Difference between revisions of "Adiparva Adhyaya 29 (आदिपर्वणि अध्यायः २९)"
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− | द्विजोत्तम विनिर्गच्छ तूर्णमास्यादपावृतात्। | + | सौतिरुवाच |
− | + | तस्य कण्ठमनुप्राप्तो ब्राह्मणः सह भार्यया। | |
− | न हि मे ब्राह्मणो वध्यः पापेष्वपि रतः सदा॥ 1-29-2 | + | दहन्दीप्त इवाङ्गारस्तमुवाचान्तरिक्षगः॥ 1-29-1 |
− | + | द्विजोत्तम विनिर्गच्छ तूर्णमास्यादपावृतात्। | |
− | ब्रुवाणमेवं गरुडं ब्राह्मणः प्रत्यभाषत। | + | न हि मे ब्राह्मणो वध्यः पापेष्वपि रतः सदा॥ 1-29-2 |
− | + | ब्रुवाणमेवं गरुडं ब्राह्मणः प्रत्यभाषत। | |
− | निषादी मम भार्येयं निर्गच्छतु मया सह॥ 1-29-3 | + | निषादी मम भार्येयं निर्गच्छतु मया सह॥ 1-29-3 |
− | + | गरुड उवाच | |
− | गरुड उवाच | + | एतामपि निषादीं त्वं परिगृह्याशु निष्पत। |
− | + | तूर्णं सम्भावयात्मानमजीर्णं मम तेजसा॥ 1-29-4 | |
− | एतामपि निषादीं त्वं परिगृह्याशु निष्पत। | + | सौतिरुवाच |
− | + | ततः स विप्रो निष्क्रान्तो निषादीसहितस्तदा। | |
− | तूर्णं सम्भावयात्मानमजीर्णं मम तेजसा॥ 1-29-4 | + | वर्धयित्वा च गरुडमिष्टं देशं जगाम ह॥ 1-29-5 |
− | + | सहभार्ये विनिष्क्रान्ते तस्मिन्विप्रे च पक्षिराट्। | |
− | सौतिरुवाच | + | वितत्य पक्षावाकाशमुत्पपात मनोजवः॥ 1-29-6 |
− | + | ततोऽपश्यत्स पितरं पृष्टश्चाख्यातवान्पितुः। | |
− | ततः स विप्रो निष्क्रान्तो निषादीसहितस्तदा। | + | यथान्यायममेयात्मा तं चोवाच महानृषिः॥ 1-29-7 |
− | + | कश्यप उवाच | |
− | वर्धयित्वा च गरुडमिष्टं देशं जगाम ह॥ 1-29-5 | + | कच्चिद्वः कुशलं नित्यं भोजने बहुलं सुत। |
− | + | कच्चिच्च मानुषे लोके तवान्नं विद्यते बहु॥ 1-29-8 | |
− | सहभार्ये विनिष्क्रान्ते तस्मिन्विप्रे च पक्षिराट्। | + | गरुड उवाच |
− | + | माता मे कुशला शश्वत्तथा भ्राता तथा ह्यहम्। | |
− | वितत्य पक्षावाकाशमुत्पपात मनोजवः॥ 1-29-6 | + | न हि मे कुशलं तात भोजने बहुले सदा॥ 1-29-9 |
− | + | अहं हि सर्पैः प्रहितः सोममाहर्तुमुत्तमम्। | |
− | ततोऽपश्यत्स पितरं पृष्टश्चाख्यातवान्पितुः। | + | मातुर्दास्यविमोक्षार्थमाहरिष्ये तमद्य वै॥ 1-29-10 |
− | + | मात्रा चात्र समादिष्टो निषादान्भक्षयेति ह। | |
− | यथान्यायममेयात्मा तं चोवाच महानृषिः॥ 1-29-7 | + | न च मे तृप्तिरभवद्भक्षयित्वा सहस्रशः॥ 1-29-11 |
− | + | तस्माद्भक्ष्यं त्वमपरं भगवन्प्रदिशस्व मे। | |
− | कश्यप उवाच | + | यद्भुक्त्वामृतमाहर्तुं समर्थः स्यामहं प्रभो। |
− | + | क्षुत्पिपासाविघातार्थं भक्ष्यमाख्यातु मे भवान्॥ 1-29-12 | |
− | कच्चिद्वः कुशलं नित्यं भोजने बहुलं सुत। | + | कश्यप उवाच |
− | + | इदं सरो महापुण्यं देवलोकेऽपि विश्रुतम्। | |
− | कच्चिच्च मानुषे लोके तवान्नं विद्यते बहु॥ 1-29-8 | + | यत्र कूर्माग्रजं हस्ती सदा कर्षत्यवाङ्मुखः। |
− | + | तयोर्जन्मान्तरे वैरं सम्प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥ 1-29-13 | |
− | गरुड उवाच | + | तन्मे तत्त्वं निबोधस्व यत्प्रमाणौ च तावुभौ। |
− | + | आसीद्विभावसुः नाम महर्षिः कोपनो भृशम्॥ 1-29-14 | |
− | माता मे कुशला शश्वत्तथा भ्राता तथा ह्यहम्। | + | भ्राता तस्यानुजश्चासीत्सुप्रतीको महातपाः। |
− | + | स नेच्छति धनं भ्राता सहैकस्थं महामुनिः॥ 1-29-15 | |
− | न हि मे कुशलं तात भोजने बहुले सदा॥ 1-29-9 | + | विभागं कीर्तयत्येव सुप्रतीको हि नित्यशः। |
− | + | अथाब्रवीच्च तं भ्राता सुप्रतीकं विभावसुः॥ 1-29-16 | |
− | अहं हि सर्पैः प्रहितः सोममाहर्तुमुत्तमम्। | + | विभागं बहवो मोहात्कर्तुमिच्छन्ति नित्यशः। |
− | + | ततो विभक्तास्त्वन्योन्यं विक्रुध्यन्तेऽर्थमोहिताः॥ 1-29-17 | |
− | मातुर्दास्यविमोक्षार्थमाहरिष्ये तमद्य वै॥ 1-29-10 | + | ततः स्वार्थपरान्मूढान्पृथग्भूतान्स्वकैर्धनैः। |
− | + | विदित्वा भेदयन्त्येतानमित्रा मित्ररूपिणः॥ 1-29-18 | |
− | मात्रा चात्र समादिष्टो निषादान्भक्षयेति ह। | + | विदित्वा चापरे भिन्नानन्तरेषु पतन्त्यथ। |
− | + | भिन्नानामतुलो नाशः क्षिप्रमेव प्रवर्तते॥ 1-29-19 | |
− | न च मे तृप्तिरभवद्भक्षयित्वा सहस्रशः॥ 1-29-11 | + | तस्माद्विभागं भ्रातॄणां न प्रशंसन्ति साधवः। |
− | + | एवमुक्तः सुप्रतीको भागं कीर्तयतेऽनिशम्। | |
− | तस्माद्भक्ष्यं त्वमपरं भगवन्प्रदिशस्व मे। | + | एवं निर्बध्यमानस्तु शशापैनं विभावसुः। |
− | + | गुरुशास्त्रे निबद्धानामन्योन्येनाभिशङ्किनाम्॥ 1-29-20 | |
− | यद्भुक्त्वामृतमाहर्तुं समर्थः स्यामहं प्रभो। | + | नियन्तुं न हि शक्यस्त्वं भेदतो धनमिच्छसि। |
− | + | यस्मात्तस्मात्सुप्रतीक हस्तित्वं समवाप्स्यसि॥ 1-29-21 | |
− | क्षुत्पिपासाविघातार्थं भक्ष्यमाख्यातु मे भवान्॥ 1-29-12 | + | शप्तस्त्वेवं सुप्रतीको विभावसुमथाब्रवीत्। |
− | + | त्वमप्यन्तर्जलचरः कच्छपः सम्भविष्यसि॥ 1-29-22 | |
− | कश्यप उवाच | + | एवमन्योन्यशापात्तौ सुप्रतीकविभावसू। |
− | + | गजकच्छपतां प्राप्तावर्थार्थं मूढचेतसौ॥ 1-29-23 | |
− | इदं सरो महापुण्यं देवलोकेऽपि विश्रुतम्। | + | रोषदोषानुषङ्गेण तिर्यग्योनिगतावुभौ। |
− | + | परस्परद्वेषरतौ प्रमाणबलदर्पितौ॥ 1-29-24 | |
− | यत्र कूर्माग्रजं हस्ती सदा कर्षत्यवाङ्मुखः। | + | सरस्यस्मिन्महाकायौ पूर्ववैरानुसारिणौ। |
