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यह लेख इस स्रोत से लिया गया है।<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १),  
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यह लेख इस स्रोत से लिया गया है।<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १) - अध्याय २,  
 
प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे  
 
प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे  
 
</ref>
 
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# शिक्षा राष्ट्र की जीवनदृष्टि पर आधारित होती है और उस जीवनदृष्टि को पुष्ट करती है ।
 
# शिक्षा राष्ट्र की जीवनदृष्टि पर आधारित होती है और उस जीवनदृष्टि को पुष्ट करती है ।
 
# राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई है। वह भूमि, जन और जीवनदर्शन मिलकर बनता है ।
 
# राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई है। वह भूमि, जन और जीवनदर्शन मिलकर बनता है ।
# भारत की जीवनदृष्टि आध्यात्मिक है इसलिए भारतीय शिक्षा भी अध्यात्मनिष्ठ है ।
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# भारत की जीवनदृष्टि आध्यात्मिक है अतः धार्मिक शिक्षा भी अध्यात्मनिष्ठ है ।
 
# शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ सर्वभाव से जुड़ी हुई है ।
 
# शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ सर्वभाव से जुड़ी हुई है ।
 
# शिक्षा आजीवन चलती है ।
 
# शिक्षा आजीवन चलती है ।
# शिक्षा गर्भाधान से भी पूर्व से शुरू होकर अन्त्येष्टि तक चलती है ।
+
# शिक्षा गर्भाधान से भी पूर्व से आरम्भ होकर अन्त्येष्टि तक चलती है ।
 
# शिक्षा सर्वत्र चलती है । घर, विद्यालय और समाज शिक्षा के प्रमुख केन्द्र हैं ।
 
# शिक्षा सर्वत्र चलती है । घर, विद्यालय और समाज शिक्षा के प्रमुख केन्द्र हैं ।
 
# घर में व्यवहार की, विद्यालय में शास्त्रीय और समाज में प्रबोधनात्मक शिक्षा होती है ।
 
# घर में व्यवहार की, विद्यालय में शास्त्रीय और समाज में प्रबोधनात्मक शिक्षा होती है ।
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# व्यक्ति का समष्टि के साथ समायोजन कुटुंब, समुदाय, राष्ट्र और विश्व ऐसे चार स्तरों पर होता है|
 
# व्यक्ति का समष्टि के साथ समायोजन कुटुंब, समुदाय, राष्ट्र और विश्व ऐसे चार स्तरों पर होता है|
 
# अन्नमय आत्मा शरीर है । बल, आरोग्य, कौशल, तितिक्षा और लोच उसके विकास का स्वरूप है ।
 
# अन्नमय आत्मा शरीर है । बल, आरोग्य, कौशल, तितिक्षा और लोच उसके विकास का स्वरूप है ।
# आहार, निद्रा, श्रम, काम और
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# आहार, निद्रा, श्रम, काम और मनःशान्ति से उसका विकास होता है ।
# . ९८. चित्त की शुद्धि के अनुपात में ये गुण प्रकट होते हैं ।
+
# प्राणमय आत्मा प्राण है । एकाग्रता सन्तुलन और नियमन उसके विकास का स्वरूप है ।
मनःशान्ति से उसका विकास होता है । ९९, अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंदमय के परे
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# आहार, निद्रा, भय और मैथुन उसकी चार वृत्तियाँ हैं ।
 
+
# प्राणायाम और शुद्ध वायु उसके विकास के कारक तत्व हैं।
 
+
# मनोमय आत्मा मन है । विचार, भावना और इच्छा उसके स्वरूप हैं ।
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+
# चंचलता, उत्तेजितता, ट्रंद्रात्मकता और आसक्ति उसके स्वभाव है ।
 
+
# एकाग्रता, शान्ति, अनासक्ति और सद्धावना उसके विकास का स्वरूप है ।
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# योगाभ्यास, सेवा, संयम, स्वाध्याय, जप, सत्संग, सात्विक आहार मन के विकास के कारक तत्व हैं।
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+
# विज्ञानमय आत्मा बुद्धि है।
 
+
# तेजस्विता, कुशाग्रता और विशालता बुद्धि के विशेषण हैं ।
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+
# विवेक बुद्धि के विकास का स्वरूप है ।
 
+
# निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अनुमान, विश्लेषण, संस्लेषण, बुद्धि के साधन हैं ।
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+
# अहंकार बुद्धि का एक और साथीदार है ।
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+
# कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व अहंकार के लक्षण हैं ।
 
+
# आत्मनिष्ठ बुद्धि और अहंकार सद्बुद्धि और दायित्वबोध में परिणत होते हैं ।
८८.
+
# आनंदमय आत्मा चित्त है । संस्कार ग्रहण करना उसका कार्य है ।
८९.
+
# जन्मजान्मांतर, अनुवंश, संस्कृति और सन्निवेश के संस्कार होते हैं ।
.. आत्मनिष्ठ बुद्धि और अहंकार सदुद्धि और दायित्वबोध
+
# चित्तशुद्धि करना चित्त के विकास का स्वरूप है ।
 
+
# सर्व प्रकार के संस्कारों का क्षय करना चित्तशुद्धि है ।
88.
+
# आहारशुद्धि और समाधि से चित्त शुद्ध होता है ।
९२.
+
# शुद्ध चित्त में आत्मतत्व प्रतिबिम्बित होता है ।
 
+
# शुद्ध चित्त में सहजता, प्रेम, सौंदर्यबोध, सृजनशीलता, आनंद का निवास है ।
९३.
+
# चित्त की शुद्धि के अनुपात में ये गुण प्रकट होते हैं ।
९४,
+
# अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंदमय के परे आत्मतत्व है ।
९५,
+
# उसका ही स्वरूप हृदय है । अनुभूति उसका विषय है।
९६,
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# आत्मतत्व को आत्मतत्व की अनुभूति आत्मतत्वरूपी हृदय में होती है ।
९७,
+
# शिक्षा का लक्ष्य यही अनुभूति है ।
 
+
# एकात्मा की अनुभूति होने पर सर्वात्मा की अनुभूति होती है ।
   
+
# एकात्मा की अनुभूति अहम ब्रह्मास्मि है, सर्वात्मा की सर्वं खल्विदम ब्रह्म ।
 
+
# प्राणी, वनस्पति और पंचमहाभूत सृष्टि है ।
७६. आहार, निद्रा, श्रम, काम और
+
# सृष्टि के प्रति एकात्मता, कृतज्ञता, दोहन और रक्षण, व्यक्ति के सृष्टि के साथ समायोजन के चरण हैं ।
मनःशान्ति से उसका विकास होता है ।
+
# ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं ।
 
+
# शिक्षा समाज के लिये होती है तब वह समाज को श्रेष्ठ बनाती है ।
प्राणमय आत्मा प्राण है । एकाग्रता सन्तुलन और नियमन
+
# समृद्ध और सुसंस्कृत समाज श्रेष्ठ समाज है ।
उसके विकास का स्वरूप है ।
+
# संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी होती है और समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती है ।
 
+
# श्रेष्ठ समाज में व्यक्ति, समष्टि और सृष्टि के गौरव, सम्मान और स्वतन्त्रता की रक्षा होती है ।
.. आहार, निद्रा, भय और मैथुन उसकी चार वृत्तियाँ हैं ।
+
# शिक्षक शिक्षाक्षेत्र का अधिष्ठाता है ।
.. प्राणायाम और शुद्ध वायु उसके विकास के कारक
+
# शिक्षा पर आए सारे संकटों को दूर करने का दायित्व शिक्षक का होता है ।
 
+
# शिक्षक की दुर्बलता से शिक्षा पर संकट आते हैं ।
तत्त्व हैं।
+
# परराष्ट्र की जीवनदृष्टि का आक्रमण और सत्ता तथा धन के ट्वारा शिक्षा की स्वायत्तता का हरण शिक्षा पर आए संकट हैं ।
 
