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यह भारत का स्वभाव ही रहा है । परिवार-भावना से जब सारी व्यवस्थायें चलती हैं तब सम्मान, सुरक्षा, आवश्यकताओं की पूर्ति होती ही है। भारत का जो सांस्कृतिक नुकसान हुआ है वह इन सारी व्यवस्थाओं के टूट जाने और उनके स्थान पर अनात्मीय, अपना अपना स्वार्थ देखनेवाली व्यवस्थाओं की प्रतिष्ठापना का हुआ है ।
 
यह भारत का स्वभाव ही रहा है । परिवार-भावना से जब सारी व्यवस्थायें चलती हैं तब सम्मान, सुरक्षा, आवश्यकताओं की पूर्ति होती ही है। भारत का जो सांस्कृतिक नुकसान हुआ है वह इन सारी व्यवस्थाओं के टूट जाने और उनके स्थान पर अनात्मीय, अपना अपना स्वार्थ देखनेवाली व्यवस्थाओं की प्रतिष्ठापना का हुआ है ।
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सम्माननीय पदों को नौकर बना देने वाली व्यवस्था किसका भला कर सकती है ? अनात्मीय व्यवहार करने वालों के बीच स्नेह और आदर कैसे हो सकता है ? यांत्रिक व्यवस्थाओं में जिन्दा व्यक्तियों का सम्मान कैसे हो सकता है ? निष्प्राण भौतिक पदार्थ संस्कृति का सम्मान कैसे कर सकता है ?
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सम्माननीय पदों को नौकर बना देने वाली व्यवस्था किसका भला कर सकती है ? अनात्मीय व्यवहार करने वालों के मध्य स्नेह और आदर कैसे हो सकता है ? यांत्रिक व्यवस्थाओं में जिन्दा व्यक्तियों का सम्मान कैसे हो सकता है ? निष्प्राण भौतिक पदार्थ संस्कृति का सम्मान कैसे कर सकता है ?
    
===== आज की विडम्बना =====
 
===== आज की विडम्बना =====
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कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं:  
 
कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं:  
 
# संचालक, मुख्यध्यापक, शिक्षक, विद्यार्थी और अभिभावक मिलकर विद्यालय परिवार बनता है । इस परिवार का मखिया मख्याध्यापक है यह बात सर्वस्वीकृत बनने की आवश्यकता है। वर्तमान में संचालक अपने आपको बड़े मानते हैं, संचालक मंडल का अध्यक्ष सबसे बड़ा माना जाता है और शिक्षकवृन्द, स्वयं मुख्याध्यापक भी इस व्यवस्था का स्वीकार कर लेते हैं।परन्तु यह मामला ठीक तो कर ही लेना चाहिये । धार्मिक शिक्षा संकल्पना तो यह स्पष्ट कहती है कि शिक्षा शिक्षकाधीन होती है। यह केवल सिद्धान्त नहीं है, केवल प्राचीन व्यवस्था नहीं है, उन्नीसवीं शताब्दी तक इसी व्यवस्था में हमारे विद्यालय चलते आये हैं ।
 
# संचालक, मुख्यध्यापक, शिक्षक, विद्यार्थी और अभिभावक मिलकर विद्यालय परिवार बनता है । इस परिवार का मखिया मख्याध्यापक है यह बात सर्वस्वीकृत बनने की आवश्यकता है। वर्तमान में संचालक अपने आपको बड़े मानते हैं, संचालक मंडल का अध्यक्ष सबसे बड़ा माना जाता है और शिक्षकवृन्द, स्वयं मुख्याध्यापक भी इस व्यवस्था का स्वीकार कर लेते हैं।परन्तु यह मामला ठीक तो कर ही लेना चाहिये । धार्मिक शिक्षा संकल्पना तो यह स्पष्ट कहती है कि शिक्षा शिक्षकाधीन होती है। यह केवल सिद्धान्त नहीं है, केवल प्राचीन व्यवस्था नहीं है, उन्नीसवीं शताब्दी तक इसी व्यवस्था में हमारे विद्यालय चलते आये हैं ।
# अतः यह अभी अभी तक चलती रही हमारी दीर्घ परम्परा भी है। ब्रिटिशों ने इसे उल्टापुल्टा कर दिया । उसे अभी दो सौ वर्ष ही हुए हैं । हम बीच के दो सौ वर्ष लाँघकर अपनी परम्परा से चलें यह आवश्यक है । थोडा विचारशील बनने से यह हमारे लिये स्वाभाविक बन सकता है । अतः समस्त विद्यालय परिवार मुख्याध्यापक का आदर करे और आदरपूर्वक अभिवादन करे यह आवश्यक है। आदर दर्शाने का सम्बोधन क्या हो और अभिवादन के शब्द क्या हों यह विद्यालय अपनी पद्धति से निश्चित कर सकते हैं। अभिवादन की पद्धति क्या हो यह भी विद्यालय स्वतः निश्चित कर सकता है । परन्तु अंग्रेजी के सर या मैडम, गुड मोर्निंग, हलो, हस्तधूनन आदि न हों यही उचित है।
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# अतः यह अभी अभी तक चलती रही हमारी दीर्घ परम्परा भी है। ब्रिटिशों ने इसे उल्टापुल्टा कर दिया । उसे अभी दो सौ वर्ष ही हुए हैं । हम मध्य के दो सौ वर्ष लाँघकर अपनी परम्परा से चलें यह आवश्यक है । थोडा विचारशील बनने से यह हमारे लिये स्वाभाविक बन सकता है । अतः समस्त विद्यालय परिवार मुख्याध्यापक का आदर करे और आदरपूर्वक अभिवादन करे यह आवश्यक है। आदर दर्शाने का सम्बोधन क्या हो और अभिवादन के शब्द क्या हों यह विद्यालय अपनी पद्धति से निश्चित कर सकते हैं। अभिवादन की पद्धति क्या हो यह भी विद्यालय स्वतः निश्चित कर सकता है । परन्तु अंग्रेजी के सर या मैडम, गुड मोर्निंग, हलो, हस्तधूनन आदि न हों यही उचित है।
 
