Difference between revisions of "Jeevan Ka Pratiman- Part 2 (जीवन का प्रतिमान- भाग 2)"
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प्राक्कथन
जीवन का प्रतिमान–भाग १ में हमने इस विषय के निम्न बिंदुओं को जाना है:
- जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और व्यवहार के अनुसार जीने की सुविधा के लिये निर्मित प्रकृति सुसंगत सामाजिक संगठन और व्यवस्था समूह मिलाकर जीवन का प्रतिमान बनता है।
- यह व्यवस्था समूह उस समाज की जीवनदृष्टि के अनुसार जीने की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करे ऐसी अपेक्षा और प्रयास रहता है। बुध्दियुक्त व्यवस्था समूह और स्वयंभू परिष्कार की व्यवस्थाने भारतीय समाज को चिरंजीवी बनाया है।
- दो विपरीत जीवन दृष्टि वाले प्रतिमानों की व्यवस्थाएं एक साथ नहीं चल सकतीं। ऐसे प्रयास में जिस प्रतिमान के पीछे भौतिक शक्ति (जनशक्ति या शासन की) अधिक होगी वह दूसरे बुध्दियुक्त श्रेष्ठ प्रतिमान को भी धीरे धीरे नष्ट कर देता है।
- प्रतिमान की संगठन प्रणालियों और व्यवस्थाओं का पूरे समूह के रूप में ही स्वीकार या अस्वीकार हो सकता है। किसी एक प्रतिमान की एक संगठन प्रणाली या एक व्यवस्था का किसी अलग जीवन दृष्टि वाले प्रतिमान में अस्तित्व सम्भव नहीं है।
- हम वर्तमान में जीवन के अभारतीय प्रतिमान में जी रहे हैं। भारतीय प्रतिमान क्षीण हुवा है। पूर्णत: नष्ट नहीं हुआ है।
- अभारतीय प्रतिमान में 'शासन' और भारतीय प्रतिमान में 'धर्मसत्ता' सर्वोपरी होती है।
वर्तमान अभारतीय प्रतिमान के लक्षण
अब हम जीवन के वर्तमान अभारतीय प्रतिमान और जीवन के भारतीय प्रतिमान के लक्षणों/परिणामों का विभिन्न प्रकार के उदाहरणों के साथ तुलनात्मक अध्ययन करेंगे:
- वर्तमान अभारतीय प्रतिमान ने भारतीय एकत्रित कुटुम्ब का ध्वंस कर दिया है। पहले उसे छोटा कुटुम्ब बनाया। फिर उसे फॅमिली याने ‘पति, पत्नि और उनके बच्चे’ तक सीमित कर दिया। अब उस से भी आगे स्वेच्छा-सहनिवास तक बढ गये हैं। यह तो मानव जाति को नष्ट करने की दिशा है।
- वर्तमान प्रतिमान मनुष्य की सामाजिकता की भावना नष्ट कर समाज को विघटित कर देता है। व्यक्ति को आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी बना देता है। हिन्दुस्थान में अब तक २.५ - ३ लाख किसानों ने आत्महत्याएं कीं हैं। लेकिन कुछ सम्मान योग्य अपवाद छोडकर, बोल बच्चन के अलावा न तो व्यक्तिगत स्तरपर एकात्मता की भावना से और ना ही सामाजिक स्तरपर एकात्मता की दृष्टि से इस की ओर देखा जा रहा है। किसान भी आज समूचे समाज के लिये अन्न का उत्पादन करना मेरा जाति-धर्म है, ऐसा नहीं मानता। भारतीय प्रतिमान में किसान ही क्या, किसी भी बाल, वृद्ध, विधवा, विकलांग और दुर्बल को भी आत्महत्या करने की नौबत नहीं आए ऐसी व्यवस्था होगी। अपवाद से यदि कोई आत्महत्या करता है तो व्यापक कुटुम्ब भावना के कारण पूरे समाज के लिये यह चिंता, चिन्तन और क्रियान्वयन का विषय बन जायेगा।
- वर्तमान प्रतिमान में बैल को हल में जोत कर खेती करने वाले किसान के लिये कोई स्थान नहीं है। यूरोप या अमरिका के किसी भी प्रगत देश में भारतीय पद्दति से खेती करने वाला किसान ही शेष नहीं है। १०० वर्ष पहले ऐसे किसान विपुल मात्रा में हुआ करते थे। २०० वर्ष पहले तो ऐसे ही सब किसान थे। इस अभारतीय प्रतिमान को बदलकर भारतीय प्रतिमान लाये बिना किसानों को बचाने के प्रयास करना हारने के लिए लड़ाई लड़ने जैसा ही होगा।
- वर्तमान प्रतिमान में हर वस्तु बिकाऊ है। अंग्रेजपूर्व भारत में अन्न, औषधि और शिक्षा बिकाऊ नहीं थे। लेकिन वर्तमान प्रतिमान ने उन्हें बिकाऊ बना दिया है। सत्य, प्रामाणिकता, ममता, शील, चारित्र्य जैसी मूल्य से परे जो बातें हैं या जो अनमोल हैं ऐसी बातों को हम विदेशियों की देखा देखी 'व्हॅल्यू’ या ‘मूल्य' कहने लगे हैं। 'जीवन मूल्य' या 'जीवन मूल्यों की शिक्षा' ये शब्द प्रयोग भी अभारतीय ही है। किसी भी प्राचीन भारतीय साहित्य में मूल्य शब्द का श्रेष्ठ तत्व या सदाचार की दृष्टी से प्रयोग नहीं मिलता। जो मूल में है उसे मूल्य कहते हैं। जो मूल में है उसे प्रकृति कहते हैं। क्या हम मूल्याधारित याने प्राकृतिक जीवन जीना चाहते हैं। हम तो सदैव ही उन्नत सांस्कृतिक जीवन जीने का प्रयास करते रहे हैं।
