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| == धर्म उपासना के रूप में == | | == धर्म उपासना के रूप में == |
− | धर्म का यह स्वरूप बड़ा अद्भुत है । साथ ही मनुष्य की नवनवोन्मेषशालिनी कल्पनाशक्ति और सृजनशीलता का यह अतुलनीय आविष्कार है। सृष्टि के जिन जिन पदार्थों ने उसका जीवन सुकर और सुखद बनाया उन तत्वों में उसने देवत्व देखा। उनके प्रति एकात्मता का अनुभव कर काव्य में उसे स्थान दिया और अनेक प्रकार से उनका गुणगान किया। देवत्व की कल्पना के आधार पर मुूर्तिविधान किया। मूर्तिविधान में भावना तो थी ही साथ ही प्राकृतिक पदार्थों के स्वभाव और व्यवहार का पूर्ण ज्ञान भी था और निर्माण कौशल भी था। इस प्रकार अपनी सर्व प्रकार की क्षमताओं का विनियोग आनंदऔर कृतज्ञता के रूप में व्यक्त कर उसने लौकिक सुख का उन्नयन किया। भौतिक समृद्धि, ज्ञान, पवित्रता, स्वास्थ्य, पोषण, संयम, त्याग आदि सर्व प्रकार के तत्वों को मूर्तरूप देकर उनका पूजा विधान बनाया। इसमें से विभिन्न उपासना पद्धतियों का विकास किया। हम देखते हैं कि नाना प्रकार की पूजाविधियों में सुन्दरता है, कुशलता है, निश्चितता है, भावना है, आनंद है, कृतज्ञता है, ज्ञान है, पवित्रता है, अपने और सर्व के सुख और कल्याण की कामना है। एकात्मता और समग्रता का यह विस्मयकारक | + | धर्म का यह स्वरूप बड़ा अद्भुत है । साथ ही मनुष्य की नवनवोन्मेषशालिनी कल्पनाशक्ति और सृजनशीलता का यह अतुलनीय आविष्कार है। सृष्टि के जिन जिन पदार्थों ने उसका जीवन सुकर और सुखद बनाया उन तत्वों में उसने देवत्व देखा। उनके प्रति एकात्मता का अनुभव कर काव्य में उसे स्थान दिया और अनेक प्रकार से उनका गुणगान किया। देवत्व की कल्पना के आधार पर मुूर्तिविधान किया। मूर्तिविधान में भावना तो थी ही साथ ही प्राकृतिक पदार्थों के स्वभाव और व्यवहार का पूर्ण ज्ञान भी था और निर्माण कौशल भी था। इस प्रकार अपनी सर्व प्रकार की क्षमताओं का विनियोग आनंदऔर कृतज्ञता के रूप में व्यक्त कर उसने लौकिक सुख का उन्नयन किया। भौतिक समृद्धि, ज्ञान, पवित्रता, स्वास्थ्य, पोषण, संयम, त्याग आदि सर्व प्रकार के तत्वों को मूर्तरूप देकर उनका पूजा विधान बनाया। इसमें से विभिन्न उपासना पद्धतियों का विकास किया। हम देखते हैं कि नाना प्रकार की पूजाविधियों में सुन्दरता है, कुशलता है, निश्चितता है, भावना है, आनंद है, कृतज्ञता है, ज्ञान है, पवित्रता है, अपने और सर्व के सुख और कल्याण की कामना है। एकात्मता और समग्रता का यह विस्मयकारक आविष्कार है। इस अनंत वैविध्यपूर्ण पूजा पद्धतियों के विधान के ही शास्त्र बने, स्तोत्र बने और सम्प्रदाय बने। ये सम्प्रदाय मनुष्य के मन को, आचार को, सम्पूर्ण जीवनचर्या को नियमन में रखने के साधन बने। अनेक देवी देवता और उनका उपासना विधान इस वैविध्य का परिचायक है। |
− | आविष्कार है। इस अनंत वैविध्यपूर्ण पूजा पद्धतियों के | |
− | विधान के ही शास्त्र बने, स्तोत्र बने और सम्प्रदाय बने । ये | |
− | सम्प्रदाय मनुष्य के मन को, आचार को, सम्पूर्ण जीवनचर्या | |
− | को नियमन में रखने के साधन बने । अनेक देवी देवता | |
− | और उनका उपासना विधान इस वैविध्य का परिचायक है । | |
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− | उपासना जीवन का ऐसा अनिवार्य अंग है कि वह | + | उपासना जीवन का ऐसा अनिवार्य अंग है कि वह इष्टदेवता बन व्यक्ति के साथ, कुलदेवता बन कुल के साथ, ग्रामदेवता बन पूरे गाँव के साथ जुड़ गया। विभिन्न समूहों के विभिन्न सम्प्रदाय बने। सदाचार, सद्गुण, सहयोग, सेवाकार्य, उत्सव, मेले, सत्संग, कथा, कीर्तन, यात्रा, मन्दिर आदि के रूप में यह सम्प्रदायधर्म समाजव्यापी है। आचारधर्म का अन्य एक आयाम दान, अन्नसत्र, धर्मशाला, प्याऊ, जलाशयों का निर्माण आदि भी व्यापक रूप में प्रचलित हैं । |