− | + | तयोरन्यतरः श्रीमान्समुपैति महागजः॥ 1-29-25 | |
− | तयोर्जन्मान्तरे वैरं सम्प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥ 1-29-13 | + | यस्य बृंहितशब्देन कूर्मोऽप्यन्तर्जलेशयः। |
− | + | उत्थितोऽसौ महाकायः कृत्स्नं विक्षोभयन्सरः॥ 1-29-26 | |
− | तन्मे तत्त्वं निबोधस्व यत्प्रमाणौ च तावुभौ। | + | यं दृष्ट्वा वेष्टितकरः पतत्येष गजो जलम्। |
− | + | दन्तहस्ताग्रलाङ्गूलपादवेगेन वीर्यवान्॥ 1-29-27 | |
− | आसीद्विभावसुः नाम महर्षिः कोपनो भृशम्॥ 1-29-14 | + | विक्षोभयंस्ततो नागः सरो बहुझषाकुलम्। |
− | + | कूर्मोऽप्यभ्युद्यतशिरा युद्धायाभ्येति वीर्यवान्॥ 1-29-28 | |
− | भ्राता तस्यानुजश्चासीत्सुप्रतीको महातपाः। | + | षडुच्छ्रितो योजनानि गजस्तद्द्विगुणायतः। |
− | + | कूर्मस्त्रियोजनोत्सेधो दशयोजनमण्डलः॥ 1-29-29 | |
− | स नेच्छति धनं भ्राता सहैकस्थं महामुनिः॥ 1-29-15 | + | तावुभौ युद्धसम्मत्तौ परस्परवधैषिणौ। |
− | + | उपयुज्याशु कर्मेदं साधयेप्सितमात्मनः॥ 1-29-30 | |
− | विभागं कीर्तयत्येव सुप्रतीको हि नित्यशः। | + | महाभ्रघनसंकाशं तं भुक्त्वामृतमानय। |
− | + | महागिरिसमप्रख्यं घोररूपं च हस्तिनम्॥ 1-29-31 | |
− | अथाब्रवीच्च तं भ्राता सुप्रतीकं विभावसुः॥ 1-29-16 | + | सौतिरुवाच |
− | + | इत्युक्त्वा गरुडं सोऽथ माङ्गल्यमकरोत्तदा। | |
− | विभागं बहवो मोहात्कर्तुमिच्छन्ति नित्यशः। | + | युध्यतः सह देवैस्ते युद्धे भवतु मङ्गलम्॥ 1-29-32 |
− | + | पूर्णकुम्भो द्विजा गावो यच्चान्यत्किञ्चिदुत्तमम्। | |
− | ततो विभक्तास्त्वन्योन्यं विक्रुध्यन्तेऽर्थमोहिताः॥ 1-29-17 | + | शुभं स्वस्त्ययनं चापि भविष्यति तवाण्डज॥ 1-29-33 |
− | + | युध्यमानस्य संग्रामे देवैः सार्धं महाबल। | |
− | ततः स्वार्थपरान्मूढान्पृथग्भूतान्स्वकैर्धनैः। | + | ऋचो यजूंषि सामानि पवित्राणि हवींषि च॥ 1-29-34 |
− | + | रहस्यानि च सर्वाणि सर्वे वेदाश्च ते बलम्। | |
− | विदित्वा भेदयन्त्येतानमित्रा मित्ररूपिणः॥ 1-29-18 | + | इत्युक्तो गरुडः पित्रा गतस्तं ह्रदमन्तिकात्॥ 1-29-35 |
− | + | अपश्यन्निर्मलजलं नानापक्षिसमाकुलम्। | |
− | विदित्वा चापरे भिन्नानन्तरेषु पतन्त्यथ। | + | स तत्स्मृत्वा पितुर्वाक्यं भीमवेगोऽन्तरिक्षगः॥ 1-29-36 |
− | + | नखेन गजमेकेन कूर्ममेकेन चाक्षिपत्। | |
− | भिन्नानामतुलो नाशः क्षिप्रमेव प्रवर्तते॥ 1-29-19 | + | समुत्पपात चाकाशं तत उच्चैर्विहङ्गमः॥ 1-29-37 |
− | + | सः अलम्बं तीर्थमासाद्य देववृक्षानुपागमत्। | |
