय क्षेत्र वाले चुनावों की और सत्ता की चिन्ता करते हैं, उनके लिये सरकारी विद्यालय अपने हितों के लिये उपयोग में आनेवाला क्षेत्र है। प्रशासनिक अधिकारियों के लिये ये सब कर्मचारी हैं । उनका कार्यक्षेत्र नियम, कानून, कानून की धारा, नियम पालन के या उल्लंघन के शाब्दिक प्रावधान, नियुक्ति वेतन आदि हैं, शिक्षा नहीं । शिक्षा के प्रश्न को शैक्षिक दृष्टि से समझनेवाला, शैक्षिक दृष्टि से हल करनेवाला इस तन्त्र में कोई नहीं है । जब शिक्षा प्रशासन और राजनीति के अधीन हो जाती है तब वह निर्जीव और यांत्रिक हो जाती है। प्राणवान व्यक्ति अपनी अंगभूत ऊर्जा से कार्य करता है, यन्त्र बाहरी ऊर्जा से । प्राणवान व्यक्ति अपने ही बल, इच्छा और प्रेरणा से चलता है। यन्त्र चलाने पर चलता है । सरकारी शिक्षा का तन्त्र भी चलाने पर चलने वाला तन्त्र है । शिक्षा स्वभाव से प्राणवान है, प्रशासन स्वभाव से यान्त्रिक है। चलाने वाला यान्त्रिक हो और चलनेवाला प्राणवान यह अपने आप में बहुत विचित्र व्यवस्था है। ऐसी विचित्र व्यवस्था होने के कारण ही ज्ञान, चरित्र, कर्तृत्व, कुशलता आदि जीवमान तत्व पलायन कर जाते हैं। इस मूल कारण से सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में अच्छी शिक्षा नहीं होती।
 
