Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "इसलिए" to "अतः"
Line 246: Line 246:  
विद्यालय से तात्पर्य है प्राथमिक, माध्यमिक या महाविद्यालय ऐसा कोई भी विद्यालय । छात्र जब तक विद्यालय में पढ़ाई करते हैं तब तक तो उनका विद्यालय के साथ सीधा सम्बन्ध रहता है। अब अध्ययन पूर्ण कर जब घर जाते हैं तब आगे के जीवन में उनका विद्यालय के साथ कैसा सम्बन्ध रहेगा ?
 
विद्यालय से तात्पर्य है प्राथमिक, माध्यमिक या महाविद्यालय ऐसा कोई भी विद्यालय । छात्र जब तक विद्यालय में पढ़ाई करते हैं तब तक तो उनका विद्यालय के साथ सीधा सम्बन्ध रहता है। अब अध्ययन पूर्ण कर जब घर जाते हैं तब आगे के जीवन में उनका विद्यालय के साथ कैसा सम्बन्ध रहेगा ?
   −
आज तो अध्ययन पूर्ण हुआ इसलिए छात्र एक बोझ कम हुआ ऐसा मानते हैं । प्राथमिक या माध्यमिक विद्यालय पूर्ण कर जब उच्च शिक्षा में जाते हैं तब अनेक प्रकार के बंधनों से मुक्ति मिली ऐसा भी अनुभव करते हैं। गृहस्थ जीवन में जब विद्यालय को याद करते हैं तब कुछ भावात्मक बातें भी होती हैं । जिन शिक्षकों ने विशेष रूप से प्रशंसा या सहायता की थी उन्हें और जिन्होंने विशेष रूप से दंडित किया था उन्हें याद करते हैं । किस प्रकार शैतानी करते थे या कौन शिक्षक कैसा था इसकी भी चर्चा कभी कभी हो जाती है । अपने विद्यालय का गौरव अनुभव करने के किस्से भी क्वचित होते हैं।
+
आज तो अध्ययन पूर्ण हुआ अतः छात्र एक बोझ कम हुआ ऐसा मानते हैं । प्राथमिक या माध्यमिक विद्यालय पूर्ण कर जब उच्च शिक्षा में जाते हैं तब अनेक प्रकार के बंधनों से मुक्ति मिली ऐसा भी अनुभव करते हैं। गृहस्थ जीवन में जब विद्यालय को याद करते हैं तब कुछ भावात्मक बातें भी होती हैं । जिन शिक्षकों ने विशेष रूप से प्रशंसा या सहायता की थी उन्हें और जिन्होंने विशेष रूप से दंडित किया था उन्हें याद करते हैं । किस प्रकार शैतानी करते थे या कौन शिक्षक कैसा था इसकी भी चर्चा कभी कभी हो जाती है । अपने विद्यालय का गौरव अनुभव करने के किस्से भी क्वचित होते हैं।
    
कभी कभी विद्यालय के लिए आर्थिक सहायता की आवश्यकता हुई तो अधिक कमाने वाले छात्रों को विद्यालय याद करता है। कभी पूर्व छात्रों के स्नेहमिलन जैसे कार्यक्रम भी बनते हैं । बहुत कम संख्या में परंतु पूर्व छात्रसंघ भी बनता है । ये छात्र अपनी योजना से ही मिलते हैं और कोई न कोई कार्यक्रम करते हैं ।
 
कभी कभी विद्यालय के लिए आर्थिक सहायता की आवश्यकता हुई तो अधिक कमाने वाले छात्रों को विद्यालय याद करता है। कभी पूर्व छात्रों के स्नेहमिलन जैसे कार्यक्रम भी बनते हैं । बहुत कम संख्या में परंतु पूर्व छात्रसंघ भी बनता है । ये छात्र अपनी योजना से ही मिलते हैं और कोई न कोई कार्यक्रम करते हैं ।
Line 255: Line 255:     
===== विद्यालय के प्रति कृतज्ञता का भाव जगाना =====
 