# शिक्षकों का आपस में सम्बोधन और अभिवादन के शब्द तथा पद्धति क्या हो यह भी विचारणीय है । यहाँ भी सर, मैडम, हाय, हलो, हस्तधनन अच्छा नहीं है।
 
# शिक्षकों का आपस में सम्बोधन और अभिवादन के शब्द तथा पद्धति क्या हो यह भी विचारणीय है । यहाँ भी सर, मैडम, हाय, हलो, हस्तधनन अच्छा नहीं है।
 
# विद्यार्थी शिक्षकों को क्या सम्बोधन करें ? कैसे अभिवादन करें ? क्या पद्धति अपनायें ? विद्यार्थियों को केवल अभिवादन नहीं करना है, सम्मान भी करना है। कैसे सम्मान करें ? विद्यार्थी यदि प्रणाम या चरणस्पर्श करें तो शिक्षक उन्हें क्या आशीर्वाद दें? विद्यार्थी को कैसे सम्बोधित करें ?
 
# विद्यार्थी शिक्षकों को क्या सम्बोधन करें ? कैसे अभिवादन करें ? क्या पद्धति अपनायें ? विद्यार्थियों को केवल अभिवादन नहीं करना है, सम्मान भी करना है। कैसे सम्मान करें ? विद्यार्थी यदि प्रणाम या चरणस्पर्श करें तो शिक्षक उन्हें क्या आशीर्वाद दें? विद्यार्थी को कैसे सम्बोधित करें ?
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विद्यार्थी का शिक्षक के प्रति विनयशील व्यवहार होना चाहिये इसका अर्थ क्या है ?
 
विद्यार्थी का शिक्षक के प्रति विनयशील व्यवहार होना चाहिये इसका अर्थ क्या है ?
 
# शिक्षक कक्षा में आयें उससे पूर्व सभी विद्यार्थियों को उपस्थित हो जाना चाहिये । बाद में आना ठीक नहीं । शिक्षक आयें तब विद्यार्थियों ने खड़े होकर सम्मान करना चाहिये । दोनों हाथ जोडकर प्रणाम कर प्रणाम आचार्यजी' कहना चाहिये । कहीं कहीं 'नमस्ते' या 'नमो गुरुभ्यः' कहने का भी प्रचलन है। यह अपना अपना शिष्टाचार है, विद्यालय स्वयं तय कर सकता है। जब विद्यार्थी अभिवादन करते हैं तब शिक्षक को भी प्रत्युत्तर में आशीर्वाद देने चाहिये । आजकल विद्यार्थी 'गुड मोर्निंग' कहते हैं तो शिक्षक भी वही कहते हैं, विद्यार्थी ‘नमस्ते' कहते हैं तो शिक्षक भी ‘नमस्ते' कहते हैं । इस समानता के स्थान पर शिक्षक बडप्पन दिखा सकते हैं। उन्हें आशीर्वाद सूचक 'शुभं भवतु' कहना चाहिये । और भी समानार्थी शब्द हो सकते हैं । कक्षा पूर्ण होने पर शिक्षक जब जाते हैं तब भी विद्यार्थियों ने खडे होकर प्रणाम आचार्यजी' कहना चाहिये । कहीं कहीं बैठे बैठे भूमि पर माथा टेककर 'नमो गुरुभ्यः' कहने का भी प्रचलन है । इस समय शिक्षक ने भी आशीर्वाद देने चाहिये।
 
