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− | वैशम्पायन उवाच | + | वैशम्पायन उवाच |
− | | + | प्रभातायां तु शर्वर्यां तेषामक्लिष्टकर्मणाम्। |
− | प्रभातायां तु शर्वर्यां तेषामक्लिष्टकर्मणाम्। | + | वनं यियासतां विप्रास्तस्थुर्भिक्षाभुजोऽग्रतः॥ 3-2-1 |
− | | + | तानुवाच ततो राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। |
− | वनं यियासतां विप्रास्तस्थुर्भिक्षाभुजोऽग्रतः॥ 3-2-1 | + | वयं हि हृतसर्वस्वा हृतराज्या हृतश्रियः॥ 3-2-2 |
− | | + | फलमूलाशनाहारा वनं गच्छाम दुःखिताः। |
− | तानुवाच ततो राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। | + | वनं च दोषबहुलं बहुव्यालसरीसृपम्॥ 3-2-3 |
− | | + | परिक्लेशश्च वो मन्ये ध्रुवं तत्र भविष्यति। |
− | वयं हि हृतसर्वस्वा हृतराज्या हृतश्रियः॥ 3-2-2 | + | ब्राह्मणानां परिक्लेशो दैवतान्यपि सादयेत्। |
− | | + | किं पुनर्मामितो विप्रा निवर्तध्वं यथेष्टतः॥ 3-2-4 |
− | फलमूलाशनाहारा वनं गच्छाम दुःखिताः। | + | ब्राह्मणा ऊचुः |
− | | + | गतिर्या भवतां राजंस्तां वयं गन्तुमुद्यताः। |
− | वनं च दोषबहुलं बहुव्यालसरीसृपम्॥ 3-2-3 | + | नार्हस्यस्मान्परित्यक्तुं भक्तान्सद्धर्मदर्शिनः॥ 3-2-5 |
− | | + | अनुकम्पां हि भक्तेषु देवता ह्यपि कुर्वते। |
− | परिक्लेशश्च वो मन्ये ध्रुवं तत्र भविष्यति। | + | विशेषतो ब्राह्मणेषु सदाचारावलम्बिषु॥ 3-2-6 |
− | | + | युधिष्ठिर उवाच |
− | ब्राह्मणानां परिक्लेशो दैवतान्यपि सादयेत्। | + | ममापि परमा भक्तिर्ब्राह्मणेषु सदा द्विजाः। |
− | | + | सहायविपरिभ्रंशस्त्वयं सादयतीव माम्॥ 3-2-7 |
− | किं पुनर्मामितो विप्रा निवर्तध्वं यथेष्टतः॥ 3-2-4 | + | आहरेयुरिमे येऽपि फलमूलमृगांस्तथा[मधूनि च]। |
− | | + | त इमे शोकजैर्दुःखैर्भ्रातरो मे विमोहिताः॥ 3-2-8 |
− | ब्राह्मणा ऊचुः | + | द्रौपद्या विप्रकर्षेण राज्यापहरणेन च। |
− | | + | दुःखार्दितानिमान्क्लेशैर्नाहं योक्तुमिहोत्सहे॥ 3-2-9 |
− | गतिर्या भवतां राजंस्तां वयं गन्तुमुद्यताः। | + | [[:Category:Sadness|''Sadness'']] [[:Category:दु:ख|''दु:ख'']] [[:Category:शोक|''शोक'']] |
− | | + | ब्राह्मणा ऊचुः |
− | नार्हस्यस्मान्परित्यक्तुं भक्तान्सद्धर्मदर्शिनः॥ 3-2-5 | + | अस्मत्पोषणजा चिन्ता मा भूत्ते हृदि पार्थिव। |
− | | + | स्वयमाहृत्य चान्नानि चोपयोक्षा[त्वानुयास्या]महे वयम्॥ 3-2-10 |
− | अनुकम्पां हि भक्तेषु देवता ह्यपि कुर्वते। | + | अनुध्यानेन जप्येन विधास्यामः शिवं तव। |
− | | + | कथाभिश्चाभिरम्याभिः सह रंस्यामहे वयम्॥ 3-2-11 |
− | विशेषतो ब्राह्मणेषु सदाचारावलम्बिषु॥ 3-2-6 | + | युधिष्ठिर उवाच |
− | | + | एवमेतन्न सन्देहो रमेऽहं सततं द्विजैः। |
− | युधिष्ठिर उवाच | + | मा[न्यू]नभावात्तु पश्यामि प्रत्यादेशमिवात्मनः॥ 3-2-12 |
− | | + | कथं द्रक्ष्यामि वः सर्वान्स्वयमाहृतभोजनान्। |
− | ममापि परमा भक्तिर्ब्राह्मणेषु सदा द्विजाः। | + | मद्भक्त्या क्लिश्यतोऽनर्हान्धिक्पापान्धृतराष्ट्रजान्॥ 3-2-13 |
− | | + | [[:Category:Yudhishtir - brahmans conversation|''Yudhishtir - brahmans conversation'']] [[:Category:युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद|''युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद'']] |
− | सहायविपरिभ्रंशस्त्वयं सादयतीव माम्॥ 3-2-7 | |
− | | |
