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## सामाजिक व्यवस्थाओं का पुनर्निर्माण
 
## सामाजिक व्यवस्थाओं का पुनर्निर्माण
 
### समाज के संगठनों का परिष्कार/पुनरूत्थान या नवनिर्माण
 
### समाज के संगठनों का परिष्कार/पुनरूत्थान या नवनिर्माण
### तन्त्रज्ञान  का समायोजन / तन्त्रज्ञान  नीति / जीवन की इष्ट गति : वर्तमान में तन्त्रज्ञान  की विकास की गति से जीवन को जो गति प्राप्त हुई है उस के कारण सामान्य मनुष्य घसीटा जा रहा है। पर्यावरण सन्तुलन  और सामाजिकता दाँवपर लग गए हैं। ज्ञान, विज्ञान और तन्त्रज्ञान ये तीनों बातें पात्र व्यक्ति को ही मिलनी चाहिये। बंदर के हाथ में पलिता नहीं दिया जाता। इस लिये किसी भी तन्त्रज्ञान के सार्वत्रिकीकरण से पहले उसके पर्यावरण, समाजजीवन और व्यक्ति जीवनपर होनेवाले परिणाम जानना आवश्यक है। हानिकारक तंत्रज्ञान का तो विकास भी नहीं करना चाहिये। किया तो वह केवल सुपात्र को ही अंतरित हो यह सुनिश्चित करना चाहिये। ऐसी स्थिति में जीवन की इष्ट गति की ओर बढानेवाली तन्त्रज्ञान नीति का स्वीकार करना होगा। इष्ट गति के निकषों के लिये अध्याय ३९ में बताई  
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### तन्त्रज्ञान  का समायोजन / तन्त्रज्ञान  नीति / जीवन की इष्ट गति : वर्तमान में तन्त्रज्ञान  की विकास की गति से जीवन को जो गति प्राप्त हुई है उस के कारण सामान्य मनुष्य घसीटा जा रहा है। पर्यावरण सन्तुलन  और सामाजिकता दाँवपर लग गए हैं। ज्ञान, विज्ञान और तन्त्रज्ञान ये तीनों बातें पात्र व्यक्ति को ही मिलनी चाहिये। बंदर के हाथ में पलिता नहीं दिया जाता। इस लिये किसी भी तन्त्रज्ञान के सार्वत्रिकीकरण से पहले उसके पर्यावरण, समाजजीवन और व्यक्ति जीवनपर होनेवाले परिणाम जानना आवश्यक है। हानिकारक तंत्रज्ञान का तो विकास भी नहीं करना चाहिये। किया तो वह केवल सुपात्र को ही अंतरित हो यह सुनिश्चित करना चाहिये। ऐसी स्थिति में जीवन की इष्ट गति की ओर बढानेवाली तन्त्रज्ञान नीति का स्वीकार करना होगा। इष्ट गति के निकषों के लिये [[Bharat's Science and Technology (भारतीय विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान दृष्टि)|इस]] लेख में बताई कसौटी लगानी होगी।  
### लगानी होगी।
 
  
 
=== परिवर्तन की प्रक्रिया ===
 
=== परिवर्तन की प्रक्रिया ===
  
सामाजिक परिवर्तन भौतिक वस्तुओं के परिवर्तन जैसे सरल नहीं होते। भौतिक पदार्थों का एक निश्चित स्वभाव होता है। धर्म होता है। इसे ध्यान में रखकर भौतिक पदार्थों को ढाला जाता है। हर मानव का स्वभाव भिन्न होता है। भिन्न समयपर भी उसमें बदलाव आ सकता है। इसलिये सामाजिक परिवर्तन क्रांति से नहीं उत्क्रांति से ही किये जा सकते हैं। उत्क्रांति की गति धीमी होती है। होनेवाले परिवर्तनों से किसी की हानी नहीं हो या होनेवाली हानी न्यूनतम हो, परिवर्तन स्थाई हों, परिवर्तन से सबको लाभ मिले यह सब देखकर ही प्रक्रिया चलाई जाती है। सामाजिक परिवर्तनों के लिये नई पीढी से प्रारंभ करना यह सबसे अच्छा रास्ता है। लेकिन नई पीढी में व्यापक रूप से परिवर्तन के पहलुओं को स्थापित करने के लिये आवश्यक इतनी पुरानी पीढी के श्रेष्ठ जनों की संख्या आवश्यक है। ऐसे श्रेष्ठ जनों का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में किया गया है -
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सामाजिक परिवर्तन भौतिक वस्तुओं के परिवर्तन जैसे सरल नहीं होते। भौतिक पदार्थों का एक निश्चित स्वभाव होता है। धर्म होता है। इसे ध्यान में रखकर भौतिक पदार्थों को ढाला जाता है। हर मानव का स्वभाव भिन्न होता है। भिन्न समय पर भी उसमें बदलाव आ सकता है। इसलिये सामाजिक परिवर्तन क्रांति से नहीं उत्क्रांति से ही किये जा सकते हैं। उत्क्रांति की गति धीमी होती है। होने वाले परिवर्तनों से किसी की हानि नहीं हो या होने वाली हानि न्यूनतम हो, परिवर्तन स्थाई हों, परिवर्तन से सबको लाभ मिले यह सब देखकर ही प्रक्रिया चलाई जाती है। सामाजिक परिवर्तनों के लिये नई पीढी से प्रारंभ करना यह सबसे अच्छा रास्ता है। लेकिन नई पीढी में व्यापक रूप से परिवर्तन के पहलुओं को स्थापित करने के लिये आवश्यक इतनी पुरानी पीढी के श्रेष्ठ जनों की संख्या आवश्यक है। ऐसे श्रेष्ठ जनों का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में किया गया है:<blockquote>यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।</blockquote><blockquote>स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ (अध्याय ३ श्लोक २१)</blockquote>इसलिये एक दृष्टि से देखा जाए तो यह प्रक्रिया समाज के प्रत्येक व्यक्तितक ले जाने की आवश्यकता नहीं होती। केवल समाज जीवन की सभी विधाओं के श्रेष्ठ लोगों के निर्माण की प्रक्रिया ही परिवर्तन की प्रक्रिया है। एक बार ये लोग निर्माण हो गये तो फिर परिवर्तन तेज याने ज्यामितीय गति से होने लगता है।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन: ।
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* धीमी लेकिन अविश्रांत : हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमें सामाजिक परिवर्तन करना है। समाज एक जीवंत ईकाई होता है। जीवंत ईकाई में परिवर्तन हमेशा धीमी गति से, समग्रता से और अविरत करते रहने से होते हैं। कोई भी शीघ्रता या टुकडों में होनेवाले परिवर्तन हानिकारक होते हैं।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ (अध्याय ३ श्लोक २१)
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* सभी क्षेत्रों में एकसाथ : समाज एक जीवंत ईकाई होने के कारण इसके सभी अंग किसी भी बात से एक साथ प्रभावित होते हैं। प्रभाव का परिमाण कम अधिक होगा लेकिन प्रभाव सभी पर होता ही है। इसलिये परिवर्तन की प्रक्रिया टुकडों में अलग अलग या एक के बाद एक ऐसी नहीं होगी। परिवर्तन की प्रक्रिया धर्म, शिक्षा, शासन, अर्थ, न्याय, समाज संगठन आदि सभी क्षेत्रों में एक साथ चलेगी। ऐसी प्रक्रिया का प्रारंभ होना बहुत कठिन होता है। लेकिन एक बार सभी क्षेत्रों में प्रारंभ हो जाता है तो फिर यह तेजी से गति प्राप्त कर लेती है।
इसलिये एक दृष्टि से देखा जाए तो यह प्रक्रिया समाज के प्रत्येक व्यक्तितक ले जाने की आवश्यकता नहीं होती। केवल समाज जीवन की सभी विधाओं के श्रेष्ठ लोगों के निर्माण की प्रक्रिया ही परिवर्तन की प्रक्रिया है। एक बार ये लोग निर्माण हो गये तो फिर परिवर्तन तेज याने ज्यामितीय गति से होने लगता है।
 
