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| श[स]मन्तपञ्चकाख्यं च श्रोतुमर्हथ सत्तमाः॥ 1-2-2 | | श[स]मन्तपञ्चकाख्यं च श्रोतुमर्हथ सत्तमाः॥ 1-2-2 |
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− | त्रेताद्वापरयोः सन्धौ रामः शस्त्रभृतां वरः। | + | त्रेताद्वापरयोः सन्धौ रामः शस्त्रभृतां वरः। |
| + | असकृत्पार्थिवं क्षत्रं जघानामर्षचोदितः॥ 1-2-3 |
| + | स सर्वं क्षत्रमुत्साद्य स्ववीर्येणानलद्युतिः। |
| + | श[स]मन्तपञ्चके पञ्च चकार रौधिरान्ह्रदान्॥ 1-2-4 |
| + | स तेषु रुधिराम्भःसु ह्रदेषु क्रोधमूर्च्छितः। |
| + | पितॄन्संतर्पयामास रुधिरेणेति नः श्रुतम्॥ 1-2-5 |
| + | अथर्चीकादयोऽभ्येत्य पितरो राममब्रुवन्। |
| + | राम राम महाभाग प्रीताः स्म तव भार्गव॥ 1-2-6 |
| + | अनया पितृभक्त्या च विक्रमेण तव प्रभो। |
| + | वरं वृणीष्व भद्रं ते यमिच्छसि महाद्युते॥ 1-2-7 |
| + | राम उवाच |
| + | यदि मे पितरः प्रीता यद्यनुग्राह्यता मयि। |
| + | यच्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं मया॥ 1-2-8 |
| + | अतश्च पापान्मुच्येऽहमेष मे प्रार्थितो वरः। |
| + | ह्रदाश्च तीर्थभूता मे भवेयुर्भुवि विश्रुताः॥ 1-2-9 |
| + | एवं भविष्यतीत्येवं पितरस्तमथाब्रुवन्। |
| + | तं क्षमस्वेति निषिषिधुस्ततः स विरराम ह॥ 1-2-10 |
| + | तेषां समीपे यो देशो ह्रदानां रुधिराम्भसाम्। |
| + | श[स]मन्तपञ्चकमिति पुण्यं तत्परिकीर्तितम्॥ 1-2-11 |
| + | येन लिङ्गेन यो देशो युक्तः समुपलक्ष्यते। |
| + | तेनैव नाम्ना तं देशं वाच्यमाहुर्मनीषिणः॥ 1-2-12 |
| + | अन्तरे चैव सम्प्राप्ते कलिद्वापरयोरभूत्। |
| + | श[स]मन्तपञ्चके युद्धं कुरुपाण्डवसेनयोः॥ 1-2-13 |
| + | तस्मिन्परमधर्मिष्ठे देशे भूदोषवर्जिते। |
| + | अष्टादश समाजग्मुः अक्षौहिण्यो युयुत्सया॥ 1-2-14 |
| + | समेत्य तं द्विजास्ताश्च तत्रैव निधनं गताः। |
| + | एतन्नामाभिनिर्वृत्तं तस्य देशस्य वै द्विजाः॥ 1-2-15 |
| + | पुण्यश्च रमणीयश्च स देशो वः प्रकीर्तितः। |
| + | तदेतत्कथितं सर्वं मया ब्राह्मणसत्तमाः॥ 1-2-16 |
| + | यथा देशः स विख्यातस्त्रिषु लोकेषु सुव्रताः। |
| + | [[:Category:significance of Kurukshetra|''significance of Kurukshetra'']] [[:Category:story of Kurukshetra|''story of Kurukshetra'']] [[:Category:story|''story'']] [[:Category:Kurukshetra|''Kurukshetra'']] [[:Category:कुरुक्षेत्र का महत्व|''कुरुक्षेत्र का महत्व'']] [[:Category:कुरुक्षेत्र की कथा|''कुरुक्षेत्र की कथा'']] [[:Category:कुरुक्षेत्र नाम कैसे पड़ा|''कुरुक्षेत्र नाम कैसे पड़ा'']] [[:Category:कुरुक्षेत्र नाम कैसे पड़ा|''कुरुक्षेत्र नाम कैसे पड़ा'']] [[:Category:समन्तपन्चक नाम की कथा|''समन्तपन्चक नाम की कथा'']] [[:Category नाम|''नाम'']][[:Category:समन्तपन्चक|''समन्तपन्चक'']] [[:Category:कुरुक्षेत्र|''कुरुक्षेत्र'']] [[:Category:कथा|''कथा'']] [[:Category:महत्त्व|''महत्त्व'']] |
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− | असकृत्पार्थिवं क्षत्रं जघानामर्षचोदितः॥ 1-2-3
| + | ऋषयः ऊचुः |
| + | अक्षौहिण्य इति प्रोक्तं यत्त्वया सूतनन्दन॥ 1-2-17 |
| + | एतदिच्छामहे श्रोतुं सर्वमेव यथातथम्। |
| + | अक्षौहिण्याः परीमाणं नराश्वरथदन्तिनाम्॥ 1-2-18 |
| + | यथावच्चैव नो ब्रूहि सर्वं हि विदितं तव। |
| + | सौतिरुवाच |
| + | एको रथो गजश्चैको नराः पञ्च पदातयः॥ 1-2-19 |
| + | त्रयश्च तुरगास्तज्ज्ञैः पत्तिरित्यभिधीयते। |
| + | पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहुः सेनामुखं बुधाः॥ 1-2-20 |
| + | त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते। |
| + | त्रयो गुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणास्त्रयः॥ 1-2-21 |
| + | स्मृतास्तिस्रस्तु वाहिन्यः पृतनेति विचक्षणैः। |
| + | चमूस्तु पृतनास्तिस्रस्तिस्रश्चम्वस्त्वनीकीनी॥ 1-2-22 |
| + | अनीकिनीं दशगुणां प्राहुरक्षौहिणीं बुधाः। |
| + | अक्षौहिण्याः प्रसंख्याता रथानां द्विजसत्तमाः॥ 1-2-23 |
| + | संख्या गणिततत्त्वज्ञैः सहस्राण्येकविंशतिः। |
| + | शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्च सप्ततिः॥ 1-2-24 |
| + | गजानां च परीमाणमेतदेव विनिर्दिशेत्। |
| + | ज्ञेयं शतसहस्रं तु सहस्राणि नवैव तु॥ 1-2-25 |
| + | नराणामपि पञ्चाशच्छतानि त्रीणि चानघाः। |
| + | पञ्चषष्टिसहस्राणि तथाश्वानां शतानि च॥ 1-2-26 |
| + | दशोत्तराणि षट्प्राहुर्यथावदिह संख्यया। |
| + | एतामक्षौहिणीं प्राहुः संख्यातत्त्वविदो जनाः॥ 1-2-27 |
| + | यथा[यां वः] कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधनाः। |
| + | एतया संख्यया ह्यासन्कुरुपाण्डवसेनयोः॥ 1-2-28 |
| + | [[:Category:Akshauhani description|''Akshauhani description'']] [[:Category:Akshauhani|''Akshauhani'']][[:Category:description|''description'']] [[:Category:army unit description|''army unit description'']] [[:Category:army|''army'']] [[:Category:unit|''unit'']] [[:Category:सेना का माप|''सेना का माप'']] [[:Category:अक्षोहिणी का वर्णन|''अक्षोहिणी का वर्णन'']] [[:Category:अक्षोहिणी|''अक्षोहिणी'']] [[:Category:माप|''माप'']] [[:Category:वर्णन|''वर्णन'']] |
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− | स सर्वं क्षत्रमुत्साद्य स्ववीर्येणानलद्युतिः।
| + | अक्षौहिण्यो द्विजश्रेष्ठाः पिण्डिताष्टादशैव तु। |
| + | समेतास्तत्र वै देशे तत्रैव निधनं गताः॥ 1-2-29 |
| + | कौरवान्कारणं कृत्वा कालेनाद्भुतकर्मणा। |
| + | अहानि युयुधे भीष्मो दशैव परमास्त्रवित्॥ 1-2-30 |
| + | अहानि पञ्च द्रोणस्तु ररक्ष कुरुवाहिनीम्। |
| + | अहनी युयुधे द्वे तु कर्णः परबलार्दनः॥ 1-2-31 |
| + | शल्यःअर्धदिवसं चैव गदायुद्धमतः परम्। |
| + | दुर्योधनस्य भीमस्य दिनार्धमभवत्तयोः॥ 1-2-32 |
| + | तस्यैव दिवसस्यान्ते द्रौणिहार्दिक्यगौतमाः। |
| + | प्रसुप्तं निशि विश्वस्तं जघ्नुर्यौधिष्ठिरं बलम्॥ 1-2-33 |
| + | यत्तु शौनक सत्रे ते भारताख्यानमुत्तमम्। |
| + | जनमेजयस्य तत्सत्रे व्यासशिष्येण धीमता॥ 1-2-34 |
| + | कथितं विस्तरार्थं च यशो वीर्यं महीक्षिताम्। |
| + | पौष्यं तत्र च पौलोममास्तीकं चादितः स्मृतम्॥ 1-2-35 |
| + | विचित्रार्थपदाख्यानमनेकसमयान्वितम्। |
| + | प्रतिपन्नं नरैः प्राज्ञैर्वैराग्यमिव मोक्षिभिः॥ 1-2-36 |
| + | आत्मेव वेदितव्येषु प्रियेष्विव हि जीवितम्। |
| + | इतिहासः प्रधानार्थः श्रेष्ठः सर्वागमेष्वयम्॥ 1-2-37 |
| + | अनाश्रित्येदमाख्यानं कथा भुवि न विद्यते। |
| + | आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम्॥ 1-2-38 |
| + | तदेतद्भारतं नाम कविभिस्तूपजीव्यते। |
| + | उदयप्रेप्सुभिर्भृत्यैरभिजात इवेश्वरः॥ 1-2-39 |
| + | इतिहासोत्तमे यस्मिन्नर्पिता बुद्धिरुत्तमा। |
| + | स्वरव्यञ्जनयोः कृत्स्ना लोकवेदाश्रयेव वाक्॥ 1-2-40 |
| + | [[:Category:importance of mahabharata|''importance of mahabharata'']] [[:Category:mahabharata war summarized|''mahabharata war summarized'']] [[:Category:war|''war'']] [[:Category:summary|''summary'']] [[:Category:kaurava army commanders in mahabharata war|''kaurava army commanders in mahabharata war'']] [[:Category:kaurava|''kaurava'']] [[:Category:army|''army'']] [[:Category:commanders|''commanders'']] [[:Category:महाभारत युद्ध संक्षेपमें|''महाभारत युद्ध संक्षेपमें'']] [[:Category:युद्ध|''युद्ध'']] [[:Category:संक्षेप|''संक्षेप'']] [[:Category:सेनापती|''सेनापती'']] [[:Category:महाभारत|''महाभारत'']] [[:Category: कौरव सेनापती महाभारत युद्धमें|''कौरव सेनापती महाभारत युद्धमें'']] [[:Category: कौरव|''कौरव'']] [[:Category:significance of mahabharata|''significance of mahabharata'']] [[:Category:mahabharata|''mahabharata'']][[:Category:significance|''significance'']] [[:Category:importance|''importance'']] [[:Category:reading|''reading'']] [[:Category:महाभारत का महत्व|''महाभारत का महत्व'']] [[:Category:महाभारत पढ़ने का लाभ|''महाभारत पढ़ने का लाभ'']] [[:Category:लाभ|''लाभ'']] [[:Category:पढ़ने|''पढ़ने'']] [[:Category:महत्व|''महत्व'']] |
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− | श[स]मन्तपञ्चके पञ्च चकार रौधिरान्ह्रदान्॥ 1-2-4
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− | स तेषु रुधिराम्भःसु ह्रदेषु क्रोधमूर्च्छितः।
| + | तस्य प्रज्ञाभिपन्नस्य विचित्रपदपर्वणः। |
| + | सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थैर्भूषितस्य च॥ 1-2-41 |
| + | भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रहः। |
| + | पर्वानुक्रमणी पूर्वं द्वितीयः पर्वसंग्रहः॥ 1-2-42 |
| + | पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम्। |
| + | ततः सम्भवपर्वोक्तमद्भुतं रोमहर्षणम्॥ 1-2-43 |
| + | दाहो जतुगृहस्यात्र हैडिम्बं पर्व चोच्यते। |
| + | ततो बकवधः पर्व पर्व चैत्ररथं ततः॥ 1-2-44 |
| + | ततः स्वयंवरो देव्याः पाञ्चाल्याः पर्व चोच्यते। |
| + | क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम्॥ 1-2-45 |
| + | विदुरागमनं पर्व राज्यलम्भस्तथैव च। |
| + | अर्जुनस्य वने वासः सुभद्राहरणं ततः॥ 1-2-46 |
| + | सुभद्राहरणादूर्ध्वं ज्ञेयं[या] हरणहारिकम्[का]। |
| + | ततः खाण्डवदाहाख्यं तत्रैव मयदर्शनम्॥ 1-2-47 |
| + | सभापर्व ततः प्रोक्तं मन्त्रपर्व ततः परम्। |
| + | जरासन्धवधः पर्व पर्व दिग्विजयं तथा॥ 1-2-48 |
| + | पर्व दिग्विजयादूर्ध्वं राजसूयिकमुच्यते। |
| + | ततश्चार्घाभिहरणं शिशुपालवधस्ततः॥ 1-2-49 |
| + | द्यूतपर्व ततः प्रोक्तमनुद्यूतमतः परम्। |
| + | तत आरण्यकं पर्व किर्मीरवध एव च॥ 1-2-50 |
| + | अर्जुनस्याभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम्। |
| + | ईश्वरार्जुनयोर्युद्धं पर्व कैरातसंज्ञितम्॥ 1-2-51 |
| + | इन्द्रलोकाभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम्। |
| + | नलोपाख्यानमपि च धार्मिकं करुणोदयम्॥ 1-2-52 |
| + | तीर्थयात्रा ततः पर्व कुरुराजस्य धीमतः। |
| + | जटासुरवधः पर्व यक्षयुद्धमतः परम्॥ 1-2-53 |
| + | निवातकवचैर्युद्धं पर्व चाजगरं ततः। |
| + | मार्कण्डेयसमास्या च पर्वानन्तरमुच्यते॥ 1-2-54 |
| + | संवादश्च ततः पर्व द्रौपदीसत्यभामयोः। |
| + | घोषयात्रा ततः पर्व मृगस्वप्नोद्भवं ततः॥ 1-2-55 |
| + | मन्त्रस्य निश्चयं कृत्वा कार्यस्यापि विचिन्तनम्। |
| + | व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमैन्द्रद्युम्नं तथैव च। |
| + | द्रौपदीहरणं पर्व जयद्रथविमोक्षणम्॥ 1-2-56 |
| + | पतिव्रताया माहात्म्यं सावित्र्याः चैवमद्भुतम्। |
| + | रामोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम्॥ 1-2-57 |
| + | कुण्डलाहरणं पर्व ततः परमिहोच्यते। |
| + | आरणेयं ततः पर्व वैराटं तदनन्तरम्॥ 1-2-58 |
| + | पाण्डवानां प्रवेशश्च समयस्य च पालनम्। |
| + | कीचकानां वधः पर्व पर्व गोग्रहणं ततः॥ 1-2-59 |
| + | अभिमन्योश्च वैराट्याः पर्व वैवाहिकं स्मृतम्। |
| + | उद्योगपर्व विज्ञेयमत ऊर्ध्वं महाद्भुतम्॥ 1-2-60 |
| + | ततः संजययानाख्यं पर्व ज्ञेयमतः परम्। |
| + | प्रजागरं तथा पर्व धृतराष्ट्रस्य चिन्तया॥ 1-2-61 |
| + | पर्व सानत्सुजातं वै गुह्यमध्यात्मदर्शनम्। |
| + | यानसन्धिस्ततः पर्व भगवद्यानमेव च॥ 1-2-62 |
| + | मातलीयमुपाख्यानं चरितं गालवस्य च। |
| + | सावित्रं वामदेव्यं च वैन्योपाख्यानमेव च॥ 1-2-63 |
| + | जामदग्न्यमुपाख्यानं पर्व षोडशराजकम्। |
| + | सभाप्रवेशः कृष्णस्य विदुलापुत्रशासनम्॥ 1-2-64 |
| + | उद्योगः सैन्यनिर्याणं विश्वोपाख्यानमेव च। |
| + | (ज्ञेयं विवादपर्वात्र कर्णस्यापि महात्मनः।) |
| + | मन्त्रस्य निश्चयं कृत्वा कार्यं समभिचिन्तयन्। |
| + | कीर्त्यते चाप्युपाख्यानं सैनापत्येऽभिषेचनम्। |
| + | श्वेतस्य वासुदेवेन चित्रं बहुकथाश्रयम्। |
| + | निर्याणं च ततः पर्व कुरुपाण्डवसेनयोः॥ 1-2-65 |
| + | रथातिरथसंख्या च पर्वोक्तं तदनन्तरम्। |
| + | उलूकदूतागमनं पर्वामर्षविवर्धनम्॥ 1-2-66 |
| + | अम्बोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम्। |
| + | भीष्माभिषेचनं पर्व ततश्चाद्भुतमुच्यते॥ 1-2-67 |
| + | जम्बूखण्डविनिर्माणं पर्वोक्तं तदनन्तरम्। |
| + | भूमिपर्व ततः प्रोक्तं द्वीपविस्तारकीर्तनम्॥ 1-2-68 |
| + | दिव्यं चक्षुर्ददौ यत्र संजयाय महानृषिः। |
| + | पर्वोक्तं भगवद्गीता पर्व भीष्मवधस्ततः। |
| + | द्रोणाभिषेचनं पर्व संशप्तकवधस्ततः॥ 1-2-69 |
| + | अभिमन्युवधः पर्व प्रतिज्ञापर्व चोच्यते। |
| + | जयद्रथवधः पर्व घटोत्कचवधस्ततः॥ 1-2-70 |
| + | ततो द्रोणवधः पर्व विज्ञेयं रो[लो]महर्षणम्। |
| + | मोक्षो नारायणास्त्रस्य पर्वानन्तरमुच्यते॥ 1-2-71 |
| + | कर्णपर्व ततो ज्ञेयं शल्यपर्व ततः परम्। |
| + | ह्रदप्रवेशनं पर्व गदायुद्धमतः परम्॥ 1-2-72 |
| + | सारस्वतं ततः पर्व तीर्थवंशानुकीर्तनम्। |
| + | अत ऊर्ध्वं तु बीभत्सं पर्व सौप्तिकमुच्यते॥ 1-2-73 |
| + | ऐषीकं पर्व चोद्दिष्टमत ऊर्ध्वं सुदारुणम्। |
| + | जलप्रदानिकं पर्व स्त्रीविलापस्ततः परम्॥ 1-2-74 |
| + | श्राद्धपर्व ततो ज्ञेयं कुरूणामौर्ध्वदै[दे]हिकम्। |
| + | चार्वाकनिग्रहः पर्व रक्षसो ब्रह्मरूपिणः॥ 1-2-75 |
| + | आभिषेचनिकं पर्व धर्मराजस्य धीमतः। |
| + | प्रविभागो गृहाणां च पर्वोक्तं तदनन्तरम्॥ 1-2-76 |
| + | शान्तिपर्व ततो यत्र राजधर्मानुशासनम्। |
| + | आपद्धर्मश्च पर्वोक्तं मोक्षधर्मस्ततः परम्॥ 1-2-77 |
| + | शुकप्रश्नाभिगमनं ब्रह्मप्रश्नानुशासनम्। |
| + | प्रादुर्भावश्च दुर्वासः संवादश्चैव मायया॥ 1-2-78 |
| + | ततः पर्व परिज्ञेयमानुशासनिकं परम्। |
| + | स्वर्गारोहणिकं चैव ततो भीष्मस्य धीमतः॥ 1-2-79 |
| + | ततोऽऽश्वमेधिकं पर्व सर्वपापप्रणाशनम्। |
| + | अनुगीता ततः पर्व ज्ञेयमध्यात्मवाचकम्॥ 1-2-80 |
| + | पर्व चाश्रमवासाख्यं पुत्रदर्शनमेव च। |
| + | नारदागमनं पर्व ततः परमिहोच्यते॥ 1-2-81 |
| + | मौसलं पर्व चोद्दिष्टं ततो घोरं सुदारुणम्। |
| + | महाप्रस्थानिकं पर्व स्वर्गारोहणिकं ततः॥ 1-2-82 |
| + | हरिवंशस्ततः पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम्। |
| + | विष्णुपर्व शिशोश्चर्या विष्णोः कंसवधस्तथा॥ 1-2-83 |
| + | [[:Category:importance of mahabharata|''importance of mahabharata'']] [[:Category:index|''index'']] |
| + | [[:Category:chapters|''chapters'']] [[:Category:parv|''parv'']] [[:Category:sections|''sections'']] |
| + | [[:Category:महाभारत|''महाभारत'']] [[:Category:पर्वो|''पर्वो'']] [[:Category:संग्रह|''संग्रह'']] [[:Category:सूची|''सूची'']] |
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− | पितॄन्संतर्पयामास रुधिरेणेति नः श्रुतम्॥ 1-2-5
| |
| | | |
− | अथर्चीकादयोऽभ्येत्य पितरो राममब्रुवन्।
| + | भविष्यपर्व चाप्युक्तं खिलेष्वेवाद्भुतं महत्। |
| + | एतत्पर्वशतं पूर्णं व्यासेनोक्तं महात्मना॥ 1-2-84 |
| + | यथावत्सूतपुत्रेण रौ[लौ]महर्षणिना ततः। |
| + | उक्तानि नैमिषारण्ये पर्वाण्यष्टादशैव तु॥ 1-2-85 |
| + | समासो भारतस्यायमत्रोक्तः पर्वसंग्रहः। |
| + | पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम्॥ 1-2-86 |
| + | सम्भवो जतुवेश्माख्यं हिडिम्बबकयोः वधः। |
| + | तथा चैत्ररथं देव्याः पाञ्चाल्याश्च स्वयंवरः॥ 1-2-87 |
| + | क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम्। |
| + | विदुरागमनं चैव राज्यलम्भस्तथैव च॥ 1-2-88 |
| + | वनवासोऽर्जुनस्यापि सुभद्राहरणं ततः। |
| + | हरणाहरणं चैव दहनं खाण्डवस्य च॥ 1-2-89 |
| + | मयस्य दर्शनं चैव आदिपर्वणि कथ्यते। |
| + | पौष्ये पर्वणि महात्म्यमुद[त्त]ङ्कस्योपवर्णितम्॥ 1-2-90 |
| + | पौलोमे भृगुवंशस्य विस्तारः परिकीर्तितः। |
| + | श्लोकाग्रं च सहस्रं च पञ्चाशच्छतमेव च। |
| + | अध्यायानां तथाष्टौ वा आदितोऽस्मिन्प्रकीर्तिताः। |
| + | आस्तीके सर्वनागानां गरुडस्य च सम्भवः॥ 1-2-91 |
| + | क्षीरोदमथनं चैव जन्मोच्चैःश्रवसस्तथा। |
| + | यजतः सर्पसत्रेण राज्ञः पारीक्षितस्य च॥ 1-2-92 |
| + | कथेयमभिनिर्वृत्ता भरतानां महात्मनाम्। |
| + | श्लोकाग्रं च सहस्रं च त्रिशतं चोत्तरं तथा। |
| + | श्लोकाश्च चतुराशीतिः पर्वण्यस्मिंस्तथैव च। |
| + | अध्यायानां ततः प्रोक्तं चत्वारिंशन्महर्षिणा। |
| + | विविधाः सम्भवा राज्ञामुक्ताः सम्भवपर्वणि॥ 1-2-93 |
| + | अन्येषां चैव शूराणामृषेर्द्वैपायनस्य च। |
| + | अंशावतरणं चात्र देवानां परिकीर्तितम्॥ 1-2-94 |
| + | दैत्यानां दानवानां च यक्षाणां च महौजसाम्। |
| + | नागानामथ सर्पाणां गन्धर्वाणां पतत्त्रिणाम्॥ 1-2-95 |
| + | अन्येषां चैव भूतानां विविधानां समुद्भवः। |
| + | महर्षेराश्रमपदे कण्वस्य च तपस्विनः॥ 1-2-96 |
| + | शकुन्तलायां दुष्यन्ताद्भरतश्चापि जज्ञिवान्। |
| + | यस्य लोकेषु नाम्नेदं प्रथितं भारतं कुलम्॥ 1-2-97 |
| + | वसूनां पुनरुत्पत्तिर्भागीरथ्यां महात्मनाम्। |
| + | शान्तनोर्वेश्मनि पुनस्तेषां चारोहणं दिवि॥ 1-2-98 |
| + | तेजोंऽशानां च सम्पातोभीष्मस्याप्यत्र सम्भवः। |
| + | राज्यान्निवर्तनं तस्य ब्रह्मचर्यव्रते स्थितिः॥ 1-2-99 |
| + | प्रतिज्ञापालनं चैव रक्षा चित्राङ्गदस्य च। |
| + | हते चित्राङ्गदे चैव रक्षा भ्रातुर्यवीयसः॥ 1-2-100 |
| + | विचित्रवीर्यस्य तथा राज्ये सम्प्रतिपादनम्। |
| + | धर्मस्य नृषु सम्भूतिरणीमाण्डव्यशापजा॥ 1-2-101 |
| + | कृष्णद्वैपायनाच्चैव प्रसूतिर्वरदानजा। |
| + | धृतराष्ट्रस्य पाण्डोश्च पाण्डवानां च सम्भवः॥ 1-2-102 |
| + | वारणावतयात्रायां मन्त्रो दुर्योधनस्य च। |
| + | कूटस्य धार्तराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान्प्रति॥ 1-2-103 |
| + | हितोपदेशश्च पथि धर्मराजस्य धीमतः। |
| + | विदुरेण कृतो यत्र हितार्थं म्लेच्छभाषया॥ 1-2-104 |
| + | विदुरस्य च वाक्येन सुरङ्गोपक्रमक्रिया। |
| + | निषाद्याः पञ्चपुत्रायाः सुप्ताया जतुवेश्मनि॥ 1-2-105 |
| + | पुरोचनस्य चात्रैव दहनं सम्प्रकीर्तितम्। |
| + | पाण्डवानां वने घोरे हिडिम्बायाश्च दर्शनम्॥ 1-2-106 |
| + | तत्रैव च हिडिम्बस्य वधो भीमान्महाबलात्। |
| + | घटोत्कचस्य चोत्पत्तिरत्रैव परिकीर्तिता॥ 1-2-107 |
| + | महर्षेर्दर्शनं चैव व्यासस्यामिततेजसः। |
| + | तदाज्ञयैकचक्रायां ब्राह्मणस्य निवेशने॥ 1-2-108 |
| + | अज्ञातचर्यया वासो यत्र तेषां प्रकीर्तितः। |
| + | बकस्य निधनं चैव नागराणां च विस्मयः॥ 1-2-109 |
| + | सम्भवश्चैव कृष्णाया धृष्टद्युम्नस्य चैव ह। |
| + | ब्राह्मणात्समुपश्रुत्य व्यासवाक्यप्रचोदिताः॥ 1-2-110 |
| + | द्रौपदीं प्रार्थयन्तस्ते स्वयंवरदिदृक्षया। |
| + | पञ्चालानभितो जग्मुर्यत्र कौतूहलान्विताः॥ 1-2-111 |
| + | अङ्गारपर्णं निर्जित्य गङ्गाकूलेऽर्जुनस्तदा। |
| + | सख्यं कृत्वा ततस्तेन तस्मादेव च शुश्रुवे॥ 1-2-112 |
| + | तापत्यमथ वासिष्ठमौर्वं चाख्यानमुत्तमम्। |
| + | भ्रातृभिः सहितः सर्वैः पञ्चालानभितो ययौ॥ 1-2-113 |
| + | पाञ्चालनगरे चापि लक्ष्यं भित्त्वा धनंजयः। |
| + | द्रौपदीं लब्धवानत्र मध्ये सर्वमहीक्षिताम्॥ 1-2-114 |
| + | भीमसेनार्जुनौ यत्र संरब्धान्पृथिवीपतीन्। |
| + | शल्यकर्णौ च तरसा जितवन्तौ महामृधे॥ 1-2-115 |
| + | दृष्ट्वा तयोश्च तद्वीर्यमप्रमेयममानुषम्। |
