Difference between revisions of "पर्व 2: उद्देश्य निर्धारण - प्रस्तावना"
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विद्यार्थी जब से पढाई शुरू करता है तब से प्रथम उसके अभिभावकों के और बाद में स्वयं विद्यार्थी के मन में उसके अपने भावि जीवन का ही विचार रहता है । प्रथम विचार अथर्जिन का ही रहता है, दूसरा प्रतिष्ठा का। प्रतिष्ठा भी अथर्जिन के साथ जुडी रहती है।[1]
शिक्षा का इतना संकुचित उद्देश्य तो कभी नहीं रहा। सम्यक् विचार तो यह है कि व्यक्ति की शिक्षा केवल उसके अपने लिये नहीं अपितु समस्त विश्व के कल्याण में निमित्त बनने वाली होनी चाहिये। व्यक्ति स्वयं और समस्त विश्व के दो बिन्दुओं के मध्य कुट्म्ब, समुदाय, राष्ट्र विश्व, सृष्टि सब समाये हुए हैं । समग्र के परिप्रेक्ष्य में एक को देखना ही सम्यक देखना है।
व्यक्ति के लिये भी शिक्षा केवल अथर्जिन के लिये नहीं होती। वह होती है शरीर और मन को सुदृढ़ और स्वस्थ बनाते हुए विवेक जाग्रत करने हेतु, जो अन्ततोगत्वा अनुभूति की सम्भावनायें बनाता है । कहाँ तो आज का व्यक्तिकेन्द्री विचार और कहाँ भारत का परमेष्ठी विचार।
दो छोर हैं, दो अन्तिम हैं । इन दो अन्तिमों के बीच का अन्तर पाटने हेतु हमें शिक्षा के उद्देश्यों को पुनर्व्यख्यायित करना होगा ।
इस पर्व में शिक्षा के उद्देश्यों का ही विचार किया गया है जिसकी पूर्ति के लिये समस्त शिक्षा व्यापार चलता है । यह एक सार्वत्रिक नियम है कि एक बार उद्देश्य निश्चित हो जाय तो शेष कार्य भी निश्चित और सुकर हो जाता है ।
References
- ↑ भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे