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आज भी अनेक लोग साधु और संन्यासी बनते हैं। अनेक लोग मन्दिर में सेवा करने हेतु निकल पड़ते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे अनेक संगठनों में लोग प्रचारक बनते हैं। सेवा के प्रतिष्ठानों में लोग निःशुल्क काम करते हैं। शिक्षा के क्षेत्र को बाजार में समाविष्ट कर लिया गया है, इसलिये शिक्षक निःशुल्क नहीं पढ़ाते हैं। यदि शिक्षा क्षेत्र को भी धर्म के अन्तर्गत लाया जाता है और ज्ञानदान  को धर्मकार्य माना जाता है तो आज भी शिक्षक निःशुल्क  काम करने के लिये तैयार हो जायेंगे । हमें शिक्षा क्षेत्र को ही बाजार से मुक्त करने के प्रयास करने होंगे।
 
आज भी अनेक लोग साधु और संन्यासी बनते हैं। अनेक लोग मन्दिर में सेवा करने हेतु निकल पड़ते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे अनेक संगठनों में लोग प्रचारक बनते हैं। सेवा के प्रतिष्ठानों में लोग निःशुल्क काम करते हैं। शिक्षा के क्षेत्र को बाजार में समाविष्ट कर लिया गया है, इसलिये शिक्षक निःशुल्क नहीं पढ़ाते हैं। यदि शिक्षा क्षेत्र को भी धर्म के अन्तर्गत लाया जाता है और ज्ञानदान  को धर्मकार्य माना जाता है तो आज भी शिक्षक निःशुल्क  काम करने के लिये तैयार हो जायेंगे । हमें शिक्षा क्षेत्र को ही बाजार से मुक्त करने के प्रयास करने होंगे।
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इसके साथ ही यह भी सोचना पड़ेगा कि शिक्षक तो निःशुल्क शिक्षा देने के लिये तैयार हो जायेंगे परन्तु उनके निर्वाह का प्रश्न विकट हो जायेगा। एक तो सरकारी
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इसके साथ ही यह भी सोचना पड़ेगा कि शिक्षक तो निःशुल्क शिक्षा देने के लिये तैयार हो जायेंगे परन्तु उनके निर्वाह का प्रश्न विकट हो जायेगा। एक तो सरकारी व्यवस्था में ऐसा हो नहीं सकता है। वहाँ शिक्षक को न स्वतन्त्रता है न उसके सम्मान की किसीको चिन्ता है। सरकारी तन्त्र में सब नौकर हैं, सब कर्मचारी हैं, सब सेवक हैं। सारा सरकारी तन्त्र ही मानवीयता निरपेक्ष है। वहाँ बड़े से बड़े अधिकारी भी नौकर ही हैं। इसीलिये तो उसे नौकरशाही कहा जाता है। इस तन्त्र में शिक्षक स्वेच्छा और स्वतन्त्रता पूर्वक निःशुल्क शिक्षा देने के लिये सिद्ध नहीं हो सकता।
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निजी विद्यालयों की स्थिति तो इससे भी खराब है। निजी विद्यालय दो प्रकार के होते हैं। एक प्रकार के विद्यालय सामाजिक सांस्कृतिक संगठनों के द्वारा अथवा सेवाभावी व्यक्तियों के द्वारा चलाये जाते हैं । दूसरे प्रकार के विद्यालय पैसा कमाने की दृष्टि से चलाये जाते हैं। ये भी व्यक्तियों के द्वारा, संस्थाओं के द्वारा अथवा उद्योगगृहों के द्वारा चलाये जाते हैं। सेवाभावी संस्थाओं अथवा सांस्कृतिक संगठनों के द्वारा चलाये जाने वाले विद्यालयों में शिक्षकों के वेतन तो पहले से ही कम होते हैं। वेतन का मुद्दा तो अलग है, यहाँ भी शिक्षक अपने विषय में निर्णय करने हेतु स्वतन्त्र नहीं है। वह यदि कम वेतन में काम करता है तो भी वह उसकी स्वेच्छा नहीं है, विवशता है। स्वेच्छा और विवशता में कभी-कभी अन्तर करना असम्भव हो जाता है क्योंकि उसकी परीक्षा करने के अवसर न के बराबर होते हैं। ऐसे शिक्षक पढ़ाने के पैसे न लेने का निश्चय नहीं कर सकते हैं।
