अनोखी पाठशाला : बेरफुट कॉलेज
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१. राजस्थान के प्रमुख शहर अजमेर के निकट किशनगढ़ से लगभग १५ किलोमिटर दूर स्थित एक छोटा सा गाँव है, तिलोणियाँ । इस छोटे से गाँव में लगभग तीन सौ लोग रहते हैं, परन्तु आज यह छोटा सा गाँव “बेरफुट कॉलेज के कारण प्रसिद्ध हैं । वैसे तो इस कोलेज का कार्य विश्व के लगभग ६०-७० देशों में चलता है, परन्तु तिलोणियाँ उन सबमें मुख्य केन्द्र है ।
२. संजीत रॉय उपाख्य “बंकर' नाम के एक सेवाभावी व्यक्तिने सनू १९७२ में तितोणियाँ गाँव में एक सेवाकार्य प्रारम्भ किया था । इनके इस गाँव में आने का हेतु तो गाँव के लोगोंं के लिए पीने के पानी की समस्या का हल निकालना ही था, परन्तु यहाँ सेवा करते-करते उन्होंने अपने सेवा कार्यों को आज ‘बैरफुट कॉलेज' का वर्तमान स्वरूप प्रदान किया है । आज वे जीवन के ७५ वर्ष पूर्ण कर रहे हैं।
३. देश-विदेश में चलने वाले सभी कॉलेजों में विभिन्न विषयों का अध्ययन कार्य ही होता है, परन्तु *बेफफुट कॉलेज' इस दृष्टि से अपनी एक अलग ही पहचान रखता है । इस कॉलेज के संचालन में लगे हुए सभी लोग स्थानीय ही है । केवल स्थानीय कहना पर्याप्त नहीं है, वे सभी अनपढ़ ग्रामीण लोग हैं और अधिकांश बहनें हैं । राजस्थान के जिस अचल में यह गाँव स्थित है, वहाँ बहनों का घर से बाहर निकल कर ऑफिस का कार्य करना तो कल्पनातीत बात है । ऐसी सामाजिक परिस्थितियों के मध्य इस गाँव की बहनें कम्प्यूटर का कार्य, लेबोरेट्री का काम, ऑफिस का काम करते हुए दिखाई देती हैं । आश्चर्य तो इस बात का है कि ये सब काम करते हुए भी उनका वेश पाश्चात्य नहीं है वही परम्परागत ग्रामीण वेश ही पहनती हैं, कुछ तो घूँघट डाले भी रहती हैं । हम सब भी यही मानते हैं कि ग्रामीण अनपढ़ महिलाएँ कम्प्यूटर नहीं चला सकती, इस पाश्चात्य मानसिकता से बाहर निकालने का कार्य यह कॉलेज कर रहा है । और यह इस कॉलेज का अनोखापन है |
४. इस पाठशाला में वेश की तरह अन्य व्यवस्थाएँ भी धार्मिक हैं, पाश्चात्य नकल नहीं । सम्पूर्ण देश में सभी संस्थानों में बैठक व्यवस्था टेबल-कुर्सी की है जो पाश्चात्य है, परन्तु यहाँ की बैठक व्यवस्था नीचे गादी पर बैठकर काम करने की है, जो पूर्णतया धार्मिक व्यवस्था है । धार्मिक लोगोंं के अनुसार धार्मिक वेशभूषा व धार्मिक व्यवस्था को अपनाना |
५. बेरफुट के मुख्य केन्द्र तिलोणियाँ में उनका कार्यालय, कॉलेज, चिकित्सालय एवं अन्य उपक्रमों के नमूनारूप प्रयोग चलते हैं । यहाँ के चिकित्सालय में दन्त चिकित्सक हो या जल विभाग की प्रयोगशाला का कार्यकर्ता हो या रेडियो ब्रोडकास्टिंग की जिस पर जिम्मेदारी हों, ये सभी ग्रामीण लोग ही हैं, आज के विश्वविद्यालयों के डिग्रीधारी नहीं । चाहे सोलर लेम्प बनाना हो, चाहे सोलर कूकर या