Kumbha Mela (कुम्भ मेला)

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कुंभपर्व भारतीय तीर्थयात्रा परंपरा का एक अद्वितीय और दिव्य पर्व है। सनातन संस्कृति में विशेष पर्वों, त्योहारों या संक्रान्तियों के अवसर पर नदी स्नान की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है, कुंभ पर्व भी प्रत्येक बारह वर्षों के अंतराल में आयोजित किया जाने वाला नदी-स्नान परंपरा से जुडा एक अमृत पर्व है। कुंभ मेले का प्रति बारह वर्षों में बृहस्पति, सूर्य एवं चन्द्र की खगोलीय ग्रह स्थिति के आधार पर हरिद्वार में गंगा, उज्जैन में क्षिप्रा, नासिक में गोदावरी और प्रयागराज में गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर आयोजन होता है। यह पर्व मुख्य तीन परंपराओं तीर्थयात्रा, खगोलीय ग्रहस्थिति और नदी पूजा का सम्मिश्रण है। यह आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ आस्था, त्याग, समर्पण, प्रतिबद्धता और सहकार्य की भावना का सन्देश देता है।

परिचय॥ Introduction

वैदिक काल से ही संक्रान्ति एवं ग्रहण आदि काल में तीर्थ क्षेत्र नदी के तटों पर स्नान, दान और यज्ञानुष्ठान की परम्परा चली आ रही है। किन्तु यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि पौराणिक काल में भी आज की तरह सामूहिक रूप से कुंभ स्नान के मेले आयोजित किये जाते थे। कुंभ पर्व से संबंधित प्राचीन श्लोक प्रमाण रूप में अवश्य प्राप्त होते हैं लेकिन उनका शास्त्रीय मूल ग्रन्थों में उद्धरण नहीं प्राप्त होता है।[1]

कुम्भ, अर्ध कुंभ, पूर्ण कुंभ और महाकुंभ के रूप में मेला का आयोजन होता है। कुंभ का शाब्दिक अर्थ घड़ा, सुराही या बर्तन है। यहां कुम्भ से तात्पर्य अमृत कलश से है। वैदिक ग्रन्थों में भी कुंभ शब्द का प्रयोग देखा जाता है किन्तु वह यज्ञ के लिये प्रयुक्त दूध, दही आदि से पूर्ण कलश के अर्थ में प्रयोग हुआ है, इस प्रकार का वेदभाष्यकारों सायण आदि ने अर्थ किया है।[1] मेला शब्द का अर्थ है समूह में लोगों का एकजुट होकर मिलना या उत्सव मनाना। अमृत-कुंभ की उत्पत्ति विषयक आख्यानके परिप्रेक्ष्यमें भारतवर्षमें प्रति द्वादश वर्षमें हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिकमें कुंभ-पर्वका आयोजन हुआ करता है। जैसा कि - [2]

गंगाद्वारे प्रयागे च धारा-गोदावरीतटे। कुंभाख्येयस्तु योगोऽयं प्रोच्यते शंकरादिभिः॥ (महाकुम्भ पर्व)

अर्थात गंगाद्वार, प्रयाग, धारानगरी और गोदावरी में शंकरादि देवगण ने कुंभयोग कहा है। कुंभ पर्व बारह-बारह वर्ष के अंतरालमें नदियों के समीप चार मुख्य तीर्थों में खगोलीय-ग्रहस्थिति प्राप्त होने पर लगनेवाला स्नान-दान आदि का पर्व है। सामान्यतया दो प्रकार के कुंभ मेलों का सैद्धान्तिक वर्गीकरण किया गया है - [3]

  1. चतुर्धा कुंभ - हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन।
  2. द्वादशकुंभ - रामेश्वरम, कुंभकोणम, सिमरियाधाम, वृन्दावन, राजिम और ब्रह्मसरोवर।

कुंभ के इस अवसर पर तीर्थयात्रियों को मुख्य दो लाभ होते हैं - तीर्थस्नान एवं संतसमागम।[4]

श्राद्धं कुम्भे विमुञ्चन्ति ज्ञेयं पापनिषूदनम्। श्राद्धं तत्राक्षयं प्रोक्तं जप्यहोमतपांसि च॥ (वायु पु० ७७/४७)[5]

भाषार्थ - कुम्भतीर्थ में जाकर लोग श्राद्धादि कर्मों का अनुष्ठान करते हैं, उस पवित्र तीर्थ को पाप विनाशक समझना चाहिये, वहाँ पर किये गये श्राद्ध को अक्षय फलदायी कहा गया है, इसी प्रकार जप, हवन एवं तपस्या के बारे में भी कहा गया है।[5]

कुंभपर्व एवं तीर्थ॥ Kumbh Parva and Tirtha

तीर्थ की महिमा पर्व से तथा पर्व की महिमा तीर्थ से बढती है। पर्व और तीर्थ में घनिष्ठ साहचर्य है। प्रायः सभी पर्वों पर किसी न किसी तीर्थ में स्नान, दान, जप आदि का महत्व बतलाया गया है। पर्वों का उल्लेख करते हुये विष्णु पुराणमें कहा गया है -

चतुर्दश्यष्टमी कृष्णा अमावास्याथ पूर्णिमा। पर्वाण्येतानि राजेन्द्र रविसंक्रान्तिरेव च॥ (विष्णुपुराण)

चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा और सूर्य की संक्रान्तियाँ ये सभी पर्व संज्ञक होती हैं। इनके अतिरिक्त सूर्य और चन्द्र ग्रहण को भी पर्व कहा जाता है। ये सभी कालखण्ड केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं अपितु खगोलीय दृष्टि से भी महत्वपूर्ण होते हैं। इसीलिए पर्वकाल में स्नान-दानादि का अक्षय पुण्य होता है।[6]

परिभाषा॥ Definition

कुंभ शब्दका अर्थ साधारणतः घडा ही है, किन्तु इसके पीछे जनसमुदायमें पात्रताके निर्माणकी रचनात्मक शुभभावना, मंगलकामना एवं जन-मानसके उद्धारकी प्रेरणा निहित है। कुंभ का शब्दार्थ प्रकार है -

कुं पृथ्वीं भावयन्ति संकेतयन्ति भविष्यत्कल्याणादिकाय महत्याकाशे स्थिताः बृहस्पत्यादयो ग्रहाः संयुज्य हरिद्वार-प्रयागादितत्तत्पुण्यस्थानविशेषानुद्दिश्य यस्मिन् सः कुंभः।[2]

भाषार्थ - पृथ्वीको कल्याणकी आगामी सूचना देनेके लिये या शुभ भविष्यके संकेतके लिये हरिद्वार, प्रयाग आदि पुण्य-स्थानविशेषके उद्देश्यसे महाकाशमें बृहस्पति आदि ग्रहराशि उपस्थित हों जिसमें उसे कुंभ कहते हैं।

कुम्भो राश्यन्तरे हस्तिमूर्धांशे राक्षसान्तरे कार्मुके वारनार्या च घटे॥ (मेदिनीकोष १०६/२,३)

अर्थात कुम्भ शब्द राशिविशेष, हाथी के मस्तक का मांसपिण्ड, राक्षसविशेष, धनुष, वेश्यापति तथा कलश अर्थों में प्रयुक्त होता है।

कुंभ पर्व एवं कथाएँ॥ Kumbh festival and stories

कुंभ की उत्पत्ति बहुत पुरानी है और उस काल के समय की है जब समुद्र मंथन के समय अमरता को प्रदान करने वाला कलश निकला था, इस कलश के लिए राक्षसों और देवताओं के बीच भयंकर युद्ध हुआ था। कुंभ मेला का वैदिक एवं पौराणिक कथाओं में उल्लेख प्राप्त होता है। कुंभ एक पर्वका नाम जो हर बारहवें वर्षमें आता है। यह स्नान, दान, श्राद्धादि के लिए उपयुक्त पुण्य काल है -[7]

विवादे काश्यपेयानां यत्र यत्रावनिस्थले। कलशोऽभ्यपतद्यत्र कुम्भपर्वस्तदुच्यते॥ (कुम्भपर्व)