| + | शङ्कमानौ पाण्डवांस्तान्रामकृष्णौ महामती॥ 1-2-116 |
| + | जग्मतुस्तैः समागन्तुं शालां भार्गववेश्मनि। |
| + | पञ्चानामेकपत्नीत्वे विमर्शो द्रुपदस्य च॥ 1-2-117 |
| + | पञ्चेन्द्राणामुपाख्यानमत्रैवाद्भुतमुच्यते। |
| + | द्रौपद्या देवविहितो विवाहश्चाप्यमानुषः॥ 1-2-118 |
| + | क्षत्तुश्च धृतराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान्प्रति। |
| + | विदुरस्य च सम्प्राप्तिर्दर्शनं केशवस्य च॥ 1-2-119 |
| + | खाण्डवप्रस्थवासश्च तथा राज्यार्धशास[सर्ज]नम्। |
| + | नारदस्याज्ञया चैव द्रौपद्याः समयक्रिया॥ 1-2-120 |
| + | सुन्दोपसुन्दयोः तद्वदाख्यानं परिकीर्तितम्। |
| + | अनन्तरं च द्रौपद्या सहासीनं युधिष्ठिरम्॥ 1-2-121 |
| + | अनुप्रविश्य विप्रार्थे फाल्गुनो गृह्य चायुधम्। |
| + | मोक्षियित्वा गृहं गत्वा विप्रार्थं कृतनिश्चयः॥ 1-2-122 |
| + | समयं पालयन्वीरो वनं यत्र जगाम ह। |
| + | पार्थस्य वनवासे च उलूप्या पथि संगमः॥ 1-2-123 |
| + | पुण्यतीर्थानुसंयानं बभ्रुवाहनजन्म च। |
| + | तत्रैव मोक्षयामास पञ्च सोऽप्सरसः शुभाः॥ 1-2-124 |
| + | शापाद्ग्राहत्वमापन्ना ब्राह्मणस्य तपस्विनः। |
| + | प्रभासतीर्थे पार्थेन कृष्णस्य च समागमः॥ 1-2-125 |
| + | द्वारकायां सुभद्रा च कामयानेन कामिनी। |
| + | वासुदेवस्यानुमते प्राप्ता चैव किरीटिना॥ 1-2-126 |
| + | गृहीत्वा हरणं प्राप्ते कृष्णे देवकिनन्दने। |
| + | अभिमन्योः सुभद्रायां जन्म चोत्तमतेजसः॥ 1-2-127 |
| + | द्रौपद्यास्तनयानां च सम्भवोऽनुप्रकीर्तितः। |
| + | विहारार्थं च गतयोः कृष्णयोर्यमुनामनु॥ 1-2-128 |
| + | सम्प्राप्तिश्चक्रधनुषोः खाण्डवस्य च दाहनम्। |
| + | भयस्य मोक्षो ज्वलनाद्भुजङ्गस्य च मोक्षणम्॥ 1-2-129 |
| + | महर्षेर्मन्दपालस्य शार्ङ्ग्यां तनयसम्भवः। |
| + | इत्येतदादिपर्वोक्तं प्रथमं बहुविस्तरम्॥ 1-2-130 |
| + | अध्यायानां शते द्वे तु संख्याते परमर्षिणा। |
| + | सप्तविंशतिरध्याया व्यासेनोत्तमतेजसा॥ 1-2-131 |
| + | अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च। |
| + | श्लोकाश्च चतुराशीतिर्मुनिनोक्ता महात्मना॥ 1-2-132 |
| + | द्वितीयं तु सभापर्व बहुवृत्तान्तमुच्यते। |
| + | सभाक्रिया पाण्डवानां किङ्कराणां च दर्शनम्॥ 1-2-133 |
| + | लोकपालसभाख्यानं नारदाद्देवदर्शिनः। |
| + | राजसूयस्य चारम्भो जरासन्धवधस्तथा॥ 1-2-134 |
| + | गिरिव्रजे निरुद्धानां राज्ञां कृष्णेन मोक्षणम्। |
| + | तथा दिग्विजयोऽत्रैव पाण्डवानां प्रकीर्तितः॥ 1-2-135 |
| + | राज्ञामागमनं चैव सार्हणानां महाक्रतौ। |
| + | राजसूयेऽर्घसंवादे शिशुपालवधस्तथा॥ 1-2-136 |
| + | यज्ञे विभूतिं तां दृष्ट्वा दुःखामर्षान्वितस्य च। |
| + | दुर्योधनस्यावहासो भीमेन च सभातले॥ 1-2-137 |
| + | यत्रास्य मन्युरुद्भूतो येन द्यूतमकारयत्। |
| + | यत्र धर्मसुतं द्यूते शकुनिः कितवोऽजयत्॥ 1-2-138 |
| + | यत्र द्यूतार्णवे मग्नां द्रौपदीं नौरिवार्णवात्। |
| + | धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः स्नुषां परमदुःखिताम्॥ 1-2-139 |
| + | तारयामास तांस्तीर्णान्ज्ञात्वा दुर्योधनो नृपः। |
| + | पुनरेव ततो द्यूते समाह्वयत पाण्डवान्॥ 1-2-140 |
| + | जित्वा स वनवासाय प्रेषयामास तांस्ततः। |
| + | एतत्सर्वं सभापर्व समाख्यातं महात्मना॥ 1-2-141 |
| + | अध्यायाः सप्ततिर्ज्ञेयास्तथा चाष्टौ प्रसंख्यया। |
| + | श्लोकानां द्वे सहस्रे तु पञ्च श्लोकशतानि च॥ 1-2-142 |
| + | श्लोकाश्चैकादश ज्ञेयाः पर्वण्यस्मिन्द्विजोत्तमाः। |
| + | अतः परं तृतीयं तु ज्ञेयमारण्यकं महत्॥ 1-2-143 |
| + | वनवासं प्रयातेषु पाण्डवेषु महात्मसु। |
| + | पौरानुगमनं चैव धर्मपुत्रस्य धीमतः॥ 1-2-144 |
| + | अत्रौ[न्नौ]षधीनां च कृते पाण्डवेन महात्मना। |
| + | द्विजानां भरणार्थं च कृतमाराधनं रवेः॥ 1-2-145 |
| + | धौम्योपदेशात्तिग्मांशुप्रसादादन्नसम्भवः। |
| + | मैत्रेयशापोत्सर्गश्च विदुरस्य प्रवासनम्। |
| + | हितं च ब्रुवतः क्षत्तुः परित्यागोऽम्बिकासुतात्॥ 1-2-146 |
| + | त्यक्तस्य पाण्डुपुत्राणां समीपगमनं तथा। |
| + | पुनरागमनं चैव धृतराष्ट्रस्य शासनात्॥ 1-2-147 |
| + | कर्णप्रोत्साहनाच्चैव धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः। |
| + | वनस्थान्पाण्डवान्हन्तुं मन्त्रो दुर्योधनस्य च॥ 1-2-148 |
| + | तं दुष्टभावं विज्ञाय व्यासस्यागमनं द्रुतम्। |
| + | निर्याणप्रतिषेधश्च सुरभ्याख्यानमेव च॥ 1-2-149 |
| + | मैत्रेयागमनं चात्र राज्ञश्चैवानुशासनम्। |
| + | शापोत्सर्गश्च तेनैव राज्ञो दुर्योधनस्य च॥ 1-2-150 |
| + | किम्मी[र्मी]रस्य वधश्चात्र भीमसेनेन संयुगे। |
| + | पाण्डवानां च सर्वेषां सहाख्यानं तथैव च। |
| + | पाञ्चालागमनं चैव द्रोपद्याश्चाश्रुमोक्षणम्। |
| + | वृष्णीनामागमश्चात्र पञ्चालानां च सर्वशः॥ 1-2-151 |
| + | श्रुत्वा शकुनिना द्यूते निकृत्या निर्जितांश्च तान्। |
| + | क्रुद्धस्यानुप्रशमनं हरेश्चैव किरीटिना॥ 1-2-152 |
| + | परिदेवनं च पाञ्चाल्या वासुदेवस्य संनिधौ। |
| + | आश्वासनं च कृष्णेन दुःखार्तायाः प्रकीर्तितम्॥ 1-2-153 |
| + | तथा सौभवधाख्यानमत्रैवोक्तं महर्षिणा। |
| + | सुभद्रायाः सपुत्रायाः कृष्णेन द्वारकां पुरीम्॥ 1-2-154 |
| + | नयनं द्रौपदेयानां धृष्टद्युम्नेन चैव ह। |
| + | प्रवेशः पाण्डवेयानां रम्ये द्वैतवने ततः॥ 1-2-155 |
| + | धर्मराजस्य चात्रैव संवादः कृष्णया सह। |
| + | संवादश्च तथा राज्ञा भीमस्यापि प्रकीर्तितः॥ 1-2-156 |
| + | समीपं पाण्डुपुत्राणां व्यासस्यागमनं तथा। |
| + | प्रतिस्मृत्याथ विद्याया दानं राज्ञो महर्षिणा॥ 1-2-157 |
| + | गमनं काम्यके चापि व्यासे प्रतिगते ततः। |
| + | अस्त्रहेतोविवासश्च पार्थस्यामिततेजसः॥ 1-2-158 |
| + | महादेवेन युद्धं च किरातवपुषा सह। |
| + | दर्शनं लोकपालानामस्त्रप्राप्तिस्तथैव च॥ 1-2-159 |
| + | महेन्द्रलोकगमनमस्त्रार्थे च किरीटिनः। |
| + | यत्र चिन्ता समुत्पन्ना धृतराष्ट्रस्य भूयसी॥ 1-2-160 |
| + | दर्शनं बृहदश्वस्य महर्षेर्भावितात्मनः। |
| + | युधिष्ठिरस्य चार्तस्य व्यसनं परिदेवनम्॥ 1-2-161 |
| + | नलोपाख्यानमत्रैव धर्मिष्ठं करुणोदयम्। |
| + | दमयन्त्याः स्थितिर्यत्र नलस्य चरितं तथा॥ 1-2-162 |
| + | तथाक्षहृदयप्राप्तिस्तस्मादेव महर्षितः। |
| + | रो[लो]मशस्यागमस्तत्र स्वर्गात्पाण्डुसुतान्प्रति॥ 1-2-163 |
| + | वनवासगतानां च पाण्डवानां महात्मनाम्। |
| + | स्वर्गे प्रवृत्तिराख्याता रो[लो]मशेनार्जुनस्य वै॥ 1-2-164 |
| + | संदेशादर्जुनस्यात्र तीर्थाभिगमनक्रिया। |
| + | तीर्थानां च फलप्राप्तिः पुण्यत्वं चापि कीर्तितम्॥ 1-2-165 |
| + | पुलस्त्यतीर्थयात्रा च नारदेन महर्षिणा। |
| + | तीर्थयात्रा च तत्रैव पाण्डवानां महात्मनाम्॥ 1-2-166 |
| + | कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्। |
| + | तथा यज्ञविभूतिश्च गयस्यात्र प्रकीर्तिता॥ 1-2-167 |
| + | आगस्त्यमपि चाख्यानं यत्र वातापिभक्षणम्। |
| + | लोपामुद्राभिगमनमपत्यार्थमृषेस्तथा॥ 1-2-168 |
| + | ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनन्तरम्। |
| + | इन्द्रोऽग्निर्यत्र धर्मश्च अजिज्ञासन्शिबिं नृपम्। |
| + | ऋश्यशृङ्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिणः। |
| + | ऋष्यशृङ्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिणः। |
| + | जामदग्न्यस्य रामस्य चरितं भूरितेजसः॥ 1-2-169 |
| + | कार्तवीर्यवधो यत्र हैहयानां च वर्ण्यते। |
| + | तीर्थयात्रा तथैवात्र पाण्डवानां महात्मनाम्। |
| + | कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्। |
| + | नियुक्तो भीमसेनश्च द्रोपद्या गन्धमादने। |
| + | यत्र मन्दारपुष्पार्थं नलिनीं तामधर्षयत्। |
| + | यत्रास्य सुमहद्युद्धं अभवद्राक्षसैः सह। |
| + | यक्षैश्चापि महावीर्यैः मणिमत्प्रमुखैस्तथा। |
| + | प्रभासतीर्थे पाण्डूनां वृष्णिभिश्च समागमः॥ 1-2-170 |
| + | सौकन्यमपि चाख्यानं च्यवनो यत्र भार्गवः। |
| + | शर्यातियज्ञे नासत्यौ कृतवान्सोमपीति[थि]नौ॥ 1-2-171 |
| + | ताभ्यां च यत्र स मुनिर्यौवनं प्रतिपादितः। |
| + | मान्धातुश्चाप्युपाख्यानं राज्ञोऽत्रैव प्रकीर्तितम्॥ 1-2-172 |
| + | जन्तूपाख्यानमत्रैव यत्र पुत्रेण सोमकः। |
| + | पुत्रार्थमयजद्राजा लेभे पुत्रशतं च सः। |
| + | ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनुत्तमम्॥ 1-2-173 |
| + | इन्द्राग्नी यत्र धर्मस्य जिज्ञासार्थं शिबिं नृपम्। |
| + | अष्टावक्रीयमत्रैव विवादो यत्र बन्दिना॥ 1-2-174 |
| + | अष्टावक्रस्य विप्रर्षेर्जनकस्याध्वरेऽभवत्। |
| + | नैयायिकानां मुख्येन वरुणस्यात्मजेन च॥ 1-2-175 |
| + | पराजितो यत्र बन्दी विवादेन महात्मना। |
| + | विजित्य सागरं प्राप्तं पितरं लब्धवानृषिः॥ 1-2-176 |
| + | अजासुरस्य चात्रैव वयः समुपवर्ण्यते। |
| + | अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थे सव्यसाचिना। |
| + | निवातकवचैर्युद्धं हिरण्यपुरवासिभिः। |
| + | समागमश्च पार्थस्य भ्रातृभिर्गन्धमादने। |
| + | घोषयात्रा च गन्धर्वैर्यत्र युद्धं किरीटिनः |
| + | यवक्रीतस्य चाख्यानं रैभ्यस्य च महात्मनः। |
| + | गन्धमादनयात्रा च वासो नारायणाश्रमे॥ 1-2-177 |
| + | नियुक्तो भीमसेनश्च द्रौपद्या गन्धमादने। |
| + | व्रजन्पथि महाबाहुर्दृष्टवान्पवनात्मजम्॥ 1-2-178 |
| + | कदलीष[ख]ण्डमध्यस्थं हनूमन्तं महाबलम्। |
| + | यत्र सौगन्धिकार्थेऽसौ नलिनीं तामधर्षयत्॥ 1-2-179 |
| + | यत्रास्य युद्धमभवत्सुमहद्राक्षसैः सह। |
| + | यक्षैश्चैव महावीर्यैर्मणिमत्प्रमुखैस्तथा॥ 1-2-180 |
| + | जटासुरस्य च वधो राक्षसस्य वृकोदरात्। |
| + | वृषपर्वणश्च राजर्षेस्ततोऽभिगमनं स्मृतम्॥ |
| + | आर्ष्टिषेण आश्रमे चैषां गमनं वास एव च। |
| + | प्रोत्साहनं च पाञ्चाल्या भीमस्यात्र महात्मनः॥ |
| + | कैलासारोहणं प्रोक्तं यत्र यक्षैर्बलोत्कटैः। |
| + | युद्धमासीन्महाघोरं मणिमत्प्रमुखैः सह॥ |
| + | समागमश्च पाण्डूनां यत्र वैश्रवणेन च।) |
| + | समागमश्चार्जुनस्य तत्रैव भ्रातृभिः सह। |
| + | अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थं सव्यसाचिना॥ 1-2-181 |
| + | निवातकवचैर्युद्धं हिरण्यपुर वासिभिः। |
| + | निवातकवचैर्घोरैर्दानवैः सुरशत्रुभिः॥ 1-2-182 |
| + | पौलोमैः कालकेयैश्च यत्र युद्धं किरीटिनः। |
| + | वधश्चैषां समाख्यातो राज्ञस्तेनैव धीमता॥ 1-2-183 |
| + | अस्त्रसंदर्शनारम्भो धर्मराजस्य संनिधौ। |
| + | पार्थस्य प्रतिषेधश्च नारदेन सुरर्षिणा॥ 1-2-184 |
| + | अवरोहणं पुनश्चैव पाण्डूनां गन्धमादनात्। |
| + | भीमस्य ग्रहणं चात्र पर्वताभोगवर्ष्मणा॥ 1-2-185 |
| + | भुजगेन्द्रेण बलिना तस्मिन्सुगहने वने। |
| + | अमोक्षयद्यत्र चैनं प्रश्नानुक्त्वा युधिष्ठिरः॥ 1-2-186 |
| + | काम्यकागमनं चैव पुनस्तेषां महात्मनाम्। |
| + | तत्रस्थांश्च पुनर्द्रष्टुं पाण्डवान्पुरुषर्षभान्॥ 1-2-187 |
| + | वासुदेवस्यागमनमत्रैव परिकीर्तितम्। |
| + | मार्कण्डेयसमास्यायामुपाख्यानानि सर्वशः॥ 1-2-188 |
| + | पृथोर्वैन्यस्य यत्रोक्तमाख्यानं परमर्षिणा। |
| + | संवादश्च सरस्वत्यास्तार्क्ष्यर्षेः सुमहात्मनः॥ 1-2-189 |
| + | मत्स्योपाख्यानमत्रैव प्रोच्यते तदनन्तरम्। |
| + | मार्कण्डेयसमास्या च पुराणं परिकीर्त्यते॥ 1-2-190 |
| + | ऐन्द्रद्युम्नमुपाख्यानं धौन्धुमारं तथैव च। |
| + | पतिव्रतायाश्चाख्यानं तथैवाङ्गिरसं स्मृतम्॥ 1-2-191 |
| + | द्रौपद्याः कीर्तितश्चात्र संवादः सत्यभामया। |
| + | पुनर्द्वैतवनं चैव पाण्डवाः समुपागताः॥ 1-2-192 |
| + | घोषयात्रा च गन्धर्वैर्यत्र बद्धः सुयोधनः। |
| + | ह्रियमाणस्तुमन्दात्मा मोक्षितोऽसौ किरीटीना॥ 1-2-193 |
| + | धर्मराजस्य चात्रैव मृगस्वप्ननिदर्शनम्। |
| + | काम्यके काननश्रेष्ठे पुनर्गमनमुच्यते॥ 1-2-194 |
| + | व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम्। |
| + | दुर्वाससोऽप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-195 |
| + | जयद्रथेनापहारो द्रौपद्याश्चाश्रमान्तरात्। |
| + | यत्रैनमन्वयाद्भीमो वायुवेगसमो जवे॥ 1-2-196 |
| + | चक्रे चैनं पञ्चशिखं यत्र भीमो महाबलः। |
| + | रामायणमुपाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम्॥ 1-2-197 |
| + | यत्र रामेण विक्रम्य निहतो रावणो युधि। |
| + | सावित्र्याश्चाप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-198 |
| + | कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्। |
| + | यत्रास्य शक्तिं तुष्टोऽदादेकवीर[तुष्टोऽसावदादेक]वधाय च॥ 1-2-199 |
| + | आरणेयमुपाख्यानं यत्र धर्मोऽन्वशात्सुतम्। |
| + | जग्मुर्लब्धवरा यत्र पाण्डवाः पश्चिमां दिशम्॥ 1-2-200 |
| + | एतदारण्यकं पर्व तृतीयं परिकीर्तितम्। |
| + | अत्राध्यायशते द्वे तु संख्यया परिकीर्तिते॥ 1-2-201 |
| + | एकोनसप्ततिश्चैव तथाध्यायाः प्रकीर्तिताः। |
| + | एकादशसहस्राणि श्लोकानां षट्शतानि च॥ 1-2-202 |
| + | चतुःषष्टिस्तथाश्लोकाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः। |
| + | अतः परं निबोधेदं वैराटं पर्व विस्तरम्॥ 1-2-203 |
| + | विराटनगरे गत्वा श्मशाने विपुलां शमीम्। |
| + | दृष्ट्वा संनिदधुस्तत्र पाण्डवा ह्यायुधान्युत॥ 1-2-204 |
| + | यत्र प्रविश्य नगरं छद्मना न्यवसंस्तु ते। |
| + | पाञ्चालीं प्रार्थयानस्य कामोपहतचेतसः॥ 1-2-205 |
| + | दुष्टात्मनो वधो यत्र कीचकस्य वृकोदरात्। |
| + | पाण्डवान्वेषणार्थं च राज्ञो दुर्योधनस्य च॥ 1-2-206 |
| + | चाराः प्रस्थापिताश्चात्र निपुणाः सर्वतोदिशम्। |
| + | न च प्रवृत्तिस्तैर्लब्धा पाण्डवानां महात्मनाम्॥ 1-2-207 |
| + | गोग्रहश्च विराटस्य त्रिगर्तैः प्रथमं कृतः। |
| + | यत्रास्य युद्धं सुमहत्तैरासीद्रो[ल्लो]महर्षणम्॥ 1-2-208 |
| + | ह्रियमाणश्चि यत्रासौ भीमसेनेन मोक्षितः। |
| + | गोधनं च विराटस्य मोक्षितं यत्र पाण्डवैः॥ 1-2-209 |
| + | अनन्तरं च कुरुभिस्तस्य गोग्रहणं कृतम्। |
| + | समस्ता यत्र पार्थेन निर्जिताः कुरवो युधि॥ 1-2-210 |
| + | प्रत्याहृतं गोधनं च विक्रमेण किरीटिना। |
| + | विराटेनोत्तरा दत्ता स्नुषा यत्र किरीटिनः॥ 1-2-211 |
| + | अभिमन्युं समुद्दिस्य सौभद्रमरिघातिनम्। |
| + | चतुर्थमेतद्विपुलं वैराटं पर्व वर्णितम्॥ 1-2-212 |
| + | अत्रापि परिसंख्याता अध्यायाः परमर्षिणा। |
| + | सप्तषष्टिरथो पूर्णा श्लोकानामपि मे शृणु॥ 1-2-213 |
| + | श्लोकानां द्वे सहस्रे तु श्लोकाः पञ्चाशदेव तु। |
| + | उक्तानि वेदविदुषा पर्वण्यस्मिन्महर्षिणा॥ 1-2-214 |
| + | उद्योगपर्व विज्ञेयं पञ्चमं शृण्वतः परम्। |
| + | उपप्लव्ये निविष्टेषु पाण्डवेषु जिगीषया॥ 1-2-215 |
| + | दुर्योधनोऽर्जुनश्चैव वासुदेवमुपस्थितौ। |
| + | साहाय्यमस्मिन्समरे भवान्नौ कर्तुमर्हति॥ 1-2-216 |
| + | इत्युक्ते वचने कृष्णो यत्रोवाच महामतिः। |
| + | अयुध्यमानमात्मानं मन्त्रिणं पुरुषर्षभौ॥ 1-2-217 |
| + | अक्षौहिणीं वा सैन्यस्य कस्य किं वा ददाम्यहम्। |
| + | वव्रे दुर्योधनः सैन्यं मन्दात्मा यत्र दुर्मतिः॥ 1-2-218 |
| + | अयुध्यमानं सचिवं वव्रे कृष्णं धनञ्जयः। |
| + | मद्रराजं च राजानमायान्तं पाण्डवान्प्रति॥ 1-2-219 |
| + | उपहारैर्वञ्चयित्वा वर्त्मन्येव सुयोधनः। |
| + | वरदं तं वरं वव्रे साहाय्यं क्रियतां मम॥ 1-2-220 |
| + | शल्यस्तस्मै प्रतिश्रुत्य जगामोद्दिश्य पाण्डवान्। |
| + | शान्तिपूर्वं चाकथयद्यत्रेन्द्रविजयं नृपः॥ 1-2-221 |
| + | पुरोहितप्रेषणं च पाण्डवैः कौरवान्प्रति। |
| + | वैचित्रवीर्यस्य वचः समादाय पुरोधसः॥ 1-2-222 |
| + | तथेन्द्रविजयं चापि यानं चैव पुरोधसः। |
| + | संजयं प्रेषयामास शमार्थी पाण्डवान्प्रति॥ 1-2-223 |
| + | यत्र दूतं महाराजो धृतराष्ट्रः प्रतापवान्। |
| + | श्रुत्वा च पाण्डवान्यत्र वासुदेवपुरोगमान्॥ 1-2-224 |
| + | प्रजागरः सम्प्रजज्ञे धृतराष्ट्रस्य चिन्तया। |
| + | विदुरो यत्र वाक्यानि विचित्राणि हितानि च॥ 1-2-225 |
| + | श्रावयामास राजानं धृतराष्ट्रं मनीषिणम्। |
| + | तथा सनत्सुजातेन यत्राध्यात्ममनुत्तमम्॥ 1-2-226 |
| + | मनस्तापान्वितो राजा श्रावितः शोकलालसः। |
| + | प्रभाते राजसमितौ संजयो यत्र वा विभोः॥ 1-2-227 |
| + | ऐकात्म्यं वासुदेवस्य प्रोक्तवानर्जुनस्य च। |
| + | यत्र कृष्णो दयापन्नः संधिमिच्छन्महामतिः॥ 1-2-228 |
| + | स्वयमागाच्छमं कर्तुं नगरं नागसाह्वयम्। |
| + | प्रत्याख्यानं च कृष्णस्य राज्ञा दुर्योधनेन वै॥ 1-2-229 |
| + | शमार्थे याचमानस्य पक्षयोरुभयोर्हितम्। |
| + | दम्भोद्भवस्य चाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-230 |
| + | वरान्वेषणमत्रैव मातलेश्च महात्मनः। |
| + | महर्षेश्चापि चरितं कथितं गालवस्य वै॥ 1-2-231 |
| + | विदुलायाश्च पुत्रस्य प्रोक्तं चाप्यनुशासनम्। |
| + | कर्णदुर्योधनादीनां दुष्टं विज्ञाय मन्त्रितम्॥ 1-2-232 |
| + | योगेश्वरत्वं कृष्णेन यत्र राज्ञां प्रदर्शितम्। |
| + | रथमारोप्य कृष्णेन यत्र कर्णोऽनुमन्त्रितः। |
| + | उपायपूर्वं शौटीर्यात्प्रत्याख्यातश्च तेन सः॥ 1-2-233 |
| + | आगम्य हास्तिनापुरादुपप्लव्यमरिन्दमः। |
| + | पाण्डवानां यथावृत्तं सर्वमाख्यातवान्हरिः॥ 1-2-234 |
| + | ते तस्य वचनं श्रुत्वा मन्त्रयित्वा च यद्धितम्। |
| + | सांग्रामिकं ततः सर्वं सज्जं चक्रुः परंतपाः॥ 1-2-235 |
| + | ततो युद्धाय निर्याता नराश्वरथदन्तिनः। |
| + | नगराद्धास्तिनपुराद्बलसंख्यानमेव च॥ 1-2-236 |
| + | यत्र राज्ञा ह्युलूकस्य प्रेषणं पाण्डवान्प्रति। |
| + | श्वोभाविनि महायुद्धे दौत्येन कृतवान्प्रभुः॥ 1-2-237 |
| + | रथातिरथसंख्यानमम्बोबाख्यानमेव च। |
| + | एतत्सुबहुवृत्तान्तं पञ्चमं पर्व भारते॥ 1-2-238 |
| + | उद्योगपर्व निर्दिष्टं संधिविग्रहमिश्रितम्। |
| + | अध्यायानां शतं प्रोक्तं षडशीतिर्महर्षिणा॥ 1-2-239 |
| + | श्लोकानां षट्सहस्राणि तावन्त्येव शतानि च। |
| + | श्लोकाश्च नवतिः प्रोक्तास्तथैवाष्टौ महात्मना॥ 1-2-240 |
| + | व्यासेनोदारमतिना पर्वण्यस्मिंस्तपोधनाः। |
| + | अतः परं विचित्रार्थं भीष्मपर्व प्रचक्षते॥ 1-2-241 |
| + | जम्बूखण्डविनिर्माणं यत्रोक्तं संजयेन ह। |
| + | यत्र यौधिष्ठिरं सैन्यं विषादमगमत्परम्॥ 1-2-242 |
| + | यत्र युद्धमभूद्घोरं दशाहानि सुदारुणम्। |
| + | कश्मलं यत्र पार्थस्य वासुदेवो महामतिः॥ 1-2-243 |
| + | मोहजं नाशयामास हेतुभिर्मोक्षदर्शिभिः। |
| + | समीक्ष्याधोक्षजः क्षिप्रं युधिष्ठिरहिते रतः॥ 1-2-244 |
| + | रथादाप्लुत्य वेगेन स्वयं कृष्ण उदारधीः। |
| + | प्रतोदपाणिराधावद्भीष्मं हन्तुं व्यपेतभीः॥ 1-2-245 |
| + | वाक्यप्रतोदाभिहतो यत्र कृष्णेन पाण्डवः। |
| + | गाण्डीवधन्वा समरे सर्वशस्त्रभृतां वरः॥ 1-2-246 |
| + | शिखण्डिनं पुरस्कृत्य यत्र पार्थो महाधनुः। |
| + | विनिघ्नन्निशितैर्बाणै रथाद्भीष्ममपातयत्॥ 1-2-247 |
| + | शरतल्पगतश्चैव भीष्मो यत्र बभूव ह। |
| + | षष्ठमेतत्समाख्यातं भारते पर्व विस्तृतम्॥ 1-2-248 |
| + | अध्यायानां शतं प्रोक्तं तथा सप्तदशापरे। |
| + | पञ्चश्लोकसहस्राणि संख्ययाष्टौ शतानि च॥ 1-2-249 |
| + | श्लोकश्च चतुराशीतिरस्मिन्पर्वणि कीर्तिताः। |
| + | व्यासेन वेदविदुषा संख्याता भीष्मपर्वणि॥ 1-2-250 |
| + | द्रोणपर्व ततश्चित्रं बहुवृत्तान्तमुच्यते। |
| + | सैनापत्येऽभिषिक्तोऽथ यत्राचार्यः प्रतापवान्॥ 1-2-251 |
| + | दूर्योधनस्य प्रीत्यर्थं प्रतिजज्ञे महास्त्रवित्। |
| + | ग्रहणं धर्मराजस्य पाण्डुपुत्रस्य धीमतः॥ 1-2-252 |
| + | यत्र संशप्तकाः पार्थमपनिन्यू रणाजिरात्। |
| + | भगदत्तो महाराजो यत्र शक्रसमो युधि॥ 1-2-253 |
