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शिक्षा की जब चर्चा चलती है तब व्यक्तित्व के
सर्वांगीण विकास के लिये शिक्षा का विचार होता है।
व्यक्तित्व विकास की कल्पना की जाती है । सर्वागीण
विकास के साथ साथ समग्र विकास की भी चर्चा अब होने
लगी है। जो लोग समग्र विकास के स्थान पर सर्वागीण
विकास की बात करते हैं वे भी सामाजिक विकास की,
राष्ट्रीय विकास की भी बात करते हैं। परन्तु शिक्षा का
विचार करते समय केवल व्यक्तिगत शिक्षा या समग्र के संदर्भ
में व्यक्ति के विकास की बात करना पर्याप्त नहीं होता है ।
देश की और विश्व की आज की स्थिति देखते हुए तो यह
बात विशेष ध्यान में आती है क्योंकि आज विश्व में एक से
बढ़कर एक शिक्षासंस्थान हैं तो भी विश्व की दशा ठीक नहीं
है । संकट इतने बढ़ रहे हैं कि स्थिति जैसे हाथ से बाहर
निकल जा रही है, कोई उपाय नहीं सूझ रहा है । इससे भी
ध्यान में आता है कि केवल व्यक्ति का विचार करना पर्याप्त
नहीं है, देश का भी विचार करना चाहिए ।
देश का विचार कैसे करें
देश का विचार करना है तो तीन बातों का विचार
करना चाहिए ।
०... समस्त भूप्रदेश में जिन जिन क्षेत्रों में प्रजाजन निवास
कर रहे हैं उन सभीके सन्दर्भ में शिक्षा का विचार
०. समस्त प्रजाजनों के अभ्युद्य और निःश्रेयस का
विचार
०... वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देश की समृद्धि और संस्कृति की
रक्षा का विचार
समस्त भूप्रदेश में निवास करने वाले प्रजाजनों के
सन्दर्भ में शिक्षा
भारत बहुत बड़ा देश है । विश्व के अनेक देश तो
भारत के एक छोटे राज्य जितने अथवा कहीं तो एक जिले
जितने विस्तार के हैं। इतने बड़े भूप्रदेश में अपरिमित
भौगोलिक और सांस्कृतिक वैविध्य है। राज्य राज्य में
अलग भाषा है, एक एक भाषा की अनेक बोलियाँ हैं,
अलग खानपान है, अलग वेशभूशा है, अलग रीतिरिवाज
है । प्रकृति ने भी बहुत वैविध्य दिया है । तापमान, वर्षा,
धान्य, औषधि आदि की प्रदेश प्रदेश की विविधता है ।
अनेक सम्प्रदाय हैं । समय समय पर नये नये सम्प्रदाय बन
रहे हैं । इतनी सारी विविधता भेद्भाव और कलह का कारण
न बने इस दृष्टि से शिक्षा की सम्यक व्यवस्था होना अत्यन्त
आवश्यक है । भारत का इतिहास प्रमाण है कि हमने इस
विविधता को अत्यन्त आदर और गौरव के साथ सम्हाला है
और उससे देश लाभान्वित हुआ है । आज विविधता सौन्दर्य
का लक्षण न रहकर भेद का कारण बन रही है । इसीलिए
शिक्षा के सम्बन्ध में पुनर्विचार की आवश्यकता है ।
प्रथम विचार देश के प्रजाजनों के जो प्रमुख विभाग हैं
उनका करेंगे । ये विभाग हैं वनवासी, ग्रामबासी, नगरवासी
प्रजाजन । हम एक एक कर इनका विचार करेंगे ।
बनवासी क्षेत्र और शिक्षा
विशाल भारत के लगभग सभी राज्यों में वनवासी क्षेत्र
है । पूरे देश में लगभग १०.४३ करोड वनवासी लोग रहते
हैं। देश की कुल जनसंख्या का यह ८.६ प्रतिशत है ।
वैश्विक सन्दर्भ में भी वनवासी क्षेत्र की शिक्षा का विचार
करने की आवश्यकता तो है ही क्योंकि वन तो पृथ्वी पर
सर्वत्र है । परन्तु हम यहाँ विशेष रूप से भारत के सन्दर्भ में
विचार करेंगे । इस सन्दर्भ में कुछ इस प्रकार से विचार करना
चाहिए ...
०... वनों में रहने वाले वन की प्रकृति के अंग रूप बनकर
जीते हैं । वनों में विभिन्न प्रकार की वनस्पति और
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पर्व २ : उद्देश्यनिर्धारण
औषधि भरपूर मात्रा में होती हैं । वन इतने गहन होते
हैं कि वहाँ सड़कें बनना संभव नहीं होता । वनों के
साथ अधिकांश पहाड़ भी होते हैं । वनों और पहाड़ों
के कारण यातायात दुर्गम होता है । वहाँ का आहार
वहाँ उगने वाले धान्य और सागसब्जी और फलों का
होता है । वहाँ के आवास, वस्त्रालंकार आदि वहाँ
प्राप्त होने वाली सामग्री से बनते हैं ।
यह सब उनके लिये स्वाभाविक है । वे उससे खुश ही
रहते हैं । उन्हें अभाव का अनुभव नहीं होता है ।
उनके अपने नृत्य, गीत, उत्सव होते हैं । उनके अपने
देवीदेवता होते हैं । उनकी अपनी पूजापद्धति होती है,
अपनी आस्थायें होती हैं । उनकी अपनी सामाजिकता
होती है, अपने विवाहसंबंध होते हैं और अपने
रीतिरिवाज होते हैं । संक्षेप में उनकी अपनी एक
संस्कृति होती है । इस संस्कृति की रक्षा करने हेतु
उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था होना आवश्यक है ।
वनवासी लोग वनों की दुर्गमता में रहते हैं । वनों में
वन्य पशु और जीवजन्तु होते हैं । उनके साथ रहते
रहते उनमें निर्भयता और निर्दोषता दोनों का विकास
होता है । वन्य पशुओं से उनकी मित्रता भी हो जाती
है । साहस, शारीरिक कौशल और बल उनमें बहुत
अधिक होते हैं । वन्य पशुओं के साथ रहने में जो
चापल्य की आवश्यकता होती है वह भी उनमें बहुत
होता है ।
वे वन की वनस्पति को जानते हैं, वन्य पशुओं के
स्वभाव को जानते हैं, उनसे बचना कैसे वह भी जानते
हैं । वनस्पति के औषधि गुणों का उनका ज्ञान अद्भुत
होता है । किसी भी प्रकार की बीमारी का इलाज वे
कर सकते हैं । कलाकारीगरी इतनी अच्छी जानते हैं
कि उनके घर, उनके अलंकार आदि में वह दिखाई
देता है । उदाहरण के लिये आवास निर्माण करना उन्हें
अवगत है । ये तो केवल उदाहरण हैं । ये केवल इस
बात का निर्देश देते हैं कि प्रकृति विषयक उनका ज्ञान
किसी भी शाख्रज्ञ से कम नहीं होता है ।
जीवन की उनकी अपनी समझ है । उनके मनुष्यों के
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साथ और वन्य पशुओं तथा
वनस्पति जगत के साथ सम्बन्ध मूल रूप से न्याय,
मैत्री और प्रामाणिकता के होते हैं। उनकी
जीवनविषयक समझ सादी परन्तु सीधी होती है,
जटिलता बहुत कम होती है ।
संक्षेप में कहें तो सांस्कृतिक और भौतिक दोनों दृष्टि
से उनका जीवन स्वयमपूर्ण होता है ।
इस संस्कृति पर आज जो संकट छाये हैं वे अधिकांश
हमारे कारण से हैं । इनका स्वरूप इस प्रकार का है ...