− | इष्टदेवता बन व्यक्ति के साथ, कुलदेवता बन कुल के साथ, | |
− | ग्रामदेवता बन पूरे गाँव के साथ जुड़ गया । विभिन्न समूहों | |
− | के विभिन्न सम्प्रदाय बने । सदाचार, सदुण, सहयोग, | |
− | सेवाकार्य, उत्सव, मेले, सत्संग, कथा, कीर्तन, यात्रा, | |
− | मन्दिर आदि के रूप में यह सम्प्रदायधर्म समाजव्यापी है । | |
− | आचारधर्म का अन्य एक आयाम दान, अन्नसत्र, धर्मशाला, | |
− | प्याऊ, जलाशयों का निर्माण आदि भी व्यापक रूप में | |
− | प्रचलित हैं । | |
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− | आज अन्य अच्छी बातों कि तरह उपासना या | + | आज अन्य अच्छी बातों की तरह उपासना या सम्प्रदाय को भी विकृत बनाया गया है और विकृत रूप में प्रस्तुत किया जाता है और विवाद का विषय बना दिया जाता है। जीवन धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता, यह बहुत सीधी सादी समझ की बात है परन्तु उसके बावजूद धर्मनिरपेक्षता का नारा दिया जाता है। इस नारे के लिए देश के संविधान की दुहाई दी जाती है परन्तु संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द नहीं है, पंथनिरपेक्ष शब्द है। फिर भी धर्म के नाम पर वाद विवाद खड़ा कर कोलाहल मचाया जाता है। पंथ अर्थात् सम्प्रदाय भी हेय नहीं है परन्तु सर्वपंथसमादर का विवेक और सौजन्य छोड़कर उनके नाम पर झगड़े किए जाते हैं और सार्वजनिक वार्तालाप में उसे नकारा जाता है। यह स्थिति बहुत घातक है, इसका उपाय करने की आवश्यकता है। |
− | सम्प्रदाय को भी विकृत बनाया गया है और विकृत रूप में | |
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− | प्रस्तुत किया जाता है और विवाद का
| + | धर्मपुरुषार्थ साधना का विषय है। वह शिक्षा का मुख्य सन्दर्भ है। वह काम और अर्थ को नियंत्रित करता है और उन्हें प्रतिष्ठा देता है। यह मनुष्य का सर्व प्रकार से उन्नयन करता है। वह जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने की ओर मनुष्य को अग्रसर बनाता है। ऐसे धर्म की रक्षा करनी चाहिए। जब इसकी रक्षा हम करते हैं तो ऐसा धर्म फिर हमारी रक्षा करता है। धर्म की रक्षा करना हर मनुष्य का कर्तव्य है। महाभारत में बार बार अनेक मुखों से कहा गया है “यतोधर्मस्ततोजय:' अर्थात जहाँ धर्म है वहीं जय है। ऐसा यह सर्वदा सर्वरक्षक धर्म है जो मनुष्य के लिए सारी शक्ति लगाकर आचरणीय है । |
− | विषय बना दिया जाता है। जीवन धर्मनिरपेक्ष नहीं हो
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− | सकता यह बहुत सीधी सादी समझ की बात है परन्तु उसके
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− | बावजूद धर्मनिरपेक्षता का नारा दिया जाता है । इस नारे के
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− | लिए देश के संविधान की दुहाई दी जाती है परन्तु संविधान
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− | में धर्मनिरपेक्ष शब्द नहीं है, पंथनिरपेक्ष शब्द है । फिर भी
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− | धर्म के नाम पर वाद विवाद खड़ा कर कोलाहल मचाया | |
− | जाता है। पंथ अर्थात् सम्प्रदाय भी हेय नहीं है परन्तु