− | तस्माद्विभागं भ्रातॄणां न प्रशंसन्ति साधवः। | + | ते भीताः समकम्पन्त तस्य पक्षानिलाहताः॥ 1-29-38 |
− | + | न नो भञ्ज्यादिति तदा दिव्याः कनकशाखिनः। | |
− | एवमुक्तः सुप्रतीको भागं कीर्तयतेऽनिशम्। | + | प्रचलाङ्गान्स तान्दृष्ट्वा मनोरथफलद्रुमान्॥ 1-29-39 |
− | + | अन्यानतुलरूपाङ्गानुपचक्राम खेचरः। | |
− | एवं निर्बध्यमानस्तु शशापैनं विभावसुः। | + | काञ्चनै राजतैश्चैव फलैर्वैदूर्यशाखिनः॥ 1-29-40 |
− | + | सागराम्बुपरिक्षिप्तान्भ्राजमानान्महाद्रुमान्। | |
− | गुरुशास्त्रे निबद्धानामन्योन्येनाभिशङ्किनाम्॥ 1-29-20 | + | तमुवाच खगश्रेष्ठं तत्र रौहिणपादपः। |
− | + | अतिप्रवृद्धः सुमहानापतन्तं मनोजवम्॥ 1-29-41 | |
− | नियन्तुं न हि शक्यस्त्वं भेदतो धनमिच्छसि। | + | रौहिण उवाच |
− | + | यैषा मम महाशाखा शतयोजनमायता। | |
− | यस्मात्तस्मात्सुप्रतीक हस्तित्वं समवाप्स्यसि॥ 1-29-21 | + | एतामास्थाय शाखां त्वं खादेमौ गजकच्छपौ॥ 1-29-42 |
− | + | ततो द्रुमं पतगसहस्रसेवितं महीधरप्रतिमवपुः प्रकम्पयन्। | |
− | शप्तस्त्वेवं सुप्रतीको विभावसुमथाब्रवीत्। | + | खगोत्तमो द्रुतमभिपत्य वेगवान्बभञ्ज तामविरलपत्रसंचयाम्॥ 1-29-43 |
− | + | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे एकोनत्रिंशोऽध्यायः॥ 29 ॥ | |
− | त्वमप्यन्तर्जलचरः कच्छपः सम्भविष्यसि॥ 1-29-22 | + | [[:Category:Garuda|''Garuda'']] [[:Category:Kashyap|''Kashyap'']] [[:Category:Story of Kashyap|''Story of Kashyap'']] |
− | + | [[:Category:कश्यप|''कश्यप'']] [[:Category:गरुड|''गरुड'']] [[:Category:कथा|''कथा'']] | |
− | एवमन्योन्यशापात्तौ सुप्रतीकविभावसू। | + | [[:Category:कश्यपजीका गरुडको कथा सुनाना|''कश्यपजीका गरुडको कथा सुनाना'']] [[:Category:कछुआ|''कछुआ'']] [[:Category:हाथी|''हाथी'']] |
− | + | [[:Category:वटवृक्ष|''वटवृक्ष'']] [[:Category:वटवृक्षकी शाखा|''वटवृक्षकी शाखा'']] | |
− | गजकच्छपतां प्राप्तावर्थार्थं मूढचेतसौ॥ 1-29-23 | + | [[:Category:Uninhabitated mountain|''Uninhabitated mountain'']] [[:Category:Uninhabitated|''Uninhabitated'']] |
− | + | [[:Category:mountain|''mountain'']] [[:Category:branch|''branch'']] | |
− | रोषदोषानुषङ्गेण तिर्यग्योनिगतावुभौ। | + | [[:Category:वालखिल्य|''वालखिल्य'']] [[:Category:वालखिल्य ऋषि|''वालखिल्य ऋषि'']] [[:Category:निर्जन पर्वत|''निर्जन पर्वत'']] |
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− | परस्परद्वेषरतौ प्रमाणबलदर्पितौ॥ 1-29-24 | ||
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− | सरस्यस्मिन्महाकायौ पूर्ववैरानुसारिणौ। | ||
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− | तयोरन्यतरः श्रीमान्समुपैति महागजः॥ 1-29-25 | ||
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− | यस्य बृंहितशब्देन कूर्मोऽप्यन्तर्जलेशयः। | ||
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− | उत्थितोऽसौ महाकायः कृत्स्नं विक्षोभयन्सरः॥ 1-29-26 | ||
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− | यं दृष्ट्वा वेष्टितकरः पतत्येष गजो जलम्। | ||
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− | दन्तहस्ताग्रलाङ्गूलपादवेगेन वीर्यवान्॥ 1-29-27 | ||
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− | विक्षोभयंस्ततो नागः सरो बहुझषाकुलम्। | ||
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− | कूर्मोऽप्यभ्युद्यतशिरा युद्धायाभ्येति वीर्यवान्॥ 1-29-28 | ||
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− | षडुच्छ्रितो योजनानि गजस्तद्द्विगुणायतः। | ||
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− | कूर्मस्त्रियोजनोत्सेधो दशयोजनमण्डलः॥ 1-29-29 | ||
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− | तावुभौ युद्धसम्मत्तौ परस्परवधैषिणौ। | ||
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− | उपयुज्याशु कर्मेदं साधयेप्सितमात्मनः॥ 1-29-30 | ||
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− | महाभ्रघनसंकाशं तं भुक्त्वामृतमानय। | ||
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− | महागिरिसमप्रख्यं घोररूपं च हस्तिनम्॥ 1-29-31 | ||
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− | सौतिरुवाच | ||
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− | इत्युक्त्वा गरुडं सोऽथ माङ्गल्यमकरोत्तदा। | ||
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− | युध्यतः सह देवैस्ते युद्धे भवतु मङ्गलम्॥ 1-29-32 | ||
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− | पूर्णकुम्भो द्विजा गावो यच्चान्यत्किञ्चिदुत्तमम्। | ||
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− | शुभं स्वस्त्ययनं चापि भविष्यति तवाण्डज॥ 1-29-33 | ||
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− | युध्यमानस्य संग्रामे देवैः सार्धं महाबल। | ||
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− | ऋचो यजूंषि सामानि पवित्राणि हवींषि च॥ 1-29-34 | ||
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− | रहस्यानि च सर्वाणि सर्वे वेदाश्च ते बलम्। | ||
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− | इत्युक्तो गरुडः पित्रा गतस्तं ह्रदमन्तिकात्॥ 1-29-35 | ||
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− | अपश्यन्निर्मलजलं नानापक्षिसमाकुलम्। | ||
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− | स तत्स्मृत्वा पितुर्वाक्यं भीमवेगोऽन्तरिक्षगः॥ 1-29-36 | ||
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− | नखेन गजमेकेन कूर्ममेकेन चाक्षिपत्। | ||
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− | समुत्पपात चाकाशं तत उच्चैर्विहङ्गमः॥ 1-29-37 | ||
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− | सः अलम्बं तीर्थमासाद्य देववृक्षानुपागमत्। | ||
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− | ते भीताः समकम्पन्त तस्य पक्षानिलाहताः॥ 1-29-38 | ||
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− | न नो भञ्ज्यादिति तदा दिव्याः कनकशाखिनः। | ||
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− | प्रचलाङ्गान्स तान्दृष्ट्वा मनोरथफलद्रुमान्॥ 1-29-39 | ||
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− | अन्यानतुलरूपाङ्गानुपचक्राम खेचरः। | ||
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− | काञ्चनै राजतैश्चैव फलैर्वैदूर्यशाखिनः॥ 1-29-40 | ||
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− | सागराम्बुपरिक्षिप्तान्भ्राजमानान्महाद्रुमान्। | ||
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− | तमुवाच खगश्रेष्ठं तत्र रौहिणपादपः। | ||
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− | अतिप्रवृद्धः सुमहानापतन्तं मनोजवम्॥ 1-29-41 | ||
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− | रौहिण उवाच | ||
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− | यैषा मम महाशाखा शतयोजनमायता। | ||
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− | एतामास्थाय शाखां त्वं खादेमौ गजकच्छपौ॥ 1-29-42 | ||
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− | ततो द्रुमं पतगसहस्रसेवितं महीधरप्रतिमवपुः प्रकम्पयन्। | ||
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− | खगोत्तमो द्रुतमभिपत्य वेगवान्बभञ्ज तामविरलपत्रसंचयाम्॥ 1-29-43 | ||
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− | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे एकोनत्रिंशोऽध्यायः॥ 29 ॥ |
Latest revision as of 10:54, 15 October 2019
सौतिरुवाच तस्य कण्ठमनुप्राप्तो ब्राह्मणः सह भार्यया। दहन्दीप्त इवाङ्गारस्तमुवाचान्तरिक्षगः॥ 1-29-1 द्विजोत्तम विनिर्गच्छ तूर्णमास्यादपावृतात्। न हि मे ब्राह्मणो वध्यः पापेष्वपि रतः सदा॥ 1-29-2 ब्रुवाणमेवं गरुडं ब्राह्मणः प्रत्यभाषत। निषादी मम भार्येयं निर्गच्छतु मया सह॥ 1-29-3 गरुड उवाच एतामपि निषादीं त्वं परिगृह्याशु निष्पत। तूर्णं सम्भावयात्मानमजीर्णं मम तेजसा॥ 1-29-4 सौतिरुवाच ततः स विप्रो निष्क्रान्तो निषादीसहितस्तदा। वर्धयित्वा च गरुडमिष्टं देशं जगाम ह॥ 1-29-5 सहभार्ये विनिष्क्रान्ते तस्मिन्विप्रे च पक्षिराट्। वितत्य पक्षावाकाशमुत्पपात मनोजवः॥ 1-29-6 ततोऽपश्यत्स पितरं पृष्टश्चाख्यातवान्पितुः। यथान्यायममेयात्मा तं चोवाच महानृषिः॥ 1-29-7 कश्यप उवाच कच्चिद्वः कुशलं नित्यं भोजने बहुलं सुत। कच्चिच्च मानुषे लोके तवान्नं विद्यते बहु॥ 1-29-8 गरुड उवाच माता मे कुशला शश्वत्तथा भ्राता तथा ह्यहम्। न हि मे कुशलं तात भोजने बहुले सदा॥ 1-29-9 अहं हि सर्पैः प्रहितः सोममाहर्तुमुत्तमम्। मातुर्दास्यविमोक्षार्थमाहरिष्ये तमद्य वै॥ 1-29-10 मात्रा चात्र समादिष्टो निषादान्भक्षयेति ह। न च मे तृप्तिरभवद्भक्षयित्वा सहस्रशः॥ 1-29-11 तस्माद्भक्ष्यं त्वमपरं भगवन्प्रदिशस्व मे। यद्भुक्त्वामृतमाहर्तुं समर्थः स्यामहं प्रभो। क्षुत्पिपासाविघातार्थं भक्ष्यमाख्यातु मे भवान्॥ 1-29-12 कश्यप उवाच इदं सरो महापुण्यं देवलोकेऽपि विश्रुतम्। यत्र कूर्माग्रजं हस्ती सदा कर्षत्यवाङ्मुखः। तयोर्जन्मान्तरे वैरं सम्प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥ 1-29-13 तन्मे तत्त्वं निबोधस्व यत्प्रमाणौ च तावुभौ। आसीद्विभावसुः नाम महर्षिः कोपनो भृशम्॥ 1-29-14 भ्राता तस्यानुजश्चासीत्सुप्रतीको महातपाः। स नेच्छति धनं भ्राता सहैकस्थं महामुनिः॥ 1-29-15 विभागं कीर्तयत्येव सुप्रतीको हि नित्यशः। अथाब्रवीच्च तं भ्राता सुप्रतीकं विभावसुः॥ 1-29-16 विभागं बहवो मोहात्कर्तुमिच्छन्ति नित्यशः। ततो विभक्तास्त्वन्योन्यं विक्रुध्यन्तेऽर्थमोहिताः॥ 1-29-17 ततः स्वार्थपरान्मूढान्पृथग्भूतान्स्वकैर्धनैः। विदित्वा भेदयन्त्येतानमित्रा मित्ररूपिणः॥ 1-29-18 विदित्वा चापरे भिन्नानन्तरेषु पतन्त्यथ। भिन्नानामतुलो नाशः क्षिप्रमेव प्रवर्तते॥ 1-29-19 तस्माद्विभागं भ्रातॄणां न प्रशंसन्ति साधवः। एवमुक्तः सुप्रतीको भागं कीर्तयतेऽनिशम्। एवं निर्बध्यमानस्तु शशापैनं विभावसुः। गुरुशास्त्रे निबद्धानामन्योन्येनाभिशङ्किनाम्॥ 1-29-20 नियन्तुं न हि शक्यस्त्वं भेदतो धनमिच्छसि। यस्मात्तस्मात्सुप्रतीक हस्तित्वं समवाप्स्यसि॥ 1-29-21 शप्तस्त्वेवं सुप्रतीको विभावसुमथाब्रवीत्। त्वमप्यन्तर्जलचरः कच्छपः सम्भविष्यसि॥ 1-29-22 एवमन्योन्यशापात्तौ सुप्रतीकविभावसू। गजकच्छपतां प्राप्तावर्थार्थं मूढचेतसौ॥ 1-29-23 रोषदोषानुषङ्गेण तिर्यग्योनिगतावुभौ। परस्परद्वेषरतौ प्रमाणबलदर्पितौ॥ 1-29-24 सरस्यस्मिन्महाकायौ पूर्ववैरानुसारिणौ। तयोरन्यतरः श्रीमान्समुपैति महागजः॥ 1-29-25 यस्य बृंहितशब्देन कूर्मोऽप्यन्तर्जलेशयः। उत्थितोऽसौ महाकायः कृत्स्नं विक्षोभयन्सरः॥ 1-29-26 यं दृष्ट्वा वेष्टितकरः पतत्येष गजो जलम्। दन्तहस्ताग्रलाङ्गूलपादवेगेन वीर्यवान्॥ 1-29-27 विक्षोभयंस्ततो नागः सरो बहुझषाकुलम्। कूर्मोऽप्यभ्युद्यतशिरा युद्धायाभ्येति वीर्यवान्॥ 1-29-28 षडुच्छ्रितो योजनानि गजस्तद्द्विगुणायतः। कूर्मस्त्रियोजनोत्सेधो दशयोजनमण्डलः॥ 1-29-29 तावुभौ युद्धसम्मत्तौ परस्परवधैषिणौ। उपयुज्याशु कर्मेदं साधयेप्सितमात्मनः॥ 1-29-30 महाभ्रघनसंकाशं तं भुक्त्वामृतमानय। महागिरिसमप्रख्यं घोररूपं च हस्तिनम्॥ 1-29-31 सौतिरुवाच इत्युक्त्वा गरुडं सोऽथ माङ्गल्यमकरोत्तदा। युध्यतः सह देवैस्ते युद्धे भवतु मङ्गलम्॥ 1-29-32 पूर्णकुम्भो द्विजा गावो यच्चान्यत्किञ्चिदुत्तमम्। शुभं स्वस्त्ययनं चापि भविष्यति तवाण्डज॥ 1-29-33 युध्यमानस्य संग्रामे देवैः सार्धं महाबल। ऋचो यजूंषि सामानि पवित्राणि हवींषि च॥ 1-29-34 रहस्यानि च सर्वाणि सर्वे वेदाश्च ते बलम्। इत्युक्तो गरुडः पित्रा गतस्तं ह्रदमन्तिकात्॥ 1-29-35 अपश्यन्निर्मलजलं नानापक्षिसमाकुलम्। स तत्स्मृत्वा पितुर्वाक्यं भीमवेगोऽन्तरिक्षगः॥ 1-29-36 नखेन गजमेकेन कूर्ममेकेन चाक्षिपत्। समुत्पपात चाकाशं तत उच्चैर्विहङ्गमः॥ 1-29-37 सः अलम्बं तीर्थमासाद्य देववृक्षानुपागमत्। ते भीताः समकम्पन्त तस्य पक्षानिलाहताः॥ 1-29-38 न नो भञ्ज्यादिति तदा दिव्याः कनकशाखिनः। प्रचलाङ्गान्स तान्दृष्ट्वा मनोरथफलद्रुमान्॥ 1-29-39 अन्यानतुलरूपाङ्गानुपचक्राम खेचरः। काञ्चनै राजतैश्चैव फलैर्वैदूर्यशाखिनः॥ 1-29-40 सागराम्बुपरिक्षिप्तान्भ्राजमानान्महाद्रुमान्। तमुवाच खगश्रेष्ठं तत्र रौहिणपादपः। अतिप्रवृद्धः सुमहानापतन्तं मनोजवम्॥ 1-29-41 रौहिण उवाच यैषा मम महाशाखा शतयोजनमायता। एतामास्थाय शाखां त्वं खादेमौ गजकच्छपौ॥ 1-29-42 ततो द्रुमं पतगसहस्रसेवितं महीधरप्रतिमवपुः प्रकम्पयन्। खगोत्तमो द्रुतमभिपत्य वेगवान्बभञ्ज तामविरलपत्रसंचयाम्॥ 1-29-43 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे एकोनत्रिंशोऽध्यायः॥ 29 ॥ Garuda Kashyap Story of Kashyap कश्यप गरुड कथा कश्यपजीका गरुडको कथा सुनाना कछुआ हाथी वटवृक्ष वटवृक्षकी शाखा Uninhabitated mountain Uninhabitated mountain branch वालखिल्य वालखिल्य ऋषि निर्जन पर्वत निर्जन पर्वत शाखा शाखा छोडना