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सुधार जारी
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भारतीय सनातन धर्म में नैतिक चिन्तन्त के अंतर्गत शात्रों में नैतिक सद्गुणों तथा कर्त्तव्यों का वर्णन किया गया है। उन कर्त्तव्यों के अनुरूप आचरण करने को पुण्य कहा गया है। एवं शास्त्रविहित कर्म को न करना तथा शास्त्र विरुद्ध कर्म का आचरण करना पाप है।भारतीय चिन्तन में पुण्य-पाप के विचार के सन्दर्भमें सामाजिक दृष्टि प्रमुख है। शास्त्रों में पुण्यकर्मों से उत्तमगति के रूपमें स्वर्ग की प्राप्ति होती है। एवं अशुभ कर्मों के फल स्वरूप नरक आदि की प्राप्ति का उल्लेख प्राप्त होता है। शास्त्रमें पाप और पुण्य की परिभाषा के लिये कहा है-<blockquote>श्लोकार्थेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः। परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥(सुभाषितानि)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BF_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A5%87 सुभाषितानि], संस्कृत, श्लोक- ७७।</ref></blockquote>अर्थात् परोपकार से बढकर कोई पुण्य नहीं है एवं दूसरों को पीडा देने से बढकर कोई पाप नहीं है।
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== परिचय॥ ==
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भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृति में केंद्रीय भूमिका निभाती है। यह अवधारणा मानव आचरण, नैतिकता और मोक्ष से गहराई से जुड़ी हुई है। पाप (अधर्म या गलत कर्म) और पुण्य (धर्म या सही कर्म) के सिद्धांत वैदिक साहित्य, पुराणों, महाभारत, मनुस्मृति, और विभिन्न दार्शनिक ग्रंथों में विस्तृत रूप से वर्णित हैं।
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शास्त्रमें पाप और पुण्य की परिभाषा के लिये कहा है-<blockquote>श्लोकार्थेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः। परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥(सुभाषितानि)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BF_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A5%87 सुभाषितानि], संस्कृत, श्लोक- ७७।</ref></blockquote>अर्थात् परोपकार से बढकर कोई पुण्य नहीं है एवं दूसरों को पीडा देने से बढकर कोई पाप नहीं है। सामान्य रूप में जिससे दूसरे को सुख प्राप्त हो वह पुण्य का विषय है। वृक्ष लगाना, उनका संवर्द्धन करना, पथिकों की सेवा करना और प्रपा की व्यवस्था करना आदि सभी धार्मिक कार्य पुण्यप्रद हैं।<ref>अलका तिवारी, [https://ia801508.us.archive.org/17/items/in.ernet.dli.2015.475332/2015.475332.Society-And.pdf विष्णुधर्मोत्तर पुराण में प्रतिबिम्बित समाज एवं संस्कृति],  पाप और पुण्य की मीमांसा, सन् १९९३, प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय, द्वितीय अध्याय, (पृ० ३८)।</ref> भारतीय सनातन धर्म में नैतिक चिन्तन्त के अंतर्गत शात्रों में नैतिक सद्गुणों तथा कर्त्तव्यों का वर्णन किया गया है। उन कर्त्तव्यों के अनुरूप आचरण करने को पुण्य कहा गया है। एवं शास्त्रविहित कर्म को न करना तथा शास्त्र विरुद्ध कर्म का आचरण करना पाप है।भारतीय चिन्तन में पुण्य-पाप के विचार के सन्दर्भमें सामाजिक दृष्टि प्रमुख है। शास्त्रों में पुण्यकर्मों से उत्तमगति के रूपमें स्वर्ग की प्राप्ति होती है। एवं अशुभ कर्मों के फल स्वरूप नरक आदि की प्राप्ति का उल्लेख प्राप्त होता है।
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== परिचय॥ Introduction ==
 