२.१ धीमी लेकिन अविश्रांत : हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमें सामाजिक परिवर्तन करना है। समाज एक जीवंत ईकाई होता है। जीवंत ईकाई में परिवर्तन हमेशा धीमी गति से, समग्रता से और अविरत करते रहने से होते हैं। कोई भी शीघ्रता या टुकडों में होनेवाले परिवर्तन हानिकारक होते हैं।
 
२.२ सभी क्षेत्रों में एकसाथ : समाज एक जीवंत ईकाई होने के कारण इसके सभी अंग किसी भी बात से एकसाथ प्रभावित होते हैं। प्रभाव का परिमाण कम अधिक होगा लेकिन प्रभाव सभीपर होता ही है। इसलिये परिवर्तन की प्रक्रिया टुकडों में अलग अलग या एक के बाद एक ऐसी नहीं होगी। परिवर्तन की प्रक्रिया धर्म, शिक्षा, शासन, अर्थ, न्याय, समाज संगठन आदि सभी क्षेत्रों में एकसाथ चलेगी। ऐसी प्रक्रिया का प्रारंभ होना बहुत कठिन होता है। लेकिन एकबार सभी क्षेत्रों में प्रारंभ हो जाता है तो फिर यह तेजी से गति प्राप्त कर लेती है।
 
  
 