काश्यप-पुत्र देव-दानवों में अमृत-कलश के विवाद में जहां-जहां भूमि पर कलश रखा गया, वहां-वहां कुंभ-पर्व होता है।

  • पृथिव्यां कुम्भयोगस्य इत्यादि श्लोक को गीताप्रेस आदि ने अपनी महाकुम्भपर्व नामक पुस्तिका में स्कन्दपुराण से उद्धृत बताया है, लेकिन स्वयं गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित स्कन्दपुराण के संस्करणों में ये श्लोक नहीं पाया जाता।
  • कुम्भपर्व की उत्पत्ति के विषय में समुद्रमन्थन में अमृतकलश निकलने, इन्द्रपुत्र जयन्त द्वारा उसे लेकर भागने और इस प्रक्रिया में भूलोक में चार जगहों - प्रयाग, हरिद्वार, नासिक तथा उज्जैन में अमृत छलककर गिरने की कथा भी किसी प्राचीन अथवा मध्यकालिक ग्रन्थ में प्राप्त नहीं होती।
  • यह कथा पुराणों में उपलब्ध कथा के सर्वथा विपरीत है, जहाँ समुद्रमन्थन में धन्वन्तरि एक कमण्डल में अमृत लेकर निकलते हैं और फिर मोहिनी वेषधारी भगवान विष्णु उस अमृत को देवताओं को पिलाते हैं। इस पूरे घटनाक्रम के मध्य्य अमृतकमण्डल मोहिनी वेषधारी भगवान विष्णु के पास ही रहता है। पुराण कथा का यह कमण्डल किस प्रकार कलश अथवा कुम्भ में परिवर्तित हो गया, इन्द्रपुत्र जयन्त को वहाँ पहुँच कर कब इसे छीनने का अवसर मिला आदि अंश प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं।

कुंभ पर्व का प्रचलन कब से प्रारंभ हुआ, इसका ठीक-ठीक निर्णय नहीं मिलता है। कुंभ पर्व के संबंध में कुछ-कुछ वेदों में और पुराणों में वर्णन मिलता है। लेकिन इनके संबंध में स्पष्ट उद्धरण नहीं प्राप्त होता है। कुंभ पर्व के संबंध में अनेक दन्तकथाएँ सुनने में आती हैं। जो कि इस प्रकार हैं -[8]

  1. भगवान आद्य शंकराचार्य जी ने कुंभ-पर्व की स्थापना की, पश्चात उनकी शिष्य मण्डली ने कुंभ को अपने धर्म-प्रचार का मुख्य साधन समझ कर इसका विस्तार किया, जिसके फलस्वरूप आज भी कुंभ-पर्व का मेला बडी धूम-धाम से मनाया जाता है।
  2. सनक-सनन्दनादि महर्षियों की सभा हरिद्वार तथा प्रयागादि तीर्थों में 12-12 वर्ष पर उपस्थित होती थी, तभी से कुंभ-पर्व मनाया जाता है।
  3. योगी लोगों के अभ्यास की अवधि 12 वर्ष होती है अतः उन्होंने १२ वर्ष पर अपने साधकों के मिलन की सुविधा के लिए हरिद्वारादि तीर्थों में कुंभ पर्व का प्रचार किया।
  4. जब गरुड समुद्र से विष्णुलोक में अमृत-कुंभ को ले जाते हुए हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चार स्थानों में ठहरे थे, तभी से ये चार स्थान कुंभ के कहे जाते हैं।
  5. कुंभ-पर्व साधु-महात्माओं का धर्म सम्मेलन या धर्मपरिषद् है।

लेकिन इन कथाओं का मूल पौराणिक ग्रन्थों में प्रमाण का अभाव है।

अर्धकुंभ एवं महाकुंभ॥ Ardha Kumbh and Maha Kumbh

सनातन परंपरा में प्राचीनकाल से ही कुंभ-पर्व मनाने की प्रथा चली आ रही है। हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चारों स्थानों में क्रमशः बारह-बारह वर्ष में पूर्ण-कुंभ का मेला लगता है और हरिद्वार तथा प्रयाग में अर्ध-कुंभ पर्व भी मनाया जाता है। किन्तु यह अर्धकुंभ-पर्व उज्जैन और नासिक में नहीं होता है।[2]

  • अर्धकुंभ-पर्व हरिद्वार और प्रयाग में ही क्यों मनाया जाता है?
  • उज्जैन और नासिक में क्यों नहीं मनाया जाता है?