वह कर्म जिसका फल इस लोक और परलोक में सुख देने वाला हो उसको पुण्य कहा गया है एवं वह आचरण जो कर्ता को अशुभ अदृष्ट कष्ट उत्पन्न करे कर्ता का अधः पतन होने लगे जिसके करने से उसको पाप कहा गया है। जिस प्रकार न करने योग्य कर्म को करना पाप कहा गया है उसी प्रकार अवश्य करने योग्य कर्म को न करना भी पाप ही कहा जाता है। जो व्यक्ति पाप(अशुभ कर्म) को कर्ता है उसके साथ संबंध रखने वाला व्यक्ति भी पाप का भागीदार कहलाता है। अशुभ कर्म से बचना चाहिये। यदि कदाचित् पाप हो भी जायें तो शास्त्र के अनुसार उनका प्रायश्चित्त करना चाहिये। पाप का प्रायश्चित्त(पश्चात्ताप) एवं पाप का भोग ये दो ही पाप से छुटकारा पाने के कारण कहे गये हैं। मानव आचरण का मूल्यांकन नैतिक गुणों के आधार पर किया जाता है। नैतिक गुणों में उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य का विवेचन किया जाता है। मनुष्य के कौन-से कर्म शुभ या अशुभ, पाप कर्म या पुण्य कर्म हैं आदि का विवेचन शास्त्रों में किया गया है।
 
वह कर्म जिसका फल इस लोक और परलोक में सुख देने वाला हो उसको पुण्य कहा गया है एवं वह आचरण जो कर्ता को अशुभ अदृष्ट कष्ट उत्पन्न करे कर्ता का अधः पतन होने लगे जिसके करने से उसको पाप कहा गया है। जिस प्रकार न करने योग्य कर्म को करना पाप कहा गया है उसी प्रकार अवश्य करने योग्य कर्म को न करना भी पाप ही कहा जाता है। जो व्यक्ति पाप(अशुभ कर्म) को कर्ता है उसके साथ संबंध रखने वाला व्यक्ति भी पाप का भागीदार कहलाता है। अशुभ कर्म से बचना चाहिये। यदि कदाचित् पाप हो भी जायें तो शास्त्र के अनुसार उनका प्रायश्चित्त करना चाहिये। पाप का प्रायश्चित्त(पश्चात्ताप) एवं पाप का भोग ये दो ही पाप से छुटकारा पाने के कारण कहे गये हैं। मानव आचरण का मूल्यांकन नैतिक गुणों के आधार पर किया जाता है। नैतिक गुणों में उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य का विवेचन किया जाता है। मनुष्य के कौन-से कर्म शुभ या अशुभ, पाप कर्म या पुण्य कर्म हैं आदि का विवेचन शास्त्रों में किया गया है।
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'''पाप क्यों करते हैं?'''
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'''पाप से कैसे बचें?'''
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'''पाप का परिणाम क्या है?'''
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यजुर्वेद के निम्नलिखित मन्त्र के अनुसार पाप और पुण्य इस प्रकार है - <blockquote>'''पाप्मा हतो न सोमः।( यजुर्वेद ६.३५)'''</blockquote>जीवन से पाप नष्ट हो, सोम अर्थात् सोम्य गुण नहीं। इस मंत्र से स्पष्ट है कि पाप का उल्टा सोम या सोम्यगुण है और सोम का उल्टा पाप है। इस मंत्र के अनुसार यह भाव निकलता है कि सोम अर्थात् सोम्यगुण, सुशीलता और सद्गुण पुण्य हैं और इसके विपरीत दुर्गुण ही पाप हैं। संक्षेप में पाप और पुण्य को इस प्रकार समझा जा सकता है। सद्गुणों को पुण्य कहते हैं और दुर्गुणों को पाप कहते हैं। सद्गुण सुख और शान्ति के साधक हैं, अतः सद्गुणों पर आश्रित प्रत्येक कार्य पुण्य होगा। इसी प्रकार दुर्गुण दुःख और अशांति के कारण हैं, अतः दुर्गुण-मूलक प्रत्येक कार्य पाप होगा।
    
== परिभाषा ==
 
== परिभाषा ==
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कर्म दो प्रकार के हैं- शुभ एवं अशुभ। शुभ कर्म वे हैं जो जीव के लिये हितकर, कल्याणकारी आत्मा को पवित्र करने वाले हों। इन्हें ही पुण्यकर्म कहा गया है। पुण्यकर्म पाप की कमी का, आत्मा की पवित्रता का, आत्मशुद्धि का एवं आत्म विकास का सूचक है।
 
