Difference between revisions of "धार्मिक शिक्षा-संकल्पना एवं स्वरूप-प्रस्तावना"
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शिक्षा का आधार जीवनदृष्टि
शिक्षा व्यक्तिगत जीवन की और राष्ट्रजीवन की
समस्यायें दूर करती है परन्तु हम देख रहे हैं कि आज शिक्षा
स्वयं समस्या बन गई है । सामान्य जन से विद्व्जन शिक्षा से
त्रस्त है । अनेक प्रकार के सांस्कृतिक और भौतिक संकटों
का व्याप बढ़ रहा है। इसका कारण यह है कि विगत
लगभग दोसौ वर्षों से भारत में शिक्षा कि गाड़ी उल्टी पटरी
पर चढ़ गई है । शिक्षा राष्ट्र की संस्कृति और जीवनशैली को
सुदृढ़ बनाने का काम करती है । वह ऐसा कर सके इसलिए
वह राष्ट्र की जीवनदृष्टि पर आधारित होती है, उसके साथ
समसम्बन्ध बनाये रखती है । आज भारत की शिक्षा का यह
सम्बन्ध बिखर गया है । शिक्षा जीवनशैली में, विचारशैली में
इस प्रकार से परिवर्तन कर रही है कि हम अपनी ही
जीवनशैली को नहीं चाहते । अपनी शैली के विषय में हम
हीनताबोध से ग्रस्त हो गये हैं और जिन्होंने हमारे राष्ट्रजीवन
पर बाह्य और आन्तरिक आघात कर उसे छिन्नविच्छिन्न करने
का प्रयास किया उनकी ही शैली को अपनाने का प्रयास कर
रहे हैं । हमारा जीवन दो विपरीत धाराओं में बह रहा है ।
इससे ही सांस्कृतिक और भौतिक संकट निर्माण हो रहे हैं ।
युगों से अखण्ड बहती आई हमारी ज्ञानधारा आज
कलुषित हो गई है । ज्ञान के क्षेत्र में भारतीय और अभारतीय
ऐसे दो भाग हो गये हैं । भारतीय ज्ञानधारा के सामने आज
प्रश्नार्थ खड़े हो गये हैं । भारतीय और अभारतीय का मिश्रण
हो गया है । चारों ओर सम्भ्रम निर्माण हुआ है । उचित और
अनुचित, सही और गलत, करणीय और अकरणीय का
विवेक लुप्त हो गया है । लोग त्रस्त हैं परन्तु त्रास का कारण
नहीं जानते हैं, और त्रास के कारण को ही सुख का स्रोत
मानते हैं । धर्म और ज्ञान से मार्गदर्शन प्राप्त करना भूलकर
सरकार से सहायता की कामना और याचना कर रहे हैं । धन
से ही सारे सुख प्राप्त होंगे ऐसा विचार कर येनकेन प्रकारेण
धनप्राप्ति करने के इच्छुक हो रहे हैं । इस स्थिति में हम
आचार्यों का स्वनिर्धारित दायित्व है कि इस संकट का
निराकरण कैसे हो इसका चिन्तन करें और उपाययोजना भी
करें । इस दृष्टि से हमारा विचारविमर्श विगत द्स वर्षों से चल
रहा है । एक वर्ष पूर्व हमने भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के नाम
से शिक्षाविषयक पाँच ग्रन्थों के निर्माण की योजना बनाई और
तैयारी प्रारम्भ की । हमने अध्ययन यात्रायें कीं । विभिन्न
माध्यमों से हमने जनसामान्य से संवाद किया । विभिन्न विषयों
पर विट्रत गोष्टियाँ कीं । हमारे चिन्तन को ठीक करने हेतु
अभ्यासवर्ग किये । ग्रन्थों का अध्ययन किया | परिस्थिति का
आकलन किया । हमारे सामर्थ्य का अनुमान किया । समर्थ
विद्वानों को अनुकूल बनाया | एक वर्ष की इस तैयारी के बाद
आज से हम इस ग्रन्थमाला की रचना का प्रारम्भ कर रहे हैं ।
ज्ञान पवित्र है
हमारे देश का नाम भारत है । इस नाम का अर्थ है
ज्ञान के प्रकाश में रत रहने वाला देश । हम भारतीय हैं । हम
ज्ञान के उपासक हैं । ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं । ज्ञान को पवित्र
मानते हैं । जिस प्रकार अग्नि सभी पदार्थों को तपाकर उनमें
जो भी अशुद्धियाँ हैं उनको जलाकर पदार्थ को शुद्ध बनाती
है उसी प्रकार ज्ञान हमारे मनोभावों, विचारों, वृत्तियों,
व्यवहारों की मलीनता को दूर कर उन्हें शुद्ध बनाता है । इस
ज्ञान और ज्ञानोपासना को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को
हस्तान्तरित कर हमने ज्ञानपरम्परा बनाई है । ज्ञानपरम्परा को
निरन्तर बनाये रखने की व्यवस्था को शिक्षा कहते हैं । जैसा
हमारा ज्ञान श्रेष्ठ वैसी ही हमारी शिक्षाव्यवस्था भी श्रेष्ठ रही
है । इस शिक्षाव्यवस्था के विषय में हमारे समर्थ पूर्वजों ने
बहुत चिन्तन किया है और उसके शाख्र को प्रस्तुत किया है ।
उस शास्त्र का अनुसरण कर हमने पीढ़ी
दर पीढ़ी अध्ययन और अध्यापन का कार्य किया है ।
परिणामस्वरूप हमारे ज्ञानभाण्डार की रक्षा करने में, उसे
परिष्कृत करने में और उसमें वृद्धि करने में हम समर्थ हुए हैं ।
समय समय पर इस ज्ञानधारा पर विभिन्न प्रकार के आक्रमण
हुए हैं परन्तु हम उन आक्रमणों का प्रतिकार करने में समर्थ
सिद्ध हुए हैं । इस प्रकार आजतक हमने भारतीय ज्ञानधारा को
अविरत रूप से प्रवाहित रखा है। आज भी ऐसा ही
आक्रमण का काल है । यह आक्रमण बाह्य और आन्तरिक
दोनों प्रकार का है । इस कारण से वह अधिक भीषण है ।
आन्तरिक होने के कारण वह जल्दी समझ में भी नहीं आता
है। आन्तरिक होने के कारण से उसे परास्त करना भी
अधिक कठिन हो जाता है । इसलिये हमें सावधान रहना है ।
आक्रमण के स्वरूप को भलीभाँति पहचानना है और
कुशलतापूर्वक उपाययोजना बनानी है ।
क्या हम शिक्षा को केवल शिक्षा नहीं कह सकते ?
