संकटों का मूल

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search

जीवनदृष्टि

जीवन और जगत को देखने की पश्चिम की दृष्टि ही विश्व के वर्तमान संकटों की जड़ है। पश्चिम विश्व को भौतिक मानता है। जो दिखाई देता है वही सत्य है। इस विश्व के सारे भौतिक पदार्थों और उन्हें संचालित करनेवाली ऊर्जा ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। पदार्थ और ऊर्जा को समझने का विज्ञान भौतिक विज्ञान है । भौतिक विज्ञान को ही विज्ञान कहने का आज प्रचलन है। इस भौतिक जीवनदृष्टि में मन, बुद्धि, आत्मा आदि का अस्तित्व तो है परन्तु उन्हें भौतिक जीवन के लिये भौतिक विज्ञान के मानकों पर ही परखा और समझा जाता है।

इस जीवनदृष्टि के कुछ प्रमुख आयाम इस प्रकार हैं...

  1. भौतिक जगत में जितने भी पदार्थ हैं वे सब एकदूसरे से अलग हैं । वे एक दूसरे को प्रभावित तो करते हैं परन्तु उनमें एकत्व नहीं है। यह भेद ही मूल है। इस भेद को बनाये रखना स्वतन्त्रता है।
  2. इस विश्व में जन्मजन्मान्तर जैसा कुछ नहीं है। जन्म के साथ जीवन आरम्भ होता है और मृत्यु के साथ पूरा होता है। इसलिये पूर्वजन्म के संस्कार जैसी शब्दावली को विचारधारा में कोई स्थान नहीं है ।
  3. मन की सारी इच्छाओं की पूर्ति करना मनुष्यजीवन का लक्ष्य है। कामनाओं की पूर्ति हेतु प्रयास करना जीवन का मुख्य कार्य है। अधिक से अधिकतर कामनायें होना ऊँचा जीवनमान है। अधिकतम कामनाओं की पूर्ति कर पाना यश है। इसी दिशा में गति करना विकास है। विकास की दिशा में यात्रा अनन्त है । कभी भी विकास पूर्ण नहीं होता।
  4. विश्व में मनुष्य सबसे श्रेष्ठ है । मनुष्य के उपभोग के लिये यह सृष्टि बनी है। अपने सुख के लिये मनुष्य सृष्टि के सारे पदार्थों का किसी बी हद तक उपयोग कर सकता है। सृष्टि उसकी दास है। उसका पूरा रसकस निकालना उसका अधिकार है।
  5. मनुष्य मनुष्य का सम्बन्ध भी व्यक्ति केन्द्री है। हर व्यक्ति स्वतन्त्र है। हर व्यक्ति को अपने हित और सुख की चिन्ता स्वयं करनी है। यह एक व्यावहारिक सत्य है कि व्यक्तियों को अपनी सभी आवश्यकताओं और कामनाओं की पूर्ति के लिये एकदूसरे की सहायता लेनी ही पड़ती है । लेनदेन के बिना जीवनव्यवहार चलता नहीं है। लेनदेन के समय स्वयं के हित की हानि न हो इसकी सावधानी हर व्यक्ति को रखनी है। अपने अपने हित की रक्षा की व्यवस्था हेतु समाज की विभिन्न व्यवस्थायें बनाई जाती हैं । मनुष्यों के परस्पर सम्बन्धों के स्वरूप को सामाजिक करार का सिद्धान्त कहा जाता है।

पश्चिम की जीवनदृष्टि के इन सूत्रों के आधार पर विश्व की असंख्य रचनायें बनी हैं। इसकी बडी और छोटी शाखाप्रशाखाओं का एक बडा जाल बना है जिसमें विश्व फँस गया है। यह जाल अब बुरी तरह से उलझ भी गया है। इस जाल से विश्व को मुक्त करना है।

पश्चिम की यह जीवनदृष्टि भारत के लिये नई नहीं है। वास्तव में पहले कहा है उस प्रकार भारत पूर्व और पश्चिम का भेद नहीं करता है। आज जिसे पश्चिमी जीवनदृष्टि कहा जाता है उसे भारतने आसुरी जीवनदृष्टि कहा है। आसुरी जीवनदृष्टि से देखने वाला मनुष्य इस जगत के विषय में कहता है,

