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===== शिक्षा की व्यवस्था संस्थागत है =====
 
===== शिक्षा की व्यवस्था संस्थागत है =====
शिक्षा को जीवमान प्रक्रिया मानने के स्थान पर जब हम उसे यांत्रिक प्रक्रिया मानने लगते हैं तब वह यांत्रिक ढाँचे में बिठाई जाती है। वास्तव में शिक्षा जन्म से भी पूर्व में प्रारम्भ हो कर आजीवन चलती रहती है। विभिन्न सन्दर्भो में, विभिन्न स्थानों पर, विभिन्न आयु में उसके
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शिक्षा को जीवमान प्रक्रिया मानने के स्थान पर जब हम उसे यांत्रिक प्रक्रिया मानने लगते हैं तब वह यांत्रिक ढाँचे में बिठाई जाती है। वास्तव में शिक्षा जन्म से भी पूर्व में प्रारम्भ हो कर आजीवन चलती रहती है। विभिन्न सन्दर्भो में, विभिन्न स्थानों पर, विभिन्न आयु में उसके विभिन्न रूप होते हैं। वे प्रयोजन और परिस्थिति के अनुसार, लेने और देने वाले के अनुसार विभिन्न पद्धतियों से ली दी जाती है। उसे संस्थागत ढाँचे में बिठाना वैसा ही है जैसा किसी एक लीलया बढ़ने वाले वृक्ष को बढ़ने के लिये एक साँचा देना।
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विगत सौ वर्षों में यही हुआ है। उद्देश्य, पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक, पाठ्यसामग्री, परीक्षा, अंक, प्रमाणपत्र, उपाधि आदि के बने साँचे में शिक्षा को इस प्रकार से ढाल दिया गया है कि अब शिक्षित कहलाने के लिये और शिक्षित होने के लाभ प्राप्त करने के लिये संस्था अनिवार्य बन गई है । धीरे धीरे यह कल्पना इतनी पक्की हो गई है कि अब विद्यालय नामक संस्था के बाहर शिक्षा होती है ऐसा हम मानते ही नहीं हैं । इस कारण से जीवनशिक्षा के जो परंपरागत केन्द्र हैं - परिवार, मन्दिर, तीर्थ, उत्सव, सार्वजनिक धर्मादाय व्यवस्थायें, व्रत, तप, पूजा - उनकी शिक्षा की दृष्टि से प्रतिष्ठा लगभग समाप्त हो गई है। इन संस्थाओं में आस्था और ज्ञानात्मक विकास - इन दो बातों का सम्बन्धविच्छेद हो गया है। परन्तु इतना सब कुछ होने के बाद भी आज जनसामान्य में या विद्वज्जनों में संस्थागत शिक्षाव्यवस्था का आग्रह कम नहीं होता है । यह स्थिति एक अत्यन्त व्यापक व्यवस्थातंत्र में अनिवार्य सी बन गई है।
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===== शिक्षा का लक्ष्य अर्थार्जन है =====
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जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये तथा सर्वतोमुखी श्रेष्ठत्व और सर्वप्रकार की समृद्धि प्राप्त करने के लिये समाजविज्ञानी और समाजहितैषी ऋषियों ने पुरुषार्थ चतुष्टय की व्यवस्था दी । इसमें धर्म को सभी लौकिक व्यवहारों का अधिष्ठान बताया और अर्थ तथा काम को धर्म के अधीन रखा । मोक्ष्य को जीवन का लक्ष्य बताया । परन्तु वर्तमान में यह मूल्यव्यवस्था बदल गई है । लौकिक व्यवहार में धर्म को एक साधन का स्थान प्राप्त हुआ, मोक्ष की कल्पना समाप्त हो गई। काम जीवन का लक्ष्य बना और अर्थ कामपूर्ति के लिये अनिवार्य साधन बन गया । इसलिये अर्थार्जन ही जीवन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण करणीय कार्य बन गया । रहते रहते स्वयं अर्थार्जन ही लक्ष्य बन गया
    
==References==
 
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