===== विद्यालय के प्रति कृतज्ञता का भाव जगाना =====
विद्यालय ने ही इसका विचार करना चाहिए । विद्यार्थियों के साथ का व्यवहार ऐसा ही होना चाहिए कि इनके विद्यालय के साथ आत्मीय सम्बन्ध बने । जिस प्रकार घर के साथ घर के सदस्यों का सम्बन्ध हमेशा के लिए होता है, कहीं पर भी जाएँ तो भी मिटता नहीं है उसी प्रकार विद्यालय के साथ का सम्बन्ध भी मिटना नहीं चाहिए । जिस प्रकार मातापिता और संतानों का सम्बन्ध आजीवन रहता है उसी प्रकार शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध भी आजीवन रहेगा। कोई कह सकता है कि एक शिक्षक के पास वर्षों तक असंख्य विद्यार्थी पढ़ते हैं। कभी विद्यालय बदल बदल कर अनेक विद्यालयों में पढ़ाया या अनेक नगरों में पढ़ाया या विद्यार्थी ही अनेक नगरों में बसे तो यह सम्बन्ध कैसे रहेगा ? हम आज की स्थिति में ही विचार कर रहे हैं इसलिए ऐसी बातें मन में आती हैं। यदि हम यह निश्चित करें कि विद्यालय और विद्यार्थियों का सम्बन्ध आजीवन रहना स्वाभाविक बनाना चाहिए तो हम उसके अनुकूल व्यवस्था बनाएँगे।
+
विद्यालय ने ही इसका विचार करना चाहिए । विद्यार्थियों के साथ का व्यवहार ऐसा ही होना चाहिए कि इनके विद्यालय के साथ आत्मीय सम्बन्ध बने । जिस प्रकार घर के साथ घर के सदस्यों का सम्बन्ध हमेशा के लिए होता है, कहीं पर भी जाएँ तो भी मिटता नहीं है उसी प्रकार विद्यालय के साथ का सम्बन्ध भी मिटना नहीं चाहिए । जिस प्रकार मातापिता और संतानों का सम्बन्ध आजीवन रहता है उसी प्रकार शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध भी आजीवन रहेगा। कोई कह सकता है कि एक शिक्षक के पास वर्षों तक असंख्य विद्यार्थी पढ़ते हैं। कभी विद्यालय बदल बदल कर अनेक विद्यालयों में पढ़ाया या अनेक नगरों में पढ़ाया या विद्यार्थी ही अनेक नगरों में बसे तो यह सम्बन्ध कैसे रहेगा ? हम आज की स्थिति में ही विचार कर रहे हैं अतः ऐसी बातें मन में आती हैं। यदि हम यह निश्चित करें कि विद्यालय और विद्यार्थियों का सम्बन्ध आजीवन रहना स्वाभाविक बनाना चाहिए तो हम उसके अनुकूल व्यवस्था बनाएँगे।
    
ये सारी भावात्मक बातें हैं । विद्यालय के प्रति स्नेह होना, शिक्षकों का स्मरण करना, विद्यालय के कार्यक्रमों में सहभागी होना आदि सबकी अपनी अपनी रुचि और स्थिति के अनुसार होता रहता है। परन्तु एक बार का विद्यार्थी हमेशा का विद्यार्थी इस रूप में विद्यालय के साथ सम्बन्ध बनना अपेक्षित है।  
 
ये सारी भावात्मक बातें हैं । विद्यालय के प्रति स्नेह होना, शिक्षकों का स्मरण करना, विद्यालय के कार्यक्रमों में सहभागी होना आदि सबकी अपनी अपनी रुचि और स्थिति के अनुसार होता रहता है। परन्तु एक बार का विद्यार्थी हमेशा का विद्यार्थी इस रूप में विद्यालय के साथ सम्बन्ध बनना अपेक्षित है।  
Line 270: Line 270:  
* विद्यालय में प्रशासन हेतु भी एक व्यवस्था होनी होती है। आज इसके लिए संचालक मंडल होता है। नियुक्तियाँ करना, सरकार के साथ पत्रव्यवहार करना, आवश्यक सामग्री की खरीदी करना, भवन आदि बनवाना, धनसंग्रह करना आदि काम प्रबन्ध समिति के होते हैं । ये सारे काम शिक्षकों को । करना चाहिए। शिक्षकों की नियुक्तियाँ करना प्रधानाचार्य का काम है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी शिक्षकों की है । इसमें भी विद्यार्थियों की सहभागिता अपेक्षित है।  
 