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् ।

अपरस्परसम्भूतं किमन्यद् कामहैतुकम् ।।

अर्थात्

यह जगत सत्य है, इसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं है,इस जगत में ईश्वर जैसा कुछ नहीं है। जगत के अन्यान्य पदार्थों का एक दूसरे के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता। उसका अस्तित्व केवल कामनाओं की पूर्ति के लिये ही है।

ये आसुरी प्रकृति के लोग कम प्रभावी नहीं होते । वे बलवान, धनवान, सत्तावान, सौन्दर्यवान होते हैं। वे बुद्धिमान, चतुर, दक्ष, कार्यकुशल होते हैं। अपनी शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक सम्पदा के आधार पर वे वैभव और समृद्धि प्राप्त करते हैं । विशेषता केवल यही है कि वे सज्जन नहीं होते । दूसरों की परवाह नहीं करते । दमन, उत्पीडन, शोषण, अत्याचार करने में उन्हें कुछ भी अनुचित नहीं लगता।

भारत के इतिहास में ऐसे अनेक महासमर्थ असुर हुए हैं। रावण इनमें खास उदाहरण है। रावण विद्वान था, कवि था, भक्त था । उसकी लंका सुवर्ण की थी। अपने सामर्थ्य के आधार पर उसका दक्षिण के छोर से भारत के उत्तरतम प्रदेश में स्थित कैलास तक मुक्त संचार था । वह पराक्रमी भी था। उसके वैभव और उपभोग की कोई सीमा नहीं थी।

आसुरी सम्पद् और दैवी सम्पद् में केवल दर्जन और सज्जन का ही अन्तर है, सर्व प्रकार का सामर्थ्य तो दोनों में समान है।

सज्जनता और दुर्जनता भी दूसरों के साथ के व्यवहार द्वारा ही निश्चित होती है । दूसरों के हित की चिन्ता और रक्षा करता है वह सज्जन है और नहीं करता वह दुर्जन है । अर्थात् भारत की दृष्टि से पश्चिम की जीवनदृष्टि आसुरी है, दुर्जन की शक्ति है।

विश्व में आसुरी सम्पदावाले लोग सदा होते ही हैं ऐसा भारत मानता है। उनके अस्तित्व का स्वीकार कर भारत ने उनकी विचारधारा को दर्शन का दर्जा भी दिया है। वह चार्वाक दर्शन है। चार्वाक दर्शन देहात्मवादी है। उसका केन्द्रवर्ती सूत्र है,

यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वां घृतं पिबेत् ।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥

अर्थात्

जब तक जीना है सुख से जीयें, ऋण करके भी घी पियें (घी पीने का अर्थ है पूर्ण उपभोगपूर्वक जीना) क्योंकि यह देह (मृत्यु के बाद) भस्मीभूत हो जाने पर फिरसे नहीं आने वाला है।

चार्वाकवदी ये लोग सदा से समाज में रहे हैं परन्तु सुसंस्कृत और श्रेष्ठ समाज में उनकी प्रतिष्ठा नहीं रही है। वैसे तो अविकसित व्यक्ति में चार्वाक सदा रहता है परन्तु उसका त्याग करने को ही विकास कहा जाता है।

पश्चिम में आसुरी विचारधारा की ही प्रतिष्ठा रही है। परन्तु भारत का इतिहास दर्शाता है कि आसुरी समृद्धि नाश के लिये ही होती है। आसुरी शक्ति प्रथम स्वयं के सुख के लिये, दूसरों पर अत्याचार करती है, दूसरों का नाश करने पर तुली रहती है परन्तु अन्ततोगत्वा स्वयं नष्ट होती है।