=== परिवर्तन के कारक तत्व ===
 
=== परिवर्तन के कारक तत्व ===
३.१ शिक्षा : शिक्षा का दायरा बहुत व्यापक है। शिक्षा जन्म जन्मांतर चलनेवाली प्रक्रिया होती है। इस जन्म में शिक्षा गर्भधारणा से मृत्यूपर्यंत चलती है। आयु की अवस्था के अनुसार शिक्षा का स्वरूप बदलता है।  
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# शिक्षा : शिक्षा का दायरा बहुत व्यापक है। शिक्षा जन्म जन्मांतर चलनेवाली प्रक्रिया होती है। इस जन्म में शिक्षा गर्भधारणा से मृत्यूपर्यंत चलती है। आयु की अवस्था के अनुसार शिक्षा का स्वरूप बदलता है।  
३.१.२ कुटुम्ब में शिक्षा : कुटुम्ब में शिक्षा का प्रारंभ गर्भधारणा से होता है। मनुष्य की ६०-७० प्रतिशत घडन तो कुटुम्ब में ही होती है। कुटुम्ब में रहकर वह कई बातें सीखता है। कौटुम्बिक भावना, कर्तव्य, सदाचार आदि की शिक्षा कुटुम्ब की ही जिम्मेदारी होती है। व्यवस्थाओं के साथ समायोजन, व्यवस्थाओं के स्वरूप आदि भी वह कुटुम्ब में ही अपने ज्येष्ठों से सीखता है। इंद्रियों के विकास की शिक्षा, व्यावसायिक कौशल भी वह कुटुम्ब में ही सीखता है। कुटुम्ब सामाजिकता की पाठशाला ही होता है। बडों का आदर, स्त्री का आदर आदि भी कुटुम्ब ही सिखाता है।  
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## कुटुम्ब में शिक्षा : कुटुम्ब में शिक्षा का प्रारंभ गर्भधारणा से होता है। मनुष्य की ६०-७० प्रतिशत घडन तो कुटुम्ब में ही होती है। कुटुम्ब में रहकर वह कई बातें सीखता है। कौटुम्बिक भावना, कर्तव्य, सदाचार आदि की शिक्षा कुटुम्ब की ही जिम्मेदारी होती है। व्यवस्थाओं के साथ समायोजन, व्यवस्थाओं के स्वरूप आदि भी वह कुटुम्ब में ही अपने ज्येष्ठों से सीखता है। इंद्रियों के विकास की शिक्षा, व्यावसायिक कौशल भी वह कुटुम्ब में ही सीखता है। कुटुम्ब सामाजिकता की पाठशाला ही होता है। बडों का आदर, स्त्री का आदर आदि भी कुटुम्ब ही सिखाता है।  
३.१.२ कुटुम्ब की शिक्षा : उसी प्रकार से कुटुम्ब के बारे में भी वह कई बातें सीखता है। उसकी व्यक्तिगत, कौटुम्बिक और सामाजिक आदतें बचपन में ही आकार लेतीं हैं। कुटुम्ब का महत्व, समाज में कौटुम्बिक भावना का महत्व, कौटुम्बिक व्यवस्थाओं का महत्व वह कुटुम्ब में सीखता है। भिन्न भिन्न स्वभावों के लोग एक छत के नीचे आत्मीयता से कैसे रहते हैं यह वह कुटुम्ब से ही सीखता है। लगभग सभी प्रकार से कुटुंब यह समाज का लघुरूप ही होता है। कुटुंब यह सामाजिकता की पाठशाला होती है।
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## कुटुम्ब की शिक्षा : उसी प्रकार से कुटुम्ब के बारे में भी वह कई बातें सीखता है। उसकी व्यक्तिगत, कौटुम्बिक और सामाजिक आदतें बचपन में ही आकार लेतीं हैं। कुटुम्ब का महत्व, समाज में कौटुम्बिक भावना का महत्व, कौटुम्बिक व्यवस्थाओं का महत्व वह कुटुम्ब में सीखता है। भिन्न भिन्न स्वभावों के लोग एक छत के नीचे आत्मीयता से कैसे रहते हैं यह वह कुटुम्ब से ही सीखता है। लगभग सभी प्रकार से कुटुंब यह समाज का लघुरूप ही होता है। कुटुंब यह सामाजिकता की पाठशाला होती है।  
३.१.३ विद्याकेन्द्र शिक्षा : विद्याकेन्द्र की शिक्षा शास्त्रीय शिक्षा होती है। कुटुम्ब में सीखे हुए सदाचार के शास्त्रीय पक्ष को समझाने के लिये होती है। कुटुंब में सीखे हुए व्यावसायिक कौशलों को पैना बनाने के लिये होती है। कुटुंब में आत्मसात की हुई श्रेष्ठ परम्पराओं को अधिक उज्वल बनाने के तरीके सीखने के लिए होती है। अध्ययन का और कौशल का शास्त्रीय तरीका सिखने के लिये, अध्ययन को तेजस्वी बनाने के लिये होती है।
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## विद्याकेन्द्र शिक्षा: विद्याकेन्द्र की शिक्षा शास्त्रीय शिक्षा होती है। कुटुम्ब में सीखे हुए सदाचार के शास्त्रीय पक्ष को समझाने के लिये होती है। कुटुंब में सीखे हुए व्यावसायिक कौशलों को पैना बनाने के लिये होती है। कुटुंब में आत्मसात की हुई श्रेष्ठ परम्पराओं को अधिक उज्वल बनाने के तरीके सीखने के लिए होती है। अध्ययन का और कौशल का शास्त्रीय तरीका सिखने के लिये, अध्ययन को तेजस्वी बनाने के लिये होती है।  
३.१.४ लोकशिक्षा : लोकशिक्षा भी समाज जीवन का एक आवश्यक पहलू है। विद्याकेन्द्र की शिक्षा के उपरान्त भी मनुष्य का मन कई बार भ्रमित हो जाता हाय, बुद्धि कुण्ठित हो जाती है। ऐसी स्थिति में लोकशिक्षा की व्यवस्था इस संभ्रम को, इस कुण्ठा को दूर करती है।
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## लोकशिक्षा : लोकशिक्षा भी समाज जीवन का एक आवश्यक पहलू है। विद्याकेन्द्र की शिक्षा के उपरान्त भी मनुष्य का मन कई बार भ्रमित हो जाता हाय, बुद्धि कुण्ठित हो जाती है। ऐसी स्थिति में लोकशिक्षा की व्यवस्था इस संभ्रम को, इस कुण्ठा को दूर करती है।  
३.१.५ परंपरा निर्माण : अपने से अधिक श्रेष्ठ विरासत निर्माण करने की निरंतरता को श्रेष्ठ परंपरा कहते हैं। श्रेष्ठ परंपराओं के निर्माण की तीव्र इच्छा और पैने प्रयास समाज को श्रेष्ठ और चिरंजीवी बनाते हैं।
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## परंपरा निर्माण : अपने से अधिक श्रेष्ठ विरासत निर्माण करने की निरंतरता को श्रेष्ठ परंपरा कहते हैं। श्रेष्ठ परंपराओं के निर्माण की तीव्र इच्छा और पैने प्रयास समाज को श्रेष्ठ और चिरंजीवी बनाते हैं।  
३.२ शासन
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# शासन  
३.२.१ धर्मनिष्ठता : शासक धर्मशास्त्र के जानकार हों। धर्मशास्त्र के पालनकर्ता हों। धर्मशास्त्र के नियमों का प्रजा से अनुपालन करवाने में कुशल हों।
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## धर्मनिष्ठता : शासक धर्मशास्त्र के जानकार हों। धर्मशास्त्र के पालनकर्ता हों। धर्मशास्त्र के नियमों का प्रजा से अनुपालन करवाने में कुशल हों।  
३.२.२ धर्म व्यवस्था के साथ समायोजन : सदैव धर्म के जानकारों से अपना मूल्यांकन करवाएँ। धर्म के जानकारों की सूचनाओं का अनुपालन करें। अधर्म होने से प्रायश्चित्त और पश्चात्ताप के लिये उद्यत रहें।
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## धर्म व्यवस्था के साथ समायोजन : सदैव धर्म के जानकारों से अपना मूल्यांकन करवाएँ। धर्म के जानकारों की सूचनाओं का अनुपालन करें। अधर्म होने से प्रायश्चित्त और पश्चात्ताप के लिये उद्यत रहें।  
३.३ धर्म नेतृत्व
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# धर्म नेतृत्व  
३.३.१ धर्म के मार्गदर्शक : किसी का केवल धर्मशास्त्र का विशेषज्ञ होना पर्याप्त नहीं है। नि:स्वार्थ भाव, निर्भयता भी श्रेष्ठ धर्म के मार्गदर्शकों के लक्षण हैं।
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## धर्म के मार्गदर्शक : किसी का केवल धर्मशास्त्र का विशेषज्ञ होना पर्याप्त नहीं है। नि:स्वार्थ भाव, निर्भयता भी श्रेष्ठ धर्म के मार्गदर्शकों के लक्षण हैं।  
३.३.२ धर्माचरणी : धर्म का मार्गदर्शन करनेवाले लोग अपने व्यवहार में भी धर्मयुक्त होना चाहिये।
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## धर्माचरणी : धर्म का मार्गदर्शन करनेवाले लोग अपने व्यवहार में भी धर्मयुक्त होना चाहिये।  
३.३.३ विजीगिषु स्वभाववाले : धर्म का मार्गदर्शन करनेवाले लोगों के लिये विजीगिषु स्वभाव का होना आवश्यक है। कोई भी संकट आनेपर डगमगाएँ नहीं यह धर्म के मार्गदर्शकों के लिये आवश्यक है।
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## विजीगिषु स्वभाववाले : धर्म का मार्गदर्शन करनेवाले लोगों के लिये विजीगिषु स्वभाव का होना आवश्यक है। कोई भी संकट आनेपर डगमगाएँ नहीं यह धर्म के मार्गदर्शकों के लिये आवश्यक है। धर्म के जानकारों का सबसे पहला कर्तव्य है कि वे वर्तमान काल के लिए धर्मशास्त्र या स्मृति की प्रस्तुति करें। यह स्मृति जीवन के सभी पहलुओं को व्यापने वाली हो। इसकी व्यापकता को समझने की दृष्टि से एक रूपरेखा नीचे दे रहे हैं।  
धर्मं के जानकारों का सबसे पहला कर्तव्य है कि वे वर्तमान काल के लिए धर्मशास्त्र या स्मृति की प्रस्तुति करें। यह स्मृति जीवन के सभी पहलुओं को व्यापनेवाली हो। इसकी व्यापकता को समझने की दृष्टि से एक रूपरेखा नीचे दे रहे हैं।  
 
  
 
== धर्मशास्त्र प्रस्तुति के लिये बिन्दु ==
 
== धर्मशास्त्र प्रस्तुति के लिये बिन्दु ==

Revision as of 09:38, 2 June 2019

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परिवर्तन की योजना को समझने के लिए हमें पहले निम्न बातें फिर से स्मरण करनी होंगी ।

जीवन के भारतीय प्रतिमान की जानकारी के लिए -

  1. जीवनदृष्टि/व्यवहार : भारतीय जीवनदृष्टि और जीवनशैली के विषय में जानकारी के लिये कृपया यह लेख देखें।
  2. व्यवस्था समूह का ढाँचा जीवनदृष्टि से सुसंगत होना चाहिए। कृपया व्यवस्था समूह के ढाँचे के लिये यह लेख और जानकारी के लिए यह लेख देखें।

समस्या मूलों के निराकरण की नीति

समस्या मूल नष्ट करने से तात्पर्य समस्या मूलों पर आघात से नहीं है। समस्याएँ निर्माण ही नहीं हों ऐसी परिस्थितियों, ऐसे समाज संगठनों और ऐसी व्यवस्थाओं के निर्माण से है। निराकरण की प्रक्रिया के ३ चरण होंगे। समस्याओं को और परिवर्तन के स्वरूप को समझना, निराकरण की नीति तय करना और निराकरण का क्रियान्वयन करना।