# कहीं पर भी सीधी कारवाई होने की व्यवस्था सरकारी तन्त्र में नहीं होती। निरीक्षण करने वाला स्वयं कुछ नहीं कर सकता, केवल रिपोर्ट भेज सकता है । रिपोर्ट पढने वाला और उपर रिपोर्ट भेजता है। रिपोर्ट को सिद्ध करना बहुत कठिन होता है। उसमें फिर राजकीय हस्तक्षेप भी होते हैं । कारवाई करने वाले 'शिक्षक' नहीं होते, प्रशासकीय विभाग के होते हैं । वास्तव में निर्णय लेने या कारवाई करने की दृष्टि से यह शिक्षा का क्षेत्र नहीं है। नीतियाँ निश्चित करनेवाला राजकीय क्षेत्र है, कारवाई करनेवाला प्रशासकीय क्षेत्र है, शिक्षा का क्षेत्र तो उनके अधीन है। राजकीय क्षेत्र वाले चुनावों की और सत्ता की चिन्ता करते हैं, उनके लिये सरकारी विद्यालय अपने हितों के लिये उपयोग में आनेवाला क्षेत्र है। प्रशासनिक अधिकारियों के लिये ये सब कर्मचारी हैं । उनका कार्यक्षेत्र नियम, कानून, कानून की धारा, नियम पालन के या उल्लंघन के शाब्दिक प्रावधान, नियुक्ति वेतन आदि हैं, शिक्षा नहीं । शिक्षा के प्रश्न को शैक्षिक दृष्टि से समझनेवाला, शैक्षिक दृष्टि से हल करनेवाला इस तन्त्र में कोई नहीं है । जब शिक्षा प्रशासन और राजनीति के अधीन हो जाती है तब वह निर्जीव और यांत्रिक हो जाती है। प्राणवान व्यक्ति अपनी अंगभूत ऊर्जा से कार्य करता है, यन्त्र बाहरी ऊर्जा से । प्राणवान व्यक्ति अपने ही बल, इच्छा और प्रेरणा से चलता है। यन्त्र चलाने पर चलता है । सरकारी शिक्षा का तन्त्र भी चलाने पर चलने वाला तन्त्र है । शिक्षा स्वभाव से प्राणवान है, प्रशासन स्वभाव से यान्त्रिक है। चलाने वाला यान्त्रिक हो और चलनेवाला प्राणवान यह अपने आप में बहुत विचित्र व्यवस्था है। ऐसी विचित्र व्यवस्था होने के कारण ही ज्ञान, चरित्र, कर्तृत्व, कुशलता आदि जीवमान तत्व पलायन कर जाते हैं। इस मूल कारण से सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में अच्छी शिक्षा नहीं होती।
# सरकारी तन्त्र अ-मानवीय है । यह एक व्यवस्था है । यहाँ व्यक्ति गौण है, नियम ही मुख्य है । इस व्यवस्था में नियम के आधार पर व्यवहार होता है. भावना और विवेक के आधार पर नहीं, कर्तृत्व और चरित्र के आधार पर नहीं । उदाहरण के लिये शिक्षामन्त्री शिक्षक, विद्वान अथवा शिक्षाशास्त्री ही होगा ऐसा नहीं है। यह शिक्षा मनोविज्ञान जाननेवाला होगा यह आवश्यक नहीं है। वह लोगों के मतों से चुनकर देश चलानेवाली संसद या धारासभा में पहुँचा हुआ सांसद या विधायक है । यह स्वभाव से और कार्य से, विचार और अनुभव से व्यापारी भी हो सकता है, उद्योजक हो सकता है या मजदूर भी हो सकता है। उसका शिक्षा के साथ ज्ञानोपासक या ज्ञानसेवक जैसा कोई सम्बन्ध नहीं है । प्रशासनिक अधिकारी तन्त्र को चलानेवाला  है। वह शिक्षा को, चिकित्सा को, कारखानों को, खानों-खदानों को, विद्युत उत्पादन को, मजदूरों को एक ही पद्धति से चलाता है । उसे सजीव निर्जीव का, अच्छे बुरे का, सज्जन और दुर्जन का कोई भेद नहीं है । वह अन्धे की तरह ‘समदृष्टि' है, कानून अन्धे की लकड़ी  है।
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# सरकारी तन्त्र अ-मानवीय है । यह एक व्यवस्था है । यहाँ व्यक्ति गौण है, नियम ही मुख्य है । इस व्यवस्था में नियम के आधार पर व्यवहार होता है. भावना और विवेक के आधार पर नहीं, कर्तृत्व और चरित्र के आधार पर नहीं । उदाहरण के लिये शिक्षामन्त्री शिक्षक, विद्वान अथवा शिक्षाशास्त्री ही होगा ऐसा नहीं है। यह शिक्षा मनोविज्ञान जाननेवाला होगा यह आवश्यक नहीं है। वह लोगोंं के मतों से चुनकर देश चलानेवाली संसद या धारासभा में पहुँचा हुआ सांसद या विधायक है । यह स्वभाव से और कार्य से, विचार और अनुभव से व्यापारी भी हो सकता है, उद्योजक हो सकता है या मजदूर भी हो सकता है। उसका शिक्षा के साथ ज्ञानोपासक या ज्ञानसेवक जैसा कोई सम्बन्ध नहीं है । प्रशासनिक अधिकारी तन्त्र को चलानेवाला  है। वह शिक्षा को, चिकित्सा को, कारखानों को, खानों-खदानों को, विद्युत उत्पादन को, मजदूरों को एक ही पद्धति से चलाता है । उसे सजीव निर्जीव का, अच्छे बुरे का, सज्जन और दुर्जन का कोई भेद नहीं है । वह अन्धे की तरह ‘समदृष्टि' है, कानून अन्धे की लकड़ी  है।
 
# इस तन्त्र में विवेक पक्षपात बन जाता है, इसलिये कोई अपनी दृष्टि से, अपनी पद्धति से, अपने विवेक से निर्णय नहीं कर सकता, कारवाई नहीं कर सकता । भले ही उल्टे सीधे, टेढे मेढे रास्ते निकाले जाय तो भी उन्हें नियम कानून के द्वारा न्याय्य ठहराने ही होते हैं । यन्त्र की व्यवस्था में ऐसा होना अनिवार्य है। कोई भी यन्त्र स्वतन्त्र व्यवहार कर ही नहीं । सकता । यदि करने लगता है तो पूरी व्यवस्था चरमरा जाती है। तात्पर्य यह है कि विशाल और व्यापक सरकारी तन्त्र को अ-मानवीय होना ही पड़ता है। सूझबूझ, कल्पनाशक्ति, अन्तर्दष्टि, देशकाल परिस्थिति के अनुसार स्वविवेक आदि इसमें सम्भव ही नहीं होते हैं। शिक्षा का स्वभाव इससे सर्वथा उल्टा है। उसे इन सबकी आवश्यकता होती है। परन्तु शिक्षक के हाथ में अधिकार नहीं है । अधिकार यान्त्रिक व्यवस्था के हैं। ऐसे अ-मानवीय तन्त्र में शिक्षा का विचार, शिक्षा की प्रक्रिया, शिक्षा के निर्णय, योजनायें, नीतियाँ शैक्षिक दृष्टि से, शैक्षिक पद्धति से नहीं लिये जाते हैं, लिये जाना सम्भव भी नहीं है। इसका परिणाम यह होता है कि विद्यालय, शिक्षक और विद्यार्थियों के होते हुए भी शिक्षा नहीं चलती।
 
