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| सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु । साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥६- ९॥ | | सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु । साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥६- ९॥ |
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| + | suhṛn-mitrāry-udāsīna-madhyastha-dveṣya-bandhuṣu sādhuṣv api ca pāpeṣu sama-buddhir viśiṣyate ॥ 6- 9 ॥ |
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| योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥६- १०॥ | | योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥६- १०॥ |
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| + | yogī yuñjīta satatam ātmānaṁ rahasi sthitaḥ ekākī yata-cittātmā nirāśīr aparigrahaḥ ॥ 6- 10 ॥ |
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| शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥६- ११॥ | | शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥६- ११॥ |
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| + | śucau deśe pratiṣṭhāpya sthiram āsanam ātmanaḥ nāty-ucchritaṁ nāti-nīcaṁ cailājina-kuśottaram ॥ 6- 11 ॥ |
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| तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः । उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥६- १२॥ | | तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः । उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥६- १२॥ |
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| + | tatraikāgraṁ manaḥ kṛtvā yata-cittendriya-kriyaḥ upaviśyāsane yuñjyād yogam ātma-viśuddhaye ॥ 6- 12 ॥ |
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| समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः । सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥६- १३॥ | | समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः । सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥६- १३॥ |
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| + | samaṁ kāya-śiro-grīvaṁ dhārayann acalaṁ sthiraḥ samprekṣya nāsikāgraṁ svaṁ diśaś cānavalokayan ॥ 6- 13 ॥ |
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| प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः । मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥६- १४॥ | | प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः । मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥६- १४॥ |
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| + | praśāntātmā vigata-bhīr brahmacāri-vrate sthitaḥ manaḥ saṁyamya mac-citto yukta āsīta mat-paraḥ ॥ 6- 14॥ |
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| युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः । शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥६- १५॥ | | युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः । शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥६- १५॥ |
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| + | yuñjann evaṁ sadātmānaṁ yogī niyata-mānasaḥ śāntiṁ nirvāṇa-paramāṁ mat-saṁsthām adhigacchati ॥ 6- 15॥ |
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| नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥६- १६॥ | | नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥६- १६॥ |