- वर्तमान प्रतिमान में बलवान का बोलबाला है। दुर्बल की कोई नहीं सुनता। कर्जा लेने के लिये आप बैंक में जाते हैं। जब आप २०० करोड का कर्जा माँगते हैं तब व्यवस्थापक आप से कहता है ' आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों किया। मुझे बुला लेते।' आप को लगेगा जैसे आप व्यवस्थापक हैं और बैंक का व्यवस्थापक आप से कर्जा माँगने आया है। कई औपचारिकताओं की अनदेखी कर के भी कर्जा मिल जाता है। लेकिन आप जब केवल रू.२०.००० का कर्जा माँगने जाते हैं तो आप से इतने चक्कर लगवाये जाते हैं कि आप को लगने लग जाता है कि आपने कर्जा माँग कर कोई अपराध कर दिया है। अभी २००८ में यूरोप में असीम लोभी लोगों ने और वित्तीय संस्थानों ने जो वित्तीय घोटाले किये उन के कारण वहाँ की अर्थव्यवस्थाएं ध्वस्त होने (मेल्ट डाऊन या पिघलन) की स्थिति में आ गयीं थीं। इस स्थिति से उबरने के लिये वहाँ की सरकारों ने उन लोभी वित्तीय संस्थानों को भारी मात्रा में आर्थिक मदद (सॅल्व्हेज पॅकेजेस salvage package) दी। मदद का यह पैसा वहाँ की मजबूर सामान्य जनता जिस का इस पिघलन के संदर्भ में कोई दोष नहीं था, उस के परिश्रम की कमाई और बचत किये पैसे से लिया गया था। न्याय व्यवस्था में भी बुद्धिबल, बाहुबल, सत्ताबल या धनबल का प्रयोग हम न्याय को प्रभावित करने लिए होता देखते हैं।
- वर्तमान प्रतिमान मनुष्य के मन की स्वाभाविक सामाजिकता को नष्ट कर उसे व्यक्तिवादी बना देता है। इस तरह से समाज का विघटन अलग अलग व्यक्तियों में हो जाने से समाज के हर व्यक्ति में असुरक्षा की भावना होती है। मजदूर, किसान, उद्योगपति, सरकारी अधिकारी, शिक्षक आदि ही नहीं, सैनिक भी अपने संगठन बनाते हैं। भारतीय प्रतिमान में ऐसे संगठनों की आवश्यकता ही नहीं रहती। जातियों की पंचायतें थीं। उनका स्वरूप कुटुम्ब जैसा ही होता है। उनका काम वर्तमान संगठनों के काम से भिन्न होता है। वे जातिगत अनुशासन, जातिधर्म आदि के अनुपालन पर ध्यान देती थी।
- वर्तमान प्रतिमान में अधिकारों के लिये संघर्ष अनिवार्य होता है। मजदूर, किसान, उद्योगपति, सरकारी अधिकारी, शिक्षक आदि ही नहीं, यहाँ तो सैनिक भी अपने अधिकारों की रक्षा के लिये संगठन बनाने लग गये हैं। भारतीय प्रतिमान में ऐसे अधिकारों के लिये लडने वाले संगठनों की आवश्यकता ही नहीं रहती। भारतीय प्रतिमान में पहले तो संघर्ष नहीं होते और होते हैं तो वे कर्तव्य पालन (अन्यों के अधिकार) के लिये होते हैं। अपने अधिकारों के लिये नहीं। कर्तव्य पालन के लिए संघर्ष से प्रेम, सौहार्द, परस्पर विश्वास, सहानुभूति, कृतज्ञता आदि भाव बढ़ाते हैं। जो सुख और शान्ति को जन्म देते हैं।
- वर्तमान प्रतिमान में चार्वाक के तत्वज्ञान का बोलबाला हो गया है। ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्। कर्जा लेकर ऐश करना शिष्टाचार बन गया है। कर्जा लेनेवाला चाहता है कि पैसा अधिक से अधिक देरी से दे। इस के पीछे इहवादिता की सोच दिखाई देती है। कर्जे की राशि लौटाने से पहले ही यदि देने वाले की या लेने वाले की मृत्यु हो जाये तो कर्जा लौटाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। भारतीय प्रतिमान में तो पहले कर्जा लेना ही शर्म की बात माना गया है। कर्जा उतारने से पहले मर जाने से तो अगले जन्म में अधम गति प्राप्त होती है, ऐसी मान्यता है। इस लिये कर्जा ले भी लिया तो पहले सम्भव क्षण को यानी शीघ्रातिशीघ्र लौटाने का मानस होता है।
- वर्तमान प्रतिमान में सामान्यत: सभी सामाजिक सम्बन्ध करार होते हैं। काँट्रॅक्ट होते हैं। एग्रीमेंट होते हैं। समझौते होते हैं। विवाह भी करार ही होता है। करार में दो व्यक्ति अपने अपने स्वार्थ के लिये साथ में आते हैं। स्वार्थ को ठेस पहुंचने पर करार तोड कर अलग हो जाते हैं। भारतीय विवाह जैसे अभारतीय विवाह में हस्बण्ड और वाईफ यह दोनों मिलकर पूर्ण बनने वाले एक दूसरे के पूरक और पोषक ऐसे घटक नहीं होते। वे होते हैं एक दूसरे के ग्राहक और उपभोक्ता। भारतीय प्रतिमान में सभी सामाजिक सम्बन्धों का आधार ' कुटुम्ब भावना ' होता है। भारतीय विवाह दो भिन्न व्यक्तित्वों का 'एक बनने' का संस्कार होता है। दोनों की एकात्मता का संस्कार होता है। राजा और प्रजा के सम्बन्धों में, प्रजा शब्द का तो अर्थ ही संतान होता है। इस लिये राजा या शासक का जनता से सम्बन्धों में पिता और सन्तान जैसा होता है। शिक्षा क्षेत्र में गुरू शिष्य का मानस पिता होता है। एक ही व्यवसाय करने वाले लोग एक दूसरे के स्पर्धक नहीं होते। जाति-बांधव होते हैं। भाषण सुनने आये लोग 'माय डीयर लेडीज एँड जन्टलमेन’ नहीं होते। ‘मेरे प्रिय बहनों और भाईयों' होते हैं। चन्द्रमा चंन्दामामा और चूहा चूहामामा होता है। धरती, नदी, गाय, तुलसी आदि माताएं होतीं हैं। वर्तमान प्रतिमान में कुटुम्ब भी बाजार भावना से चलने लग गए हैं। लेकिन भारतीय प्रतिमान में बाजार भी कुटुम्ब भावना से चलते थे। आज भी बाजार में ‘क्यों काकाजी! सब्जी कैसी दी?’ ऐसा प्रश्न बहुत सामान्य बात है।
- वर्तमान प्रतिमान में दुर्बल का शोषण होता है। बडा उद्योगपति छोटे उद्योगपति को चूसता है। और छोटा उद्योगपति उस से छोटे को। केवल पैसे वाले ही नहीं तो अवसर पाने पर दुर्बल भी मजबूरों का शोषण करते हैं। जब ऑटोरिक्षा बंद होते हैं, टांगेवाले अपनी दर बढ़ा कर लोगों की मजबूरी का लाभ लेते हैं। इस प्रतिमान में पति भी नौकरी करने वाली स्त्री का शोषण करता है। दोनों नौकरी से थक कर घर आते हैं। पुरूष तो आराम करता है। कितनी भी थकान हो, स्त्री को रसोई और बच्चों का काम करना पडता है। भारतीय प्रतिमान में घरेलू सम्बन्ध, कौटुम्बिक बातें, संस्कार आदि से सम्बन्धित सभी बातों में गृहिणी प्रमुख होती है। गृहस्थ गृहिणी के कहे अनुसार व्यवहार करता है।