| + | सुप्रतीकेन नागेन स हि शान्तः किरीटिना। |
| + | यत्राभिमन्युं बहवो जघ्नुरेकं महारथाः॥ 1-2-254 |
| + | जयद्रथमुखा बालं शूरमप्राप्तयौवनम्। |
| + | हतेऽभिमन्यौ क्रुद्धेन यत्र पार्थेन संयुगे॥ 1-2-255 |
| + | अक्षौहिणीः सप्त हत्वा हतो राजा जयद्रथः। |
| + | यत्र भीमो महाबाहुः सात्यकिश्च महारथः॥ 1-2-256 |
| + | अन्वेषणार्थं पार्थस्य युधिष्ठिरनृपाज्ञया। |
| + | प्रविष्टौ भारतीं सेनामप्रधृष्यां सुरैरपि॥ 1-2-257 |
| + | संशप्तकावशेषं च कृतं निःशेषमाहवे। |
| + | (संशप्तकानां वीराणां कोट्यो नव महात्मनाम्॥ |
| + | किरीटिनाभिनिष्क्रम्य प्रापिता यमसादनम्। |
| + | धृतराष्ट्रस्य पुत्राश्च तथा पाषाणयोधिनः॥ |
| + | नारायणाश्च गोपालाः समरे चित्रयोधिनः।) |
| + | अलम्बुषः श्रुतायुश्च जलसन्धश्च वीर्यवान्॥ 1-2-258 |
| + | सौमदत्तिर्विराटश्च द्रुपदश्च महारथः। |
| + | घटोत्कचादयश्चान्ये निहता द्रोणपर्वणि॥ 1-2-259 |
| + | अश्वत्थामापि चात्रैव द्रोणे युधि निपातिते। |
| + | अस्त्रं प्रादुश्चकारोग्रं नारायणममर्षितः॥ 1-2-260 |
| + | आग्नेयं कीर्त्यते यत्र रुद्रमाहात्म्यमुत्तमम्। |
| + | व्यासस्य चाप्यागमनं माहात्म्यं कृष्णपार्थयोः॥ 1-2-261 |
| + | सप्तमं भारते पर्व महदेतदुदाहृतम्। |
| + | यत्र ते पृथिवीपालाः प्रायशो निधनं गताः॥ 1-2-262 |
| + | द्रोणपर्वणि ये शूरा निर्दिष्टाः पुरुषर्षभाः। |
| + | अत्राध्यायशतं प्रोक्तं तथाध्यायाश्च सप्ततिः॥ 1-2-263 |
| + | अष्टौ श्लोकसहस्राणि तथा नव शतानि च। |
| + | श्लोका नव तथैवात्र संख्यातास्तत्त्वदर्शिना॥ 1-2-264 |
| + | पाराशर्येण मुनिना संचिन्त्य द्रोणपर्वणि। |
| + | अतः परं कर्णपर्व प्रोच्यते परमाद्भुतम्॥ 1-2-265 |
| + | सारथ्ये विनियोगश्च मद्रराजस्य धीमतः। |
| + | आख्यातं यत्र पौराणं त्रिपुरस्य निपातनम्॥ 1-2-266 |
| + | प्रयाणे परुषश्चात्र संवादः कर्णशल्ययोः। |
| + | हंसकाकीयमाख्यानं तत्रैवाक्षेपसंहितम्॥ 1-2-267 |
| + | वधः पाण्ड्यस्य च तथा अश्वत्थाम्ना महात्मना। |
| + | दण्डसेनस्य च ततो दण्डस्य च वधस्तथा॥ 1-2-268 |
| + | द्वैरथे यत्र कर्णेन धर्मराजो युधिष्ठिरः। |
| + | संशयं गमितो युद्धे मिषतां सर्वधन्विनाम्॥ 1-2-269 |
| + | अन्योन्यं प्रति च क्रोधो युधिष्ठिरकिरीटिनोः। |
| + | यत्रैवानुनयः प्रोक्तो माधवेनार्जुनस्य हि॥ 1-2-270 |
| + | प्रतिज्ञापूर्वकं चापि वक्षो दुःशासनस्य च। |
| + | भित्त्वा वृकोदरो रक्तं पीतवान्यत्र संयुगे॥ 1-2-271 |
| + | द्वैरथे यत्र पार्थेन हतः कर्णो महारथः। |
| + | अष्टमं पर्व निर्दिष्टमेतद्भारतचिन्तकैः॥ 1-2-272 |
| + | एकोनसप्ततिः प्रोक्ता अध्यायाः कर्णपर्वणि। |
| + | चत्वार्येव सहस्राणि नव श्लोकशतानि च॥ 1-2-273 |
| + | चतुःषष्टिस्तथा श्लोकाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः। |
| + | अतः परं विचित्रार्थं शल्यपर्व प्रकीर्तितम्॥ 1-2-274 |
| + | हतप्रवीरे सैन्ये तु नेता मद्रेश्वरोऽभवत्। |
| + | यत्र कौमारमाख्यानमभिषेकस्य कर्म च ॥ 1-2-275 |
| + | वृत्तानि रथयुद्धानि कीर्त्यन्ते यत्र भागशः। |
| + | विनाशः कुरुमुख्यानां शल्यपर्वणि कीर्त्यते॥ 1-2-276 |
| + | शल्यस्य निधनं चात्र धर्मराजान्महात्मनः। |
| + | शकुनेश्च वधोऽत्रैव सहदेवेन संयुगे॥ 1-2-277 |
| + | सैन्ये च हतभूयिष्ठे किंचिच्छिष्टे सुयोधनः। |
| + | ह्रदं प्रविश्य यत्रासौ संस्तभ्यापो व्यवस्थितः॥ 1-2-278 |
| + | प्रवृत्तिस्तत्र चाख्याता यत्र भीमस्य लुब्धकैः। |
| + | क्षेपयुक्तैर्वचोभिश्च धर्मराजस्य धीमतः। |
| + | ह्रदात्समुत्थितो यत्र धार्तराष्ट्रोऽत्यमर्षणः॥ 1-2-279 |
| + | भीमेन गदया युद्धं यत्रासौ कृतवान्सह। |
| + | समवाये च युद्धस्य रामस्यागमनं स्मृतम्॥ 1-2-280 |
| + | सरस्वत्याश्च तीर्थानां पुण्यता परिकीर्तिता। |
| + | गदायुद्धं च तुमुलमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-281 |
| + | दुर्योधनस्य राज्ञोऽथ यत्र भीमेन संयुगे। |
| + | ऊरू भग्नौ प्रसह्याजौ गदया भीमवेगया॥ 1-2-282 |
| + | नवमं पर्व निर्दिष्टमेतदद्भुतमर्थवत्। |
| + | एकोनषष्टिरध्यायाः पर्वण्यत्र प्रकीर्तिताः॥ 1-2-283 |
| + | संख्याता बहुवृत्तान्ताः श्लोकसंख्यात्र कथ्यते। |
| + | त्रीणि श्लोकसहस्राणि द्वे शते विंशतिस्तथा॥ 1-2-284 |
| + | मुनिना सम्प्रणीतानि कौरवाणां यशोभृता। |
| + | अतः परं प्रवक्ष्यामि सौप्तिकं पर्व दारुणम्॥ 1-2-285 |
| + | भग्नोरुं यत्र राजानं दुर्योधनममर्षणम्। |
| + | अपयातेषु पार्थेषु त्रयस्तेऽभ्याययू रथाः॥ 1-2-286 |
| + | कृतवर्मा कृपो द्रौणिः सायाह्ने रुधिरोक्षितम्। |
| + | समेत्य ददृशुर्भूमौ पतितं रणमूर्धनि॥ 1-2-287 |
| + | प्रतिजज्ञे दृढक्रोधो द्रौणिर्यत्र महारथः। |
| + | अहत्वा सर्वपाञ्चालान्धृष्टद्युम्नपुरोगमान्॥ 1-2-288 |
| + | पाण्डवांश्च सहामात्यान्न विमोक्ष्यामि दंशनम्। |
| + | यत्रैवमुक्त्वा राजानमपक्रम्य त्रयो रथाः॥ 1-2-289 |
| + | सूर्यास्तमनवेलायामासेदुस्ते महद्वनम्। |
| + | न्यग्रोधस्याथ महतो यत्राधस्ताद्व्यवस्थिताः॥ 1-2-290 |
| + | ततः काकान्बहून्रात्रौदृष्ट्वोलूकेनहिंसितान्। |
| + | द्रौणिः क्रोधसमाविष्टः पितुर्वधमनुस्मरन्॥ 1-2-291 |
| + | पाञ्चालानां प्रसुप्तानां वधं प्रति मनो दधे। |
| + | गत्वा च शिविरद्वारि दुर्दशं तत्र राक्षसम्॥ 1-2-292 |
| + | घोरूपमपश्यत्स दिवमावृत्य धिष्ठितम्। |
| + | तेन व्याघातमस्त्राणां क्रियमाणमवेक्ष्य च॥ 1-2-293 |
| + | द्रौणिर्यत्र विरूपाक्षं रुद्रमाराध्य सत्वरः। |
| + | प्रसुप्तान्निशि विश्वस्तान्धृष्टद्युम्नपुरोगमान्॥ 1-2-294 |
| + | पाञ्चालान्सपरीवारान्द्रौपदेयांश्च सर्वशः। |
| + | कृतवर्मणा च सहितः कृपेण च निजघ्निवान्॥ 1-2-295 |
| + | यत्रामुच्यन्त ते पार्थाः पञ्च कृष्णबलाश्रयात्। |
| + | सात्यकिश्च महेष्वासः शेषाश्च निधनं गताः॥ 1-2-296 |
| + | पाञ्चालानां प्रसुप्तानां यत्र द्रोणसुताद्वधः। |
| + | धृष्टद्युम्नस्य सूतेन पाण्डवेषु निवेदितः॥ 1-2-297 |
| + | द्रौपदी पुत्रशोकार्ता पितृभ्रातृवधार्दिता। |
| + | कृतानशनसंकल्पा यत्र भर्तॄनुपाविशत्॥ 1-2-298 |
| + | द्रौपदीवचनात्यत्र भीमो भीमपराक्रमः। |
| + | प्रियं तस्याश्चिकीर्षन्वै गदामादाय वीर्यवान्॥ 1-2-299 |
| + | अन्वधावत्सुसंक्रुद्धो भारद्वाजं गुरोः सुतम्। |
| + | भीमसेनभयाद्यत्र दैवेनाभिप्रचोदितः॥ 1-2-300 |
| + | अपाण्डवायेति रुषा द्रौणिरस्त्रमवासृजत्। |
| + | मैवमित्यब्रवीत्कृष्णः शमयंस्तस्य तद्वचः॥ 1-2-301 |
| + | यत्रास्त्रमस्त्रेण च तच्छमयामास फाल्गुनः। |
| + | द्रौणेश्च द्रोहबुद्धित्वं वीक्ष्य पापात्मनस्तदा॥ 1-2-302 |
| + | द्रौणिद्वैपायनादीनां शापाश्चान्योन्यकारिताः। |
| + | मणिं तथा समादाय द्रोणपुत्रान्महारथात्॥ 1-2-303 |
| + | पाण्डवाः प्रददुर्हृष्टा द्रौपद्यै जितकाशिनः। |
| + | एतद्वै दशमं पर्व सौप्तिकं समुदाहृतम्॥ 1-2-304 |
| + | अष्टादशास्मिन्नध्यायाः पर्वण्युक्ता महात्मना। |
| + | श्लोकानां कथितान्यत्र शतान्यष्टौ प्रसंख्यया॥ 1-2-305 |
| + | श्लोकाश्च सप्ततिः प्रोक्ता मुनिना ब्रह्मवादिना। |
| + | सौप्तिकैषीके सम्बद्धे पर्वण्युत्तमतेजसा॥ 1-2-306 |
| + | अत ऊर्ध्वमिदं प्राहुः स्त्रीपर्व करुणोदयम्। |
| + | पुत्रशोकाभिसंतप्तः प्रज्ञाचक्षुर्नराधिपः॥ 1-2-307 |
| + | कृष्णोपनीतां यत्रासावायसीं प्रतिमां दृढाम्। |
| + | भीमसेनद्रोहबुद्धिर्धृतराष्ट्रो बभञ्ज ह॥ 1-2-308 |
| + | तथा शोकाभितप्तस्य धृतराष्ट्रस्य धीमतः। |
| + | संसारगहनं बुद्ध्या हेतुभिर्मोक्षदर्शनैः॥ 1-2-309 |
| + | विदुरेण च यत्रास्य राज्ञ आश्वासनं कृतम्। |
| + | धृतराष्ट्रस्य चात्रैव कौरवायोधनं तथा॥ 1-2-310 |
| + | सान्तःपुरस्य गमनं शोकार्तस्य प्रकीर्तितम्। |
| + | विलापो वीरपत्नीनां यत्रातिकरुणः स्मृतः॥ 1-2-311 |
| + | क्रोधावेशः प्रमोहश्च गान्धारीधृतराष्ट्रयोः। |
| + | यत्र तान्क्षत्रियान्शूरान्संग्रामेष्वनिवर्तिनः॥ 1-2-312 |
| + | पुत्रान्भ्रातॄन्पितृंश्चैव ददृशुर्निहतान्रणे। |
| + | पुत्रपौत्रवधार्तायास्तथात्रैव प्रकीर्तिता॥ 1-2-313 |
| + | गान्धार्याश्चापि कृष्णेन क्रोधोपशमनक्रिया। |
| + | यत्र राजा महाप्राज्ञः सर्वधर्मभृतां वरः॥ 1-2-314 |
| + | राज्ञां तानि शरीराणि दाहयामास शास्त्रतः। |
| + | तोयकर्मणि चारब्धे राज्ञामुदकदानिके॥ 1-2-315 |
| + | गूढोत्पन्नस्य चाख्यानं कर्णस्य पृथयाऽऽत्मनः। |
| + | सुतस्यैतदिह प्रोक्तं व्यासेन परमर्षिणा॥ 1-2-316 |
| + | एतदेकादशं पर्व शोकवैक्लव्यकारणम्। |
| + | प्रणीतं सज्जनमनोवैक्लव्याश्रुप्रवर्तकम्॥ 1-2-317 |
| + | सप्तविंशतिरध्यायाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः। |
| + | श्लोकसप्तशती चापि पञ्चसप्ततिसंयुता॥ 1-2-318 |
| + | संख्यया भारताख्यानमुक्तं व्यासेन धीमता। |
| + | अतः परं शान्तिपर्व द्वादशं बुद्धिवर्धनम्॥ 1-2-319 |
| + | यत्र निर्वेदमापन्नो धर्मराजो युधिष्ठिरः। |
| + | घातयित्वा पितॄन्भ्रातॄन्पुत्रान्सम्बन्धिमातुलान्॥ 1-2-320 |
| + | शान्तिपर्वणि धर्माश्च व्याख्याताः शारतल्पिकाः। |
| + | राजभिर्वेदितव्यास्ते सम्यग्ज्ञात[न]बुभुत्सुभिः॥ 1-2-321 |
| + | आपद्धर्माश्च तत्रैव कालहेतुप्रदर्शिनः। |
| + | यान्बुद्ध्वा पुरुषः सम्यक्सर्वज्ञत्वमवाप्नुयात्॥ 1-2-322 |
| + | मोक्षधर्माश्च कथिता विचित्रा बहुविस्तराः। |
| + | द्वादशं पर्व निर्दिष्टमेतत्प्राज्ञजनप्रियम्॥ 1-2-323 |
| + | अत्र पर्वणि विज्ञेयमध्यायानां शतत्रयम्। |
| + | त्रिंशच्चैव तथाध्याया नव चैव तपोधनाः॥ 1-2-324 |
| + | चतुर्दश सहस्राणि तथा सप्त शतानि च। |
| + | सप्त श्लोकास्तथैवात्र पञ्चविंशतिसंख्यया॥ 1-2-325 |
| + | अत ऊर्ध्वं च विज्ञेयमनुशासनमुत्तमम्। |
| + | यत्र प्रकृतिमापन्नः श्रुत्वा धर्मविनिश्चयम्॥ 1-2-326 |
| + | भीष्माद्भागीरथीपुत्रात्कुरुराजो युधिष्ठिरः। |
| + | व्यवहारोऽत्र कार्त्स्न्येन धर्मार्थी यः प्रकीर्तितः॥ 1-2-327 |
| + | विविधानां च दानानां फलयोगाः प्रकीर्तिताः। |
| + | तथा पात्रविशेषाश्च दानानां च परो विधिः॥ 1-2-328 |
| + | आचारविधियोगश्च सत्यस्य च परा गतिः। |
| + | महाभाग्यं गवां चैव ब्राह्मणानां तथैव च॥ 1-2-329 |
| + | रहस्यं चैव धर्माणां देशकालोपसंहितम्। |
| + | एतत्सुबहुवृत्तान्तमुत्तमं चानुशासनम्॥ 1-2-330 |
| + | भीष्मस्यात्रैव सम्प्राप्तिः स्वर्गस्य परिकीर्तिता। |
| + | एतत्त्रयोदशं पर्व धर्मनिश्चयकारकम्॥ 1-2-331 |
| + | अध्यायानां शतं त्वत्र षट्चत्वारिंशदेव तु। |
| + | श्लोकानां तु सहस्राणि प्रोक्तान्यष्टौ प्रसंख्यया॥ 1-2-332 |
| + | ततोऽश्वमेधिकं नाम पर्व प्रोक्तं चतुर्दशम्। |
| + | तत्संवर्तमरुत्तीयं यत्राख्यानमनुत्तमम्॥ 1-2-333 |
| + | सुवर्णकोषसम्प्राप्तिर्जन्म चोक्तं परीक्षितः। |
| + | दग्धस्यास्त्राग्निना पूर्वं कृष्णात्संजीवनं पुनः॥ 1-2-334 |
| + | चर्यायां हयमुत्सृष्टं पाण्डवस्यानुगच्छतः। |
| + | तत्र तत्र च युद्धानि राजपुत्रैरमर्षणैः॥ 1-2-335 |
| + | चित्राङ्गदायाः पुत्रेण पुत्रिकाया धनंजयः। |
| + | संग्रामे बभ्रुवाहेण संशयं चात्र दर्शितः॥ 1-2-336 |
| + | अश्वमेधे महायज्ञे नकुलाख्यानमेव च। |
| + | इत्याश्वमेधिकं पर्व प्रोक्तमेतन्महाद्भुतम्॥ 1-2-337 |
| + | अध्यायानां शतं चैव त्रयोऽध्यायाश्च कीर्तिताः। |
| + | त्रीणि श्लोकसहस्राणि तावन्त्येव शतानि च॥ 1-2-338 |
| + | विंशतिश्च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना। |
| + | ततस्त्वाश्रमवासाख्यं पर्व पञ्चदशं स्मृतम्॥ 1-2-339 |
| + | यत्र राज्यं समुत्सृज्य गान्धार्या सहितो नृपः। |
| + | धृतराष्ट्रोऽऽश्रमपदं विदुरश्च जगाम ह॥ 1-2-340 |
| + | यं दृष्ट्वा प्रस्थितं साध्वी पृथाप्यनुययौ तदा। |
| + | पुत्रराज्यं परित्यज्य गुरुशुश्रूषणे रता॥ 1-2-341 |
| + | यत्र राजा हतान्पुत्रान्पौत्रानन्यांश्च पार्थिवान्। |
| + | लोकान्तरगतान्वीरानपश्यत्पुनरागतान्॥ 1-2-342 |
| + | ऋषेः प्रसादात्कृष्णस्य दृष्ट्वाश्चर्यमनुत्तमम्। |
| + | त्यक्त्वा शोकं सदारश्च सिद्धिं परमिकां गतः॥ 1-2-343 |
| + | यत्र धर्मं समाश्रित्य विदुरः सुगतिं गतः। |
| + | संजयश्च सहामात्यो विद्वान्गावल्गणिर्वशी॥ 1-2-344 |
| + | ददर्श नारदं यत्र धर्मराजो युधिष्ठिरः। |
| + | नारदाच्चैव शुश्राव वृष्णीनां कदनं महत्॥ 1-2-345 |
| + | एतदाश्रमवासाख्यं पर्वोक्तं महदद्भुतम्। |
| + | द्विचत्वारिंशदध्यायाः पर्वैतदभिसंख्यया॥ 1-2-346 |
| + | सहस्रमेकं श्लोकानां पञ्च श्लोकशतानि च। |
| + | षडेव च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना॥ 1-2-347 |
| + | अतः परं निबोधेदं मौसलं पर्व दारुणम्। |
| + | यत्र ते पुरुषव्याघ्राः शस्त्रस्पर्शसहा[हता] युधि॥ 1-2-348 |
| + | ब्रह्मदण्डविनिष्पिष्टाः समीपे लवणाम्भसः। |
| + | आपाने पानकलिता दैवेनाभिप्रचोदिताः॥ 1-2-349 |
| + | एरकारूपिभिर्वर्ज्रैर्निजघ्नुरितरेतरम्। |
| + | यत्र सर्वक्षयं कृत्वा तावुभौ रामकेशवौ। |
| + | नातिचक्रामतुः कालं प्राप्तं सर्वहरं महत्॥ 1-2-350 |
| + | यत्रार्जुनो द्वारवतीमेत्य वृष्णिविनाकृताम्। |
| + | दृष्ट्वा विषादमगमत्परां चार्तिं नरर्षभः॥ 1-2-351 |
| + | स संस्कृत्य नरश्रेष्ठं मातुलं शौरिमात्मनः। |
| + | ददर्श यदुवीराणामापाने वैशसं महत्॥ 1-2-352 |
| + | शरीरं वासुदेवस्य रामस्य च महात्मनः। |
| + | संस्कारं लम्भयामास वृष्णीनां च प्रधानतः॥ 1-2-353 |
| + | स वृद्धबालमादाय द्वारवत्यास्ततो जनम्। |
| + | ददर्शापदि कष्टायां गाण्डीवस्य पराभवम्॥ 1-2-354 |
| + | सर्वेषां चैव दिव्यानामस्त्राणामप्रसन्नताम्। |
| + | नाशं वृष्णिकलत्राणां प्रबावाणामनित्यताम्॥ 1-2-355 |
| + | दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नो व्यासवाक्यप्रचोदितः। |
| + | धर्मराजं समासाद्य संन्यासं समरोचयत्॥ 1-2-356 |
| + | इत्येतन्मौसलं पर्व षोडशं परिकीर्तितम्। |
| + | अध्यायाष्टौ समाख्याताः श्लोकानां च शतत्रयम्॥ 1-2-357 |
| + | श्लोकानां विंशतिश्चैव संख्यातास्तत्त्वदर्शिना। |
| + | महाप्रस्थानिकं तस्मादूर्ध्वं सप्तदशं स्मृतम्॥ 1-2-358 |
| + | यत्र राज्यं परित्यज्य पाण्डवाः पुरुषर्षभाः। |
| + | द्रौपद्या सहिता देव्या महाप्रस्थानमास्थिताः॥ 1-2-359 |
| + | यत्र तेऽग्निं ददृशिरे लौहित्यं प्राप्य सागरम्। |
| + | यत्राग्निना चोदितश्च पार्थस्तस्मै महात्मने॥ 1-2-360 |
| + | ददौ सम्पूज्य तद्दिव्यं गाण्डीवं धनुरुत्तमम्। |
| + | यत्र भ्रातॄन्निपतितान्द्रौपदीं च युधिष्ठिरः॥ 1-2-361 |
| + | दृष्ट्वा हित्वा जगामैव सर्वाननवलोकयन्। |
| + | एतत्सप्तदशं पर्व महाप्रस्थानिकं स्मृतम्॥ 1-2-362 |
| + | यत्राध्यायास्त्रयः प्रोक्ताः श्लोकानां च शतत्रयम्। |
| + | विंशतिश्च तता श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना॥ 1-2-363 |
| + | स्वर्गपर्व ततो ज्ञेयं दिव्यं यत्तदमानुषम्। |
| + | प्राप्तं दैवरथं स्वर्गान्नेष्टवान्यत्र धर्मराट्॥ 1-2-364 |
| + | आरोढुं सुमहाप्राज्ञ आनृशंस्याच्छुना विना। |
| + | तामस्याविचलां ज्ञात्वा स्थितिं धर्मे महात्मनः॥ 1-2-365 |
| + | श्वरूपं यत्र तत्त्यक्त्वा धर्मेणासौ समन्वितः। |
| + | स्वर्गं प्राप्तः स च तथा यातनां विपुलां भृशम्॥ 1-2-366 |
| + | देवदूतेन नरकं यत्र व्याजेन दर्शितम्। |
| + | शुश्राव यत्र धर्मात्मा भ्रातॄणां करुणा गिरः॥ 1-2-367 |
| + | निदेशे वर्तमानानां देशे तत्रैव वर्तताम्। |
| + | अनुदर्शितश्च धर्मेण देवराजेन पाण्डवः॥ 1-2-368 |
| + | आप्लुत्याकाशगङ्गायां देहं त्यक्त्वा स मानुषम्। |
| + | स्वधर्मनिर्जितं स्थानं स्वर्गे प्राप्य स धर्मराट्॥ 1-2-269 |
| + | मुमुदे पूजितः सर्वैः सेन्द्रैः सुरगणैः सह। |
| + | एतदष्टादशं पर्व प्रोक्तं व्यासेन धीमता॥ 1-2-370 |
| + | अध्यायाः पञ्च संख्याताः पर्वण्यस्मिन्महात्मना। |
| + | श्लोकानां द्वे शते चैव प्रसंख्याते तपोधनाः॥ 1-2-371 |
| + | नव श्लोकास्तथैवान्ये संख्याताः परमर्षिणा। |
| + | अष्टादशैवमेतानि पर्वाण्युक्तान्यशेषतः॥ 1-2-372 |
| + | खिलेषु हरिवंशश्च भविष्यं च प्रकीर्तितम्। |
| + | दशश्लोकसहस्राणि विंशच्छ्लोकशतानि च॥ 1-2-373 |
| + | खिलेषु हरिवंशे च संख्यातानि महर्षिणा। |
| + | एतत्सर्वं समाख्यातं भारते पर्वसंग्रहः॥ 1-2-374 |
| + | अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया। |
| + | तन्महादारुणं युद्धमहान्यष्टादशाभवत्॥ 1-2-375 |
| + | [[:Category:महाभारत|''महाभारत'']] [[:Category:Ugrashrava|''Ugrashrava'']] [[:Category:Summary|''Summary'']] |
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| + | [[:Category:उग्रश्वाने अठारह महाभारतके पर्वका वर्णन|''उग्रश्वाने अठारह महाभारतके पर्वका वर्णन'']] |
| | | |
− | राम राम महाभाग प्रीताः स्म तव भार्गव॥ 1-2-6
| |
| | | |
− | अनया पितृभक्त्या च विक्रमेण तव प्रभो।
| + | यो विद्याच्चतुरो वेदान्साङ्गोपनिषदो द्विजः। |
| + | न चाख्यानमिदं विद्यान्नैव स स्याद्विचक्षणः॥ 1-2-376 |
| + | अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्त्रमिदं महत्। |
| + | कामशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनामितबुद्धिना॥ 1-2-377 |
| + | श्रुत्वा त्विदमुपाख्यानं श्राव्यमन्यन्न रोचते। |
| + | पुंस्कोकिलगिरं[रुतं] श्रुत्वा रूक्षा ध्वाङ्क्षस्य वागिव॥ 1-2-378 |
| + | इतिहासोत्तमादस्माज्जायन्ते कविबुद्धयः। |
| + | पञ्चभ्य इव भूतेभ्यो लोकसंविधयस्त्रयः॥ 1-2-379 |
| + | अस्याख्यानस्य विषये पुराणं वर्तते द्विजाः। |
| + | अन्तरिक्षस्य विषये प्रजा इव चतुर्विधाः॥ 1-2-380 |
| + | क्रियागुणानां सर्वेषामिदमाख्यानमाश्रयः। |
| + | इन्द्रियाणां समस्तानां चित्रा इव मनःक्रियाः॥ 1-2-381 |
| + | अनाश्रित्यैतदाख्यानं कथा भुवि न विद्यते। |
| + | आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम्॥ 1-2-382 |
| + | इदं कविवरैः सर्वैराख्यानमुपजीव्यते। |
| + | उदयप्रेप्सुभिर्भृत्यैरभिजात इवेश्वरः॥ 1-2-383 |
| + | अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे। |
| + | साधोरिव गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमाः॥ 1-2-384 |
| + | धर्मे मतिर्भवतु वः सततोत्थितानां स ह्येक एव परलोकगतस्य बन्धुः। |
| + | अर्थाः स्त्रियश्च निपुणैरपि सेव्यमाना नैवाप्तभावमुपयान्ति न च स्थिरत्वम्॥ 1-2-385 |
| + | द्वैपायनौष्ठपुटनिःसृतमप्रमेयं पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च। |
| + | यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन॥ 1-2-386 |
| + | यदह्ना कुरुते पापं ब्राह्मणस्त्विन्द्रियैश्चरन्। |
| + | महाभारतमाख्याय संध्यां मुच्यति पश्चिमाम्॥ 1-2-387 |
| + | यद्रात्रौ कुरुते पापं कर्मणा मनसा गिरा। |
| + | महाभारतमाख्याय पूर्वां संध्यां प्रमुच्यते॥ 1-2-388 |
| + | [[:Category:महाभारत|''महाभारत'']] [[:Category:महत्व|''महत्व'']] [[:Category:महाभारतका महत्त्व|''महाभारतका महत्त्व'']] |
| + | [[:Category:Importance of Mahabharata|''Importance of Mahabharata'']] |
| + | [[:Category:Importance|''Importance'']] [[:Category:Mahabharata|''Mahabharata'']] |
| | | |
− | वरं वृणीष्व भद्रं ते यमिच्छसि महाद्युते॥ 1-2-7
| |
| | | |
− | राम उवाच
| + | यो गोशतं कनकशृङ्गमयं ददाति विप्राय वेदविदुषे च बहुश्रुताय। |
− | | + | पुण्यां च भारतकथां शृणुयाच्च नित्यं तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव॥ 1-2-389 |
− | यदि मे पितरः प्रीता यद्यनुग्राह्यता मयि।
| + | आख्यानं तदिदमनुत्तमं महार्थं विज्ञेयं महदिह पर्वसंग्रहेण। |
− | | + | श्रुत्वादौ भवति नृणां सुखावगाहं विस्तीर्णं लवणजलं यथा प्लवेन॥ 1-2-390 |