# शिक्षक कक्षा में आयें उससे पूर्व सभी विद्यार्थियों को उपस्थित हो जाना चाहिये । बाद में आना ठीक नहीं । शिक्षक आयें तब विद्यार्थियों ने खड़े होकर सम्मान करना चाहिये । दोनों हाथ जोडकर प्रणाम कर प्रणाम आचार्यजी' कहना चाहिये । कहीं कहीं 'नमस्ते' या 'नमो गुरुभ्यः' कहने का भी प्रचलन है। यह अपना अपना शिष्टाचार है, विद्यालय स्वयं तय कर सकता है। जब विद्यार्थी अभिवादन करते हैं तब शिक्षक को भी प्रत्युत्तर में आशीर्वाद देने चाहिये । आजकल विद्यार्थी 'गुड मोर्निंग' कहते हैं तो शिक्षक भी वही कहते हैं, विद्यार्थी ‘नमस्ते' कहते हैं तो शिक्षक भी ‘नमस्ते' कहते हैं । इस समानता के स्थान पर शिक्षक बडप्पन दिखा सकते हैं। उन्हें आशीर्वाद सूचक 'शुभं भवतु' कहना चाहिये । और भी समानार्थी शब्द हो सकते हैं । कक्षा पूर्ण होने पर शिक्षक जब जाते हैं तब भी विद्यार्थियों ने खडे होकर प्रणाम आचार्यजी' कहना चाहिये । कहीं कहीं बैठे बैठे भूमि पर माथा टेककर 'नमो गुरुभ्यः' कहने का भी प्रचलन है । इस समय शिक्षक ने भी आशीर्वाद देने चाहिये।
# शिक्षक के जाने तक विद्यार्थियों को रुकना चाहिये । शिक्षक से पहले कक्षा नहीं छोडनी चाहिये । कक्षा चल रही है तब तक बीच में से छोडकर नहीं जाना चाहिये।
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# शिक्षक के जाने तक विद्यार्थियों को रुकना चाहिये । शिक्षक से पहले कक्षा नहीं छोडनी चाहिये । कक्षा चल रही है तब तक मध्य में से छोडकर नहीं जाना चाहिये।
# कक्षा चल रही हो तब विद्यार्थी आपस में बातें न करें । अपना और कोई काम न करें, खायें पीयें नहीं यह भी आवश्यक है । आजकल पानी की बोतल सबके साथ रहती है और प्यास लगे तब पानी पीना सबको स्वाभाविक लगता है । लघुशंका के लिये भी बीच में ही जाना स्वाभाविक माना जाता है। आवेगों को नहीं रोकना चाहिये ऐसा शास्त्रीय कारण भी दिया जाता है । यह सब तो ठीक है परन्तु कक्षा प्रारम्भ होने से पूर्व ही इन कामों को निपट लेने की सावधानी सिखाना चाहिये । एक साथ कम से कम दो घण्टे बिना पानी के, बिना लघुशंका गये काम कर सकें ऐसा अभ्यास होना चाहिये । यह तो सभाओं और कार्यक्रमों में पालन किया जाना चाहिये ऐसा शिष्टाचार है । कक्षाकक्षों में ही इसके संस्कार होते हैं । यहाँ नहीं हुए तो जीवन में भी नहीं आते । घरों में और समाज में कक्षाकक्षों से ही पहुँचते हैं।
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# कक्षा चल रही हो तब विद्यार्थी आपस में बातें न करें । अपना और कोई काम न करें, खायें पीयें नहीं यह भी आवश्यक है । आजकल पानी की बोतल सबके साथ रहती है और प्यास लगे तब पानी पीना सबको स्वाभाविक लगता है । लघुशंका के लिये भी मध्य में ही जाना स्वाभाविक माना जाता है। आवेगों को नहीं रोकना चाहिये ऐसा शास्त्रीय कारण भी दिया जाता है । यह सब तो ठीक है परन्तु कक्षा प्रारम्भ होने से पूर्व ही इन कामों को निपट लेने की सावधानी सिखाना चाहिये । एक साथ कम से कम दो घण्टे बिना पानी के, बिना लघुशंका गये काम कर सकें ऐसा अभ्यास होना चाहिये । यह तो सभाओं और कार्यक्रमों में पालन किया जाना चाहिये ऐसा शिष्टाचार है । कक्षाकक्षों में ही इसके संस्कार होते हैं । यहाँ नहीं हुए तो जीवन में भी नहीं आते । घरों में और समाज में कक्षाकक्षों से ही पहुँचते हैं।
# अनिवार्य कारण से यदि बीच में ही कक्षा के अन्दर आना पडे या बाहर जाना पडे, बिना अनुमति के नहीं आना चाहिये । अनुमति माँगने पर मिलेगी ही या देनी ही चाहिये ऐसा नियम नहीं है । अनुमति देना या नहीं देना शिक्षक के विवेक पर निर्भर करता है  (मर्जी पर नहीं)।
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# अनिवार्य कारण से यदि मध्य में ही कक्षा के अन्दर आना पडे या बाहर जाना पडे, बिना अनुमति के नहीं आना चाहिये । अनुमति माँगने पर मिलेगी ही या देनी ही चाहिये ऐसा नियम नहीं है । अनुमति देना या नहीं देना शिक्षक के विवेक पर निर्भर करता है  (मर्जी पर नहीं)।
 
# कक्षा चल रही है तब शिक्षक की अनुमति के बिना विद्यार्थी तो क्या कोई भी नहीं आ सकता, यहाँ तक कि मुख्याध्यापक भी नहीं। जिस प्रकार मुख्याध्यापक विद्यालय का मुखिया है, शिक्षक अपनी कक्षा का मुखिया है। उसकी आज्ञा या अनुमति के बिना कुछ नहीं हो सकता। आजकल निरीक्षण करने के लिये आये हुए सरकारी शिक्षाविभाग के अधिकारी अनुमति माँगने की शिष्टता नहीं दर्शाते, परवाह भी नहीं करते । परन्तु यह होना अपेक्षित है।
 