कर्म दो प्रकार के हैं- शुभ एवं अशुभ। शुभ कर्म वे हैं जो जीव के लिये हितकर, कल्याणकारी आत्मा को पवित्र करने वाले हों। इन्हें ही पुण्यकर्म कहा गया है। पुण्यकर्म पाप की कमी का, आत्मा की पवित्रता का, आत्मशुद्धि का एवं आत्म विकास का सूचक है।
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पुण्यतत्व वह है जिससे आत्मा पवित्र हो, शुद्ध हो। आत्मा का पवित्र होना आत्मा का विकास होना है। आत्मा की पूर्ण विकसित अवस्था मोक्ष है। पुण्यतत्व का सम्बन्ध आत्मा कि पवित्रता एवं आत्मगुणों के प्रकट होने से है। पुण्यकर्मों का सम्बन्ध पुण्यतत्व के फल के रूपमें मिलने वाले शरीर, इन्द्रिय, मन, मस्तिष्क आदि सामर्थ्य की उपलब्धि से है।
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पुण्यतत्व वह है जिससे आत्मा पवित्र हो, शुद्ध हो। आत्मा का पवित्र होना आत्मा का विकास होना है। आत्मा की पूर्ण विकसित अवस्था मोक्ष है। पुण्यतत्व का सम्बन्ध आत्मा कि पवित्रता एवं आत्मगुणों के प्रकट होने से है। पुण्यकर्मों का सम्बन्ध पुण्यतत्व के फल के रूपमें मिलने वाले शरीर, इन्द्रिय, मन, मस्तिष्क आदि सामर्थ्य की उपलब्धि से है। महाभारत में भी कहा गया है - <blockquote>धर्मेण पापं अपाक्रियते। (महाभारत, शांति पर्व)</blockquote>धर्म के पालन से पापों का नाश होता है। पुण्य तत्त्व आत्म विकास का सूचक है, एवं पुण्यकर्म भौतिक विकास का सूचक है।
 
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पुण्य तत्त्व आत्म विकास का सूचक है, एवं पुण्यकर्म भौतिक विकास का सूचक है।
      
=== पुण्य से लाभ ===
 
=== पुण्य से लाभ ===
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* सबसे बडा पुण्य बुराई से बचना माना गया है। अर्थात् अपने राग, द्वेष आदि ऐसे दोषों का अथवा बुराईयों का त्याग करना, दूसरों का बुरा न चाहना, बुरा न कहना, बुराई न करना सबसे बडा पुण्य है।
 
* सबसे बडा पुण्य बुराई से बचना माना गया है। अर्थात् अपने राग, द्वेष आदि ऐसे दोषों का अथवा बुराईयों का त्याग करना, दूसरों का बुरा न चाहना, बुरा न कहना, बुराई न करना सबसे बडा पुण्य है।
 
* पुण्य की वृद्धि पाप नहीं करने से होती है जैसे किसी का बुरा न चाहना, बुरा न सोचना, बुरा न करना, बुरा न मानना।
 
* पुण्य की वृद्धि पाप नहीं करने से होती है जैसे किसी का बुरा न चाहना, बुरा न सोचना, बुरा न करना, बुरा न मानना।
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मनुस्मृति में कहा गया है -   <blockquote>पुण्यस्य फलमश्नाति पुण्यो भवति कर्मणा। (मनुस्मृति 4.240) </blockquote>जो व्यक्ति पुण्य कर्म करता है, वह पुण्य के फल का भोग करता है और पुण्यात्मा बनता है।
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== पाप ==
 
== पाप ==
जिस प्रवृत्ति से आत्मा का पतन हो, हानि हो, अहित हो वह पाप है। दुष्कृत्य चाहे मन का, वचन का एवं शरीर के द्वारा ही क्यों न हुआ हो सभी पाप हैं।
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जिस प्रवृत्ति से आत्मा का पतन हो, हानि हो, अहित हो वह पाप है। दुष्कृत्य चाहे मन का, वचन का एवं शरीर के द्वारा ही क्यों न हुआ हो सभी पाप हैं। छान्दोग्य उपनिषद में कहा गया है कि - <blockquote>पुण्यं कृत्वा पुण्यं भवति, पापं कृत्वा पापं भवति। (छांदोग्य उपनिषद 5.10.7)</blockquote>पुण्य करने से व्यक्ति पुण्यात्मा होता है और पाप करने से पापी होता है।
    
=== पाप का स्वरूप ===
 
=== पाप का स्वरूप ===
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'''पाप में प्रवृत्त होने के कारण'''
 