हम उन्हें समझने की परवाह नहीं करते हैं । हमारे
अल्पज्ञान के कारण वे हमारे जैसे नहीं हैं इसलिए
विकसित नहीं हैं और हमारे पास हैं ऐसी सुविधायें
नहीं हैं इसलिए वे दुःखी हैं ऐसा मानते हैं । हमारे
जैसी शिक्षा देंगे तो उनका विकास होगा यह हमारा
भ्रम है। हमारे जैसी शिक्षा प्राप्त कर हमारे जैसी
नौकरी करना, हमारे जैसे कपड़े पहनना, हमारे जैसी
भाषा बोलना, हमारे जैसे घरों में रहना आदि विकास
के लक्षण हैं ऐसा हमारा विचार उनके लिये संकट का
ही कारण बनता है परन्तु इसका विचार हमें नहीं आता
है। जो हमारे जैसा नहीं वह विकसित नहीं यह तो
बहुत ही असहिष्णु विचार है, अमानवीय विचार है,
भारत की संस्कृति का यह विचार है ही नहीं ।
इसलिए शिक्षा का विचार करते समय हमें उन्हें अपने
जैसा बनाना है यह विचार ही छोड़ देना चाहिए ।
वन्य सम्पदा की भयंकर लूट, हमारे ही लाभ के
कानून बनाकर उनका होने वाला भयानक शोषण और
उन्हें असंस्कृत मानकर उनके लिए की जाने वाली
हमारे जैसी शिक्षा व्यवस्था हमने उन पर किया हुआ
आक्रमण है। हमारे बुद्धिबल, सत्ताबल और
पुलिसबल के कारण हमने उन्हें कहीं का नहीं रखा
है । उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था करने से पूर्व हमें
ही अपनी समझ और व्यवहार ठीक कर लेने की
आवश्यकता है ।
जिस प्रकार नागरी संस्कृति का आक्रमण उनके लिये
संकट का एक निमित्त है उसी प्रकार धर्मांतरण का
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संकट बहुत बड़ा है। भारतीयता की
मुख्य धारा से तोड़ने का काम एक ओर ईसाई
मिशनरी और दूसरी ओर साम्यवादी खेमा करता है ।
विश्व के व्यापारी संगठन वन्य सम्पदा की लूट चला
रहे है । भारत के व्यापारी भी इसमें पीछे नहीं हैं । एक
संकट मानसिकता बदलने का है । ब्रिटीशों ने अपने
शासन के दौरान उनके लिये आदिवासी शब्द का
प्रयोग शुरू किया । स्वतन्त्र भारत में हमने भी बिना
कोई विचार किए उसे अपना लिया है। इसका
पुनर्विचार होने की आवश्यकता है । एक सादा प्रश्र
पुछने की आवश्यकता है कि यदि वनवासी इस देश में
आदि क्वासी अर्थात मूल निवासी हैं तो हम नगरों और
ग्रामों में रहने वाले, जो वनों में नहीं रहते हैं वे लोग,
कौन हैं ? ब्रिटीशों ने लिखे अथवा लिखवाये इतिहास
की थियरी कहती है कि जिस प्रकार आप ब्रिटीशों को
आक्रान्ता कहते हैं उसी प्रकार ये नगरों और ग्रामों में
रहने वाले, अपने आपको आर्य बताने वाले लोग भी
भारत के नहीं हैं, वे भी बाहर से ही आफ्रान्ता बनकर
ही आए हैं, इसलिए यदि ब्रिटिश इस देश को छोड़कर
जाएँ ऐसा कहना है तो आर्यों को भी इस देश को
छोड़कर जाना चाहिए । अब तो विश्व इतिहास ने भी
आर्य बाहर से भारत में आए इस थियरी को नकार
दिया है । अब विश्व स्वीकार करता है कि आर्य इस
देश के ही थे औए भारत से सम्पूर्ण विश्व में गए थे ।
परन्तु आज भी वनवासी अपने आपको वनवासी न
कहकर आदिवासी अथवा मूल निवासी कहलाना
अधिक पसन्द करते हैं । और नागरी लोगों को अपने
शत्रु मानते हैं । (नागरी लोग वैसे हैं भी । इस कारण
से उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था करना तो दूर हमने
अपने आपको रोकने की आवश्यकता है ।
इन दो बातों का सन्दर्भ ठीक से ध्यान में लेकर उनका
परिहार कैसे करना इसका ठीक से विचार कर लेने के बाद
उनके लिये और उनके सन्दर्भ में शिक्षा का विचार करना
चाहिए । ऐसा विचार करने के आयाम कुछ इस प्रकार हैं
०... सर्व प्रथम हमारे विश्वविद्यालयों में वनवासी संस्कृति
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
का अध्ययन होना चाहिए । ऐसे अध्ययन हेतु कुछ
बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए । ऐसा अध्ययन
उनके साथ नागरी जीवन की समरसता स्थापित करने
की दृष्टि से होना आवश्यक है । उनकी संस्कृति की
विशेषताओं को जानने की दृष्टि से होना चाहिए । हमें
उनकी रक्षा के लिये क्या क्या करने की आवश्यकता
पड़ेगी यह जानने की दृष्टि से होना चाहिए ।
ऐसा अध्ययन वनवासी क्षेत्र में रहकर, उनके साथ
समरस होकर, उन्हें हमारे साथ सहभागी बनाकर होना
चाहिए । आज तो उनके मन में हमारे लिये विश्वास
नहीं है। यह विश्वास जागृत करने का काम प्रथम
करना चाहिए । वनवासी संस्कृति का अध्ययन हमें भी
करना चाहिए और उनके लिये भी योजना बनानी
चाहिए ।
इस अध्ययन का केन्द्र अनिवार्य रूप से वनवासी क्षेत्र
में ही होना चाहिए । वनवासी परिवेश में ही होना
चाहिए । वहाँ अध्ययन करने वाले लोगों ने वहाँ की
जीवनशैली अपनानी चाहिए । हम यदि नगरों में आने
वाले वनवासियों को नगरों के खानपान और
वसख्त्रपरिधान के लिये बाध्य कर सकते हैं तो हम भी
उनकी शैली अपना सकते हैं ।
वनवासियों के पास जो ज्ञान है उसका अध्ययन करना
चाहिए । अभी उनके पास जो ज्ञान है वह शास्त्रीय
नहीं है, पारम्परिक है । परन्तु अनुभव यह आता है
कि शाख्रीय ज्ञान प्राप्त किए हुए अनेक लोगों की
तुलना में वह अधिक पक्का और परिणामकारी है ।
उसका बहुत बड़ा कारण तो यह है कि उनका
पारम्परिक ज्ञान भारतीयता की बैठक लिये हुए है और
हमारे विश्वविद्यालयों में दिया जाने वाला ज्ञान
यूरोअमेरिकी अधिष्ठान लिए हुए है । ऊपर से हमारे
विश्वविद्यालयों में निष्ठापूर्वक अध्ययन भी नहीं होता
है। इन दो कारणों से वनवासियों के ज्ञान का और
हमारे विश्वविद्यालयों के ज्ञान का कोई मेल नहीं है ।
इस परिप्रेक्ष्य में उनके ज्ञान को हमने ठीक से अध्ययन
कर उसे प्रतिष्ठा दिलाने का प्रयास करना चाहिए ।
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पर्व २ : उद्देश्यनिर्धारण
हमारी सरकारी नीतियाँ आज तो इसके विपरीत हैं अध्ययन के प्रतिकूल होता है ।
परन्तु हमें इसका भी ठीक से अध्ययन कर समस्या... *... नगरों और बनों को एकदूसरे की सहायता की
सुलझाने का प्रयास करना चाहिए । आवश्यकता है । नगर वनों के ज्ञान को प्रतिष्ठा दें ।
०... वनवासियों को नगर में लाने का प्रयास हम सोचते हैं वन नगरों को ज्ञान के भारतीय अधिष्ठान की प्रेरणा
उतना उचित नहीं है । वे वन में रहकर खुश हैं तो उन्हें दे । परस्पर लाभान्वित होकर दोनों समरसता स्थापित
नगरों में लाने की या नगरों को वनो में ले जाने की कर सकते हैं । ..
क्या आवश्यकता है ?
०... उनके शिक्षा क्रम में हुनर की नई नई तकनीकी और ग्रामशिक्षा
राष्ट्रदर्शन ये दो महत्त्वपूर्ण अंग होने चाहिए । राष्ट्रजीवन भारतमाता ग्रामवासिनी है । ग्राम देश की ग्रामलक्ष्मी
को समृद्ध बनाने में वनवासियों का कितना अधिक... है| देश की समृद्धि का स्रोत ग्राम है । भारत में लगभग सात
योगदान है इसकी अनुभूति करवानी चाहिए । यह... लाख ग्राम हैं । इतनी बड़ी संख्या में यदि ग्राम हैं तो देश
जानकारी हमारे नगरों में पढ़ने वाले छात्रों को भी... अत्यन्त समृद्ध होना चाहिये और देश में किसी भी वस्तु का
उचित स्वरूप में मिलनी चाहिए । अभाव नहीं होना चाहिये । परन्तु भारत की स्थिति को देखते
०... नगरों के छात्रों को वनवासी संस्कृति का अध्ययन... हुए या तो यह कथन असत्य लगता है अथवा भारत वास्तव
सामान्य शिक्षा में होना चाहिए । शिक्षा के सभी स्तरों... में समृद्ध है परन्तु हम उस समृद्धि को देख नहीं सकते हैं ।
पर विशेष योजना बनाकर ऐसा शिक्षाक्रम बनाया जा ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे
सकता है । ग्रामविषयक चिन्तन में और उसके आधार पर किये जा रहे
०... नागरी क्षेत्र और वनवासी क्षेत्र की समरसता दोनों क्षेत्रों... व्यवहार में कहीं गड़बड़ है । इस सन्दर्भ को ध्यान में रखकर
की शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। वनों को नष्ट ... हम कुछ बातों का विचार करेंगे ।
करना और सर्वत्र नगर ही नगर बना देना किसी भी ग्राम और ग्रामीण क्षेत्र की शिक्षा के सन्दर्भ में कुछ
प्रकार से वांछनीय नहीं है । इस प्रकार की बातें विचारणीय हैं ।
०... एक बात विशेष रूप से सबके शिक्षाक्रम में समाविष्ट .. *... ग्राम किसे कहते हैं ? केवल जनसंख्या के आधार पर
होनी चाहिए । भारत का ज्ञान, भारत के गुरुकुल, ग्राम नहीं होता । हमने जनसंख्या का आधार लेकर
भारत की श्रेष्ठ शिक्षा तपोवनों में खिली है । ऋषि भूप्रदेश को ग्राम कहा है और उसके लिए प्रशासन के
अरण्यवासी थे । वानप्रस्थी वनों में निवास करते थे । लिये ग्रामपंचायतों की व्यवस्था की है । सामान्य
तपस्वियों का तप वनों में होता था । आज भी पहाड़ों बातचीत में तो हम कह देते हैं की जहां ग्रामपंचायत
और वनों में अनेक सिद्ध योगी तपश्चर्या कर रहे हैं । होती है वह ग्राम होता है । ऐसा नहीं है, जहां ग्राम
हजारों वर्षों की तपश्चर्या और ज्ञान वनों में आज भी होता है वहाँ ग्रामपंचायत होती है । वास्तव में ग्राम
सुरक्षित है। इस तपश्चर्या के कारण वन पतित्र की यह परिभाषा ठीक नहीं है ।
वातावरण से युक्त हैं । इस पवित्रता की कथाओं को... *... ग्राम की भारतीय पारम्परिक परिभाषा आर्थिक है ।
पाठयक्र्मों में स्थान देना चाहिए । जिस प्रकार कुट्म्ब सामाजिक लघुतम इकाई है उस
०. इन वनों में आज भी विश्वविद्यालय स्थापित किए जा प्रकार गाँव लघुतम आर्थिक इकाई है । मनुष्य का
सकते हैं जो वनों के वातावरण से अनुप्राणित होकर दैनंदिन जीवन की सारी आवश्यकताओं का उत्पादन
नागरी जीवन के लिए अध्ययन और अनुसन्धान करें । हो जाता है और बाहर से कुछ भी लाना नहीं पड़ता
नगरों का वातावरण तो वैसे भी कलुषित और वह गाँव है ।
Fok
............. page-118 .............
° wa उद्योगकेन्द्र होते हैं।
भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना गाँव का काम
है। उद्योग का अर्थ है उत्पादनकेन्द्र । गाँव में सभी
भौतिक वस्तुओं का उत्पादन होता है ।
गाँव का मुख्य उद्योग कृषि है । वह मनुष्य की अन्न
की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है । कृषक केवल
अपने अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति करता नहीं
है, सारे गाँव की अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति
करता है ।
कृषि के लिये आवश्यक अन्य यन्त्रसामग्री का
उत्पादन करने वाले उद्योग गाँव में होते हैं । उदाहरण
के लिये, हल, बैलगाड़ी तथा अन्य सामग्री का
उत्पादन करने वाले लोहार, सुथार, बुनकर, चमार
आदि अनेक कारीगर गाँव में होते हैं । कृषि के साथ
साथ लोहार, सुधार आदि लोगों के घर की
आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं ।
भौतिक आवश्यकताओं के साथ साथ शारीरिक,
मानसिक, बौद्धिक स्तर की जितनी भी आवश्यकतायें
होती हैं उनकी भी पूर्ति करने की व्यवस्था गाँव में
होती है । उदाहरण के लिये शिक्षक, पुरोहित,
महाजन, पंचायत, व्यापारी आदि भी गाँव में होते ही
हैं।
इस प्रकार गाँव एक स्वयम्पूर्ण आर्थिक,सामाजिक
इकाई है ।
जनसंख्या परिवारों के रूप में गिनी जाती है । उस
जनसंख्या के अनुसार कृषि, आवास, मन्दिर,
तालाब, आदि अनेक बातों के लिये आवश्यक भूमि
का अनुमान कर गाँव का कद और आकार निश्चित
होता है । भूमिनियोजन का एक शास्त्र ही भारत में
विकसित हुआ है । व्यवसाय, जिन्हें करने वाले लोग
जाति कहे जाते हैं, के अनुसार आवासों की कल्पना
कर आवासनियोजन भी किया जाता है । संक्षेप में
आवश्यकताओं के अनुसार नियोजन करना गाँव का
एक लाक्षणिक कार्य है ।
गाँव की इस संकल्पना को लेकर शिक्षा की व्यवस्था
FoR
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
करनी चाहिये ।
गाँव की शिक्षा अर्थकरी शिक्षा का एक मुख्य आयाम
है। अर्थकरी शिक्षा की चर्चा इस ग्रन्थ में अन्यत्र की गई
है । उत्पादन की वर्तमान व्यवस्था देश की समृद्धि के लिये
अत्यन्त घातक है । यंत्रआधारित, बड़े बड़े कारखानों में
विपुल मात्रा में उत्पादन करना और उसके वितरण के लिये
बहुत बड़े परिवहन की व्यवस्था करना बुद्धिमानी का लक्षण
नहीं है । इसे यथावत रखते हुए हम अच्छे समृद्ध गाँव की
और देश की समृद्धि की अपेक्षा करेंगे तो वह कभी भी पूर्ण
होने वाली नहीं है । इसलिये गाँव की शिक्षा का विचार गाँव
की और देश के लिये गाँव की आवश्यकताओं की पूर्ति
करने हेतु किया जाना चाहिये ।
इस दृष्टि से विचारणीय कुछ बिंदु इस प्रकार हैं
गाँव को सर्व प्रथम धर्मशिक्षा की आवश्यकता है ।
धर्मशिक्षा कया होती है इसकी भी चर्चा पूर्व में हुई है ।
शिशु से लेकर वृद्धों तक सत्संग और कथा के माध्यम
से अपने इतिहास, और इतिहास के माध्यम से
waa a vet और उसमें सहभागी बनाना
धर्मशिक्षा का मुख्य स्वरूप होना चाहिये । वर्तमान
औपचारिक शिक्षा से भी इस प्रकार की शिक्षा की
अधिक आवश्यकता है । गाँव का मन्दिर इस शिक्षा
का मुख्य केन्द्र होता है ।
धर्मशिक्षा सम्पूर्ण ग्रामशिक्षा का आधार है । उसके
साथ कर्मशिक्षा चाहिये । कर्मशिक्षा से तात्पर्य है
उत्पादन के लिये आवश्यक कारीगरी की शिक्षा ।
कारीगरी के छोटे से केन्द्र से लेकर बड़े अनुसन्धान
केन्द्र तक के सारे शिक्षासंस्थान गाँव में होने चाहिये ।
स्पष्ट है कि आज के जैसे बड़े कारखाने भारत तो क्या
विश्व के किसी भी देश में चलाने योग्य नहीं हैं । यंत्र
आवश्यक हैं, मनुष्य के कष्ट कम करने में, कुछ
अनिवार्य काम करने के लिये सहायता करने में उनका
उपयोग है परन्तु मनुष्य के स्थान पर काम करने में
और मनुष्य को निकम्मा, बेरोजगार और आलसी तथा
अकुशल बना देने के लिये जब यंत्रों का उपयोग होता
है तब संस्कृति और समृद्धि दोनों की हानि होती है ।
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पर्व २ : उद्देश्यनिर्धारण
आज की भाषा में जितने भी इंजीनियरिंग और
टेकनिकल विश्वविद्यालय हैं वे सारे गाँव में होने
चाहिये, लोहार, सुधार आदि कारीगरों के आवास
होते हैं और काम करने के स्थान होते हैं वैसे ही
परिवेश में होने चाहिये । इन विश्वविद्यालयों में काम
करने वाले छोटे से लेकर बड़े छात्रों, कर्मचारियों और
प्राध्यापकों के वेश भी वैसे ही व्यवसाय के अनुरूप
होने चाहिये । वेश व्यवसाय के अनुरूप होते हैं, गाँव
या नगर के अनुरूप या सम्पत्ति के अनुरूप नहीं ।
वर्तमान मानसिकता ने गाँव के प्रति हीनता का और
पिछड़ेपन का जो भाव पनपाया है उसका इलाज शिक्षा
में होना आवश्यक है । भारत स्वाधीन होने के साथ
यह भाव समाप्त होना चाहिये था परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा
नहीं हुआ । गाँव को पिछड़ा मान लिया गया । इस
कारण से गाँव को जो महत्त्व दिया जाना चाहिये था
वह नहीं दिया गया और भारत का नागरीकरण शुरू हो
गया । आर्थिक क्षेत्र में वह यह “मूले कुठाराघात'
था । अब जब गाँव उजड़ने लगे हैं और लोग भी
कभी नगरों के आकर्षण से और कभी मजबूरी में गाँव
छोड़ छोड़कर जा रहे हैं तब वापस मुड़कर गांवों को
समृद्ध बनाना कठिन कार्य है । उस विषय में अब दो
मार्ग हैं । या तो नगरीकरण को स्वीकार कर लेना और
गांवों को बरबाद होते हुए देखते रहना या तो कठिन
मार्ग स्वीकार कर उपाययोजना करना ।
वर्तमान सन्दर्भ में गाँव की शिक्षा का विचार किया तो
जा सकता है परन्तु वह करना फलदायी नहीं होगा
क्योंकि फिर हम कहेंगे कि गाँव में अच्छी प्राथमिक
शालाओं की सुविधा होनी चाहिये, गाँव के छात्रों को
अपने ही गाँव में माध्यमिक और उच्च शिक्षा की
सुविधा भी मिलनी चाहिये । परन्तु ऐसा कर भी दिया
तो न शिक्षा का भला होगा न गाँव का और न देश
का । फिर उन्हीं बातों को विस्तार से करने से क्या
लाभ है ?
समृद्धि के प्रति सही दृष्टिकोण विकसित करना
ग्रामशिक्षा का उद्देश्य है । भारतीय वेश और परिवेश में
श्०्३
सादगी के साथ सौंदर्य कैसे है यह
देखने की दृष्टि विकसित करनी चाहिये । कारीगरी को
कला और सृजन तक कैसे विकसित किया जा सकता
है उसके भी उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं । हम
जानते हैं की अठारहवीं शताब्दी में जब अंग्रेजों ने
भारत के उद्योग नष्ट करने शुरू किए तब हम
ग्रामकेन्द्री उद्योगप्रधान देश थे । हमारे उद्योगतन्त्र एवं
कृषि केन्द्रवर्ती उद्योग होने के कारण हमारा देश
कृषिप्रधान देश है ऐसा कहा जाने लगा । बड़ी गलती
यह हुई कि कृषि को उद्योग नहीं मानना और शेष
कारीगरी के व्यवसायों को उद्योग मानना तथा कृषि
और उद्योग ऐसे दो भागों में विभाजन करना शुरू
हुआ । साथ ही कृषिप्रधान का अर्थ पिछड़ा और
उद्योगप्रधान का अर्थ आधुनिक ऐसा मानस में बैठा
दिया गया । इस कारण से बहुत आर्थिक नुकसान
हुआ |
वर्तमान स्थिति यह है कि छोटे किसान खेती को
छोड़ते जा रहे हैं और हम कॉर्पोरेट खेती की ओर
घसीटे जा रहे हैं। आज शिक्षा का कर्तव्य है कि
इससे हमें बचाये ।
ग्राम को हमारी परम्परा में ग्रामलक्ष्मी कहा गया है ।
आज ग्राम अलक्ष्मी बन गये हैं । यह दोष गांव का
नहीं है, हमारी विपरीत शिक्षा और उससे जनित
विपरीत नीतियों का है । परिणामस्वरूप समृद्धि का
चक्र उल्टा घूम रहा है। इस चक्र की दिशा बदले
बिना कुछ भी सुधार करना असम्भव है ।
इस विचार चक्र को उल्टा घुमाने के लिये ग्रामकेन्द्री
उद्योग स्थापन करने चाहिये। उनका आकार छोटा
रखना चाहिये । उनमें पेट्रोलियम या विद्युतजनित ऊर्जा
से चलित यंत्रों का यदि संभव है तो शून्य या
यथासम्भव कम उपयोग करना चाहिये । उन उद्योगों
के साथ शिक्षा के केन्द्र जोड़ना चाहिये । इन उद्योगों
ने अपने लिये आवश्यक कारीगरों को भी सिखाकर
निर्माण करना चाहिये । उन्हें निपुण भी बनाना
चाहिये । इन उद्योगों में कारीगरी की शिक्षा के साथ
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ही भाषा, संस्कृति, राष्ट्रीता आदि
आवश्यक गुणों का विकास करने का प्रावधान होना
चाहिये ।
बड़ी कक्षाओं में विश्व की आर्थिक स्थिति, भारत की
आर्थिक विकास की संभावनायें, देशभक्ति के
व्यावहारिक आयाम, वर्तमान आर्थिक अनिष्टों का
स्वरूप तथा उनके निवारण के उपाय आदि विषय होने
चाहिये । यह सब करने के लिये दृष्टियुक्त शिक्षक
चाहिये, साथ में उद्योजक भी चाहिये । शिक्षक और
उद्योजक मिलकर यह कार्य कर सकते हैं । इससे भी
अच्छा वह होगा कि उद्योजक स्वयं शिक्षक बनकर
उद्योगकेन्द्री शिक्षासंस्थान शुरू करे । वह अपना
उद्योग गाँव में गाँव के लिये चलाये ।
भारत के सात लाख गाँव यदि इस प्रकार अपना
स्वरूप परिवर्तन शुरू कर दें तो देखते ही देखते भारत
विश्व की आर्थिक ताकत बन सकता है । आज यंत्र के
सामने मनुष्य यदि कितना भी मजबूर दिखाई देता हो
तो भी एक बार यंत्रों का निषेध कर देने से वे परास्त
हो सकते हैं । यंत्र मनुष्य के लिये हैं, मनुष्य यंत्र के
लिये नहीं यह टेकनिकल शिक्षा का मूल मन्त्र होना
चाहिये ।
ग्रामदेवता की हमारी संकल्पना लक्षणीय है ।
ग्रामदेवता की पूजा गाँव में उत्पादित सामग्री से होती
है । भगवान विश्वकर्मा हर कारीगर के इष्टदेवता है ।
ग्राम के लिये शिक्षा केन्द्रों में लोकशिक्षा के जो
विभिन्न आयाम हैं उन्हें भी पुनर्जीवित करना चाहिये ।
लोकशिक्षा के माध्यम से संस्कृति की शिक्षा देने की
सुविधा हो जाएगी । मनोरंजन का उद्देश्य भी सिद्ध
होगा ।
अपने काम को आनंद का साधन बनाने की शिक्षा
बहुत आवश्यक है। काम ही पूजा है ऐसी
आध्यात्मिक बैठक भी देना चाहिये । शारीरिक
परिश्रम का मूल्य बढ़ाना चाहिये । काम करने वाले
की प्रतिष्ठा भी बढ़नी चाहिये । ये सब शिक्षा के अंग
हैं। अर्थकरी शिक्षा केवल अधथर्जिन की शिक्षा नहीं
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
है, वह धर्म के अविरोधी satis की शिक्षा है,
संस्कृति के अधिष्ठान पर आर्थिक समृद्धि प्राप्त करने
की शिक्षा है ।
समाज के लिये शिक्षा
समाज के लिये शिक्षा के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार हैं ।
०... सामाजिक समरसता
सामाजिक सम्मान
सामाजिक सुरक्षा
सामाजिक समृद्धि
सामाजिक अस्मिता
सामाजिक समरसता
समाज की स्चना, समाज की व्यवस्था बहुत जटिल
और अटपटी होती है । कितने भिन्न भिन्न स्वभाव वाले लोग
होते हैं । सबका अपना अपना स्वार्थ, अपनी अपनी
महत्त्वाकांक्षायें, इच्छायें होती हैं । सब अपने अपने तरीके से
इन्हें प्राप्त करने के लिए प्रयास करते हैं । कोई सज्जन तो
कोई दुर्जन, कोई चतुर तो कोई भोले, कोई गरीब तो कोई
अमीर, कोई सीधे तो कोई टेढ़े, कोई बलशाली तो कोई
दुर्बल, कोई सत्ताधीश तो कोई मजदूर, कोई बुद्धिमान तो
कोई बुद्ध, ऐसे अनेक प्रकार के लोग समाज में रहते हैं । ये
तो केवल व्यक्तिगत भेद हुए । सामुदायिक भेद भी तो कम
नहीं होते हैं । अमीरों का एक वर्ग है तो गरीबों का दूसरा,
शिक्षितों का एक वर्ग तो अशिक्षितों का दूसरा, राजनेताओं
का एक वर्ग तो कर्मचारियों का दूसरा ऐसे अनेक वर्ग होते
हैं । मजहबी संप्रदाय तो अनेक होते हैं । अलग अलग
जातियाँ, अलग अलग भाषायें, अलग अलग राजकीय पक्ष
ऐसे अनेक वर्ग समाज में होते हैं । इन सबके हित एकदूसरे
से टकराते हैं । संस्कारों के अभाव में, समझ के अभाव में,
कभी जानबूझकर, कभी अज्ञानवनश, कभी भय से कभी
विवशता से, कभी स्वार्थ से कभी लालच से लोग एकदूसरे
को, एक समुदाय दूसरे समुदाय को परेशान करता है और
संघर्ष होता है । समाज में विट्रेष फैलता है । दंगे होते हैं,
मारामारी होती है, खून भी होते हैं । भ्रष्टाचार और बलात्कार
होते हैं। सही या गलत हेतुओं से प्रेरित होकर विभिन्न
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पर्व २ : उद्देश्यनिर्धारण
आन्दोलन होते हैं जो हिंसक और अहिंसक दोनों प्रकार के... सीमा से बाहर सब एक हो जाते थे,
होते हैं । समाज में असुरक्षा का वातावरण फैलता है । जातिरहित हो जाते थे, एक ही जाती के हो जाते थे । वह
ऐसे मामलों को निपटाने के लिये कानून, न्यायालय, जाती होती थी तीर्थयात्रियों की । सौ वर्ष पूर्व के भारतीय
पुलिस आदि व्यवस्थायें होती हैं । परंतु ये मामले कानून से... समाज की यह स्थिति थी । आज जातिभेद रोटीबेटी का
निपटने वाले होते नहीं हैं ऐसा हमारा सबका अनुभव है ।... निषेध और अस्पृश्यता के रूप में कदाचित दिखाई नहीं देता
भावात्मक बातें कानून से सुलझती ही नहीं हैं । मन के. है, परंतु वह कानून, नौकरियाँ, होटल, सिनेमा, वाहनों से
कारण से निर्मित समस्यायें मन के स्तर पर उपाय करने से ही... यात्रा आदि के कारण विवशता हो जाने के कारण से है ।
सुलझती हैं । वास्तव में इन सब विद्वेषों का मूल भेदभाव. मन में से वह गया नहीं है । शिक्षा के कारण जाती, वर्ण,
को बढ़ावा देने में ही होता है । इसलिए उसका उपाय... व्यवसाय आदि की अज्ञानजनित उपेक्षा के कारण भेद नहीं
समरसता निर्माण करना ही होता है । दिखाता है परंतु मन में से भेद्भाव गया नहीं है, वह भिन्न
समरसता का स्वरूप स्वरूपों में प्रकट होता है । इसको मिटाने के लिये शिक्षा को
समाज में भेद तो रहेंगे ही । एक पदार्थ दूसरे से भिन्न... उहुँत गम्भीर प्रयास करने चाहिए । शिक्षित समाज समरस
होता है । यह हकीकत है की एक वृक्ष के असंख्य पत्तों में... समाज होता है इसलिए समरसता के अभाव को एक चुनौती
भी एक पत्ता दूसरे पत्ते जैसा नहीं होता । अतः समाज में हर के रूप में स्वीकार करना चाहिए ।
प्रकार की भिन्नता तो रहने ही वाली है । समरसता के अभाव के दो सबसे भीषण कारक आज
भिन्नना को भेदभाव का कारण नहीं बनाना अपितु. प्रवर्तमान हैं । एक है अस्पृश्यता और दूसरा है साम्प्रदायिक
उसका स्वीकार करना यह पहली शिक्षा है। भेद अथवा... संकुचितता । अस्पृश्यता सभ्य समाज का कलंक है|
भिन्नता होना स्वाभाविक है, भेद विविधता है, विविधता... वास्तव में विगत दो तीन सौ वर्षों में अस्पृश्यता ने समाज पर
सुन्दरता की जनक है ऐसी दृष्टि विकसित करना महत्त्वपूर्ण... कहर ढाया है । वास्तव में भारत की परंपरागत वर्णव्यवस्था
शिक्षा है । मन को इसके लिये साधना होता है । जीवन की... में शूद्र वर्ण कभी अस्पृश्य नहीं रहा है । उल्टे समाज की
सर्व अवस्थाओं में भेद को, अलगता को स्वीकार करने की .... आर्थिक समृद्धि कृषकों और कारीगरों पर ही निर्भर थी ।
शिक्षा मन की शिक्षा का अंग होना चाहिए । भिन्नता को न... कृषक वैश्य और कारीगर शूद्र वर्ण के थे । अस्पृश्य माने भी
केवल सहना अपितु उसका आदर करना सिखाना चाहिए । ... जाते थे तो केवल सफाई करने वाले लोग थे । चांडाल
किसी भी व्यवसाय को a नहीं मानना, गरीबी की शरम अस्पृश्य थे ऐसा भगवान शंकराचार्य के समय का भी उल्लेख
नहीं मानना, धन, बल, सत्ता, शिक्षा आदि के मद में आकर... है । परंतु यह अस्पृश्यता विट्रेष का कारण नहीं बनती थी
किसी की अवमानना नहीं करनी चाहिए । किसीकी इन बातों .... क्योंकि वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों को भी था, तपश्चर्या
को देखकर दबना भी नहीं चाहिए | के परिणामस्वरूप वे उच्च वर्ण के भी हो सकते थे । शूटर
हमारी गाँव की परंपरा में जातिगत भेद भुलाने की... और अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियों में सन्त भी हुए हैं
बहुत अच्छी व्यवस्था थी । लोग जबतक गाँव के अन्दर. जिन्हें सर्व वर्ण के लोग आदर देते हैं । आत्मसाक्षात्कारी
होते थे और अपने अपने व्यवसाय करते थे तबतक तो... महात्मा सभी वर्णों में थे । ऐसा होते हुए भी विगत तीन सौ
जातियाँ भिन्नता रखती थीं, परंतु जब वे तीर्थयात्रा पर जाते... वर्षों में अस्पृश्यो को दलित, पीडीत, पीछड़े आदि कहा
थे तब गाँव की सीमा से बाहर निकलते ही सब जातिभेद् .. गया, उन पर अमानुषी अत्याचार किये गए और उन्हें अनेक
भुला देते थे अर्थात मानते नहीं थे । गाँव में जातिभेद के... अच्छी बातों से वंचित रखा गया । समाज के तथाकथित
कारण वे एकदूसरे की रोटी नहीं खाते थे या पानी भी नहीं. उच्च वर्णों के मद के कारण ही यह सब हुआ । अब आज
पीते थे, कदाचित अस्पृश्यता भी मानते थे परंतु गाँव की... कानून के कारण, नीतियों के कारण और ऊपर वर्णित की
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
गई है ऐसी व्यावहारिक विवशताओं के... व्यावसायिकों को निमंत्रित किया जाता था । उनकी वस्तु
कारण अस्पृश्यता ऊपर से तो दिखाई नहीं देती है परंतु लोगों... केवल खरीदी नहीं जाती थी, उनका प्रथम सम्मान किया
के मनों में वह है । शिक्षा में अस्पृश्यता को मिटाने का, .... जाता था । जिसके घर में विवाह होता था उसके घर की
वर्णद्वेष मिटाने का, जातिगत ट्रेष मिटाने का प्रावधान होना... स्थिति के हिसाब से सम्मानित किया जाता था । बाद में
चाहिए । मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, धर्मशिक्षा, अध्यात्मशिक्षा .. वस्तु ली जाती थी । रिवाज तो ऐसा था की विवाह के
आदि विषयों में इसके संबंध में पाठ्यविषय होने चाहिए । ये... अवसर पर गाँव के कम से कम पाँच व्यावसायिकों का तो
केवल बौद्धिक स्वरूप के होना पर्याप्त नहीं है, वे. सम्मान होना ही चाहिए । तात्पर्य यह है की गाँव में
व्यावहारिक स्वरूप के भी होने चाहिए | व्यवसाय कितना भी छोटा हो सब सम्मान के अधिकारी थे ।
साम्प्रदायिक संकुचितता असहिष्णुता का रूप लेती we सामाजिक सम्मान मनुष्य की. मानसिक
है । अपने संप्रदाय का अनुसरण तो आग्रहपूर्वक करना... आवश्यकता है । समाज में हमारी प्रतिष्ठा है, लोग हमें
चाहिए परन्तु दूसरे संप्रदायों को हेय नहीं मानना चाहिए, बुलाते हैं, याद करते हैं, अपने कार्यक्रमों में सहभागी बनाते