- वर्तमान प्रतिमान में मनुष्य का बस चले तो पूरे विश्व के संसाधन केवल मेरे अधिकार में रहें ऐसी राक्षसी महत्वाकांक्षा सार्वत्रिक हो गई है। इस लिये मनुष्य ने प्रकृति के शोषण के लिये बडे बडे यंत्र निर्माण किये हैं। भारतीय प्रतिमान में अपनी आवश्यकताओं से अधिक प्रकृति से लेना पाप माना गया है। चोरी, डकैती माना गया है। प्रकृति को पवित्र माना जाता है, माता माना जाता है।
- वर्तमान प्रतिमान ने मानव को पगढीला बना दिया है। संस्कृति का विकास स्थिर समाज में ही होता है। वर्तमान प्रतिमान ने समाज को संस्कृति से तोडकर दर बदर घूमने वाला घुमन्तु जीव बना दिया है। पगढीला समाज मात्र भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में और सुख के साधन जुटाने में ही पूरा समय खर्च कर देता है। पगढीलापन कौटुम्बिक भावना को, संस्कृति को नष्ट कर देता है।
- वर्तमान प्रतिमान ने हमारे लिये संपर्क भाषा की भी गंभीर समस्या निर्माण कर रखी है। अंग्रेजपूर्व भारत में अटन केवल ज्ञानार्जन, कौशलार्जन, पुण्यार्जन आदि तक सीमित थे। नौकरी का तो चलन ही नहीं था। मनोरंजन के लिये अटन करनेवाले लोगों की संख्या नगण्य थी। संस्कृत भाषा के जानकारों के लिये तो संपर्क भाषा की समस्या लगभग थी ही नहीं। वर्तमान प्रतिमान में अधिक से अधिक पैसे के लिये सभी लोग नौकरी करते हैं। काम के स्वरूप का वर्ण (स्वभाव) से कोई सम्बन्ध नहीं होता। इस लिये काम बोझ लगता है। मनोरंजन अनिवार्य हो जाता है। इस कारण अटन करने का प्रमाण बहुत अधिक हो गया है। अब करोडों की संख्या में लोग एक भाषिक प्रांत से निकलकर दूसरे भाषिक प्रान्त में नौकरी या उद्योग के लिए जाते हैं। अंग्रेजों की चलाई शिक्षा के कारण पैदा होने वाली गुलामी की मानसिकता इस समस्या को और बढावा देती है। इस प्रतिमान में भाषा की दृष्टि से अंग्रेजी जैसी निकृष्ट भाषा श्रेष्ठ भारतीय भाषाओं को नष्ट कर रही है और नष्ट कर के रहेगी।
- वर्तमान प्रतिमान में न्याय व्यवस्था में 'सत्य' की भारतीय प्रतिमान की व्याख्या 'यद्भूतहितं अत्यंत' नहीं चल सकती। इस प्रतिमान में सत्य की व्याख्या 'जो साक्ष और प्रमाणों से सामने आया है' ऐसी बन गई है। शासन की, गुंडों की, पैसे की और बुध्दिमत्ता की शक्तियाँ साक्ष और प्रमाणों को तोडने मरोडने की क्षमता रखतीं हैं। इसलिये वर्तमान प्रतिमान में सत्य और न्याय भी बलवानों के आश्रित बन जाते हैं।
- वर्तमान प्रतिमान में शासन, वह किंग का हो या लोकतन्त्रात्मक हो, सर्वसत्ताधीश होता है। लेकिन यह सरकार सर्व सक्षम नहीं होती। सत्ता के विषय में कहा गया है - 'पॉवर करप्ट्स् एँड अब्सोल्यूट पॉवर करप्ट्स् अब्सोल्यूटली' (power corrupts and absolute power corrupts absolutely) यानी सत्ता होती है तो आचार भ्रष्ट होता ही है और सत्ता यदि निरंकुश है तो भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं रहती। भारतीय प्रतिमान में भौतिक सत्ता हमेशा धर्मसत्ता से नियमित होती है, इस लिये वह बिगडने की सम्भावनाएँ अत्यंत कम होती है।
- वर्तमान प्रतिमान में लोकतंत्रात्मक शासन का सब से श्रेष्ठ स्वरूप है बहुमत से शासक का चयन। बहुमत प्राप्ति का तो अर्थ ही है बलवान होना। ऐसी शासन प्रणालि में एक तो बहुमत के आधार पर चुन कर आया राजनीतिक दल अपने विचार और नीतियाँ पूरे समाज पर थोपता है। दूसरे इस में चुन कर आने के लिये निकष उस पद के लिये योग्यता नहीं होता। जनसंख्या और भौगोलिक विस्तार के कारण यह संभव भी नहीं होता। १०, १५ उमीदवारों में से फिर मतदाता अपनी जाति के, पहचान के, अपने मजहब के, अपने राजनीतिक दल के उमीदवार का चयन करता है। यह तो लोकतंत्र शब्द की विडंबना ही है। भारतीय प्रतिमान में राजा का अर्थ ही जो लोगों के मन जीतता है, लोगों के हित में अपने हित का त्याग करता है, धर्मसत्ता ने बनाए नियमों के अनुसार शासन करता है, ऐसा है। लोकतंत्र के संबंध में भी सर्वसहमति का लोकतंत्र ही भारतीय लोकतंत्र का स्वरूप होता है। अंग्रेज पूर्व भारत में हजारों वर्षों से बडे भौगोलिक क्षेत्र में राजा या सम्राट और ग्राम स्तर पर (ग्रामसभा) सर्वसहमति की लोकतंत्रात्मक शासन की व्यवस्था थी।
- वर्तमान प्रतिमान में प्रत्येक कानूनी मुकदमे में एक पक्ष सत्य का होता है। दूसरा पक्ष तो असत्य का ही होता है। दोनों पक्षों की ओर से वकील पैरवी करते हैं। यानी दोनों वकीलों में से एक वकील असत्य की जीत के लिये प्रयास करता है। इस का अर्थ यह है की कुल मिलाकर इस प्रतिमान की न्याय व्यवस्था में ५० प्रतिशत वकील हमेशा सत्य को झूठ और झूठ को सत्य सिध्द करने में अपनी बुद्धि का उपयोग करता है। यह न्याय व्यवस्था है या अन्याय व्यवस्था? भारतीय प्रतिमान की न्याय व्यवस्था में मुकदमों के लम्बित होने से लाभान्वित होने वाला और इस लिये लम्बित करने में प्रयत्नशील और झूठ को सत्य तथा सत्य को झूठ सिध्द करने वाला वकील नहीं होता। सात्विक वृत्ति का निर्भय, नि:स्वार्थी, धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र जानने वाला न्यायाधीश ही दोनों पक्षों का अध्ययन कर सत्य को स्थापित करता है।
- वर्तमान प्रतिमान में अमर्याद व्यक्ति स्वातंत्र्य का आग्रह है। इस लिये स्त्री मुक्ति की समर्थक लड़कियाँ या महिलाएं अपनी मर्जी के अनुसार अंग प्रदर्शन करनेवाले या उत्तान कपडे पहन सकतीं हैं। लज्जा का कोई सामाजिक मापदंड उन्हें लागू नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में यदि उन के प्रति कोई अपराध हो जाता है तो सरकार को कटघरे में खडा किया जाता है। कौटुम्बिक असंस्कारिता की समस्या का समाधान शासन के माध्यम से ढूंढा जाता है। भारतीय प्रतिमान में स्त्री को हर स्थिति में रक्षण योग्य माना गया है। लज्जा और सुरक्षा की दृष्टि से स्त्री भी मर्यादा का पालन करे ऐसी मान्यता है।
- वर्तमान प्रतिमान में इहवादिता का बोलबाला है। इस जन्म से पहले मैं नहीं था। और मृत्यू के उपरांत भी नहीं रहूंगा। इस लिये जो भी भोग भोगना है बस इसी जीवन में भोग लूं, ऐसी मानसिकता बन जाती है। इस कारण भोग की प्रवृत्ति, उपभोक्तावादिता बढते है। परिणाम स्वरूप प्रकृति का बिगाड या नाश होता है। भारतीय प्रतिमान में पुनर्जन्म होता है ऐसा मानते हैं। इस लिये इसी जन्म में सब भोगने की लालसा नहीं रहती। प्रकृति को पवित्र माना जाता है। पूजनीय, देवता माना जाता है। संयमित उपभोग का आग्रह होता है। आवश्यकता से अधिक उपभोग चोरी या डकैति माना जाता है। इस लिये उपभोक्तावाद नहीं पनप पाता।
- वर्तमान प्रतिमान में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अभारतीय सोच के लोगों के हाथों में नेतृत्व है। व्यक्तिवादी (स्वार्थी), इहवादी और जडवादी अभारतीय सोच के कारण भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान का विकास प्रकृति और मानव जाति को अधिक और अधिक विनाश की दिशा में धकेल रहा है। पूरा विश्व जानता है कि कई सहस्रकों से १८ वीं सदी तक भारत पूरे विश्व में भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। किन्तु भारत ने कभी ऐसे विध्वंसक विज्ञान और तन्त्रज्ञान के विकास की नीति को आश्रय नहीं दिया। ब्रह्मास्त्र के दुरूपयोग की संभावनाओं के ध्यान में आते ही इस तन्त्रज्ञान को अगली पीढी को हस्तांतरित न कर उसे नष्ट होने दिया।
- वर्तमान प्रतिमान में मुंह से दिये शब्द की कोई कीमत नहीं है। कानूनी लिखा पढ़ी अनिवार्य मानी जाती है। व्यक्तिवादिता (स्वार्थी मानसिकता) के कारण परस्पर अविश्वास इस प्रतिमान का लक्षण है। इस अविश्वास के कारण लिखना पढना आना प्रत्येक व्यक्ति के लिये अनिवार्य हो जाता है। समाज की बहुत बडी शक्ति और समय साक्षरता अभियान में लग जाता है। यदि लिखा पढी के स्थान पर मौखिक वचनों से काम चल जाये तो यह समय अनुत्पादक ही कहलाएगा। इस कानूनी लिखा पढी में जो विशाल मात्रा में कागजों के संचय और रखरखाव में व्यय होता है वह भी अनुत्पादक और प्रकृति का बिगाड करने वाला ही होता है। किन्तु वर्तमान प्रतिमान के कारण यह सब अनिवार्य है।
- वर्तमान प्रतिमान में धर्म नाम की कोई संकल्पना नहीं है। काम पुरूषार्थ ही मनुष्य के जीवन का नियमन करता है। इस लिये परस्पर समायोजन कठिन हो जाता है। सामाजिक सन्तुलन बिगडता है। भारतीय प्रतिमान में धर्मसत्ता सर्वोपरि होने से वह समाज को स्खलन से रोकती है। दुष्ट इच्छाओं (काम) और धर्म विरोधी धन, साधन, संसाधन और प्रयासों को (अर्थ पुरूषार्थ) को धर्म के दायरे में रखती है।
- वर्तमान प्रतिमान ने परिवारों की संस्कार क्षमता नष्ट कर दी है। बडी संख्या में स्त्रियाँ पैसे कमाने वाली (करियर वादी) बनना चाहती हैं। उन की प्राथमिकता अधिक से अधिक पैसा कमाना यह है। इस में गलत कुछ नहीं है। किन्तु इस कारण वह अब 'माता प्रथमो गुरू' में विश्वास नहीं रखतीं। अपने बच्चों पर अच्छे संस्कार कैसे किये जाते हैं इसे सीखने की उसे आवश्यकता भी अनुभव नहीं होती और समय भी नहीं होता। यह ठीक नहीं है। अभारतीय प्रतिमान पुरूष सत्ताक या पुरूष प्रधान होने से स्त्रियाँ अपने को पुरूष की बराबरी या पुरुषों से श्रेष्ठ सिध्द करने के लिये तथा विवाह टूटने की स्थिति में आनेवाली असुरक्षितता की भावना के कारण, पुरूषों से अधिक पैसे कमाना अपरिहार्य मानतीं हैं। भारतीय प्रतिमान में स्त्री और पुरूष, अकेले अकेले दोनों अधूरे होते हैं। दोनों मिलकर पूर्ण होते हैं। 'माता प्रथमो गुरू और पिता द्वितीय:’ में श्रध्दा रखते हैं। इस कारण बच्चे उन से भी श्रेष्ठ बनने की सम्भावनाएँ बनतीं हैं।
- वर्तमान प्रतिमान में नौकरों की संख्या बहुत अधिक और मालिकों की संख्या अत्यल्प होती है। जीने का मूल उद्देष्य जो स्वतन्त्रता प्राप्ति है उसी का लोप होता है। भारतीय प्रतिमान में नौकरों की संख्या अत्यल्प और मालिकों की संख्या अधिक होती है। इस कारण औसत समाज का व्यवहार भी आत्मविश्वासपूर्ण, जिम्मेदारी का, बडप्पन का होता है।