इसके बारे में कोई शास्त्रीय विशेष प्रमाण प्राप्त नहीं होते, अतः अर्धकुंभ-पर्व का मेला शास्त्रीय दृष्टि से विशेष महत्व नहीं रखता।

कुंभमेला के ज्योतिषीय योग॥ Astronomical Yoga of Kumbh Mela

ऐतिहासिक दृष्टि से कुंभ पर्व भारत के सूर्य उपासकों का पर्व है। इस पर्व की अवधारणा सूर्य के संवत्सरचक्र से जुडी एक खगोलवैज्ञानिक अवधारणा है। ज्योतिषीय-ग्रन्थोक्त सिद्धान्तों के आलोक में सनातन संस्कृति के अनुसार देवताओं का एक दिन, हमारे सौर-मान से एक वर्ष के तुल्य माना जाता है।[9] सूर्य सिद्धान्त -

मासैर्द्वादशभिर्वर्षं दिव्यं तदह उच्यते।[10]

बारह मासों के द्वारा देवताओं का एक दिन कहा जाता है। इस प्रकार एक दिव्य दिवस एक सांसारिक वर्ष के बराबर होता है। इसीलिये बारह दिन तक चले युद्ध को बारह वर्ष माना जाता है। इस प्रकार प्रत्येक बारहवें वर्ष कुंभ की आवृत्ति होती है। जैसा कि कहा है - [8]

देवानां द्वादशभिर्मासैर्मर्त्यैः द्वादशवत्सरैः। जायन्ते कुंभपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया॥

अर्थात मनुष्यों के बारह वर्षों के द्वारा, देवताओं के बारह दिन सम्पन्न होते हैं, इसलिये 12-12 वर्षों के अन्तराल पर कुंभ पर्व होते हैं। एवं जिस दिन अमृत-कुंभ गिरने वाली राशि पर सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति का संयोग हो, उस समय पृथ्वी पर कुंभ होता है -

ग्रह स्थिति एवं कुंभ पर्व
स्थान ग्रह स्थिति विशेष महत्व
प्रयागराज बृहस्पति और सूर्य मकर राशि में। त्रिवेणी संगम पर स्नानादि।
हरिद्वार सूर्य और बृहस्पति कुंभ राशि में। गंगा स्नानादि हरिद्वार में।
उज्जैन सिंहस्थ योग। क्षिप्रा नदी का महत्व।
नाशिक बृहस्पति और सूर्य सिंह राशि में। गोदावरी नदी का महत्व।

प्रयाग में कुंभ पर्व॥ Kumbh Parva in Prayag

प्रयाग को तीर्थराज कहा गया है जहाँ त्रिवेणीमें स्नान करने का विशेष माहात्म्य है जिसमें गंगा, यमुना तथा सरस्वतीका संगम होता है। इसका क्षेत्रफल 5 योजन है जहाँ जाने से अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। माघ महीने में यहाँ सब तीर्थोंका वास रहता है, अतः इस महीनेमें यहाँ वास करने से कल्पवास के बराबर फल प्राप्त होता है।[11] प्रयागमें खगोलीय ग्रहस्थिति के आधार पर अर्धकुम्भी एवं पूर्णकुम्भ का आयोजन होता है। प्रयाग के कुम्भकाल में दो प्रकार की ग्रह-स्थितियाँ रहती हैं - [12]

  1. प्रथम स्थिति में सूर्य और चन्द्र की मकरराशि में युति और बृहस्पति का सूर्य के उच्चगृह अर्थात मेष में स्थित होकर सूर्य चन्द्र से केन्द्र का सम्बन्ध बना लेता है।
  2. दूसरी स्थितिमें भी सूर्य और चन्द्र की मकरराशि में युति और बृहस्पति चन्द्र के उच्चगृह अर्थात वृष राशि में स्थित होकर सूर्य चन्द्र को पूर्ण दृष्टि से देखता है।

इन दोनों ही स्थितियों में बृहस्पति सूर्य या चन्द्र के उच्चगृह में स्थित होकर पारस्परिक केन्द्रस्थता अथवा अपनी पूर्ण दृष्टि से श्रेष्ठ मांगलिक योग प्राप्त कर लेता है। जैसा कि करपात्र स्वामी जी के कुम्भनिर्णय से स्पष्ट होता है कि-

मकरे च दिवानाथे वृषराशिस्थिते गुरौ। प्रयागे कुंभयोगो वै माघमासे विधुक्षये॥ [13]

भाषार्थ - मकर में सूर्य, वृष राशि में गुरु के होने पर प्रयाग में माघ-अमावस्या को कुम्भ योग होता है।

मेषराशिगते जीवे मकरे चन्द्रभास्करौ। अमावस्यां तदा योगः कुम्भाख्यस्तीर्थनायके॥[13]

भाषार्थ - जिस समय बृहस्पति मेष राशिपर स्थित हो तथा चन्द्रमा और सूर्य मकर राशिपर हो तो उस समय तीर्थराज प्रयाग में कुम्भ-योग होता है।

तीर्थराज प्रयाग में कुम्भ के तीन स्नान हैं - प्रथम स्नान - मकर संक्रान्ति (मेष राशि पर बृहस्पति का संयोग होने पर), द्वितीय एवं मुख्य स्नान - माघकृष्ण मौनी अमावस्या, तृतीय स्नान - माघ शुक्ल वसन्तपंचमी।[14]

कल्पवास का महत्व॥ Importance of Kalpavas

कल्पवास का तात्पर्य है एक मास तक तीर्थ क्षेत्र प्रमुखतः प्रयागराज में निवास कर धार्मिक नियमों का पालन करना। इसे व्यक्तिगत साधना और सामाजिक सेवा का संगम माना जाता है। कल्पवास करने वाले व्यक्ति को कल्पवासी कहा जाता है उनको पालन करने के नियम इस प्रकार हैं -

  • सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य आदि का पालन
  • नदी स्नान, ध्यान और संध्या वंदन आदि
  • दान, यज्ञ और उपनिषद और पुराणादि धार्मिक प्रवचन सुनना आदि

नासिक में कुंभ पर्व॥ Kumbh Parva in Nashik

जिस समय बृहस्पति सिंह राशिपर स्थित हों, उस समय गोदावरीमें केवल एक बार स्नान करनेसे मनुष्य साठ हजार वर्षों तक गंगा-स्नान करने सदृश पुण्य प्राप्त करता है -

षष्टिवर्षसहस्राणि भागीरथ्यवगाहनम्। सकृद् गोदावरीस्नानं सिंहस्थे च बृहस्पतौ॥

ब्रह्मवैवर्त पुराणमें भी लिखा गया है -

अश्वमेधफलं चैव लक्षगोदानजं फलम्। प्राप्नोति स्नानमात्रेण गोदायां सिंहगे गुरौ॥

जिस समय बृहस्पति सिंह राशिपर स्थित हो, उस समय गोदावरीमें केवल स्नानमात्रसे ही मनुष्य अश्वमेध-यज्ञ करनेका तथा एक लक्ष गो-दान करने का पुण्य प्राप्त करता है।

उज्जैन में कुंभ पर्व॥ Kumbh Parva in Ujjain

जिस समय सूर्य मेष राशिपर हो और बृहस्पति सिंह राशिपर हो तो उस समय उज्जैनमें कुंभ-योग होता है -

मेषराशिं गते सूर्ये सिंहराशौ बृहस्पतौ। उज्जयिन्यां भवेत् कुंभः सदा मुक्तिप्रदायकः॥