शिक्षा को भारतीय ऐसा विशेषण जोड़ने की क्या आवश्यकता
है ? विश्वविद्यालयों के अनेक प्राध्यापकों के साथ चर्चा होती
है । प्राध्यापक नहीं हैं ऐसे भी अनेक उच्चविद्याविभूषित लोगों
के साथ बातचीत होती है । तब “भारतीय' संज्ञा समझ में
नहीं आती है । अच्छे अच्छे विद्वान और प्रतिष्ठित लोग भी
“भारतीय' संज्ञा का प्रयोग करना टालते हैं, मौन रहते हैं या
उसे अस्वीकृत कर देते हैं। वे कहते हैं कि वर्तमान युग
वैश्विक युग है । हमें वैश्विक परिप्रेक्ष्य को अपना कर चर्चा
करनी चाहिये । उसी स्तर की व्यवस्थायें भी बनानी चाहिये ।
आज के जमाने में भारतीयता संकुचित मानस का लक्षण है ।
हमें उसका त्याग करना चाहिये और आधुनिक बनना
चाहिये । दूसरा भी तर्क वे देते हैं । वे कहते हैं कि ज्ञान तो
ज्ञान होता है, शिक्षा शिक्षा होती है । उसे “भारतीय' और
“अभारतीय' जैसे विशेषण लगाने की क्या आवश्यकता है ?
आप तो हमेशा ही पुरातन बातें करेंगे । आज दुनिया कितनी
आगे बढ़ गई है । आज आपकी पुरातनवादी बातें कैसे
चलेंगी ? ऐसा कहकर वे प्राय: चर्चा भी नहीं करते हैं, और
करते हैं तो उनके कथनों का कोई आधार ही नहीं होता है ।
उनका AMA देखकर दया आती है और चर्चा असम्भव
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
लगती है । हम भी सम्भ्रम में पड़ जाते हैं । इसका स्पष्टीकरण
आगे दिया है ।
राष्ट्र की आत्मा “चिति'
भारत एक राष्ट्र है । प्रत्येक राष्ट्र का एक स्वभाव होता
है । उस स्वभाव को चिति कहते हैं । दैशिकशास्त्र नामक एक
ग्रन्थ है । उस ग्रन्थ में चिति को राष्ट्र की आत्मा कहा गया
है । भगवान कृष्ण ने अपनी गीता में भी
Ha ब्रह्म परमं स्वभावो5ध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भधवकरो विसर्ग: कर्मसब्चित: ।। (गीता.८.३)
ऐसा कहा है । अर्थात आत्मा ही स्वभाव है । राष्ट्र की
आत्मा कहो या स्वभाव, एक ही बात है । भगवान वेदव्यास
ने ब्रह्मसूत्र में चिति को चैतन्य कहा है ।
चैतन्य का अर्थ भी आत्मा ही है । वेदान्त दर्शन उसे
शबल ब्रह्म कहता है । वह भी आत्मतत्त्व है । राष्ट्र को
स्वभाव अपने जन्म के साथ ही प्राप्त होता है । वह उसके
अस्तित्व का अभिन्न अंग है । जब तक यह स्वभाव रहता
है तब तक राष्ट्र भी रहता है । जब स्वभाव बदलता है तब
राष्ट्र बदलता है । जब स्वभाव पूर्ण बदलता है तब राष्ट्र नष्ट
होता है । फिर नाम रहता है परन्तु राष्ट्र अलग ही हो जाता
है । इसे ही उस देश का देशपन कहते हैं । भारतीयता भारत
का भारतपन है, उसकी आत्मा है, उसका स्वभाव है, उसकी
पहचान है । विश्व के कई देशों का स्वभाव बदल कर वे या
तो अपना अस्तित्व मिटा चुके हैं अथवा बदल गये हैं परन्तु
भारत ने अपने जन्म से लेकर आज तक अपनी पहचान नहीं
बदली है ।
हमारे मनीषी इस तथ्य का जो दर्शन करते हैं, उसकी
जो अनुभूति करते हैं उस आधार पर शास्त्रों की रचना होती
है । समाज की सारी व्यवस्थायें इस तथ्य के अनुरूप ही
बनती हैं । प्रजा का मानस भी उसीके अनुरूप बनता है |
उचित अनुचित की कल्पना भी उसीके अनुसार बनती है ।
छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बातों के पीछे इस स्वभाव
का ही निकष रहता है । भारत के लिये भारतीयता स्वभाव
है । भारत के प्रजाजनों के लिये भारतीय होना ही स्वाभाविक
है । इसलिये अनेक लोगों के मन में इस विषय में प्रश्न ही
निर्माण नहीं होता है । जब बात स्वाभाविक ही हो तो प्रश्र
कैसे निर्माण होंगे ?