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भारतीय समाज में जब शिक्षा अर्थ निरपेक्ष थी और शिक्षक और छात्र भिक्षा माँगकर अपनी ज़िम्मेदारी पर विद्यालय चलाते थे तब समाज भी अपनी ज़िम्मेदारी समझने वाला था। वह शिक्षकों तथा गुरुकुलों के योगक्षेम की चिन्ता बराबर करता था। आज शिक्षक समाज पर ऐसा भरोसा नहीं कर सकते । सर्व सामान्य रूप से समाज को शिक्षक के प्रति आदर नहीं है और शिक्षकों को समाज पर भरोसा नहीं है। ऐसे परस्पर अविश्वास और अश्रद्धा के वातावरण में अर्थ निरपेक्ष शिक्षा सम्भव नहीं हो सकती।
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संचालकों के द्वारा निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करना एक बात है और शिक्षकों द्वारा पढ़ाने के पैसे नहीं लेना सर्वथा भिन्न बात है। सही अर्थ में अर्थनिरपेक्ष शिक्षा तभी बन सकती है जब शिक्षक स्वतन्त्र हो । आज शिक्षक स्वतन्त्र नहीं है। वह चाहे तो भी स्वतन्त्र नहीं हो सकता है। यह मुद्दा शिक्षा की स्वायत्तता के मुद्दे के साथ सीधा जुड़ा हुआ है । स्वायत्तता के मुद्दे की चर्चा स्वतन्त्र रूप से करने की आवश्यकता है। हम वह करेंगे भी। अभी तो इतना कहना सुसंगत है कि बिना स्वायत्तता के शिक्षा अर्थ निरपेक्ष हो नहीं सकती।
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==== शिक्षक स्वतंत्र होना चाहिए ====
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शिक्षक स्वतन्त्र होना चाहिये यह बात सत्य है, परन्तु कोई भी व्यवस्था शिक्षक को स्वतन्त्र नहीं बना सकती। शिक्षक स्वयं स्वतन्त्र होना नहीं चाहता है। स्वतन्त्रता के साथ दायित्व एक सिक्के के दो पहलुओं की तरह जुड़ा है। स्वतन्त्र होने के लिये शिक्षक को दायित्व का स्वीकार प्रथम करना होगा । दायित्व के साथ-साथ अपने ज्ञानसामर्थ्य और शुद्ध वृत्ति की परीक्षा हेतु नित्यसिद्ध भी रहना होगा। स्वतन्त्रता दायित्व के साथ-साथ अनेक प्रकार के आहवानों से भी भरी होती है। अनेक प्रकार की सुरक्षाओं और सुविधाओं का मूल्य चुकाकर ही व्यक्ति स्वतन्त्रता का उपभोग ले सकता है। दायित्व के अभाव में स्वतन्त्रता, स्वच्छन्दता और स्वैरविहार में परिणत हो जाती है। स्वैरविहार अथवा स्वच्छन्दता व्यक्ति का अथवा समाज का भला नहीं कर सकते । सुरक्षा और सुविधा का मोह तो स्वतन्त्रता का नाश ही कर देता है । स्वतन्त्रता आध्यात्मिक मूल्य है और व्यक्ति की स्वाभाविक चाह है परन्तु मोह ग्रस्त व्यक्ति उसे समझता नहीं है। आज शिक्षकों की स्थिति ऐसी मोह ग्रस्त हो गई है। वैसे पूरा समाज ही सुरक्षा और सुविधा के आकर्षण में फंसकर मोह ग्रस्त और दुर्बल हो गया है । इसलिये स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ और मूल्य समझता ही नहीं है । इस स्थिति में शिक्षक का अर्थ निरपेक्ष शिक्षा का पुरोधा होना अत्यन्त कठिन है।
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प्रश्न गम्भीर है। सरकार, शिक्षा संस्थाओं के संचालक, समाज, शैक्षिक संगठन, स्वयं शिक्षक आदि शिक्षा के साथ जुड़ा एक भी पक्ष अर्थ निरपेक्ष शिक्षा का
    
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या
 
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या
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