+
# राष्ट्रनिष्ठा, ज्ञाननिष्ठा और विद्यार्थिनिष्ठा से शिक्षक इन संकटों पर विजय प्राप्त कर सकता है ।
. मनोमय आत्मा मन है । विचार, भावना और इच्छा
+
# राष्ट्र के जीवनदर्शन को जानना, मानना और उसके अनुसार व्यवहार करना राष्ट्रनिष्ठा है ।
 
+
# ज्ञान की पवित्रता, श्रेष्ठता और गुरुता की रक्षा करना ज्ञाननिष्ठा है ।
उसके स्वरूप हैं ।
+
# विद्यार्थी को जानना, उसके कल्याण हेतु प्रयास करना और उसे अपने से सवाया बनाना विद्यार्थीनिष्ठा है ।
 
+
# आचार्यत्व शिक्षक का गुणलक्षण है ।
.. चंचलता, उत्तेजितता, ट्रंद्रात्मकता और आसक्ति उसके
+
# अपने आचरण से प्रेरित कर विद्यार्थी का जीवन बनाता है वह आचार्य है ।
 
+
# आचार्य का आचरण शास्त्रनिष्ठ होता है ।
स्वभाव है ।
+
# विद्यार्थी भी ज्ञाननिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ और आचार्यनिष्ठ होता है।
 
+
# आचार्य की सेवा, अनुशासन, जिज्ञासा और विनय विद्यार्थी के गुणलक्षण हैं ।
.. एकाग्रता, शान्ति, अनासक्ति और सद्धावना उसके
+
# अधीति, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार अध्ययन की पंचपदी है।
 
+
# कर्मन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से विषय को ग्रहण करना अधीति है।
विकास का स्वरूप है ।
+
# मन और बुद्धि के द्वारा अधीत विषय को ग्रहण करना बोध है ।
 
+
# जिसका बोध हुआ है उसे पुन: पुन: करना अभ्यास है।
.. योगाभ्यास, सेवा, संयम, स्वाध्याय, जप, सत्संग,
+
# अभ्यास से बोध परिपक्क होता है ।
 
+
# परिपक्क बोध के अनुसार आचरण करना प्रयोग है ।
aft en मन के विकास के कारक तत्त्व = |
+
# आचरण से विषय व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बनता है।
विज्ञानमय आत्मा बुद्धि है ।
+
# स्वाध्याय और प्रवचन प्रसार के दो अंग हैं ।
 
+
# नित्य अध्ययन से विषय को परिष्कृत और समृद्ध करते रहना स्वाध्याय है ।
. तेजस्विता, कुशाग्रता और विशालता बुद्धि के
+
# अध्यापन और समाज के लिये ज्ञान का विनियोग ऐसे प्रवचन के दो आयाम हैं ।
 
+
# अध्यापन में विद्यार्थी भी साथ में जुड़ता है । तब विद्यार्थी का वह अधीति पद है ।
विशेषण हैं ।
+
# अधीति से प्रसार और प्रसार में फिर अधीति ऐसे ज्ञान की पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा बनती है और ज्ञानप्रवाह निरन्तर बहता है ।
 
+
# ज्ञान की समृद्धि की रक्षा करने हेतु श्रेष्ठतम विद्यार्थी को शिक्षक ने शिक्षक बनने की प्रेरणा देनी चाहिए और उसे अपने से सवाया बनाना चाहिए ।
विवेक बुद्धि के विकास का स्वरूप है ।
+
# शिक्षक बनना उत्तम विद्यार्थी का भी लक्ष्य होना अपेक्षित है ।
 
+
# शिक्षक और विद्यार्थी मिलकर जहाँ अध्ययन करते हैं, वह स्थान विद्यालय है ।
निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अनुमान, विश्लेषण, संस्लेषण
+
# जब शिक्षक और विद्यार्थी स्वेच्छा, स्वतन्त्रता और स्वदायित्व से विद्यालय चलाते हैं तब शिक्षा स्वायत्त होती है ।
बुद्धि के साधन हैं ।
+
# शिक्षा की स्वायत्तता बनाये रखने का प्रमुख दायित्व शिक्षक का है, विद्यार्थी उसका सहभागी है और राज्य तथा समाज उसके सहयोगी हैं ।
 
+
# स्वायत्त शिक्षा ही राज्य और समाज का मार्गदर्शन करने में समर्थ होती है ।
अहंकार बुद्धि का एक और साथीदार है ।
+
# जो राज्य और समाज शिक्षा को स्वायत्त नहीं रहने देते उस राज्य और समाज की दुर्गति होती है ।
 
+
# जो शिक्षक स्वायत्तता का दायित्व नहीं लेता उस शिक्षक की राज्य और समाज से भी अधिक दुर्गति होती है ।
कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व अहंकार के लक्षण हैं ।
+
# राष्ट्र और विद्यार्थी दोनों को ध्यान में रखकर जो पढ़ाया जाता है वह पाठ्यक्रम होता है ।
 
+
# विद्यार्थी की अवस्था, रुचि, क्षमता और आवश्यकता के अनुसार जो भी पढ़ाना शिक्षक द्वारा निश्चित किया जाता है वह विद्यार्थी सापेक्ष पाठ्यक्रम होता है ।
में परिणत होते हैं ।
+
# राष्ट्र की स्थिति और आवश्यकता को ध्यान में रखकर जो पढ़ाना निश्चित होता है वह राष्ट्रसापेक्ष पाठ्यक्रम होता है।
 
+
# विद्यार्थीसापेक्ष पाठ्यक्रम राष्ट्र के अविरोधी होना चाहिए क्योंकि विद्यार्थी भी राष्ट्र का अंग ही है ।
आनंदमय आत्मा चित्त है । संस्कार ग्रहण करना उसका
+
# सर्व प्रकार के शैक्षिक प्रयासों हेतु राष्ट्र सर्वोपरि है ।
कार्य है ।
+
# भारत की जीवनदृष्टि विश्वात्मक है अतः राष्ट्रीय होकर शिक्षा विश्व का कल्याण साधने में समर्थ होती है ।
 
+
# सर्वकल्याणकारी शिक्षा राष्ट्र को चिरंजीवी बनाती है । भारत ऐसा ही राष्ट्र है ।
जन्मजान्मांतर, अनुवंश, संस्कृति और सन्निवेश के
+
==References==
संस्कार होते हैं ।
+
<references />
 
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चित्तशुद्धि करना चित्त के विकास का स्वरूप है ।
  −
 
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सर्व प्रकार के संस्कारों का क्षय करना चित्तशुद्धि है ।
  −
आहारशुद्धि और समाधि से चित्त शुद्ध होता है ।
  −
 
  −
शुद्ध चित्त में आत्मतत्त्व प्रतिर्बिबित होता है ।
  −
 
  −
शुद्ध चित्त में सहजता, प्रेम, सौंदर्यबोध, सृजनशीलता,
  −
आनंद का निवास है ।
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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९८. चित्त की शुद्धि के अनुपात में ये गुण प्रकट होते हैं ।
  −
 
  −
९९, अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंदमय के परे
  −
आत्मतत्त्व है ।
  −
 
  −
१००, उसका ही स्वरूप हृदय है । अनुभूति उसका विषय
  −
है।
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१०१, आत्मतत्त्त को... आत्मतत्त्व की... अनुभूति
  −
आत्मतत्त्वरूपी हृदय में होती है ।
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१०२.शिक्षा का लक्ष्य यही अनुभूति है ।
  −
 
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१०३. एकात्मा की अनुभूति होने पर सर्वात्मा की अनुभूति
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होती है ।
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१०४. एकात्मा की अनुभूति अहम ब्रह्मास्मि है, सर्वात्मा की
  −
aa खल्विदम ब्रह्म ।
  −
 
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१०५, प्राणी, वनस्पति और पंचमहाभूत सृष्टि है ।
  −
 
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१०६, सृष्टि के प्रति एकात्मता, कृतज्ञता, दोहन और रक्षण
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व्यक्ति के सृष्टि के साथ समायोजन के चरण हैं ।
  −
 
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५०७. ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं ।
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  −
१०८, शिक्षा समाज के लिये होती है तब वह समाज को
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श्रेष्ठ बनाती है ।
  −
 
  −
१०९, समृद्ध और सुसंस्कृत समाज श्रेष्ठ समाज है ।
  −
 
  −
११०, संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी होती है और समृद्धि
  −
के बिना संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती है ।
  −
 
  −
१११, श्रेष्ठ समाज में व्यक्ति, समष्टि और सृष्टि के गौरव,
  −
सम्मान और स्वतन्त्रता की रक्षा होती है ।
  −
 
  −
११२, शिक्षक शिक्षाक्षेत्र का अधिष्ठाता है ।
  −
 
  −
११३. शिक्षा पर आए सारे संकटों को दूर करने का दायित्व
  −
शिक्षक का होता है ।
  −
 
  −
११४, शिक्षक की दुर्बलता से शिक्षा पर संकट आते हैं ।
  −
 
  −
११५, परराष्ट्र की जीवनदृष्टि का आक्रमण और सत्ता तथा
  −
धन के ट्वारा शिक्षा की स्वायत्तता का हरण शिक्षा पर
  −
आए संकट हैं ।
  −
 
  −
११६, राष्ट्रनिष्ठा, ज्ञाननिष्ठा और विद्यार्थिनिष्ठा से शिक्षक इन
  −
संकटों पर विजय प्राप्त कर सकता है ।
  −
 
  −
११७, राष्ट्र के जीवनदर्शन को जानना, मानना और उसके
  −
अनुसार व्यवहार करना राष्ट्रनिष्ठा है ।
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पर्व १ : उपोद्धात
  −
रद ०९६८६ ०९६८६ ०९६८६ ०९६८६ ०९६८६ ०९६८६ ०९६८६ ०९६८६ ०१६८६ ०९६८६ ०९६८६ ०१६८६ ०९६८६ ०९६
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  −
११८,ज्ञान की पवित्रता, श्रेष्ठता और गुरुता की रक्षा करना
  −
ज्ञाननिष्ठा है ।
  −
 
  −
११९, विद्यार्थी को जानना, उसके कल्याण हेतु प्रयास करना
  −
और उसे अपने से सवाया बनाना विद्यार्थीनिष्ठा है ।
  −
 
  −
१२०, आचार्यत्व शिक्षक का गुणलक्षण है ।
  −
 
  −
१२१. अपने आचरण से प्रेरित कर विद्यार्थी का जीवन
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बनाता है वह आचार्य है ।
  −
 
  −
१२२. आचार्य का आचरण शाख्रनिष्ठ होता है ।
  −
 
  −
१२३.विद्यार्थी भी ज्ञाननिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ और आचार्यनिष्ठ होता
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है।
  −
 
  −
१२४, आचार्य की सेवा, अनुशासन, जिज्ञासा और विनय
  −
विद्यार्थी के गुणलक्षण हैं ।
  −
 
  −
१२५, अधीति, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार अध्ययन
  −
की पंचपदी है ।
  −
 
  −
१२६, कर्मन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से विषय को ग्रहण करना
  −
अधीति है ।
  −
 
  −
१२७, मन और बुद्धि के द्वारा अधीत विषय को ग्रहण करना
  −
बोध है ।
  −
 
  −
१२८. जिसका बोध हुआ है उसे पुन: पुन: करना अभ्यास
  −
है।
  −
 
  −
१२९, अभ्यास से बोध परिपक्क होता है ।
     −
५१३०, परिपक्क बोध के अनुसार आचरण करना प्रयोग है ।
+
[[Category:पर्व 1: उपोद्धात्‌]]
 
  −
१३१, आचरण से विषय व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बनता
  −
है।
  −
 
  −
१३२, स्वाध्याय और प्रवचन प्रसार के दो अंग हैं ।
  −
 
  −
१३३. नित्य अध्ययन से विषय को परिष्कृत और समृद्ध करते
  −
रहना स्वाध्याय है ।
  −
 
  −
१३४, अध्यापन और समाज के लिये ज्ञान का विनियोग ऐसे
  −
प्रवचन के दो आयाम हैं ।
  −
 
  −
५३५, अध्यापन में विद्यार्थी भी साथ में जुड़ता है । तब विद्यार्थी
  −
का वह अधीति पद है ।
  −
 
  −
१३६, अधीति से प्रसार और प्रसार में फिर अधीति ऐसे ज्ञान
  −
की पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा बनती है और ज्ञानप्रवाह
  −
निरन्तर बहता है ।
  −
 
  −
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  −
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  −
  −
   
  −
 
  −
१३७. ज्ञान की समृद्धि की रक्षा करने हेतु
  −
श्रेष्ठतम विद्यार्थी को शिक्षक ने शिक्षक बनने की प्रेरणा
  −
देनी चाहिए और उसे अपने से सवाया बनाना चाहिए ।
  −
 
  −
१३८. शिक्षक बनना उत्तम विद्यार्थी का भी लक्ष्य होना
  −
अपेक्षित है ।
  −
 
  −
१३९, शिक्षक और विद्यार्थी मिलकर जहाँ अध्ययन करते हैं
  −
वह स्थान विद्यालय है ।
  −
 
  −
१४०. जब शिक्षक और विद्यार्थी स्वेच्छा, स्वतन्त्रता और
  −
स्वदायित्व से विद्यालय चलाते हैं तब शिक्षा स्वायत्त
  −
होती है ।
  −
 
  −
१४१, शिक्षा की स्वायत्तता बनाये रखने का प्रमुख दायित्व
  −
शिक्षक का है, विद्यार्थी उसका सहभागी है और राज्य
  −
तथा समाज उसके सहयोगी हैं ।
  −
 
  −
१४२. स्वायत्त शिक्षा ही राज्य और समाज का मार्गदर्शन करने
  −
में समर्थ होती है ।
  −
 
  −
१४३. जो राज्य और समाज शिक्षा को स्वायत्त नहीं रहने देते
  −
उस राज्य और समाज की दुर्गति होती है ।
  −
 
  −
१४४. जो शिक्षक स्वायत्तता का दायित्व नहीं लेता उस शिक्षक
  −
की राज्य और समाज से भी अधिक दुर्गति होती है ।
  −
 
  −
१४५, राष्ट्र और विद्यार्थी दोनों को ध्यान में रखकर जो पढ़ाया
  −
जाता है वह पाठ्यक्रम होता है ।
  −
 
  −
१४६. विद्यार्थी की अवस्था, रुचि, क्षमता और आवश्यकता
  −
के अनुसार जो भी पढ़ाना शिक्षक द्वारा निश्चित किया
  −
जाता है वह विद्यार्थीसापेक्ष पाठ्यक्रम होता है ।
  −
 
  −
१४७, राष्ट्र की स्थिति और आवश्यकता को ध्यान में रखकर
  −
जो पढ़ाना निश्चित होता है वह राष्ट्रसापेक्ष पाठ्यक्रम होता
  −
है।
  −
 
  −
१४८, विद्यार्थीसापेक्ष पाठ्यक्रम राष्ट्र के अविरोधी होना चाहिए
  −
क्योंकि विद्यार्थी भी राष्ट्र का अंग ही है ।
  −
 
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१४९, सर्व प्रकार के शैक्षिक प्रयासों हेतु राष्ट्र सर्वोपरि है ।
  −
 
  −
१५०, भारत की जीवनदृष्टि विश्वात्मक है इसलिए राष्ट्रीय होकर
  −
शिक्षा विश्व का कल्याण साधने में समर्थ होती है ।
  −
 
  −
१५१, सर्वकल्याणकारी शिक्षा राष्ट्र को चिरंजीवी बनाती है ।
  −
भारत ऐसा ही राष्ट्र है ।
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[[Category:भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप]]
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==References==
 

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