# कक्षा चल रही है तब शिक्षक की अनुमति के बिना विद्यार्थी तो क्या कोई भी नहीं आ सकता, यहाँ तक कि मुख्याध्यापक भी नहीं। जिस प्रकार मुख्याध्यापक विद्यालय का मुखिया है, शिक्षक अपनी कक्षा का मुखिया है। उसकी आज्ञा या अनुमति के बिना कुछ नहीं हो सकता। आजकल निरीक्षण करने के लिये आये हुए सरकारी शिक्षाविभाग के अधिकारी अनुमति माँगने की शिष्टता नहीं दर्शाते, परवाह भी नहीं करते । परन्तु यह होना अपेक्षित है।
 
# कक्षा में शिक्षक के आसन पर और कोई नहीं बैठ सकता । कक्षा के बाहर अनेक व्यक्ति आयु में, ज्ञान में, अधिकार में शिक्षक से बड़े हो सकते हैं, वहाँ शिक्षक उनका उचित सम्मान करेगा परन्तु कक्षा के अन्दर सब शिक्षक का ही सम्मान करेंगे। विद्यार्थियों को भी इस बात की जानकारी होनी चाहिये, अन्यथा वे स्वयं ही खडे हो जाते हैं । शिक्षक का सम्मान करना है यह विषय शिक्षक स्वयं नहीं बतायेंगे, मुख्याध्यापक ने स्वयं विद्यालय के सभी छात्रों को सिखानी चाहिये। कक्षा में यदि मुख्याध्यापक या कोई वरिष्ठ अधिकारी या कोई सन्त आते हैं तब शिक्षक स्वयं विद्यार्थियों को खडे होकर प्रणाम करने की आज्ञा दे यही उचित पद्धति है।
 
# कक्षा में शिक्षक के आसन पर और कोई नहीं बैठ सकता । कक्षा के बाहर अनेक व्यक्ति आयु में, ज्ञान में, अधिकार में शिक्षक से बड़े हो सकते हैं, वहाँ शिक्षक उनका उचित सम्मान करेगा परन्तु कक्षा के अन्दर सब शिक्षक का ही सम्मान करेंगे। विद्यार्थियों को भी इस बात की जानकारी होनी चाहिये, अन्यथा वे स्वयं ही खडे हो जाते हैं । शिक्षक का सम्मान करना है यह विषय शिक्षक स्वयं नहीं बतायेंगे, मुख्याध्यापक ने स्वयं विद्यालय के सभी छात्रों को सिखानी चाहिये। कक्षा में यदि मुख्याध्यापक या कोई वरिष्ठ अधिकारी या कोई सन्त आते हैं तब शिक्षक स्वयं विद्यार्थियों को खडे होकर प्रणाम करने की आज्ञा दे यही उचित पद्धति है।
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विद्यालय परिसर के बाहर भी विद्यार्थी शिक्षक के प्रति विनयशील रहे यह अपेक्षित ही है। यदि नहीं रहता है तो उसके संस्कार और अध्ययन में ही कहीं कमी है ऐसा मान सकते हैं।
 
विद्यालय परिसर के बाहर भी विद्यार्थी शिक्षक के प्रति विनयशील रहे यह अपेक्षित ही है। यदि नहीं रहता है तो उसके संस्कार और अध्ययन में ही कहीं कमी है ऐसा मान सकते हैं।
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अपना पुत्र या पुत्री अपने शिक्षक का सम्मान करे इसके संस्कार घर में मिलने चाहिये । अभिभावकों में भी शिक्षक के प्रति सम्मान का भाव होना चाहिये । विनयशील व्यवहार तो होना ही चाहिये । आजकल अखबारों में अनेक प्रकार से शिक्षकों को उपालम्भ और उपदेश दिये जाते हैं, अधिकारी विद्यार्थियों के सामने ही शिक्षकों के साथ अविनयशील व्यवहार करते हैं, मातापिता घर में शिक्षक के सन्दर्भ में अविनयशील सम्भाषण करते हैं, सरकार विद्यार्थियों के पक्ष में होती है, न्यायालय में शिक्षक और विद्यार्थी समान माने जाते हैं - ऐसे अनेक कारणों से विद्यार्थी विनय छोडकर उद्दण्ड बन जाते हैं। वास्तव में पढने के लिये पात्रता प्राप्त करना और जब तक वह पात्रता प्राप्त नहीं करता तब तक उसे नहीं पढाना विद्यार्थी और शिक्षक का धर्म है। शिक्षक और विद्यार्थी के बीच अन्य अनेक व्यवस्थायें आ गई हैं इसलिये इस धर्म की भी अवज्ञा होने लगी है । परन्तु शिक्षाक्षेत्र में चिन्ता करने योग्य ये भी बातें हैं और पर्याप्त महत्व  रखती हैं यह मानकर कुछ उपाय किये जाने चाहिये।
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अपना पुत्र या पुत्री अपने शिक्षक का सम्मान करे इसके संस्कार घर में मिलने चाहिये । अभिभावकों में भी शिक्षक के प्रति सम्मान का भाव होना चाहिये । विनयशील व्यवहार तो होना ही चाहिये । आजकल अखबारों में अनेक प्रकार से शिक्षकों को उपालम्भ और उपदेश दिये जाते हैं, अधिकारी विद्यार्थियों के सामने ही शिक्षकों के साथ अविनयशील व्यवहार करते हैं, मातापिता घर में शिक्षक के सन्दर्भ में अविनयशील सम्भाषण करते हैं, सरकार विद्यार्थियों के पक्ष में होती है, न्यायालय में शिक्षक और विद्यार्थी समान माने जाते हैं - ऐसे अनेक कारणों से विद्यार्थी विनय छोडकर उद्दण्ड बन जाते हैं। वास्तव में पढने के लिये पात्रता प्राप्त करना और जब तक वह पात्रता प्राप्त नहीं करता तब तक उसे नहीं पढाना विद्यार्थी और शिक्षक का धर्म है। शिक्षक और विद्यार्थी के मध्य अन्य अनेक व्यवस्थायें आ गई हैं इसलिये इस धर्म की भी अवज्ञा होने लगी है । परन्तु शिक्षाक्षेत्र में चिन्ता करने योग्य ये भी बातें हैं और पर्याप्त महत्व  रखती हैं यह मानकर कुछ उपाय किये जाने चाहिये।
    