पश्चिम भी यदि अपनी विचारधारा और व्यवहार बदलता नहीं है तो उसका विनाश निश्चित है।

भारत का कर्तव्य है कि इस विनाश से पश्चिम को बचाये।

धार्मिक शिक्षा - वैश्विक संकटों का स्वरूप

विश्व आज जिन संकटों से ग्रस्त हो गया है वे दो प्रकार के हैं। एक है प्राकृतिक और दूसरे हैं सांस्कृतिक । त्सुनामी, चक्रवात, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, शारीरिक बिमारियाँ आदि प्राकृतिक संकट हैं। भुखमरी, जानहानि, भौतिक सम्पदा का नाश, शारीरिक स्वास्थ्य का नाश आदि इसके परिणाम हैं। चौरी, डकैती, बलात्कार, अनाचार, भ्रष्टाचार, शोषण, आतंकवाद, युद्ध, धर्मान्तरण, आदि सांस्कृतिक संकट हैं। जानहानि, असुरक्षा, गुलामी, मानसिक बिमारियाँ, क्षुद्रता, पशुवृत्ति, मानवीय गौरव का नाश इनके परिणाम हैं।

प्राकृतिक संकटों का मूल भी बहुत कुछ मात्रा में सांस्कृतिक है । मनुष्य के विचार, भावनायें, व्यवहार आदि जब विकृत हो जाते हैं तब वह लोभ, लालसा, मद, मत्सर आदि से भर जाता है। उससे प्रकृति का शोषण आरम्भ होता है। प्रकृति का सन्तुलन बिगड़ जाता है। इसी में से पर्यावरण का प्रदूषण होता है जो अन्य समस्याओं को जन्म देता है। मनुष्य की आहारविहार की अनियमिततायें अनेक व्याधियों को जन्म देती हैं। मनुष्य के अन्तःकरण की अनुचित वृत्तियाँ मानसिक व्याधियों को जन्म देती हैं जिनका असर शरीर पर भी होता है।

जीवन के प्राकृतिक और सांस्कृतिक पक्ष को एकदूसरे से अलग नहीं रख सकते । जिस प्रकार मनुष्य के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू-बुद्धि, मन, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, हृदय, मस्तिष्क, पेफडे आदि एक दूसरे के साथ सम्बन्धित हैं और एकदूसरे को प्रभावित करते हैं उसी प्रकार से मनुष्य के विचार, भावनायें और व्यवहार स्थूल पंचमहाभूतों की स्थिति पर भी असर करते हैं।

कुल मिलाकर मनुष्य का व्यवहार ही विश्व के संकटों को आमन्त्रित करता है । इसलिये विश्व के संकट कम करने हैं, जगत को संकटों से मुक्त करना है तो मनुष्य को ठीक होना होगा। मनुष्य को ठीक होने का सर्वाधिक उपयुक्त साधन शिक्षा है। हम समझ सकते हैं कि पंचमहाभूतों, वनस्पति, प्राणियों को नहीं अपितु मनुष्य को ही शिक्षा की आवश्यकता है।

आज विश्व पर पश्चिम की जीवनदृष्टि छाई हुई है। श्रीमद् भगवद्गीता में जिसे आसुरी सम्पद् कहा है वही यह पश्चिमी जीवनदृष्टि है। आसुरी सम्पद् स्वयं के लिये भी बन्धन ही निर्माण करती है ऐसा गीता में श्री भगवान कहते हैं। भगवानने कहा हुआ समझने के लिये तो अब पश्चिमी जगत की स्थिति ही प्रत्यक्ष प्रमाण है। आसुरी सम्पदा का प्रभाव कम करने के लिये, विश्व के जो अनेक देश उससे प्रभावित हो गये हैं उन्हें बचाने के लिये, स्वयं पश्चिम को सही दृष्टि देने के लिये और सही व्यवहार सिखाने के लिये धार्मिक जीवनदृष्टि ही एक मात्र उपाय दिखाई देता है। स्वयं पश्चिम को भी अब संकटों का अनुभव हो रहा है। वह भी अनेक प्रकार के प्रयास तो कर ही रहा है। परन्तु वे प्रवास वांछित परिणाम देने वाले नहीं हैं। इसका कारण यह है कि संकट से मुक्त होने के लिये वह वही कर रहा है जिससे संकट कम होने के स्थान पर बढें । जिन कारणों से दुःख उत्पन्न हो रहे हैं उन कारणों को दूर किये बिना वह दुःखों से मुक्ति चाहता है। उसकी बुद्धि यह सीधासादा कार्यकारण सम्बन्ध ही नहीं समझ रही है। तात्पर्य यह है कि अब सुख, शान्ति, समृद्धि, संस्कार आदि प्राप्त हो इस हेतु से प्रयास करने की पश्चिम में क्षमता ही नहीं रही है। वह दुर्बल हो गया है। इस स्थिति में अब भारत को ही मार्गदर्शन करने की, बचाने के कुछ उपाय करने की जिम्मेदारी लेनी होगी।