# इस तन्त्र में विवेक पक्षपात बन जाता है, इसलिये कोई अपनी दृष्टि से, अपनी पद्धति से, अपने विवेक से निर्णय नहीं कर सकता, कारवाई नहीं कर सकता । भले ही उल्टे सीधे, टेढे मेढे रास्ते निकाले जाय तो भी उन्हें नियम कानून के द्वारा न्याय्य ठहराने ही होते हैं । यन्त्र की व्यवस्था में ऐसा होना अनिवार्य है। कोई भी यन्त्र स्वतन्त्र व्यवहार कर ही नहीं । सकता । यदि करने लगता है तो पूरी व्यवस्था चरमरा जाती है। तात्पर्य यह है कि विशाल और व्यापक सरकारी तन्त्र को अ-मानवीय होना ही पड़ता है। सूझबूझ, कल्पनाशक्ति, अन्तर्दष्टि, देशकाल परिस्थिति के अनुसार स्वविवेक आदि इसमें सम्भव ही नहीं होते हैं। शिक्षा का स्वभाव इससे सर्वथा उल्टा है। उसे इन सबकी आवश्यकता होती है। परन्तु शिक्षक के हाथ में अधिकार नहीं है । अधिकार यान्त्रिक व्यवस्था के हैं। ऐसे अ-मानवीय तन्त्र में शिक्षा का विचार, शिक्षा की प्रक्रिया, शिक्षा के निर्णय, योजनायें, नीतियाँ शैक्षिक दृष्टि से, शैक्षिक पद्धति से नहीं लिये जाते हैं, लिये जाना सम्भव भी नहीं है। इसका परिणाम यह होता है कि विद्यालय, शिक्षक और विद्यार्थियों के होते हुए भी शिक्षा नहीं चलती।
 
# इसका अर्थ यह नहीं है कि निजी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा अच्छी चलती है। वहाँ अच्छी चलती दिखाई देती है इसके कारण वहाँ के शिक्षक नहीं हैं, वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं है वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं हैं तन्त्र है । निजी विद्यालयों में अच्छी चलती दिखाई दे रही है इसका कारण भी शिक्षक नहीं है, तन्त्र ही हैं । सरकारी तन्त्र बहुत बडा होने के कारण से और अ-मानवीय होने के कारण से वहाँ शिक्षक से ‘पढवाना' सम्भव नहीं होता । निजी विद्यालयों में तन्त्र छोटा होने के कारण से, मानवीय होने के कारण से शिक्षक से पढवाना' सम्भव होता है । सरकारी तन्त्र में नौकरी देने वाली व्यवस्था है, निजी तन्त्र में मनुष्य है । मनुष्य इच्छा, भावना, विवेक आदि से परिचालित होकर व्यवहार करता है। इसलिये यहाँ शिक्षक को पढाना पडता है । निजी विद्यालयों में शुल्क देनेवाला अभिभावक भी एक महत्व पूर्ण घटक है । अभिभावक और संचालक मिलकर शिक्षक को पढाने के लिये बाध्य कर सकते हैं।
 
# इसका अर्थ यह नहीं है कि निजी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा अच्छी चलती है। वहाँ अच्छी चलती दिखाई देती है इसके कारण वहाँ के शिक्षक नहीं हैं, वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं है वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं हैं तन्त्र है । निजी विद्यालयों में अच्छी चलती दिखाई दे रही है इसका कारण भी शिक्षक नहीं है, तन्त्र ही हैं । सरकारी तन्त्र बहुत बडा होने के कारण से और अ-मानवीय होने के कारण से वहाँ शिक्षक से ‘पढवाना' सम्भव नहीं होता । निजी विद्यालयों में तन्त्र छोटा होने के कारण से, मानवीय होने के कारण से शिक्षक से पढवाना' सम्भव होता है । सरकारी तन्त्र में नौकरी देने वाली व्यवस्था है, निजी तन्त्र में मनुष्य है । मनुष्य इच्छा, भावना, विवेक आदि से परिचालित होकर व्यवहार करता है। इसलिये यहाँ शिक्षक को पढाना पडता है । निजी विद्यालयों में शुल्क देनेवाला अभिभावक भी एक महत्व पूर्ण घटक है । अभिभावक और संचालक मिलकर शिक्षक को पढाने के लिये बाध्य कर सकते हैं।
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====== कुछ इस प्रकार विचार कर सकते हैं ======
 