- वर्तमान प्रतिमान में किसान नष्ट होता है और जनसंख्या के केन्द्रिकरण के कारण जो गोचर भूमि का अभाव निर्माण होता है उस के कारण भारतीय गाय को कोई स्थान नहीं है। एक स्थान पर बाँधी हुई भारतीय गाय और अपने मन के अनुसार मुक्त गोचर भूमि में चरने वाली गाय के दूध में महद् अन्तर पड जाता है। गोचर भूमि में चरने वाली भारतीय गाय यह गोमाता होती है। गोमाता यह अच्छी तरह समझती है की क्या चरना चाहिये और क्या नहीं। ऐसी गाय भारतीय होती है। भारत के बाहर गाय नहीं गाय जैसा दिखनेवाला एक प्राणी 'काऊ' होता है। काऊ की तरह भारतीय गोमाता के दूध में मानव के लिये अत्यंत हानिकारक बीसीएम् ७ रसायन नहीं होता।
- वर्तमान प्रतिमान में अमर्याद व्यक्ति स्वातंत्र्य के चलते कितने भी गोहत्या बंदी के कानून बन जायें गोहत्या को रोकना संभव नहीं है।
- वर्तमान प्रतिमान में अमर्याद व्यक्ति स्वातंत्र्य के चलते ज्ञान को व्यक्ति या संस्था के एकाधिकार में बाँधने (पेटंट) की व्यवस्था जन्म लेती है। भारतीय प्रतिमान में ऐसे एकाधिकार को स्थान नहीं है।
- वर्तमान प्रतिमान में प्रत्येक व्यक्ति व्यक्तिवादी है। इस लिये औरों के साथ स्पर्धा कर अपने लिये अधिक से अधिक कमाना प्रत्येक के लिये अनिवार्य है। इस में दुर्बलों का पिछडना और शोषण होना अपरिहार्य है। इस प्रतिमान के अर्थशास्त्र का सूत्र है 'जो कमाएगा वह खाएगा। जो नहीं कमाएगा वह भूखा मरेगा'। भारतीय प्रतिमान के अर्थशास्त्र का सूत्र है 'जो कमाएगा वह खिलाएगा और जो जन्मा है वह खाएगा'।
- वर्तमान प्रतिमान में बडे शहर अपराधों के बडे केन्द्र बन गये हैं। गाँवों से आकर इन में बसनेवाले लोगों के लिये ये शहर 'अपने' नहीं होते। इन लोगों का लगाव तो अपने मूल गाँवों से होता है। इस लिये ये शहर अच्छे बनें, साफ सूथरे रहें, महिलाओं के लिये भी सुरक्षित रहें इस की जिम्मेदारी इन की नहीं होती। इन में बेघर लोगों की संख्या अच्छी खासी होती है। सामान्यत: ऐसे बेघर लोगों में अपराधीकरण जल्दी फलता फूलता ही है।
- वर्तमान प्रतिमान में लोग अधिक पैसे का संचय होने पर इस अतिरिक्त धन को और अधिक धन-प्राप्ति के मदों में लगाते हैं। होटल बनाते हैं, मॉल बनाते हैं, कंपनियों के हिस्से ( शेयर) खरीदते हैं। मुष्किल से ८/१० पीढी पहले भारतीय प्रतिमान में अतिरिक्त धन संचय होने पर उस से लोग धर्मशालाएं, अन्नछत्र, कुएँ बनवाना आदि लोकहित के काम करवाते थे।
- वर्तमान प्रतिमान में प्रकृति का प्रदूषण यह बहुत बड़ी समस्या बन गयी है। लेकिन अभारतीय सोच होने से हम भूमि, जल और वायु के प्रदूषण की ही बात करते रहते हैं। भारतीय दृष्टी से तो प्रकृति अष्टधा होती है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये तीन महाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार ये त्रिगुण मिलकर प्रकृति बनती है। प्रदूषण का विचार इन आठों के सन्दर्भ में होने की आवश्यकता है। विशेषत: मन और बुद्धि का प्रदूषण ही वास्तव में समूची समस्या की जड़ में हैं। इन का प्रदूषण दूर करने से सभी प्रदूषण दूर हो जायंगे। इसके लिए वायू, पृथ्वि, अग्नि, वरूण आदि देवता हैं ऐसे संस्कार करने होंगे। इन के प्रदूषण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन हमारे (तथाकथित सेक्युलर) अभारतीय प्रतिमान में ऐसा कहना असंवैधानिक माना जाएगा।
वर्तमान प्रतिमान और भारतीय प्रतिमान में तात्विक अन्तर ( संक्षेप में)
अभारतीय प्रतिमान | भारतीय प्रतिमान | |
---|---|---|
१ | मैं और अन्य सृष्टि -इन में द्वैत भावना | मैं सृष्टि का अंग ही हूं, यह भावना |
२ | व्यक्ति केवल अपना स्वार्थ देखता है | सब के हित में व्यक्ति अपना हित मानता है |
३ | स्वार्थ आधारित सामाजिक संबंध | कुटुम्ब भावना आधारित सामाजिक संबंध |
४ | सत्ता, जनसंख्या, सम्पत्ति का केन्द्रिकरण | सत्ता, जनसंख्या, सम्पत्ति का विकेन्द्रिकरण |
५ | स्पर्धा से विकास होने से ईर्षा, द्वेष, संघर्ष
आदि विकारों में वृद्धि |
समग्र विकास याने आत्म साक्षात्कार को
विकास मानने से विकारों से मुक्ति |
६ | विकास (एकरेखीय सुख और संसाधन-वृद्धि)
की कल्पना से प्रकृति का शोषण |
विकास की सीमा प्रकृति की चक्रीयता की
मर्यादा में अतएव प्रकृति का शोषण नहीं |
७ | उपभोक्तावाद | संयमित उपभोग (तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा) |
८ | प्रकृति मनुष्य की दासी है। इस का मनमाना
उपभोग करना चाहिये। |
प्रकृति देवता है। पवित्र है। आवश्यकता से अधिक
इस का उपभोग चोरी या डकैती है। |
९ | जो हमने समझा है, केवल वही सत्य है।
जो इसे स्वीकार नहीं करेगा उसे मार डालेंगे। |
एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति - व्यक्तिश:
सत्य का आकलन भिन्न। सब का आदर |