− | यच्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं मया॥ 1-2-8
| + | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पर्वसङ्ग्रहपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः॥ 2 ॥ |
− | | + | [[:Category:Importance|''Importance'']] [[:Category:Mahabharata|''Mahabharata'']] [[:Category:second chapter|''second chapter'']] |
− | अतश्च पापान्मुच्येऽहमेष मे प्रार्थितो वरः।
| + | [[:Category:Importance|''Importance'']] [[:Category:पर्वसंग्रहपर्वका महत्व|''पर्वसंग्रहपर्वका महत्व'']] |
− | | + | [[:Category:द्वितीयोध्यायका महत्व|''द्वितीयोध्यायका महत्व'']] [[:Category:द्वितीयोध्याय|''द्वितीयोध्याय'']] |
− | ह्रदाश्च तीर्थभूता मे भवेयुर्भुवि विश्रुताः॥ 1-2-9
| + | [[:Category:महत्व|''महत्व'']] [[:Category:पर्वसंग्रहपर्व|''पर्वसंग्रहपर्व'']] |
− | | |
− | एवं भविष्यतीत्येवं पितरस्तमथाब्रुवन्।
| |
− | | |
− | तं क्षमस्वेति निषिषिधुस्ततः स विरराम ह॥ 1-2-10
| |
− | | |
− | तेषां समीपे यो देशो ह्रदानां रुधिराम्भसाम्।
| |
− | | |
− | श[स]मन्तपञ्चकमिति पुण्यं तत्परिकीर्तितम्॥ 1-2-11
| |
− | | |
− | येन लिङ्गेन यो देशो युक्तः समुपलक्ष्यते।
| |
− | | |
− | तेनैव नाम्ना तं देशं वाच्यमाहुर्मनीषिणः॥ 1-2-12
| |
− | | |
− | अन्तरे चैव सम्प्राप्ते कलिद्वापरयोरभूत्।
| |
− | | |
− | श[स]मन्तपञ्चके युद्धं कुरुपाण्डवसेनयोः॥ 1-2-13
| |
− | | |
− | तस्मिन्परमधर्मिष्ठे देशे भूदोषवर्जिते।
| |
− | | |
− | अष्टादश समाजग्मुः अक्षौहिण्यो युयुत्सया॥ 1-2-14
| |
− | | |
− | समेत्य तं द्विजास्ताश्च तत्रैव निधनं गताः।
| |
− | | |
− | एतन्नामाभिनिर्वृत्तं तस्य देशस्य वै द्विजाः॥ 1-2-15
| |
− | | |
− | पुण्यश्च रमणीयश्च स देशो वः प्रकीर्तितः।
| |
− | | |
− | तदेतत्कथितं सर्वं मया ब्राह्मणसत्तमाः॥ 1-2-16
| |
− | | |
− | यथा देशः स विख्यातस्त्रिषु लोकेषु सुव्रताः।
| |
− | | |
− | ऋषयः ऊचुः
| |
− | | |
− | अक्षौहिण्य इति प्रोक्तं यत्त्वया सूतनन्दन॥ 1-2-17
| |
− | | |
− | एतदिच्छामहे श्रोतुं सर्वमेव यथातथम्।
| |
− | | |
− | अक्षौहिण्याः परीमाणं नराश्वरथदन्तिनाम्॥ 1-2-18
| |
− | | |
− | यथावच्चैव नो ब्रूहि सर्वं हि विदितं तव।
| |
− | | |
− | सौतिरुवाच
| |
− | | |
− | एको रथो गजश्चैको नराः पञ्च पदातयः॥ 1-2-19
| |
− | | |
− | त्रयश्च तुरगास्तज्ज्ञैः पत्तिरित्यभिधीयते।
| |
− | | |
− | पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहुः सेनामुखं बुधाः॥ 1-2-20
| |
− | | |
− | त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते।
| |
− | | |
− | त्रयो गुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणास्त्रयः॥ 1-2-21
| |
− | | |
− | स्मृतास्तिस्रस्तु वाहिन्यः पृतनेति विचक्षणैः।
| |
− | | |
− | चमूस्तु पृतनास्तिस्रस्तिस्रश्चम्वस्त्वनीकीनी॥ 1-2-22
| |
− | | |
− | अनीकिनीं दशगुणां प्राहुरक्षौहिणीं बुधाः।
| |
− | | |
− | अक्षौहिण्याः प्रसंख्याता रथानां द्विजसत्तमाः॥ 1-2-23
| |
− | | |
− | संख्या गणिततत्त्वज्ञैः सहस्राण्येकविंशतिः।
| |
− | | |
− | शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्च सप्ततिः॥ 1-2-24
| |
− | | |
− | गजानां च परीमाणमेतदेव विनिर्दिशेत्।
| |
− | | |
− | ज्ञेयं शतसहस्रं तु सहस्राणि नवैव तु॥ 1-2-25
| |
− | | |
− | नराणामपि पञ्चाशच्छतानि त्रीणि चानघाः।
| |
− | | |
− | पञ्चषष्टिसहस्राणि तथाश्वानां शतानि च॥ 1-2-26
| |
− | | |
− | दशोत्तराणि षट्प्राहुर्यथावदिह संख्यया।
| |
− | | |
− | एतामक्षौहिणीं प्राहुः संख्यातत्त्वविदो जनाः॥ 1-2-27
| |
− | | |
− | यथा[यां वः] कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधनाः।
| |
− | | |
− | एतया संख्यया ह्यासन्कुरुपाण्डवसेनयोः॥ 1-2-28
| |
− | | |
− | अक्षौहिण्यो द्विजश्रेष्ठाः पिण्डिताष्टादशैव तु।
| |
− | | |
− | समेतास्तत्र वै देशे तत्रैव निधनं गताः॥ 1-2-29
| |
− | | |
− | कौरवान्कारणं कृत्वा कालेनाद्भुतकर्मणा।
| |
− | | |
− | अहानि युयुधे भीष्मो दशैव परमास्त्रवित्॥ 1-2-30
| |
− | | |
− | अहानि पञ्च द्रोणस्तु ररक्ष कुरुवाहिनीम्।
| |
− | | |
− | अहनी युयुधे द्वे तु कर्णः परबलार्दनः॥ 1-2-31
| |
− | | |
− | शल्यःअर्धदिवसं चैव गदायुद्धमतः परम्।
| |
− | | |
− | दुर्योधनस्य भीमस्य दिनार्धमभवत्तयोः॥ 1-2-32
| |
− | | |
− | तस्यैव दिवसस्यान्ते द्रौणिहार्दिक्यगौतमाः।
| |
− | | |
− | प्रसुप्तं निशि विश्वस्तं जघ्नुर्यौधिष्ठिरं बलम्॥ 1-2-33
| |
− | | |
− | यत्तु शौनक सत्रे ते भारताख्यानमुत्तमम्।
| |
− | | |
− | जनमेजयस्य तत्सत्रे व्यासशिष्येण धीमता॥ 1-2-34
| |
− | | |
− | कथितं विस्तरार्थं च यशो वीर्यं महीक्षिताम्।
| |
− | | |
− | पौष्यं तत्र च पौलोममास्तीकं चादितः स्मृतम्॥ 1-2-35
| |
− | | |
− | विचित्रार्थपदाख्यानमनेकसमयान्वितम्।
| |
− | | |
− | प्रतिपन्नं नरैः प्राज्ञैर्वैराग्यमिव मोक्षिभिः॥ 1-2-36
| |
− | | |
− | आत्मेव वेदितव्येषु प्रियेष्विव हि जीवितम्।
| |
− | | |
− | इतिहासः प्रधानार्थः श्रेष्ठः सर्वागमेष्वयम्॥ 1-2-37
| |
− | | |
− | अनाश्रित्येदमाख्यानं कथा भुवि न विद्यते।
| |
− | | |
− | आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम्॥ 1-2-38
| |
− | | |
− | तदेतद्भारतं नाम कविभिस्तूपजीव्यते।
| |
− | | |
− | उदयप्रेप्सुभिर्भृत्यैरभिजात इवेश्वरः॥ 1-2-39
| |
− | | |
− | इतिहासोत्तमे यस्मिन्नर्पिता बुद्धिरुत्तमा।
| |
− | | |
− | स्वरव्यञ्जनयोः कृत्स्ना लोकवेदाश्रयेव वाक्॥ 1-2-40
| |
− | | |
− | तस्य प्रज्ञाभिपन्नस्य विचित्रपदपर्वणः।
| |
− | | |
− | सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थैर्भूषितस्य च॥ 1-2-41
| |
− | | |
− | भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रहः।
| |
− | | |
− | पर्वानुक्रमणी पूर्वं द्वितीयः पर्वसंग्रहः॥ 1-2-42
| |
− | | |
− | पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम्।
| |
− | | |
− | ततः सम्भवपर्वोक्तमद्भुतं रोमहर्षणम्॥ 1-2-43
| |
− | | |
− | दाहो जतुगृहस्यात्र हैडिम्बं पर्व चोच्यते।
| |
− | | |
− | ततो बकवधः पर्व पर्व चैत्ररथं ततः॥ 1-2-44
| |
− | | |
− | ततः स्वयंवरो देव्याः पाञ्चाल्याः पर्व चोच्यते।
| |
− | | |
− | क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम्॥ 1-2-45
| |
− | | |
− | विदुरागमनं पर्व राज्यलम्भस्तथैव च।
| |
− | | |
− | अर्जुनस्य वने वासः सुभद्राहरणं ततः॥ 1-2-46
| |
− | | |
− | सुभद्राहरणादूर्ध्वं ज्ञेयं[या] हरणहारिकम्[का]।
| |
− | | |
− | ततः खाण्डवदाहाख्यं तत्रैव मयदर्शनम्॥ 1-2-47
| |
− | | |
− | सभापर्व ततः प्रोक्तं मन्त्रपर्व ततः परम्।
| |
− | | |
− | जरासन्धवधः पर्व पर्व दिग्विजयं तथा॥ 1-2-48
| |
− | | |
− | पर्व दिग्विजयादूर्ध्वं राजसूयिकमुच्यते।
| |
− | | |
− | ततश्चार्घाभिहरणं शिशुपालवधस्ततः॥ 1-2-49
| |
− | | |
− | द्यूतपर्व ततः प्रोक्तमनुद्यूतमतः परम्।
| |
− | | |
− | तत आरण्यकं पर्व किर्मीरवध एव च॥ 1-2-50
| |
− | | |
− | अर्जुनस्याभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम्।
| |
− | | |
− | ईश्वरार्जुनयोर्युद्धं पर्व कैरातसंज्ञितम्॥ 1-2-51
| |
− | | |
− | इन्द्रलोकाभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम्।
| |
− | | |
− | नलोपाख्यानमपि च धार्मिकं करुणोदयम्॥ 1-2-52
| |
− | | |
− | तीर्थयात्रा ततः पर्व कुरुराजस्य धीमतः।
| |
− | | |
− | जटासुरवधः पर्व यक्षयुद्धमतः परम्॥ 1-2-53
| |
− | | |
− | निवातकवचैर्युद्धं पर्व चाजगरं ततः।
| |
− | | |
− | मार्कण्डेयसमास्या च पर्वानन्तरमुच्यते॥ 1-2-54
| |
− | | |
− | संवादश्च ततः पर्व द्रौपदीसत्यभामयोः।
| |
− | | |
− | घोषयात्रा ततः पर्व मृगस्वप्नोद्भवं ततः॥ 1-2-55
| |
− | | |
− | मन्त्रस्य निश्चयं कृत्वा कार्यस्यापि विचिन्तनम्।
| |
− | | |
− | व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमैन्द्रद्युम्नं तथैव च।
| |
− | | |
− | द्रौपदीहरणं पर्व जयद्रथविमोक्षणम्॥ 1-2-56
| |
− | | |
− | पतिव्रताया माहात्म्यं सावित्र्याः चैवमद्भुतम्।
| |
− | | |
− | रामोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम्॥ 1-2-57
| |
− | | |
− | कुण्डलाहरणं पर्व ततः परमिहोच्यते।
| |
− | | |
− | आरणेयं ततः पर्व वैराटं तदनन्तरम्॥ 1-2-58
| |
− | | |
− | पाण्डवानां प्रवेशश्च समयस्य च पालनम्।
| |
− | | |
− | कीचकानां वधः पर्व पर्व गोग्रहणं ततः॥ 1-2-59
| |
− | | |
− | अभिमन्योश्च वैराट्याः पर्व वैवाहिकं स्मृतम्।
| |
− | | |
− | उद्योगपर्व विज्ञेयमत ऊर्ध्वं महाद्भुतम्॥ 1-2-60
| |
− | | |
− | ततः संजययानाख्यं पर्व ज्ञेयमतः परम्।
| |
− | | |
− | प्रजागरं तथा पर्व धृतराष्ट्रस्य चिन्तया॥ 1-2-61
| |
− | | |
− | पर्व सानत्सुजातं वै गुह्यमध्यात्मदर्शनम्।
| |
− | | |
− | यानसन्धिस्ततः पर्व भगवद्यानमेव च॥ 1-2-62
| |
− | | |
− | मातलीयमुपाख्यानं चरितं गालवस्य च।
| |
− | | |
− | सावित्रं वामदेव्यं च वैन्योपाख्यानमेव च॥ 1-2-63
| |
− | | |
− | जामदग्न्यमुपाख्यानं पर्व षोडशराजकम्।
| |
− | | |
− | सभाप्रवेशः कृष्णस्य विदुलापुत्रशासनम्॥ 1-2-64
| |
− | | |
− | उद्योगः सैन्यनिर्याणं विश्वोपाख्यानमेव च।
| |
− | | |
− | (ज्ञेयं विवादपर्वात्र कर्णस्यापि महात्मनः।)
| |
− | | |
− | मन्त्रस्य निश्चयं कृत्वा कार्यं समभिचिन्तयन्।
| |
− | | |
− | कीर्त्यते चाप्युपाख्यानं सैनापत्येऽभिषेचनम्।
| |
− | | |
− | श्वेतस्य वासुदेवेन चित्रं बहुकथाश्रयम्।
| |
− | | |
− | निर्याणं च ततः पर्व कुरुपाण्डवसेनयोः॥ 1-2-65
| |
− | | |
− | रथातिरथसंख्या च पर्वोक्तं तदनन्तरम्।
| |
− | | |
− | उलूकदूतागमनं पर्वामर्षविवर्धनम्॥ 1-2-66
| |
− | | |
− | अम्बोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम्।
| |
− | | |
− | भीष्माभिषेचनं पर्व ततश्चाद्भुतमुच्यते॥ 1-2-67
| |
− | | |
− | जम्बूखण्डविनिर्माणं पर्वोक्तं तदनन्तरम्।
| |
− | | |
− | भूमिपर्व ततः प्रोक्तं द्वीपविस्तारकीर्तनम्॥ 1-2-68
| |
− | | |
− | दिव्यं चक्षुर्ददौ यत्र संजयाय महानृषिः।
| |
− | | |
− | पर्वोक्तं भगवद्गीता पर्व भीष्मवधस्ततः।
| |
− | | |
− | द्रोणाभिषेचनं पर्व संशप्तकवधस्ततः॥ 1-2-69
| |
− | | |
− | अभिमन्युवधः पर्व प्रतिज्ञापर्व चोच्यते।
| |
− | | |
− | जयद्रथवधः पर्व घटोत्कचवधस्ततः॥ 1-2-70
| |
− | | |
− | ततो द्रोणवधः पर्व विज्ञेयं रो[लो]महर्षणम्।
| |
− | | |
− | मोक्षो नारायणास्त्रस्य पर्वानन्तरमुच्यते॥ 1-2-71
| |
− | | |
− | कर्णपर्व ततो ज्ञेयं शल्यपर्व ततः परम्।
| |
− | | |
− | ह्रदप्रवेशनं पर्व गदायुद्धमतः परम्॥ 1-2-72
| |
− | | |
− | सारस्वतं ततः पर्व तीर्थवंशानुकीर्तनम्।
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− | | |
− | अत ऊर्ध्वं तु बीभत्सं पर्व सौप्तिकमुच्यते॥ 1-2-73
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− | | |
− | ऐषीकं पर्व चोद्दिष्टमत ऊर्ध्वं सुदारुणम्।
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− | | |
− | जलप्रदानिकं पर्व स्त्रीविलापस्ततः परम्॥ 1-2-74
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− | | |
− | श्राद्धपर्व ततो ज्ञेयं कुरूणामौर्ध्वदै[दे]हिकम्।
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− | | |
− | चार्वाकनिग्रहः पर्व रक्षसो ब्रह्मरूपिणः॥ 1-2-75
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− | | |
− | आभिषेचनिकं पर्व धर्मराजस्य धीमतः।
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− | | |
− | प्रविभागो गृहाणां च पर्वोक्तं तदनन्तरम्॥ 1-2-76
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− | | |
− | शान्तिपर्व ततो यत्र राजधर्मानुशासनम्।
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− | | |
− | आपद्धर्मश्च पर्वोक्तं मोक्षधर्मस्ततः परम्॥ 1-2-77
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− | | |
− | शुकप्रश्नाभिगमनं ब्रह्मप्रश्नानुशासनम्।
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− | | |
− | प्रादुर्भावश्च दुर्वासः संवादश्चैव मायया॥ 1-2-78
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− | | |
− | ततः पर्व परिज्ञेयमानुशासनिकं परम्।
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− | | |
− | स्वर्गारोहणिकं चैव ततो भीष्मस्य धीमतः॥ 1-2-79
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− | | |
− | ततोऽऽश्वमेधिकं पर्व सर्वपापप्रणाशनम्।
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− | | |
− | अनुगीता ततः पर्व ज्ञेयमध्यात्मवाचकम्॥ 1-2-80
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− | | |
− | पर्व चाश्रमवासाख्यं पुत्रदर्शनमेव च।
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− | | |
− | नारदागमनं पर्व ततः परमिहोच्यते॥ 1-2-81
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− | | |
− | मौसलं पर्व चोद्दिष्टं ततो घोरं सुदारुणम्।
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− | | |
− | महाप्रस्थानिकं पर्व स्वर्गारोहणिकं ततः॥ 1-2-82
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− | | |
− | हरिवंशस्ततः पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम्।
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− | | |
− | विष्णुपर्व शिशोश्चर्या विष्णोः कंसवधस्तथा॥ 1-2-83
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− | | |
− | भविष्यपर्व चाप्युक्तं खिलेष्वेवाद्भुतं महत्।
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− | | |
− | एतत्पर्वशतं पूर्णं व्यासेनोक्तं महात्मना॥ 1-2-84
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− | | |
− | यथावत्सूतपुत्रेण रौ[लौ]महर्षणिना ततः।
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− | | |
− | उक्तानि नैमिषारण्ये पर्वाण्यष्टादशैव तु॥ 1-2-85
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− | | |
− | समासो भारतस्यायमत्रोक्तः पर्वसंग्रहः।
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− | | |
− | पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम्॥ 1-2-86
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− | | |
− | सम्भवो जतुवेश्माख्यं हिडिम्बबकयोः वधः।
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− | | |
− | तथा चैत्ररथं देव्याः पाञ्चाल्याश्च स्वयंवरः॥ 1-2-87
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− | | |
− | क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम्।
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− | | |
− | विदुरागमनं चैव राज्यलम्भस्तथैव च॥ 1-2-88
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− | | |
− | वनवासोऽर्जुनस्यापि सुभद्राहरणं ततः।
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− | | |
− | हरणाहरणं चैव दहनं खाण्डवस्य च॥ 1-2-89
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− | | |
− | मयस्य दर्शनं चैव आदिपर्वणि कथ्यते।
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− | | |
− | पौष्ये पर्वणि महात्म्यमुद[त्त]ङ्कस्योपवर्णितम्॥ 1-2-90
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− | | |
− | पौलोमे भृगुवंशस्य विस्तारः परिकीर्तितः।
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− | | |
− | श्लोकाग्रं च सहस्रं च पञ्चाशच्छतमेव च।
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− | | |
− | अध्यायानां तथाष्टौ वा आदितोऽस्मिन्प्रकीर्तिताः।
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− | | |
− | आस्तीके सर्वनागानां गरुडस्य च सम्भवः॥ 1-2-91
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− | | |
− | क्षीरोदमथनं चैव जन्मोच्चैःश्रवसस्तथा।
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− | | |
− | यजतः सर्पसत्रेण राज्ञः पारीक्षितस्य च॥ 1-2-92
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− | | |
− | कथेयमभिनिर्वृत्ता भरतानां महात्मनाम्।
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− | | |
− | श्लोकाग्रं च सहस्रं च त्रिशतं चोत्तरं तथा।
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− | | |
− | श्लोकाश्च चतुराशीतिः पर्वण्यस्मिंस्तथैव च।
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− | | |
− | अध्यायानां ततः प्रोक्तं चत्वारिंशन्महर्षिणा।
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− | | |
− | विविधाः सम्भवा राज्ञामुक्ताः सम्भवपर्वणि॥ 1-2-93
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− | | |
− | अन्येषां चैव शूराणामृषेर्द्वैपायनस्य च।
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− | | |
− | अंशावतरणं चात्र देवानां परिकीर्तितम्॥ 1-2-94
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− | | |
− | दैत्यानां दानवानां च यक्षाणां च महौजसाम्।
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− | | |
− | नागानामथ सर्पाणां गन्धर्वाणां पतत्त्रिणाम्॥ 1-2-95
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− | | |
− | अन्येषां चैव भूतानां विविधानां समुद्भवः।
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− | | |
− | महर्षेराश्रमपदे कण्वस्य च तपस्विनः॥ 1-2-96
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− | | |
− | शकुन्तलायां दुष्यन्ताद्भरतश्चापि जज्ञिवान्।
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− | | |
− | यस्य लोकेषु नाम्नेदं प्रथितं भारतं कुलम्॥ 1-2-97
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− | | |
− | वसूनां पुनरुत्पत्तिर्भागीरथ्यां महात्मनाम्।
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− | | |
− | शान्तनोर्वेश्मनि पुनस्तेषां चारोहणं दिवि॥ 1-2-98
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− | | |
− | तेजोंऽशानां च सम्पातोभीष्मस्याप्यत्र सम्भवः।
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− | | |
− | राज्यान्निवर्तनं तस्य ब्रह्मचर्यव्रते स्थितिः॥ 1-2-99
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− | | |
− | प्रतिज्ञापालनं चैव रक्षा चित्राङ्गदस्य च।
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− | | |
− | हते चित्राङ्गदे चैव रक्षा भ्रातुर्यवीयसः॥ 1-2-100
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− | | |
− | विचित्रवीर्यस्य तथा राज्ये सम्प्रतिपादनम्।
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− | | |
− | धर्मस्य नृषु सम्भूतिरणीमाण्डव्यशापजा॥ 1-2-101
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− | | |
− | कृष्णद्वैपायनाच्चैव प्रसूतिर्वरदानजा।
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− | | |
− | धृतराष्ट्रस्य पाण्डोश्च पाण्डवानां च सम्भवः॥ 1-2-102
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− | | |
− | वारणावतयात्रायां मन्त्रो दुर्योधनस्य च।
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− | | |
− | कूटस्य धार्तराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान्प्रति॥ 1-2-103