====== कुछ इस प्रकार विचार कर सकते हैं ======
# अभिभावकों को अपनी सन्तानों को सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में भेजने हेतु प्रेरित करना यह वर्तमान परिस्थिति में करनेलायक प्रथम उपाय है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में जो सुविधा है वह पर्याप्त है, जो शिक्षक हैं वे नीयत से कैसे भी हों शैक्षिक पात्रता की दृष्टि से पर्याप्त हैं । सरकारी विद्यालय में शुल्क नहीं है, वह सस्ता है। घर के पास है इसलिये वाहन का खर्च नहीं है। अन्य तामझाम नहीं हैं। बालक चलकर विद्यालय जा सकते हैं इसलिये समय और श्रम की बचत होती है । अतः इन विद्यालयों में भेजना अधिक अच्छा है । तन्त्र तो शिक्षकों को पढाने हेतु बाध्य नहीं कर सकता परन्तु अभिभावक कर सकते हैं। अभिभावकों के आग्रह का परिणाम तन्त्र पर भी होता है । अतः यह प्रबोधन का विषय बनना चाहिये । प्रश्न केवल यह है कि सरकार की इस मामले में सहायता करने हेतु कोई आयेगा नहीं, आयेगा तो किसी न किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा से आयेगा । सरकार से मिलने वाले लाभ या तो आर्थिक या राजनीतिक होते हैं । यह होते हुए भी सरकारी विद्यालयों में अपनी सन्तानों को पढाना लोगों के लिये लाभकारी ही है । समाजसेवी संगठनों को अभिभावक प्रबोधन का कार्य करना चाहिये । शिक्षा महँगी हो गई है उसका भी उपाय हो जायेगा । यह भी आज का विकट प्रश्न बना हुआ है।
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# अभिभावकों को अपनी सन्तानों को सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में भेजने हेतु प्रेरित करना यह वर्तमान परिस्थिति में करनेलायक प्रथम उपाय है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में जो सुविधा है वह पर्याप्त है, जो शिक्षक हैं वे नीयत से कैसे भी हों शैक्षिक पात्रता की दृष्टि से पर्याप्त हैं । सरकारी विद्यालय में शुल्क नहीं है, वह सस्ता है। घर के पास है इसलिये वाहन का खर्च नहीं है। अन्य तामझाम नहीं हैं। बालक चलकर विद्यालय जा सकते हैं इसलिये समय और श्रम की बचत होती है । अतः इन विद्यालयों में भेजना अधिक अच्छा है । तन्त्र तो शिक्षकों को पढाने हेतु बाध्य नहीं कर सकता परन्तु अभिभावक कर सकते हैं। अभिभावकों के आग्रह का परिणाम तन्त्र पर भी होता है । अतः यह प्रबोधन का विषय बनना चाहिये । प्रश्न केवल यह है कि सरकार की इस मामले में सहायता करने हेतु कोई आयेगा नहीं, आयेगा तो किसी न किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा से आयेगा । सरकार से मिलने वाले लाभ या तो आर्थिक या राजनीतिक होते हैं । यह होते हुए भी सरकारी विद्यालयों में अपनी सन्तानों को पढाना लोगोंं के लिये लाभकारी ही है । समाजसेवी संगठनों को अभिभावक प्रबोधन का कार्य करना चाहिये । शिक्षा महँगी हो गई है उसका भी उपाय हो जायेगा । यह भी आज का विकट प्रश्न बना हुआ है।
 