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− | सर्वपंथसमादर का विवेक और सौजन्य छोड़कर उनके नाम
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− | पर झगड़े किए जाते हैं और सार्वजनिक वार्तालाप में उसे
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− | नकारा जाता है । यह स्थिति बहुत घातक है, इसका उपाय
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− | करने की आवश्यकता है ।
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− | धर्मपुरुषार्थ साधना का विषय है । वह शिक्षा का
| + | == धर्म पुरुषार्थ हेतु शिक्षा == |
− | मुख्य सन्दर्भ है । वह काम और अर्थ को नियंत्रित करता है
| + | शिक्षा वही है जो धर्म सिखाती है, ऐसा एक वाक्य में शिक्षा का वर्णन किया जा सकता है। बहुत प्रसिद्ध सुभाषित हम जानते ही हैं: |
− | और उन्हें प्रतिष्ठा देता है । यह मनुष्य का सर्व प्रकार से
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− | उन्नयन करता है । वह जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने
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− | की ओर मनुष्य को अग्रसर बनाता है । ऐसे धर्म की रक्षा
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− | करनी चाहिए । जब इसकी रक्षा हम करते हैं तो ऐसा धर्म
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− | फिर हमारी रक्षा करता है । धर्म की रक्षा करना हर मनुष्य
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− | का कर्तव्य है। महाभारत में बार बार अनेक मुखों से
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− | कहा गया है “यतोधर्मस्ततोजय:ः' अर्थात जहाँ धर्म है वहीं
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− | जय है ।
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− | ऐसा यह सर्वदा सर्वरक्षक धर्म है जो मनुष्य के लिए
| + | आहारनिद्राभयमैथुनम च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।<blockquote>धर्मों ही तेघामधिकों विशेष: धर्मेण हिना: पशुभी: समाना: ॥।</blockquote><blockquote>अर्थात्, आहार, निद्रा भय और मैथुन के मामले में |
− | सारी शक्ति लगाकर आचरणीय है ।
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− | == धर्म पुरुषार्थ हेतु शिक्षा ==
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− | शिक्षा वही है जो धर्म सिखाती है, ऐसा एक वाक्य
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− | में शिक्षा का वर्णन किया जा सकता है । बहुत प्रसिद्ध
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− | सुभाषित हम जानते ही हैं
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− | आहारनिद्राभयमैथुनम च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्। | |
− | धर्मों ही तेघामधिकों विशेष: धर्मेण हिना: पशुभी: समाना: ॥। | |
− | अर्थात्, आहार, निद्रा भय और मैथुन के मामले में | |
| तो पशु और मनुष्य समान ही हैं । दोनों की भिन्नता धर्म के | | तो पशु और मनुष्य समान ही हैं । दोनों की भिन्नता धर्म के |
− | कारण ही है । बिना धर्म के मनुष्य पशु के समान ही है । | + | कारण ही है । बिना धर्म के मनुष्य पशु के समान ही है ।</blockquote>अत: शिक्षा को धर्म सिखाना चाहिए । इसका अर्थ है शिक्षा से मनुष्य को धर्म का पालन करना आना चाहिए। धर्म पुरुषार्थ हेतु शिक्षा के आयाम इस प्रकार हैं: |