हमारी हर व्यवस्था, उसे “भारतीय विशेषण जोड़ो या
न जोड़ो तो भी भारतीय ही रहेगी । कारण स्पष्ट है। उसे
बनाने वाले और अपनाने वाले भारतीय हैं । उन्हें भी यह सब
उचित और सही लगता है । अपनाने वाले न तो खुलासा
पूछते हैं, बनाने वालों को न खुलासे देने की आवश्यकता
लगती है । प्रश्न पूछे भी जाते हैं तो वे जिज्ञासावश होते हैं ।
आकलन में गलतियाँ की भी जाती हैं तो वे अज्ञान या
अल्पज्ञान के कारण होती हैं, अनास्था या अस्वीकृति के
कारण नहीं । परन्तु आज “भारतीय' और “अभारतीय 'ऐसे दो
विशेषणों का प्रयोग होने लगा है । इसका एक ऐतिहासिक
सन्दर्भ है । सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही अंग्रेज़, फ्रेंच,
पोर्तुगीज जैसे यूरोपीय देशों के लोग भारत में आने लगे । वे
भारत की समृद्धि से आकर्षित होकर आये थे । कालफ्रम में
अंग्रेज़ प्रभावी सिद्ध हुए । उन्होंने भारत में राज्य हस्तगत
किया । साथ ही पूर्व में किसी शासक ने नहीं की होगी वैसी
बात भी उन्होंने की । उन्होंने समाज की स्वायत्तता और
स्वतन्त्रता को ही समाप्त कर दिया और समाज को राज्य के
अधीन बनाया । अंग्रेजों से पूर्व के समय में भारत में समाज
सर्वोपरि था और राज्यतन्त्र समाजतन्त्र के अनुकूल चलता
था । अंग्रेजों ने राज्य को सर्वोपरि बनाया और समाज को
राज्य के अधीन बना दिया । यहीं से अभारतीयता का प्रारम्भ
हुआ । समाज ही राज्य के अधीन हो गया तब समाज की
व्यवस्था में चलने वाली सारी बातें भी राज्य के अधीन हो
गईं । व्यापार, कृषि और अन्य उद्योग, शिक्षा, चिकित्सा
आदि सारी बातें राज्य के ही अधीन हो गईं ।
अभारतीय दृष्टि
अंग्रेजों का स्वभाव भिन्न था । इसलिये उनके शास्त्र
उनका मानस, उनका व्यवहार, उनकी व्यवस्थायें, उनकी
सम्पूर्ण जीवनशैली भिन्न थी । वह भारत की नहीं थी इसलिये
उसे अभारतीय कहते हैं। अंग्रेजों ने इन सभी बातों को
भारतीय प्रजा पर थोपना प्रारम्भ किया । राज्य उनके अधीन
होने के कारण उन्हें ऐसा करने में सफलता भी fat |
शिक्षाव्यवस्था भी इनमें एक थी ।
शिक्षाव्यवस्था का अंग्रेजीकरण या अभारतीयकरण सर्वाधिक
प्रभावी सिद्ध हुआ । इसका कारण भी बहुत स्पष्ट है । शिक्षा
ही शेष सारी बातों को समझने और गढ़ने के लिये उपयोगी
होती है । जैसी शिक्षा मिलती है वैसा ही तो व्यक्ति करता
है। जैसी शिक्षा होती है वैसा ही व्यक्ति बन जाता है।
अंग्रेजों ने देश की सारी व्यवस्थायें बदल दीं । भारतीय
व्यवस्थाओं को नष्ट कर दिया और अभारतीय व्यवस्थाओं
को प्रस्थापित किया । इस कारण से भारतीय और अभारतीय
ऐसे दो शब्दुप्रयोग व्यवहार में आने लगे । ये दोनों शब्द
भारत के ही सन्दर्भ में व्यवहार में लाये जाते हैं ।
अंग्रेजों का राज्य लगभग ढाईसौ से तीनसौ वर्ष रहा ।
इस अवधि में अंग्रेजी शिक्षा का कालखण्ड लगभग पौने
दोसौ वर्षों का है । इस अवधि में लगभग दस पीढ़ियाँ अंग्रेजी
शिक्षाव्यवस्था में पढ़ चुकी हैं । इस दौरान चार बातें हुई हैं ।
एक, भारतीय शास्त्रों का अध्ययन बन्द हो गया और भारतीय
ज्ञानपरम्परा खण्डित हो गई । दूसरा, भारतीय शास्त्रों का जो
कुछ भी अध्ययन होता रहा वह यूरोपीय दृष्टि से होने लगा
और हमारे ही शास्त्रों को हम अस्वाभाविक पद्धति से पढ़ने
लगे । तीसरा, हमारे ज्ञान और हमारी व्यवस्थाओं के प्रति
अनास्था और अश्रद्धा निर्माण करने का भारी प्रयास अंग्रेजों
ने किया और हम भी अनास्था और अश्रद्धा से ग्रस्त हो
गये । चौथा, यूरोपीय ज्ञान विद्यालयों और महाविद्यालयों में
पढ़ाया जाने लगा और अंग्रेजी शास्त्रों को जानने वाले और
मानने वाले विद्वानों को ही विद्वानों के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त
होने लगी । देश अंग्रेजी ज्ञान के अनुसार अंग्रेजी व्यवस्थाओं
में चलने लगा । परिणामस्वरूप बौद्धिक और मानसिक क्षेत्र
भारी मात्रा में प्रभावित हुआ है । इसका ही सीधा परिणाम है
कि स्वाधीन होने के बाद भी हमने शिक्षाव्यवस्था में या अन्य
किसी भी व्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया है । देश अभी
भी अंग्रेजी व्यवस्था में ही चलता है । हम स्वाधीन होने पर
भी स्वतन्त्र नहीं हैं । deat अंग्रेजों का ही चलता है, हम उसे
चलाते हैं ।
फिर भी सुदैव से अनेक लोगों के हृदय और बुद्धि में
इस बात की चुभन है । स्वाधीन भारत परतन्त्र है यह उन्हें
स्वीकार नहीं है । इनके ही प्रयासों के
कारण से “भारतीय' और “अभारतीय' संज्ञाओं का प्रचलन
है । ये लोग भारतीयता की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं । इनके
प्रयास बौद्धिक क्षेत्र में और भौतिक क्षेत्रों में चल रहे हैं । हम
भी भारतीयता के पुरस्कर्ता हैं । इसीलिये हमने “भारतीय
शिक्षा ग्रन्थमाला' की स्चना करने का उपक्रम हाथ में लिया
है । शिक्षा के तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र को भारतीय बनाना यह
मूल बात है क्योकि शिक्षा को भारतीय बनायेंगे तो शेष
व्यवस्थायें भारतीय बनाने में सरलता होगी ।
आज भी जो लोग आधुनिकता, वैश्विकता, परिवर्तन
आदि की बात करते हैं उनकी बात भी समझ लेनी चाहिये
ऐसा लगता है । हम अनुभव करते हैं कि व्यक्तियों के स्वभाव
में परिवर्तन आता है । हम देखते हैं कि परिस्थितियाँ बदलती
हैं । हम हवामान और तापमान में बदल होते भी अनुभव कर
ही रहे हैं । तब विचारों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक
मानना चाहिये । अभारतीय होना क्या इतनी बुरी बात है ?
दूसरे देशों की शैली अपनाना भी अस्वाभाविक क्यों मानना
चाहिये ?