* विद्यालय में प्रशासन हेतु भी एक व्यवस्था होनी होती है। आज इसके लिए संचालक मंडल होता है। नियुक्तियाँ करना, सरकार के साथ पत्रव्यवहार करना, आवश्यक सामग्री की खरीदी करना, भवन आदि बनवाना, धनसंग्रह करना आदि काम प्रबन्ध समिति के होते हैं । ये सारे काम शिक्षकों को । करना चाहिए। शिक्षकों की नियुक्तियाँ करना प्रधानाचार्य का काम है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी शिक्षकों की है । इसमें भी विद्यार्थियों की सहभागिता अपेक्षित है।  
 
* इस व्यवस्था हेतु विद्यालय स्वायत्त होने चाहिए । आज की शेष व्यवस्था वैसी ही रखकर यह व्यवस्था नहीं हो सकती। फिर भी संचालक मंडल, शिक्षक, अभिभावक और शासन को साथ मिलकर यह प्रयोग कैसे हो इसका विचार करना चाहिए । एक विद्यालय यदि दस वर्ष की योजना बनाता है तो यह आज भी व्यावहारिक बन सकती है।  
 
* इस व्यवस्था हेतु विद्यालय स्वायत्त होने चाहिए । आज की शेष व्यवस्था वैसी ही रखकर यह व्यवस्था नहीं हो सकती। फिर भी संचालक मंडल, शिक्षक, अभिभावक और शासन को साथ मिलकर यह प्रयोग कैसे हो इसका विचार करना चाहिए । एक विद्यालय यदि दस वर्ष की योजना बनाता है तो यह आज भी व्यावहारिक बन सकती है।  
* शिक्षकों को इस बात में अग्रसर होना चाहिए । वे स्वयं विद्यालय आरम्भ करें । प्रथम कुछ वर्ष इसे समाज के सहयोग से चलाएं । प्रारम्भ से गुरुदक्षिणा का विषय नहीं हो सकता । प्रयोग व्यावहारिक बन सके इसलिए बारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों से आरम्भ करें । ये विद्यार्थी बीस वर्ष के होते होते अर्थार्जन आरम्भ करेंगे, साथ ही चयनित छात्र विद्यालय में अध्यापन आरम्भ करेंगे।
+
* शिक्षकों को इस बात में अग्रसर होना चाहिए । वे स्वयं विद्यालय आरम्भ करें । प्रथम कुछ वर्ष इसे समाज के सहयोग से चलाएं । प्रारम्भ से गुरुदक्षिणा का विषय नहीं हो सकता । प्रयोग व्यावहारिक बन सके अतः बारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों से आरम्भ करें । ये विद्यार्थी बीस वर्ष के होते होते अर्थार्जन आरम्भ करेंगे, साथ ही चयनित छात्र विद्यालय में अध्यापन आरम्भ करेंगे।
 
* किसी भी विचार को मूर्त रूप देने के लिए बौद्धिक और मानसिक तैयारी करनी होती है वह इसमें भी करनी चाहिए । शिक्षा के धार्मिक प्रतिमान के लिए यह करणीय कार्य है इसका बौद्धिक स्वीकार प्रथम चरण है। सम्बन्धित लोगों की मानसिकता बनाना दूसरा चरण है। व्यावहारिक पक्ष की योजना बनाना तीसरा चरण है।  
 
* किसी भी विचार को मूर्त रूप देने के लिए बौद्धिक और मानसिक तैयारी करनी होती है वह इसमें भी करनी चाहिए । शिक्षा के धार्मिक प्रतिमान के लिए यह करणीय कार्य है इसका बौद्धिक स्वीकार प्रथम चरण है। सम्बन्धित लोगों की मानसिकता बनाना दूसरा चरण है। व्यावहारिक पक्ष की योजना बनाना तीसरा चरण है।  
 
* इस प्रकार करने से विद्यालय परिवार की भी संकल्पना साकार हो सकती है। अनौपचारिक पद्धति से कहीं कहीं पर आज भी यह चलती है, परन्तु इसे एक व्यवस्था में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है ।
 
* इस प्रकार करने से विद्यालय परिवार की भी संकल्पना साकार हो सकती है। अनौपचारिक पद्धति से कहीं कहीं पर आज भी यह चलती है, परन्तु इसे एक व्यवस्था में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है ।
Line 284: Line 284:  
* विद्यालय का सामान व्यवस्थित रखना  
 
* विद्यालय का सामान व्यवस्थित रखना  
 
* विद्यालय के बेंक, यातायात, डाकघर आदि के कामकाज करना
 
* विद्यालय के बेंक, यातायात, डाकघर आदि के कामकाज करना
इन सभी कामों को शिक्षाक्रम के साथ जोड़ना चाहिए । उदाहरण के लिए स्वच्छता का सामान कैसा होना चाहिए, कितना होना चाहिए, उनका प्रयोग कैसे करना चाहिए, कम समय में, कम परिश्रम से, कम वस्तुओं का प्रयोग कर अच्छे से अच्छा काम कैसे करना चाहिए इसकी शिक्षा विभिन्न विषयों की व्यावहारिक शिक्षा ही है। व्यावहारिक आयाम सीखते सीखते सैद्धान्तिक समझ भी स्पष्ट होती है। प्रत्यक्ष काम करते करते सर्व प्रकार की शिक्षा होती है। ये सारी बातें घर और विद्यालय दोनों में सीखी जाती हैं इसलिए कम समय में और अच्छी तरह सीखना सम्भव होता है।  
+
इन सभी कामों को शिक्षाक्रम के साथ जोड़ना चाहिए । उदाहरण के लिए स्वच्छता का सामान कैसा होना चाहिए, कितना होना चाहिए, उनका प्रयोग कैसे करना चाहिए, कम समय में, कम परिश्रम से, कम वस्तुओं का प्रयोग कर अच्छे से अच्छा काम कैसे करना चाहिए इसकी शिक्षा विभिन्न विषयों की व्यावहारिक शिक्षा ही है। व्यावहारिक आयाम सीखते सीखते सैद्धान्तिक समझ भी स्पष्ट होती है। प्रत्यक्ष काम करते करते सर्व प्रकार की शिक्षा होती है। ये सारी बातें घर और विद्यालय दोनों में सीखी जाती हैं अतः कम समय में और अच्छी तरह सीखना सम्भव होता है।  
    
===== वर्तमान में ये बातें होती क्यों नहीं हैं ? =====
 
===== वर्तमान में ये बातें होती क्यों नहीं हैं ? =====
Line 307: Line 307:  
* साजसज्जा, वेषभूषा आदि नहीं होने से प्रेक्षक के रूप में भी कल्पनाशक्ति का विकास होता है। अभिनय देखकर ही चरित्र समझने की क्षमता बढ़ती है। पात्र के साथ तादात्म्य निर्माण होता है । कलाकृति का रसानुभव करना और उससे प्रेरणा प्राप्त करना तभी सम्भव है। हम सुनते हैं कि महात्मा गांधी ने राजा हरिश्चंद्र का नाटक देखा और उससे प्रेरणा प्राप्त कर जीवन में सत्य ही बोलने का व्रत लिया । आज छोटे छोटे बच्चे भी फिल्म में जो देखते हैं वह झूठ है ऐसा समझते हैं । उन्हें नट और नटियाँ दिखती हैं, उनके चरित्र नहीं । वे चरित्रों के नाम नहीं बोलते, नातों के ही नाम बोलते हैं। प्रेरणा लेते हैं तो उनके शृंगार और वेषभूषा तथा केशभूषा की क्योंकि कला अब अभिनय में नहीं अपितु साजसज्जा और शृंगार के ऊपरी सतह पर आ गई है।  
 
* साजसज्जा, वेषभूषा आदि नहीं होने से प्रेक्षक के रूप में भी कल्पनाशक्ति का विकास होता है। अभिनय देखकर ही चरित्र समझने की क्षमता बढ़ती है। पात्र के साथ तादात्म्य निर्माण होता है । कलाकृति का रसानुभव करना और उससे प्रेरणा प्राप्त करना तभी सम्भव है। हम सुनते हैं कि महात्मा गांधी ने राजा हरिश्चंद्र का नाटक देखा और उससे प्रेरणा प्राप्त कर जीवन में सत्य ही बोलने का व्रत लिया । आज छोटे छोटे बच्चे भी फिल्म में जो देखते हैं वह झूठ है ऐसा समझते हैं । उन्हें नट और नटियाँ दिखती हैं, उनके चरित्र नहीं । वे चरित्रों के नाम नहीं बोलते, नातों के ही नाम बोलते हैं। प्रेरणा लेते हैं तो उनके शृंगार और वेषभूषा तथा केशभूषा की क्योंकि कला अब अभिनय में नहीं अपितु साजसज्जा और शृंगार के ऊपरी सतह पर आ गई है।  
 