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− | | |
− | हितोपदेशश्च पथि धर्मराजस्य धीमतः।
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− | | |
− | विदुरेण कृतो यत्र हितार्थं म्लेच्छभाषया॥ 1-2-104
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− | | |
− | विदुरस्य च वाक्येन सुरङ्गोपक्रमक्रिया।
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− | | |
− | निषाद्याः पञ्चपुत्रायाः सुप्ताया जतुवेश्मनि॥ 1-2-105
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− | | |
− | पुरोचनस्य चात्रैव दहनं सम्प्रकीर्तितम्।
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− | | |
− | पाण्डवानां वने घोरे हिडिम्बायाश्च दर्शनम्॥ 1-2-106
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− | | |
− | तत्रैव च हिडिम्बस्य वधो भीमान्महाबलात्।
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− | | |
− | घटोत्कचस्य चोत्पत्तिरत्रैव परिकीर्तिता॥ 1-2-107
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− | | |
− | महर्षेर्दर्शनं चैव व्यासस्यामिततेजसः।
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− | | |
− | तदाज्ञयैकचक्रायां ब्राह्मणस्य निवेशने॥ 1-2-108
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− | | |
− | अज्ञातचर्यया वासो यत्र तेषां प्रकीर्तितः।
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− | | |
− | बकस्य निधनं चैव नागराणां च विस्मयः॥ 1-2-109
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− | | |
− | सम्भवश्चैव कृष्णाया धृष्टद्युम्नस्य चैव ह।
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− | | |
− | ब्राह्मणात्समुपश्रुत्य व्यासवाक्यप्रचोदिताः॥ 1-2-110
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− | | |
− | द्रौपदीं प्रार्थयन्तस्ते स्वयंवरदिदृक्षया।
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− | | |
− | पञ्चालानभितो जग्मुर्यत्र कौतूहलान्विताः॥ 1-2-111
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− | | |
− | अङ्गारपर्णं निर्जित्य गङ्गाकूलेऽर्जुनस्तदा।
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− | | |
− | सख्यं कृत्वा ततस्तेन तस्मादेव च शुश्रुवे॥ 1-2-112
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− | | |
− | तापत्यमथ वासिष्ठमौर्वं चाख्यानमुत्तमम्।
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− | | |
− | भ्रातृभिः सहितः सर्वैः पञ्चालानभितो ययौ॥ 1-2-113
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− | | |
− | पाञ्चालनगरे चापि लक्ष्यं भित्त्वा धनंजयः।
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− | | |
− | द्रौपदीं लब्धवानत्र मध्ये सर्वमहीक्षिताम्॥ 1-2-114
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− | | |
− | भीमसेनार्जुनौ यत्र संरब्धान्पृथिवीपतीन्।
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− | | |
− | शल्यकर्णौ च तरसा जितवन्तौ महामृधे॥ 1-2-115
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− | | |
− | दृष्ट्वा तयोश्च तद्वीर्यमप्रमेयममानुषम्।
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− | | |
− | शङ्कमानौ पाण्डवांस्तान्रामकृष्णौ महामती॥ 1-2-116
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− | | |
− | जग्मतुस्तैः समागन्तुं शालां भार्गववेश्मनि।
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− | | |
− | पञ्चानामेकपत्नीत्वे विमर्शो द्रुपदस्य च॥ 1-2-117
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− | | |
− | पञ्चेन्द्राणामुपाख्यानमत्रैवाद्भुतमुच्यते।
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− | | |
− | द्रौपद्या देवविहितो विवाहश्चाप्यमानुषः॥ 1-2-118
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− | | |
− | क्षत्तुश्च धृतराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान्प्रति।
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− | | |
− | विदुरस्य च सम्प्राप्तिर्दर्शनं केशवस्य च॥ 1-2-119
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− | | |
− | खाण्डवप्रस्थवासश्च तथा राज्यार्धशास[सर्ज]नम्।
| |
− | | |
− | नारदस्याज्ञया चैव द्रौपद्याः समयक्रिया॥ 1-2-120
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− | | |
− | सुन्दोपसुन्दयोः तद्वदाख्यानं परिकीर्तितम्।
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− | | |
− | अनन्तरं च द्रौपद्या सहासीनं युधिष्ठिरम्॥ 1-2-121
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− | | |
− | अनुप्रविश्य विप्रार्थे फाल्गुनो गृह्य चायुधम्।
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− | | |
− | मोक्षियित्वा गृहं गत्वा विप्रार्थं कृतनिश्चयः॥ 1-2-122
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− | | |
− | समयं पालयन्वीरो वनं यत्र जगाम ह।
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− | | |
− | पार्थस्य वनवासे च उलूप्या पथि संगमः॥ 1-2-123
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− | | |
− | पुण्यतीर्थानुसंयानं बभ्रुवाहनजन्म च।
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− | | |
− | तत्रैव मोक्षयामास पञ्च सोऽप्सरसः शुभाः॥ 1-2-124
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− | | |
− | शापाद्ग्राहत्वमापन्ना ब्राह्मणस्य तपस्विनः।
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− | | |
− | प्रभासतीर्थे पार्थेन कृष्णस्य च समागमः॥ 1-2-125
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− | | |
− | द्वारकायां सुभद्रा च कामयानेन कामिनी।
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− | | |
− | वासुदेवस्यानुमते प्राप्ता चैव किरीटिना॥ 1-2-126
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− | | |
− | गृहीत्वा हरणं प्राप्ते कृष्णे देवकिनन्दने।
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− | | |
− | अभिमन्योः सुभद्रायां जन्म चोत्तमतेजसः॥ 1-2-127
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− | | |
− | द्रौपद्यास्तनयानां च सम्भवोऽनुप्रकीर्तितः।
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− | | |
− | विहारार्थं च गतयोः कृष्णयोर्यमुनामनु॥ 1-2-128
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− | | |
− | सम्प्राप्तिश्चक्रधनुषोः खाण्डवस्य च दाहनम्।
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− | | |
− | भयस्य मोक्षो ज्वलनाद्भुजङ्गस्य च मोक्षणम्॥ 1-2-129
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− | | |
− | महर्षेर्मन्दपालस्य शार्ङ्ग्यां तनयसम्भवः।
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− | | |
− | इत्येतदादिपर्वोक्तं प्रथमं बहुविस्तरम्॥ 1-2-130
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− | | |
− | अध्यायानां शते द्वे तु संख्याते परमर्षिणा।
| |
− | | |
− | सप्तविंशतिरध्याया व्यासेनोत्तमतेजसा॥ 1-2-131
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− | | |
− | अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च।
| |
− | | |
− | श्लोकाश्च चतुराशीतिर्मुनिनोक्ता महात्मना॥ 1-2-132
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− | | |
− | द्वितीयं तु सभापर्व बहुवृत्तान्तमुच्यते।
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− | | |
− | सभाक्रिया पाण्डवानां किङ्कराणां च दर्शनम्॥ 1-2-133
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− | | |
− | लोकपालसभाख्यानं नारदाद्देवदर्शिनः।
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− | | |
− | राजसूयस्य चारम्भो जरासन्धवधस्तथा॥ 1-2-134
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− | | |
− | गिरिव्रजे निरुद्धानां राज्ञां कृष्णेन मोक्षणम्।
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− | | |
− | तथा दिग्विजयोऽत्रैव पाण्डवानां प्रकीर्तितः॥ 1-2-135
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− | | |
− | राज्ञामागमनं चैव सार्हणानां महाक्रतौ।
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− | | |
− | राजसूयेऽर्घसंवादे शिशुपालवधस्तथा॥ 1-2-136
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− | | |
− | यज्ञे विभूतिं तां दृष्ट्वा दुःखामर्षान्वितस्य च।
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− | | |
− | दुर्योधनस्यावहासो भीमेन च सभातले॥ 1-2-137
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− | | |
− | यत्रास्य मन्युरुद्भूतो येन द्यूतमकारयत्।
| |
− | | |
− | यत्र धर्मसुतं द्यूते शकुनिः कितवोऽजयत्॥ 1-2-138
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− | | |
− | यत्र द्यूतार्णवे मग्नां द्रौपदीं नौरिवार्णवात्।
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− | | |
− | धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः स्नुषां परमदुःखिताम्॥ 1-2-139
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− | | |
− | तारयामास तांस्तीर्णान्ज्ञात्वा दुर्योधनो नृपः।
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− | | |
− | पुनरेव ततो द्यूते समाह्वयत पाण्डवान्॥ 1-2-140
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− | | |
− | जित्वा स वनवासाय प्रेषयामास तांस्ततः।
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− | | |
− | एतत्सर्वं सभापर्व समाख्यातं महात्मना॥ 1-2-141
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− | | |
− | अध्यायाः सप्ततिर्ज्ञेयास्तथा चाष्टौ प्रसंख्यया।
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− | | |
− | श्लोकानां द्वे सहस्रे तु पञ्च श्लोकशतानि च॥ 1-2-142
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− | | |
− | श्लोकाश्चैकादश ज्ञेयाः पर्वण्यस्मिन्द्विजोत्तमाः।
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− | | |
− | अतः परं तृतीयं तु ज्ञेयमारण्यकं महत्॥ 1-2-143
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− | | |
− | वनवासं प्रयातेषु पाण्डवेषु महात्मसु।
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− | | |
− | पौरानुगमनं चैव धर्मपुत्रस्य धीमतः॥ 1-2-144
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− | | |
− | अत्रौ[न्नौ]षधीनां च कृते पाण्डवेन महात्मना।
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− | | |
− | द्विजानां भरणार्थं च कृतमाराधनं रवेः॥ 1-2-145
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− | | |
− | धौम्योपदेशात्तिग्मांशुप्रसादादन्नसम्भवः।
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− | | |
− | मैत्रेयशापोत्सर्गश्च विदुरस्य प्रवासनम्।
| |
− | | |
− | हितं च ब्रुवतः क्षत्तुः परित्यागोऽम्बिकासुतात्॥ 1-2-146
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− | | |
− | त्यक्तस्य पाण्डुपुत्राणां समीपगमनं तथा।
| |
− | | |
− | पुनरागमनं चैव धृतराष्ट्रस्य शासनात्॥ 1-2-147
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− | | |
− | कर्णप्रोत्साहनाच्चैव धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः।
| |
− | | |
− | वनस्थान्पाण्डवान्हन्तुं मन्त्रो दुर्योधनस्य च॥ 1-2-148
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− | | |
− | तं दुष्टभावं विज्ञाय व्यासस्यागमनं द्रुतम्।
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− | | |
− | निर्याणप्रतिषेधश्च सुरभ्याख्यानमेव च॥ 1-2-149
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− | | |
− | मैत्रेयागमनं चात्र राज्ञश्चैवानुशासनम्।
| |
− | | |
− | शापोत्सर्गश्च तेनैव राज्ञो दुर्योधनस्य च॥ 1-2-150
| |
− | | |
− | किम्मी[र्मी]रस्य वधश्चात्र भीमसेनेन संयुगे।
| |
− | | |
− | पाण्डवानां च सर्वेषां सहाख्यानं तथैव च।
| |
− | | |
− | पाञ्चालागमनं चैव द्रोपद्याश्चाश्रुमोक्षणम्।
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− | | |
− | वृष्णीनामागमश्चात्र पञ्चालानां च सर्वशः॥ 1-2-151
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− | | |
− | श्रुत्वा शकुनिना द्यूते निकृत्या निर्जितांश्च तान्।
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− | | |
− | क्रुद्धस्यानुप्रशमनं हरेश्चैव किरीटिना॥ 1-2-152
| |
− | | |
− | परिदेवनं च पाञ्चाल्या वासुदेवस्य संनिधौ।
| |
− | | |
− | आश्वासनं च कृष्णेन दुःखार्तायाः प्रकीर्तितम्॥ 1-2-153
| |
− | | |
− | तथा सौभवधाख्यानमत्रैवोक्तं महर्षिणा।
| |
− | | |
− | सुभद्रायाः सपुत्रायाः कृष्णेन द्वारकां पुरीम्॥ 1-2-154
| |
− | | |
− | नयनं द्रौपदेयानां धृष्टद्युम्नेन चैव ह।
| |
− | | |
− | प्रवेशः पाण्डवेयानां रम्ये द्वैतवने ततः॥ 1-2-155
| |
− | | |
− | धर्मराजस्य चात्रैव संवादः कृष्णया सह।
| |
− | | |
− | संवादश्च तथा राज्ञा भीमस्यापि प्रकीर्तितः॥ 1-2-156
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− | | |
− | समीपं पाण्डुपुत्राणां व्यासस्यागमनं तथा।
| |
− | | |
− | प्रतिस्मृत्याथ विद्याया दानं राज्ञो महर्षिणा॥ 1-2-157
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− | | |
− | गमनं काम्यके चापि व्यासे प्रतिगते ततः।
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− | | |
− | अस्त्रहेतोविवासश्च पार्थस्यामिततेजसः॥ 1-2-158
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− | | |
− | महादेवेन युद्धं च किरातवपुषा सह।
| |
− | | |
− | दर्शनं लोकपालानामस्त्रप्राप्तिस्तथैव च॥ 1-2-159
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− | | |
− | महेन्द्रलोकगमनमस्त्रार्थे च किरीटिनः।
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− | | |
− | यत्र चिन्ता समुत्पन्ना धृतराष्ट्रस्य भूयसी॥ 1-2-160
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− | | |
− | दर्शनं बृहदश्वस्य महर्षेर्भावितात्मनः।
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− | | |
− | युधिष्ठिरस्य चार्तस्य व्यसनं परिदेवनम्॥ 1-2-161
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− | | |
− | नलोपाख्यानमत्रैव धर्मिष्ठं करुणोदयम्।
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− | | |
− | दमयन्त्याः स्थितिर्यत्र नलस्य चरितं तथा॥ 1-2-162
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− | | |
− | तथाक्षहृदयप्राप्तिस्तस्मादेव महर्षितः।
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− | | |
− | रो[लो]मशस्यागमस्तत्र स्वर्गात्पाण्डुसुतान्प्रति॥ 1-2-163
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− | | |
− | वनवासगतानां च पाण्डवानां महात्मनाम्।
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− | | |
− | स्वर्गे प्रवृत्तिराख्याता रो[लो]मशेनार्जुनस्य वै॥ 1-2-164
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− | | |
− | संदेशादर्जुनस्यात्र तीर्थाभिगमनक्रिया।
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− | | |
− | तीर्थानां च फलप्राप्तिः पुण्यत्वं चापि कीर्तितम्॥ 1-2-165
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− | | |
− | पुलस्त्यतीर्थयात्रा च नारदेन महर्षिणा।
| |
− | | |
− | तीर्थयात्रा च तत्रैव पाण्डवानां महात्मनाम्॥ 1-2-166
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− | | |
− | कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्।
| |
− | | |
− | तथा यज्ञविभूतिश्च गयस्यात्र प्रकीर्तिता॥ 1-2-167
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− | | |
− | आगस्त्यमपि चाख्यानं यत्र वातापिभक्षणम्।
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− | | |
− | लोपामुद्राभिगमनमपत्यार्थमृषेस्तथा॥ 1-2-168
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− | | |
− | ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनन्तरम्।
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− | | |
− | इन्द्रोऽग्निर्यत्र धर्मश्च अजिज्ञासन्शिबिं नृपम्।
| |
− | | |
− | ऋश्यशृङ्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिणः।
| |
− | | |
− | ऋष्यशृङ्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिणः।
| |
− | | |
− | जामदग्न्यस्य रामस्य चरितं भूरितेजसः॥ 1-2-169
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− | | |
− | कार्तवीर्यवधो यत्र हैहयानां च वर्ण्यते।
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− | | |
− | तीर्थयात्रा तथैवात्र पाण्डवानां महात्मनाम्।
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− | | |
− | कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्।
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− | | |
− | नियुक्तो भीमसेनश्च द्रोपद्या गन्धमादने।
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− | | |
− | यत्र मन्दारपुष्पार्थं नलिनीं तामधर्षयत्।
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− | | |
− | यत्रास्य सुमहद्युद्धं अभवद्राक्षसैः सह।
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− | | |
− | यक्षैश्चापि महावीर्यैः मणिमत्प्रमुखैस्तथा।
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− | | |
− | प्रभासतीर्थे पाण्डूनां वृष्णिभिश्च समागमः॥ 1-2-170
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− | | |
− | सौकन्यमपि चाख्यानं च्यवनो यत्र भार्गवः।
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− | | |
− | शर्यातियज्ञे नासत्यौ कृतवान्सोमपीति[थि]नौ॥ 1-2-171
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− | | |
− | ताभ्यां च यत्र स मुनिर्यौवनं प्रतिपादितः।
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− | | |
− | मान्धातुश्चाप्युपाख्यानं राज्ञोऽत्रैव प्रकीर्तितम्॥ 1-2-172
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− | | |
− | जन्तूपाख्यानमत्रैव यत्र पुत्रेण सोमकः।
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− | | |
− | पुत्रार्थमयजद्राजा लेभे पुत्रशतं च सः।
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− | | |
− | ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनुत्तमम्॥ 1-2-173
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− | | |
− | इन्द्राग्नी यत्र धर्मस्य जिज्ञासार्थं शिबिं नृपम्।
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− | | |
− | अष्टावक्रीयमत्रैव विवादो यत्र बन्दिना॥ 1-2-174
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− | | |
− | अष्टावक्रस्य विप्रर्षेर्जनकस्याध्वरेऽभवत्।
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− | | |
− | नैयायिकानां मुख्येन वरुणस्यात्मजेन च॥ 1-2-175
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− | | |
− | पराजितो यत्र बन्दी विवादेन महात्मना।