परिवर्तन के स्वरूप को समझना

समस्या का मूल जीवन के प्रतिमान के परिवर्तन में है। प्रतिमान का आधार समाज की जीवनदृष्टि होती है। व्यवहार, संगठन और व्यवस्थाएँ तो जीवनदृष्टि के आधार पर ही तय होते हैं। इसलिये परिवर्तन की प्रक्रिया में जीवनदृष्टि के परिवर्तन की प्रक्रिया को प्राथमिकता देनी होगी। व्यवहार में सुसंगतता आए इसलिये करणीय अकरणीय विवेक को सार्वत्रिक करना होगा। दूसरे क्रमांक पर संगठन और व्यवस्थाओं में परिवर्तन की प्रक्रिया चलेगी। व्यवस्था परिवर्तन की इस प्रक्रिया में समग्रता और एकात्मता के संदर्भ में व्यवस्था विशेष का आधार बनाने के लिये विषय की सैध्दांतिक प्रस्तुति करनी होगी। जैसे शासन व्यवस्था में यदि उचित परिवर्तन करना है तो पहले राजशास्त्र की सैध्दांतिक प्रस्तुति करना आवश्यक है। समृद्धि व्यवस्था में परिवर्तन करने के लिये समृद्धिशास्त्र की सैध्दांतिक प्रस्तुति करनी होगी। इन सैध्दांतिक प्रस्तुतियों को प्रयोग सिध्द करना होगा। प्रयोगों के आधार पर इन प्रस्तुतियों में उचित परिवर्तन करते हुए आगे बढना होगा। यह काम प्राथमिकता से धर्म के जानकारों का है। दूसरे क्रमांक की जिम्मेदारी शिक्षकों की है। शिक्षक वर्ग ही धर्म को सार्वत्रिक करता है।

निराकरण की नीति

समस्याएँ इतनी अधिक और पेचिदा हैं कि इनका निराकरण अब संभव नहीं है, ऐसा कई विद्वान मानते हैं। हमने जो करणीय और अकरणीय विवेक को समझा है उसके अनुसार कोई भी बात असंभव नहीं होती। ऊपरी तौर पर असंभव लगने पर भी उसे संभव चरणों में बाँटकर संपन्न किया जा सकता है।

इस के लिये नीति के तौर पर हमारा व्यवहार निम्न प्रकार का होना चाहिए:

  • सबसे पहले तो यह हमेशा ध्यान में रखना कि यह पूरे समाज जीवन के प्रतिमान के परिवर्तन का विषय है। इसे परिवर्तन के लिये कई पीढियों का समय लग सकता है। भारत वर्ष के दीर्घ इतिहास में समाज ने कई बार उत्थान और पतन के दौर अनुभव किये हैं। बार बार भारतीय समाज ने उत्थान किया है।
  • परिवर्तन की प्रक्रिया को संभाव्य चरणों में बाँटना।
  • उसमें आज जो हो सकता है उसे कर डालना।
  • आज जिसे करना कठिन लगता है उसके लिये परिस्थितियाँ बनाते जाना। परिस्थितियाँ बनते ही उसे करना।
  • प्रारंभ में जबतक परिवर्तन की प्रक्रिया ने गति नहीं पकडी है, यथासंभव कोई विरोध मोल नहीं लेना।
  • इसी प्रकार से एक एक चरण को संभव बनाते हुए आगे बढ़ाते जाना।

समस्या मूलों का निराकरण

वास्तव में समस्या मूलों को नष्ट करना यह शब्दप्रयोग ठीक नहीं है। उचित प्रतिमान की प्रतिष्ठापना के साथ ही गलत प्रतिमान का अंत अपने आप होता है। जो सर्वहितकारी है, उचित है, श्रेष्ठ है, उसकी प्रतिष्ठापना ही परिवर्तन की प्रक्रिया का स्वरूप होगा। स्वाभाविक जडता के कारण कुछ कठिनाईयाँ तो आएँगी। लेकिन गलत प्रतिमान को नष्ट करने के लिये अलग से शक्ति लगाने की आवश्यकता नहीं है।

समस्या मूल नष्ट करने हेतु धर्म के जानकारों के मार्गदर्शन में शिक्षा की व्याप्ति

  1. जीवनदृष्टि की शिक्षा : जीवनदृष्टि की शिक्षा मुख्यत: कामनाओं और कामनाओं की पूर्ति के प्रयास, धन, साधन और संसाधनों को धर्म के दायरे में रखने की शिक्षा ही है। पुरूषार्थ चतुष्टय की या त्रिवर्ग की शिक्षा ही है।
  2. व्यवस्थाएँ : जीवनदृष्टि के अनुसार व्यवहार हो सके इस हेतु से ही व्यवस्थाओं का निर्माण किया जाता है। व्यवस्थाओं के निर्माण में और उनके क्रियान्वयन में भी जीवनदृष्टि ओतप्रोत रहे इसका ध्यान रखना होगा।
    1. धर्म व्यवस्था
    2. शिक्षा व्यवस्था
    3. शासन व्यवस्था
    4. समृद्धि व्यवस्था
  3. संगठन : समाज संगठन और समाज की व्यवस्थाएँ एक दूसरे को पूरक पोषक होती हैं। लेकिन धर्म व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था और शासन व्यवस्था के अभाव में संगठन निर्माण करना अत्यंत कठिन हो जाता है। वास्तव में ये दोनों अन्योन्याश्रित होते हैं। समाज संगठन की जानकारी के लिये कृपया यह लेख देखें।
    1. कुटुम्ब
    2. स्वभाव समायोजन
    3. आश्रम
    4. कौशल विधा
    5. ग्राम
    6. राष्ट्र
  4. विज्ञान और तन्त्रज्ञान: कृपया यह लेख देखें।
    1. विकास और उपयोग नीति
    2. सार्वत्रिकीकरण

परिवर्तन की योजना

परिवर्तन का स्वरूप

वर्तमान स्वार्थ पर आधारित जीवन के प्रतिमान के स्थान पर आत्मीयता याने कौटुम्बिक भावना पर आधारित जीवन के प्रतिमान की प्रतिष्ठापना:

  1. सर्वे भवन्तु सुखिन:, देशानुकूल और कालानुकूल आदि के संदर्भ में दोनों प्रतिमानों को समझना
  2. प्रतिमान का परिवर्तन
    1. सामाजिक व्यवस्थाओं का पुनर्निर्माण
      1. समाज के संगठनों का परिष्कार/पुनरूत्थान या नवनिर्माण
      2. तन्त्रज्ञान का समायोजन / तन्त्रज्ञान नीति / जीवन की इष्ट गति : वर्तमान में तन्त्रज्ञान की विकास की गति से जीवन को जो गति प्राप्त हुई है उस के कारण सामान्य मनुष्य घसीटा जा रहा है। पर्यावरण सन्तुलन और सामाजिकता दाँवपर लग गए हैं। ज्ञान, विज्ञान और तन्त्रज्ञान ये तीनों बातें पात्र व्यक्ति को ही मिलनी चाहिये। बंदर के हाथ में पलिता नहीं दिया जाता। इस लिये किसी भी तन्त्रज्ञान के सार्वत्रिकीकरण से पहले उसके पर्यावरण, समाजजीवन और व्यक्ति जीवनपर होनेवाले परिणाम जानना आवश्यक है। हानिकारक तंत्रज्ञान का तो विकास भी नहीं करना चाहिये। किया तो वह केवल सुपात्र को ही अंतरित हो यह सुनिश्चित करना चाहिये। ऐसी स्थिति में जीवन की इष्ट गति की ओर बढानेवाली तन्त्रज्ञान नीति का स्वीकार करना होगा। इष्ट गति के निकषों के लिये इस लेख में बताई कसौटी लगानी होगी।