एक अन्य तर्क भी लोग देते हैं जिसमें कुछ दम लगता
है । वे कहते हैं कि आज संचार माध्यम बहुत प्रभावी हो गये
हैं। सम्पर्क के सूत्र भी बहुत सुलभ हो गये हैं । विश्व के
किसी भी कोने से कहीं पर भी हम चौबीस घण्टों के भीतर
जा सकते हैं । किसीसे भी बात कर सकते हैं । कोई भी वस्तु
पहुँचा सकते हैं । कहाँ कया हो रहा है वह देख सकते हैं ।
विश्व इतना छोटा हो गया है कि सभी देश एकदूसरे को
प्रभावित करते हैं और एकदूसरे से प्रभावित होते हैं । इस
स्थिति में जीवनशैलियों का और विचारों का मिश्रण होना
स्वाभाविक है । ऐसा होते होते एक विश्वसंस्कृति यदि हो
जाती है तो इसमें कया हानि है ? हम भी तो वसुधैव
कुट्म्बकम कहते हैं ।
स्वभाव अपरिवर्तनीय
अपनी उत्पत्ति के साथ राष्ट्रीं को जो स्वभाव प्राप्त हुआ
होता है उसमें सम्पूर्ण परिवर्तन होना सम्भव नहीं है । वह सृष्टि
के प्रलय के समय ही होता है । हाँ, ऊपरी परिवर्तन अवश्य
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
होते हैं । उदाहरण के लिये हम ठण्ड के दिनों में गरम और
गर्मी के दिनों में महीन कपड़े पहनते हैं । तापमान के अनुसार
कपड़ों के प्रकार में परिवर्तन होता है । उसी प्रकार क्रतु के
अनुसार हमारा खानपान बदलता है । यह बाह्म परिवर्तन होना
प्रकृति का स्वभाव है । प्रकृति नित्य परिवर्तनशील है क्योंकि
वह गतिमान है । प्रकृति में कुछ न कुछ होता ही रहता है ।
प्रकृति में एक भी पदार्थ स्थिर नहीं है । अत: परिवर्तन होना
स्वाभाविक है । परन्तु सभी प्रकार के परिवर्तनों के पीछे भी
कई बातें ऐसी हैं जो कभी भी परिवर्तित नहीं होती हैं ।
उदाहरण के लिये किसी व्यक्ति की लम्बाई यदि पाँच फीट
दस इंच है तो वह किसी भी प्रकार कम या अधिक नहीं हो
सकती है । किसी व्यक्ति की वात प्रकृति है तो वह आजन्म
बदल नहीं सकती है। देशों के भूखण्डों की जलवायु
सहस्राब्दियों में नहीं बदलती है । पंचमहाभूतों का व्यवहार
कभी भी बदलता नहीं है क्योंकि वे अपने स्वभाव का
अनुसरण करते हैं । पानी कभी भी नीचे से ऊपर की ओर
बहने नहीं लगता है । कभी भी बहना बन्द नहीं करता है ।
यही बात सभी पंचमहाभूतों को लागू है। सृष्टि का
गुरुत्वाकर्षण का नियम कभी भी बदलता नहीं है । उसी
प्रकार से मन का विचार करने का, बुद्धि का आकलन करने
का स्वभाव कभी बदलता नहीं है । इसी प्रकार जीवन को
देखने की और समझने की, अनुभूति की प्रवृत्ति भी बदलती
नहीं है । अल्प मात्रा में तो हरेक व्यक्ति का स्वभाव भिन्न
होता है परन्तु मूल बातों में वह प्रजाओं का स्वभाव बन
जाता है और अपरिवर्तनीय हो जाता है । और भी उदाहरण
देखें । हमारा अनुभव है कि प्रत्येक व्यक्ति रूप रंग में एक
दूसरे से भिन्न ही होता है । परन्तु एक देश के अन्तर्गत भी
गुजरात, केरल, बंगाल, पंजाब और असम के लोग अपने
रूप रंग के कारण ही अलग दिखते हैं । देशों के आगे राज्यों
के भेद मिट जाते हैं । जैसे चीन, भारत, आफ्रिका और यूरोप
के लोग रूप रंग में एक दूसरे से भिन्न ही होते हैं । उसी
प्रकार खानपान से लेकर विचारों, अनुभूतियों, बौद्धिक
क्षमताओं और दृष्टिकोण में प्रजाओं प्रजाओं में भिन्नता रहती
है । मनीषी इस स्वभाव को पहचानने का, समझने का प्रयास
करते हैं और अनेक प्रकार के व्यवहारशास्त्रों की रचना करते
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पर्व १ : उपोद्धात
हैं । प्रजा इन शास्त्रों को समझने का प्रयास करती है और
अपना व्यवहार उसके अनुसार ढालती है । इससे संस्कृति
विकसित होती है । इसीसे आज जिन्हें जीवनमूल्य कहते हैं
वे विकसित होते हैं । संस्कृति फिर पीढ़ी दर पीढ़ी उस प्रजा
को सहज प्राप्त होती है । यही उस राष्ट्र का स्वभाव होता है ।
इसमें ऊपरी परिवर्तन भले ही होते हों, या होते दिखाई देते
हों तो भी मूलगत परिवर्तन नहीं होते हैं । बाहरी प्रभावों से
जो परिवर्तन होता है वह बाहरी ही होता है । वह कभी
क्षणिक सुख का और कभी व्यापक दुःख का भी कारण
बनता है । इन दुःखदायक प्रभावों से बचना ही प्रजा का
पुरुषार्थ होता है । संक्षेप में कहें तो स्वभाव में मूलतः
परिवर्तन होता नहीं है ।
अभारतीय दृष्टि अनात्मवादी (आसुरी)
परन्तु भारतीय और अभारतीय का मुद्दा एक अन्य
प्रकार से विचारणीय अवश्य है । भारतीयतावादी लोग जब
अभारतीय जीवनशैली या जीवनदृष्टि की बात करते हैं तब
अनात्मवादी विचार, पंचमहाभूतों के शोषण की प्रवृत्ति,
व्यक्तिकेन्द्री और स्वार्थपरक व्यवहार, भौतिकता का अधिष्ठान
आदि की चर्चा करते हैं । आज विश्व पर अमेरीका और यूरोप
का प्रभाव छा गया है और वहाँ इस विचारधारा को मान्यता
प्राप्त है इसलिये इसे पाश्चात्य या अभारतीय जीवनदृष्टि कहा
जाता है । जो लोग भारतीय हैं परन्तु इस विचारधारा को
मान्यता देते हैं और उसे अपनाते हैं वे अभारतीय विचारधारा