− | | + | # धर्म को आज विवाद का विषय बना दिया गया है । इसलिए धर्मशिक्षा के स्थान पर आज मूल्यशिक्षा ऐसा शब्द प्रयोग किया जाता है। अनेक बार उसे नैतिक अथवा आध्यात्मिक शिक्षा भी कहा जाता है। वह वास्तव में धर्मशिक्षा ही है। |
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| + | # धर्मशिक्षा सम्प्रदाय की शिक्षा नहीं है। पूर्व में हमने धर्म का अर्थविस्तार देखा है। उन सारे अर्थों में धर्म की शिक्षा ही धर्म-पुरुषार्थ की शिक्षा है। |
− | | + | # धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा छोटे बड़े सब के लिए अनिवार्य होनी चाहिए । चाहे वह डॉक्टर बने या कंप्यूटर निष्णात, चाहे वह मंत्री बने या सरकारी कर्मचारी, चाहे वह साहित्य पढ़े या चित्रकला, चाहे वह वाणिज्य पढ़े या तत्वज्ञान, चाहे वह केवल प्राथमिक शिक्षा तक ही पढ़े या उच्चविद्याविभूषित बने, चाहे वह मजदूर बने या उद्योजक, छात्र को धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा अनिवार्य रूप से प्राप्त करनी चाहिए क्योंकि धर्म ही समाजजीवन का आधार है। |
− | अत: शिक्षा को धर्म सिखाना चाहिए । इसका अर्थ है | + | # धर्म केवल जानकारी का विषय नहीं है। वह मानसिकता का और आचरण का विषय है। उसी रूप में उसकी शिक्षा की योजना करनी चाहिए। |
− | | + | # बाल अवस्था में शारीरिक और मानसिक आदतें बनती हैं। उसी समय धर्मशिक्षा आचार के रूप में देनी चाहिए। यह इतना अनिवार्य होना चाहिए कि जब तक आचरण शुद्ध और पवित्र नहीं होता, सत्य, प्रामाणिकता, संयम, विनय, दान, दया और परोपकार की वृत्ति विकसित नहीं होती तब तक प्रगत शिक्षा में प्रवेश ही नहीं मिलना चाहिए। वैसे चरित्र और अच्छे व्यवहार का प्रमाणपत्र आज भी उच्चशिक्षा में या सरकारी सेवा में मांगा जाता है परन्तु उसे बहुत औपचारिक बना दिया गया है। वास्तव में अच्छे चरित्र की न तो व्याख्या की जाती है न अपेक्षा। |
− | शिक्षा से मनुष्य को धर्म का पालन करना आना चाहिए । | + | # इसका अर्थ यह भी है कि सबको चरित्र और अच्छे व्यवहार की आवश्यकता तो लगती है परन्तु उसे प्राप्त करने की कोई व्यवस्था नहीं की जाती। स्वार्थ और स्वकेन्द्रित्ता को विकास का मापदंड बनाने से तो यह प्राप्त होना सम्भव भी नहीं है क्योंकि धर्मशिक्षा शुरू ही होती है स्वार्थ और स्वकेंद्रितता छोड़ने से। |
− | धर्म पुरुषार्थ हेतु शिक्षा के आयाम इस प्रकार हैं ... | + | # प्रसिद्ध चिन्तक जे. कृष्णमूर्ति ने आज के बौद्धिक जगत के व्यवहार का वर्णन करते हुए कहा है कि इन्हें जाना तो होता है दक्षिण दिशा में परन्तु बैठते हैं उत्तर में जाने वाली गाड़ी में और गंतव्य स्थान आता नहीं है तब व्यवस्थाओं को कोसते हैं। शिक्षा के मामले में ठीक यही हो रहा है। हमें जाना तो है पूर्व में परन्तु प्रत्यक्ष यात्रा चल रही है पश्चिमाभिमुख होकर। हम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते, और तब सरकार, कलियुग, बाजारीकरण, यूरोप आदि को दोष देते हैं। लाख समझाने पर या समझने पर भी हम दिशा परिवर्तन करने का साहस नहीं जुटा सकते। अधर्म के रास्ते पर चलकर धर्म की, या आज की भाषा में कहें तो मूल्यों की अपेक्षा करते हैं। जबकि दिशा परिवर्तन अनिवार्य है। |
− | | + | # योग के प्रथम दो अंग यम और नियम वास्तव में धर्मशिक्षा ही है। व्यक्तिगत और समष्टिगत, सृष्टिगत व्यवहार को ठीक करने के वे सार्वभौम महाव्रत हैं। इन्हें आचार के रूप में प्रस्थापित करना योगशिक्षा का महत्वपूर्ण अंग है और सारी शिक्षा का आधार है। हमने तो आज योग को भी शारीरिक शिक्षा का अंग बनाकर चिकित्सा का, प्रदर्शन का, स्पर्धा का विषय बना दिया है। प्रयत्नपूर्वक इसे बदलना चाहिए। |