परिवर्तन की प्रक्रिया

सामाजिक परिवर्तन भौतिक वस्तुओं के परिवर्तन जैसे सरल नहीं होते। भौतिक पदार्थों का एक निश्चित स्वभाव होता है। धर्म होता है। इसे ध्यान में रखकर भौतिक पदार्थों को ढाला जाता है। हर मानव का स्वभाव भिन्न होता है। भिन्न समय पर भी उसमें बदलाव आ सकता है। इसलिये सामाजिक परिवर्तन क्रांति से नहीं उत्क्रांति से ही किये जा सकते हैं। उत्क्रांति की गति धीमी होती है। होने वाले परिवर्तनों से किसी की हानि नहीं हो या होने वाली हानि न्यूनतम हो, परिवर्तन स्थाई हों, परिवर्तन से सबको लाभ मिले यह सब देखकर ही प्रक्रिया चलाई जाती है। सामाजिक परिवर्तनों के लिये नई पीढी से प्रारंभ करना यह सबसे अच्छा रास्ता है। लेकिन नई पीढी में व्यापक रूप से परिवर्तन के पहलुओं को स्थापित करने के लिये आवश्यक इतनी पुरानी पीढी के श्रेष्ठ जनों की संख्या आवश्यक है। ऐसे श्रेष्ठ जनों का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में किया गया है:

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ (अध्याय ३ श्लोक २१)

इसलिये एक दृष्टि से देखा जाए तो यह प्रक्रिया समाज के प्रत्येक व्यक्तितक ले जाने की आवश्यकता नहीं होती। केवल समाज जीवन की सभी विधाओं के श्रेष्ठ लोगों के निर्माण की प्रक्रिया ही परिवर्तन की प्रक्रिया है। एक बार ये लोग निर्माण हो गये तो फिर परिवर्तन तेज याने ज्यामितीय गति से होने लगता है।

  • धीमी लेकिन अविश्रांत : हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमें सामाजिक परिवर्तन करना है। समाज एक जीवंत ईकाई होता है। जीवंत ईकाई में परिवर्तन हमेशा धीमी गति से, समग्रता से और अविरत करते रहने से होते हैं। कोई भी शीघ्रता या टुकडों में होनेवाले परिवर्तन हानिकारक होते हैं।
  • सभी क्षेत्रों में एकसाथ : समाज एक जीवंत ईकाई होने के कारण इसके सभी अंग किसी भी बात से एक साथ प्रभावित होते हैं। प्रभाव का परिमाण कम अधिक होगा लेकिन प्रभाव सभी पर होता ही है। इसलिये परिवर्तन की प्रक्रिया टुकडों में अलग अलग या एक के बाद एक ऐसी नहीं होगी। परिवर्तन की प्रक्रिया धर्म, शिक्षा, शासन, अर्थ, न्याय, समाज संगठन आदि सभी क्षेत्रों में एक साथ चलेगी। ऐसी प्रक्रिया का प्रारंभ होना बहुत कठिन होता है। लेकिन एक बार सभी क्षेत्रों में प्रारंभ हो जाता है तो फिर यह तेजी से गति प्राप्त कर लेती है।

परिवर्तन के कारक तत्व

  1. शिक्षा : शिक्षा का दायरा बहुत व्यापक है। शिक्षा जन्म जन्मांतर चलनेवाली प्रक्रिया होती है। इस जन्म में शिक्षा गर्भधारणा से मृत्यूपर्यंत चलती है। आयु की अवस्था के अनुसार शिक्षा का स्वरूप बदलता है।
    1. कुटुम्ब में शिक्षा : कुटुम्ब में शिक्षा का प्रारंभ गर्भधारणा से होता है। मनुष्य की ६०-७० प्रतिशत घडन तो कुटुम्ब में ही होती है। कुटुम्ब में रहकर वह कई बातें सीखता है। कौटुम्बिक भावना, कर्तव्य, सदाचार आदि की शिक्षा कुटुम्ब की ही जिम्मेदारी होती है। व्यवस्थाओं के साथ समायोजन, व्यवस्थाओं के स्वरूप आदि भी वह कुटुम्ब में ही अपने ज्येष्ठों से सीखता है। इंद्रियों के विकास की शिक्षा, व्यावसायिक कौशल भी वह कुटुम्ब में ही सीखता है। कुटुम्ब सामाजिकता की पाठशाला ही होता है। बडों का आदर, स्त्री का आदर आदि भी कुटुम्ब ही सिखाता है।
    2. कुटुम्ब की शिक्षा : उसी प्रकार से कुटुम्ब के बारे में भी वह कई बातें सीखता है। उसकी व्यक्तिगत, कौटुम्बिक और सामाजिक आदतें बचपन में ही आकार लेतीं हैं। कुटुम्ब का महत्व, समाज में कौटुम्बिक भावना का महत्व, कौटुम्बिक व्यवस्थाओं का महत्व वह कुटुम्ब में सीखता है। भिन्न भिन्न स्वभावों के लोग एक छत के नीचे आत्मीयता से कैसे रहते हैं यह वह कुटुम्ब से ही सीखता है। लगभग सभी प्रकार से कुटुंब यह समाज का लघुरूप ही होता है। कुटुंब यह सामाजिकता की पाठशाला होती है।
    3. विद्याकेन्द्र शिक्षा: विद्याकेन्द्र की शिक्षा शास्त्रीय शिक्षा होती है। कुटुम्ब में सीखे हुए सदाचार के शास्त्रीय पक्ष को समझाने के लिये होती है। कुटुंब में सीखे हुए व्यावसायिक कौशलों को पैना बनाने के लिये होती है। कुटुंब में आत्मसात की हुई श्रेष्ठ परम्पराओं को अधिक उज्वल बनाने के तरीके सीखने के लिए होती है। अध्ययन का और कौशल का शास्त्रीय तरीका सिखने के लिये, अध्ययन को तेजस्वी बनाने के लिये होती है।
    4. लोकशिक्षा : लोकशिक्षा भी समाज जीवन का एक आवश्यक पहलू है। विद्याकेन्द्र की शिक्षा के उपरान्त भी मनुष्य का मन कई बार भ्रमित हो जाता हाय, बुद्धि कुण्ठित हो जाती है। ऐसी स्थिति में लोकशिक्षा की व्यवस्था इस संभ्रम को, इस कुण्ठा को दूर करती है।
    5. परंपरा निर्माण : अपने से अधिक श्रेष्ठ विरासत निर्माण करने की निरंतरता को श्रेष्ठ परंपरा कहते हैं। श्रेष्ठ परंपराओं के निर्माण की तीव्र इच्छा और पैने प्रयास समाज को श्रेष्ठ और चिरंजीवी बनाते हैं।
  2. शासन
    1. धर्मनिष्ठता : शासक धर्मशास्त्र के जानकार हों। धर्मशास्त्र के पालनकर्ता हों। धर्मशास्त्र के नियमों का प्रजा से अनुपालन करवाने में कुशल हों।
    2. धर्म व्यवस्था के साथ समायोजन : सदैव धर्म के जानकारों से अपना मूल्यांकन करवाएँ। धर्म के जानकारों की सूचनाओं का अनुपालन करें। अधर्म होने से प्रायश्चित्त और पश्चात्ताप के लिये उद्यत रहें।
  3. धर्म नेतृत्व
    1. धर्म के मार्गदर्शक : किसी का केवल धर्मशास्त्र का विशेषज्ञ होना पर्याप्त नहीं है। नि:स्वार्थ भाव, निर्भयता भी श्रेष्ठ धर्म के मार्गदर्शकों के लक्षण हैं।
    2. धर्माचरणी : धर्म का मार्गदर्शन करनेवाले लोग अपने व्यवहार में भी धर्मयुक्त होना चाहिये।
    3. विजीगिषु स्वभाववाले : धर्म का मार्गदर्शन करनेवाले लोगों के लिये विजीगिषु स्वभाव का होना आवश्यक है। कोई भी संकट आनेपर डगमगाएँ नहीं यह धर्म के मार्गदर्शकों के लिये आवश्यक है। धर्म के जानकारों का सबसे पहला कर्तव्य है कि वे वर्तमान काल के लिए धर्मशास्त्र या स्मृति की प्रस्तुति करें। यह स्मृति जीवन के सभी पहलुओं को व्यापने वाली हो। इसकी व्यापकता को समझने की दृष्टि से एक रूपरेखा नीचे दे रहे हैं।