१० | स्त्री उपभोग के लिये है।
मुक्त स्त्री का शोषण सरल होता है। |
स्त्री अनमोल है। हर हालत में रक्षण करने योग्य।
स्त्री के आदर से समाज श्रेष्ठ बनेगा |
११ | टुकडों में विचार करने की पद्धति | समग्रता और एकात्मता से विचार की पद्दति |
१२ | आग्रह अपने अधिकारों पर | आग्रह अपने कर्तव्यों की पूर्ति पर |
१३ | सामान्य मानव प्रेषित भी नहीं बन सकता | नर करनी करे तो उतरोत्तर प्रगति करता जाये |
१४ | नौकरों की संख्या अत्यधिक, मालिक कम। | नौकरों की संख्या अल्पतम, मालिक अधिक |
१५ | केवल मैं, मेरे लोग, मेरा (मजहबी) ।
समाज या मेरा देश सुख का अधिकारी। |
सर्वे भवन्तु सुखिन:।
चराचर को सुखी होने का अधिकार और अवसर। |
१६ | समाज को विघटित कर उसे स्वार्थी
व्यक्तियों का जमावडा बना देता है |
कौटुम्बिक भावना के विकास से पूरे विश्व को
'वसुधैव कुटुम्बकम्' बना देता है |
१७ | लोगों को जबरन अपने जैसा बनाना,
यह कर्तव्य है (व्हाइट मॅन्स् बर्डन) |
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्' के माध्यम से विश्व को
श्रेष्ठ बनाना। कृण्वंतो विश्वम् आर्यम्। |
१८ | रिलीजन, मजहब या भौतिक शास्त्रीय दृष्टि
जीवन का नियमन करते हैं |
समाज जीवन की धारणा करने वाला 'धर्म' मानव
जीवन का नियमन करता है |
परिवर्तन की प्रक्रिया
इस विषय के भाग १ में हमने भारतीय और अभारतीय दोनों प्रतिमानों के विभिन्न पहलुओं और व्यवस्था समूह को समझने का प्रयास किया है। अभारतीय प्रतिमान को नकार कर भारतीय प्रतिमान की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया को समझने से पहले प्रतिमान के विभिन्न व्यवस्थाओं के परस्पर पूरक और पोषक संबंधों को समझना होगा। ऐसा करने से भारतीय प्रतिमान के युगानुकूल स्वरूप को समझने में सहायता होगी। भारतीय प्रतिमान का चिरंजीवी हिस्सा कौन सा है और युगानुकूल हिस्सा कौनसा है? पूर्णत: नई व्यवस्थाओं का निर्माण करना होगा या नष्टप्राय व्यवस्थाओं को पुन: संजीवनी देनी होगी? यह पुरानी व्यवस्थाओं और पूर्णत: नयी निर्माण की हुई व्यवस्थाओं का समायोजन ठीक से होगा या नहीं? समायोजन के लिये क्या करना होगा? आदि को समझना सरल होगा।
पूर्णत: नयी व्यवस्थाओं के निर्माण में सब से बडी कठिनाई यह है की इस की प्रस्तुति ध्यानावस्था प्राप्त या ऋषि स्तर का व्यक्ति ही कर सकता है। और ध्यानावस्था प्राप्त हुई है ऐसा कोई महामानव आज दिखाई नहीं देता। ऐसा कोई होगा भी तो हमारी उसे पहचानने की योग्यता भी नहीं है। इस कारण व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने से यही समझ में आएगा की कोई प्रकांड पंडित जब तक भारतीय जीवन दृष्टि और अनुकूल व्यवहार के लिये आवश्यक व्यवस्था समूह की रूपरेखा की प्रस्तुति नहीं करता तब तक तो पुरानी व्यवस्थाओं के दोषों को दूर कर उन्हें निर्दोष स्वरूप में फिर से अपनाना होगा। पुरानी व्यवस्थाएँ जस की तस तो फिर नहीं लाई जा सकतीं। किंतु तत्व वही रखकर उनके कालानुरूप स्वरूप का विचार और प्रतिष्ठापना की जा सकती है।
चिरंजीवी भारतीय प्रतिमान की पुन: प्रतिष्ठा
परिवर्तन जगत का नियम है। विश्व के हर घटक में हर क्षण परिवर्तन होता ही रहता है। इन में कुछ परिवर्तन प्राकृतिक होते हैं। यह परिवर्तन परमात्मा द्वारा किये होते हैं याने सृष्टी के नियमों के अनुसार होते हैं। और कुछ परिवर्तन मानव कृत होते हैं। मानव समाज के लिये यही बुध्दिमानी की बात है की वह जो परिवर्तन करता है वे परमात्मा कृत परिवर्तनों से सुसंगत रहें। कम से कम अविरोधी तो रहें। अर्थात् परमात्मा कृत परिवर्तनों का और प्रकृति का विरोध करने वाली कोई भी बात इस परिवर्तन की प्रक्रिया में वर्जित होगी। धर्म से संबंधित कुछ भारतीय संकल्पनाओं को इस संदर्भ में समझना ठीक होगा:
- धारणात् धर्ममित्याहू धर्मो धारयते प्रजा:[1] इस व्याख्या के अनुसार जिस से धारणा होती है उसे धर्म कहते हैं। समाज धर्म का अर्थ है, जिस से समाज की धारणा होती है। और समाज की धारणा का या समाज धर्म का अर्थ है समाज को यानी समाज के सभी घटकों को वह सब बातें करनी चाहिये जो उसे बनाए रखे, बलवान बनाए और बनाए रखे, निरोग बनाए और बनाए रखे, लचीला बनाए और बनाए रखे, तितिक्षावान बनाए और बनाए रखे। इस के विपरीत कुछ भी नहीं करे। पुत्रधर्म, गृहस्थ धर्म, समाज धर्म, राष्ट्र धर्म आदि अलग अलग संदर्भों में इसे समझना होगा।
- यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स धर्म:[2] : जो करने से मनुष्य को इस जन्म में प्रेय और अगले जन्म की दृष्टि से श्रेय की भी प्राप्ति हो वही 'धर्म' है। यहाँ प्रेय से तात्पर्य है जो मन और इंद्रियों को प्रिय लगता है याने भौतिक विकास। और श्रेय से तात्पर्य है कल्याण होने से। जीवन का अंतिम लक्ष्य जो मोक्ष है उस की प्राप्ति होने की दृष्टि से आगे बढना। ऐसे कर्म करना जिन से अगले जन्म में अधिक श्रेष्ठ जन्म या मोक्ष प्राप्त होगा। प्रत्येक मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। साथ ही इस में एक पूर्व शर्त रखी गई है। वह है 'आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च[3]' । मोक्ष प्राप्ति का मार्ग 'जगत् हिताय च' के रास्ते से जाता है, चराचर के सुख के रास्ते से जाता है।
- आचार: प्रभवो धर्म:[4] : केवल श्रेष्ठ तत्वज्ञान को धर्म नहीं कहते। धर्म आचरण के लिये होता है। जो आचरण में लाया जा सकता है, लाया जाना चाहिये ऐसे आचरण को ही धर्म कहते हैं।
- सामाजिक संगठन प्रणालियाँ और सामाजिक व्यवस्थाएं भी ऐसी बनें जो इन धर्म की संकल्पनाओं की अविरोधी हों। मानव कृत परिवर्तन धर्म से सुसंगत, अविरोधी या विरोधी ऐसे कुछ भी हो सकते हैं। जब मानव कृत परिवर्तन धर्म सुसंगत होते हैं तब वे सब के लिये हितकारी होते हैं। जब ये परिवर्तन धर्म अविरोधी होते हैं तब वे कुछ लोगों के या बहुत सारे लोगों के हित में होते हैं किन्तु किसी को हानी नहीं पहुंचाते। लेकिन जब यह परिवर्तन धर्म विरोधी होते हैं तब वे कुछ लोगों के या सभी के अहित के होते हैं।
किसी भी मानव कृत परिवर्तन की प्रक्रिया में यह परिवर्तन चराचर के हित में हो इस की सुनिश्चिति के लिये यह आवश्यक है कि परिवर्तन की योजना की प्रस्तुति करनेवाला, धर्म का अच्छा जानकार हो। ऐसे लोगों को धर्माचार्य कहते हैं। धर्माचार्यों द्वारा नियंत्रित, निर्देशित और नियमित शक्ति को धर्मसत्ता कहते हैं। धर्म सत्ता कोई संगठन नहीं होता। धर्मसत्ता यह धर्माचार्यों का जनजन पर जो नैतिक प्रभाव होता है उसका नाम है।
श्रीमद्भगवद्गीता (८- ४२,४३,४४) में चार वर्णों के गुण और कर्मों का वर्णन आता है। यह वर्ण उन के स्वभाव के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ऐसे चार प्रकार के होते हैं। चराचर के हित में परिवर्तन करने के लिये यह आवश्यक है कि ब्राह्म-तेज और क्षात्रतेज का ठीक से समायोजन हो। ब्राह्मण वर्ग याने धर्मसत्ता का काम होगा चराचर के हित को ध्यान में रखते हुवे पुनरूत्थान की योजना (स्मृति) की प्रस्तुति करना। और धर्मशास्त्र के जानकार और अनुपालन कर्ता ऐसे क्षात्रतेज का यानी शासक का काम यह होगा कि वह धर्मसत्ता ने प्रस्तुत की हुई योजना को समाज में स्थापित करे।
प्रत्यक्ष प्रक्रिया शायद निम्न जैसी होगी:
- समर्पित, क्षमतावान और समाज तथा धर्म की योग्य समझ रखने वाले धर्माचार्यों के एक गट ने सामूहिक चिंतन के लिए एकत्रित आना।
- 'धर्म' इस शब्द को उस के सही अर्थों में सर्व प्रथम सभी धर्माचार्यों, संप्रदायाचार्यों में स्थापित करना।
- कलि युगानुकूल और भारत देशानुकूल निर्दोष धर्मशास्त्र (स्मृति) की प्रस्तुति करना। इस हेतु आवश्यक अध्ययन, अनुसंधान और व्यापक प्रबोधन तथा विचार विमर्श करना।
- इस स्मृति के प्रति समाज में सर्वसहमति निर्माण करना। इस स्मृति को व्यापक समर्थन मिले ऐसे प्रयास करना।
- वर्तमान प्रजातंत्रात्मक शासन प्रणालि के कारण और मेकॉले शिक्षा के कारण हिंदू समाज भी भारतीय 'धर्म' संकल्पना से अनभिज्ञ हो गया है। इस लिये सब से पहले तो 'धर्म' संकल्पना को सामान्य हिंदू समाज में स्थापित करने के प्रयास करने होंगे। धर्म यह समूचे समाज को जोडने वाली बात है। पंथ, संप्रदाय, मत आदि का भी महत्व है। लेकिन ये व्यक्तिगत बातें हैं। सामाजिक एकात्मता के संदर्भ में संप्रदाय समाज को अलग अलग पहचान देनेवाली संकल्पनाएं हैं। मजहब और रिलीजन तो समाज को तोडने वाली, अन्य समाजों से झगडे निर्माण करने वाली राजनीतिक संकल्पनाएं हैं। इन बातों को भी स्थपित करना होगा। इस लिये किसी भी मत, पंथ, संप्रदाय, रिलीजन या मजहब की पुस्तकों में धर्म के विपरीत यदि कुछ है तो योग्य विचारों के आधारपर जन-जागरण कर उन विपरीत विचारों को निष्प्रभ करना होगा। केवल मात्र हिंदू समाज धर्म की संकल्पना के करीब है इसे भी प्रचारित करना होगा। साथ ही में जिन हिन्दूओं का व्यवहार धर्म के विपरीत हो उन का प्रबोधन कर उन को भी बदलना होगा।
- हमें अपने इतिहास से भी कुछ पाठ सीखने होंगे। स्व-धर्म और स्व-राज ये दोनों साथ में चलाने की बातें हैं। जब शासन धर्म का अधिष्ठान छोड देता है या धर्म व्यवस्था जब राज्य को धर्महीन या धर्म विरोधी बनने देती है तब ना तो स्व-धर्म बचता है और ना ही स्व-राज। इतिहास इस का साक्षी है कि हरिहर-बुक्कराय के साथ में स्वामी विद्यारण्य रहे, शिवाजी के साथ में रामदास रहे, राज करेगा खालसा के साथ सिख गुरू रहे तब ही स्व-धर्म की रक्षा भी हो पाई और स्व-राज्य की भी। तब ही स्व-राज वर्धिष्णू रहा। लेकिन जैसे ही और जब जब धर्म व्यवस्था और राज्यसत्ता में अन्तर निर्माण हुवा समाज गतानुगतिक स्थिति को प्राप्त हुवा।
- इस लिये जो धर्मशास्त्र (नव निर्मित स्मृति) का ज्ञाता, अनुपालन कर्ता और क्रियान्वयन करवाने वाला होगा ऐसा स्थिर शासन यह अपेक्षित परिवर्तन के लिये अनिवार्य ऐसी बात है। ऐसे शासन की स्थिरता भी इसमें महत्वपूर्ण है। किन्तु ऐसा शासक तभी संभव होगा जब धर्मसत्ता प्रबल होगी, असामाजिक, अधार्मिक तत्वों द्वारा शासन पर आने वाले दबावों का जनमत के आधारपर सक्षमता से विरोध कर शासक को धर्म के अनुपालन के लिये बल देगी। सामान्य लोगों में जडता होती है। इस लिये परिवर्तन का विरोध यह स्वाभाविक बात है। हम कुछ कमजोर या बीमार बच्चों को, उन की इच्छा के विरूध्द, उन के ही हित के लिये कडवी दवा भी पिलाते हैं। उसी प्रकार से शासक को, स्वभाव के या आलस के कारण अधर्माचरण करनेवाले लोगों से धर्म का अनुपालन करवाना होगा।
- इन प्रयासों के साथ या कुछ आगे ही शिक्षा व्यवस्था को चलना होगा। प्रभावी ढंग से समाज को धर्माचरण सिखाना होगा। समाज धर्म सिखाना होगा। प्रतिमान की शिक्षा देनी होगी। समाज जीवन की अन्य व्यवस्थाओं के संबंध में भी जीवन के भारतीय प्रतिमान से सुसंगत ऐसे परिवर्तन के समानांतर प्रयास करने होंगे। धर्म व्यवस्था से मार्गदर्शित शिक्षा व्यवस्था परिवर्तन के लिये युवा शक्ति का निर्माण करेगी।
- धर्मशिक्षा की सुदृढ नींव डालनेवाली एकत्रित कुटुम्ब व्यवस्था को पुन: शक्तिशाली बनाना होगा।
- गाँवों को ग्रामकुल और समाज के योगक्षेम की व्यवस्था के लिये सुधारित व्यवस्था की भी प्रतिष्ठापना करनी होगी।
- संघ शक्ति की इस परिवर्तन की प्रक्रिया में महति भूमिका होगी।
प्रतिमान के परिवर्तन के स्वरूप और परिवर्तन की प्रक्रिया का अधिक गहराई से विचार हम आगे करेंगे।
युगानुकूलता
जमाने के साथ चलना चाहिए, आजकल साईंस का ज़माना है, आजकल ज्ञानाधारित समाज का ज़माना है, आधुनिकता आदि शब्द प्रयोग युगानुकूल याने आज जैसा युग है उसके अनुकूल जीने के लिए उपयोग में किये जाते हैं। हमारा व्यवहार युगानुकूल होना चाइये ऐसा कहना ठीक ही है। लेकिन किसी बात का वर्तमान में चलन होना ही मात्र युगानुकूलता की कसौटी नहीं है। कुछ उदाहरणों से इसे स्पष्ट करेंगे
- वस्त्रों की आवश्यकता मुख्यत: वातावरण की विषमताओं से सुरक्षा और लज्जा रक्षण के लिए किया जाता है। लज्जा रक्षण के वस्त्रों से तात्पर्य है जिनमें आपको देखकर किसी के मन में कामवासना न जागे। वस्त्रों का रंगरूप, वस्त्रों में नवाचार यह वर्तमान में जो भी प्रचलित है उस के हिसाब से हो सकता है। जबतक वातावरण से सुरक्षा और लज्जा रक्षण होता है तबतक किसी भी प्रकार के वस्त्र युगानुकूल हो सकते हैं।
- आत्मिक सुख की सर्वोच्चता : इसी प्रकार से सुख के भिन्न भिन्न स्तर तो हमेशा ही रहेंगे। किसे किस प्रकार के सुख की अभिलाषा है वह अन्य कोई तय नहीं करेगा। लेकिन सुख प्राप्ति के मार्ग भिन्न हो सकते हैं। वह पूर्व काल से वर्तमान में भिन्न भी हो सकते हैं। जैसे कभी भारत में नाटक मंडलियाँ नाटक प्रस्तुत करतीं थीं। उस का स्थान यदि ड्रामा अकेडमी के नाम से तामझाम से प्रस्तुति होती है, वातानुकूलित भवन में होती है तो उसमें कोई आपत्ति लेने का कारण नहीं है।
उपसंहार
यहाँ तो इस की एक मोटी मोटी कल्पना ही रखी जा सकती है। जैसे जैसे धर्मसत्ता प्रबल होगी तब धर्माचार्यों की टोली ही इस योजना की और अधिक व्यापकता और विस्तार से प्रस्तुति करेगी। धर्मसत्ता के नेतृत्व में ही यह परिवर्तन संभव होगा। अंग्रेज अपने प्रतिमान को भारत में स्थापित कर सके इस का मुख्य कारण यह है कि उन का प्रतिमान शासन अधिष्ठित था। जीवन के भारतीय प्रतिमान का अधिष्ठान धर्म है। इस लिये यदि धर्म के अधिष्ठान में समाज को चलाने वाला प्रतिमान निर्माण करना है तो पहल तो धर्मसत्ता को ही करनी होगी। सब से अधिक त्याग के लिये तैयार होना होगा। दूसरे महत्व क्रम पर शिक्षा और तीसरे महत्व क्रम पर शासन व्यवस्था इस परिवर्तन के साधन होंगे।
आज कल भारतीय संविधान को ही “यही भारत की युगानुकूल स्मृति है” ऐसा लोग कहते हैं। इस में अनेकों दोष हैं। फिर इस में परिवर्तन कि प्रक्रिया जिन लोक-प्रतिनिधियों के अधिकार में चलती है, उन की विद्वत्ता और उन के धर्मशास्त्र के ज्ञान और आचरण के संबंध में न बोलना ही अच्छा है, ऐसी स्थिति है। इसलिये वर्तमान संविधान को ही वर्तमान भारत की स्मृति मान लेना ठीक नहीं है।
गत दस ग्यारह पीढियों से हम इस अभारतीय प्रतिमान में जी रहे हैं। इस प्रतिमान के अनुसार सोचने और जीने के आदि बन गये हैं। इस लिये यह परिवर्तन संभव नहीं है ऐसा लगना स्वाभाविक ही है। किन्तु हमें यह समझना होगा कि इस प्रतिमान को भारत पर सत्ता के बल पर लादने के लिये भी अंग्रेजों को १२५-१५० वर्ष तो लगे ही थे। हजारों लाखों वर्षों से चले आ रहे भारतीय प्रतिमान को वे केवल १५० वर्षों में बदल सके। फिर हमारे हजारों वर्षों से चले आ रहे जीवन के प्रतिमान को जो मुष्किल से १५० वर्षों के लिये खण्डित हो गया था, फिर से मूल स्थिति की दिशा में लाना ५०-६० वर्षों में असंभव नहीं है। शायद इस से भी कम समय में यह संभव हो सकेगा। किन्तु उस के लिये भगीरथ प्रयास करने होंगे। वैसे तो समाज भी ऐसे परिवर्तन की आस लगाये बैठा है। लेकिन क्या प्रबुध्द हिन्दू इस के लिये तैयार है?
References
अन्य स्रोत: