Difference between revisions of "बंगाल में सम्पन्न चेचक का टीकाकरण"

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Revision as of 13:46, 10 December 2019

भारत के इस भाग के कई ब्राह्मणों एवं चिकित्सकों के सहयोग से बंगाल में सम्पन्न चेचक की टीकाकरण कार्यवाही का लेखाजोखा यहाँ दिया जा रहा है।

बंगाल में टीकाकरण कार्यक्रम को यहाँ के स्थानीय लोगों में *टीका' नाम से जाना जाता है। जहाँ तक मुझे ज्ञात हुआ है यहाँ यह प्रथा करीब १५० वर्षों से बदस्तूर जारी है। ब्राह्मणों के अभिलेखों के अनुसार कासिम बाजार के रास्ते के लगभग मध्य में गंगा के तट पर अवस्थित एक छोटे से कस्बे चम्पानगर के एक वैद्य धन्वंतरि द्वारा सबसे पहला टीका दिया गया। उनके इस कार्य की दास्तान लोगों के स्मृति पटल पर एक महान कार्य के रूप में अंकित है। इसे एक रहस्यपूर्ण कार्य मानते हुए वे कहते हैं कि ईश्वर ने उन्हें स्वप्न में ऐसा कार्य करने के लिए प्रेरित किया था।

यह शल्यक्रिया करने कि उनकी पद्धति यह है कि वे इसमें से थोड़ासा मवाद (जब चेचक की फुँसियाँ पकने लगती हैं तथा भर जाती हैं) निकालते हैं तथा इन्हें बड़ी नुकीली पैनी सुई से छेदते हैं। इस तरह से वे इनमें सुई चुभो- चुभोकर असंच्छद पेशी में या कई बार मस्तक के भाग की फुंसियों से मवाद निकालते हैं और उसके बाद उस भाग पर उबले हुए चावल से तैयार किया गया कुछ लेप लगाकर उसे ढक देते हैं।

जब वे इस शल्यक्रया द्वारा टीकाकरण किए गए व्यक्ति पर त्वरित परिणाम लाना चाहते हैं तो उस मरीज को उस मवाद के थोड़े से अंश को मिलाकर बनी हुई गोली तथा उबला हुआ चावल शल्यक्रिया के तुरंत बाद देते हैं । आगे दो दिन तक दोपहर को उसे देना चालू रखते हैं।

जिन स्थानों पर सुई चुभोकर छेदन-क्रिया की गई होती है वे स्थान सामान्यत: मवाद से भर जाते हैं, मवाद रिस जाता है और यदि शल्यक्रिया का मरीज पर कोई असर नहीं होता है तथा मरीज चेचक से पीड़ित रहता है या इसके विपरीत उन रंध्रों से मवाद रिसता है तथा बुखार भी नहीं आता है या फुंसियाँ बढ़ती नहीं हैं तो इससे आगे संक्रमण का खतरा नहीं रहता है।

सुई चुभोकर किए गए ये छेद काले पड़ने लगते हैं तथा सूख जाते हैं और अन्य नई फुंसियाँ नहीं निकलती हैं।

टीका दिए गए व्यक्ति की आयु एवं शक्ति के अनुसार धीरे धीरे बुखार उतर जाता है लेकिन सामान्य रूप से ऐसा तीन या चार दिन के बाद होता है। वे मरीज के शरीर पर ठंडे पानी की भीगी हुई कपड़े की पढ्टियाँ रखकर उसके शरीर के तापमान को नियंत्रित रखने का प्रयास करते हैं। बुखार आने तक इस क्रिया को यथावश्यक रूप में करते हैं। प्राय: ठंडे पानी से मरीज को स्नान भी कराते हैं।

यदि फुंसियों का निकलना बंद हो जाता है तो वे प्राय: मरीज को ठंडे पानी से स्नान कराते हैं; साथ ही, वे मरीज को गरम दवाएँ भी देते हैं। यदि वे उसे संप्रवाही प्रकार का पाते हैं तो वे ऐसे मरीज को ठंडे पानी से स्नान नहीं कराते परन्तु उसे अत्यंत ठंडा रखते हैं और ठंड़ी दवाएँ देते हैं। मैं उनकी इस शल्यक्रिया की कार्यवाही की सफलता या इस रोग के उपचार की उनकी इस पद्धति के बारे में कुछ भी नहीं कह सकता लेकिन मैंने इससे एक बात स्वयं अच्छी तरह जान ली है कि यह बीमारी अप्रैल एवं मई में अपना प्रकोप फैलाती है।

(लेखक : आर कोल्ट का ओलिवर कोल्ट को पत्र १० फर. १७३१, धर्मपाल की पुस्तक - १८वीं शताब्दी में भारत में विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान से उद्धृत )