# प्रबोधन की आवश्यकता सरकार को भी है । सरकारी प्राथमिक शिक्षकों के पास पढाने के अतिरिक्त इतने अधिक काम रहते हैं कि वे पढाने का काम कम कर पाते हैं। उदाहरण के लिये जनगणना, विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण, चुनाव के समय जानकारी पहुँचाने का काम आदि विभिन्न सरकारी योजनाओं का काम प्राथमिक शिक्षकों को करना पडता है। शिक्षक और अभिभावक इससे तंग आ जाते हैं। यदि सरकारी विद्यालय ठीक से चलते हैं तो शिक्षकों को इस प्रकार की व्यस्तता से मुक्त करना होगा । अ-मानवीयतन्त्र सहजता से ऐसा करता नहीं है इसलिये उसके लिये प्रबोधन की अधिक आवश्यकता होगी।
 
# प्रबोधन की आवश्यकता सरकार को भी है । सरकारी प्राथमिक शिक्षकों के पास पढाने के अतिरिक्त इतने अधिक काम रहते हैं कि वे पढाने का काम कम कर पाते हैं। उदाहरण के लिये जनगणना, विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण, चुनाव के समय जानकारी पहुँचाने का काम आदि विभिन्न सरकारी योजनाओं का काम प्राथमिक शिक्षकों को करना पडता है। शिक्षक और अभिभावक इससे तंग आ जाते हैं। यदि सरकारी विद्यालय ठीक से चलते हैं तो शिक्षकों को इस प्रकार की व्यस्तता से मुक्त करना होगा । अ-मानवीयतन्त्र सहजता से ऐसा करता नहीं है इसलिये उसके लिये प्रबोधन की अधिक आवश्यकता होगी।
 
# प्रबोधन का कार्य निःस्वार्थ लोग या संस्थायें ही कर सकती हैं। यदि वे भी किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा करेंगे तो राजकीय पक्ष उनका लाभ उठायेंगे । फिर प्रबोधन भी एक व्यवसाय बन जायेगा। सरकार यदि अपनी प्रतिष्ठा बढाने हेतु पैसे का आधार लेती है तो उसका लाभ उठाने वाले तत्व निकल आयेंगे । इसलिये स्वेच्छा से, निरपेक्ष भाव से, समाजसेवा करने वाले लोग ही शिक्षा की तथा समाज की सेवा करने की दृष्टि से अभिभावक और सरकार का प्रबोधन करने का काम करेंगे तो कुछ परिणाम मिलने की सम्भावना है।
 
# प्रबोधन का कार्य निःस्वार्थ लोग या संस्थायें ही कर सकती हैं। यदि वे भी किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा करेंगे तो राजकीय पक्ष उनका लाभ उठायेंगे । फिर प्रबोधन भी एक व्यवसाय बन जायेगा। सरकार यदि अपनी प्रतिष्ठा बढाने हेतु पैसे का आधार लेती है तो उसका लाभ उठाने वाले तत्व निकल आयेंगे । इसलिये स्वेच्छा से, निरपेक्ष भाव से, समाजसेवा करने वाले लोग ही शिक्षा की तथा समाज की सेवा करने की दृष्टि से अभिभावक और सरकार का प्रबोधन करने का काम करेंगे तो कुछ परिणाम मिलने की सम्भावना है।
 
# कई सेवाभावी संस्थायें सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में भोजन, शैक्षिक सामग्री, कपडे आदि की सहायता करते हैं । कई संस्थायें यहाँ के विद्यार्थियों के लिये पढाने की और संस्कार देने की अतिरिक्त व्यवस्था करते हैं । यह इसी कारण से करते हैं क्योंकि सब जानते हैं कि इन विद्यालयों में पढाई होती नहीं है। यह अच्छा है, परन्तु इससे भी अच्छा यह है कि सब मिलकर शिक्षकों को पढाने हेतु प्रेरित करें । अभिभावक और अन्य संस्थायें मूल प्रश्न की ओर ध्यान न देकर मध्य में से रास्ता निकालने का प्रयास करते हैं। इससे तो कुल मिलाकर लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है ।
 