से प्रभावित हैं ऐसा माना जाता है । परन्तु भारत में भी ऐसे
लोगों का होना स्वाभाविक माना गया है । श्रीमद भगवद
गीता में दैवी और आसुरी सम्पद् की चर्चा की गई है । वहाँ
arg aie वाले लोगों का वर्णन ठीक वही है जिसे
अभारतीय या पाश्चात्य कहा जाता है । वे भी भौतिकतावादी
हैं, वे भी व्यक्तिकेन्ट्री हैं, वे भी जीवन और जगत का विचार
समग्रता में नहीं अपितु खण्ड खण्ड में करते हैं ।
दम्भोदर्पोडभिमानश्र क्रोध: पारुष्यमेव च ।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्प्रदमासुरीमू ।। १६.४
ऐसी आसुरी सम्पद् बन्धन और विनाश का कारण
बनती है ऐसा भी श्री भगवान कहते हैं ।
एतां दृष्टिमव्टभ्य नष्टात्सानोइल्पबुद्धय: ।
WHAM: AAT SATA SHAT: ।। १६.९
हमारे यहाँ चार्वाक दर्शन की भी चर्चा होती है । इस
दर्शन में भी इंद्रियों के सुखों को प्रधानता दी गई है और
पापपुण्य या संयम की आवश्यकता नहीं है ऐसा कहा गया
है।
यावज्ीवेत् सुखंजीवेत् ऋणं कृत्वा धृतम् पीबेत ।
भस्मीभूतस्य देहस्य GRIT He: I
चार्वाक भारतीय ही है, असुर भारतीय ही हैं, खण्ड
खण्ड में विचार करने वाले और उसके अनुसार व्यवहार करने
वाले भी भारतीय ही हैं । केवल उन्हें मान्यता नहीं है । हम
जब इसे अभारतीय की संज्ञा देते हैं तब हमारा तात्पर्य उसे
मान्यता देने वाले देशों के साथ उसे जोड़ने का ही होता है ।
परन्तु कभी ऐसा भी विचार कर सकते हैं कि sa gg aT
स्वरूप भारतीय और अभारतीय का न होकर दैवी और आसुरी
विचारधारा के विरोध का ही है । अभारतीय को हम पाश्चात्य
केवल इसलिये कहते हैं क्योकि पाश्चात्य देशों में इसे मान्यता
है और वे इस मान्यता को पूरे विश्व पर थोपना चाहते हैं ।
जो लोग इसे आधुनिक कहते हैं या वैश्विक कहते हैं
वे केवल अज्ञान के कारण ही ऐसा करते हैं । इस अज्ञान को
कैसे दूर करना इसका विचार हम अलग से करेंगे ।
इस सन्दर्भ में एक और मुद्दा विचारणीय है । भारत में
या विश्व में जीवनविषयक जो चर्चा चलती है उसमें किसी एक
देश के साथ उसे नहीं जोड़ा जाता है । वह ठीक है कि नहीं
इसका ही विचार किया जाता है । आज अमेरिका और यूरोप
जिस विचारधारा की बात करते हैं वे भी उसे अमरीकी या
यूरोपीय नहीं कहते हैं । वे उसे मानवीय ही कहते हैं । भारतीय
दर्शनों में भी भारतीय या हिन्दू के नाम से चर्चा नहीं की गई
है । मानवीय दृष्टि से ही की गई है । दोनों ही स्थानों पर एक
अर्थ में तो वैश्विकता की ही बात की गई है । भारत भी जब
विचार करता है तब केवल भारत के सन्दर्भ में ही नहीं करता
है । वह सम्पूर्ण सचराचर सृष्टि के सन्दर्भ में ही विचार करता
है । पाश्चत्य जगत विचार करता है तब भी सचराचर सृष्टि के
सन्दर्भ में ही विचार करता है । केवल दोनों विचारधाराओं में
अन्तर है । भारत इस अन्तर को मूल रूप से दैवी और आसुरी
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सम्पद का अन्तर कहता है, पाश्चात्य
जगत इसे आधुनिक और रूढ़िवादी अथवा प्रगत और पिछड़े
का अन्तर कहता है । वास्तव में हम जिसे अभारतीय कहते
हैं वह सही अर्थों में आसुरी विचारधारा है । इस प्रकार समझने
से हम उसके सन्दर्भ में कैसा रुख अपनाना इस विषय में भी
अधिक स्पष्ट हो सकते हैं ।
भारतीय दृष्टि आत्मवादी (दैवी )
पुन: एक बार कहें तो अभारतीय विचारधारा वही है
जो भारत में आसुरी के नाम से जानी जाती है परन्तु यूरोप
और अमेरिका में जिसे समर्थन प्राप्त है । ऐसी विचारधारा का
प्रभाव भारत में बढ़ रहा है और उसे समर्थन प्राप्त हो रहा है
यही हमारी चिन्ता का विषय है ।
और भी स्पष्ट करना है तो आज के सन्दर्भ में हम कह
सकते हैं कि अभारतीय का अर्थ है आसुरी और भारतीय का
अर्थ है दैवी । आसुरी का अर्थ है विनाशक और दैवी का
अर्थ है उद्घारक । विनाशक का अर्थ है त्याज्य और दैवी का
अर्थ है स्वीकार्य । आसुरी का त्याग करने के लिये और दैवी
को अपनाने के लिये हरेक को साधना करनी होती है । इसे
प्राप्त करना ही जीवन विकास है ।
भारत के सम्बन्ध में जो भी बातें हैं वे भारतीय हैं ।
भारत का स्वभाव जिसमें झलकता है वह भारतीय है ।
उदाहरण के लिये भारतीय मानस ऐसा एक शब्द है । भारत
के लोग किसी भी घटना या पदार्थ को जिस प्रकार देखते हैं
उसे भारतीय मानस कहा जाता है । हम छोटे बच्चों को
चन्दामामा, बिछिमौसी, चिडियारानी कहकर पशुपक्षियों का
परिचय करवाते हैं और सबके प्रति आत्मीयता और प्रेम के
संस्कार देते हैं यह भारतीय मानस का लक्षण है । आचार्य
और छात्र का सम्बन्ध पिता पुत्र जैसा है ऐसा कहते हैं तब
वह भारतीयता का लक्षण है । अर्थात भारत जिस विशिष्ट
पद्धति से पेश आता है वह भारतीय पद्धति है । इस दृष्टि से
भारतीय शिक्षा का अर्थ क्या है इसे भी हम स्पष्ट कर लें ।
भारतीय शिक्षा के विषय में जानना अर्थात ....
भारत में शिक्षा की क्या परम्परा रही है यह जानना ।
भारत में शिक्षा का अर्थ कया है यह जानना ।
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
भारत में शिक्षा के प्रति किस दृष्टि से देखा जाता है यह
समझना |
भारत में शिक्षा की क्या व्यवस्था रही है यह जानना ।
भारत में शिक्षा व्यवस्था का इतिहास जानना ।
भारत में शिक्षा के क्षेत्र में क्या चिन्तन विकसित हुआ
है यह जानना ।
भारत के महान शिक्षकों के विषय में जानना ।
भारतीय शिक्षा का सैद्धान्तिक अधिष्ठान क्या है यह
समझना ।
भारतीय शिक्षा की श्रेष्ठता किसमें है यह जानना ।
भारत की शिक्षा के मूल तत्त्वों और व्यवहार के विषय
में जानना ।
इनके सम्बन्ध में जानने के साथ साथ आज भारत में
शिक्षा की क्या अवस्था है, उसके कारण और परिणाम कौनसे
हैं, आज यदि शिक्षा की दुरवस्था है तो उसे ठीक करने के
क्या उपाय हैं यह भी हमें समझना होगा । इसके बाद योजना
का भी विचार करना होगा । अर्थात यह एक व्यापक प्रयास
है जो हमें धैर्यपूर्वक करना है। चिन्तन से शुरु कर
कार्ययोजना तक का हमारा व्याप है ।
शिक्षा का व्यक्ति जीवन में स्थान
मनुष्य के जीवन के साथ शिक्षा सहज रूप से जुड़ी हुई
है । जिस प्रकार व्यक्ति जीवनभर श्वास लेता है उसी प्रकार
वह जीवनभर सीखता रहता है । वह जाने या न जाने वह
सीखता है । वह चाहे या न चाहे सीखता है । उसे सिखाने
वाला भी जानता हो या नहीं वह सीखता है । सिखाने वाला
चाहे या न चाहे वह सीखता है। आज हम शिक्षा को
विद्याकेन्द्र तक सीमित रखते हैं, पदवी और प्रमाणपत्र के
साथ जोड़ते हैं, पुस्तकों ,पाठ्यक्रमों , परीक्षाओं में बाँधते हैं,
दिनचर्या और जीवनचर्या में एक समयसीमा में करने लायक
काम समझते हैं । परन्तु वह स्वभाव से ही सीमित और बँधी
हुई रहने वाली है नहीं । हमें ऐसी स्वाभाविक, सहज, निरन्तर
चलने वाली शिक्षा का विचार करना है ।
दूसरी बात यह है कि शिक्षा मनुष्य के लिये अत्यन्त
आवश्यक है । हम अनुभव करते हैं कि सृष्टि में जितने भी
............. page-25 .............
पर्व १ : उपोद्धात
चर अचर, सजीव निर्जीव पदार्थ, वनस्पति या प्राणी हैं उनमें
मनुष्य का दर्जा विशिष्ट है। मनुष्य पंचमहाभूतों की तरह
शरीरधारी है । मनुष्य वनस्पति और प्राणियों की तरह
प्राणयुक्त है । इसलिये शरीर और प्राण तक का उसका जीवन
पंचमहाभूतों और वनस्पति तथा प्राणियों के समान होता है ।
परन्तु उसे मन है, बुद्धि है, अहंकार है, चित्त है । शास्त्रों ने
इसे अन्तःकरण कहा है । मनुष्य का अन्तःकरण बहुत सक्रिय
होता है । सक्रिय अन्तः:करण के कारण ही मनुष्य सम्पूर्ण सृष्टि
में सबसे श्रेष्ठ और एकमेवादट्रितीय अस्तित्व धारण करने वाला
बना है । मनुष्य को छोड़कर शेष सारे पदार्थ और प्राणी
प्रकृति के नियन्त्रण में रहते हैं और प्रकृतिदत्त स्वभाव के
अनुसार व्यवहार करते हैं । मनुष्य को अन्तःकरण के कारण
स्वतन्त्रता प्राप्त हुई है । स्वतन्त्रता के साथ दायित्व एक सिक्के
के दो पहलुओं की तरह जुड़ा हुआ है। मनुष्य को
स्वतन्त्रतापूर्वक जीने का अधिकार और दायित्व के साथ जीने
का कर्तव्य प्राप्त हुआ है । ऐसा जीवन जीना उसे विशेष
प्रयासपूर्वक सीखना होता है । अत: सीखने की प्रक्रिया
कितनी ही सहज और स्वाभाविक होती हो, सिखाने की
क्रिया तो आयोजन और नियोजनपूर्वक होना आवश्यक है ।
हमारी सजगता इस बात की होनी चाहिये सिखाने कि क्रिया,
अर्थात उसके लिये किया जाने वाला आयोजन और
नियोजन, सीखने की सहज स्वाभाविक प्रक्रिया के अनुकूल
और अनुरूप हो । शिक्षा को लेकर आज हमारी जितनी भी
शिकायतें हैं वे सब इन दो बातों के परस्पर सामंजस्य के
नितान्त अभाव से ही पैदा हुई हैं ।
पंचमहाभूतों, वनस्पतियों और प्राणियों में जो है वह तो
मनुष्य में है ही, परन्तु उनमें जो नहीं है वह भी, अर्थात
सक्रिय अन्तःकरण भी, मनुष्य में है । यही मनुष्य की पहचान
है। यही मनुष्य की विशेषता है । इसके कारण ही मनुष्य
मनुष्य बनता है । पशु को पशु बनना सहज और सरल है ।
मनुष्य को मनुष्य बनना और बने रहना सहज और सरल नहीं
होता है । मनुष्य को मनुष्य बनने और बने रहने के लिये
शिक्षा आवश्यक है । ऐसी शिक्षा का आयोजन और नियोजन
करना होता है । मनुष्य को आजीवन मनुष्य बने रहना है ।
इसलिये शिक्षा भी आजीवन चलती है ।
धर्म विश्वनियम है
मनुष्य बनने और बने रहने के लिये जो नियामक तत्त्व
है वह धर्म है । आश्चर्य मत करें । वर्तमान के अनेक सन्दर्भों
के कारण धर्म संज्ञा विवाद में पड़ गई है और हमारे मन में
उलझन निर्माण करती है यह सत्य है परन्तु धर्म धर्म है और
हमारे लिये अनिवार्य है यह परम सत्य है । बहुत संक्षेप में
हम समझ लें कि “धर्म' से हमारा क्या तात्पर्य है ।
धर्म विश्वनियम है । इस नियम के कारण सृष्टि में
असंख्य ग्रह, नक्षत्र आदि सारे पदार्थ निरन्तर गतिमान होने
के बाद भी, अपनी अपनी गति से गतिमान होने के बाद भी
आपस में टकराते नहीं हैं । पंचमहाभूतों और प्राणियों के
स्वभाव एकदूसरे से भिन्न, और कभी विरोधी होने पर भी सब
सुरक्षित हैं, सबका जीवननिर्वाह हो जाता है। यह उस
विश्वनियम के कारण होता है । इस विश्वनियम को वेदों में
ऋत कहा है। यह ma at धर्म है। सुरक्षापूर्वक,
waa, Aaa बने रहने को धारणा कहते हैं ।
जिस विश्वनियम से सृष्टि की धारणा होती है वह विश्वनियम
धर्म है । धारणा करता ही वही धर्म है ऐसी ही “धर्म' संज्ञा
की व्युत्पत्ति है ।
सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ का अपना अपना स्वभाव होता
है। अग्नि का स्वभाव गर्मी और प्रकाश देने का है । पानी
का स्वभाव समतल बने रहने का और शीतलता देने का है ।
शक्कर पानी में घुलती है । मोम गर्मी से पिघलता है । साँप
रेंगकर ही गति करता है । गाय कभी माँस नहीं खाती है । सिंह
कभी घास नहीं खाता है । प्राणी और पदार्थ कभी भी अपना
स्वभाव छोड़ते नहीं हैं । कभी नहीं छोड़ते हैं, नहीं छोड़ सकते
हैं इसलिये ही उसे स्वभाव कहते हैं । गाय का गायपन, सिंह
का सिंहपन, पानी का पानीपन, अगि का अगिपन ही स्वभाव
है । यह धर्म है । इसे गुणधर्म भी कहते हैं ।
विश्वनियम के आधार पर सृष्टि और समाज की धारणा
हेतु मनुष्य के लिये आचरण के जो नियम बने हैं उन्हें धर्म
कहते हैं । यह धर्म कर्तव्य है । इसे कर्तव्य धर्म कहते हैं ।
उदाहरण के लिये छात्र को आचार्य का आदर करना चाहिये
और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिये यह छात्रधर्म है ।
पिता को पुत्र का पालन करना चाहिये और पालनपोषण पूर्वक
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
उसे कर्तव्य धर्म सिखाना चाहिये यह... अन्न प्राप्त करने के लिये कहीं जाना पड़ता है, कभी संघर्ष
उसका कर्तव्य है, उसका पितृधर्म है । राजा का प्रजा के प्रति... करना पड़ता है, कभी संकटों का सामना करना पड़ता है यह
जो कर्तव्य है वह उसका राजधर्म है । गृहस्थ का समाज के... बात सत्य है, परन्तु एक बार प्राप्त कर लेने के बाद उसे
प्रति जो कर्तव्य है वह उसका समाजधर्म है, नागरिक का देश. काटना, छीलना या पकाना नहीं पड़ता है । प्राणियों को वस्त्र
के प्रति जो कर्तव्य है वह उसका देशधर्म है । हरेक व्यक्ति... पहनने नहीं पड़ते हैं क्योंकि शीलरक्षा या शरीररक्षा का प्रश्न
को अपनी संस्कृति का आदर और श्रद्धापूर्वक, कृतिशील उनके लिये नहीं है । निवास के लिये केवल पक्षी को घोंसला
होकर अनुसरण करना चाहिये यह उसका राष्ट्रधर्म है । बनाना पड़ता है । शेष सारे प्राणी या तो प्रकृति निर्मित स्थानों
मनुष्य को विश्वनियमरूप धर्म, स्वभावधर्म और में अथवा मनुष्य निर्मित स्थानों में रहते हैं । गुफा और
कर्तव्यधर्म ऐसे तीनों का पालन करना होता है । इस धर्म का... गोशाला इसके क्रमश: उदाहरण हैं । मनुष्य को अपनी इन
पालन नहीं किया तो सृष्टि का सामंजस्य बिगड़ता है, जीवन... आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्रयास करने होते हैं । ऐसे
संकट में पड़ जाता है । सृष्टि का सामंजस्य बिगाड़ना अधर्म.... प्रयासों के लिये बहुत कुछ सीखना होता है । जैसे कि कपड़ा
है, अपराध है । धर्म से ही जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष के... बुनना, अनाज उगाना, भोजन पकाना, घर बांधना, घर बनाने
प्रति गति होती है और उसकी प्राप्ति होती है । के सामान का उत्पादन करना आदि । यह उसकी औपचारिक
इस धर्म को सिखाने के लिये शिक्षा होती है । शिक्षा... अनौपचारिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । मनुष्य समाज
का यह परम लक्ष्य है । बनाकर रहता है । साथ रहना है तो अनेक व्यवस्थायें करनी
विश्वनियम के आधार पर मनुष्य के कर्तव्य और कर्तव्य... होती हैं, नियम बनाने होते हैं । इन व्यवस्थाओं को बनाना
के पालनपूर्वक अपना जीवन सुखमय बनाना यह मनुष्य के... भी सीखना ही होता है । यथा कानून और न्याय, व्यापार
लिये जीवनसाधना है । मनुष्य को स्वतन्त्रता प्राप्त है, और यात्रा आदि । मनुष्य में जिज्ञासा होती है । वह बहुत
स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने का सामर्थ्य प्राप्त हुआ है, साथ... कुछ जानना चाहता है । जिज्ञासा समाधान के लिये वह
ही सृष्टि का सामंजस्य न बिगाड़ने का कर्तव्य और दायित्व... निरीक्षण करता है, प्रयोग करता है, प्रयोग के लिये आवश्यक
भी प्राप्त हुआ है । इसका पालन करना अनेक कारणों से. उपकरण बनाता है । इसके लिये उसे बहुत कुछ सीखना होता
उसके लिये सरल नहीं है । इसे सरल और सहज बनाना ही. है । मनुष्य सृष्टि के रहस्यों को जानना चाहता है, अपने
उसके लिये साधना है । शिक्षा जीवनसाधना के लिये मनुष्य... आपको जानना चाहता है । जानने के लिये वह विचार करता
को समर्थ बनाती है । है, ध्यान करता है, अनुभव करता है । यह सब भी उसे
सीखना ही पड़ता है । अर्थात धर्माचरण सीखने के साथ साथ
शिक्षा धर्म सिखाती है उसे असंख्य बातें अपना जीवन चलाने के लिये सीखनी होती
इसलिए मनुष्य के लिये शिक्षा अनिवार्य है । हैं । सीखना उसके जीवन का अविभाज्य अंग ही बन जाता
मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने वाले धर्म को सिखाने वाली... है । इसलिये शिक्षा का बहुत बड़ा शास्त्र निर्माण हुआ है ।
शिक्षा के अनेक गौण आयाम हैं जो व्यवहारजीवन के लिये... धर्मशास्त्र के समान ही शिक्षाशास््र अत्यन्त व्यापक और
अत्यन्त आवश्यक हैं । गौण होने का अर्थ वे कम महत्त्वपूर्ण. आधारभूत शाख्त्र है ।
हैं ऐसा नहीं है । उसका अर्थ यह है कि वे सब मुख्य बात मनुष्य के व्यक्तिगत, सामाजिक, सृष्टित और
के अविरोधी होने चाहिये अर्थात धर्म के अविरोधी होने... पारमार्थिक व्यवहारों को चलाने के लिये वह अनेक प्रकार के
चाहिये । उदाहरण के लिये मनुष्य को अन्न वस्त्र की अनिवार्य. शास्त्रों की रचना करता है, अनेक प्रकार की व्यवस्थायें
आवश्यकता है । मनुष्य को अन्न वस्त्र अन्य प्राणियों के तरह. बनाता है । इसके लिये उसे काम करना होता है, विचार
बिना प्रयास किये प्राप्त नहीं होते हैं । पशुओं को भी अपना... करना होता है, अनुभव करना होता है । ये सब उसकी शिक्षा
श्०
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पर्व १ : उपोद्धात
का बहुत बड़ा हिस्सा है ।
संक्षेप में मनुष्य का जीवन शिक्षारहित होता ही नहीं है ।
हम जब शिक्षा का विचार करने के लिये उद्यत हुए हैं तब इन
तथ्यों को हमें ठीक से समझ लेने की आवश्यकता है ।
शिक्षा का समाजजीवन में स्थान
शिक्षा केवल व्यक्ति के लिये आवश्यक है ऐसा नहीं
है । सम्पूर्ण समाज को शिक्षा की आवश्यकता है । कोई कह
सकता है कि व्यक्ति को शिक्षा मिली तो समाज को अलग
से शिक्षा की क्या आवश्यकता है । व्यक्ति व्यक्ति मिलकर ही
तो समाज बनता है । व्यक्तियों को यदि उचित शिक्षा प्राप्त हुई
तो समाज तो शिक्षित हो ही जायेगा । परन्तु इस सम्बन्ध में
जरा और विचार करने की आवश्यकता है । समाज केवल
व्यक्तियों का जोड़ नहीं है । समाज व्यक्तियों का सम्बन्ध है ।
दो व्यक्ति केवल साथ साथ बैठने से, चलने से या रहने से
इकट्ठे दिखाई देते हैं, वे एकदूसरे से संबन्धित नहीं होते ।
सम्बन्ध आन्तरिक होता है । सम्बन्ध भौतिक वस्तुओं की
लेनदेन का नहीं होता है, या किसी स्वार्थ के लिये एकदूसरे
का काम कर देने के लिये नहीं होता है । सम्बन्ध केवल
भौतिक स्तर पर नहीं होता है, भावना के स्तर पर होता है ।
दो अपरिचित व्यक्ति साथ साथ खड़े हों तो वे समाज नहीं
बनते हैं । वे मित्रता के सम्बन्ध से जुड़े हों तो समाज बनता
है । दोनों एक ही पिता की सन्तान हों तो भाई बनते हैं । तब
वह समाज होता है । दो अपरिचित स्त्री और पुरुष साथ साथ
खड़े हों और साथ साथ काम भी करते हों तो वे समाज नहीं
बनते । वे विवाह संस्कार से जुड़े हों तो परिवार बनते हैं और
यह परिवार ही समाज की इकाई है । समाज व्यक्तियों की
इकाई से नहीं बनता, परिवार की इकाई से बनता है।
आजकल बिना विवाह के स्त्रीपुरुष साथ साथ रहते हैं । वे
at ak yes a कामयुक्त व्यवहार भी करते हैं परन्तु वे
पति पत्नी नहीं होते हैं, केवल साथीदार होते हैं । यह विवाह
नहीं है, आन्तरिक सम्बन्ध भी नहीं है इसलिए वे समाज भी
नहीं बनते हैं ।
विवाह भी केवल तान्त्रिक व्यवस्था नहीं है जो केवल
कानून पर आधारित होती है । वह एकात्म सम्बन्ध है । उस
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सम्बन्ध के आधार पर स्त्री और पुरुष
साथ रहते हैं तब परिवार बनता है । परिवार की इकाइयाँ जब
साथ साथ रहती हैं तो उनमें भी एकात्म सम्बन्ध का सूत्र ही
लागू है । इस प्रकार से जो समाज बनता है वह शिक्षा का
आधार है । समाज के स्तर पर एकात्म सम्बन्ध की
स्वाभाविकता और आवश्यकता की जो शिक्षा होती है वह
समाज की आवश्यकता है । समाज को जब यह शिक्षा
मिलती है तब सामुदायिक जीवन की सारी व्यवस्थायें
परिवारभावना से अनुप्राणित होती हैं । यह तत्त्व गूढ़ लगता
है क्योंकि उसका अनुभव करना किंचित कठिन होता 2 |
दूसरा कारण यह भी है कि आज इस दिशा में चिन्तन होता
भी नहीं है । एकात्म समाज के लिये एकात्म शिक्षा चाहिये ।
यह समाज की आवश्यकता है ।
समाज के लिये आवश्यक इस शिक्षा का क्रियान्वयन
तो व्यक्ति के स्तर पर ही होता है क्योंकि शिक्षा व्यक्ति व्यक्ति
को दी जाती है । शिक्षा देने वाला और लेने वाला एक समय
में एक व्यक्ति ही होता है । परन्तु शिक्षा की व्यवस्था करना,
शिक्षा तन्त्र विकसित करना और निभाना समाज का दायित्व
होता है, केवल व्यक्ति का नहीं । शिक्षा तन्त्र का रक्षण और
पोषण करना भी समाज का ही दायित्व है । जब हमारे देश
में राजाओं का राज्य था तब यह दायित्व राजा का होता
at | समाज की ओर से राजा शिक्षा के तन्त्र का योगक्षेम
ठीक चले इसकी चिन्ता करता था । आज लोकतन्त्र है।
लोकतन्त्र में समाज की ओर से लोकतान्त्रिक सरकार शासन
करती है । तब शिक्षा का योगक्षेम वहन करने की चिन्ता
सरकार को होनी चाहिये । परन्तु आज इस बात में विपर्यास
हुआ दिखाई देता है। इस विपर्यास और उससे जनित
समस्याओं की चर्चा हम स्वतन्त्र रूप से करेंगे । लोकतन्त्र
और लोकतान्त्रिक सरकार का स्वरूप क्या हो इसकी चर्चा
किये बिना शिक्षा के योगक्षेम का दायित्व सरकार का है,
समाज के प्रतिनिधि के रूप में सरकार का है यह कह देना
पर्याप्त नहीं होगा ।
समाज में शिक्षा का स्थान क्या है इस विषय में एक
और बात विचारणीय है । शिक्षा धर्म सिखाने वाली