− | g. धर्म को आज विवाद का विषय बना दिया गया है ।
| + | # सारे विषयों के साथ धर्मशिक्षा को जोड़ना चाहिए । वह आचार के रूप में नहीं अपितु विषयों के स्वरूप और सिद्धांतों को मूल्यनिष्ठ बनाकर । उदाहरण के लिए, आज अर्थशास्त्र में पढाया जाता है कि अर्थशास्त्र का धर्म या मूल्यों से कोई लेना देना नहीं है। उसके स्थान पर अर्थशास्त्र शिक्षाधर्म के अविरोधी ही होनी चाहिए, यह सिद्धान्त बनना चाहिए। दान और बचत अर्थव्यवहार के अनिवार्य अंग बनने चाहिए । बाँधवों को दिये बिना किसी प्रकार का उपभोग नहीं करना चाहिए । |
− | इसलिए धर्मशिक्षा के स्थान पर आज मूल्यशिक्षा ऐसा | + | # धर्म और अधर्म को जानने का विवेक विकसित करना चाहिए। अधर्म का त्याग और धर्म का स्वीकार करने के लिए सदा उद्यत होना चाहिए। धर्म की रक्षा के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए। विपत्तियों में भी धर्म का त्याग न करें ऐसी धर्मनिष्ठा विकसित करनी चाहिए। उदाहरण के लिए आज बच्चे और बड़े स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हों तो भी, संस्कार दूषित हों तो भी न खाने के पदार्थ खाते हैं क्योंकि संयम का और शुचिता के आग्रह का अभाव है। विदेशी वस्तुयें खरीदने से हमारे देश का आर्थिक नुकसान होता है यह जानते हुए भी विदेशी वस्तुयें खरीदते हैं क्योंकि देशभक्ति का अभाव है। धर्म की परीक्षा व्यवहार से ही होती है। |
− | Megat frat जाता है । अनेक बार उसे नैतिक
| + | # जगत के विभिन्न धर्मों का अध्ययन भी करना चाहिए। सबमें समानता और भेद क्या हैं इसका आकलन होना चाहिए। अपने धर्म की विशेषतायें, उनका महत्व आदि भी जानना चाहिए। धर्म और सम्प्रदाय का अंतर क्या है, सम्प्रदायनिरपेक्षेता का क्या अर्थ है, सम्प्रदाय बनते किस प्रकार हैं, संप्रदायों का झगड़ा क्यों होता है, धार्मिक कट्टरता कैसे पनपती है, धर्मयुद्ध क्या है, धर्मयुद्ध और जिहाद में क्या अंतर है, आज धर्म की जो स्थिति है उसे बदलना है तो हमारी भूमिका क्या होगी आदि सब धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा का हिस्सा होना चाहिए। |
− | अथवा आध्यात्मिक शिक्षा भी कहा जाता है । वह | + | इस प्रकार धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा सम्पूर्ण शिक्षा का सार है। वह परम पुरुषार्थ की ओर अग्रसर होना सम्भव बनाती है। |
− | वास्तव में धर्मशिक्षा ही है । | |
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− | २... धर्मशिक्षा सम्प्रदाय की शिक्षा नहीं है । पूर्व में हमने
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− | धर्म का अर्थविस्तार देखा है । उन सारे आर्थों में धर्म | |
− | की शिक्षा ही धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा है । | |
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− | 3. धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा छोटे बड़े सब के लिए
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− | अनिवार्य होनी चाहिए । चाहे वह डॉक्टर बने या | |
− | कंप्यूटर निष्णात, चाहे वह मंत्री बने या सरकारी | |
− | कर्मचारी, चाहे वह साहित्य पढ़े या चित्रकला, | |
− | चाहे वह वाणिज्य पढ़े या तत्वज्ञान, चाहे वह | |
− | केवल प्राथमिक शिक्षा तक ही पढ़े या | |