− | आहरेयुरिमे येऽपि फलमूलमृगांस्तथा[मधूनि च]। | |
− | | |
− | त इमे शोकजैर्दुःखैर्भ्रातरो मे विमोहिताः॥ 3-2-8 | |
− | | |
− | द्रौपद्या विप्रकर्षेण राज्यापहरणेन च। | |
− | | |
− | दुःखार्दितानिमान्क्लेशैर्नाहं योक्तुमिहोत्सहे॥ 3-2-9 | |
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− | ब्राह्मणा ऊचुः | |
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− | अस्मत्पोषणजा चिन्ता मा भूत्ते हृदि पार्थिव। | |
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− | स्वयमाहृत्य चान्नानि चोपयोक्षा[त्वानुयास्या]महे वयम्॥ 3-2-10 | |
− | | |
− | अनुध्यानेन जप्येन विधास्यामः शिवं तव। | |
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− | कथाभिश्चाभिरम्याभिः सह रंस्यामहे वयम्॥ 3-2-11 | |
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− | युधिष्ठिर उवाच | |
− | | |
− | एवमेतन्न सन्देहो रमेऽहं सततं द्विजैः। | |
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− | मा[न्यू]नभावात्तु पश्यामि प्रत्यादेशमिवात्मनः॥ 3-2-12 | |
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− | कथं द्रक्ष्यामि वः सर्वान्स्वयमाहृतभोजनान्। | |
− | | |
− | मद्भक्त्या क्लिश्यतोऽनर्हान्धिक्पापान्धृतराष्ट्रजान्॥ 3-2-13 | |
| | | |
| वैशम्पायन उवाच | | वैशम्पायन उवाच |
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| योगे सांख्ये च कुशलो राजानमिदमब्रवीत्॥ 3-2-14 | | योगे सांख्ये च कुशलो राजानमिदमब्रवीत्॥ 3-2-14 |
| | | |
− | शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च। | + | शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च। |
− | | + | दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्॥ 3-2-15 |
− | दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्॥ 3-2-15 | + | न हि ज्ञानविरुद्धेषु बहुदोषेषु कर्मसु। |
− | | + | श्रेयोघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः॥ 3-2-16 |
− | न हि ज्ञानविरुद्धेषु बहुदोषेषु कर्मसु। | + | अष्टाङ्गां बुद्धिमाहुर्यां सर्वाश्रेयोऽभिघातिनीम्। |
− | | + | श्रुतिस्मृतिसमायुक्तां राजन्सा त्वय्यवस्थिता॥ 3-2-17 |
− | श्रेयोघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः॥ 3-2-16 | + | अर्थकृच्छ्रेषु दुर्गेषु व्यापत्सु स्वजनस्य च। |
− | | + | शारीरमानसैर्दुःखैर्न सीदन्ति भवद्विधाः॥ 3-2-18 |
− | अष्टाङ्गां बुद्धिमाहुर्यां सर्वाश्रेयोऽभिघातिनीम्। | + | [[:Category:Description of a knowledgeable person|''Description of a knowledgeable person'']] [[:Category:ज्ञानी जनस्य वर्णनं|''ज्ञानी जनस्य वर्णनं'']] |
− | | |
− | श्रुतिस्मृतिसमायुक्तां राजन्सा त्वय्यवस्थिता॥ 3-2-17 | |
− | | |
− | अर्थकृच्छ्रेषु दुर्गेषु व्यापत्सु स्वजनस्य च। | |
− | | |
− | शारीरमानसैर्दुःखैर्न सीदन्ति भवद्विधाः॥ 3-2-18 | |
| | | |
| श्रूयतां चाभिधास्यामि जनकेन यथा पुरा। | | श्रूयतां चाभिधास्यामि जनकेन यथा पुरा। |
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| आत्मव्यवस्थानकरा गीताः श्लोका महात्मना॥ 3-2-19 | | आत्मव्यवस्थानकरा गीताः श्लोका महात्मना॥ 3-2-19 |
| | | |
− | मनोदेहसमुत्थाभ्यां दुःखाभ्यामर्दितं जगत्। | + | मनोदेहसमुत्थाभ्यां दुःखाभ्यामर्दितं जगत्। |
