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३. मूल्य संज्ञा भारतीय नहीं है। वह “वेल्यु' नामक अंग्रेजी संज्ञा का भारतीय अनुवाद है । मूल्य संज्ञा से जो लक्षित होता है उसे भारत में धर्म कहते हैं । व्यवहार में उसे नीति या नैतिकता भी कहा जाता है । फिर भी धर्म संज्ञा ही पूर्ण रूप से सटीक है ।   
 
३. मूल्य संज्ञा भारतीय नहीं है। वह “वेल्यु' नामक अंग्रेजी संज्ञा का भारतीय अनुवाद है । मूल्य संज्ञा से जो लक्षित होता है उसे भारत में धर्म कहते हैं । व्यवहार में उसे नीति या नैतिकता भी कहा जाता है । फिर भी धर्म संज्ञा ही पूर्ण रूप से सटीक है ।   
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४. धर्म संज्ञा का स्वीकार करने पर जो लक्षित होता है वह सवर्थि में परिपूर्ण है, सर्वसमाबेशक है । इसलिए मूल्यशिक्षा को धर्मशिक्षा कहने पर कथन असंदिग्ध बनता है ।
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४. धर्म संज्ञा का स्वीकार करने पर जो लक्षित होता है वह सवर्थि में परिपूर्ण है, सर्वसमाबेशक है । अतः मूल्यशिक्षा को धर्मशिक्षा कहने पर कथन असंदिग्ध बनता है ।
    
५ . कठिनाई यह है कि आज धर्म संज्ञा विवाद में पड गई है । धर्म को लेकर जो विवाद चल रहे हैं उसके कई आयाम हैं । विभिन्न उद्देश्यों से प्रेरित होकर विभिन्न प्रकार के लोग विभिन्न प्रकार के विवाद खड़े करते हैं ।
 
५ . कठिनाई यह है कि आज धर्म संज्ञा विवाद में पड गई है । धर्म को लेकर जो विवाद चल रहे हैं उसके कई आयाम हैं । विभिन्न उद्देश्यों से प्रेरित होकर विभिन्न प्रकार के लोग विभिन्न प्रकार के विवाद खड़े करते हैं ।
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८. परन्तु धर्म के बिना समाज चलता नहीं है । सृष्टि की धारणा ही धर्म से होती है । धर्म के बिना मनुष्य पशु के समान है । मनुष्य पशु के समान जी नहीं सकता । वह या तो पशु से भी नीचे गिर जाता है अथवा पशु से ऊपर उठकर जीता है ।
 
८. परन्तु धर्म के बिना समाज चलता नहीं है । सृष्टि की धारणा ही धर्म से होती है । धर्म के बिना मनुष्य पशु के समान है । मनुष्य पशु के समान जी नहीं सकता । वह या तो पशु से भी नीचे गिर जाता है अथवा पशु से ऊपर उठकर जीता है ।
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९. धर्म संज्ञा से वह जीवन को व्यवस्थित करने वाली व्यवस्था बनी है । धर्म आचरण का विषय है इसलिए वह सदाचार का पर्याय बनी है, कर्तव्य का पर्याय बनी है, सज्जनों के व्यवहार का पर्याय बनी है ।
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९. धर्म संज्ञा से वह जीवन को व्यवस्थित करने वाली व्यवस्था बनी है । धर्म आचरण का विषय है अतः वह सदाचार का पर्याय बनी है, कर्तव्य का पर्याय बनी है, सज्जनों के व्यवहार का पर्याय बनी है ।
    
१०. निष्कर्ष यह है कि जिसे जीवनमूल्य कहते हैं वह जीवनदृष्टि है । धर्म, नीति, सदाचार और मूल्यों के इस विवरण के बाद अब हम भारत में वर्तमान में इनके सम्बन्ध में क्या स्थिति है इसका विचार करेंगे ।
 
१०. निष्कर्ष यह है कि जिसे जीवनमूल्य कहते हैं वह जीवनदृष्टि है । धर्म, नीति, सदाचार और मूल्यों के इस विवरण के बाद अब हम भारत में वर्तमान में इनके सम्बन्ध में क्या स्थिति है इसका विचार करेंगे ।
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२१. शिक्षक और छात्र का सम्बन्ध आत्मीयता का होता है तब शिक्षक छात्र को अपना मानस पुत्र मानता है और उसके कल्याण की कामना करता है । वह अपने से भी सवाया हो ऐसी उसकी इच्छा होती है । छात्र शिक्षक को भगवान के समान आदर देता है और उसकी सेवा को अपना धर्म मानता है ।
 