यह जिम्मेदारी निभा सके इस दृष्टि से भारत को समर्थ बनना होगा । यह सामर्थ्य सत्य और धर्म से प्राप्त होता है । सत्य और धर्म समाज में प्रतिष्ठित करने हेतु उत्तम साधन शिक्षा है यह सब जानते हैं अतः भारत को अपनी शिक्षाव्यवस्था का विचार जगत के कल्याण के सन्दर्भ में करना होगा, अपनी पद्धति से करना होगा।

भौतिकवाद

यह सृष्टि जड़ और चेतन दोनों तत्त्व मिलकर बनी है। वह न तो केवल जड़ है न केवल चेतन । जो दिखाई देता है वह तो केवल जड़ ही है यह सत्य है। रूप परिवर्तन जड़ का ही होता है यह भी सत्य है । परन्तु सर्व प्रकार के रूप परिवर्तन का प्रेरक या कारक चेतन है यह बात पश्चिम की समझ में नहीं आती। यदि चेनत के अस्तित्व को ही नकारा जाता है तब जहाँ जहाँ जड़ है वहाँ वहाँ अनिवार्य रूप से चेतन रहता ही है यह भी समझमें नहीं आना स्वाभाविक है। चेतन के सार्वत्रिक अस्तित्व को नकारना ही वास्तव में भौतिकवाद है, वरना भौतिक भी सर्वत्र है ही । चेतन को नकारने के कारण अनेक प्रकार के प्रश्न निरुत्तरित रह जाते हैं। उदाहरण के लिये इस सृष्टि का सृजन क्यों हुआ इसका भी उत्तर नहीं मिल सकता । किसी एक भौतिक पदार्थ में बिना किसी कारण से स्फोट हुआ और सृष्टि में रूपान्तरण की प्रक्रिया आरम्भ हुई यह कहना तार्किक नहीं है । तार्किक तो यह होगा कि बिना द्वन्द्व के सष्टि में किसी प्रकार का सृजन नहीं हो सकता । तार्किकता इसमें भी है कि यह द्वन्द्व व्यक्त स्वरूप में आने से पूर्व भी एक ही सत्ता में निहित था । सृष्टि का सृजन आरम्भ होते ही वह व्यक्त हो गया, परन्तु व्यक्त होने के साथ भी वह द्वन्द्व रूप में सम्पृक्त ही था । उस एक में वह निहित था, अव्यक्त था, दो में व्यक्त होकर वह निहित न होकर सम्पृक्त था । बिना सम्पृक्त हुए, एकदूसरे से स्वतन्त्र और पृथक् रहते हुए वह सृष्टि के रूप में विस्तार को प्राप्त नहीं हो सकता था। अतः इस सृष्टि के आदि कारण परमात्मा में चेतन और जड़ निहित हैं, वे चेतन और जड़ के रूप में प्रथम व्यक्त होते हैं, व्यक्त होने के बाद सम्पृक्त होते हैं और सम्पृक्त होने के बाद असीम वैविध्यपूर्ण सृष्टि के रूप में व्यक्त होने की लगभग अनन्त प्रतीत होनेवाली परम्परा आरम्भ होती है । सृष्टि में जिस का रूप रूपान्तरण होता है वह जड़ है और जिसके कारण से रूपान्तरण होता है वह कारक तत्त्व चेतन है। चेतन का स्वयं का रूपान्तरण नहीं होता परन्तु बिना चेतन के जड़ का रूपान्तरण नहीं हो सकता । अतः इस विश्व को जड़ मानना, केवल भौतिक मानना युक्तिसंगत नहीं है।