सोलर हीटर जैसे प्रोद्योगिक कामों में भी ये ग्रामीण महिलाएँ ही मुख्य भूमिका में होती है | तिलोणियाँ एवं इसके आस-पास के गाँवों में रोजगार के कोई अवसर नहीं है, अतः अधिकांश परिवार गरीब हैं, ऐसे गरीब परिवारों की बहिनों को यह अनोखी पाठशाला व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करती है । इस पाठशाला में पढ़नेवालों को कोई डिग्री नहीं मिलती, परन्तु यहाँ शिक्षित बहनें एक कुशल इंजिनीयर की तरह सोलर कूकर बनाती भी है और उसकी बिक्री भी करती है । बड़े-बड़े सोलर कूकर बनाते समय लोहे की पत्तियों कों काटना, मोड़ना और वेल्डिंग करना पड़ता है । अनोखापन इसी बात में है कि ये सारे काम इसी पाठशाला में पढ़ी ग्रामीण बहनें ही करती हैं । यहाँ से सीखकर वे अपने-अपने गाँव में अपना काम आरम्भ करती हैं । ये बहने सोलर हीटर भी बनाती हैं और ऑर्डर के अनुसार आस-पास के गाँवों में जाकर हीटर लगाती भी हैं ।
६. सोलर लेम्प बनाना भी इस कॉलेज में सिखाया जाता है, जिसमें देश-विदेश की बहनें सीखने के लिए आती हैं । जिन गाँवों में आज तक बिजली नहीं पहुँची, वहाँ की बहनें यहाँ आकर लेम्प बनाना सीखती हैं । एक और अनोखापन यहाँ देखने को मिलता है, वह यह कि सीखने वाले शिक्षार्थी की सिखाने वाले आचार्य की भाषा एक नहीं होती । एक ही कक्षा में पाँच-छः या कभी-कभी तो इससे भी अधिक भाषा बोलने वाली शिक्षार्थी बहनें होती है । ये अनेक देशों की होती हैं, जैसे - वियतनाम, सोमालिया, लीबेरिया, सूडान, झाँझीबार, सेनेगल आदि । इसी प्रकार हमारे देश के अलग- अलग राज्यों जैसे - असम, उडिसा, हिमाचल प्रदेश आदि से आनेवाली बहनें अलग-अलग भाषाएँ बोलने वाली होती हैं । इतनी अधिक भाषाओं के लिए दूभाषिया रखना भी सम्भव नहीं होता । सीखना भी कोई सामान्य विषय नहीं, अपितु इलेक्ट्रोनिक्स इंजिनियरींग का काम ae भी नियत समय और मर्यादा में उन ग्रामीण-अनपढ़ बहनों को सीखना होता है । सोलर लेम्प के लिए सर्किट कैसे बनाना, उन्हें एसेम्बल कैसे करना, एसेम्बल करने के बाद उसकी जाँच करना, जाँचते समय कोई समस्या आ गई तो उसका निराकरण करना जैसी सभी बातें वे यहाँ सीखती हैं ।
७. यह सब सीखने के लिए उन्हें कोई डिग्री नहीं चाहिए, यहाँ प्रवेश लेने के लिए किसी विशेष योग्यता की भी आवश्यकता नहीं चाहिए । यहाँ कोई निम्न तम योग्यता भी नहीं निर्धारित नहीं है, जैसे कम से कम आठवी पास तो हो, अथवा कम से कम पढ़ना-लिखना तो आता हो, इतना भी नहीं है । यहां सीखने आने वालों में अनेक ऐसे होते हैं, जिन्हें लिखना-पढ़ना भी नहीं आता । तथापि इतना तो निश्चित है कि यहां सें सीखने के बाद वह एक कुशल सोलर इंजिनीयर अवश्य बन जाता है । ये डिग्रीधारियों की तरह केवल पुस्तकीय ज्ञान रखने वाले नहीं होते, अपितु उत्पादन करने वाले और जीविका चलाने वाले बनते हैं ।