२१. शिक्षक और छात्र का सम्बन्ध आत्मीयता का होता है तब शिक्षक छात्र को अपना मानस पुत्र मानता है और उसके कल्याण की कामना करता है । वह अपने से भी सवाया हो ऐसी उसकी इच्छा होती है । छात्र शिक्षक को भगवान के समान आदर देता है और उसकी सेवा को अपना धर्म मानता है ।
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२२. आत्मीयता के सम्बन्ध के आधार पर सारे व्यवसायी जब अपना व्यवसाय करते हैं तब कृषक समाज में अन्न का अभाव न रहे इसलिए खेती करता है, बुनकर प्रजा की वस्त्र की आवश्यकता पूर्ण करने के लिए कपड़ा बुनता है,मोची लोगों के पैरों की रक्षा हो सके इसलिए जूते बनाता है । संक्षेप में सब दूसरों के काम आ सके इस उद्देश्य से काम करते हैं ।
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२२. आत्मीयता के सम्बन्ध के आधार पर सारे व्यवसायी जब अपना व्यवसाय करते हैं तब कृषक समाज में अन्न का अभाव न रहे अतः खेती करता है, बुनकर प्रजा की वस्त्र की आवश्यकता पूर्ण करने के लिए कपड़ा बुनता है,मोची लोगों के पैरों की रक्षा हो सके अतः जूते बनाता है । संक्षेप में सब दूसरों के काम आ सके इस उद्देश्य से काम करते हैं ।
    
२३. काम करते समय सेवा के साथ साथ कर्तव्य बुद्धि होती है । दूसरों के साथ व्यवहार करते समय कर्तव्य बुद्धि से ही विचार का प्रारम्भ होता है । होता यह है कि जब सब कर्तव्य से प्रेरित होकर व्यवहार करते हैं तब सबके अधिकारों कि रक्षा सहज ही हो जाती है, सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति अपने आप हो जाती है ।
 
२३. काम करते समय सेवा के साथ साथ कर्तव्य बुद्धि होती है । दूसरों के साथ व्यवहार करते समय कर्तव्य बुद्धि से ही विचार का प्रारम्भ होता है । होता यह है कि जब सब कर्तव्य से प्रेरित होकर व्यवहार करते हैं तब सबके अधिकारों कि रक्षा सहज ही हो जाती है, सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति अपने आप हो जाती है ।
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५८. आज वास्तव में देखा जाता है कि सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ाया ही नहीं जाता है । आठ वर्ष पढ़ने पर भी छात्रों को अक्षसज्ञान नहीं होता है । जबकि सरकारी विद्यालयों में शिक्षक सबसे अधिक गुणवत्ता वाले होते हैं । समस्या उनकी योग्यता कि नहीं है, उनकी नियत कि है । समस्या उन्हें प्रेरित करने वाली या नियमन में रखने वाली व्यवस्था की है । सब यह जानते हैं तो भी उन्हें कुछ किया नहीं जा सकता ।
 
५८. आज वास्तव में देखा जाता है कि सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ाया ही नहीं जाता है । आठ वर्ष पढ़ने पर भी छात्रों को अक्षसज्ञान नहीं होता है । जबकि सरकारी विद्यालयों में शिक्षक सबसे अधिक गुणवत्ता वाले होते हैं । समस्या उनकी योग्यता कि नहीं है, उनकी नियत कि है । समस्या उन्हें प्रेरित करने वाली या नियमन में रखने वाली व्यवस्था की है । सब यह जानते हैं तो भी उन्हें कुछ किया नहीं जा सकता ।
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५९, ऐसा होना बहुत स्वाभाविक है । जब जड़ तन्त्र ही  नियमन करता है तब मनुष्य उस जड़ तन्त्र के अधीन हो जाता है । जड़ तन्त्र के पास विवेक नहीं होता । उसके अधीन रहना मनुष्य को अच्छा नहीं लगता है । परन्तु उसकी कुछ चलती नहीं है । इसलिए वह भी जड़ तन्त्र में जड़ बन जाता है । सबसे पहला काम वह दायित्वबोध को छोड देने का ही करता है ।
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५९, ऐसा होना बहुत स्वाभाविक है । जब जड़ तन्त्र ही  नियमन करता है तब मनुष्य उस जड़ तन्त्र के अधीन हो जाता है । जड़ तन्त्र के पास विवेक नहीं होता । उसके अधीन रहना मनुष्य को अच्छा नहीं लगता है । परन्तु उसकी कुछ चलती नहीं है । अतः वह भी जड़ तन्त्र में जड़ बन जाता है । सबसे पहला काम वह दायित्वबोध को छोड देने का ही करता है ।
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६०. मनुष्य का स्वभाव है कि अच्छा बने रहने के लिए, अपना काम ठीक ढंग से करने के लिए उसे किसी न किसी प्रकार कि प्रेरणा चाहिए अथवा नियंत्रण चाहिए । ये दोनों बातें जिंदा मनुष्य से ही प्राप्त होने से काम चलता है | यंत्र न तो प्रेरणा दे सकता है न नियंत्रण कर सकता है । इसलिए शिक्षा भी जड़ बन जाती है ।
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६०. मनुष्य का स्वभाव है कि अच्छा बने रहने के लिए, अपना काम ठीक ढंग से करने के लिए उसे किसी न किसी प्रकार कि प्रेरणा चाहिए अथवा नियंत्रण चाहिए । ये दोनों बातें जिंदा मनुष्य से ही प्राप्त होने से काम चलता है | यंत्र न तो प्रेरणा दे सकता है न नियंत्रण कर सकता है । अतः शिक्षा भी जड़ बन जाती है ।
    
६१. जड़ तन्त्र नियंत्रण तो करता है परन्तु वह जड़ का ही कर सकता है, जड़ पद्धति से ही कर सकता है । अत: उपस्थिती अनिवार्य कि जा सकती है परन्तु उपस्थित रहने से काम होता हो यह अनिवार्य नहीं है ।
 
६१. जड़ तन्त्र नियंत्रण तो करता है परन्तु वह जड़ का ही कर सकता है, जड़ पद्धति से ही कर सकता है । अत: उपस्थिती अनिवार्य कि जा सकती है परन्तु उपस्थित रहने से काम होता हो यह अनिवार्य नहीं है ।
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६२. विद्यालय में पूर्ण समय उपस्थित रहने, पाठ्यक्रम पूर्ण करने, विद्यालय का परीक्षाफल शतप्रतिशत प्राप्त करने की तांत्रिक व्यवस्था हो सकती है परन्तु उतने मात्र से शिक्षा नहीं होती है । ये व्यवस्थायें जड़ हैं, शिक्षा नहीं । बाध्य शरीर को, प्रक्रिया को, अंकों को किया जा सकता है, ज्ञान को नहीं । इसलिए छात्र उत्तीर्ण होते हैं, ज्ञानवान नहीं ।
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६२. विद्यालय में पूर्ण समय उपस्थित रहने, पाठ्यक्रम पूर्ण करने, विद्यालय का परीक्षाफल शतप्रतिशत प्राप्त करने की तांत्रिक व्यवस्था हो सकती है परन्तु उतने मात्र से शिक्षा नहीं होती है । ये व्यवस्थायें जड़ हैं, शिक्षा नहीं । बाध्य शरीर को, प्रक्रिया को, अंकों को किया जा सकता है, ज्ञान को नहीं । अतः छात्र उत्तीर्ण होते हैं, ज्ञानवान नहीं ।
    
६३. छात्र परीक्षार्थी होते हैं, विद्यार्थी नहीं । वे परीक्षा पास करते हैं, पढ़ते नहीं हैं, शिक्षक परीक्षा पास करवाते हैं, पढ़ाते नहीं । उन्हें वेतन विद्यालय में उपस्थित रहने का मिलता है पढ़ाने का नहीं, परीक्षा पास करवाने का मिलता है पढ़ाने का नहीं ।
 
६३. छात्र परीक्षार्थी होते हैं, विद्यार्थी नहीं । वे परीक्षा पास करते हैं, पढ़ते नहीं हैं, शिक्षक परीक्षा पास करवाते हैं, पढ़ाते नहीं । उन्हें वेतन विद्यालय में उपस्थित रहने का मिलता है पढ़ाने का नहीं, परीक्षा पास करवाने का मिलता है पढ़ाने का नहीं ।

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