हरिद्वार में कुंभ पर्व ॥ Kumbh parva in Haridwara

हरिद्वार उत्तराखंड में स्थित भारत के सात तीर्थस्थलों (सप्तपुरी) में से एक है। पुराणों में इसका हरिद्वार एवं गंगाद्वार नाम प्राप्त होता है। पद्मपुराण में हरिद्वार का अनेक बार उल्लेख हुआ है एवं षष्ठभाग के अध्याय 21, 23 एवं 217 में हरिद्वार का महत्व अत्यंत विस्तार से वर्णन है। हरिद्वार में कुंभ मेला केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं है, किन्तु यह भारतीय संस्कृति, आध्यात्मिकता, और सामूहिक चेतना का प्रतीक है। यहां छह वर्ष में अर्ध कुम्भ एवं बारह वर्ष में पूर्ण कुम्भ का आयोजन होता है। हरिद्वार में इसका आयोजन गंगा नदी के किनारे विशेष ज्योतिषीय गणनाओं और खगोलीय संयोगों पर आधारित होता है -

कुम्भराशिं गते जीवे तथा मेषे गते रवौ। हरिद्वारे कृतं स्नानं पुनरावृत्तिवर्जनम्॥ (कुम्भ पर्व)

कुंभ राशिमें बृहस्पति हो तथा मेष राशिपर सूर्य हो तो हरिद्वारके कुंभमें स्नान करनेसे मनुष्य पुनर्जन्म से रहित हो जाता है। यह महापुण्य वाला तीर्थ है। नारदपुराण में कुम्भपर्व से संबंधित उल्लेख प्राप्त होता है कि -

योऽस्मिन्क्षेत्रे नरः स्नायात्कुंभेज्येऽजगे रवौ। स तु स्याद्वाक्पतिः साक्षात्प्रभाकर इवापरः॥ (ना०पु० 66/ 44-45)[15]

गंगाद्वार (हरिद्वार) में कुम्भ राशि में बृहस्पति, मेष में सूर्य के होने से जो योग होता है उसमें स्नान करने से मनुष्य सूर्य के समान तेजस्वी हो जाता है।

कुंभ पर्व का इतिहास॥ History of Kumbh Parva

वेद पुराणोक्त वचनों के अतिरिक्त कुम्भपर्व की प्राचीनता के प्रबल प्रमाण के रूप में चीनी यात्री ह्वेनसांग की सातवीं शताब्दी में प्रयाग यात्रा उल्लेखनीय है, जहां उसने संगम तट पर राजा हर्ष को एक बडे आयोजन में मुक्त-हस्त से दान करते हुए देखा था। ह्वेनसांग ने लिखा है कि राजा हर्षवर्द्धन अपने पूर्वजों के अनुसरण में हर छठवें वर्ष प्रयाग आकर अपनी विगत पाँच वर्षों में अर्जित सम्पत्ति को एक भव्य धार्मिक आयोजन के दौरान दान कर देते थे। यह आयोजन संगम तट पर अनेक दिन चलता था। इनके अतिरिक्त प्रचलित जनश्रुतियों के अनुसार सिखों के प्रथम गुरु नानक देव, गौडीय सम्प्रदाय के प्रवर्तक चैतन्य महाप्रभु, भक्त शिरोमणि तुलसीदास जैसे धार्मिक पुरुषों ने मध्यकाल में कुम्भमेलों के दौरान प्रयाग आकर यहाँ स्नान कर पुण्यलाभ किया।[16]

कुम्भ पर्व का महत्व ॥ Importance of Kumbh parva

हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चार कुंभ-पर्व के निर्णीत स्थानों में कुंभ-योग के समय तत्तत्सम्प्रदाय सम्मानित साधु-महात्माओं के समवाय द्वारा संसार के सर्वविध कष्टों के निवृत्यर्थ देश, समाज, राष्ट्र और धर्म आदि समस्त विश्व के कल्याण-सम्पादनार्थ निष्काम-भावनापुरस्सर वेदादि शास्त्रानुकूल अमूल्य दिव्य उपदेशों से जगत्कल्याण करना ही कुंभ-पर्व का महान उद्देश्य है और साथ ही कुंभ संबंधी निरुक्तियों से यह भी ज्ञात होता है कि बारह वर्षों के अंतराल पर दुर्भिक्ष, अवर्षण संबंधी जो अनिष्टकारी ग्रहयोग और प्राकृतिक प्रकोप समय-समय पर उत्पन्न होते हैं, कुंभपर्व के अवसर पर उनकी शांति और देश की सुखसमृद्धि हेतु तपस्वीजनों द्वारा किए जाने वाले सामूहिक यज्ञानुष्ठान आदि धार्मिक कृत्य भी इस पर्व के विशेष प्रयोजन रहे हैं।[17] कुंभ पर्व केवल धार्मिक आयोजन नहीं है, किन्तु यह भारतीय संस्कृति और ज्ञान परंपरा का परिचायक है -

