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| नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥६- १६॥ | | नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥६- १६॥ |
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| + | nāty-aśnatas tu yogo ’sti na caikāntam anaśnataḥ na cāti-svapna-śīlasya jāgrato naiva cārjuna ॥ 6- 16॥ |
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| युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥६- १७॥ | | युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥६- १७॥ |
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| + | yuktāhāra-vihārasya yukta-ceṣṭasya karmasu yukta-svapnāvabodhasya yogo bhavati duḥkha-hā ॥ 6- 17॥ |
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| यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते । निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥६- १८॥ | | यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते । निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥६- १८॥ |
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| + | yadā viniyataṁ cittam ātmany evāvatiṣṭhate nispṛhaḥ sarva-kāmebhyo yukta ity ucyate tadā ॥ 6- 18॥ |
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| यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता । योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥६- १९॥ | | यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता । योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥६- १९॥ |
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| + | yathā dīpo nivāta-stho neṅgate sopamā smṛtā yogino yata-cittasya yuñjato yogam ātmanaḥ ॥ 6- 19॥ |
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| यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया । यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥६- २०॥ | | यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया । यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥६- २०॥ |
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| + | yatroparamate cittaṁ niruddhaṁ yoga-sevayā yatra caivātmanātmānaṁ paśyann ātmani tuṣyati ॥ 6- 20॥ |
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| सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥६- २१॥ | | सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥६- २१॥ |
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| + | sukham ātyantikaṁ yat tad buddhi-grāhyam atīndriyam vetti yatra na caivāyaṁ sthitaś calati tattvataḥ ॥ 6- 21॥ |
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| यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः । यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥६- २२॥ | | यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः । यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥६- २२॥ |
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| + | yaṁ labdhvā cāparaṁ lābhaṁ manyate nādhikaṁ tataḥ yasmin sthito na duḥkhena guruṇāpi vicālyate ॥ 6- 22॥ |
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| तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् । स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥६- २३॥ | | तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् । स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥६- २३॥ |
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| + | taṁ vidyād duḥkha-saṁyoga-viyogaṁ yoga-saṁjñitam sa niścayena yoktavyo yogo ’nirviṇṇa-cetasā ॥ 6- 23॥ |
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| संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः । मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥६- २४॥ | | संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः । मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥६- २४॥ |
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| + | saṅkalpa-prabhavān kāmāṁs tyaktvā sarvān aśeṣataḥ manasaivendriya-grāmaṁ viniyamya samantataḥ ॥ 6- 24॥ |
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| शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया । आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥६- २५॥ | | शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया । आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥६- २५॥ |
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| + | śanaiḥ śanair uparamed buddhyā dhṛti-gṛhītayā ātma-saṁsthaṁ manaḥ kṛtvā na kiñcid api cintayet ॥ 6- 25॥ |
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| यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥६- २६॥ | | यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥६- २६॥ |
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| + | yato yato niścalati manaś cañcalam asthiram tatas tato niyamyaitad ātmany eva vaśaṁ nayet ॥ 6- 26॥ |
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| प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् । उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥६- २७॥ | | प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् । उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥६- २७॥ |
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| + | praśānta-manasaṁ hy enaṁ yoginaṁ sukham uttamam upaiti śānta-rajasaṁ brahma-bhūtam akalmaṣam ॥ 6- 27॥ |
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| युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः । सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥६- २८॥ | | युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः । सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥६- २८॥ |
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| + | yuñjann evaṁ sadātmānaṁ yogī vigata-kalmaṣaḥ sukhena brahma-saṁsparśam atyantaṁ sukham aśnute ॥ 6- 28॥ |
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| सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥६- २९॥ | | सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥६- २९॥ |
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| + | sarva-bhūta-stham ātmānaṁ sarva-bhūtāni cātmani īkṣate yoga-yuktātmā sarvatra sama-darśanaḥ ॥ 6- 29॥ |
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| यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति । तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥६- ३०॥ | | यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति । तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥६- ३०॥ |