धर्मशास्त्र प्रस्तुति के लिये बिन्दु

() धर्म की व्याख्याएँ / धर्म की व्याप्ति / त्रिवर्ग की व्याप्ति : सर्वे भवन्तु सुखिन: लक्ष्य हेतु धर्म : संस्कृति () व्यापक धर्मशास्त्र के प्रस्तुति की आवश्यकता: * पूर्व धर्मशास्त्रों की व्यापकता(?) * व्यापकता की आवश्यकता () व्यक्तिगत धर्म / पञ्चविध (कोष) पुरुष धर्म / चतुर्विध पुरूषार्थ /स्वधर्म (वर्णधर्म) शरीरधर्म २. मन-धर्म ३. बुद्धि-धर्म ४. चित्त-धर्म () सामाजिक संबंधों में धर्म व्यक्ति-व्यक्ति : पुरूष-पुरूष या स्त्री-स्त्री १.१ पारिवारिक रिश्ते १.२ पड़ोसी १.३ अतिथि १.४ शत्रु/विरोधक १.५ मित्र/सहायक १.६ सहकारी १.७ अपरिचित १.८ मालिक/नौकर १.९ चरित्रहीन स्त्री/पुरूष १.१० व्यसनी १,११ जरूरतमंद १.१२ समव्यवसायी १.१३ भिन्न व्यवसायी १.१४ याचक १.१५ भिन्न भाषी १.१६ विक्रेता\क्रेता १.१७ भिन्न राष्ट्रीय व्यक्ति-व्यक्ति : पुरूष-स्त्री १.१ पारिवारिक रिश्ते १.२ पड़ोसी १.३ अतिथि १.४ शत्रु/विरोधक १.५ मित्र/सहायक १.६ सहकारी १.७ अपरिचित १.८ मालिक/नौकर १.९ चरित्रहीन स्त्री/पुरूष १.१० व्यसनी १,११ जरूरतमंद १.१२ समव्यवसायी १.१३ भिन्न व्यवसायी १.१४ याचक १.१५ भिन्न भाषी १.१६ विक्रेता\क्रेता १.१७ भिन्न राष्ट्रीय व्यक्ति-समाज : ३.१ व्यक्ति-परिवार ३.२ व्यति-जाति ३.३ पड़ोसी ३.४ सामाजिक संगठन ३.५ व्यक्ति-व्यवस्था ३.६ व्यक्ति-राष्ट्र ३.७ व्यक्ति-विश्व समाज ३.८ व्यक्ति भिन्न भाषी ३.९ परप्रांतीय ३.१० परदेसी समाज-समाज : ४.१ अंतर्राष्ट्रीय : ४.१.१ शत्रु ४.१.२ मित्र ४.१.३ तटस्थ ४.२ अंतर्देशीय ४.१.१ प्रांत-प्रांत ४.१.२ जनपद-जनपद ४.१.३ भाषिक समूह ४.१.४ पंथ समूह ४.१.५ राष्ट्रीय समूह ४.१.६ अराष्ट्रीय समूह ४.१.७ राष्ट्रद्रोही समूह ४.१.८ विदेशी ४.१.९ समव्यवासायी ४.१.१० जाति-जाति ४.१.११ परिवार परिवार () सृष्टिगत सम्बन्धों में धर्म १. मनुष्य-अन्य जीव : १.१ मनुष्य-पालतू प्राणी : १.१.१ शाकाहारी १.१.२ मांसाहारी १.२ मनुष्य अन्य प्राणी : १.२.१ थलचर : १.२.१.१ शाकाहारी १.२.१.२ मांसाहारी १.२.२ जलचर और १.२.३ नभचर १.३ मनुष्य-वनस्पति : १.३.१ जमीन के नीचे १.३.२ जमीन के ऊपर १.३.३ वनस्पति/औषधी १.३.४ खानेयोग्य/अन्न १.३.५ अखाद्य/जहरीली १.३.६ नशीली १.४ मनुष्य-कृमि/कीटक/सूक्ष्म जीव १.४.१ सहायक १.४.२ हानिकारक २. मनुष्य-जड़ प्रकृति / पंचमहाभूत २.१ अनवीकरणीय/खनिज २.१.१ ठोस २.१.२ द्रव २.१.३ वायु (इंधन) २.२ नवीकरणीय : २.२.१ वायु/हवा २.२.२ जल २.२.३ सूर्यप्रकाश २.२.४ लकड़ी () आपद्धर्म : १. प्राकृतिक आपदा २. मानव निर्मित आपदा (लगभग उपर्युक्त सभी विषयों में)

परिवर्तन के पुरोधा

उपर्युक्त बिन्दु २ में बताए गए श्रेष्ठ जन ही परिवर्तन के पुरोधा होंगे। इनका प्रमाण समाज में मुष्किल से ५-७ प्रतिशत ही पर्याप्त होता है। ऐसे श्रेष्ठ जनों में निम्न वर्ग के लोग आते हैं। ४.१ शिक्षक : शिक्षक ज्ञानी, त्यागी, कुशल, समाज हित के लिए समर्पित, धर्म का जानकार, समाज को घडने की सामर्थ्य रखनेवाला होता है। नई पीढी जो परिवर्तन का अधिक सहजता से स्वीकार कर सकती है उसको घडना शिक्षक का काम होता है। इसलिये परिवर्तन की प्रक्रिया का मुख्य पुरोधा शिक्षक ही होता है। ४.२ श्रेष्ठ जन :यहाँ श्रेष्ठ जनों से मतलब भिन्न भिन्न सामाजिक गतिविधियों में जो अग्रणी लोग हैं उनसे है। ४.३ सांप्रदायिक संगठनों के प्रमुख : आजकल समाज का एक बहुत बडा वर्ग जिसमें शिक्षित वर्ग भी है, भिन्न भिन्न संप्रदायों से जुडा है। उन संप्रदायों के प्रमुख भी इस परिवर्तन की प्रक्रिया का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनने की शक्ति रखते हैं। ४.४ लोकशिक्षा के माध्यम : कीर्तनकार, कथाकार, प्रवचनकार, नाटक मंडलि, पुरोहित या उपाध्याय, साधू, बैरागी, सिंहस्थ या कुंभ जैसे मेले, यात्राएँ आदि लोकशिक्षा के माध्यम हुआ करते थे। वर्तमान में ये सब कमजोर और दिशाहीन हो गए हैं। एक ओर इनमें से जिनको पुनर्जीवित कर सकते हैं उन्हें करना। नए आयाम भी जोडे जा सकते हैं। जैसे अभी लगभग देढ दशक पूर्व महाराष्ट्र में प्रारंभ हुई नव-वर्ष स्वागत यात्राएँ आदि।