विश्व को जड़ अर्थात् भौतिक मानने से व्यवहार में भी नहीं सुलझने वाली समस्यायें निर्माण होती हैं। उदाहरण के लिये चेतन आत्मतत्त्व है । आत्मतत्त्व में ही प्रेम, आनन्द, सौन्दर्यबोध, सृजनशीलता आदि गुणों का निवास है। आत्मा के ये सारे गुण शुद्ध चित्त में झलकते हैं । आत्मतत्त्व को नहीं माना तो ये सारे गुण वास्तव में अनाश्रित हो जाते हैं। उनका मूल अधिष्ठान नहीं रहने पर वे मन का आश्रय लेते हैं और आनन्द सुख का और सुख मनोरंजन का स्वरूप लेता है। मनोरंजन भी भौतिक पदार्थों का आश्रय लेता है। तब जितने भौतिक पदार्थ अधिक उतना ही सुख अधिक ऐसा हिसाब बन जाता है । सौन्दर्य भी रूप, रंग में समाहित हो जाता है। सारी कला इन्द्रियोपभोग के लिये हो जाती है। आत्मीयता शब्द ही आत्मा से बना है । जब आत्मा की संकल्पना नहीं रहती तब आत्मीयता भी नहीं रहती। उससे उद्भूत सेवा, त्याग, दान आदि का स्वरूप भी भौतिक हो जाता है, वे भी व्यवसाय बन जाते हैं । प्रेम की अभिव्यक्ति काम के रूप में होती है। अंग्रेजी भाषा में प्रेम के लिये 'लव' शब्द है। 'मैं प्रेम करता हूँ' कहने के लिये 'आई लव...' कहा जाता है परन्तु 'आई एम मेकिंग लव' भी कहा जाता है। अर्थात् प्रेम और काम के लिये एक ही संज्ञा है। अर्थात् प्रेम, आनन्द, त्याग, सेवा, सौन्दर्य आदि का स्वरूप भौतिक बन जाता है। यही नहीं मोक्ष की संकल्पना भी 'साल्वेशन' बन जाती है।

बौद्धिक और मानसिक जगत की सारी बातें भौतिकता के मापदण्डों से नापी जाती हैं । बौद्धिक और मानसिक स्तर के प्रश्नों, व्यवहारों और घटनाओं के खुलासे भौतिक स्तर पर होते हैं। हम अनुभव कर रहे हैं कि तनाव, उत्तेजना, हताशा जैसी नितान्त मानसिक, या मधुमेह, रक्तचाप जैसे मनोविकारजन्य या आहारविहार की अनियमितता या ऋतुपरिवर्तन से जन्य बिमारियों के उपचार भौतिक स्तर पर ही किये जाते हैं । अन्तःकरण से सम्बन्धित योग जैसे विषय का व्यवहार भौतिक स्वरूप में होता है, संगीत, कला, साहित्य आदि का यश भौतिक उपलब्धियों से नापा जाता है । मजेदार बात यह है कि विश्वविद्यालयों की उपलब्धियों में एक उपलब्धि छात्रों को कितने ऊँचे वेतन की नौकरियाँ मिलती हैं और विश्वविद्यालय के शोधकार्य से कितनी आमदनी होती है यह भी मानी जाती है। सर्वत्र, सर्वक्षेत्रों में गुणवत्ता भौतिकता पर ही आधारित है।

इसी कारण से सड़कें, कारें, बडी इमारतें, असंख्य प्रकार की साधनसामग्री विकास का पर्याय मानी जाती है। विपुलता विकास का पर्याय है । भौतिक पदार्थों की प्राप्ति, उनका स्वामित्व सफलता का पर्याय माना जाता है । इनके उपभोग को सुख का और सुख को आनन्द का पर्याय माना जाता है । विकास अनन्त काल तक होता रहे तो भी पूर्ण नहीं होता, उपभोग असीम मात्रा में होता रहे तो भी तृप्ति नहीं होती, लक्ष्य कभी प्राप्त नहीं होता क्योंकि वह प्राप्त होने की सम्भावना ही नहीं रखता । इस अर्थ में तो वह बौद्धिक रूप में भी अव्यावहारिक है । ऐसी अव्यावहारिकता के कारण ही अनेक प्रश्नों के खुलासे ही नहीं हो सकते, समाधान ही नहीं होगा। कोई कह सकता है कि यदि इस जगत को और जीवन को भौतिक ही माना जाय तो आपत्ति क्या है। प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला जगत और जीवन का व्यवहार तो भौतिक स्वरूप का ही है, फिर चेतन को मानने की क्या आवश्यकता है?