− | | + | तयोर्व्याससमासाभ्यां शमोपायमिमं शृणु॥ 3-2-20 |
− | तयोर्व्याससमासाभ्यां शमोपायमिमं शृणु॥ 3-2-20 | + | व्याधेरनिष्टसंस्पर्शाच्छ्रमादिष्टविवर्जनात्। |
− | | + | दुःखं चतुर्भिः शारीरं कारणैः सम्प्रवर्तते॥ 3-2-21 |
− | व्याधेरनिष्टसंस्पर्शाच्छ्रमादिष्टविवर्जनात्। | + | तदा तत्प्रतिकाराच्च सततं चाविचिन्तनात्। |
− | | + | आधिव्याधिप्रशमनं क्रियायोगद्वयेन तु॥ 3-2-22 |
− | दुःखं चतुर्भिः शारीरं कारणैः सम्प्रवर्तते॥ 3-2-21 | + | मतिमन्तो ह्यतो वैद्याः शमं प्रागेव कुर्वते। |
− | | + | मानसस्य प्रियाख्यानैः सम्भोगोपनयैर्नृणाम्॥ 3-2-23 |
− | तदा तत्प्रतिकाराच्च सततं चाविचिन्तनात्। | + | [[:Category:solution to overcome sadness|''solution to overcome sadness'']] |
− | | |
− | आधिव्याधिप्रशमनं क्रियायोगद्वयेन तु॥ 3-2-22 | |
− | | |
− | मतिमन्तो ह्यतो वैद्याः शमं प्रागेव कुर्वते। | |
− | | |
− | मानसस्य प्रियाख्यानैः सम्भोगोपनयैर्नृणाम्॥ 3-2-23 | |
− | | |
− | मानसेन हि दुःखेन शरीरमुपतप्यते।
| |
− | | |
− | अयःपिण्डेन तप्तेन कुम्भसंस्थमिवोदकम्॥ 3-2-24
| |
− | | |
− | मानसं शमयेत्तस्माज्ज्ञानेनाग्निमिवाम्बुना।
| |
− | | |
− | प्रशान्ते मानसे ह्यस्य शारीरमुपशाम्यति॥ 3-2-25
| |
− | | |
− | मनसो दुःखमूलं तु स्नेह इत्युपलभ्यते।
| |
− | | |
− | स्नेहात्तु सज्जते जन्तुर्दुःखयोगमुपैति च॥ 3-2-26
| |
− | | |
− | स्नेहमूलानि दुःखानि स्नेहजानि भयानि च।
| |
− | | |
− | शोकहर्षौ तथाऽऽयासः सर्वं स्नेहात्प्रवर्तते॥ 3-2-27
| |
− | | |
− | स्नेहाद्भावोऽनुरागश्च प्रजज्ञे विषये तथा।
| |
− | | |
− | अश्रेयस्कावुभावेतौ पूर्वस्तत्र गुरुः स्मृतः॥ 3-2-28
| |
− | | |
− | कोटराग्निर्यथाशेषं समूलं पादपं दहेत्।
| |
− | | |
− | धर्मार्थौ तु तथाल्पोऽपि रागदोषो विनाशयेत्॥ 3-2-29
| |
− | | |
− | विप्रयोगे न तु त्यागी दोषदर्शी समागमे।
| |
− | | |
− | विरागं भजते जन्तुर्निर्वैरो निरवग्रहः॥ 3-2-30
| |
− | | |
− | तस्मात्स्नेहं न लिप्सेत मित्रेभ्यो धनसञ्चयात्।
| |
− | | |
− | स्वशरीरसमुत्थं च ज्ञानेन विनिवर्तयेत्॥ 3-2-31
| |
− | | |
− | ज्ञानान्वितेषु युक्तेषु शास्त्रज्ञेषु कृतात्मसु।
| |
− | | |
− | न तेषु सज्जते स्नेहः पद्मपत्रेष्विवोदकम्॥ 3-2-32
| |
− | | |
− | रागाभिभूतः पुरुषः कामेन परिकृष्यते।
| |
− | | |
− | इच्छा सञ्जायते तस्य ततस्तृष्णा विवर्धते॥ 3-2-33
| |
− | | |
− | तृष्णा हि सर्वपापिष्ठा नित्योद्वेगकरी स्मृता।
| |
− | | |
− | अधर्मबहुला चैव घोरा पापानुबन्धिनी॥ 3-2-34
| |
− | | |
− | या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।
| |
− | | |
− | योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्॥ 3-2-35
| |
− | | |
− | अनाद्यन्ता तु सा तृष्णा अन्तर्देहगता नृणाम्।
| |
− | | |
− | विनाशयति भूतानि अयोनिज इवानलः॥ 3-2-36
| |
− | | |
− | यथैधः स्वसमुत्थेन वह्निना नाशमृच्छति।
| |
− | | |
− | तथाकृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति॥ 3-2-37
| |
− | | |
− | राजतः सलिलादग्नेश्चोरतः स्वजनादपि।
| |
− | | |
− | भयमर्थवतां नित्यं मृत्योः प्राणभृतामिव॥ 3-2-38
| |
− | | |
− | यथा ह्यामिषमाकाशे पक्षिभिः श्वापदैर्भुवि।
| |
− | | |
− | भक्ष्यते सलिले मत्स्यैस्तथा सर्वत्र वित्तवान्॥ 3-2-39
| |
− | | |
− | अर्थ एव हि केषाञ्चिदनर्थं भजते नृणाम्।
| |