अंतर्निहित सुधार व्यवस्था

काल के प्रवाह में समाज में हो रहे परिवर्तन और मनुष्य की स्खलनशीलता के कारण बढनेवाला अधर्माचरण ये दो बातें ऐसीं हैं जो किसी भी श्रेष्ठतम समाज को भी नष्ट कर देतीं हैं। इस दृष्टि से जागरूक ऐसे शिक्षक और धर्म के मार्गदर्शक साथ में मिलकर समाज की अंतर्निहित सुधार व्यवस्था बनाते हैं। अपनी संवेदनशीलता और समाज के निरंतर बारीकी से हो रहे अध्ययन के कारण इन्हें संकटों का पूर्वानुमान हो जाता है। अपने निरीक्षणों के आधारपर अपने लोकसंग्रही स्वभाव से ये लोगों को भी संकटों से ऊपर उठने के लिये तैयार करते हैं।

परिवर्तन की नीति

प्रारंभ में विरोध को आमंत्रण नहीं देना। संघर्ष में शक्ति का अपव्यय नहीं करना। जो आज कर सकते हैं उसे करते जाना। जो कल करने की आवश्यकता है उस के लिये परिस्थिति निर्माण करना। परिस्थिति के निर्माण होते ही आगे बढना।

परिवर्तन में अवरोध और उनका निराकरण

शासनाधिष्ठित समाज में स्वार्थ के आधारपर परिवर्तन सरल और तेज गति से होता है। हिटलरने १५-२० वर्षों में ही जर्मनी को एक समर्थ राष्ट्र के रूप में खड़ा कर दिया था। लेकिन धर्म पर आधारित जीवन के प्रतिमान में परिवर्तन की गति धीमी और मार्ग कठिन होता है। स्थाई परिवर्तन और वह भी कौटुम्बिक भावना के आधारपर, तो धीरे धीरे ही होता है। ७.१ अंतर्देशीय ७.१.१ मानवीय जड़ता : परिवर्तन का आनंद से स्वागत करनेवाले लोग समाज में अल्पसंख्य ही होते हैं। सामान्यत: युवा वर्ग ही परिवर्तन के लिए तैयार होता है। इसलिए युवा वर्ग को इस परिवर्तन की प्रक्रिया में सहभागी बनाना होगा। परिवर्तन की प्रक्रिया में युवाओं को सम्मिलित करते जाने से दो तीन पीढ़ियों में परिवर्तन का चक्र गतिमान हो जाएगा। ७.१.२ विपरीत शिक्षा : जैसे जैसे भारतीय शिक्षा का विस्तार समाज में होगा वर्तमान की विपरीत शिक्षा का अपने आप ही क्रमश: लोप होगा। ७.१.३ मजहबी मानसिकता : भारतीय याने धर्म की शिक्षा के उदय और विस्तार के साथ ही मजहबी शिक्षा और उसका प्रभाव भी शनै: शनै: घटता जाएगा। मजहबों की वास्तविकता को भी उजागर करना आवश्यक है। ७.१.४ धर्म के ठेकेदार : जैसे जैसे धर्म के जानकार और धर्म के अनुसार आचरण करनेवाले लोग समाज में दिखने लगेंगे, धर्म के तथाकथित ठेकेदारों का प्रभाव कम होता जाएगा। ७.१.५ शासन तंत्र : इस परिवर्तन की प्रक्रिया में धर्म के जानकारों के बाद शासन की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होगी। धर्माचरणी लोगों को समर्थन, सहायता और संरक्षण देने का काम शासन को करना होगा। इस के लिए शासक भी धर्म का जानकार और धर्मनिष्ठ हो, यह भी आवश्यक है। धर्म के जानकारों को यह सुनिश्चित करना होगा की शासक धर्माचरण करनेवाले और धर्म के जानकर हों। ७.१.६ जीवन का अभारतीय प्रतिमान : जीवन के सभी क्षेत्रों में एकसाथ जीवन के प्रतिमान के परिवर्तन की प्रक्रिया को चलाना यह धर्म के जानकारों की जिम्मेदारी होगी। शिक्षा की भूमिका इसमें सबसे महत्वपूर्ण होगी। शिक्षा के माध्यम से समूचे जीवन के भारतीय प्रतिमान की रुपरेखा और प्रक्रिया को समाजव्यापी बनाना होगा। धर्मं-शरण शासन इसमें सहायता करेगा। ७.१.७ तन्त्रज्ञान समायोजन : तन्त्रज्ञान के क्षेत्र में भारत के सामने दोहरी चुनौती होगी। एक ओर तो विश्व में जो तन्त्रज्ञान के विकास की होड़ लगी है उसमें अपनी विशेषताओं के साथ अग्रणी रहना। इस दृष्टि से विकास हेतु कुछ तन्त्रज्ञान निम्न हो सकते हैं। - शून्य प्रदुषण रासायनिक उद्योग। - सस्ती सौर उर्जा। - प्रकृति में सहजता से घुलनशील प्लैस्टिक का निर्माण। - औरों द्वारा प्रक्षेपित शस्त्रों/अणु-शस्त्रों का शमन करने का तंत्रज्ञान। ...............आदि और दूसरी ओर वैकल्पिक विकेंद्रीकरणपर आधारित तन्त्रज्ञान का विकास कर उसे विश्व में प्रतिष्ठित करना। इस प्रकार के तन्त्रज्ञान में निम्न प्रकार के तन्त्रज्ञान होंगे। - कौटुम्बिक उद्योगों के लिये, स्थानिक संसाधनों के उपयोग के लिए तन्त्रज्ञान - भिन्न भिन्न कार्यों के लिये पशु-उर्जा के अधिकाधिक उपयोग के लिये तंत्रज्ञान - नविकरणीय प्राकृतिक संसाधनों से विविध पदार्थों के निर्माण से आवश्यकताओं की पूर्ति तथा संसाधनों के पुनर्भरण के लिये सरल तन्त्रज्ञान का विकास - मानव की प्राकृतिक क्षमताओं का विकास करनेवाली प्रक्रियाओं का अनुसंधान। ......... आदि ७.२ अंतर्राष्ट्रीय ७.२.१ मजहबी विस्तारवादी मानसिकता : वर्तमान में यह मुख्यत: ३ प्रकार की है। ईसाई, मुस्लिम और वामपंथी। यह तीनों ही विचारधाराएँ अधूरी हैं, एकांगी हैं। यह तो इन के सम्मुख ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ को लेकर कोई चुनौती खड़ी नहीं होने से इन्हें विश्व में विस्तार का अवसर मिला है। जैसे ही ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का विचार लेकर भारत एक वैश्विक शक्ति के रूप में खड़ा होगा इनके पैरोंतले की जमीन खिसकने लगेगी। ७.२.२ आसुरी महत्वाकांक्षा : ऊपर जो बताया गया है वह, आसुरी महत्वाकांक्षा रखनेवाली वैश्विक शक्तियों के लिये भी लागू है। आसुरी महत्वाकांक्षाओं को परास्त करने की परंपरा भारत में युगों से रही है।