८. तिलोणियाँ के आस-पास के ग्रामीण अंचलों के लिए यहाँ एक रेडियो ब्रोड कास्टिंग भी आरम्भ किया गया है । इस माध्यम से लोगोंं को कॉलेज में चलनेवाले पाठ्यक्रमों की जानकारी देश-विदेश में चलने वाले दैनन्दिनि कार्यों की जानकारी तथा सरकार द्वारा प्रारम्भ की गई ग्रामीण योजनाओं की जानकारी के द्वारा जनजागृति का कार्य भी होता है । इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में लगने वाले उपकरणों , कम्प्यूटर, बोडकास्टिंग की मशीनों का संचालन ग्रामीण बहनें ही करती हैं ।
९. यहां चलने वाले दन्तचिकित्सालय की मुख्य चिकित्सक भी एक ग्रामीण बहन ही है । दाँत की सफाई से लेकर रूट केनाल तक की सारी चिकित्सा यहाँ की अनुभवी बहनें ही करती हैं । ये बहनें आधुनिक उपकरणों और मसीनों ट्वारा एक कुशल दन्त चिकित्सक की भाँति उपचार करती हैं । इन सबके साथ-साथ आस-पास के गावों में पैलनेवाले रोगों तथा कुपोषण के निवारणार्थ वे स्वयं दवाइयाँ भी बनाती हैं |
१०. लोगोंं के लिए पीने के पानी की समस्या का निकारण करने तथा पानी की शुद्धता की जाँच हेतु बनी प्रयोगशाला भी गाँव के लोग ही चलाते हैं |
११. आज मनोरंजन के क्षेत्र में फिल्मों और सीरियलों का बोलबाला है, परन्तु यहाँ की बहनों ने राजस्थान के पारम्परिक खेल “कठपुतली' को मनोरंजन एवं लोककल्याण का माध्यम बनाया है । इन्होंने वर्तमान समय को ध्यान में रखते हुए नई कठपुतलियाँ तथा नए गीतों का निर्माण किया है ।
१२. ये सब करते-करते उनके दैनन्दिन प्रश्नों का निराकरण कैसे करना, इसकी समझ भी विकसित होती है । उनका आत्मविश्वास भी बढ़ता है । यहाँ जो प्रोद्योगिकी एवं अन्य विषय सिखाये जाते हैं, वे सभी लोगोंं के स्वास्थ्य एवं पर्यावरण को हानि न पहुँचाने वाले हैं । अधिकांश शिक्षण स्वावलम्बन पर आधारित है । विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त के द्वारा गाँव के लोग स्वयं की आवश्यकताओं को स्वयं ही पूरी करते हैं ।
१३. इस अनोखी पाठशाला ने शिक्षाक्षेत्र में स्थापित मापदंडों को अपने कर्तृत्व से नकारा है, जरा ध्यान दें - १. तकनीकी शिक्षा के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना आवश्यक है । २. महँगी शिक्षा ही अच्छी शिक्षा होती है । ३. तकनीकी या आधुनिक उपकरणों की सीख ने लिए कम से कम विज्ञान विषय में कक्षा १२ तक का अध्ययन आवश्यक है । ४. तकनीकी ज्ञान प्राप्त करने के बाद नौकरी ही करनी पड़ती है, स्वतंत्र उद्योग करना सम्भव नहीं । ५. पर्यावरण एवं स्वावलम्बन पर आधारित तकनीकी का विकास सम्भव नहीं । ६. बिना मान्यता, बिना परीक्षा, बिना डिग्री के कोई कॉलेज या पाठशाला नहीं चल सकती | इस दिशा में विचार करनेवाले लोगोंं के लिए यह “अनोखी पाठशाला : बेरफुट कॉलेज' प्रेरक बन सकती है |
(संकलनकर्ता : परागभाई बाबरिया)