# कई सेवाभावी संस्थायें सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में भोजन, शैक्षिक सामग्री, कपडे आदि की सहायता करते हैं । कई संस्थायें यहाँ के विद्यार्थियों के लिये पढाने की और संस्कार देने की अतिरिक्त व्यवस्था करते हैं । यह इसी कारण से करते हैं क्योंकि सब जानते हैं कि इन विद्यालयों में पढाई होती नहीं है। यह अच्छा है, परन्तु इससे भी अच्छा यह है कि सब मिलकर शिक्षकों को पढाने हेतु प्रेरित करें । अभिभावक और अन्य संस्थायें मूल प्रश्न की ओर ध्यान न देकर मध्य में से रास्ता निकालने का प्रयास करते हैं। इससे तो कुल मिलाकर लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है ।
# एक ओर तो सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को प्रबोधन और प्रेरणा के माध्यम से पुष्ट करने का काम करना चाहिये, दूसरी ओर सरकार से मुक्त करने का भी प्रयास होना चाहिये । वास्तव में शिक्षा सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, अंग्रेजी शासन के प्रभाव में यह सरकार की बाध्यता बन गई है । सरकारी ढंग से चलने वाला कोई भी काम ऐसे ही चलेगा । इसमें सरकार का दोष नहीं है । लोकतन्त्र में भी ऐसे ही चलेगा । इसमें लोकतन्त्र का भी दोष नहीं है । वास्तव में शिक्षा यदि इस प्रकार चलनी है तो समाज शिक्षित होगा ऐसी अपेक्षा ही नहीं करनी चाहिये । सरकार से मुक्त होने पर ही कुछ किया जा सकता है। सरकार से शिक्षा को मुक्त करने के लिये समाज को इस दायित्व को स्वीकार करना होगा । समाज आज इस मानसिकता में नहीं है। निजी संस्थायें कुछ विद्यालय तो चला लेंगी परन्तु देश की इतनी जनसंख्या के लिये आवश्यक है उतनी संख्या में विद्यालय चलाना उसके बस की बात नहीं। यह भी समाज प्रबोधन का ही बहुत बडा विषय है। शिक्षा की स्वायत्तता की माँग करने वाले लोगों और संगठनों को इस विषय में विचार करना होगा।
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# एक ओर तो सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को प्रबोधन और प्रेरणा के माध्यम से पुष्ट करने का काम करना चाहिये, दूसरी ओर सरकार से मुक्त करने का भी प्रयास होना चाहिये । वास्तव में शिक्षा सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, अंग्रेजी शासन के प्रभाव में यह सरकार की बाध्यता बन गई है । सरकारी ढंग से चलने वाला कोई भी काम ऐसे ही चलेगा । इसमें सरकार का दोष नहीं है । लोकतन्त्र में भी ऐसे ही चलेगा । इसमें लोकतन्त्र का भी दोष नहीं है । वास्तव में शिक्षा यदि इस प्रकार चलनी है तो समाज शिक्षित होगा ऐसी अपेक्षा ही नहीं करनी चाहिये । सरकार से मुक्त होने पर ही कुछ किया जा सकता है। सरकार से शिक्षा को मुक्त करने के लिये समाज को इस दायित्व को स्वीकार करना होगा । समाज आज इस मानसिकता में नहीं है। निजी संस्थायें कुछ विद्यालय तो चला लेंगी परन्तु देश की इतनी जनसंख्या के लिये आवश्यक है उतनी संख्या में विद्यालय चलाना उसके बस की बात नहीं। यह भी समाज प्रबोधन का ही बहुत बडा विषय है। शिक्षा की स्वायत्तता की माँग करने वाले लोगोंं और संगठनों को इस विषय में विचार करना होगा।
 
# कुछ इस प्रकार उपाय हो सकते हैं।
 
# कुछ इस प्रकार उपाय हो सकते हैं।
 
## सभी शिक्षित मातापिता अपने बच्चों को स्वयं पढायेंगे, साथ ही जो स्वयं अपने बच्चों को नहीं पढा सकते ऐसे मातापिता को बच्चों को भी पढायेंगे ऐसा विचार प्रस्तुत करना चाहिये । भोजन, वस्त्र, औषध आदि की व्यवस्था जिस प्रकार अपनी जिम्मेदारी पर की जाती है उसी प्रकार शिक्षा की भी व्यवस्था की जाय इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं लगना चाहिये ।
 
## सभी शिक्षित मातापिता अपने बच्चों को स्वयं पढायेंगे, साथ ही जो स्वयं अपने बच्चों को नहीं पढा सकते ऐसे मातापिता को बच्चों को भी पढायेंगे ऐसा विचार प्रस्तुत करना चाहिये । भोजन, वस्त्र, औषध आदि की व्यवस्था जिस प्रकार अपनी जिम्मेदारी पर की जाती है उसी प्रकार शिक्षा की भी व्यवस्था की जाय इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं लगना चाहिये ।

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