आवश्यकता इसलिये है कि भौतिकता को ही अधिष्ठान मानने का परिणाम स्पर्धा, संघर्ष, हिंसा, शोषण, अत्याचार आदि में हो रहा है। भौतिकता में सुख माननेवाले को स्वयं को भी सुख मिलता नहीं है और दूसरों को वह दुःख देता है । सुख ही नहीं मिलता तो आनन्द का तो प्रश्न ही नहीं है।

भौतिकता को अधिष्ठान मानने का दूसरा सार्वत्रिक दुष्परिणाम यह दिखाई देता है कि विश्व में शारीरिक व्याधियों में और शारीरिक से भी अधिक मानसिक व्याधियों में वृद्धि हुई है। मानसिक व्याधियों सार्वत्रिक दुःख और दौर्मनस्य को जन्म देती है। लालसा, असन्तोष, तृष्णा, महत्वाकांक्षा आदि के चलते स्वयं के सुख और शान्ति का तो नाश होता ही है, जगत के सुख और शान्ति भी संकटग्रस्त हो जाते हैं । भौतिकता के कारण भौतिक सुखों का, भौतिक गुणवत्ता का भी स्रोत मानसिक और चैतसिक होता है यह समझ में नहीं आता । उदाहरण के लिये फलों के जिन वृक्षों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार किया जाता है उन फलों का स्वाद और पोषकता भी अधिक गुणवत्ता पूर्ण होती हैं, उस औषधि का रोग भगाने का गुण भी अधिक होता है । जब भूमि को माता माना जाता है तो उसमें ऊगने वाला अनाज देह, मन और बुद्धि का अधिक अच्छी तरह से पोषण करनेवाला होता है।

भौतिक पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता का स्वीकार कर उसके साथ तादात्म्य का अनुभव करनेवाले के समक्ष भौतिक पदार्थ भी अपना अन्तरंग रहस्य उद्घाटित करते हैं ऐसा अनेकों का अनुभव है। यही दर्शाता है कि भौतिकता अधिष्ठान नहीं हो सकती, अधिष्ठान जड़ और चेतन जिसमें एक बनकर निहित हैं ऐसा आत्मतत्त्व ही हो सकता है। इसका व्यवहार में अर्थ यह होता है कि जड़ के अर्थात् भौतिक के सम्पूर्ण व्यवहार का प्रेरक और चालक तत्त्व चेतन होता है, भौतिक स्वयंचालित नहीं है ।

भौतिकता को अधिष्ठान मानने से पर्यावरण पंचमहाभूतों में सीमित रह जाता है और हम भूमि, जल, वायु, ध्वनि, तापमान आदि की ही चिंता करने लगते हैं। विचारों का, भावनाओं का, संस्कारों का, बुद्धि का प्रदूषण हमारे ध्यान में नहीं आता, जबकि भौतिक पर्यावरण पर या पर्यावरण के प्रदूषण पर इनका बहुत बड़ा प्रभाव होता है और इनका विचार किये बिना भौतिक पर्यावरण की शुद्धि सम्भव ही नहीं है। यही कारण है कि प्रदूषण की विश्वस्तर पर चिंता करने के बाद भी प्रदूषण कम होने के स्थान पर बढ़ता ही जाता है। आत्मतत्त्व की अभिव्यक्ति का अन्तिम स्तर, स्थूलतम स्तर भौतिक है। वह वास्तव में किसी का अधिष्ठान नहीं हो सकता। इस स्थूलतम अभिव्यक्ति की तुलना में प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक स्तर उत्तरोत्तर सूक्ष्म और अधिक प्रभावी हैं। वे उत्तरोत्तर अधिष्ठान बनने चाहिये और सर्व अभिव्यक्ति का अधिष्ठान आत्मिक स्तर होना चाहिये । इस दिशा का स्वीकार करने से समस्याओं का समाधान सरलता और सहजतापूर्वक होता है।

जीवन और जगत की भौतिक अधिष्ठान की यह संकल्पना आज विश्वव्यापी बन रही है, बन गई है। परिणाम स्वरूप संकट भी बढ़ रहे हैं, बढ़ गये हैं। भारत भी इससे मुक्त नहीं रहा है। परन्तु भारत की चिति में अभी इसका अस्तित्व हैं । इसलिये पश्चिम के इस भौतिकवाद को नकारना चाहिये। नकारने का अर्थ भौतिक पदार्थों को, भौतिक समृद्धि को, भौतिक अभ्युदय को नकारना नहीं है। नकारने का अर्थ भौतिक अधिष्ठान को नकारना है।

विश्वविद्यालयों में चिन्तन और विमर्श के स्तर पर इसे नकारने का प्रारम्भ होना चाहिये । प्रथम भारत में और बाद में विश्वस्तर पर इस विमर्श को चलाना चाहिये । सेमेटिक पंथों की विश्वदृष्टि इस विमर्श में अवरोधरूप बनने की सम्भावना है। साथ ही भौतिक विज्ञान, जो अपने आपको महासमर्थ मानता है, और विश्व का राजनीतिक फलक बौद्धिक विमर्श में अवरोधरूप बन सकता है। परन्तु इन अवरोधों को पार करने के उपाय भी करने ही होंगे।

बौद्धिक स्तर के विमर्श के बाद भावात्मक स्तर पर भी भौतिकता को नकारना चाहिये। इसमें योग, भक्तिमार्ग, आस्था, श्रद्धा आदि का बहुत उपयोग हो सकता है। उसके साथ साथ व्यवहार और व्यवस्था के स्तर पर भौतिकता को नकारने की आवश्यकता रहेगी । भौतिकता को व्यवहार के स्तर पर नकारने का अर्थ है प्रत्येक भौतिक पदार्थ को चेतना के परिप्रेक्ष्य को छोडे बिना स्वीकार करना । उदाहरण के लिये भूमि, जल, अग्नि, वायु, आधिभौतिक पदार्थ ही हैं परन्तु उन्हें पवित्र मानकर, देवता मानकर उनका आदर कर, उनके प्रति स्नेह रखकर उनका रक्षण करना, उनके प्रति कृतज्ञता दर्शाना उनमें स्थित चेतन तत्त्व का भी स्वीकार करना है। अन्न, वस्त्र, अलंकार, सुविधा की अन्य सामग्री का स्वंय के और अन्यों के कल्याण के अविरोधी रूप में सेवन करना, उन्हें अपने से निकृष्ट नहीं मानना, भोग्य नहीं मानना, दास नहीं मानना उचित व्यवहार है।

भौतिकता के अध्ययन, उपभोग और उपासना में भी बुद्धि, परिश्रम और प्रचण्ड पुरुषार्थ की आवश्यकता रहती ही है। आज विश्व में ऐसे पुरुषार्थ की कमी नहीं है। इसकी उपलब्धि भी विस्मित कर देने वाली है। दूसरे ग्रहों की खोज, वहाँ पहँचने वाले यानों की खोज, परमाणु शस्त्र, मोबाईल, इण्टरनेट की क्रान्ति आदि सब चमत्कारी उपलब्धियों के उदाहरण हैं। भौतिकता में समृद्धि और सामर्थ्य दोनों हैं, दोनों अपरिमित हैं। परन्तु चेतना के अधिष्ठान के बिना वे कल्याणकारी बनने के स्थान पर विनाशकारी बननेवाले सिद्ध होते हैं। विश्व गति करता है विनाश की ओर, उसे नाम देता है विकास का। यह बौद्धिक और व्यावहारिक मिथ्यात्व को दूर तो तभी किया जा सकता है जब हम भौतिकता को आत्मिकता के परिप्रेक्ष्य में स्थापित करेंगे।

इन कारणों से हमें पश्चिम के भौतिकवाद को नकारने की आवश्यकता है । भौतिकता को नकारना कठिन भले ही हो, वह अनिवार्य है इसलिये सम्भव बनाना चाहिये ।

References

धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व ३: अध्याय २५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे