Difference between revisions of "Adiparva Adhyaya 33 (आदिपर्वणि अध्यायः ३३)"
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− | सचक्रं क्षुरपर्यन्तमपश्यदमृतान्तिके। | + | सौतिरुवाच |
− | + | जाम्बूनदमयो भूत्वा मरीचिनिकरोज्ज्वलः। | |
− | परिभ्रमन्तमनिशं तीक्ष्णधारमयस्मयम्॥ 1-33-2 | + | प्रविवेश बलात्पक्षी वारिवेग इवार्णवम्॥ 1-33-1 |
− | + | सचक्रं क्षुरपर्यन्तमपश्यदमृतान्तिके। | |
− | ज्वलनार्कप्रभं घोरं छेदनं सोमहारिणाम्। | + | परिभ्रमन्तमनिशं तीक्ष्णधारमयस्मयम्॥ 1-33-2 |
− | + | ज्वलनार्कप्रभं घोरं छेदनं सोमहारिणाम्। | |
− | घोररूपं तदत्यर्थं यन्त्रं देवैः सुनिर्मितम्॥ 1-33-3 | + | घोररूपं तदत्यर्थं यन्त्रं देवैः सुनिर्मितम्॥ 1-33-3 |
− | + | तस्यान्तरं स दृष्ट्वैव पर्यवर्तत खेचरः। | |
− | तस्यान्तरं स दृष्ट्वैव पर्यवर्तत खेचरः। | + | अरान्तरेणाभ्यपतत्संक्षिप्याङ्गं क्षणेन ह॥ 1-33-4 |
− | + | अधश्चक्रस्य चैवात्र दीप्तानलसमद्युती। | |
− | अरान्तरेणाभ्यपतत्संक्षिप्याङ्गं क्षणेन ह॥ 1-33-4 | + | विद्युज्जिह्वौ महावीर्यौ दीप्तास्यौ दीप्तलोचनौ॥ 1-33-5 |
− | + | चक्षुर्विषौ महाघोरौ नित्यं क्रुद्धौ तरस्विनौ। | |
− | अधश्चक्रस्य चैवात्र दीप्तानलसमद्युती। | + | रक्षार्थमेवामृतस्य ददर्श भुजगोत्तमौ॥ 1-33-6 |
− | + | सदा संरब्धनयनौ सदा चानिमिषेक्षणौ। | |
− | विद्युज्जिह्वौ महावीर्यौ दीप्तास्यौ दीप्तलोचनौ॥ 1-33-5 | + | तयोरेकोऽपि यं पश्येत्स तूर्णं भस्मसाद्भवेत्॥ 1-33-7 |
− | + | तयोश्चक्षूंषि रजसा सुपर्णः सहसावृणोत्। | |
− | चक्षुर्विषौ महाघोरौ नित्यं क्रुद्धौ तरस्विनौ। | + | ताभ्यामदृष्टरूपोऽसौ सर्वतः समताडयत्॥ 1-33-8 |
− | + | तयोरङ्गे समाक्रम्य वैनतेयोऽन्तरिक्षगः। | |
− | रक्षार्थमेवामृतस्य ददर्श भुजगोत्तमौ॥ 1-33-6 | + | आच्छिनत्तरसा मध्ये सोममभ्यद्रवत्ततः॥ 1-33-9 |
− | + | समुत्पाट्यामृतं तत्र वैनतेयस्ततो बली। | |
− | सदा संरब्धनयनौ सदा चानिमिषेक्षणौ। | + | उत्पपात जवेनैव यन्त्रमुन्मथ्य वीर्यवान्॥ 1-33-10 |
− | + | अपीत्वैवामृतं पक्षी परिगृह्याशु निःसृतः। | |
− | तयोरेकोऽपि यं पश्येत्स तूर्णं भस्मसाद्भवेत्॥ 1-33-7 | + | आगच्छदपरिश्रान्त आवार्यार्कप्रभां ततः॥ 1-33-11 |
− | + | विष्णुना च तदाकाशे वैनतेयः समेयिवान्। | |
− | तयोश्चक्षूंषि रजसा सुपर्णः सहसावृणोत्। | + | तस्य नाराणस्तुष्टस्तेनालौल्येन कर्मणा॥ 1-33-12 |
− | + | तमुवाचाव्ययो देवो वरदोऽस्मीति खेचरम्। | |
− | ताभ्यामदृष्टरूपोऽसौ सर्वतः समताडयत्॥ 1-33-8 | + | स वव्रे तव तिष्ठेयमुपरीत्यन्तरिक्षगः॥ 1-33-13 |
− | + | उवाच चैनं भूयोऽपि नारायणमिदं वचः। | |
− | तयोरङ्गे समाक्रम्य वैनतेयोऽन्तरिक्षगः। | + | अजरश्चामरश्च स्याममृतेन विनाप्यहम्॥ 1-33-14 |
− | + | एवमस्त्विति तं विष्णुरुवाच विनतासुतम्। | |
− | आच्छिनत्तरसा मध्ये सोममभ्यद्रवत्ततः॥ 1-33-9 | + | प्रतिगृह्य वरौ तो च गरुडो विष्णुमब्रवीत्॥ 1-33-15 |
− | + | भवतेऽपि वरं दद्यां वृणोतु भगवानपि। | |
− | समुत्पाट्यामृतं तत्र वैनतेयस्ततो बली। | + | तं वव्रे वाहनं विष्णुर्गरुत्मन्तं महाबलम्॥ 1-33-16 |
− | + | ध्वजं च चक्रे भगवानुपरि स्थास्यसीति तम्। | |
− | उत्पपात जवेनैव यन्त्रमुन्मथ्य वीर्यवान्॥ 1-33-10 | + | एवमस्त्विति तं देवमुक्त्वा नारायणं खगः॥ 1-33-17 |
− | + | वव्राज तरसा वेगाद्वायुं स्पर्धन्महाजवः। | |
− | अपीत्वैवामृतं पक्षी परिगृह्याशु निःसृतः। | + | तं व्रजन्तं खगश्रेष्ठं वज्रेणेन्द्रोऽभ्यताडयत्॥ 1-33-18 |
− | + | हरन्तममृतं रोषाद्गरुडं पक्षिणां वरम्। | |
− | आगच्छदपरिश्रान्त आवार्यार्कप्रभां ततः॥ 1-33-11 | + | तमुवाचेन्द्रमाक्रन्दे गरुडः पततां वरः॥ 1-33-19 |
− | + | प्रहसञ्श्लक्ष्णया वाचा तथा वज्रसमाहतः। | |
− | विष्णुना च तदाकाशे वैनतेयः समेयिवान्। | + | ऋषेर्मानं करिष्यामि वज्रं यस्यास्थिसम्भवम्॥ 1-33-20 |
− | + | वज्रस्य च करिष्यामि तवैव च शतक्रतो। | |
− | तस्य नाराणस्तुष्टस्तेनालौल्येन कर्मणा॥ 1-33-12 | + | एतत्पत्रं त्यजाम्येकं यस्यान्तं नोपलप्स्यसे॥ 1-33-21 |
− | + | न च वज्रनिपातेन रुजा मेऽस्तीह काचन। | |
− | तमुवाचाव्ययो देवो वरदोऽस्मीति खेचरम्। | + | एवमुक्त्वा ततः पत्रमुत्ससर्ज स पक्षिराट्॥ 1-33-22 |
− | + | तदुत्सृष्टमभिप्रेक्ष्य तस्य पर्णमनुत्तमम्। | |
− | स वव्रे तव तिष्ठेयमुपरीत्यन्तरिक्षगः॥ 1-33-13 | + | हृष्टानि सर्वभूतानि नाम चक्रुर्गरुत्मतः॥ 1-33-23 |
− | + | सुरूपं पत्रमालक्ष्य सुपर्णः अयं भवत्विति। | |
− | उवाच चैनं भूयोऽपि नारायणमिदं वचः। | + | तद्दृष्ट्वा महदाश्चर्यं सहस्राक्षः पुरन्दरः। |
− | + | खगो महदिदं भूतमिति मत्वाभ्यभाषत॥ 1-33-24 | |
− | अजरश्चामरश्च स्याममृतेन विनाप्यहम्॥ 1-33-14 | + | शक्र उवाच |
− | + | बलं विज्ञातुमिच्छामि यत्ते परमनुत्तमम्। | |
− | एवमस्त्विति तं विष्णुरुवाच विनतासुतम्। | + | सख्यं चानन्तमिच्छामि त्वया सह खगोत्तम॥ 1-33-25 |
− | + | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥ 33 ॥ | |
− | प्रतिगृह्य वरौ तो च गरुडो विष्णुमब्रवीत्॥ 1-33-15 | + | [[:Category:Garuda|''Garuda'']] [[:Category:Nectar|''Nectar'']] [[:Category:boon|''boon'']] [[:Category:Vajra|''Vajra'']] |
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− | भवतेऽपि वरं दद्यां वृणोतु भगवानपि। | + | [[:Category:गरुड|''गरुड'']] [[:Category:अमृत|''अमृत'']] [[:Category:गरुडको विष्णुसे वर|''गरुडको विष्णुसे वर'']] [[:Category:वरदान|''वरदान'']] |
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− | तं वव्रे वाहनं विष्णुर्गरुत्मन्तं महाबलम्॥ 1-33-16 | + | [[:Category:इन्द्र|''इन्द्र'']] [[:Category:इन्द्रका वज्रप्रहार|''इन्द्रका वज्रप्रहार'']] |
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− | ध्वजं च चक्रे भगवानुपरि स्थास्यसीति तम्। | ||
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− | एवमस्त्विति तं देवमुक्त्वा नारायणं खगः॥ 1-33-17 | ||
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− | वव्राज तरसा वेगाद्वायुं स्पर्धन्महाजवः। | ||
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− | तं व्रजन्तं खगश्रेष्ठं वज्रेणेन्द्रोऽभ्यताडयत्॥ 1-33-18 | ||
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− | हरन्तममृतं रोषाद्गरुडं पक्षिणां वरम्। | ||
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− | तमुवाचेन्द्रमाक्रन्दे गरुडः पततां वरः॥ 1-33-19 | ||
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− | प्रहसञ्श्लक्ष्णया वाचा तथा वज्रसमाहतः। | ||
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− | ऋषेर्मानं करिष्यामि वज्रं यस्यास्थिसम्भवम्॥ 1-33-20 | ||
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− | वज्रस्य च करिष्यामि तवैव च शतक्रतो। | ||
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− | एतत्पत्रं त्यजाम्येकं यस्यान्तं नोपलप्स्यसे॥ 1-33-21 | ||
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− | न च वज्रनिपातेन रुजा मेऽस्तीह काचन। | ||
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− | बलं विज्ञातुमिच्छामि यत्ते परमनुत्तमम्। | ||
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− | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥ 33 ॥ |
Latest revision as of 09:19, 17 October 2019