− | | |
− | अर्थश्रेयसि चासक्तो च श्रेयो विन्दते नरः॥ 3-2-40
| |
− | | |
− | तस्मादर्थागमाः सर्वे मनोमोहविवर्धनाः।
| |
− | | |
− | कार्पण्यं दर्पमानौ च भयमुद्वेग एव च॥ 3-2-41
| |
− | | |
− | अर्थजानि विदुः प्राज्ञा दुःखान्येतानि देहिनाम्।
| |
− | | |
− | अर्थस्योत्पादने चैव पालने च तथा क्षये॥ 3-2-42
| |
− | | |
− | सहन्ति च महद्दुःखं घ्नन्ति चैवार्थकारणात्।
| |
− | | |
− | अर्था दुःखं परित्यक्तुं पालिताश्चैव शत्रवः॥ 3-2-43
| |
− | | |
− | दुःखेन चाधिगम्यन्ते तस्मान्नाशं न चिन्तयेत्।
| |
− | | |
− | असन्तोषपरा मूढाः सन्तोषं यान्ति पण्डिताः॥ 3-2-44
| |
− | | |
− | अन्तो नास्ति पिपासायाः सन्तोषः परमं सुखम्।
| |
− | | |
− | तस्मात्सन्तोषमेवेह परं पश्यन्ति पण्डिताः॥ 3-2-45
| |
− | | |
− | अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं रत्नसंचयः।
| |
− | | |
− | ऐश्वर्यं प्रियसंवासो गृध्येत्तत्र न पण्डितः॥ 3-2-46
| |
− | | |
− | त्यजेत सञ्चयांस्तस्मात्तज्जान्क्लेशान्सहेत च।
| |
− | | |
− | न हि सञ्चयवान्कश्चिद्दृश्यते निरुपद्रवः।
| |
− | | |
− | अतश्च धार्मिकैः पुंभिरनीहार्थः प्रशस्यते॥ 3-2-47
| |
− | | |
− | धर्मार्थं यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरीहता।
| |
− | | |
− | प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य श्रेयो न स्पर्शनं नृणाम्॥ 3-2-48
| |
− | | |
− | युधिष्ठिरैवं सर्वेषु न स्पृहां कर्तुमर्हसि।
| |
− | | |
− | धर्मेण यदि ते कार्यं विमुक्तेच्छो भवार्थतः॥ 3-2-49
| |
− | | |
− | युधिष्ठिर उवाच
| |
− | | |
− | नार्थोपभोगलिप्सार्थमियमर्थेप्सुता मम।
| |
− | | |
− | भरणार्थं तु विप्राणां ब्रह्मन्काङ्क्षे न लोभतः॥ 3-2-50
| |
− | | |
− | कथं ह्यस्मद्विधो ब्रह्मन्वर्तमानो गृहाश्रमे।
| |
− | | |
− | भरणं पालनं चापि न कुर्यादनुयायिनाम्॥ 3-2-51
| |
− | | |
− | संविभागो हि भूतानां सर्वेषामेव दृश्यते।
| |
− | | |
− | तथैवापचमानेभ्यः प्रदेयं गृहमेधिना॥ 3-2-52
| |
− | | |
− | तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता।
| |
− | | |
− | सतामेतानि गेहेषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन॥ 3-2-53
| |
− | | |
− | देयमार्तस्य शयनं स्थितश्रान्तस्य चासनम्।
| |
− | | |
− | तृषितस्य च पानीयं क्षुधितस्य च भोजनम्॥ 3-2-54
| |
− | | |
− | चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्यात्सुभाषिताम्।
| |
− | | |
− | उत्थाय चासनं दद्यादेष धर्मः सनातनः।
| |
− | | |
− | प्रत्युत्थायाभिगमनं कुर्यान्न्यायेन चार्चनम्॥ 3-2-55
| |
− | | |
− | अग्निहोत्रमनड्वांश्च ज्ञातयोऽतिथिबान्धवाः।
| |
− | | |
− | पुत्रा दाराश्च भृत्याश्च निर्दहेयुरपूजिताः॥ 3-2-56
| |
− | | |
− | आत्मार्थं पाचयेन्नान्नं न वृथा घातयेत्पशून्।
| |
− | | |
− | न च तत्स्वयमश्नीयाद्विधिवद्यन्न निर्वपेत्॥ 3-2-57
| |
− | | |
− | श्वभ्यश्च श्वपचेभ्यश्च वयोभ्यश्चावपेद्भुवि।
| |
− | | |
− | वैश्वदेवं हि नामैतत्सायं प्रातश्च दीयते॥ 3-2-58
| |
− | | |
− | विघसाशी भवेत्तस्मान्नित्यं चामृतभोजनः।
| |
− | | |
− | विघसो भुक्तशेषं तु यज्ञशेषं तथामृतम्॥ 3-2-59
| |
− | | |
− | चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्याच्च सूनृताम्।
| |
− | | |
− | अनुव्रजेदुपासीत स यज्ञः पञ्चदक्षिणः॥ 3-2-60
| |
− | | |
− | यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते।
| |
− | | |
− | श्रान्तायादृष्टपूर्वाय तस्य पुण्यफलं महत्॥ 3-2-61
| |
− | | |
− | एवं यो वर्तते वृत्तिं वर्तमानो गृहाश्रमे।
| |
− | | |
− | तस्य धर्मं परं प्राहुः कथं वा विप्र मन्यसे॥ 3-2-62
| |
− | | |
− | शौनक उवाच
| |
− | | |
− | अहो बत महत्कष्टं विपरीतमिदं जगत्।
| |
− | | |
− | येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्यति॥ 3-2-63
| |
− | | |
− | शिश्नोदरकृतेऽप्राज्ञः करोति विघसं बहु।
| |
− | | |
− | मोहरागवशाक्रान्त इन्द्रियार्थवशानुगः॥ 3-2-64
| |
− | | |
− | ह्रियते बुध्यमानोऽपि नरो हारिभिरिन्द्रियैः।
| |
− | | |
− | विमूढसंज्ञो दुष्टाश्वैरुद्भान्तैरिव सारथिः॥ 3-2-65
| |
− | | |
− | षडिन्द्रियाणि विषयं समागच्छन्ति वै यदा।
| |
− | | |
− | तदा प्रादुर्भवत्येषां पूर्वसङ्कल्पजं मनः॥ 3-2-66
| |
− | | |
− | मनो यस्येन्द्रियस्येह विषयान्याति सेवितुम्।
| |
− | | |
− | तस्यौत्सुक्यं सम्भवति प्रवृत्तिश्चोपजायते॥ 3-2-67
| |
− | | |
− | ततः सङ्कल्पबीजेन कामेन विषयेषुभिः।
| |
− | | |
− | विद्धः पतति लोभाग्नौ ज्योतिर्लोभात्पतङ्गवत्॥ 3-2-68
| |
− | | |
− | ततो विहारैराहारैर्मोहितश्च यथेप्सया।
| |
− | | |
− | महामोहे सुखे मग्नो नात्मानमवबुध्यते॥ 3-2-69
| |
− | | |
− | एवं पतति संसारे तासु तास्विह योनिषु।
| |
− | | |
− | अविद्याकर्मतृष्णाभिर्भ्राम्यमाणोऽथ चक्रवत्॥ 3-2-70
| |
− | | |
− | ब्रह्मादिषु तृणान्तेषु भूतेषु परिवर्तते।
| |
− | | |
− | जले भुवि तथाऽऽकाशे जायमानः पुनः पुनः॥ 3-2-71
| |
− | | |
− | अबुधानां गतिस्त्वेषा बुधानामपि मे शृणु।
| |
− | | |
− | ये धर्मे श्रेयसि रता विमोक्षरतयो जनाः॥ 3-2-72
| |
− | | |
− | तदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च।
| |
− | | |
− | तस्माद्धर्मानिमान्सर्वान्नाभिमानात्समाचरेत्॥ 3-2-73
| |
− | | |
− | इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा दमः।
| |
− | | |
− | अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः॥ 3-2-74
| |
− | | |
− | अत्र पूर्वश्चतुर्वर्गः पितृयाणपथे स्थितः।
| |
− | | |
− | कर्तव्यमिति यत्कार्यं नाभिमानात्समाचरेत्॥ 3-2-75
| |
− | | |
− | उत्तरो देवयानस्तु सद्भिराचरितः सदा।
| |
− | | |
− | अष्टाङ्गेनैव मार्गेण विशुद्धात्मा समाचरेत्॥ 3-2-76
| |
− | | |
− | सम्यक्सङ्कल्पसम्बन्धात्सम्यक्चेन्द्रियनिग्रहात्।
| |
− | | |
− | सम्यग्व्रतविशेषाच्च सम्यक्च गुरुसेवनात्॥ 3-2-77
| |
− | | |
− | सम्यगाहारयोगाच्च सम्यक्चाध्ययनागमात्।
| |
− | | |
− | सम्यक्कर्मोपसन्न्यासात्सम्यक्चित्तनिरोधनात्॥ 3-2-78
| |
| | | |
− | एवं कर्माणि कुर्वन्ति संसारविजिगीषवः।
| + | मानसेन हि दुःखेन शरीरमुपतप्यते। |
| + | अयःपिण्डेन तप्तेन कुम्भसंस्थमिवोदकम्॥ 3-2-24 |
| + | मानसं शमयेत्तस्माज्ज्ञानेनाग्निमिवाम्बुना। |
| + | प्रशान्ते मानसे ह्यस्य शारीरमुपशाम्यति॥ 3-2-25 |
| + | [[:Category:connection between physical and mental health|''connection between physical and mental health'']] |
| | | |
− | रागद्वेषविनिर्मुक्ता ऐश्वर्यं देवता गताः॥ 3-2-79
| + | मनसो दुःखमूलं तु स्नेह इत्युपलभ्यते। |
| + | स्नेहात्तु सज्जते जन्तुर्दुःखयोगमुपैति च॥ 3-2-26 |
| + | स्नेहमूलानि दुःखानि स्नेहजानि भयानि च। |
