Difference between revisions of "प्रथम स्वदेशी वायुयान - मरुत्सखा"
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Revision as of 13:35, 11 January 2020
वेद तथा अनेक वेदेतर ग्रन्थों में वायुयान का वर्णन आता है । ऋग्वेद की भाषा जहाँ सांकेतिक है वहीं यजुर्वेद में वायुयान के अग्रभाग, पृष्ठभाग, नियंत्रण कक्ष तथा उर्जा स्रोत का स्पष्ट वर्णन आता है । राजा भोज के समराड्ण सूत्रधार ग्रन्थ में विमान बनाने का स्पष्ट वर्णन मिलता है । महर्षि दयानन्दने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ क्रग्वेदादिभाष्यभूमिकामें नौविमानविद्या विषयक प्रकरण में जल तथा वायुयान का वर्णन किया है । मुम्बई के शिवकर बापूजी तलपदे नामक वेदों के अध्येताने वेदोमें विमानविद्याको खोजना आरम्भ किया |
दस वर्षो के अथक प्रयासके बाद १८९५ ई. में मुम्बई की चौपाटी पर वेद ज्ञान पर आधारित शुद्ध स्वदेशी उपकरणोंसे निर्मित वायुयान का उन्होंने परीक्षण किया. मरुतूसखा नामक इस वायुयानकी आधे घण्टेकी खुले आकाशमें उडानके साक्षी रहे तत्कालीन सुप्रसिद्ध न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानडे तथा बडोदा नरेश सयाजीराव गायकवाड । यह घटना राईट बन्धुओं के विमान उड़ाने के सात वर्ष पूर्वकी है।
श्री शिवकर बापूजी तलपदे मुम्बई के सुप्रसिद्ध जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट्समें चित्रकलाके शिक्षक थे । प्रसिद्ध वैदिक विद्वान श्री श्रीपाद दामोदर सातवलेकर भी उस समय जे. जे. स्कूल में अध्ययनरत थे । दोनों ही वेदों के अध्येता तथा ऋषि दयानंद के भक्त थे | वायुयान निर्माणमें श्री तलपदेको मुम्बई के लोक निर्माण विभागमें कार्यरत वास्तुशास्त्रविदू श्री पिटकरने भी महत्त्वपूर्ण सहयोग fear | मरुतूसखा ने परीक्षण उडान में तो सफलता प्राप्त कर ली किन्तु अपने देश में परकीयों का शासन होने से श्री तलपदेजीको आवश्यक आर्थिक सहयोग तथा समर्थन नहीं मिला । अंग्रेज किसी भारतीयको विमान विद्याके आविष्कारक का सम्मान लेने देना नहीं चाहते थे | श्री तलपदे सातवलेकरजी के साथ मिलकर शामरावकृष्ण आणि मण्डली तथा वेद प्रचारिणी सभा मुम्बई के माध्यम से वेद प्रचार में संलयर थे । उन्होंने मराठी पत्र “आर्यधर्म' का सम्पादन भी किया था । “आर्यधर्म' के जनवरी १९०९ के अंकमें श्री तलपदेने अपने विमान विद्या सम्बन्धी ग्रन्थ “प्राचीन विमान कला” का विज्ञापन दिया था, जिसमें उन्होंने लिखा -
“परम पवित्र वेद, वैशेषिक दर्शन, रामायण, सृष्टि निर्मित पक्षीरूपी विमान व निरालंब परमधाम पहुँचाने वाला मनुष्य शरीर रूपी विमान, इन पांच साधनों द्वारा प्राचीन विमान कलाके तत्त्वों संदर्भमे मैं दश वर्षोंसे खोज कर रहा हूँ । इस प्रयत्न में अनेक सूक्ष्म तत्त्वों की खोज हुई है । इन उपलब्ध सभी उपयुक्त बातोंको सिद्ध कर और प्रायोगिक रूपसे मेरे देशबंधुओं के सामने प्रदर्शित कर उन्हें अपने पूर्वजों के कला-कौशल विषयक प्रत्यक्ष ज्ञान की जानकारी देने के लिये मैं यह प्रयत्न कर रहा हूँ, पर इसे सिद्ध कर प्रदर्शित करने के लिये बड़े पैमाने पर धन की आवश्यकता है, इसलिए कम से कम दस हजार रूपये तो प्रारम्भिक रूपमें इस कामके लिये हमारे पास होना आवश्यक है । इन सूक्ष्म सृष्टि तत्वों का निरीक्षण-परीक्षण करने के लिये प्रयोगशाला की आवश्यकता है । इसके बिना प्रयोगों की शरुआत ही संभव नहीं है । ऐसे काम या तो राज्याश्रय से या नव-नवीन अनुसंधान करने के लिये ही स्थापित लोकसंस्थाओंकी ओरसे होने चाहिए । परन्तु संप्रति इस प्रकार के सहयोग मिल पाने की कोई आशा और सम्भावना नहीं है । यह देखकर यह विचार किया है कि यथासम्भव स्वयं अपने आप ही कुछ करके देखा जाय । इसलिये मैंने “प्राचीन विमान कला' के सन्दर्भमें अब तक जो अनुसंधान किया है उसे पुस्तक रूपमें जनताके सामने रखनेका निश्चय किया है और इस प्रकार प्रस्तुत संकल्पित शोध-प्रयोगको और अधिक विकसित करनेके लिये लगनेवाली जो राशि है उसे प्राप्त करनेका विचार है । इसी ध्येय से प्रेरित होकर यह कार्य प्रारम्भ किया है । पूर्वजों के कला-कौशलादिको स्मरण कर मैं जो अपना यह कर्तव्य कर्म कर रहा हूँ उसे अब पूर्ण करना मेरे देशबंधुओं का कर्तव्य है । इसीलिये यह अनुरोध है कि वे इस पुस्तक के अधिकाधिक ग्राहक बनायें ।'
आज वैज्ञानिक दृष्टि से भारत विश्व के विकसित देशों की पंक्ति में खडा है किन्तु हमारा यह विकास स्वदेशी सिद्धान्त तथा स्वदेशी संसाधनों पर आधारित न होकर आयातीत है । अनेक चीजों में हम आज विदेशों पर निर्भर हैं जब कि एक शताब्दी पूर्व श्री शिवकर बापूजी तलपदेने स्वदेशी तकनीक तथा उपकरणोंके आधार पर विमान विद्या का सफल प्रदर्शन किया । श्री तलपदेजी द्वारा विकसित स्वदेशी विमान विद्या की पुस्तक का हमारे विश्वविद्यालयोंमें अध्ययन हो जिससे वेदों में निहित विज्ञान का उद्घाटन हो सके ।