====== शिक्षक और मुख्याध्यापक के आपसी व्यवहार में भी शिष्ट आचरण अपेक्षित है । ======
 
====== शिक्षक और मुख्याध्यापक के आपसी व्यवहार में भी शिष्ट आचरण अपेक्षित है । ======
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====== आवासीय विद्यालय - आज वे कैसे चलते हैं ? ======
 
====== आवासीय विद्यालय - आज वे कैसे चलते हैं ? ======
 
ये विद्यालय वास्तव में हमें प्राचीन गुरुकुलों का स्मरण करवाने वाले हैं, जहाँ पूर्ण समय विद्यार्थी अपने अध्यापकों के साथ रहते हैं। परन्तु गुरुकुल की सही संकल्पना ज्ञात न होने के कारण से आज वे उनसे भिन्न रूप में चलते हैं।
 
ये विद्यालय वास्तव में हमें प्राचीन गुरुकुलों का स्मरण करवाने वाले हैं, जहाँ पूर्ण समय विद्यार्थी अपने अध्यापकों के साथ रहते हैं। परन्तु गुरुकुल की सही संकल्पना ज्ञात न होने के कारण से आज वे उनसे भिन्न रूप में चलते हैं।
# इन विद्यालयों की दिनचर्या बहुत आदर्श मानी जाय ऐसी होती है। प्रातः जल्दी जगना, प्रातःप्रार्थना, योगाभ्यास, व्यायाम आदि करना, अल्पाहार और गृहपाठ करना, ग्यारह बजे विद्यालय जाना, बीच में भोजन की छुट्टी होना, पुनः विद्यालय जाना, सायंकाल मैदान में खेलना, सायंप्रार्थना करना, भोजन करना, स्वाध्याय या गृहपाठ करना और सो जाना यही दिनक्रम रहता है। रविवार को छुट्टी रहती है । उस दिन की दिनचर्या कुछ विशेष रहती है। अन्य विद्यालयों की तरह ही परीक्षायें और अवकाश रहते हैं जब विद्यार्थी घर जाते हैं । परन्तु इन विद्यालयों में धार्मिक पद्धति से शिक्षा की अनेक सम्भावनायें हैं जिनका ज्ञान होने से उनको वास्तविक रूप दिया जा सकता है।
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# इन विद्यालयों की दिनचर्या बहुत आदर्श मानी जाय ऐसी होती है। प्रातः जल्दी जगना, प्रातःप्रार्थना, योगाभ्यास, व्यायाम आदि करना, अल्पाहार और गृहपाठ करना, ग्यारह बजे विद्यालय जाना, मध्य में भोजन की छुट्टी होना, पुनः विद्यालय जाना, सायंकाल मैदान में खेलना, सायंप्रार्थना करना, भोजन करना, स्वाध्याय या गृहपाठ करना और सो जाना यही दिनक्रम रहता है। रविवार को छुट्टी रहती है । उस दिन की दिनचर्या कुछ विशेष रहती है। अन्य विद्यालयों की तरह ही परीक्षायें और अवकाश रहते हैं जब विद्यार्थी घर जाते हैं । परन्तु इन विद्यालयों में धार्मिक पद्धति से शिक्षा की अनेक सम्भावनायें हैं जिनका ज्ञान होने से उनको वास्तविक रूप दिया जा सकता है।
 
# ये चौबीस घण्टे के विद्यालय हैं। अर्थात् चौबीस घण्टे का जीवन ही शिक्षा का विषय है, वही पाठ्यक्रम है । इस बात को ध्यान में रखकर नियोजन किया जा सकता है। प्रातःकाल जगने से रात्रि को सोने तक की सारी बातें क्रियात्मक, भावात्मक और ज्ञानात्मक पद्धति से सिखाई जा सकती हैं।
 
# ये चौबीस घण्टे के विद्यालय हैं। अर्थात् चौबीस घण्टे का जीवन ही शिक्षा का विषय है, वही पाठ्यक्रम है । इस बात को ध्यान में रखकर नियोजन किया जा सकता है। प्रातःकाल जगने से रात्रि को सोने तक की सारी बातें क्रियात्मक, भावात्मक और ज्ञानात्मक पद्धति से सिखाई जा सकती हैं।
 
# इन विद्यालयों की दिनचर्या प्रकृति के नियमानुसार बनाई जा सकती है । उदाहरण के लिये सोने, जागने, भोजन करने, खेलने, पढने और विश्रान्ति का समय वैज्ञानिक पद्धति से निश्चित कर सकते हैं । दोपहर में भोजन का समय मध्याह्न से पूर्व, सायंकाल सूर्यास्त से पूर्व, जगने का समय ब्राह्ममुहूर्त, अध्ययन का समय प्रातःकाल और सायंकाल आदि कर सकते हैं।
 
# इन विद्यालयों की दिनचर्या प्रकृति के नियमानुसार बनाई जा सकती है । उदाहरण के लिये सोने, जागने, भोजन करने, खेलने, पढने और विश्रान्ति का समय वैज्ञानिक पद्धति से निश्चित कर सकते हैं । दोपहर में भोजन का समय मध्याह्न से पूर्व, सायंकाल सूर्यास्त से पूर्व, जगने का समय ब्राह्ममुहूर्त, अध्ययन का समय प्रातःकाल और सायंकाल आदि कर सकते हैं।
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शिक्षा सरकार के लिये चिन्ता का विषय है । शिक्षा की व्यवस्था करना सरकार ने अपना दायित्व माना है । हमारे संविधान में छः से चौदह वर्ष की आयु तक शिक्षा को अनिवार्य बनाया है । अनिवार्य है इसीलिये निःशुल्क भी करना होता है । सरकार की इच्छा है कि देश के ६ से १४ वर्ष के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मिले । इस दृष्टि से छोटे छोटे गाँवों में भी सरकारी प्राथमिक विद्यालय होते हैं ।
 
शिक्षा सरकार के लिये चिन्ता का विषय है । शिक्षा की व्यवस्था करना सरकार ने अपना दायित्व माना है । हमारे संविधान में छः से चौदह वर्ष की आयु तक शिक्षा को अनिवार्य बनाया है । अनिवार्य है इसीलिये निःशुल्क भी करना होता है । सरकार की इच्छा है कि देश के ६ से १४ वर्ष के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मिले । इस दृष्टि से छोटे छोटे गाँवों में भी सरकारी प्राथमिक विद्यालय होते हैं ।
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इनमें बच्चों के प्रवेश हों, उन्हें प्रोत्साहन मिले इस हेतु से प्रवेशोत्सव मनाये जाते हैं । विद्यार्थी बीच में ही विद्यालय छोड़कर न जाय इसका भी ध्यान रखा जाता है । गरीबों को अपने बच्चों को पढ़ाने की सुविधा हो इस दृष्टि से मद्यत्ह्य भोजन योजना चलाई जाती है । बच्चों को पुस्तकें, गणवेश, बस्ता आदि भी दिया जाता है । सरकार अनेक प्रयास करती है। सर्व शिक्षा अभियान चलता है। तो भी सरकारी विद्यालयों की हालत अत्यन्त दयनीय और चिन्ताजनक है । आँकडे भी दयनीय स्थिति दर्शाते हैं जबकि वास्तविक स्थिति आँकडों से अधिक दयनीय होती है यह सब जानते हैं ।
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इनमें बच्चों के प्रवेश हों, उन्हें प्रोत्साहन मिले इस हेतु से प्रवेशोत्सव मनाये जाते हैं । विद्यार्थी मध्य में ही विद्यालय छोड़कर न जाय इसका भी ध्यान रखा जाता है । गरीबों को अपने बच्चों को पढ़ाने की सुविधा हो इस दृष्टि से मद्यत्ह्य भोजन योजना चलाई जाती है । बच्चों को पुस्तकें, गणवेश, बस्ता आदि भी दिया जाता है । सरकार अनेक प्रयास करती है। सर्व शिक्षा अभियान चलता है। तो भी सरकारी विद्यालयों की हालत अत्यन्त दयनीय और चिन्ताजनक है । आँकडे भी दयनीय स्थिति दर्शाते हैं जबकि वास्तविक स्थिति आँकडों से अधिक दयनीय होती है यह सब जानते हैं ।
    
सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । प्रजा को इन विद्यालयों पर कोई भरोसा नहीं है । अब ऐसा कहा जाता है कि सरकारी विद्यालयों में अच्छे लोगों के बच्चे पढ़ते ही नहीं हैं, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, नशा करने वाले, असंस्कारी मातापिता के बच्चे पढते हैं जिनकी संगत में हमारे बच्चें बिगड जायेंगे । परन्तु यह तो परिणाम है । “अच्छे' घर के लोगों ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया इसलिये अब 'पिछडे' बच्चे रह गये हैं । दो पीढ़ियों पूर्व आज के विद्वान लोग भी सरकारी विद्यालयों में पढ़े हुए ही हैं । धीरे धीरे पढ़ाना बन्द हुआ इसलिये लोगों ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया । झुग्गी झॉंपडियों में नहीं रहनेवाले सुसंस्कृत और झुग्गी झेंपडियों में रहनेवाले पिछडे यह वर्गीकरण तो बडी भ्रान्ति है परन्तु इस भ्रान्ति को दूर करने की चिन्ता कोई नहीं करता, उल्टे उसका ही लोग फायदा उठाने का प्रयास करते हैं । सरकारी विद्यालयों के शिक्षक हमेशा शिकायत करते हैं कि हमारे यहाँ बच्चे पढने के लिये आते ही नहीं हैं, केवल खाने के लिये ही आते हैं, अच्छे घर के आते ही नहीं है तो हम किसे पढायें । यह भी सत्य नहीं है परन्तु इस सम्बन्ध में कोई प्रयास नहीं किया जाता ।
 
सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । प्रजा को इन विद्यालयों पर कोई भरोसा नहीं है । अब ऐसा कहा जाता है कि सरकारी विद्यालयों में अच्छे लोगों के बच्चे पढ़ते ही नहीं हैं, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, नशा करने वाले, असंस्कारी मातापिता के बच्चे पढते हैं जिनकी संगत में हमारे बच्चें बिगड जायेंगे । परन्तु यह तो परिणाम है । “अच्छे' घर के लोगों ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया इसलिये अब 'पिछडे' बच्चे रह गये हैं । दो पीढ़ियों पूर्व आज के विद्वान लोग भी सरकारी विद्यालयों में पढ़े हुए ही हैं । धीरे धीरे पढ़ाना बन्द हुआ इसलिये लोगों ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया । झुग्गी झॉंपडियों में नहीं रहनेवाले सुसंस्कृत और झुग्गी झेंपडियों में रहनेवाले पिछडे यह वर्गीकरण तो बडी भ्रान्ति है परन्तु इस भ्रान्ति को दूर करने की चिन्ता कोई नहीं करता, उल्टे उसका ही लोग फायदा उठाने का प्रयास करते हैं । सरकारी विद्यालयों के शिक्षक हमेशा शिकायत करते हैं कि हमारे यहाँ बच्चे पढने के लिये आते ही नहीं हैं, केवल खाने के लिये ही आते हैं, अच्छे घर के आते ही नहीं है तो हम किसे पढायें । यह भी सत्य नहीं है परन्तु इस सम्बन्ध में कोई प्रयास नहीं किया जाता ।
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# प्रबोधन की आवश्यकता सरकार को भी है । सरकारी प्राथमिक शिक्षकों के पास पढाने के अतिरिक्त इतने अधिक काम रहते हैं कि वे पढाने का काम कम कर पाते हैं। उदाहरण के लिये जनगणना, विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण, चुनाव के समय जानकारी पहुँचाने का काम आदि विभिन्न सरकारी योजनाओं का काम प्राथमिक शिक्षकों को करना पडता है। शिक्षक और अभिभावक इससे तंग आ जाते हैं। यदि सरकारी विद्यालय ठीक से चलते हैं तो शिक्षकों को इस प्रकार की व्यस्तता से मुक्त करना होगा । अ-मानवीयतन्त्र सहजता से ऐसा करता नहीं है इसलिये उसके लिये प्रबोधन की अधिक आवश्यकता होगी।
 
# प्रबोधन की आवश्यकता सरकार को भी है । सरकारी प्राथमिक शिक्षकों के पास पढाने के अतिरिक्त इतने अधिक काम रहते हैं कि वे पढाने का काम कम कर पाते हैं। उदाहरण के लिये जनगणना, विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण, चुनाव के समय जानकारी पहुँचाने का काम आदि विभिन्न सरकारी योजनाओं का काम प्राथमिक शिक्षकों को करना पडता है। शिक्षक और अभिभावक इससे तंग आ जाते हैं। यदि सरकारी विद्यालय ठीक से चलते हैं तो शिक्षकों को इस प्रकार की व्यस्तता से मुक्त करना होगा । अ-मानवीयतन्त्र सहजता से ऐसा करता नहीं है इसलिये उसके लिये प्रबोधन की अधिक आवश्यकता होगी।
 
# प्रबोधन का कार्य निःस्वार्थ लोग या संस्थायें ही कर सकती हैं। यदि वे भी किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा करेंगे तो राजकीय पक्ष उनका लाभ उठायेंगे । फिर प्रबोधन भी एक व्यवसाय बन जायेगा। सरकार यदि अपनी प्रतिष्ठा बढाने हेतु पैसे का आधार लेती है तो उसका लाभ उठाने वाले तत्व निकल आयेंगे । इसलिये स्वेच्छा से, निरपेक्ष भाव से, समाजसेवा करने वाले लोग ही शिक्षा की तथा समाज की सेवा करने की दृष्टि से अभिभावक और सरकार का प्रबोधन करने का काम करेंगे तो कुछ परिणाम मिलने की सम्भावना है।
 