− | उच्चविद्याविभूषित बने, चाहे वह मजदूर बने या | |
− | उद्योजक, छात्र को धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा अनिवार्य | |
− | रूप से प्राप्त करनी चाहिए क्योंकि धर्म ही | |
− | समाजजीवन का आधार है । | |
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− | ¥. धर्म केवल जानकारी का विषय नहीं है। वह
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− | मानसिकता का और आचरण का विषय है । उसी | |
− | रूप में उसकी शिक्षा की योजना करनी चाहिए । | |
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− | Gq. बाल अवस्था में शारीरिक और मानसिक आदतें
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− | बनती हैं । उसी समय धर्मशिक्षा आचार के रूप में | |
− | देनी चाहिए । यह इतना अनिवार्य होना चाहिए कि | |
− | जब तक आचरण शुद्ध और पवित्र नहीं होता, सत्य, | |
− | प्रामाणिकता, संयम, विनय,दान,दया और परोपकार | |
− | की वृत्ति विकसित नहीं होती तब तक प्रगत शिक्षा में | |
− | प्रवेश ही नहीं मिलना चाहिए । वैसे चरित्र और | |
− | अच्छे व्यवहार का प्रमाणपत्र आज भी उच्चशिक्षा में | |
− | या सरकारी सेवा में मांगा जाता है परन्तु उसे बहुत | |
− | औपचारिक बना दिया गया है । वास्तव में अच्छे | |
− | चरित्र की न तो व्याख्या की जाती है न अपेक्षा । | |
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− | इसका अर्थ यह भी है कि सबको चरित्र और अच्छे | |
− | व्यवहार कि आवश्यकता तो लगती है परन्तु उसे | |
− | प्राप्त करने कि कोई व्यवस्था नहीं की जाती । स्वार्थ | |
− | और स्वर्केट्रितता को विकास का मापदंड बनाने से | |
− | तो यह प्राप्त होना सम्भव भी नहीं है क्योंकि | |
− | धर्मशिक्षा शुरू ही होती है स्वार्थ और स्वकेंद्रितता | |
− | छोड़ने से । | |
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− | प्रसिद्ध चिन्तक जे. कृष्णमूर्ति ने आज के बौद्धिक | |
− | जगत के व्यवहार का वर्णन करते हुए कहा है कि | |
− | इन्हें जाना तो होता है दक्षिण दिशा में परन्तु बैठते हैं | |
− | उत्तर में जाने वाली गाड़ी में और गंतव्य स्थान आता | |
− | नहीं है तब व्यवस्थाओं को कोसते हैं । शिक्षा के | |
− | मामले में ठीक यही हो रहा है । हमें जाना तो है पूर्व | |
− | में परन्तु प्रत्यक्ष यात्रा चल रही है पश्चिमाभिमुख | |
− | होकर । हम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते तब
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− | सरकार, कलियुग, बाजारीकरण, यूरोप आदि को | |
− | दोष देते हैं । लाख समझाने पर या समझने पर भी | |
− | हम दिशा परिवर्तन करने का साहस नहीं जुटा | |
− | सकते । अधर्म के रास्ते पर चलकर धर्म की, या
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− | आज की भाषा में कहें तो मूल्यों कि अपेक्षा करते | |
− | हैं । जबकि दिशा परिवर्तन अनिवार्य है
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− | योग के प्रथम दो अंग यम और नियम वास्तव में | |
− | धर्मशिक्षा ही है । व्यक्तिगत और सम्टिगत, सृष्टिगत | |
− | व्यवहार को ठीक करने के वे सार्वभौम महाब्रत हैं । | |
− | इन्हें आचार के रूप में प्रस्थापित करना योगशिक्षा | |
− | का महत्वपूर्ण अंग है और सारी शिक्षा का आधार | |
− | है। हमने तो आज योग को भी शारीरिक शिक्षा का | |
− | अंग बनाकर चिकित्सा का, प्रदर्शन का, स्पर्धा का | |
− | विषय बना दिया है। प्रयत्नपूर्वक इसे बदलना | |
− | चाहिए ।
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− | सारे विषयों के साथ धर्मशिक्षा को जोड़ना चाहिए । | |
− | वह आचार के रूप में नहीं अपितु विषयों के स्वरूप | |
− | और सिद्धांतों को मूल्यनिष्ठ बनाकर । उदाहरण के | |
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− | नहीं है। उसके स्थान पर | |
− | अर्थशास््र कि शिक्षा धर्म के अविरोधी ही होनी
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− | चाहिए यह सिद्धान्त बनना चाहिए । दान और बचत | |
− | अर्थव्यवहार के अनिवार्य अंग बनने चाहिए । बाँधवों | |
− | को दिये बिना किसी प्रकार का उपभोग नहीं करना | |
− | चाहिए । | |
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− | धर्म और अआअधर्म को जानने का विवेक विकसित | |
− | करना चाहिए। अधर्म का त्याग और धर्म का | |
− | स्वीकार करने के लिए सदा उद्यत होना चाहिए । धर्म | |
− | की रक्षा के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए । | |
− | विपत्तियों में भी धर्म का त्याग न करें ऐसी धर्मनिष्ठा | |
− | विकसित करनी चाहिए । उदाहरण के लिए आज | |
− | बच्चे और बड़े स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हों तो | |
− | भी, संस्कार दूषित हों तो भी न खाने के पदार्थ खाते | |
− | हैं क्योंकि संयम का और शुचिता के आग्रह का | |
− | अभाव है । विदेशी वस्तुरयें खरीदने से हमारे देश का | |
− | आर्थिक नुकसान होता है यह जानते हुए भी विदेशी | |
− | वस्तुरयें खरीदते हैं क्योंकि देशभक्ति का अभाव है भले
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− | ही वे सस्ती हैं या आकर्षक हैं । धर्म की परीक्षा
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− | व्यवहार से ही होती है । | |
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− | जगत के विभिन्न धर्मों का अध्ययन भी करना | |
− | चाहिए । सबमें समानता और भेद क्या हैं इसका
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− | आकलन होना चाहिए । अपने धर्म की विशेषतायें, | |
− | उनका महत्व आदि भी जानना चाहिए। धर्म | |
− | और सम्प्रदाय का अंतर क्या है, सम्प्रदायनिरपेक्षेता | |
− | का क्या अर्थ है, सम्प्रदाय बनते किस प्रकार हैं, | |
− | संप्रदायों का झगड़ा क्यों होता है, धार्मिक कट्टरता | |
− | कैसे पनपती है, धर्मयुद्ध क्या है, धर्मयुद्ध और | |
− | जिहाद में क्या अंतर है, आज धर्म की जो स्थिति है | |
− | उसे बदलना है तो हमारी भूमिका क्या होगी ... | |
− | आदि सब धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा का हिस्सा होना | |
− | चाहिए ।
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− | इस प्रकार धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा सम्पूर्ण शिक्षा का | |
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− | सार है । वह परम पुरुषार्थ की ओर अग्रसर होना सम्भव | |
− | बनाती है । | |
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− | fu am ade में पढ़ाया जाता है कि
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− | अर्थशास्त्र का धर्म से या मूल्यों से कोई लेना देना
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| == References == | | == References == |
| <references /> | | <references /> |
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