| + | शोकहर्षौ तथाऽऽयासः सर्वं स्नेहात्प्रवर्तते॥ 3-2-27 |
| + | स्नेहाद्भावोऽनुरागश्च प्रजज्ञे विषये तथा। |
| + | अश्रेयस्कावुभावेतौ पूर्वस्तत्र गुरुः स्मृतः॥ 3-2-28 |
| + | कोटराग्निर्यथाशेषं समूलं पादपं दहेत्। |
| + | धर्मार्थौ तु तथाल्पोऽपि रागदोषो विनाशयेत्॥ 3-2-29 |
| + | [[:Category:attachment|''attachment'']] [[:Category:आसक्ती|''आसक्ती'']] |
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− | रुद्राः साध्यास्तथाऽऽदित्या वसवोऽथ तथाश्विनौ।
| + | विप्रयोगे न तु त्यागी दोषदर्शी समागमे। |
| + | विरागं भजते जन्तुर्निर्वैरो निरवग्रहः॥ 3-2-30 |
| + | [[:Category:detachment|''detachment'']] [[:Category:त्याग|''त्याग'']] |
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− | योगैश्वर्येण संयुक्ता धारयन्ति प्रजा इमाः॥ 3-2-80
| + | तस्मात्स्नेहं न लिप्सेत मित्रेभ्यो धनसञ्चयात्। |
| + | स्वशरीरसमुत्थं च ज्ञानेन विनिवर्तयेत्॥ 3-2-31 |
| + | ज्ञानान्वितेषु युक्तेषु शास्त्रज्ञेषु कृतात्मसु। |
| + | न तेषु सज्जते स्नेहः पद्मपत्रेष्विवोदकम्॥ 3-2-32 |
| + | [[:Category:attachment|''attachment'']] [[:Category:आसक्ती|''आसक्ती'']] |
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− | तथा त्वमपि कौन्तेय शममास्थाय पुष्कलम्।
| + | रागाभिभूतः पुरुषः कामेन परिकृष्यते। |
| + | इच्छा सञ्जायते तस्य ततस्तृष्णा विवर्धते॥ 3-2-33 |
| + | तृष्णा हि सर्वपापिष्ठा नित्योद्वेगकरी स्मृता। |
| + | अधर्मबहुला चैव घोरा पापानुबन्धिनी॥ 3-2-34 |
| + | या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः। |
| + | योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्॥ 3-2-35 |
| + | अनाद्यन्ता तु सा तृष्णा अन्तर्देहगता नृणाम्। |
| + | विनाशयति भूतानि अयोनिज इवानलः॥ 3-2-36 |
| + | यथैधः स्वसमुत्थेन वह्निना नाशमृच्छति। |
| + | तथाकृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति॥ 3-2-37 |
| + | [[:Category:anarthas|''anarthas'']] [[:Category:अनर्थ|''अनर्थ'']] |
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− | तपसा सिद्धिमन्विच्छ योगसिद्धिं च भारत॥ 3-2-81
| + | राजतः सलिलादग्नेश्चोरतः स्वजनादपि। |
| + | भयमर्थवतां नित्यं मृत्योः प्राणभृतामिव॥ 3-2-38 |
| + | यथा ह्यामिषमाकाशे पक्षिभिः श्वापदैर्भुवि। |
| + | भक्ष्यते सलिले मत्स्यैस्तथा सर्वत्र वित्तवान्॥ 3-2-39 |
| + | अर्थ एव हि केषाञ्चिदनर्थं भजते नृणाम्। |
| + | अर्थश्रेयसि चासक्तो च श्रेयो विन्दते नरः॥ 3-2-40 |
| + | तस्मादर्थागमाः सर्वे मनोमोहविवर्धनाः। |
| + | कार्पण्यं दर्पमानौ च भयमुद्वेग एव च॥ 3-2-41 |
| + | अर्थजानि विदुः प्राज्ञा दुःखान्येतानि देहिनाम्। |
| + | अर्थस्योत्पादने चैव पालने च तथा क्षये॥ 3-2-42 |
| + | सहन्ति च महद्दुःखं घ्नन्ति चैवार्थकारणात्। |
| + | अर्था दुःखं परित्यक्तुं पालिताश्चैव शत्रवः॥ 3-2-43 |
| + | दुःखेन चाधिगम्यन्ते तस्मान्नाशं न चिन्तयेत्। |
| + | असन्तोषपरा मूढाः सन्तोषं यान्ति पण्डिताः॥ 3-2-44 |
| + | अन्तो नास्ति पिपासायाः सन्तोषः परमं सुखम्। |
| + | तस्मात्सन्तोषमेवेह परं पश्यन्ति पण्डिताः॥ 3-2-45 |
| + | अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं रत्नसंचयः। |
| + | ऐश्वर्यं प्रियसंवासो गृध्येत्तत्र न पण्डितः॥ 3-2-46 |
| + | त्यजेत सञ्चयांस्तस्मात्तज्जान्क्लेशान्सहेत च। |
| + | न हि सञ्चयवान्कश्चिद्दृश्यते निरुपद्रवः। |
| + | अतश्च धार्मिकैः पुंभिरनीहार्थः प्रशस्यते॥ 3-2-47 |
| + | धर्मार्थं यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरीहता। |
| + | प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य श्रेयो न स्पर्शनं नृणाम्॥ 3-2-48 |
| + | युधिष्ठिरैवं सर्वेषु न स्पृहां कर्तुमर्हसि। |
| + | धर्मेण यदि ते कार्यं विमुक्तेच्छो भवार्थतः॥ 3-2-49 |
| + | [[:Category:Disadvantages of being wealthy|''Disadvantages of being wealthy'']] [[:Category:धन दोष|''धन दोष'']] |
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− | पितृमातृमयी सिद्धिः प्राप्ता कर्ममयी च ते।
| + | युधिष्ठिर उवाच |
| + | नार्थोपभोगलिप्सार्थमियमर्थेप्सुता मम। |
| + | भरणार्थं तु विप्राणां ब्रह्मन्काङ्क्षे न लोभतः॥ 3-2-50 |
| + | कथं ह्यस्मद्विधो ब्रह्मन्वर्तमानो गृहाश्रमे। |
| + | भरणं पालनं चापि न कुर्यादनुयायिनाम्॥ 3-2-51 |
| + | संविभागो हि भूतानां सर्वेषामेव दृश्यते। |
| + | तथैवापचमानेभ्यः प्रदेयं गृहमेधिना॥ 3-2-52 |
| + | तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता। |
| + | सतामेतानि गेहेषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन॥ 3-2-53 |
| + | देयमार्तस्य शयनं स्थितश्रान्तस्य चासनम्। |
| + | तृषितस्य च पानीयं क्षुधितस्य च भोजनम्॥ 3-2-54 |
| + | चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्यात्सुभाषिताम्। |
| + | उत्थाय चासनं दद्यादेष धर्मः सनातनः। |
| + | रत्युत्थायाभिगमनं कुर्यान्न्यायेन चार्चनम्॥ 3-2-55 |
| + | [[:Category:Sanatan dharma|''Sanatan dharma'']] [[:Category:सनातन धर्म|''सनातन धर्म'']] |
| + | अग्निहोत्रमनड्वांश्च ज्ञातयोऽतिथिबान्धवाः। |
| + | पुत्रा दाराश्च भृत्याश्च निर्दहेयुरपूजिताः॥ 3-2-56 |
| + | आत्मार्थं पाचयेन्नान्नं न वृथा घातयेत्पशून्। |
| + | न च तत्स्वयमश्नीयाद्विधिवद्यन्न निर्वपेत्॥ 3-2-57 |
| + | श्वभ्यश्च श्वपचेभ्यश्च वयोभ्यश्चावपेद्भुवि। |
| + | वैश्वदेवं हि नामैतत्सायं प्रातश्च दीयते॥ 3-2-58 |
| + | विघसाशी भवेत्तस्मान्नित्यं चामृतभोजनः। |
| + | विघसो भुक्तशेषं तु यज्ञशेषं तथामृतम्॥ 3-2-59 |
| + | चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्याच्च सूनृताम्। |
| + | अनुव्रजेदुपासीत स यज्ञः पञ्चदक्षिणः॥ 3-2-60 |
| + | यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते। |
| + | श्रान्तायादृष्टपूर्वाय तस्य पुण्यफलं महत्॥ 3-2-61 |
| + | एवं यो वर्तते वृत्तिं वर्तमानो गृहाश्रमे। |
| + | तस्य धर्मं परं प्राहुः कथं वा विप्र मन्यसे॥ 3-2-62 |
| + | [[:Category:Duties of a householder|''Duties of a householder'']] [[:Category:गृहस्थ धर्म|''गृहस्थ धर्म'']] |
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− | तपसा सिद्धिमन्विच्छ द्विजानां भरणाय वै॥ 3-2-82
| + | शौनक उवाच |
| + | अहो बत महत्कष्टं विपरीतमिदं जगत्। |
| + | येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्यति॥ 3-2-63 |
| + | शिश्नोदरकृतेऽप्राज्ञः करोति विघसं बहु। |
| + | मोहरागवशाक्रान्त इन्द्रियार्थवशानुगः॥ 3-2-64 |
| + | ह्रियते बुध्यमानोऽपि नरो हारिभिरिन्द्रियैः। |
| + | विमूढसंज्ञो दुष्टाश्वैरुद्भान्तैरिव सारथिः॥ 3-2-65 |
| + | षडिन्द्रियाणि विषयं समागच्छन्ति वै यदा। |
| + | तदा प्रादुर्भवत्येषां पूर्वसङ्कल्पजं मनः॥ 3-2-66 |
| + | मनो यस्येन्द्रियस्येह विषयान्याति सेवितुम्। |
| + | तस्यौत्सुक्यं सम्भवति प्रवृत्तिश्चोपजायते॥ 3-2-67 |
| + | ततः सङ्कल्पबीजेन कामेन विषयेषुभिः। |
| + | विद्धः पतति लोभाग्नौ ज्योतिर्लोभात्पतङ्गवत्॥ 3-2-68 |
| + | ततो विहारैराहारैर्मोहितश्च यथेप्सया। |
| + | महामोहे सुखे मग्नो नात्मानमवबुध्यते॥ 3-2-69 |
| + | एवं पतति संसारे तासु तास्विह योनिषु। |
| + | अविद्याकर्मतृष्णाभिर्भ्राम्यमाणोऽथ चक्रवत्॥ 3-2-70 |
| + | ब्रह्मादिषु तृणान्तेषु भूतेषु परिवर्तते। |
| + | जले भुवि तथाऽऽकाशे जायमानः पुनः पुनः॥ 3-2-71 |
| + | [[:Category:consequences of sense gratification|''consequences of sense gratification'']] [[:Category:इंद्रिय तृप्ति|''इंद्रिय तृप्ति'']] [[:Category:अविवेकी पुरुषोकी गती|''अविवेकी पुरुषोकी गती'']] |
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− | सिद्धा हि यद्यदिच्छन्ति कुर्वते तदनुग्रहात्।
| + | अबुधानां गतिस्त्वेषा बुधानामपि मे शृणु। |
| + | ये धर्मे श्रेयसि रता विमोक्षरतयो जनाः॥ 3-2-72 |
| + | तदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च। |
| + | तस्माद्धर्मानिमान्सर्वान्नाभिमानात्समाचरेत्॥ 3-2-73 |
| + | इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा दमः। |
| + | अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः॥ 3-2-74 |
| + | अत्र पूर्वश्चतुर्वर्गः पितृयाणपथे स्थितः। |
| + | कर्तव्यमिति यत्कार्यं नाभिमानात्समाचरेत्॥ 3-2-75 |
| + | उत्तरो देवयानस्तु सद्भिराचरितः सदा। |
| + | अष्टाङ्गेनैव मार्गेण विशुद्धात्मा समाचरेत्॥ 3-2-76 |
| + | सम्यक्सङ्कल्पसम्बन्धात्सम्यक्चेन्द्रियनिग्रहात्। |
| + | सम्यग्व्रतविशेषाच्च सम्यक्च गुरुसेवनात्॥ 3-2-77 |
| + | सम्यगाहारयोगाच्च सम्यक्चाध्ययनागमात्। |
| + | सम्यक्कर्मोपसन्न्यासात्सम्यक्चित्तनिरोधनात्॥ 3-2-78 |
| + | एवं कर्माणि कुर्वन्ति संसारविजिगीषवः। |
| + | रागद्वेषविनिर्मुक्ता ऐश्वर्यं देवता गताः॥ 3-2-79 |
| + | रुद्राः साध्यास्तथाऽऽदित्या वसवोऽथ तथाश्विनौ। |
| + | योगैश्वर्येण संयुक्ता धारयन्ति प्रजा इमाः॥ 3-2-80 |
| + | [[:Category:Righteousness|''Righteousness'']] [[:Category:धर्म|''धर्म'']] [[:Category:विवेकी पुरुषोकी गती|''विवेकी पुरुषोकी गती'']] |
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− | तस्मात्तपः समास्थाय कुरुष्वात्ममनोरथम्॥ 3-2-83 | + | तथा त्वमपि कौन्तेय शममास्थाय पुष्कलम्। |
| + | तपसा सिद्धिमन्विच्छ योगसिद्धिं च भारत॥ 3-2-81 |
| + | पितृमातृमयी सिद्धिः प्राप्ता कर्ममयी च ते। |
| + | तपसा सिद्धिमन्विच्छ द्विजानां भरणाय वै॥ 3-2-82 |
| + | सिद्धा हि यद्यदिच्छन्ति कुर्वते तदनुग्रहात्। |
| + | तस्मात्तपः समास्थाय कुरुष्वात्ममनोरथम्॥ 3-2-83 |
| + | [[:Category:Penance|''Penance'']] [[:Category:तपस्या|''तपस्या'']] |
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| इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि पाण्डवानां प्रव्रजने द्वितीयोऽध्यायः॥ 2 ॥ | | इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि पाण्डवानां प्रव्रजने द्वितीयोऽध्यायः॥ 2 ॥ |