'''पाप में प्रवृत्त होने के कारण'''
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# अदृश्य भाव-
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* विवेक हीनता
# घमण्ड के कारण-
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* नास्तिकता
# संस्कार-
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* तमोगुण का प्रचार-प्रसार
# भय
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* अधर्म के प्रति प्रेम
# संस्कृति-
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* कुसंगति
# विषय-वासना-
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* अशुभ संस्कार
# क्रोध-
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* इच्छा शक्ति का ह्रास
# लोभ-
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* असद्ग्रन्थों का अध्ययन
# मोह-
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* आसक्ति भाव
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* कु-संगति
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* विषय-वासना
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'''पाप से बचने के उपाय'''
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पाप से बचने का सर्वप्रथम साधन विवेक है। विवेक शक्ति का कार्य है- कर्तव्य और अकर्तव्य का स्पष्ट निर्णय करना। मनुष्य यदि विवेक से कार्य करेगा तो वह सभी पापों से बच सकता है। पापों से बचने के अन्य साधन ये हैं -
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* आस्तिकता
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* सत्त्वगुण का विकास
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* धार्मिक कृत्यों में अनुराग
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* इच्छाशक्ति का विकास
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* सत्संगति
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* धार्मिक ग्रन्थों का स्वाध्याय
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* नासक्ति भाव
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* प्रायश्चित्त
    
=== पाप से हानि ===
 
=== पाप से हानि ===
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पाप का शाब्दिक अर्थ है ऐसा कर्म जो नैतिकता और धर्म के विरुद्ध हो। शास्त्रों के अनुसार, पाप वे कर्म होते हैं जो आत्मा को बंधन में डालते हैं और संसार में दु:ख और पुनर्जन्म का कारण बनते हैं। इसे अधर्म, अनैतिक आचरण, हिंसा, झूठ, चोरी, और छल-कपट के रूप में परिभाषित किया गया है।
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'''पाप के प्रमुख प्रकार'''
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# '''शारीरिक पाप -''' शरीर द्वारा किए गए पाप, जैसे कि हत्या, चोरी, और अनैतिक आचरण।
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# '''वाणी का पाप -''' असत्य बोलना, निंदा करना, कठोर शब्दों का प्रयोग आदि।
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# '''मानसिक पाप -''' दूसरों के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, और गलत विचार रखना।
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श्रीमद्भगवद्गीता में पाप को उन कर्मों के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो आत्मा के शुद्ध स्वरूप से भटकाने वाले होते हैं। गीता के अनुसार, पाप वो है जो मनुष्य को आत्मिक ज्ञान से दूर करता है और सांसारिक बंधनों में फंसा देता है। (भगवद्गीता 3.36-37) बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है - <blockquote>यथा कर्म यथा श्रुतं तस्य तस्य फलम्। (बृहदारण्यक उपनिषद 4.4.5)</blockquote>जैसा कर्म, वैसा फल प्राप्त होता है।
    
=== पापों के शमन के लिये प्रायश्चित्त ===
 
=== पापों के शमन के लिये प्रायश्चित्त ===
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प्राचीन साहित्यमें कर्म के नैतिक सन्दर्भ का स्पष्ट अंकन हमें बृहदारण्यक उपनिषद् में मिलता है-<blockquote>यथाचारी यथाचारी तथा भवति, साधुकारी साधुर्भवति। पापकारी पापो भवति, पुण्यं पुण्येन भवति पापः पापेन। अथो खल्वाहु काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति तत्कृतर्भवति यत्कुतुर्भवति तत् कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदभि सम्पद्यते॥(बृह०उप०)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95_%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D_4p#cite_note-2 बृहदारण्यक उपनिषद्] , अध्याय-४, ब्राह्मण-४, कण्डिका-४।</ref></blockquote>इसका तात्पर्य यह है कि जो जैसा करने वाला है, जैसा आचरण करने वाला है, वह वैसा आचरण वाला होता है। वह वैसा ही हो जाता है। शुभ कर्म करने वाला शुभ होता है। पाप कर्म करने वाला पापी होता है। पुरुष पुण्य कर्म से पुण्यात्मा होता है और पाप कर्म से पापी होता है।
 
प्राचीन साहित्यमें कर्म के नैतिक सन्दर्भ का स्पष्ट अंकन हमें बृहदारण्यक उपनिषद् में मिलता है-<blockquote>यथाचारी यथाचारी तथा भवति, साधुकारी साधुर्भवति। पापकारी पापो भवति, पुण्यं पुण्येन भवति पापः पापेन। अथो खल्वाहु काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति तत्कृतर्भवति यत्कुतुर्भवति तत् कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदभि सम्पद्यते॥(बृह०उप०)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95_%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D_4p#cite_note-2 बृहदारण्यक उपनिषद्] , अध्याय-४, ब्राह्मण-४, कण्डिका-४।</ref></blockquote>इसका तात्पर्य यह है कि जो जैसा करने वाला है, जैसा आचरण करने वाला है, वह वैसा आचरण वाला होता है। वह वैसा ही हो जाता है। शुभ कर्म करने वाला शुभ होता है। पाप कर्म करने वाला पापी होता है। पुरुष पुण्य कर्म से पुण्यात्मा होता है और पाप कर्म से पापी होता है।
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== निष्कर्ष ==
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== पाप और पुण्य के परिणामस्वरूप पुनर्जन्म ==
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भारतीय दर्शन के अनुसार, व्यक्ति के जीवन और मृत्यु के चक्र में पाप और पुण्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह कर्म सिद्धांत के आधार पर काम करता है, जिसके अनुसार अच्छे कर्म (पुण्य) और बुरे कर्म (पाप) का फल व्यक्ति को अगले जन्म में प्राप्त होता है। यही कारण है कि शास्त्रों में पुण्य कर्मों का महत्त्व और पाप से बचने की बात कही गई है। भगवद गीता में पुण्य और पाप का स्पष्ट रूप से वर्णन है, जहां श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म के महत्व और पुण्य की भूमिका समझाते हैं। गीता के अनुसार, पुण्य कर्म से व्यक्ति स्वर्गलोक और उच्चतर जन्म प्राप्त करता है। भगवद गीता (9.20-21) में कहा गया है - <blockquote>ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकम् अश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्। (भगवद गीता 9.20-21)</blockquote>यहां पुण्य की महत्ता स्वर्ग और ईश्वरीय सुखों की प्राप्ति के रूप में व्यक्त की गई है, जो पुण्य कर्मों का फल है। उपनिषदों में पुण्य की अवधारणा आत्मज्ञान और मोक्ष से गहराई से जुड़ी हुई है। कठोपनिषद में पुण्य को एक ऐसी ऊर्जा के रूप में देखा गया है, जो आत्मा को शुद्ध करती है और उसे जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त करती है - <blockquote>यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः। मृत्युर्मत्युं अप्नोति यः पुण्ये परे अवस्थितः॥ (कठोपनिषद 2.2.7)</blockquote>इस श्लोक में पुण्य को जीवन के अंतिम सत्य के रूप में देखा गया है, जो मोक्ष की दिशा में मार्गदर्शन करता है।
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== निष्कर्ष॥ Conclusion ==
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मनोविज्ञान के अनुसार व्यक्ति में सुसंस्कार और कुसंस्कार बीज रूप में रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने पूर्वजन्म के सु या कु संस्कारों से प्रभावित होता है । परिणाम यह होता है कि पूर्व संस्कारों के कारण व्यक्ति में किसी एक प्रकार के संस्कारों की प्रधानता हो जाती है। उनके अनुसार ही वह सद्गुणों या दुर्गुणों की ओर झुकता है। पूर्व संस्कार उसके इस कार्य में साधक या बाधक होते हैं। यदि व्यक्ति सत्त्वगुण प्रधान है तो उसमें तमोगुणी प्रवृत्तियाँ उदय होने पर भी नष्ट हो जाती हैं। यदि व्यक्ति मूलतः तमोगुणी है तो उसमें तमोगुणी वृत्तियां निरन्तर अभिवृद्धि को प्राप्त होती हैं। उसके हृदय में भी सात्त्विक भाव उदय होते हैं, परन्तु वे उसके हृदय पर स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ पाते हैं। यही कारण है कि कुछ व्यक्ति जन्म से ही सुशील और सच्चरित्र होते है। दूसरे प्रकार के व्यक्ति जन्म से ही दुर्जन और दुश्चरित्र । मनुष्य की रजोगुणी वृत्तियां कुछ अंश में तथा तमोगुणी वृत्तियां पूर्णरूप से पाप में प्रवृत्ति के कारण हैं | मनुष्य में जब तमोगुणी प्रवृत्तियों की प्रबलता होती है, तभी मनुष्य पाप की ओर प्रवृत्त होते हैं। यहाँ उसके जीवन के पतन का प्रथम चरण है।
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== उद्धरण ==
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== उद्धरण॥ References ==
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<references />
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