  1. पवित्र स्नान का महत्व
  2. योग और साधना - आत्मचिंतन और जीवन के उद्देश्य पर विचार , संतों महात्माओं आदि का मार्गदर्शन
  3. पर्यावरण संरक्षण - पर्यावरण अनुकूल व्यवस्थाएँ अपनाना
  4. अखाडों की परंपरा, साधु, संतों और महात्माओं का संगम
  5. सांस्कृतिक विविधता का प्रदर्शन, धर्मशालाएं और सेवा शिविर
  6. पर्यावरणीय जागरूकता
  7. पौराणिक कथा आदि आधारित आयोजन
  8. व्यापार और स्थानीय अर्थव्यवस्था

इस प्रकार कुंभ पर्व केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, महान परंपराओं और सामुदायिक एकता का प्रतीक है। यह संस्कृति का पुनरुत्पादन करता है और इसे सामाजिक प्रभुत्व बनाए रखने के एक साधन के रूप में उपयोग किया जाता है।

निष्कर्ष॥ Summary

भारतवर्ष में पर्वों और त्योहारों के अवसर पर किए जाने वाले नदी स्नान की परम्परा को तरह ही कुंभ मेला सूर्य की स्थिति के अनुसार कुंभ पर्व की तिथियां निश्चित होती हैं।[18] मकर के सूर्य में प्रयागराज, मेष के सूर्य में हरिद्वार, तुला के सूर्य में उज्जैन और कर्क के सूर्य में नासिक का कुंभ पर्व पडता है।[16]

उद्धरण॥ References

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  3. डॉ० मोहन चन्द तिवारी, अमृत पर्व कुम्भ : इतिहास और परम्परा, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली (पृ० १६)।
  4. डॉ० राजबली पाण्डेय, हिंदू धर्मकोश, सन 2014, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० 190)।
  5. 5.0 5.1 रामप्रताप त्रिपाठी, वायुपुराण - हिन्दी अनुवाद सहित, सन 1987, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग (पृ० 692)।
  6. आचार्य भगवतशरण शुक्ल, अमृत कुम्भ पर्व, शारदा संस्कृत संस्थान, वाराणसी (पृ० ११)।
  7. श्री वैद्यनाथ अग्निहोत्री, कुम्भ-महापर्व और उसका माहात्म्य, दण्डी स्वामी भूमानन्द तीर्थ न्यास संस्थानम्, हरिद्वार (पृ० ११)।
  8. 8.0 8.1 महाकुंभ-पर्व, सन 2012, गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० 23)।
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  10. सूर्य सिद्धान्त, अध्याय-०1, श्लोक- 13।
  11. राणाप्रसाद शर्मा, पौराणिक कोश, ज्ञान मण्डल लिमिटेड, वाराणसी (पृ० 336)।
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  13. 13.0 13.1 धर्मकृत्योपयोगि-तिथ्यादिनिर्णयः कुम्भपर्व-निर्णयश्च, सन 1965, संतशरण वेदान्ती, वाराणसी (पृ० 06)।
  14. डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, कुम्भ पर्व माहात्म्य, सन 1986, ज्ञानपुर विश्व भारती अनुसंधान परिषद (पृ० २१)
  15. नारद पुराण, उत्तरार्ध - अध्याय - 66, श्लोक - 44-45।
  16. 16.0 16.1 डॉ० उदय प्रताप सिंह, हिन्दुस्तानी त्रैमासिक - कुम्भ विशेषांक, सन् 2019, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, प्रयागराज (पृ० 13)।
  17. डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, कुम्भपर्व-माहात्म्य, सन 1986, विश्व भारती अनुसंधान परिषद, वाराणसी (पृ० 16)।
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