उनका भी आदर करना चाहिए । यह मुद्दा संस्कृति विषयक... हैं यह सबके लिये संतोष देने वाली बात होती है । इससे जो
पाठ्यक्रम का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिए । सद्धाव निर्माण होता है उसमें से सामाजिक लज्जा का जन्म
अस्पृश्यता और जातिगत विट्रेषों को मिटाने के लिये होता है । यह लज्जा अनेक अनिष्टों को पैदा ही नहीं होने
कभी कभी जाती और वर्ण को मिटाने का आग्रह किया... देती । अनेक अनाचार इससे रुक जाते हैं और समाज की
जाता है । परन्तु भेदभाव मिटाने के लिये भेद मिटाये नहीं. संस्कारिता बनी रहती है ।
जाते , विद्रेष मिटाने के लिये जाती और वर्णों को मिटाया इसका एक लाभ और होता है । किसी भी प्रकार के
नहीं जा सकता क्योंकि ये स्वभावगत होते हैं परन्तु व्यवस्था. व्यवसाय को करने वाले के मन में अपने व्यवसाय के प्रति
अवश्य बदलनी चाहिए | धर्मशास्त्र और समाजशास््र के. हीनता का भाव नहीं आता । अपना व्यवसाय छोड़ने का भी
आचार्यों ने इस विषय पर अध्ययन और अनुसंधान कर नई. मन नहीं करता । अपने ही व्यवसाय में महारत प्राप्त करने के
स्मृति का निर्माण करना चाहिए । विश्वविद्यालयों का काम... लिये वह प्रयासरत रहता है और अपने काम में उत्कृष्टता
ही यह है । धर्माचार्यों और प्राध्यापकों ने मिलकर यह कार्य... लाने का प्रयास करता है । इसका लाभ समाज को होता है ।
करने की आवश्यकता है । हमारे देश का कारीगरी का इतिहास बताता है कि कारीगरी
सामाजिक सम्मान के अनेक क्षेत्रों में भारत ने उत्कृष्टता के जो नमूने दीये हैं वे
भारतीय समाज में सामाजिक सम्मान की बहुत अच्छी... आज भी विश्व में कहीं देखने को नहीं मिलते हैं । ढाका की
व्यवस्था की गई थी । यह सम्मान केवल व्यवसाय के प्रकार. मलमल की या दिली के लोहस्तम्भ की बराबरी आज के
और अथर्जिन की अधिकता के कारण नहीं था । सामाजिक... विश्व के सर्वश्रेष्ठ यन्त्र भी नहीं कर सकते हैं । शिल्प,
ढांचे में स्वीकार्यता के कारण था । उदाहरण के लिये गाँव में... स्थापत्य, मीनाकारी के अद्भुत नमूने आज भी भारत के
किसी व्यक्ति के घर विवाह का अवसर है तो गाँव के... अलावा अन्यत्र मिलना कठिन है । इस उत्कृष्टता के मूल में
FIR व्यवसाय करने वाले लोग अपने अपने व्यवसाय के... सामाजिक सम्मान एवं उसमें से सहज निष्पन्न होने वाली
कारण ही उसमें निमंत्रित किये जाते थे । पूरे गाँव में विवाह... आश्चस्ति है और इसका परिणाम काम करने में आनन्द है ।
का न्यौता देना गाँव के नाई का काम था । निमंत्रण पत्र. समाज का मानसिक स्वास्थ्य इससे बना रहता है । सभ्यता
छपवाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी । विवाह के... के विकास के लिये यह बहुत ही आवश्यक बात है ।
समय मंडप बांधने के लिये सुथार को, मटकी के लिये
कुम्हार को तथा ऐसे ही अन्यान्य कामों के लिये अन्यान्य सामाजिक सुरक्षा
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पर्व २ : उद्देश्यनिर्धारण
जिस समाज में लोगों को अपने अपने हित की रक्षा
के लिये हमेशा सावध नहीं रहना पड़ता वह समाज संस्कारी
समाज कहा जाता है । जहां अपने हित की रक्षा के लिये
हमेशा सावध रहना पड़ता है वह असंस्कारी समाज है । जिस
समाज में स्त्री सुरक्षित है, छोटे बच्चे सुरक्षित हैं, दुर्बल
सुरक्षित हैं वह समाज संस्कारी समाज है । सामाजिक सुरक्षा
के लिये कानून, पुलिस और न्यायालय की व्यवस्था होती
है। परन्तु यह व्यवस्था पर्याप्त नहीं है । इसके साथ यदि
अच्छाई की शिक्षा न दी जाय और लोगों के मन सद्धावपूर्ण
और नीतिमात्तायुक्त न बनाए जाय तो केवल कानून किसी
की रक्षा नहीं कर सकता । मनोविज्ञान के ज्ञाता एक
सुभाषितकार का कथन है
कामातुराणाम् न भयम AT OTT |
अर्थातुराणाम् न गुरुर्न बंधु: ।।
अर्थात जिसके मन पर वासना छा गई है उसे भय
अथवा लज्जा रोक नहीं सकते तथा जिन्हें अर्थ का लोभ लग
गया है उसे गुरु अथवा भाई की भी परवाह नहीं होती ।
इसलिए मनुष्य का मन जब तक ठीक नहीं होता तब तक
कानून किसीकि सुरक्षा नहीं कर सकता । आजकल हम
देखते हैं कि बलात्कार के किस्से बढ़ गए हैं । लोग कहते हैं
कि कानून महिलाओं की सुरक्षा नहीं करता और अपराधी
को फांसी जैसा कठोर दूंड नहीं दिया जाता इसलिए ऐसे
किस्से बढ़ते हैं। परन्तु मनोविज्ञान इसे मान्य नहीं करेगा
क्योंकि एक को फांसी हुई इसलिए दूसरा उस दुष्कृत्य से
परावृत्त होगा ऐसा नहीं है। मनोविज्ञान और समाजशास्त्र
दोनों को सम्यक रूप में जानने वाला तो कहेगा कि
बलात्कारी को बलात्कार करने से और महिलाओं को अपने
उपर होने वाले बलात्कार से बचाने के लिये परिवारजनों ने
उनकी सुरक्षा की चिन्ता स्वयं भी करनी चाहिए, तभी कानून
भी उनकी सहायता कर सकता है । लोगों के जानमाल की
सुरक्षा के लिये, अपराधियों को दंड देने के लिये पुलिस,
कानून और न्यायालय होने पर भी लोग अपनी सुरक्षा के
लिये घरों को ताले लगाते हैं, बेंक में लॉकर रखते हैं और
साथ में धन लेकर अकेले यात्रा नहीं करते उसी प्रकार
बलात्कार के संबंध में भी करना चाहिये । यह जो कानून के
साथ साथ दूसरी सुरक्षा है वह शिक्षा का
क्षेत्र है । बाल अवस्था से ही धर्म और नीतिमत्ता के संस्कार
दीये बिना, संयम और सदाचार सिखाये बिना सामाजिक
सुरक्षा स्थापित नहीं हो सकती । पराया धन मिट्टी के समान
और पराई स्त्री माता के समान यह आपग्रहपूर्वक सिखाने का
विषय है ।
एक के पास अपरिमित सम्पत्ति और उसके आसपास
रहने वालों के पास खाने को अन्न नहीं ऐसी अवस्था में
धनवान के धन की सुरक्षा नहीं हो सकती । इसलिए बाँट कर
खाओ, बिना दान दीये सम्पत्ति का उपभोग न करो, अपनी
कमाई का दस प्रतिशत हिस्सा अनिवार्य रूप से दान करो,
अकेले खाने वाला पाप खाता है जैसे सूत्र व्यवहार के लिये
दीये गए । भारत की परम्परा में पापपुण्य की कल्पना
सामाजिक दृष्टि से ही की गई है । आजकल उसे धर्म की
संज्ञा देकर नकारा जाता है, उसे अवैज्ञानिक कहा जाता है
परन्तु भारत में धर्म को ही समाजधारणा करने वाला तत्त्व
बताया है । धर्म की परम्परा में अपने से छोटों की रक्षा करने
को सार्वभौम व्यवस्था के रूप में ही प्रतिष्ठित किया गया है ।
राजा ने प्रजा का, पिता ने पुत्र का, आचार्य ने छात्र का,
मालिक ने नौकर का, मनुष्य ने प्रकृति का रक्षण करना
चाहिये । जो रक्षण करता है वही सम्मान का अधिकारी होता
है । यही धर्म है, यही पुण्य भी है और पुण्य का फल स्वर्ग
है वह भी यहीं पृथ्वी पर ही है । इसलिए समाजशास्त्र के
ग्रन्थों को मानवधर्मशास्त्र ही बताया गया है ।
सामाजिक समृद्धि
श्रेष्ठ समाज के दो लक्षण हैं । एक है संस्कृति और
दूसरा है समृद्धि । संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी हो जाती
है, मद का कारण बनती है, शोषण की जनक होती है ।
समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा ही नहीं हो सकती |
अभातों में रहने वाले संस्कारी नहीं बन सकते । भूखा मनुष्य
यदि चोरी करता है तो वह पाप नहीं है । वंचित व्यक्ति दूसरे
की वस्तु छीन ही लेगा इसमें कोई आश्चर्य नहीं । जिन्हें
आजीविका कमाने के लिये दिनरात मजदूरी करनी पड़ती है,
मालिक की उलाहना सहनी पड़ती है, खुशामद करनी पड़ती
है, अवहेलना सहनी पड़ती है वह संस्कारी नहीं बन सकता,
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न संस्कारों का आदर कर सकता है ।
अतः: समाज सुसंस्कृत बनने के लिये समृद्ध भी होना ही
होता है । अर्थात समृद्धि और संस्कृति साथ साथ रहते हैं ।
सामाजिक समृद्धि समुचित अर्थव्यवस्था से प्राप्त होती
है । अनुचित अर्थव्यवस्था से व्यक्ति तो कदाचित समृद्ध हो
सकता है परन्तु समाज नहीं । उदाहरण के लिये यन्त्र
आधारित केंद्रीकृत उत्पादन व्यवस्था से कारखाने का
मालिक तो समृद्ध हो सकता है परन्तु वह जिस समाज का
अंग है वह समाज समृद्ध नहीं बनता। वह व्यक्ति ही समाज
को दरिद्र बनाता है । व्यक्ति को समृद्ध और समाज को दरिद्
बनाने वाली अर्थव्यवस्था अच्छा समाज होने नहीं देती ।
समुचित अर्थव्यवस्था में हर व्यक्ति की उद्यमशीलता
अपेक्षित है । हाथ से काम कर भौतिक वस्तुओं का उत्पादन
जितना अधिक होता है समाज उतना ही समृद्ध होता है ।
अन्न और जल की समुचित व्यवस्था कुशल अर्थव्यवस्था
का प्रमुख लक्षण है । हर व्यक्ति की उद्यमशीलता, काम
करने की कुशलता, हर व्यक्ति की आर्थिक स्वतन्त्रता,
विकेट्रिटि और स्थानिक उत्पादन व्यवस्था समुचित
अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण आयाम हैं । इससे ही सामाजिक
समृद्धि बढ़ती है । अर्थकरी शिक्षा को सांस्कृतिक आधार देने
से ही समाज समृद्ध बनाता है । सामाजिक समृद्धि के लिये
हर व्यक्ति का रोजगार सुरक्षित और निश्चित होना चाहिये ।
जीवननिर्वाह कैसे करना उसकी शिक्षा भावात्मक और
क्रियात्मक पद्धति से देनी चाहिये ।
सामाजिक समृद्धि के लिये पर्यावरण सुरक्षा अनिवार्य
रूप से आवश्यक है । कारण यह है कि भौतिक समृद्धि का
मूल स्रोत प्राकृतिक संसाधन ही हैं । प्राकृतिक संसाधनों का
शोषण करने से तात्कालिक समृद्धि तो प्राप्त हो जाती है
परन्तु दीर्घकालीन नहीं । आने वाली पीढ़ियों को जीवन की
मूल आवश्यकताओं से ही वंचित रहना पड़ता है । इसलिए
प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करना चाहिये, शोषण नहीं यह
मानवीय आर्थिक सिद्धान्त है । किसी भी उपाय से उत्पादन
अस्वाभाविक गति से बढ़ जाता है तो वह निषिद्ध मानना
चाहिये । भूख से अधिक कोई खाता नहीं इस प्राकृतिक
सिद्धान्त को आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना नहीं
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
और आवश्यकता अनावश्यक रूप से बढ़ाना नहीं इस रूप में
भी लागू करना चाहिये ।
सामाजिक समृद्धि के लिये दान, सेवा और संयमित
उपभोग जैसे सामाजिक सदुण भी बहुत कारगर होते हैं । ये
भी नैतिक शिक्षा के ही आयाम हैं ।
इस प्रकार सामाजिक समृद्धि प्राप्त करने का पुरुषार्थ
समाज के हर घटक ने करना चाहिये ।
सामाजिक अस्मिता
श्रेष्ठ समाज के मन में गौरव का भाव भी होता है ।
अत: सामाजिक अस्मिता भी आवश्यक अंग है । सामाजिक
अस्मिता का अर्थ है समाज का स्वत्व । हर समाज की
अपनी अपनी पहचान होती है । उदाहरण के लिये धर्मनिष्ठा
अच्छे समाज की अस्मिता है । गाय अवध्य होना, भूमि
माता होना, अन्न देवता होना भारतीय समाज की अस्मिता
है। ये तत्त्व नहीं रहे तो भारत भारत नहीं रहेगा । अनेक
लोग कहते हैं कि ये तो हिन्दू समाज के मूल्य है, भारतीय
समाज के नहीं क्योंकि भारत में मुसलमान और ईसाई लोग
भी रहते हैं और ये उनके मूल्य नहीं हैं । वास्तविकता यह है
कि ये धार्मिक सामाजिक स्तरीय मूल्य है, किसी पंथ और
सम्प्रदाय के नहीं । हिन्दू के लिये गाय यदि अवध्य है तो
मुसलमान के लिये या ईसाई के लिये वध्य नहीं हो जाती,
और फिर हिन्दू के धर्म का सम्मान करना भारतीय
मुसलमानों और इसाइयों का भी तो धर्म अर्थात कर्तव्य है ।
गाय का वध करने से ही स्वर्ग मिलता है ऐसा तो नहीं है,
हाँ, केवल हिन्दू का अपमान किया जा सकता है ।
ख्री को सम्मान का अधिकारी बनाना, सत्य और
अहिंसा को सार्वभौम महाब्रत मानना, पंचमहाभूतों को देवता
मानना, संघर्ष नहीं अपितु समन्वय को ही धर्म का अंग
मानना सामाजिक अस्मिता है । इन तत्त्वों की रक्षा के लिये
कोई भी कीमत चुकाने के लिये तत्पर रहना सामाजिक
कर्तव्य है ।
इस प्रकार समरसता, सम्मान, सुरक्षा, समृद्धि, और
अस्मिता के आधार पर ही समाज श्रेष्ठ बन सकता है । हमें
इस प्रकार की शिक्षा का आयोजन करना चाहिये जो इस
प्रकार का समाज निर्माण कर सके ।
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पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान 22
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