Difference between revisions of "Adiparva Adhyaya 12 (आदिपर्वणि अध्यायः १२)"
Jump to navigation
Jump to search
(Created page with "रुरुरुवाच कथं हिंसितवान्सर्पान्स राजा जनमेजयः। सर्पा वा हिंसित...") |
|||
Line 1: | Line 1: | ||
− | |||
− | |||
− | |||
− | किमर्थं मोक्षिताश्चैव पन्नगास्तेन धीमता। | + | रुरुरुवाच |
− | + | कथं हिंसितवान्सर्पान्स राजा जनमेजयः। | |
− | आस्तीकेन द्विजश्रेष्ठ श्रोतुमिच्छाम्यशेषतः॥ 1-12-2 | + | सर्पा वा हिंसितास्तत्र किमर्थं द्विजसत्तम॥ 1-12-1 |
− | + | किमर्थं मोक्षिताश्चैव पन्नगास्तेन धीमता। | |
− | ऋषिरुवाच | + | आस्तीकेन द्विजश्रेष्ठ श्रोतुमिच्छाम्यशेषतः॥ 1-12-2 |
− | + | ऋषिरुवाच | |
− | श्रोष्यसि त्वं रुरो सर्वमास्तीकचरितं महत्। | + | श्रोष्यसि त्वं रुरो सर्वमास्तीकचरितं महत्। |
− | + | ब्राह्मणानां कथयतामित्युक्त्वान्तरधीयत॥ 1-12-3 | |
− | ब्राह्मणानां कथयतामित्युक्त्वान्तरधीयत॥ 1-12-3 | + | सौतिरुवाच |
− | + | रुरुश्चापि वनं सर्वं पर्यधावत्समन्ततः। | |
− | सौतिरुवाच | + | तमृषिं नष्टमन्विच्छन्संश्रान्तो न्यपतद्भुवि॥ 1-12-4 |
− | + | स मोहं परमं गत्वा नष्टसंज्ञ इवाभवत्। | |
− | रुरुश्चापि वनं सर्वं पर्यधावत्समन्ततः। | + | तदृषेर्वचनं तथ्यं चिन्तयानः पुनः पुनः॥ 1-12-5 |
− | + | लब्धसंज्ञो रुरुश्चायात्तदाचख्यौ पितुस्तदा। | |
− | तमृषिं नष्टमन्विच्छन्संश्रान्तो न्यपतद्भुवि॥ 1-12-4 | + | पिता चास्य तदाख्यानं पृष्टः सर्वं न्यवेदयत्॥ 1-12-6 |
− | + | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि सर्पसत्रप्रस्तावनायां द्वादशोऽध्यायः॥ 12 ॥ | |
− | स मोहं परमं गत्वा नष्टसंज्ञ इवाभवत्। | + | [[:Category:रुरु|''रुरु'']] [[:Category:जिज्ञासा|''जिज्ञासा'']] |
− | |||
− | तदृषेर्वचनं तथ्यं चिन्तयानः पुनः पुनः॥ 1-12-5 | ||
− | |||
− | लब्धसंज्ञो रुरुश्चायात्तदाचख्यौ पितुस्तदा। | ||
− | |||
− | पिता चास्य तदाख्यानं पृष्टः सर्वं न्यवेदयत्॥ 1-12-6 | ||
− | |||
− | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि सर्पसत्रप्रस्तावनायां द्वादशोऽध्यायः॥ 12 ॥ |
Revision as of 19:46, 21 August 2019
रुरुरुवाच कथं हिंसितवान्सर्पान्स राजा जनमेजयः। सर्पा वा हिंसितास्तत्र किमर्थं द्विजसत्तम॥ 1-12-1 किमर्थं मोक्षिताश्चैव पन्नगास्तेन धीमता। आस्तीकेन द्विजश्रेष्ठ श्रोतुमिच्छाम्यशेषतः॥ 1-12-2 ऋषिरुवाच श्रोष्यसि त्वं रुरो सर्वमास्तीकचरितं महत्। ब्राह्मणानां कथयतामित्युक्त्वान्तरधीयत॥ 1-12-3 सौतिरुवाच रुरुश्चापि वनं सर्वं पर्यधावत्समन्ततः। तमृषिं नष्टमन्विच्छन्संश्रान्तो न्यपतद्भुवि॥ 1-12-4 स मोहं परमं गत्वा नष्टसंज्ञ इवाभवत्। तदृषेर्वचनं तथ्यं चिन्तयानः पुनः पुनः॥ 1-12-5 लब्धसंज्ञो रुरुश्चायात्तदाचख्यौ पितुस्तदा। पिता चास्य तदाख्यानं पृष्टः सर्वं न्यवेदयत्॥ 1-12-6 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि सर्पसत्रप्रस्तावनायां द्वादशोऽध्यायः॥ 12 ॥ रुरु जिज्ञासा