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− | | |
− | विजित्य सागरं प्राप्तं पितरं लब्धवानृषिः॥ 1-2-176
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− | | |
− | अजासुरस्य चात्रैव वयः समुपवर्ण्यते।
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− | | |
− | अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थे सव्यसाचिना।
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− | | |
− | निवातकवचैर्युद्धं हिरण्यपुरवासिभिः।
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− | | |
− | समागमश्च पार्थस्य भ्रातृभिर्गन्धमादने।
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− | | |
− | घोषयात्रा च गन्धर्वैर्यत्र युद्धं किरीटिनः
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− | | |
− | यवक्रीतस्य चाख्यानं रैभ्यस्य च महात्मनः।
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− | | |
− | गन्धमादनयात्रा च वासो नारायणाश्रमे॥ 1-2-177
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− | | |
− | नियुक्तो भीमसेनश्च द्रौपद्या गन्धमादने।
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− | | |
− | व्रजन्पथि महाबाहुर्दृष्टवान्पवनात्मजम्॥ 1-2-178
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− | | |
− | कदलीष[ख]ण्डमध्यस्थं हनूमन्तं महाबलम्।
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− | | |
− | यत्र सौगन्धिकार्थेऽसौ नलिनीं तामधर्षयत्॥ 1-2-179
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− | | |
− | यत्रास्य युद्धमभवत्सुमहद्राक्षसैः सह।
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− | | |
− | यक्षैश्चैव महावीर्यैर्मणिमत्प्रमुखैस्तथा॥ 1-2-180
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− | | |
− | (जटासुरस्य च वधो राक्षसस्य वृकोदरात्।
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− | | |
− | वृषपर्वणश्च राजर्षेस्ततोऽभिगमनं स्मृतम्॥
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− | | |
− | आर्ष्टिषेण आश्रमे चैषां गमनं वास एव च।
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− | | |
− | प्रोत्साहनं च पाञ्चाल्या भीमस्यात्र महात्मनः॥
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− | | |
− | कैलासारोहणं प्रोक्तं यत्र यक्षैर्बलोत्कटैः।
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− | | |
− | युद्धमासीन्महाघोरं मणिमत्प्रमुखैः सह॥
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− | | |
− | समागमश्च पाण्डूनां यत्र वैश्रवणेन च।)
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− | | |
− | समागमश्चार्जुनस्य तत्रैव भ्रातृभिः सह।
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− | | |
− | अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थं सव्यसाचिना॥ 1-2-181
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− | | |
− | निवातकवचैर्युद्धं हिरण्यपुर वासिभिः।
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− | | |
− | निवातकवचैर्घोरैर्दानवैः सुरशत्रुभिः॥ 1-2-182
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− | | |
− | पौलोमैः कालकेयैश्च यत्र युद्धं किरीटिनः।
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− | | |
− | वधश्चैषां समाख्यातो राज्ञस्तेनैव धीमता॥ 1-2-183
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− | | |
− | अस्त्रसंदर्शनारम्भो धर्मराजस्य संनिधौ।
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− | | |
− | पार्थस्य प्रतिषेधश्च नारदेन सुरर्षिणा॥ 1-2-184
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− | | |
− | अवरोहणं पुनश्चैव पाण्डूनां गन्धमादनात्।
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− | | |
− | भीमस्य ग्रहणं चात्र पर्वताभोगवर्ष्मणा॥ 1-2-185
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− | | |
− | भुजगेन्द्रेण बलिना तस्मिन्सुगहने वने।
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− | | |
− | अमोक्षयद्यत्र चैनं प्रश्नानुक्त्वा युधिष्ठिरः॥ 1-2-186
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− | | |
− | काम्यकागमनं चैव पुनस्तेषां महात्मनाम्।
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− | | |
− | तत्रस्थांश्च पुनर्द्रष्टुं पाण्डवान्पुरुषर्षभान्॥ 1-2-187
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− | | |
− | वासुदेवस्यागमनमत्रैव परिकीर्तितम्।
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− | | |
− | मार्कण्डेयसमास्यायामुपाख्यानानि सर्वशः॥ 1-2-188
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− | | |
− | पृथोर्वैन्यस्य यत्रोक्तमाख्यानं परमर्षिणा।
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− | | |
− | संवादश्च सरस्वत्यास्तार्क्ष्यर्षेः सुमहात्मनः॥ 1-2-189
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− | | |
− | मत्स्योपाख्यानमत्रैव प्रोच्यते तदनन्तरम्।
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− | | |
− | मार्कण्डेयसमास्या च पुराणं परिकीर्त्यते॥ 1-2-190
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− | | |
− | ऐन्द्रद्युम्नमुपाख्यानं धौन्धुमारं तथैव च।
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− | | |
− | पतिव्रतायाश्चाख्यानं तथैवाङ्गिरसं स्मृतम्॥ 1-2-191
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− | | |
− | द्रौपद्याः कीर्तितश्चात्र संवादः सत्यभामया।
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− | | |
− | पुनर्द्वैतवनं चैव पाण्डवाः समुपागताः॥ 1-2-192
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− | | |
− | घोषयात्रा च गन्धर्वैर्यत्र बद्धः सुयोधनः।
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− | | |
− | ह्रियमाणस्तुमन्दात्मा मोक्षितोऽसौ किरीटीना॥ 1-2-193
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− | | |
− | धर्मराजस्य चात्रैव मृगस्वप्ननिदर्शनम्।
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− | | |
− | काम्यके काननश्रेष्ठे पुनर्गमनमुच्यते॥ 1-2-194
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− | | |
− | व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम्।
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− | | |
− | दुर्वाससोऽप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-195
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− | | |
− | जयद्रथेनापहारो द्रौपद्याश्चाश्रमान्तरात्।
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− | | |
− | यत्रैनमन्वयाद्भीमो वायुवेगसमो जवे॥ 1-2-196
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− | | |
− | चक्रे चैनं पञ्चशिखं यत्र भीमो महाबलः।
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− | | |
− | रामायणमुपाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम्॥ 1-2-197
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− | | |
− | यत्र रामेण विक्रम्य निहतो रावणो युधि।
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− | | |
− | सावित्र्याश्चाप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-198
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− | | |
− | कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्।
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− | | |
− | यत्रास्य शक्तिं तुष्टोऽदादेकवीर[तुष्टोऽसावदादेक]वधाय च॥ 1-2-199
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− | | |
− | आरणेयमुपाख्यानं यत्र धर्मोऽन्वशात्सुतम्।
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− | | |
− | जग्मुर्लब्धवरा यत्र पाण्डवाः पश्चिमां दिशम्॥ 1-2-200
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− | | |
− | एतदारण्यकं पर्व तृतीयं परिकीर्तितम्।
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− | | |
− | अत्राध्यायशते द्वे तु संख्यया परिकीर्तिते॥ 1-2-201
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− | | |
− | एकोनसप्ततिश्चैव तथाध्यायाः प्रकीर्तिताः।
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− | | |
− | एकादशसहस्राणि श्लोकानां षट्शतानि च॥ 1-2-202
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− | | |
− | चतुःषष्टिस्तथाश्लोकाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः।
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− | | |
− | अतः परं निबोधेदं वैराटं पर्व विस्तरम्॥ 1-2-203
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− | | |
− | विराटनगरे गत्वा श्मशाने विपुलां शमीम्।
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− | | |
− | दृष्ट्वा संनिदधुस्तत्र पाण्डवा ह्यायुधान्युत॥ 1-2-204
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− | | |
− | यत्र प्रविश्य नगरं छद्मना न्यवसंस्तु ते।
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− | | |
− | पाञ्चालीं प्रार्थयानस्य कामोपहतचेतसः॥ 1-2-205
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− | | |
− | दुष्टात्मनो वधो यत्र कीचकस्य वृकोदरात्।
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− | | |
− | पाण्डवान्वेषणार्थं च राज्ञो दुर्योधनस्य च॥ 1-2-206
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− | | |
− | चाराः प्रस्थापिताश्चात्र निपुणाः सर्वतोदिशम्।
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− | | |
− | न च प्रवृत्तिस्तैर्लब्धा पाण्डवानां महात्मनाम्॥ 1-2-207
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− | | |
− | गोग्रहश्च विराटस्य त्रिगर्तैः प्रथमं कृतः।
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− | | |
− | यत्रास्य युद्धं सुमहत्तैरासीद्रो[ल्लो]महर्षणम्॥ 1-2-208
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− | | |
− | ह्रियमाणश्चि यत्रासौ भीमसेनेन मोक्षितः।
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− | | |
− | गोधनं च विराटस्य मोक्षितं यत्र पाण्डवैः॥ 1-2-209
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− | | |
− | अनन्तरं च कुरुभिस्तस्य गोग्रहणं कृतम्।
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− | | |
− | समस्ता यत्र पार्थेन निर्जिताः कुरवो युधि॥ 1-2-210
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− | | |
− | प्रत्याहृतं गोधनं च विक्रमेण किरीटिना।
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− | | |
− | विराटेनोत्तरा दत्ता स्नुषा यत्र किरीटिनः॥ 1-2-211
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− | | |
− | अभिमन्युं समुद्दिस्य सौभद्रमरिघातिनम्।
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− | | |
− | चतुर्थमेतद्विपुलं वैराटं पर्व वर्णितम्॥ 1-2-212
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− | | |
− | अत्रापि परिसंख्याता अध्यायाः परमर्षिणा।
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− | | |
− | सप्तषष्टिरथो पूर्णा श्लोकानामपि मे शृणु॥ 1-2-213
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− | | |
− | श्लोकानां द्वे सहस्रे तु श्लोकाः पञ्चाशदेव तु।
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− | | |
− | उक्तानि वेदविदुषा पर्वण्यस्मिन्महर्षिणा॥ 1-2-214
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− | | |
− | उद्योगपर्व विज्ञेयं पञ्चमं शृण्वतः परम्।
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− | | |
− | उपप्लव्ये निविष्टेषु पाण्डवेषु जिगीषया॥ 1-2-215
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− | | |
− | दुर्योधनोऽर्जुनश्चैव वासुदेवमुपस्थितौ।
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− | | |
− | साहाय्यमस्मिन्समरे भवान्नौ कर्तुमर्हति॥ 1-2-216
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− | | |
− | इत्युक्ते वचने कृष्णो यत्रोवाच महामतिः।
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− | | |
− | अयुध्यमानमात्मानं मन्त्रिणं पुरुषर्षभौ॥ 1-2-217
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− | | |
− | अक्षौहिणीं वा सैन्यस्य कस्य किं वा ददाम्यहम्।
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− | | |
− | वव्रे दुर्योधनः सैन्यं मन्दात्मा यत्र दुर्मतिः॥ 1-2-218
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− | | |
− | अयुध्यमानं सचिवं वव्रे कृष्णं धनञ्जयः।
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− | | |
− | मद्रराजं च राजानमायान्तं पाण्डवान्प्रति॥ 1-2-219
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− | | |
− | उपहारैर्वञ्चयित्वा वर्त्मन्येव सुयोधनः।
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− | | |
− | वरदं तं वरं वव्रे साहाय्यं क्रियतां मम॥ 1-2-220
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− | | |
− | शल्यस्तस्मै प्रतिश्रुत्य जगामोद्दिश्य पाण्डवान्।
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− | | |
− | शान्तिपूर्वं चाकथयद्यत्रेन्द्रविजयं नृपः॥ 1-2-221
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− | | |
− | पुरोहितप्रेषणं च पाण्डवैः कौरवान्प्रति।
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− | | |
− | वैचित्रवीर्यस्य वचः समादाय पुरोधसः॥ 1-2-222
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− | | |
− | तथेन्द्रविजयं चापि यानं चैव पुरोधसः।
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− | | |
− | संजयं प्रेषयामास शमार्थी पाण्डवान्प्रति॥ 1-2-223
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− | | |
− | यत्र दूतं महाराजो धृतराष्ट्रः प्रतापवान्।
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− | | |
− | श्रुत्वा च पाण्डवान्यत्र वासुदेवपुरोगमान्॥ 1-2-224
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− | | |
− | प्रजागरः सम्प्रजज्ञे धृतराष्ट्रस्य चिन्तया।
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− | | |
− | विदुरो यत्र वाक्यानि विचित्राणि हितानि च॥ 1-2-225
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− | | |
− | श्रावयामास राजानं धृतराष्ट्रं मनीषिणम्।
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− | | |
− | तथा सनत्सुजातेन यत्राध्यात्ममनुत्तमम्॥ 1-2-226
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− | | |
− | मनस्तापान्वितो राजा श्रावितः शोकलालसः।
| |
− | | |
− | प्रभाते राजसमितौ संजयो यत्र वा विभोः॥ 1-2-227
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− | | |
− | ऐकात्म्यं वासुदेवस्य प्रोक्तवानर्जुनस्य च।
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− | | |
− | यत्र कृष्णो दयापन्नः संधिमिच्छन्महामतिः॥ 1-2-228
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− | | |
− | स्वयमागाच्छमं कर्तुं नगरं नागसाह्वयम्।
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− | | |
− | प्रत्याख्यानं च कृष्णस्य राज्ञा दुर्योधनेन वै॥ 1-2-229
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− | | |
− | शमार्थे याचमानस्य पक्षयोरुभयोर्हितम्।
| |
− | | |
− | दम्भोद्भवस्य चाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-230
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− | | |
− | वरान्वेषणमत्रैव मातलेश्च महात्मनः।
| |
− | | |
− | महर्षेश्चापि चरितं कथितं गालवस्य वै॥ 1-2-231
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− | | |
− | विदुलायाश्च पुत्रस्य प्रोक्तं चाप्यनुशासनम्।
| |
− | | |
− | कर्णदुर्योधनादीनां दुष्टं विज्ञाय मन्त्रितम्॥ 1-2-232
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− | | |
− | योगेश्वरत्वं कृष्णेन यत्र राज्ञां प्रदर्शितम्।
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− | | |
− | रथमारोप्य कृष्णेन यत्र कर्णोऽनुमन्त्रितः।
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− | | |
− | उपायपूर्वं शौटीर्यात्प्रत्याख्यातश्च तेन सः॥ 1-2-233
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− | | |
− | आगम्य हास्तिनापुरादुपप्लव्यमरिन्दमः।
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− | | |
− | पाण्डवानां यथावृत्तं सर्वमाख्यातवान्हरिः॥ 1-2-234
| |
− | | |
− | ते तस्य वचनं श्रुत्वा मन्त्रयित्वा च यद्धितम्।
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− | | |
− | सांग्रामिकं ततः सर्वं सज्जं चक्रुः परंतपाः॥ 1-2-235
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− | | |
− | ततो युद्धाय निर्याता नराश्वरथदन्तिनः।
| |
− | | |
− | नगराद्धास्तिनपुराद्बलसंख्यानमेव च॥ 1-2-236
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− | | |
− | यत्र राज्ञा ह्युलूकस्य प्रेषणं पाण्डवान्प्रति।
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− | | |
− | श्वोभाविनि महायुद्धे दौत्येन कृतवान्प्रभुः॥ 1-2-237
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− | | |
− | रथातिरथसंख्यानमम्बोबाख्यानमेव च।
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− | | |
− | एतत्सुबहुवृत्तान्तं पञ्चमं पर्व भारते॥ 1-2-238
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− | | |
− | उद्योगपर्व निर्दिष्टं संधिविग्रहमिश्रितम्।
| |
− | | |
− | अध्यायानां शतं प्रोक्तं षडशीतिर्महर्षिणा॥ 1-2-239
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− | | |
− | श्लोकानां षट्सहस्राणि तावन्त्येव शतानि च।
| |
− | | |
− | श्लोकाश्च नवतिः प्रोक्तास्तथैवाष्टौ महात्मना॥ 1-2-240
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− | | |
− | व्यासेनोदारमतिना पर्वण्यस्मिंस्तपोधनाः।
| |
− | | |
− | अतः परं विचित्रार्थं भीष्मपर्व प्रचक्षते॥ 1-2-241
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− | | |
− | जम्बूखण्डविनिर्माणं यत्रोक्तं संजयेन ह।
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− | | |
− | यत्र यौधिष्ठिरं सैन्यं विषादमगमत्परम्॥ 1-2-242
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− | | |
− | यत्र युद्धमभूद्घोरं दशाहानि सुदारुणम्।
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− | | |
− | कश्मलं यत्र पार्थस्य वासुदेवो महामतिः॥ 1-2-243
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− | | |
− | मोहजं नाशयामास हेतुभिर्मोक्षदर्शिभिः।
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− | | |
− | समीक्ष्याधोक्षजः क्षिप्रं युधिष्ठिरहिते रतः॥ 1-2-244
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− | | |
− | रथादाप्लुत्य वेगेन स्वयं कृष्ण उदारधीः।
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− | | |
− | प्रतोदपाणिराधावद्भीष्मं हन्तुं व्यपेतभीः॥ 1-2-245
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− | | |
− | वाक्यप्रतोदाभिहतो यत्र कृष्णेन पाण्डवः।
| |
− | | |
− | गाण्डीवधन्वा समरे सर्वशस्त्रभृतां वरः॥ 1-2-246
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− | | |
− | शिखण्डिनं पुरस्कृत्य यत्र पार्थो महाधनुः।
| |
− | | |
− | विनिघ्नन्निशितैर्बाणै रथाद्भीष्ममपातयत्॥ 1-2-247
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− | | |
− | शरतल्पगतश्चैव भीष्मो यत्र बभूव ह।
| |
− | | |
− | षष्ठमेतत्समाख्यातं भारते पर्व विस्तृतम्॥ 1-2-248
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− | | |
− | अध्यायानां शतं प्रोक्तं तथा सप्तदशापरे।
| |
− | | |
− | पञ्चश्लोकसहस्राणि संख्ययाष्टौ शतानि च॥ 1-2-249
| |
− | | |
− | श्लोकश्च चतुराशीतिरस्मिन्पर्वणि कीर्तिताः।
| |
− | | |
− | व्यासेन वेदविदुषा संख्याता भीष्मपर्वणि॥ 1-2-250
| |
− | | |
− | द्रोणपर्व ततश्चित्रं बहुवृत्तान्तमुच्यते।
| |
− | | |
− | सैनापत्येऽभिषिक्तोऽथ यत्राचार्यः प्रतापवान्॥ 1-2-251
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− | | |
− | दूर्योधनस्य प्रीत्यर्थं प्रतिजज्ञे महास्त्रवित्।
| |
− | | |
− | ग्रहणं धर्मराजस्य पाण्डुपुत्रस्य धीमतः॥ 1-2-252
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− | | |
− | यत्र संशप्तकाः पार्थमपनिन्यू रणाजिरात्।
| |
− | | |
− | भगदत्तो महाराजो यत्र शक्रसमो युधि॥ 1-2-253
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− | | |
− | सुप्रतीकेन नागेन स हि शान्तः किरीटिना।
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− | | |
− | यत्राभिमन्युं बहवो जघ्नुरेकं महारथाः॥ 1-2-254
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− | | |
− | जयद्रथमुखा बालं शूरमप्राप्तयौवनम्।
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− | | |
− | हतेऽभिमन्यौ क्रुद्धेन यत्र पार्थेन संयुगे॥ 1-2-255
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− | | |
− | अक्षौहिणीः सप्त हत्वा हतो राजा जयद्रथः।
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− | | |
− | यत्र भीमो महाबाहुः सात्यकिश्च महारथः॥ 1-2-256
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− | | |
− | अन्वेषणार्थं पार्थस्य युधिष्ठिरनृपाज्ञया।
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− | | |
− | प्रविष्टौ भारतीं सेनामप्रधृष्यां सुरैरपि॥ 1-2-257
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− | | |
− | संशप्तकावशेषं च कृतं निःशेषमाहवे।
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− | | |
− | (संशप्तकानां वीराणां कोट्यो नव महात्मनाम्॥
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− | | |
− | किरीटिनाभिनिष्क्रम्य प्रापिता यमसादनम्।
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− | | |
− | धृतराष्ट्रस्य पुत्राश्च तथा पाषाणयोधिनः॥
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− | | |
− | नारायणाश्च गोपालाः समरे चित्रयोधिनः।)
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− | | |
− | अलम्बुषः श्रुतायुश्च जलसन्धश्च वीर्यवान्॥ 1-2-258
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− | | |
− | सौमदत्तिर्विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।
| |
− | | |
− | घटोत्कचादयश्चान्ये निहता द्रोणपर्वणि॥ 1-2-259
| |
− | | |
− | अश्वत्थामापि चात्रैव द्रोणे युधि निपातिते।
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− | | |
− | अस्त्रं प्रादुश्चकारोग्रं नारायणममर्षितः॥ 1-2-260
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− | | |
− | आग्नेयं कीर्त्यते यत्र रुद्रमाहात्म्यमुत्तमम्।
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− | | |
− | व्यासस्य चाप्यागमनं माहात्म्यं कृष्णपार्थयोः॥ 1-2-261
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− | | |
− | सप्तमं भारते पर्व महदेतदुदाहृतम्।
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− | | |
− | यत्र ते पृथिवीपालाः प्रायशो निधनं गताः॥ 1-2-262
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− | | |
− | द्रोणपर्वणि ये शूरा निर्दिष्टाः पुरुषर्षभाः।
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− | | |
− | अत्राध्यायशतं प्रोक्तं तथाध्यायाश्च सप्ततिः॥ 1-2-263
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− | | |
− | अष्टौ श्लोकसहस्राणि तथा नव शतानि च।
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− | | |
− | श्लोका नव तथैवात्र संख्यातास्तत्त्वदर्शिना॥ 1-2-264
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− | | |
− | पाराशर्येण मुनिना संचिन्त्य द्रोणपर्वणि।
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− | | |
− | अतः परं कर्णपर्व प्रोच्यते परमाद्भुतम्॥ 1-2-265
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− | | |
− | सारथ्ये विनियोगश्च मद्रराजस्य धीमतः।
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− | | |
− | आख्यातं यत्र पौराणं त्रिपुरस्य निपातनम्॥ 1-2-266
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− | | |
− | प्रयाणे परुषश्चात्र संवादः कर्णशल्ययोः।
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− | | |
− | हंसकाकीयमाख्यानं तत्रैवाक्षेपसंहितम्॥ 1-2-267
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− | | |
− | वधः पाण्ड्यस्य च तथा अश्वत्थाम्ना महात्मना।
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− | | |
− | दण्डसेनस्य च ततो दण्डस्य च वधस्तथा॥ 1-2-268
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− | | |
− | द्वैरथे यत्र कर्णेन धर्मराजो युधिष्ठिरः।
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− | | |
− | संशयं गमितो युद्धे मिषतां सर्वधन्विनाम्॥ 1-2-269
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− | | |
− | अन्योन्यं प्रति च क्रोधो युधिष्ठिरकिरीटिनोः।
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− | | |
− | यत्रैवानुनयः प्रोक्तो माधवेनार्जुनस्य हि॥ 1-2-270
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− | | |
− | प्रतिज्ञापूर्वकं चापि वक्षो दुःशासनस्य च।
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− | | |
− | भित्त्वा वृकोदरो रक्तं पीतवान्यत्र संयुगे॥ 1-2-271
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− | | |
− | द्वैरथे यत्र पार्थेन हतः कर्णो महारथः।
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− | | |
− | अष्टमं पर्व निर्दिष्टमेतद्भारतचिन्तकैः॥ 1-2-272
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− | | |
− | एकोनसप्ततिः प्रोक्ता अध्यायाः कर्णपर्वणि।
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− | | |
− | चत्वार्येव सहस्राणि नव श्लोकशतानि च॥ 1-2-273
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− | | |
− | चतुःषष्टिस्तथा श्लोकाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः।
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− | | |
− | अतः परं विचित्रार्थं शल्यपर्व प्रकीर्तितम्॥ 1-2-274
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− | | |
− | हतप्रवीरे सैन्ये तु नेता मद्रेश्वरोऽभवत्।
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− | | |
− | यत्र कौमारमाख्यानमभिषेकस्य कर्म च ॥ 1-2-275
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− | | |
− | वृत्तानि रथयुद्धानि कीर्त्यन्ते यत्र भागशः।
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− | | |
− | विनाशः कुरुमुख्यानां शल्यपर्वणि कीर्त्यते॥ 1-2-276
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− | | |
− | शल्यस्य निधनं चात्र धर्मराजान्महात्मनः।
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− | | |
− | शकुनेश्च वधोऽत्रैव सहदेवेन संयुगे॥ 1-2-277
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− | | |
− | सैन्ये च हतभूयिष्ठे किंचिच्छिष्टे सुयोधनः।
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− | | |
− | ह्रदं प्रविश्य यत्रासौ संस्तभ्यापो व्यवस्थितः॥ 1-2-278
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− | | |
− | प्रवृत्तिस्तत्र चाख्याता यत्र भीमस्य लुब्धकैः।
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− | | |
− | क्षेपयुक्तैर्वचोभिश्च धर्मराजस्य धीमतः।
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− | | |
− | ह्रदात्समुत्थितो यत्र धार्तराष्ट्रोऽत्यमर्षणः॥ 1-2-279
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− | | |
− | भीमेन गदया युद्धं यत्रासौ कृतवान्सह।
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− | | |
− | समवाये च युद्धस्य रामस्यागमनं स्मृतम्॥ 1-2-280
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− | | |
− | सरस्वत्याश्च तीर्थानां पुण्यता परिकीर्तिता।
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− | | |
− | गदायुद्धं च तुमुलमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-281
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− | | |
− | दुर्योधनस्य राज्ञोऽथ यत्र भीमेन संयुगे।
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− | | |
− | ऊरू भग्नौ प्रसह्याजौ गदया भीमवेगया॥ 1-2-282
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− | | |
− | नवमं पर्व निर्दिष्टमेतदद्भुतमर्थवत्।
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− | | |
− | एकोनषष्टिरध्यायाः पर्वण्यत्र प्रकीर्तिताः॥ 1-2-283
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− | | |
− | संख्याता बहुवृत्तान्ताः श्लोकसंख्यात्र कथ्यते।
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− | | |
− | त्रीणि श्लोकसहस्राणि द्वे शते विंशतिस्तथा॥ 1-2-284
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− | | |
− | मुनिना सम्प्रणीतानि कौरवाणां यशोभृता।
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− | | |
− | अतः परं प्रवक्ष्यामि सौप्तिकं पर्व दारुणम्॥ 1-2-285
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− | | |
− | भग्नोरुं यत्र राजानं दुर्योधनममर्षणम्।
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− | | |
− | अपयातेषु पार्थेषु त्रयस्तेऽभ्याययू रथाः॥ 1-2-286
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− | | |
− | कृतवर्मा कृपो द्रौणिः सायाह्ने रुधिरोक्षितम्।
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− | | |
− | समेत्य ददृशुर्भूमौ पतितं रणमूर्धनि॥ 1-2-287
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− | | |
− | प्रतिजज्ञे दृढक्रोधो द्रौणिर्यत्र महारथः।
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− | | |
− | अहत्वा सर्वपाञ्चालान्धृष्टद्युम्नपुरोगमान्॥ 1-2-288
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− | | |
− | पाण्डवांश्च सहामात्यान्न विमोक्ष्यामि दंशनम्।
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− | | |
− | यत्रैवमुक्त्वा राजानमपक्रम्य त्रयो रथाः॥ 1-2-289
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− | | |
− | सूर्यास्तमनवेलायामासेदुस्ते महद्वनम्।
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− | | |
− | न्यग्रोधस्याथ महतो यत्राधस्ताद्व्यवस्थिताः॥ 1-2-290
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− | | |
− | ततः काकान्बहून्रात्रौदृष्ट्वोलूकेनहिंसितान्।
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− | | |
− | द्रौणिः क्रोधसमाविष्टः पितुर्वधमनुस्मरन्॥ 1-2-291
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− | | |
− | पाञ्चालानां प्रसुप्तानां वधं प्रति मनो दधे।
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− | | |
− | गत्वा च शिविरद्वारि दुर्दशं तत्र राक्षसम्॥ 1-2-292
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− | | |
− | घोरूपमपश्यत्स दिवमावृत्य धिष्ठितम्।
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− | | |
− | तेन व्याघातमस्त्राणां क्रियमाणमवेक्ष्य च॥ 1-2-293
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− | | |
− | द्रौणिर्यत्र विरूपाक्षं रुद्रमाराध्य सत्वरः।
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− | | |
− | प्रसुप्तान्निशि विश्वस्तान्धृष्टद्युम्नपुरोगमान्॥ 1-2-294
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− | | |
− | पाञ्चालान्सपरीवारान्द्रौपदेयांश्च सर्वशः।
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− | | |
− | कृतवर्मणा च सहितः कृपेण च निजघ्निवान्॥ 1-2-295
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− | | |
− | यत्रामुच्यन्त ते पार्थाः पञ्च कृष्णबलाश्रयात्।
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− | | |
− | सात्यकिश्च महेष्वासः शेषाश्च निधनं गताः॥ 1-2-296
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− | | |
− | पाञ्चालानां प्रसुप्तानां यत्र द्रोणसुताद्वधः।
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− | | |
− | धृष्टद्युम्नस्य सूतेन पाण्डवेषु निवेदितः॥ 1-2-297
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− | | |
− | द्रौपदी पुत्रशोकार्ता पितृभ्रातृवधार्दिता।
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− | | |
− | कृतानशनसंकल्पा यत्र भर्तॄनुपाविशत्॥ 1-2-298
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− | | |
− | द्रौपदीवचनात्यत्र भीमो भीमपराक्रमः।
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− | | |
− | प्रियं तस्याश्चिकीर्षन्वै गदामादाय वीर्यवान्॥ 1-2-299
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− | | |
− | अन्वधावत्सुसंक्रुद्धो भारद्वाजं गुरोः सुतम्।
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− | | |
− | भीमसेनभयाद्यत्र दैवेनाभिप्रचोदितः॥ 1-2-300
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− | | |
− | अपाण्डवायेति रुषा द्रौणिरस्त्रमवासृजत्।
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− | | |
− | मैवमित्यब्रवीत्कृष्णः शमयंस्तस्य तद्वचः॥ 1-2-301
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− | | |
− | यत्रास्त्रमस्त्रेण च तच्छमयामास फाल्गुनः।
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− | | |
− | द्रौणेश्च द्रोहबुद्धित्वं वीक्ष्य पापात्मनस्तदा॥ 1-2-302
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− | | |
− | द्रौणिद्वैपायनादीनां शापाश्चान्योन्यकारिताः।
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− | | |
− | मणिं तथा समादाय द्रोणपुत्रान्महारथात्॥ 1-2-303
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− | | |
− | पाण्डवाः प्रददुर्हृष्टा द्रौपद्यै जितकाशिनः।
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− | | |
− | एतद्वै दशमं पर्व सौप्तिकं समुदाहृतम्॥ 1-2-304
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− | | |
− | अष्टादशास्मिन्नध्यायाः पर्वण्युक्ता महात्मना।
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− | | |
− | श्लोकानां कथितान्यत्र शतान्यष्टौ प्रसंख्यया॥ 1-2-305
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− | | |
− | श्लोकाश्च सप्ततिः प्रोक्ता मुनिना ब्रह्मवादिना।
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− | | |
− | सौप्तिकैषीके सम्बद्धे पर्वण्युत्तमतेजसा॥ 1-2-306
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− | | |
− | अत ऊर्ध्वमिदं प्राहुः स्त्रीपर्व करुणोदयम्।
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− | | |
− | पुत्रशोकाभिसंतप्तः प्रज्ञाचक्षुर्नराधिपः॥ 1-2-307
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− | | |
− | कृष्णोपनीतां यत्रासावायसीं प्रतिमां दृढाम्।
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− | | |
− | भीमसेनद्रोहबुद्धिर्धृतराष्ट्रो बभञ्ज ह॥ 1-2-308
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− | | |
− | तथा शोकाभितप्तस्य धृतराष्ट्रस्य धीमतः।
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− | | |
− | संसारगहनं बुद्ध्या हेतुभिर्मोक्षदर्शनैः॥ 1-2-309
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− | | |
− | विदुरेण च यत्रास्य राज्ञ आश्वासनं कृतम्।
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− | | |
− | धृतराष्ट्रस्य चात्रैव कौरवायोधनं तथा॥ 1-2-310
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− | | |
− | सान्तःपुरस्य गमनं शोकार्तस्य प्रकीर्तितम्।
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− | | |
− | विलापो वीरपत्नीनां यत्रातिकरुणः स्मृतः॥ 1-2-311
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− | | |
− | क्रोधावेशः प्रमोहश्च गान्धारीधृतराष्ट्रयोः।
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− | | |
− | यत्र तान्क्षत्रियान्शूरान्संग्रामेष्वनिवर्तिनः॥ 1-2-312
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− | | |
− | पुत्रान्भ्रातॄन्पितृंश्चैव ददृशुर्निहतान्रणे।
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− | | |
− | पुत्रपौत्रवधार्तायास्तथात्रैव प्रकीर्तिता॥ 1-2-313
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− | | |
− | गान्धार्याश्चापि कृष्णेन क्रोधोपशमनक्रिया।
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− | | |
− | यत्र राजा महाप्राज्ञः सर्वधर्मभृतां वरः॥ 1-2-314
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− | | |
− | राज्ञां तानि शरीराणि दाहयामास शास्त्रतः।
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− | | |
− | तोयकर्मणि चारब्धे राज्ञामुदकदानिके॥ 1-2-315
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− | | |
− | गूढोत्पन्नस्य चाख्यानं कर्णस्य पृथयाऽऽत्मनः।
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− | | |
− | सुतस्यैतदिह प्रोक्तं व्यासेन परमर्षिणा॥ 1-2-316
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− | | |
− | एतदेकादशं पर्व शोकवैक्लव्यकारणम्।
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− | | |
− | प्रणीतं सज्जनमनोवैक्लव्याश्रुप्रवर्तकम्॥ 1-2-317
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− | | |
− | सप्तविंशतिरध्यायाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः।
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− | | |
− | श्लोकसप्तशती चापि पञ्चसप्ततिसंयुता॥ 1-2-318
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− | | |
− | संख्यया भारताख्यानमुक्तं व्यासेन धीमता।
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− | | |
− | अतः परं शान्तिपर्व द्वादशं बुद्धिवर्धनम्॥ 1-2-319
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− | | |
− | यत्र निर्वेदमापन्नो धर्मराजो युधिष्ठिरः।
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− | | |
− | घातयित्वा पितॄन्भ्रातॄन्पुत्रान्सम्बन्धिमातुलान्॥ 1-2-320
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− | | |
− | शान्तिपर्वणि धर्माश्च व्याख्याताः शारतल्पिकाः।
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− | | |
− | राजभिर्वेदितव्यास्ते सम्यग्ज्ञात[न]बुभुत्सुभिः॥ 1-2-321
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− | | |
− | आपद्धर्माश्च तत्रैव कालहेतुप्रदर्शिनः।
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− | | |
− | यान्बुद्ध्वा पुरुषः सम्यक्सर्वज्ञत्वमवाप्नुयात्॥ 1-2-322
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− | | |
− | मोक्षधर्माश्च कथिता विचित्रा बहुविस्तराः।
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− | | |
− | द्वादशं पर्व निर्दिष्टमेतत्प्राज्ञजनप्रियम्॥ 1-2-323
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− | | |
− | अत्र पर्वणि विज्ञेयमध्यायानां शतत्रयम्।
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− | | |
− | त्रिंशच्चैव तथाध्याया नव चैव तपोधनाः॥ 1-2-324
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− | | |
− | चतुर्दश सहस्राणि तथा सप्त शतानि च।
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− | | |
− | सप्त श्लोकास्तथैवात्र पञ्चविंशतिसंख्यया॥ 1-2-325
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− | | |
− | अत ऊर्ध्वं च विज्ञेयमनुशासनमुत्तमम्।
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− | | |
− | यत्र प्रकृतिमापन्नः श्रुत्वा धर्मविनिश्चयम्॥ 1-2-326
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− | | |
− | भीष्माद्भागीरथीपुत्रात्कुरुराजो युधिष्ठिरः।
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− | | |
− | व्यवहारोऽत्र कार्त्स्न्येन धर्मार्थी यः प्रकीर्तितः॥ 1-2-327
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− | | |
− | विविधानां च दानानां फलयोगाः प्रकीर्तिताः।
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− | | |
− | तथा पात्रविशेषाश्च दानानां च परो विधिः॥ 1-2-328
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− | | |
− | आचारविधियोगश्च सत्यस्य च परा गतिः।
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− | | |
− | महाभाग्यं गवां चैव ब्राह्मणानां तथैव च॥ 1-2-329
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− | | |
− | रहस्यं चैव धर्माणां देशकालोपसंहितम्।
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− | | |
− | एतत्सुबहुवृत्तान्तमुत्तमं चानुशासनम्॥ 1-2-330
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− | | |
− | भीष्मस्यात्रैव सम्प्राप्तिः स्वर्गस्य परिकीर्तिता।
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− | | |
− | एतत्त्रयोदशं पर्व धर्मनिश्चयकारकम्॥ 1-2-331
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− | | |
− | अध्यायानां शतं त्वत्र षट्चत्वारिंशदेव तु।
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− | | |
− | श्लोकानां तु सहस्राणि प्रोक्तान्यष्टौ प्रसंख्यया॥ 1-2-332
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− | | |
− | ततोऽश्वमेधिकं नाम पर्व प्रोक्तं चतुर्दशम्।
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− | | |
− | तत्संवर्तमरुत्तीयं यत्राख्यानमनुत्तमम्॥ 1-2-333
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− | | |
− | सुवर्णकोषसम्प्राप्तिर्जन्म चोक्तं परीक्षितः।
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− | | |
− | दग्धस्यास्त्राग्निना पूर्वं कृष्णात्संजीवनं पुनः॥ 1-2-334
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− | | |
− | चर्यायां हयमुत्सृष्टं पाण्डवस्यानुगच्छतः।
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− | | |
− | तत्र तत्र च युद्धानि राजपुत्रैरमर्षणैः॥ 1-2-335
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− | | |
− | चित्राङ्गदायाः पुत्रेण पुत्रिकाया धनंजयः।
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− | | |
− | संग्रामे बभ्रुवाहेण संशयं चात्र दर्शितः॥ 1-2-336
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− | | |
− | अश्वमेधे महायज्ञे नकुलाख्यानमेव च।
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− | | |
− | इत्याश्वमेधिकं पर्व प्रोक्तमेतन्महाद्भुतम्॥ 1-2-337
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− | | |
− | अध्यायानां शतं चैव त्रयोऽध्यायाश्च कीर्तिताः।
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− | | |
− | त्रीणि श्लोकसहस्राणि तावन्त्येव शतानि च॥ 1-2-338
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− | | |
− | विंशतिश्च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना।
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− | | |
− | ततस्त्वाश्रमवासाख्यं पर्व पञ्चदशं स्मृतम्॥ 1-2-339
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− | | |
− | यत्र राज्यं समुत्सृज्य गान्धार्या सहितो नृपः।
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− | | |
− | धृतराष्ट्रोऽऽश्रमपदं विदुरश्च जगाम ह॥ 1-2-340
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− | | |
− | यं दृष्ट्वा प्रस्थितं साध्वी पृथाप्यनुययौ तदा।
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− | | |
− | पुत्रराज्यं परित्यज्य गुरुशुश्रूषणे रता॥ 1-2-341
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− | | |
− | यत्र राजा हतान्पुत्रान्पौत्रानन्यांश्च पार्थिवान्।
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− | | |
− | लोकान्तरगतान्वीरानपश्यत्पुनरागतान्॥ 1-2-342
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− | | |
− | ऋषेः प्रसादात्कृष्णस्य दृष्ट्वाश्चर्यमनुत्तमम्।
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− | | |
− | त्यक्त्वा शोकं सदारश्च सिद्धिं परमिकां गतः॥ 1-2-343
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− | | |
− | यत्र धर्मं समाश्रित्य विदुरः सुगतिं गतः।
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− | | |
− | संजयश्च सहामात्यो विद्वान्गावल्गणिर्वशी॥ 1-2-344
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− | | |
− | ददर्श नारदं यत्र धर्मराजो युधिष्ठिरः।
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− | | |
− | नारदाच्चैव शुश्राव वृष्णीनां कदनं महत्॥ 1-2-345
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− | | |
− | एतदाश्रमवासाख्यं पर्वोक्तं महदद्भुतम्।
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− | | |
− | द्विचत्वारिंशदध्यायाः पर्वैतदभिसंख्यया॥ 1-2-346
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− | | |
− | सहस्रमेकं श्लोकानां पञ्च श्लोकशतानि च।
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− | | |
− | षडेव च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना॥ 1-2-347
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− | | |
− | अतः परं निबोधेदं मौसलं पर्व दारुणम्।
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− | | |
− | यत्र ते पुरुषव्याघ्राः शस्त्रस्पर्शसहा[हता] युधि॥ 1-2-348
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− | | |
− | ब्रह्मदण्डविनिष्पिष्टाः समीपे लवणाम्भसः।
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− | | |
− | आपाने पानकलिता दैवेनाभिप्रचोदिताः॥ 1-2-349
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− | | |
− | एरकारूपिभिर्वर्ज्रैर्निजघ्नुरितरेतरम्।
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− | | |
− | यत्र सर्वक्षयं कृत्वा तावुभौ रामकेशवौ।
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− | | |
− | नातिचक्रामतुः कालं प्राप्तं सर्वहरं महत्॥ 1-2-350
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− | | |
− | यत्रार्जुनो द्वारवतीमेत्य वृष्णिविनाकृताम्।
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− | | |
− | दृष्ट्वा विषादमगमत्परां चार्तिं नरर्षभः॥ 1-2-351
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− | | |
− | स संस्कृत्य नरश्रेष्ठं मातुलं शौरिमात्मनः।
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− | | |
− | ददर्श यदुवीराणामापाने वैशसं महत्॥ 1-2-352
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− | | |
− | शरीरं वासुदेवस्य रामस्य च महात्मनः।
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− | | |
− | संस्कारं लम्भयामास वृष्णीनां च प्रधानतः॥ 1-2-353
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− | | |
− | स वृद्धबालमादाय द्वारवत्यास्ततो जनम्।
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− | | |
− | ददर्शापदि कष्टायां गाण्डीवस्य पराभवम्॥ 1-2-354
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− | | |
− | सर्वेषां चैव दिव्यानामस्त्राणामप्रसन्नताम्।
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− | | |
− | नाशं वृष्णिकलत्राणां प्रबावाणामनित्यताम्॥ 1-2-355
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− | | |
− | दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नो व्यासवाक्यप्रचोदितः।
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− | | |
− | धर्मराजं समासाद्य संन्यासं समरोचयत्॥ 1-2-356
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− | | |
− | इत्येतन्मौसलं पर्व षोडशं परिकीर्तितम्।
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− | | |
− | अध्यायाष्टौ समाख्याताः श्लोकानां च शतत्रयम्॥ 1-2-357
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− | | |
− | श्लोकानां विंशतिश्चैव संख्यातास्तत्त्वदर्शिना।
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− | | |
− | महाप्रस्थानिकं तस्मादूर्ध्वं सप्तदशं स्मृतम्॥ 1-2-358
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− | | |
− | यत्र राज्यं परित्यज्य पाण्डवाः पुरुषर्षभाः।
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− | | |
− | द्रौपद्या सहिता देव्या महाप्रस्थानमास्थिताः॥ 1-2-359
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− | | |
− | यत्र तेऽग्निं ददृशिरे लौहित्यं प्राप्य सागरम्।
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− | | |
− | यत्राग्निना चोदितश्च पार्थस्तस्मै महात्मने॥ 1-2-360
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− | | |
− | ददौ सम्पूज्य तद्दिव्यं गाण्डीवं धनुरुत्तमम्।
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− | | |
− | यत्र भ्रातॄन्निपतितान्द्रौपदीं च युधिष्ठिरः॥ 1-2-361
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− | | |
− | दृष्ट्वा हित्वा जगामैव सर्वाननवलोकयन्।
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− | | |
− | एतत्सप्तदशं पर्व महाप्रस्थानिकं स्मृतम्॥ 1-2-362
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− | | |
− | यत्राध्यायास्त्रयः प्रोक्ताः श्लोकानां च शतत्रयम्।
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− | | |
− | विंशतिश्च तता श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना॥ 1-2-363
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− | | |
− | स्वर्गपर्व ततो ज्ञेयं दिव्यं यत्तदमानुषम्।
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− | | |
− | प्राप्तं दैवरथं स्वर्गान्नेष्टवान्यत्र धर्मराट्॥ 1-2-364
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− | | |
− | आरोढुं सुमहाप्राज्ञ आनृशंस्याच्छुना विना।
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− | | |
− | तामस्याविचलां ज्ञात्वा स्थितिं धर्मे महात्मनः॥ 1-2-365
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− | | |
− | श्वरूपं यत्र तत्त्यक्त्वा धर्मेणासौ समन्वितः।
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− | | |
− | स्वर्गं प्राप्तः स च तथा यातनां विपुलां भृशम्॥ 1-2-366
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− | | |
− | देवदूतेन नरकं यत्र व्याजेन दर्शितम्।
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− | | |
− | शुश्राव यत्र धर्मात्मा भ्रातॄणां करुणा गिरः॥ 1-2-367
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− | | |
− | निदेशे वर्तमानानां देशे तत्रैव वर्तताम्।
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− | | |
− | अनुदर्शितश्च धर्मेण देवराजेन पाण्डवः॥ 1-2-368
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− | | |
− | आप्लुत्याकाशगङ्गायां देहं त्यक्त्वा स मानुषम्।
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− | | |
− | स्वधर्मनिर्जितं स्थानं स्वर्गे प्राप्य स धर्मराट्॥ 1-2-269
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− | | |
− | मुमुदे पूजितः सर्वैः सेन्द्रैः सुरगणैः सह।
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− | | |
− | एतदष्टादशं पर्व प्रोक्तं व्यासेन धीमता॥ 1-2-370
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− | | |
− | अध्यायाः पञ्च संख्याताः पर्वण्यस्मिन्महात्मना।
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− | श्लोकानां द्वे शते चैव प्रसंख्याते तपोधनाः॥ 1-2-371
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− | नव श्लोकास्तथैवान्ये संख्याताः परमर्षिणा।
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− | अष्टादशैवमेतानि पर्वाण्युक्तान्यशेषतः॥ 1-2-372
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− | खिलेषु हरिवंशश्च भविष्यं च प्रकीर्तितम्।
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− | दशश्लोकसहस्राणि विंशच्छ्लोकशतानि च॥ 1-2-373
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− | खिलेषु हरिवंशे च संख्यातानि महर्षिणा।
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− | एतत्सर्वं समाख्यातं भारते पर्वसंग्रहः॥ 1-2-374
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− | अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया।
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− | तन्महादारुणं युद्धमहान्यष्टादशाभवत्॥ 1-2-375
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− | यो विद्याच्चतुरो वेदान्साङ्गोपनिषदो द्विजः।
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− | न चाख्यानमिदं विद्यान्नैव स स्याद्विचक्षणः॥ 1-2-376
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− | अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्त्रमिदं महत्।
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− | कामशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनामितबुद्धिना॥ 1-2-377
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− | श्रुत्वा त्विदमुपाख्यानं श्राव्यमन्यन्न रोचते।
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− | पुंस्कोकिलगिरं[रुतं] श्रुत्वा रूक्षा ध्वाङ्क्षस्य वागिव॥ 1-2-378
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− | इतिहासोत्तमादस्माज्जायन्ते कविबुद्धयः।
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− | पञ्चभ्य इव भूतेभ्यो लोकसंविधयस्त्रयः॥ 1-2-379
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− | अस्याख्यानस्य विषये पुराणं वर्तते द्विजाः।
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− | अन्तरिक्षस्य विषये प्रजा इव चतुर्विधाः॥ 1-2-380
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− | क्रियागुणानां सर्वेषामिदमाख्यानमाश्रयः।
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− | इन्द्रियाणां समस्तानां चित्रा इव मनःक्रियाः॥ 1-2-381
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− | अनाश्रित्यैतदाख्यानं कथा भुवि न विद्यते।
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− | आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम्॥ 1-2-382
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− | इदं कविवरैः सर्वैराख्यानमुपजीव्यते।
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− | उदयप्रेप्सुभिर्भृत्यैरभिजात इवेश्वरः॥ 1-2-383
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− | अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे।
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− | साधोरिव गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमाः॥ 1-2-384
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− | धर्मे मतिर्भवतु वः सततोत्थितानां स ह्येक एव परलोकगतस्य बन्धुः।
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− | अर्थाः स्त्रियश्च निपुणैरपि सेव्यमाना नैवाप्तभावमुपयान्ति न च स्थिरत्वम्॥ 1-2-385
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− | द्वैपायनौष्ठपुटनिःसृतमप्रमेयं पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च।
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− | यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन॥ 1-2-386
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− | यदह्ना कुरुते पापं ब्राह्मणस्त्विन्द्रियैश्चरन्।
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− | महाभारतमाख्याय संध्यां मुच्यति पश्चिमाम्॥ 1-2-387
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− | यद्रात्रौ कुरुते पापं कर्मणा मनसा गिरा।
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− | महाभारतमाख्याय पूर्वां संध्यां प्रमुच्यते॥ 1-2-388
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− | यो गोशतं कनकशृङ्गमयं ददाति विप्राय वेदविदुषे च बहुश्रुताय। | |
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− | पुण्यां च भारतकथां शृणुयाच्च नित्यं तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव॥ 1-2-389 | |
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− | आख्यानं तदिदमनुत्तमं महार्थं विज्ञेयं महदिह पर्वसंग्रहेण। | |
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− | श्रुत्वादौ भवति नृणां सुखावगाहं विस्तीर्णं लवणजलं यथा प्लवेन॥ 1-2-390 | |
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− | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पर्वसङ्ग्रहपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः॥ 2 ॥ | |