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| | {{One source|date=March 2019}} | | {{One source|date=March 2019}} |
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| − | यह लेख इस स्रोत से लिया गया है।<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), | + | यह लेख इस स्रोत से लिया गया है।<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १) - अध्याय २, |
| | प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे | | प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे |
| | </ref> | | </ref> |
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| | # शिक्षा राष्ट्र की जीवनदृष्टि पर आधारित होती है और उस जीवनदृष्टि को पुष्ट करती है । | | # शिक्षा राष्ट्र की जीवनदृष्टि पर आधारित होती है और उस जीवनदृष्टि को पुष्ट करती है । |
| | # राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई है। वह भूमि, जन और जीवनदर्शन मिलकर बनता है । | | # राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई है। वह भूमि, जन और जीवनदर्शन मिलकर बनता है । |
| − | # भारत की जीवनदृष्टि आध्यात्मिक है इसलिए भारतीय शिक्षा भी अध्यात्मनिष्ठ है । | + | # भारत की जीवनदृष्टि आध्यात्मिक है अतः धार्मिक शिक्षा भी अध्यात्मनिष्ठ है । |
| | # शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ सर्वभाव से जुड़ी हुई है । | | # शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ सर्वभाव से जुड़ी हुई है । |
| | # शिक्षा आजीवन चलती है । | | # शिक्षा आजीवन चलती है । |
| − | # शिक्षा गर्भाधान से भी पूर्व से शुरू होकर अन्त्येष्टि तक चलती है । | + | # शिक्षा गर्भाधान से भी पूर्व से आरम्भ होकर अन्त्येष्टि तक चलती है । |
| | # शिक्षा सर्वत्र चलती है । घर, विद्यालय और समाज शिक्षा के प्रमुख केन्द्र हैं । | | # शिक्षा सर्वत्र चलती है । घर, विद्यालय और समाज शिक्षा के प्रमुख केन्द्र हैं । |
| | # घर में व्यवहार की, विद्यालय में शास्त्रीय और समाज में प्रबोधनात्मक शिक्षा होती है । | | # घर में व्यवहार की, विद्यालय में शास्त्रीय और समाज में प्रबोधनात्मक शिक्षा होती है । |
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| | # व्यक्ति का समष्टि के साथ समायोजन कुटुंब, समुदाय, राष्ट्र और विश्व ऐसे चार स्तरों पर होता है| | | # व्यक्ति का समष्टि के साथ समायोजन कुटुंब, समुदाय, राष्ट्र और विश्व ऐसे चार स्तरों पर होता है| |
| | # अन्नमय आत्मा शरीर है । बल, आरोग्य, कौशल, तितिक्षा और लोच उसके विकास का स्वरूप है । | | # अन्नमय आत्मा शरीर है । बल, आरोग्य, कौशल, तितिक्षा और लोच उसके विकास का स्वरूप है । |
| − | # आहार, निद्रा, श्रम, काम और | + | # आहार, निद्रा, श्रम, काम और मनःशान्ति से उसका विकास होता है । |
| − | # . ९८. चित्त की शुद्धि के अनुपात में ये गुण प्रकट होते हैं ।
| + | # प्राणमय आत्मा प्राण है । एकाग्रता सन्तुलन और नियमन उसके विकास का स्वरूप है । |
| − | मनःशान्ति से उसका विकास होता है । ९९, अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंदमय के परे | + | # आहार, निद्रा, भय और मैथुन उसकी चार वृत्तियाँ हैं । |
| − | | + | # प्राणायाम और शुद्ध वायु उसके विकास के कारक तत्व हैं। |
| − | | + | # मनोमय आत्मा मन है । विचार, भावना और इच्छा उसके स्वरूप हैं । |
| − | Ly
| + | # चंचलता, उत्तेजितता, ट्रंद्रात्मकता और आसक्ति उसके स्वभाव है । |
| − | | + | # एकाग्रता, शान्ति, अनासक्ति और सद्धावना उसके विकास का स्वरूप है । |
| − | DOL
| + | # योगाभ्यास, सेवा, संयम, स्वाध्याय, जप, सत्संग, सात्विक आहार मन के विकास के कारक तत्व हैं। |
| − | LYLSOLABES
| + | # विज्ञानमय आत्मा बुद्धि है। |
| − | | + | # तेजस्विता, कुशाग्रता और विशालता बुद्धि के विशेषण हैं । |
| − | १9७,
| + | # विवेक बुद्धि के विकास का स्वरूप है । |
| − | | + | # निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अनुमान, विश्लेषण, संस्लेषण, बुद्धि के साधन हैं । |
| − | ck.
| + | # अहंकार बुद्धि का एक और साथीदार है । |
| − | AC
| + | # कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व अहंकार के लक्षण हैं । |
| − | | + | # आत्मनिष्ठ बुद्धि और अहंकार सद्बुद्धि और दायित्वबोध में परिणत होते हैं । |
| − | ८८.
| + | # आनंदमय आत्मा चित्त है । संस्कार ग्रहण करना उसका कार्य है । |
| − | ८९.
| + | # जन्मजान्मांतर, अनुवंश, संस्कृति और सन्निवेश के संस्कार होते हैं । |
| − | .. आत्मनिष्ठ बुद्धि और अहंकार सदुद्धि और दायित्वबोध
| + | # चित्तशुद्धि करना चित्त के विकास का स्वरूप है । |
| − | | + | # सर्व प्रकार के संस्कारों का क्षय करना चित्तशुद्धि है । |
| − | 88.
| + | # आहारशुद्धि और समाधि से चित्त शुद्ध होता है । |
| − | ९२.
| + | # शुद्ध चित्त में आत्मतत्व प्रतिबिम्बित होता है । |
| − | | + | # शुद्ध चित्त में सहजता, प्रेम, सौंदर्यबोध, सृजनशीलता, आनंद का निवास है । |
| − | ९३.
| + | # चित्त की शुद्धि के अनुपात में ये गुण प्रकट होते हैं । |
| − | ९४,
| + | # अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंदमय के परे आत्मतत्व है । |
| − | ९५,
| + | # उसका ही स्वरूप हृदय है । अनुभूति उसका विषय है। |
| − | ९६,
| + | # आत्मतत्व को आत्मतत्व की अनुभूति आत्मतत्वरूपी हृदय में होती है । |
| − | ९७,
| + | # शिक्षा का लक्ष्य यही अनुभूति है । |
| − | | + | # एकात्मा की अनुभूति होने पर सर्वात्मा की अनुभूति होती है । |
| − |
| + | # एकात्मा की अनुभूति अहम ब्रह्मास्मि है, सर्वात्मा की सर्वं खल्विदम ब्रह्म । |
| − | | + | # प्राणी, वनस्पति और पंचमहाभूत सृष्टि है । |
| − | ७६. आहार, निद्रा, श्रम, काम और
| + | # सृष्टि के प्रति एकात्मता, कृतज्ञता, दोहन और रक्षण, व्यक्ति के सृष्टि के साथ समायोजन के चरण हैं । |
| − | मनःशान्ति से उसका विकास होता है ।
| + | # ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं । |
| − | | + | # शिक्षा समाज के लिये होती है तब वह समाज को श्रेष्ठ बनाती है । |
| − | प्राणमय आत्मा प्राण है । एकाग्रता सन्तुलन और नियमन | + | # समृद्ध और सुसंस्कृत समाज श्रेष्ठ समाज है । |
| − | उसके विकास का स्वरूप है । | + | # संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी होती है और समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती है । |
| − | | + | # श्रेष्ठ समाज में व्यक्ति, समष्टि और सृष्टि के गौरव, सम्मान और स्वतन्त्रता की रक्षा होती है । |
| − | .. आहार, निद्रा, भय और मैथुन उसकी चार वृत्तियाँ हैं ।
| + | # शिक्षक शिक्षाक्षेत्र का अधिष्ठाता है । |
| − | .. प्राणायाम और शुद्ध वायु उसके विकास के कारक
| + | # शिक्षा पर आए सारे संकटों को दूर करने का दायित्व शिक्षक का होता है । |
| − | | + | # शिक्षक की दुर्बलता से शिक्षा पर संकट आते हैं । |
| − | तत्त्व हैं।
| + | # परराष्ट्र की जीवनदृष्टि का आक्रमण और सत्ता तथा धन के ट्वारा शिक्षा की स्वायत्तता का हरण शिक्षा पर आए संकट हैं । |
| − | | + | # राष्ट्रनिष्ठा, ज्ञाननिष्ठा और विद्यार्थिनिष्ठा से शिक्षक इन संकटों पर विजय प्राप्त कर सकता है । |
| − | . मनोमय आत्मा मन है । विचार, भावना और इच्छा
| + | # राष्ट्र के जीवनदर्शन को जानना, मानना और उसके अनुसार व्यवहार करना राष्ट्रनिष्ठा है । |
| − | | + | # ज्ञान की पवित्रता, श्रेष्ठता और गुरुता की रक्षा करना ज्ञाननिष्ठा है । |
| − | उसके स्वरूप हैं । | + | # विद्यार्थी को जानना, उसके कल्याण हेतु प्रयास करना और उसे अपने से सवाया बनाना विद्यार्थीनिष्ठा है । |
| − | | + | # आचार्यत्व शिक्षक का गुणलक्षण है । |
| − | .. चंचलता, उत्तेजितता, ट्रंद्रात्मकता और आसक्ति उसके
| + | # अपने आचरण से प्रेरित कर विद्यार्थी का जीवन बनाता है वह आचार्य है । |
| − | | + | # आचार्य का आचरण शास्त्रनिष्ठ होता है । |
| − | स्वभाव है । | + | # विद्यार्थी भी ज्ञाननिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ और आचार्यनिष्ठ होता है। |
| − | | + | # आचार्य की सेवा, अनुशासन, जिज्ञासा और विनय विद्यार्थी के गुणलक्षण हैं । |
| − | .. एकाग्रता, शान्ति, अनासक्ति और सद्धावना उसके
| + | # अधीति, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार अध्ययन की पंचपदी है। |
| − | | + | # कर्मन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से विषय को ग्रहण करना अधीति है। |
| − | विकास का स्वरूप है । | + | # मन और बुद्धि के द्वारा अधीत विषय को ग्रहण करना बोध है । |
| − | | + | # जिसका बोध हुआ है उसे पुन: पुन: करना अभ्यास है। |
| − | .. योगाभ्यास, सेवा, संयम, स्वाध्याय, जप, सत्संग,
| + | # अभ्यास से बोध परिपक्क होता है । |
| − | | + | # परिपक्क बोध के अनुसार आचरण करना प्रयोग है । |
| − | aft en मन के विकास के कारक तत्त्व = |
| + | # आचरण से विषय व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बनता है। |
| − | विज्ञानमय आत्मा बुद्धि है । | + | # स्वाध्याय और प्रवचन प्रसार के दो अंग हैं । |
| − | | + | # नित्य अध्ययन से विषय को परिष्कृत और समृद्ध करते रहना स्वाध्याय है । |
| − | . तेजस्विता, कुशाग्रता और विशालता बुद्धि के
| + | # अध्यापन और समाज के लिये ज्ञान का विनियोग ऐसे प्रवचन के दो आयाम हैं । |
| − | | + | # अध्यापन में विद्यार्थी भी साथ में जुड़ता है । तब विद्यार्थी का वह अधीति पद है । |
| − | विशेषण हैं । | + | # अधीति से प्रसार और प्रसार में फिर अधीति ऐसे ज्ञान की पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा बनती है और ज्ञानप्रवाह निरन्तर बहता है । |
| − | | + | # ज्ञान की समृद्धि की रक्षा करने हेतु श्रेष्ठतम विद्यार्थी को शिक्षक ने शिक्षक बनने की प्रेरणा देनी चाहिए और उसे अपने से सवाया बनाना चाहिए । |
| − | विवेक बुद्धि के विकास का स्वरूप है । | + | # शिक्षक बनना उत्तम विद्यार्थी का भी लक्ष्य होना अपेक्षित है । |
| − | | + | # शिक्षक और विद्यार्थी मिलकर जहाँ अध्ययन करते हैं, वह स्थान विद्यालय है । |
| − | निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अनुमान, विश्लेषण, संस्लेषण | + | # जब शिक्षक और विद्यार्थी स्वेच्छा, स्वतन्त्रता और स्वदायित्व से विद्यालय चलाते हैं तब शिक्षा स्वायत्त होती है । |
| − | बुद्धि के साधन हैं । | + | # शिक्षा की स्वायत्तता बनाये रखने का प्रमुख दायित्व शिक्षक का है, विद्यार्थी उसका सहभागी है और राज्य तथा समाज उसके सहयोगी हैं । |
| − | | + | # स्वायत्त शिक्षा ही राज्य और समाज का मार्गदर्शन करने में समर्थ होती है । |
| − | अहंकार बुद्धि का एक और साथीदार है । | + | # जो राज्य और समाज शिक्षा को स्वायत्त नहीं रहने देते उस राज्य और समाज की दुर्गति होती है । |
| − | | + | # जो शिक्षक स्वायत्तता का दायित्व नहीं लेता उस शिक्षक की राज्य और समाज से भी अधिक दुर्गति होती है । |
| − | कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व अहंकार के लक्षण हैं । | + | # राष्ट्र और विद्यार्थी दोनों को ध्यान में रखकर जो पढ़ाया जाता है वह पाठ्यक्रम होता है । |
| − | | + | # विद्यार्थी की अवस्था, रुचि, क्षमता और आवश्यकता के अनुसार जो भी पढ़ाना शिक्षक द्वारा निश्चित किया जाता है वह विद्यार्थी सापेक्ष पाठ्यक्रम होता है । |
| − | में परिणत होते हैं । | + | # राष्ट्र की स्थिति और आवश्यकता को ध्यान में रखकर जो पढ़ाना निश्चित होता है वह राष्ट्रसापेक्ष पाठ्यक्रम होता है। |
| − | | + | # विद्यार्थीसापेक्ष पाठ्यक्रम राष्ट्र के अविरोधी होना चाहिए क्योंकि विद्यार्थी भी राष्ट्र का अंग ही है । |
| − | आनंदमय आत्मा चित्त है । संस्कार ग्रहण करना उसका | + | # सर्व प्रकार के शैक्षिक प्रयासों हेतु राष्ट्र सर्वोपरि है । |
| − | कार्य है । | + | # भारत की जीवनदृष्टि विश्वात्मक है अतः राष्ट्रीय होकर शिक्षा विश्व का कल्याण साधने में समर्थ होती है । |
| − | | + | # सर्वकल्याणकारी शिक्षा राष्ट्र को चिरंजीवी बनाती है । भारत ऐसा ही राष्ट्र है । |
| − | जन्मजान्मांतर, अनुवंश, संस्कृति और सन्निवेश के | + | ==References== |
| − | संस्कार होते हैं । | + | <references /> |
| − | | |
| − | चित्तशुद्धि करना चित्त के विकास का स्वरूप है । | |
| − | | |
| − | सर्व प्रकार के संस्कारों का क्षय करना चित्तशुद्धि है । | |
| − | आहारशुद्धि और समाधि से चित्त शुद्ध होता है । | |
| − | | |
| − | शुद्ध चित्त में आत्मतत्त्व प्रतिर्बिबित होता है । | |
| − | | |
| − | शुद्ध चित्त में सहजता, प्रेम, सौंदर्यबोध, सृजनशीलता, | |
| − | आनंद का निवास है । | |
| − | | |
| − | ROL OL LOK LOE OE LO LOK 6 OE LO LOK LOL LOL LON LOK
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| − | | |
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| − | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
| |
| − | ROLLS ROLL ON LOE LOL KOE LOLOL LOL KOC AOL ©
| |
| − | | |
| − | ९८. चित्त की शुद्धि के अनुपात में ये गुण प्रकट होते हैं ।
| |
| − | | |
| − | ९९, अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंदमय के परे
| |
| − | आत्मतत्त्व है ।
| |
| − | | |
| − | १००, उसका ही स्वरूप हृदय है । अनुभूति उसका विषय
| |
| − | है। | |
| − | | |
| − | १०१, आत्मतत्त्त को... आत्मतत्त्व की... अनुभूति
| |
| − | आत्मतत्त्वरूपी हृदय में होती है ।
| |
| − | | |
| − | १०२.शिक्षा का लक्ष्य यही अनुभूति है ।
| |
| − | | |
| − | १०३. एकात्मा की अनुभूति होने पर सर्वात्मा की अनुभूति
| |
| − | होती है । | |
| − | | |
| − | १०४. एकात्मा की अनुभूति अहम ब्रह्मास्मि है, सर्वात्मा की
| |
| − | aa खल्विदम ब्रह्म ।
| |
| − | | |
| − | १०५, प्राणी, वनस्पति और पंचमहाभूत सृष्टि है ।
| |
| − | | |
| − | १०६, सृष्टि के प्रति एकात्मता, कृतज्ञता, दोहन और रक्षण
| |
| − | व्यक्ति के सृष्टि के साथ समायोजन के चरण हैं । | |
| − | | |
| − | ५०७. ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं ।