# प्रबोधन का कार्य निःस्वार्थ लोग या संस्थायें ही कर सकती हैं। यदि वे भी किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा करेंगे तो राजकीय पक्ष उनका लाभ उठायेंगे । फिर प्रबोधन भी एक व्यवसाय बन जायेगा। सरकार यदि अपनी प्रतिष्ठा बढाने हेतु पैसे का आधार लेती है तो उसका लाभ उठाने वाले तत्व निकल आयेंगे । इसलिये स्वेच्छा से, निरपेक्ष भाव से, समाजसेवा करने वाले लोग ही शिक्षा की तथा समाज की सेवा करने की दृष्टि से अभिभावक और सरकार का प्रबोधन करने का काम करेंगे तो कुछ परिणाम मिलने की सम्भावना है।
# कई सेवाभावी संस्थायें सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में भोजन, शैक्षिक सामग्री, कपडे आदि की सहायता करते हैं । कई संस्थायें यहाँ के विद्यार्थियों के लिये पढाने की और संस्कार देने की अतिरिक्त व्यवस्था करते हैं । यह इसी कारण से करते हैं क्योंकि सब जानते हैं कि इन विद्यालयों में पढाई होती नहीं है। यह अच्छा है, परन्तु इससे भी अच्छा यह है कि सब मिलकर शिक्षकों को पढाने हेतु प्रेरित करें । अभिभावक और अन्य संस्थायें मूल प्रश्न की ओर ध्यान न देकर बीच में से रास्ता निकालने का प्रयास करते हैं। इससे तो कुल मिलाकर लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है ।
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# कई सेवाभावी संस्थायें सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में भोजन, शैक्षिक सामग्री, कपडे आदि की सहायता करते हैं । कई संस्थायें यहाँ के विद्यार्थियों के लिये पढाने की और संस्कार देने की अतिरिक्त व्यवस्था करते हैं । यह इसी कारण से करते हैं क्योंकि सब जानते हैं कि इन विद्यालयों में पढाई होती नहीं है। यह अच्छा है, परन्तु इससे भी अच्छा यह है कि सब मिलकर शिक्षकों को पढाने हेतु प्रेरित करें । अभिभावक और अन्य संस्थायें मूल प्रश्न की ओर ध्यान न देकर मध्य में से रास्ता निकालने का प्रयास करते हैं। इससे तो कुल मिलाकर लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है ।
 
# एक ओर तो सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को प्रबोधन और प्रेरणा के माध्यम से पुष्ट करने का काम करना चाहिये, दूसरी ओर सरकार से मुक्त करने का भी प्रयास होना चाहिये । वास्तव में शिक्षा सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, अंग्रेजी शासन के प्रभाव में यह सरकार की बाध्यता बन गई है । सरकारी ढंग से चलने वाला कोई भी काम ऐसे ही चलेगा । इसमें सरकार का दोष नहीं है । लोकतन्त्र में भी ऐसे ही चलेगा । इसमें लोकतन्त्र का भी दोष नहीं है । वास्तव में शिक्षा यदि इस प्रकार चलनी है तो समाज शिक्षित होगा ऐसी अपेक्षा ही नहीं करनी चाहिये । सरकार से मुक्त होने पर ही कुछ किया जा सकता है। सरकार से शिक्षा को मुक्त करने के लिये समाज को इस दायित्व को स्वीकार करना होगा । समाज आज इस मानसिकता में नहीं है। निजी संस्थायें कुछ विद्यालय तो चला लेंगी परन्तु देश की इतनी जनसंख्या के लिये आवश्यक है उतनी संख्या में विद्यालय चलाना उसके बस की बात नहीं। यह भी समाज प्रबोधन का ही बहुत बडा विषय है। शिक्षा की स्वायत्तता की माँग करने वाले लोगों और संगठनों को इस विषय में विचार करना होगा।
 
# एक ओर तो सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को प्रबोधन और प्रेरणा के माध्यम से पुष्ट करने का काम करना चाहिये, दूसरी ओर सरकार से मुक्त करने का भी प्रयास होना चाहिये । वास्तव में शिक्षा सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, अंग्रेजी शासन के प्रभाव में यह सरकार की बाध्यता बन गई है । सरकारी ढंग से चलने वाला कोई भी काम ऐसे ही चलेगा । इसमें सरकार का दोष नहीं है । लोकतन्त्र में भी ऐसे ही चलेगा । इसमें लोकतन्त्र का भी दोष नहीं है । वास्तव में शिक्षा यदि इस प्रकार चलनी है तो समाज शिक्षित होगा ऐसी अपेक्षा ही नहीं करनी चाहिये । सरकार से मुक्त होने पर ही कुछ किया जा सकता है। सरकार से शिक्षा को मुक्त करने के लिये समाज को इस दायित्व को स्वीकार करना होगा । समाज आज इस मानसिकता में नहीं है। निजी संस्थायें कुछ विद्यालय तो चला लेंगी परन्तु देश की इतनी जनसंख्या के लिये आवश्यक है उतनी संख्या में विद्यालय चलाना उसके बस की बात नहीं। यह भी समाज प्रबोधन का ही बहुत बडा विषय है। शिक्षा की स्वायत्तता की माँग करने वाले लोगों और संगठनों को इस विषय में विचार करना होगा।
 
# कुछ इस प्रकार उपाय हो सकते हैं।
 
# कुछ इस प्रकार उपाय हो सकते हैं।

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