सौतिरुवाच जाम्बूनदमयो भूत्वा मरीचिनिकरोज्ज्वलः। प्रविवेश बलात्पक्षी वारिवेग इवार्णवम्॥ 1-33-1 सचक्रं क्षुरपर्यन्तमपश्यदमृतान्तिके। परिभ्रमन्तमनिशं तीक्ष्णधारमयस्मयम्॥ 1-33-2 ज्वलनार्कप्रभं घोरं छेदनं सोमहारिणाम्। घोररूपं तदत्यर्थं यन्त्रं देवैः सुनिर्मितम्॥ 1-33-3 तस्यान्तरं स दृष्ट्वैव पर्यवर्तत खेचरः। अरान्तरेणाभ्यपतत्संक्षिप्याङ्गं क्षणेन ह॥ 1-33-4 अधश्चक्रस्य चैवात्र दीप्तानलसमद्युती। विद्युज्जिह्वौ महावीर्यौ दीप्तास्यौ दीप्तलोचनौ॥ 1-33-5 चक्षुर्विषौ महाघोरौ नित्यं क्रुद्धौ तरस्विनौ। रक्षार्थमेवामृतस्य ददर्श भुजगोत्तमौ॥ 1-33-6 सदा संरब्धनयनौ सदा चानिमिषेक्षणौ। तयोरेकोऽपि यं पश्येत्स तूर्णं भस्मसाद्भवेत्॥ 1-33-7 तयोश्चक्षूंषि रजसा सुपर्णः सहसावृणोत्। ताभ्यामदृष्टरूपोऽसौ सर्वतः समताडयत्॥ 1-33-8 तयोरङ्गे समाक्रम्य वैनतेयोऽन्तरिक्षगः। आच्छिनत्तरसा मध्ये सोममभ्यद्रवत्ततः॥ 1-33-9 समुत्पाट्यामृतं तत्र वैनतेयस्ततो बली। उत्पपात जवेनैव यन्त्रमुन्मथ्य वीर्यवान्॥ 1-33-10 अपीत्वैवामृतं पक्षी परिगृह्याशु निःसृतः। आगच्छदपरिश्रान्त आवार्यार्कप्रभां ततः॥ 1-33-11 विष्णुना च तदाकाशे वैनतेयः समेयिवान्। तस्य नाराणस्तुष्टस्तेनालौल्येन कर्मणा॥ 1-33-12 तमुवाचाव्ययो देवो वरदोऽस्मीति खेचरम्। स वव्रे तव तिष्ठेयमुपरीत्यन्तरिक्षगः॥ 1-33-13 उवाच चैनं भूयोऽपि नारायणमिदं वचः। अजरश्चामरश्च स्याममृतेन विनाप्यहम्॥ 1-33-14 एवमस्त्विति तं विष्णुरुवाच विनतासुतम्। प्रतिगृह्य वरौ तो च गरुडो विष्णुमब्रवीत्॥ 1-33-15 भवतेऽपि वरं दद्यां वृणोतु भगवानपि। तं वव्रे वाहनं विष्णुर्गरुत्मन्तं महाबलम्॥ 1-33-16 ध्वजं च चक्रे भगवानुपरि स्थास्यसीति तम्। एवमस्त्विति तं देवमुक्त्वा नारायणं खगः॥ 1-33-17 वव्राज तरसा वेगाद्वायुं स्पर्धन्महाजवः। तं व्रजन्तं खगश्रेष्ठं वज्रेणेन्द्रोऽभ्यताडयत्॥ 1-33-18 हरन्तममृतं रोषाद्गरुडं पक्षिणां वरम्। तमुवाचेन्द्रमाक्रन्दे गरुडः पततां वरः॥ 1-33-19 प्रहसञ्श्लक्ष्णया वाचा तथा वज्रसमाहतः। ऋषेर्मानं करिष्यामि वज्रं यस्यास्थिसम्भवम्॥ 1-33-20 वज्रस्य च करिष्यामि तवैव च शतक्रतो। एतत्पत्रं त्यजाम्येकं यस्यान्तं नोपलप्स्यसे॥ 1-33-21 न च वज्रनिपातेन रुजा मेऽस्तीह काचन। एवमुक्त्वा ततः पत्रमुत्ससर्ज स पक्षिराट्॥ 1-33-22 तदुत्सृष्टमभिप्रेक्ष्य तस्य पर्णमनुत्तमम्। हृष्टानि सर्वभूतानि नाम चक्रुर्गरुत्मतः॥ 1-33-23 सुरूपं पत्रमालक्ष्य सुपर्णः अयं भवत्विति। तद्दृष्ट्वा महदाश्चर्यं सहस्राक्षः पुरन्दरः। खगो महदिदं भूतमिति मत्वाभ्यभाषत॥ 1-33-24 शक्र उवाच बलं विज्ञातुमिच्छामि यत्ते परमनुत्तमम्। सख्यं चानन्तमिच्छामि त्वया सह खगोत्तम॥ 1-33-25 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥ 33 ॥ Garuda Nectar boon Vajra Vajra attack Indra Vajra attack by Indra गरुड अमृत गरुडको विष्णुसे वर वरदान विष्णुको गरुडसे वरदान वज्र वज्रप्रहार इन्द्र इन्द्रका वज्रप्रहार