* इस छिछलेपन तथा कला के आभासी स्तर को सही करने का स्थान विद्यालय का कक्षाकक्ष है जहां कला का आस्वाद और कला की प्रस्तुति की सही समझ दी जाती है।  
 
* इस छिछलेपन तथा कला के आभासी स्तर को सही करने का स्थान विद्यालय का कक्षाकक्ष है जहां कला का आस्वाद और कला की प्रस्तुति की सही समझ दी जाती है।  
* कला का क्षेत्र आज बहुत बड़ी मात्रा में अक्रिय मनोरंजन का क्षेत्र बन गया है । लोग संगीत सुनते हैं, स्वयं गाते नहीं, नाटक या नृत्य देखते हैं, स्वयं करते नहीं, खेल भी देखते हैं, खेलते नहीं। बहुत ही अल्प मात्रा में लोग यह सब करते हैं परन्तु संकट यह है कि उनके लिए यह सब कमाई करने के साधन हैं, आनन्द और रसास्वादन के नहीं। अच्छी से अच्छी बातों को बिकाऊ बना देने की क्षुद्र वृत्ति आज चारों अल्प मात्रा में लोग यह सब करते हैं परन्तु संकट यह है कि उनके लिए यह सब कमाई करने के साधन हैं, आनन्द और रसास्वादन के नहीं। अच्छी से अच्छी बातों को बिकाऊ बना देने की क्षुद्र वृत्ति आज चारों ओर दिखाई दे रही है इसलिए आनन्द कला का नहीं कला से मिलने वाले पैसे का रह गया है। यह सांस्कृतिक अवनति है।  
+
* कला का क्षेत्र आज बहुत बड़ी मात्रा में अक्रिय मनोरंजन का क्षेत्र बन गया है । लोग संगीत सुनते हैं, स्वयं गाते नहीं, नाटक या नृत्य देखते हैं, स्वयं करते नहीं, खेल भी देखते हैं, खेलते नहीं। बहुत ही अल्प मात्रा में लोग यह सब करते हैं परन्तु संकट यह है कि उनके लिए यह सब कमाई करने के साधन हैं, आनन्द और रसास्वादन के नहीं। अच्छी से अच्छी बातों को बिकाऊ बना देने की क्षुद्र वृत्ति आज चारों अल्प मात्रा में लोग यह सब करते हैं परन्तु संकट यह है कि उनके लिए यह सब कमाई करने के साधन हैं, आनन्द और रसास्वादन के नहीं। अच्छी से अच्छी बातों को बिकाऊ बना देने की क्षुद्र वृत्ति आज चारों ओर दिखाई दे रही है अतः आनन्द कला का नहीं कला से मिलने वाले पैसे का रह गया है। यह सांस्कृतिक अवनति है।  
 
* आजकल अक्रिय मनोरंजन के प्रचलन के परिणामस्वरूप एक ओर तो निष्क्रियता बढ़ी है, दूसरी ओर जब भी विद्यार्थी नाचते गाते हैं तब उसमें किसी भी प्रकार का सौंदर्य नहीं होता। संगीत, नृत्य या अभिनय का उसमें दर्शन नहीं होता । एक प्रकार का भोंडापन ही दिखाई देता है । या तो उसमें परा कोटी का व्यावसायीकरण होता है। उसमें फिर सब लोग सहभागी नहीं हो सकते। हमारे लोकउत्सवों में छोटे बड़े सबकी, सामान्य से लेकर महाजनों की सहभागिता का बहुत महत्व  रहा है। जिस प्रकार सार्वजनिक उत्सवों में लोकसहभागिता का महत्व  है उसी प्रकार विद्यालय में शैक्षिक दृष्टि से सभी विद्यार्थियों की सहभागिता का महत्व  है । जिस प्रकार भाषा, गणित, विज्ञान, इतिहास सबको आने चाहिए उसी प्रकार गाना, नाचना, खेलना, अभिनय करना भी सबको आना चाहिए । इस दृष्टि से कक्षाकक्ष ही रंगमंच है, प्रार्थनासभा ही विशेष प्रस्तुति के लिए मंच है, भाषाशुद्धि, स्वरशुद्धि, जिसका अभिनय कर रहे हैं उस चरित्र के साथ का तादात्म्य, भाषाकीय अभिव्यक्ति, अंगविन्यास आदि मूल्यांकन के मापदण्ड हैं, शिक्षक ही मूल्यांकन करने वाले और सिखाने वाले भी हैं।
 
* आजकल अक्रिय मनोरंजन के प्रचलन के परिणामस्वरूप एक ओर तो निष्क्रियता बढ़ी है, दूसरी ओर जब भी विद्यार्थी नाचते गाते हैं तब उसमें किसी भी प्रकार का सौंदर्य नहीं होता। संगीत, नृत्य या अभिनय का उसमें दर्शन नहीं होता । एक प्रकार का भोंडापन ही दिखाई देता है । या तो उसमें परा कोटी का व्यावसायीकरण होता है। उसमें फिर सब लोग सहभागी नहीं हो सकते। हमारे लोकउत्सवों में छोटे बड़े सबकी, सामान्य से लेकर महाजनों की सहभागिता का बहुत महत्व  रहा है। जिस प्रकार सार्वजनिक उत्सवों में लोकसहभागिता का महत्व  है उसी प्रकार विद्यालय में शैक्षिक दृष्टि से सभी विद्यार्थियों की सहभागिता का महत्व  है । जिस प्रकार भाषा, गणित, विज्ञान, इतिहास सबको आने चाहिए उसी प्रकार गाना, नाचना, खेलना, अभिनय करना भी सबको आना चाहिए । इस दृष्टि से कक्षाकक्ष ही रंगमंच है, प्रार्थनासभा ही विशेष प्रस्तुति के लिए मंच है, भाषाशुद्धि, स्वरशुद्धि, जिसका अभिनय कर रहे हैं उस चरित्र के साथ का तादात्म्य, भाषाकीय अभिव्यक्ति, अंगविन्यास आदि मूल्यांकन के मापदण्ड हैं, शिक्षक ही मूल्यांकन करने वाले और सिखाने वाले भी हैं।
 
* महाविद्यालयों के रंगमंच कार्यक्रमों में राष्ट्रीय समस्याओं के सन्दर्भ में प्रबोधन और शिक्षाक्षेत्र के माध्यम से क्या हल हो सकता है उसका विचार भी प्रस्तुत होना चाहिए । उदाहरण के लिए देश की आर्थिक स्थिति का विश्लेषण और उपाय, देश के गौरव का स्मरण और जागरण,सांस्कृतिक श्रेष्ठता के जतन का आग्रह, विश्व में भारत की भूमिका आदि महत्व पूर्ण विषयों का समावेश रंगमंच कार्यक्रमों में होना चाहिए । संक्षेप में रंगमंच कार्यक्रम शिशु से लेकर बड़ी कक्षाओं तक शिक्षाप्रक्रिया का ही नियमित और अंगभूत हिस्सा बनना चाहिए, अलग से कोई विशेष कार्यक्रम नहीं । यह पैसे का और मनोरंजन का विषय नहीं है, क्रियात्मक, भावात्मक, कलात्मक, व्यावहारिक शैक्षिक विषय है।
 
* महाविद्यालयों के रंगमंच कार्यक्रमों में राष्ट्रीय समस्याओं के सन्दर्भ में प्रबोधन और शिक्षाक्षेत्र के माध्यम से क्या हल हो सकता है उसका विचार भी प्रस्तुत होना चाहिए । उदाहरण के लिए देश की आर्थिक स्थिति का विश्लेषण और उपाय, देश के गौरव का स्मरण और जागरण,सांस्कृतिक श्रेष्ठता के जतन का आग्रह, विश्व में भारत की भूमिका आदि महत्व पूर्ण विषयों का समावेश रंगमंच कार्यक्रमों में होना चाहिए । संक्षेप में रंगमंच कार्यक्रम शिशु से लेकर बड़ी कक्षाओं तक शिक्षाप्रक्रिया का ही नियमित और अंगभूत हिस्सा बनना चाहिए, अलग से कोई विशेष कार्यक्रम नहीं । यह पैसे का और मनोरंजन का विषय नहीं है, क्रियात्मक, भावात्मक, कलात्मक, व्यावहारिक शैक्षिक विषय है।

Navigation menu