| |
| − | | |
| − | १०८, शिक्षा समाज के लिये होती है तब वह समाज को
| |
| − | श्रेष्ठ बनाती है । | |
| − | | |
| − | १०९, समृद्ध और सुसंस्कृत समाज श्रेष्ठ समाज है ।
| |
| − | | |
| − | ११०, संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी होती है और समृद्धि
| |
| − | के बिना संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती है । | |
| − | | |
| − | १११, श्रेष्ठ समाज में व्यक्ति, समष्टि और सृष्टि के गौरव,
| |
| − | सम्मान और स्वतन्त्रता की रक्षा होती है । | |
| − | | |
| − | ११२, शिक्षक शिक्षाक्षेत्र का अधिष्ठाता है ।
| |
| − | | |
| − | ११३. शिक्षा पर आए सारे संकटों को दूर करने का दायित्व
| |
| − | शिक्षक का होता है । | |
| − | | |
| − | ११४, शिक्षक की दुर्बलता से शिक्षा पर संकट आते हैं ।
| |
| − | | |
| − | ११५, परराष्ट्र की जीवनदृष्टि का आक्रमण और सत्ता तथा
| |
| − | धन के ट्वारा शिक्षा की स्वायत्तता का हरण शिक्षा पर | |
| − | आए संकट हैं । | |
| − | | |
| − | ११६, राष्ट्रनिष्ठा, ज्ञाननिष्ठा और विद्यार्थिनिष्ठा से शिक्षक इन
| |
| − | संकटों पर विजय प्राप्त कर सकता है । | |
| − | | |
| − | ११७, राष्ट्र के जीवनदर्शन को जानना, मानना और उसके
| |
| − | अनुसार व्यवहार करना राष्ट्रनिष्ठा है । | |
| − | �
| |
| − | पर्व १ : उपोद्धात
| |
| − | रद ०९६८६ ०९६८६ ०९६८६ ०९६८६ ०९६८६ ०९६८६ ०९६८६ ०९६८६ ०१६८६ ०९६८६ ०९६८६ ०१६८६ ०९६८६ ०९६
| |
| − | | |
| − | ११८,ज्ञान की पवित्रता, श्रेष्ठता और गुरुता की रक्षा करना
| |
| − | ज्ञाननिष्ठा है । | |
| − | | |
| − | ११९, विद्यार्थी को जानना, उसके कल्याण हेतु प्रयास करना
| |
| − | और उसे अपने से सवाया बनाना विद्यार्थीनिष्ठा है । | |
| − | | |
| − | १२०, आचार्यत्व शिक्षक का गुणलक्षण है ।
| |
| − | | |
| − | १२१. अपने आचरण से प्रेरित कर विद्यार्थी का जीवन
| |
| − | बनाता है वह आचार्य है । | |
| − | | |
| − | १२२. आचार्य का आचरण शाख्रनिष्ठ होता है ।
| |
| − | | |
| − | १२३.विद्यार्थी भी ज्ञाननिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ और आचार्यनिष्ठ होता
| |
| − | है। | |
| − | | |
| − | १२४, आचार्य की सेवा, अनुशासन, जिज्ञासा और विनय
| |
| − | विद्यार्थी के गुणलक्षण हैं । | |
| − | | |
| − | १२५, अधीति, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार अध्ययन
| |
| − | की पंचपदी है । | |
| − | | |
| − | १२६, कर्मन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से विषय को ग्रहण करना
| |
| − | अधीति है । | |
| − | | |
| − | १२७, मन और बुद्धि के द्वारा अधीत विषय को ग्रहण करना
| |
| − | बोध है । | |
| − | | |
| − | १२८. जिसका बोध हुआ है उसे पुन: पुन: करना अभ्यास
| |
| − | है। | |
| − | | |
| − | १२९, अभ्यास से बोध परिपक्क होता है ।
| |
| | | | |
| − | ५१३०, परिपक्क बोध के अनुसार आचरण करना प्रयोग है ।
| + | [[Category:पर्व 1: उपोद्धात्]] |
| − | | |
| − | १३१, आचरण से विषय व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बनता
| |
| − | है।
| |
| − | | |
| − | १३२, स्वाध्याय और प्रवचन प्रसार के दो अंग हैं ।
| |
| − | | |
| − | १३३. नित्य अध्ययन से विषय को परिष्कृत और समृद्ध करते
| |
| − | रहना स्वाध्याय है ।
| |
| − | | |
| − | १३४, अध्यापन और समाज के लिये ज्ञान का विनियोग ऐसे
| |
| − | प्रवचन के दो आयाम हैं ।
| |
| − | | |
| − | ५३५, अध्यापन में विद्यार्थी भी साथ में जुड़ता है । तब विद्यार्थी
| |
| − | का वह अधीति पद है ।
| |
| − | | |
| − | १३६, अधीति से प्रसार और प्रसार में फिर अधीति ऐसे ज्ञान
| |
| − | की पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा बनती है और ज्ञानप्रवाह
| |
| − | निरन्तर बहता है ।
| |
| − | | |
| − | ROL OL LOL LOE OKO LOK OE LOL LOK LOL LLL ON LORS
| |
| − | gu
| |
| − | �
| |
| − |
| |
| − | | |
| − | १३७. ज्ञान की समृद्धि की रक्षा करने हेतु
| |
| − | श्रेष्ठतम विद्यार्थी को शिक्षक ने शिक्षक बनने की प्रेरणा
| |
| − | देनी चाहिए और उसे अपने से सवाया बनाना चाहिए ।
| |
| − | | |
| − | १३८. शिक्षक बनना उत्तम विद्यार्थी का भी लक्ष्य होना
| |
| − | अपेक्षित है ।
| |
| − | | |
| − | १३९, शिक्षक और विद्यार्थी मिलकर जहाँ अध्ययन करते हैं
| |
| − | वह स्थान विद्यालय है ।
| |
| − | | |
| − | १४०. जब शिक्षक और विद्यार्थी स्वेच्छा, स्वतन्त्रता और
| |
| − | स्वदायित्व से विद्यालय चलाते हैं तब शिक्षा स्वायत्त
| |
| − | होती है ।
| |
| − | | |
| − | १४१, शिक्षा की स्वायत्तता बनाये रखने का प्रमुख दायित्व
| |
| − | शिक्षक का है, विद्यार्थी उसका सहभागी है और राज्य
| |
| − | तथा समाज उसके सहयोगी हैं ।
| |
| − | | |
| − | १४२. स्वायत्त शिक्षा ही राज्य और समाज का मार्गदर्शन करने
| |
| − | में समर्थ होती है ।
| |
| − | | |
| − | १४३. जो राज्य और समाज शिक्षा को स्वायत्त नहीं रहने देते
| |
| − | उस राज्य और समाज की दुर्गति होती है ।
| |
| − | | |
| − | १४४. जो शिक्षक स्वायत्तता का दायित्व नहीं लेता उस शिक्षक
| |
| − | की राज्य और समाज से भी अधिक दुर्गति होती है ।
| |
| − | | |
| − | १४५, राष्ट्र और विद्यार्थी दोनों को ध्यान में रखकर जो पढ़ाया
| |
| − | जाता है वह पाठ्यक्रम होता है ।
| |
| − | | |
| − | १४६. विद्यार्थी की अवस्था, रुचि, क्षमता और आवश्यकता
| |
| − | के अनुसार जो भी पढ़ाना शिक्षक द्वारा निश्चित किया
| |
| − | जाता है वह विद्यार्थीसापेक्ष पाठ्यक्रम होता है ।
| |
| − | | |
| − | १४७, राष्ट्र की स्थिति और आवश्यकता को ध्यान में रखकर
| |
| − | जो पढ़ाना निश्चित होता है वह राष्ट्रसापेक्ष पाठ्यक्रम होता
| |
| − | है।
| |
| − | | |
| − | १४८, विद्यार्थीसापेक्ष पाठ्यक्रम राष्ट्र के अविरोधी होना चाहिए
| |
| − | क्योंकि विद्यार्थी भी राष्ट्र का अंग ही है ।
| |
| − | | |
| − | १४९, सर्व प्रकार के शैक्षिक प्रयासों हेतु राष्ट्र सर्वोपरि है ।
| |
| − | | |
| − | १५०, भारत की जीवनदृष्टि विश्वात्मक है इसलिए राष्ट्रीय होकर
| |
| − | शिक्षा विश्व का कल्याण साधने में समर्थ होती है ।
| |
| − | | |
| − | १५१, सर्वकल्याणकारी शिक्षा राष्ट्र को चिरंजीवी बनाती है ।
| |
| − | भारत ऐसा ही राष्ट्र है ।
| |
| − | | |
| − | CO iLO SEO 60 iC OE SO LOE LO iO KO 6 OR LOE KO C0
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| − | [[Category:भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप]] | |
| − | ==References==
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