परिवर्तन के लिये समयबध्द करणीय कार्य

समूचे जीवन के प्रतिमान का परिवर्तन यह एक बहुत बृहद् और जटिल कार्य है। इस के लिये इसे सामाजिक अभियान का रूप देना होगा। समविचारी लोगों को संगठित होकर सहमति से और चरणबध्द पध्दति से प्रक्रिया को आगे बढाना होगा। बड़े पैमानेपर जीवन के हर क्षेत्र में जीवन के भारतीय प्रतिमान की समझ रखनेवाले और कृतीशील ऐसे लोग याने आचार्य निर्माण करने होंगे। परिवर्तन के चरण एक के बाद एक और एक के साथ सभी इस पध्दति से चलेंगे। जैसे दूसरे चरण के काल में ५० प्रतिशत शक्ति और संसाधन दूसरे चरणके निर्धारित विषयपर लगेंगे। और १२.५-१२.५ प्रतिशत शक्ति और संसाधन चरण १, ३, ४ और ५ में प्रत्येकपर लगेंगे। १. समविचारी लोगों का ध्रुवीकरण : जिन्हें प्रतिमान के परिवर्तन की आस है और समझ भी है ऐसे समविचारी, सहचित्त लोगों का ध्रुवीकरण करना होगा। उनमें एक व्यापक सहमति निर्माण करनी होगी। अपने अपने कार्यक्षेत्र में क्या करना है इसका स्पष्टीकरण करना होगा। २. अभियान के चरण : अभियान को चरणबध्द पध्दति से चलाना होगा। १२ वर्षों के ये पाँच चरण होंगे। ऐसी यह ६० वर्ष की योजना होगी। यह प्रक्रिया तीन पीढीतक चलेगी। तीसरी पीढी में परिवर्तन के फल देखने को मिलेंगे। लेकिन तबतक निष्ठा से और धैर्य से अभियान को चलाना होगा। निरंतर मूल्यांकन करना होगा। राह भटक नहीं जाए इसके लिये चौकन्ना रहना होगा। २.१ अध्ययन और अनुसंधान : जीवन का दायरा बहुत व्यापक होता है। अनगिनत विषय इसमें आते हैं। इसलिये प्रतिमान के बदलाव से पहले हमें दोनों प्रतिमानों के विषय में और विशेषत: जीवन के भारतीय प्रतिमान के विषय में बहुत गहराई से अध्ययन करना होगा। मनुष्य की इच्छाओं का दायरा, उनकी पूर्ति के लिये वह क्या क्या कर सकता है आदि का दायरा अति विशाल है। इन दोनों को धर्म के नियंत्रण में ऐसे रखा जाता है इसका भी अध्ययन अनिवार्य है। मनुष्य के व्यक्तित्व को ठीक से समझना, उसके शरीर, मन, बुध्दि, चित्त, अहंकार आदि बातों को समझना, कर्मसिध्दांत को समझना, जन्म जन्मांतर चलने वाली शिक्षा की प्रक्रिया को समझना विविध विषयों के अंगांगी संबंधों को समझना, प्रकृति के रहस्यों को समझना आदि अनेकों ऐसी बातें हैं जिनका अध्ययन हमें करना होगा। इनमें से कई विषयों के संबंध में हमारे पूर्वजों ने विपुल साहित्य निर्माण किया था। उसमें से कितने ही साहित्य को जाने अंजाने में प्रक्षेपित किया गया है। इस प्रक्षिप्त हिस्से को समझ कर अलग निकालना होगा। शुध्द भारतीय तत्वोंपर आधारित ज्ञान को प्राप्त करना होगा। अंग्रेजों ने भारतीय साहित्य, इतिहास के साथ किये खिलवाड, भारतीय समाज में झगडे पैदा करने के लिये निर्मित साहित्य को अलग हटाकर शुध्द भारतीय याने एकात्म भाव की या कौटुम्बिक भाव की जितनी भी प्रस्तुतियाँ हैं उनका अध्ययन करना होगा। मान्यताओं, व्यवहार सूत्रों, संगठन निर्माण और व्यवस्था निर्माण की प्रक्रिया को समझना होगा। २.२ लोकमत परिष्कार : अध्ययन से जो ज्ञान उभरकर सामने आएगा उसे लोगोंतक ले जाना होगा। लोगों का प्रबोधन करना होगा। उन्हें फिर से समग्रता से और एकात्मता से सोचने और व्यवहार करने का तरीका बताना होगा। उन्हें उनकी सामाजिक जिम्मेदारी का समाजधर्म का अहसास करवाना होगा। वर्तमान की परिस्थितियों से सामान्यत: कोई भी खुश नहीं है। लेकिन जीवन का भारतीय प्रतिमान ही उनकी कल्पना के अच्छे दिनों का वास्तव है यह सब के मन में स्थापित करना होगा। २.३ संयुक्त कुटुम्ब : कुटुम्ब ही समाजधर्म सीखने की पाठशाला होता है। संयुक्त कुटुम्ब तो वास्तव में समाज का लघुरूप ही होता है। सामाजिक समस्याओं में से लगभग ७० प्रतिशत समस्याओं को तो केवल अच्छा संयुक्त कुटुम्ब ही निर्मूल कर देता है। समाज जीवन के लिये श्रेष्ठ लोगों को जन्म देने का काम, श्रेष्ठ संस्कार देने का काम, अच्छी आदतें डालने काम आजकल की फॅमिली पध्दति नहीं कर सकती। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जो तेजस्वी नेतृत्व का अभाव निर्माण हो गया है उसे दूर करना यह भारतीय मान्यताओं के अनुसार चलाए जानेवाले संयुक्त परिवारों में ही हो सकता है। इसलिये समाज का नेतृत्व करेंगे ऐसे श्रेष्ठ बालकों को जन्म देने के प्रयास तीसरे चरण में होंगे। २.४ शिक्षक/धर्मज्ञ और शासक निर्माण : समाज परिवर्तन में शिक्षक की और शासक की ऐसे दोनों की भुमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। संयुक्त परिवारों में जन्म लिये बच्चों में से अब श्रेष्ठ धर्म के मार्गदर्शक, शिक्षक और शासक निर्माण करने की स्थिति होगी। ऐसे लोगों को समर्थन और सहायता देनेवाले कुटुम्ब और दूसरे चरण में निर्माण किये समाज के परिष्कृत विचारोंवाले सदस्य अब कुछ मात्रा में उपलब्ध होंगे। २.५ संगठन और व्यवस्थाओं की प्रतिष्ठापना : श्रेष्ठ धर्म के अधिष्ठाता/मार्गदर्शक, सामर्थ्यवान शिक्षक और कुशल शासक अब प्रत्यक्ष संगठन का सशक्तिकरण और व्यवस्थाओं का निर्माण करेंगे।

References


अन्य स्रोत: