Hindu Jeevan Drishti (धार्मिक/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली)

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जीवन का स्वभावज लक्ष्य मोक्ष है। जितनी गहराई से मानव के व्यक्तित्व का अध्ययन धार्मिक (भारतीय) मनीषियों ने किया है, अन्य किसी ने नहीं किया है। धार्मिक (भारतीय) मनीषियों के अनुसार मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। वर्तमान की विपरीत शिक्षा से प्रभावित लोगोंं के लिए जीवन के इस लक्ष्य को समझना कठिन अतः बन गया है कि वे ‘विचार कैसे करना चाहिए’ इस की शिक्षा से वंचित हैं। सामान्य बुद्धि वाले हर मानव को मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है, इसे समझना कठिन बात नहीं है। हर मनुष्य चाहता है कि:

  1. मैं अमर हो जाऊँ।
  2. मैं सर्वज्ञानी बन जाऊँ।
  3. मैं सदा सुखी रहूँ।
  4. मेरे ऊपर किसी का नियंत्रण नहीं चले।
  5. मेरा नियंत्रण सभी पर चले।

ये सभी बातें केवल परमात्मा के पास हैं। अन्य किसी के पास नहीं हैं। और इन्हीं बातों की चाहत हर मनुष्य को है अर्थात् प्रत्येक मानव परमात्मपद प्राप्त करना चाहता है। मोक्ष चाहता है। अन्य ढँग से देखें। सृष्टि में चक्रीयता है। हम यात्रा के लिए घर से निकलते हैं। हमारी यात्रा घर आकर ही पूर्ण होती है। सृष्टि का (और मनुष्य का भी) निर्माण यदि परमात्मा ने अपने में से ही किया है तो मानव जीवन का लक्ष्य भी जहाँ से यात्रा प्रारंभ की है वहीं पहुँचने का होगा।[1]

जीवन दृष्टि के सूत्र

प्राचीन काल से ही मै कौन हूं? कहाँ से आया हूं? मेरे जन्म का प्रयोजन क्या है ? मरने के बाद मै कहाँ जाऊंगा? आदि प्रश्नों के उत्तर हमारे पूर्वजों ने खोज निकाले थे। वह उत्तर आज भी उतने ही सटीक हैं। इन उत्तरों को प्राप्त करने के लिये जो चिंतन हुआ हुआ उस का सार निम्न है:

  1. चराचर अर्थात् जड़़ और चेतन सृष्टि यह आत्म तत्व का ही विस्तार है। इस लिये चराचर के प्रत्येक घटक का एक दूसरे से आत्मीयता का संबंध है। आत्मीयता शब्द ही आत्मतत्व से बना है। आत्मीयता से व्यवहार के सूत्र प्रेम, सेवा और त्याग है। आत्मीयता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति परिवार भावना है।
  2. आत्मतत्व परम चैतन्यमय है। इस लिये सारी सृष्टि यह चैतन्यमय ही है। जड़़, जीव, वनस्पति, प्राणी और मानव आदि अक्रिय से लेकर सक्रिय तक की चेतना के भिन्न भिन्न स्तरों को दिये गये नाम है।
  3. सृष्टि के सभी घटकों में मानव जाति सब से अधिक विकसित है। मनुष्य जन्म का प्रयोजन जहाँ (परमात्मतत्व से) से निकले वहाँ ( परमात्मतत्व तक) पहुंचना ही है। यही सृष्टि की चक्रीयता के स्वरूप से भी समझ में आता है। उत्पत्ति, स्थिति और लय यही सृष्टि के कालचक्र की गति है। अर्थात् मनुष्य जन्म का प्रयोजन आत्मतत्व में लीन हो जाना या परमात्मपद प्राप्ति है। मोक्ष है। मुक्ति है। चराचर सृष्टि के साथ एकात्मता की भावना का विकास ही परमात्मपद प्राप्ति है। प्रत्येक मनुष्य को यह लक्ष्य प्राप्त हो सके इस लिये समाज के साथ ही यज्ञ (नि:स्वार्थ भाव से लोक हित के और पर्यावरण की शुद्धता और संतुलन बनाए रखने के लिये काम करना -संदर्भ श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३ श्लोक १०,११) को भी परमात्मा ने निर्माण किया है।
  4. जीवन स्थल और काल के संदर्भ में एक और अखण्ड है। इस लिये इस का टुकडों में विचार नहीं किया जाना चाहिये। स्थल के संदर्भ में अखण्डता से मतलब है विश्व के किसी भी कोने में घटने वाली घटना या कृति का विश्व के हर भाग में असर होना। और काल के सन्दर्भ में अखण्डता का अर्थ है हर जीव जब से उसका सृष्टि में सृजन हुआ है तब से लेकर जब तक सृष्टि में उसका विलय होगा तब तक उसका अस्तित्व रहेगा। यह उसके बार बार जन्म और मृत्यू के रूप में चलता रहता है। इस कारण एकात्म और समग्र पध्दति से ही जीवन का विचार करना चाहिये। ‘थिंक ग्लोबली ऍक्ट लोकली’ इस अंगरेजी मुहावरे का अर्थ है, वैश्विक हित का विचार कर उस के सन्दर्भ में स्थानिक स्तरपर काम करो।
  5. एक मात्र मनुष्य योनि कर्म योनि है। मनुष्य कर्म करने को स्वतंत्र है। इसे कर्म करने की स्वतंत्रता है। अन्य सब भोग योनियाँ हैं। मनुष्य योनि में कर्म ही जीवन का नियमन करते है। इसे समझने के लिए ही कर्म सिद्धांत की प्रस्तुति की गयी है।

व्यवहार के सूत्र

इस चिंतन के आधार पर धार्मिक (भारतीय) मनीषियों ने मानव जाति को मार्गदर्शन करने के लिये कुछ व्यवहारसूत्रों की प्रस्तुति की है। यह व्यवहार सूत्र निम्न हैं:

१. नर करनी करे तो उतरोत्तर प्रगति संभव है

योग्य ढंग से प्रयास करने से मनुष्य नरोत्तम बन सकता है। यह मान्यता केवल हिंदू या धार्मिक (भारतीय) चिंतन की मान्यता है। अन्य समाजों ने तो मानव प्रेषित भी नही बन सकता ऐसा आग्रहपूर्वक कहा है। फल की कामना किये बिना यदि कोई विहित कर्म करता जाए तो वह, आगे बढ़ सकता है। इस के लिये मार्गदर्शन भी किया है।

मनुष्य चार प्रकार के होते है।

सब से नीचे के स्तरपर होता है नरराक्षस। औरों को कष्ट देकर या औरों को दुखी देखकर इन्हें सुख मिलता है। जानबूझकर सडकपर केले के छिलके फेंक कर लोगोंं को फिसलते देख आनंदित होना या खुजली का चूर्ण सार्वजनिक स्थानों पर लोगोंं के बदन पर डालकर लोगोंं की परेशानी से आनंद पाना ऐसा इन का स्वभाव रहता है।

नरराक्षस से उपरका स्तर होता है नरपशु का। जिस की संवेदनाएं मर गईं है ऐसे मनुष्य को नरपशु कहा जाता है। जिसे अन्य के दुख देखकर कोई दर्द नही होता ऐसे मनुष्य को नरपशु कहते है। नरपशु नाक की सीध में चलता है। किसी के झंझट मे पडता नही है। जो अपने आसपास के दुख-दर्द को समझ नही सकता वह नरपशु नही है तो और क्या है ? किंतु यह भावना समाज में बहुत सामान्य हो गई है।

औरों का दुख-दर्द समझनेवाले मनुष्य को नर कहा जाता है। ऐसे मनुष्य की सहसंवेदनाएं जागृत रहती है। लोगोंं के दर्द निवारण के लिये मै कुछ करूं ऐसा उस का मन करता है। लेकिन वह ऐसा करने की हिम्मत नही रखता।

दुखी लोगोंं के साथ सहानुभूति के कारण जो लोगोंं के दर्द दूर करने का प्रयास करता है उसे नरोत्तम कहते है। ऐसे मनुष्य की सहसंवेदनाएं इतनी तीव्र होती है की वे उसे स्वस्थ बैठने नही देतीं। ऐसी लोगोंं की सहायता करने की उस की लगन की तीव्रता के अनुसार उस का नरोत्तमता का प्रमाण तय होता है। ऐसे नरोत्तम की परिसीमा ही परमात्मपद प्राप्ति है।

संत तुकाराम महाराज कहते है ' उरलो उपकारापुरता '। इस का अर्थ यह है कि अब मेरा जीना मेरे लिये है ही नही। जो कुछ जीना हे बस लोगोंं के लिये। यही है नरोत्तम होने की अवस्था।

प्रयास करने से मनुष्य नर से और नरराक्षस से भी नरोत्तम बन सकता है। जैसे वाल्या मछुआरा जो नरराक्षस ही था, महर्षि वाल्मिकी बन गया था। कई बार ऐसा कहा जाता है की हमें नरोत्तम की चाह नहीं है, हम मनुष्य बने रहें इतना ही पर्याप्त है। किन्तु वास्तविकता यह होती है कि जब हम नरोत्तम बनने के प्रयास करते है तब ही हम संभवतः नर बने रह सकते है। अन्यथा नर से नरपशु और आगे नरराक्षस बनने की प्रक्रिया तो स्वाभाविक ही है। नीचे की ओर जाना यह प्रकृति का नियम है। पानी नीचे की ओर ही बहता है। दुष्ट निर्माण करने के लिये विद्यालय नही खोले जाते। शिक्षा नही दी जाती। सज्जन बनाने के लिये इन सब प्रयासों की आवश्यकता होती है। इसलिये निरंतर नरोत्तम बनने के प्रयास करते रहना अनिवार्य है। वैसे तो हर मनुष्य में नरराक्षस से लेकर नरोत्तम तक के सभी विकल्प विद्यमान होते है। किंतु जो अभ्यासपूर्वक नरोत्तम की परिसीमा तक जाता है उस में सदैव नरोत्तम के ही दर्शन होते है।

२. सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुख: माप्नुयात्[citation needed]

भावार्थ - सब सुखी हों। किसी को कोई भी भय ना रहे। सब ओर मंगल हो। किसी को अभद्र का दर्शन ही ना हो। अर्थात् कहीं कोई अभद्र बातें ना हों।

विश्वभर का हजारों वर्षों का साहित्य खोजकर देखनेपर भी इतना श्रेष्ठ विचार कहीं नही मिलेगा। कुछ लोग कहेंगे यह तो कागजी विचार है। सभी लोग तो कभी भी एक साथ सुखी नही हो सकते। यह कुछ मात्रा में सत्य भी है। हर व्यक्ति भिन्न होता है। कुछ दुष्ट या नरराक्षस प्रवृत्ति के लोग तो औरों के सुख से दुखी होते है या दूसरों को दुखी कर सुख पाते है। फिर सब सुखी कैसे हो सकते है ? ऐसा होनेपर भी हमारा लक्ष्य तो सब सुखी हों यही रखना होगा।

दुनिया भर की लोकतांत्रिक सरकारों ने बहुजनहिताय बहुजनसुखाय का व्यावहारिक लक्ष्य रखा है। किंतु उस के परिणाम हम देख रहे है। केवल मुठ्ठीभर लोग ही सुख बटोरते है। बाकी सब दुखदर्द में पिसते रहते है। इसीलिये स्वामी विवेकानंद कहते थे ‘जो आदर्श है उसे ही हमें व्यवहार बनाने के प्रयास करने चाहिये। जब हम व्यावहारिक को ही आदर्श मानने लग जाते है तो पतन प्रारंभ हो जाता है।‘

एक बार यूडीसीटी के प्राध्यापक से प्रश्न पूछा गया की क्या आप शून्य प्रदूषण रासायनिक उद्योग का लक्ष्य विद्यार्थियों के समक्ष रखते है। उन का उत्तर था की यह संभव नही है। इसलिये ऐसा लक्ष्य नही रखा जाता। परिणाम हम सबके सामने है। कच्चा माल, विभिन्न रासायनिक पदार्थों की गुणवत्ता, योग्य तापमान, योग्य समय और योग्य प्रक्रिया होने से ही सही रासायनिक उत्पादन तैयार होते है। इन में से किसी एक में भी अंतर आने से उत्पादन बिगड जाता है। इस का अर्थ है उत्पादन नही होता। लेकिन प्रदूषण तो होगा ही। इसलिये रासायनिक उद्योगों में शून्य प्रदूषण उद्योग का लक्ष्य ही सामने रखना होगा।

निम्न दोहे में इस तत्व का वर्णन इस प्रकार किया गया है[citation needed] :

मानवता हो व्याप्त तभी जब बने सुखी हर जीव।

शुभ देखे और स्वस्थ रहें, है मानवता की नींव ॥

किसी भी कृति के करने से पूर्व उस में किसी के भी अहित की सारी संभावनाओं को दूर करने के बाद में ही करना चाहिये। आयुर्वेद के एक उदाहरण से इसे हम समझ सकेंगे। पारा यह एक विषैली धातू है। किंतु पारे में औषधि गुण भी है। आयुर्वेद में इसे औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है। किन्तु उस से पूर्व इस के विषैलेपन को पारा-मारण प्रक्रिया से नष्ट किया जाता है। उस के बाद ही वह औषधि बनाने के लिये योग्य बनता है।

महाभारत काल में हम ब्रह्मास्त्र जैसे अति संहारक अस्त्र के बारे में पढते है। किन्तु आज के अणूध्वम जैसा यह तंत्रज्ञान अधूरी स्थिति में व्यवहार में नहीं लाया गया था। ब्रह्मास्त्र का शमन करने का, छोडे हुए ब्रह्मास्त्र को वापस लेने का तंत्र विकसित करने के बाद ही ब्रह्मास्त्र व्यवहार में लाया गया था। साथ ही में अपात्र को ब्रह्मास्त्र ना देने का भी नियम था।

२.१ आ नो भद्रा: कृतवो यन्तु विश्वता:[2]

भावार्थ - भद्र या शुभ-ज्ञान संपूर्ण विश्व से हमें मिले।

हमारा जो ज्ञान है वही सर्वश्रेष्ठ है ऐसा अहंकार धार्मिक (भारतीय) मनीषियों ने कभी नही पाला। यहाँ तक कह डाला कि ‘बालादपि सुभाषितं ग्राह्यं’। छोटा बच्चा भी कुछ श्रेष्ठ ज्ञान देता है तो उसे स्वीकार करना चाहिये। बाहर से आनेवाली शीतल और शुध्द हवा के लिये हम अपने घरों की खिडकियाँ खोलते है। ठीक उसी तरह हमने अपने मन की खिडकियाँ भी शुभ ज्ञान की प्राप्ति के लिये खुली रखनी चाहिये। किन्तु कुछ अशुद्ध हवा आने लगे तो हम जैसे खिडकियाँ बंद भी कर लेते है वैसी ही हमारी अभद्र ज्ञान के विषय में भूमिका होनी चाहिये। कोई बात अन्यों के लिए हितकर है इसलिये यह आवश्यक नही कि वह हमारे लिये भी उपयुक्त होगी ही। इसलिये उसे अपनी स्थानिकता की दृष्टि से वह कितनी हितकर है, इस की कसौटी पर ही भद्र-अभद्र का निर्णय कर स्वीकार करना होगा।

यहाँ भद्र का अर्थ भी ठीक से समझना होगा। भद्र का अर्थ केवल हमारे हित का है ऐसा नहीं वरन सब के हित का जो है वही भद्र ज्ञान है। और यह सब का हित भी केवल वर्तमान से संबंधित या अल्पावधि के लिये नहीं होकर चिरकाल तक सब के हित का होना आवश्यक है। ऐसे ज्ञान को ही भद्र या शुभ ज्ञान कहा जा सकता है। ऐसा भी हो सकता है की बाहर से आनेवाला ज्ञान सब के हित का ना हो या सब के हित का होनेपर भी चिरंतन हित का ना हो। ऐसी स्थिति में ऐसे ज्ञान को सुधारकर जबतक हम उसे चिरकाल तक सब के हित का नही बना देते उस ज्ञान का उपयोग वर्जित रखें। वह ज्ञान भले ही हमारे हित का हो लेकिन कम से कम उस ज्ञानसे अन्यों का अहित नही होगा यह सुनिश्चित करनेपर ही वह ज्ञान भद्र कहा जा सकेगा।

भद्र ज्ञान के विषय में एक और पहलू भी विचार करने योग्य है। कोई तंत्रज्ञान कुछ मात्रा में तो लाभदायी है और कुछ मात्रा में हानि करनेवाला है। ऐसे तंत्रज्ञान को वह जब तक सब के हित में काम करनेवाला है उस सीमा तक ही उपयोग में लाना होगा। उस से आगे उस का उपयोग वर्जित करना होगा। उदाहरण: संगणक को लें। एक सीमा तक तो संगणक बहुत ही लाभदायक तंत्रज्ञान है। किंतु वह जब मानव के अहित के लिये उपयोग में लाया जाएगा तब उस का उपयोग वर्जित होगा। जिस व्यक्ति या संस्था के पास यह शुभ ज्ञान का विवेक नहीं है ऐसे लोगोंं को संगणक के ज्ञान से वंचित रखने में ही सब की भलाई होगी।

२.२ आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च[3]

मेरे जीवन का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है। किन्तु जब तक मैं अपने सांसारिक कर्तव्य और लोकहित के संबंध में अपनी भूमिका ठीक से पूरी नहीं करता मुझे मोक्षगामी होने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसी धार्मिक (भारतीय) मान्यता है। स्वामी विवेकानंद कहते थे जबतक मेरे भारत का एक भी व्यक्ति दुख से ग्रस्त है मुझे मोक्ष नहीं चाहिये।

३. एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति[4] / विविधता में एकता

सत्य एक ही है। किन्तु हर व्यक्ति को मिले ज्ञानेंद्रियों की, मन, बुद्धि और चित्त की क्षमताएं भिन्न है। इन साधनों के आधार पर ही कोई मनुष्य सत्य जानने का प्रयास करता है। ये सब बातें हरेक व्यक्ति की भिन्न होने के कारण उस के सत्य का आकलन भिन्न होना स्वाभाविक है[citation needed]

सत्य एक अनुभूति भिन्न है सत्य यही तू जान

इंद्रिय, मन, बुद्धि भिन्न है भिन्न सत्य अनुमान

एक प्रयोग से इसे हम समझने का प्रयास करेंगे। खुले आसमान में सितारें देखने के लिये दूरबीन लगाएं। दूरबीन के अगले कांच पर मध्य में एक छोटा छेद वाला कागज चिपका दें। अब आकाश का एक छोटा हिस्सा ही दिखाई देगा। अब इस छोटे हिस्से में कितने तारे दिखाई देते है गिनती करें। संख्या लिख लें। अब एक अधू दृष्टि के मनुष्य को दूरबीन में से देखने दें। तारे गिनने दें। फिर संख्या लिख लें। अब तारों की संख्या कम हो गई होगी। अब एक अंधे को देखने दें। अब संख्या शून्य होगी। अब सोचिये तीनों मे से सत्य संख्या कौन सी है। तीनों संख्याओं के भिन्न होनेपर भी, तीनों ही अपने अपने हिसाब से सत्य का ही कथन कर रहे है।

धार्मिक (भारतीय) मनीषियों की यही विशेषता रही है कि जो स्वाभाविक है, प्रकृति से सुसंगत है उसी को उन्होंने तत्व के रूप में सब के सामने रखा है। और एक उदाहरण देखें। न्यूटन के काल में यदि किसी ने आइंस्टीन के सिद्धांत प्रस्तुत किये होते तो क्या होता ? गणित और उपकरणों का विकास उन दिनों कम हुआ था। इसलिये आइंस्टीन के सिध्दांतों को अमान्य करदिया जाता। किन्तु आइंस्टीन के सिद्धांत न्यूटन के काल में भी उतने ही सत्य थे जितने आइंस्टीन के काल में।

इसलिये मै जो कह रहा हूं केवल वही सत्य है ऐसा समझना ठीक नही है। अन्य लोगोंं को जो अनुभव हो रहा है वह भी सत्य ही है। प्रत्येक मनुष्य की स्वतंत्र बुद्धि का इतना आदर संभवतः ही विश्व के अन्य किसी समाज ने नही किया होगा। भारत मे कभी भी अपने से अलग मत का प्रतिपादन करनेवालों के साथ हिंसा नहीं हुई। किसी वैज्ञानिक को प्रताडित नही किया गया किसी को जीना दुस्सह नहीं किया गया। प्रचलित सर्वमान्य विचारों के विपरीत विचार रखनेवाले चार्वाक को भी महर्षि चार्वाक कहा गया। यह तो अधार्मिक (अधार्मिक) चलन है जिस के चलते लोग असहमति के कारण हिंसा पर उतारू हो जाते है।

इस पार्श्वभूमि पर एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति यह मान्यता स्वाभाविक तो है ही हम भारतीयों के लिये गर्व करने की भी बात है।

मेरे साथ यदि कोई पशु जैसा व्यवहार करे तो मै क्या करूं ? ऐसी स्थिति में धार्मिक (भारतीय) विचार में अपनी बुद्धि का उपयोग करने को कहा है। आद्य जगद्गुरू शंकराचार्य कहते है कि वेद उपनिषद भी चिल्ला चिल्लाकर कहें की अंगारे से हाथ नही जलेंगे तो भी मै नही मानूंगा। क्यों कि मेरा प्रत्यक्ष अनुभव भिन्न है।

पूरा उपदेश देने के बाद श्रीमद्भगवद्गीता में १८ वें अध्याय के ६३ वें श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है[5]

‘यथेच्छि्स तत: कुरू’। 18.63।

अर्थात् अब जो तुम्हें ठीक लगे वही करो।

यहाँ एक और स्पष्टीकरण महत्वपूर्ण होगा। श्रीमद्भगवद्गीता मै, बायबल में और कुरआन मे तीनों मे इस अर्थ का उपदेश है कि अन्य सब का विचार छोडकर मेरी ही शरण में आओ। किंतु बायबल और कुरआन के कथन का मैं, मेरी का अर्थ व्यक्तिश: महात्मा ईसा या पैगंबर मोहम्मद की शरण में ऐसा लेना चाहिये ऐसी इन दोनों समाजों की मान्यता है। जब कि श्रीकृष्ण के कथन में मेरी शरण का अर्थ है दैवी शक्ति की शरण मे आओ ऐसा है।

हिंदुत्ववादी लोगोंं की घोर विरोधक सुश्री ईरावती कर्वे ने भी अपनी ‘धर्म’ नामक पुस्तक में पृष्ठ क्र. ३१ पर यह मान्य किया है। एकात्मता की भावना और उस के आधारपर उसे बुद्धि का उपयोग करने के स्वातंत्र्य का आदर धार्मिक (भारतीय) समाज ने मान्य किया है।

स्वामी विवेकानंदजी के शिकागो सर्वधर्मपरिषद में हुए संक्षिप्त और तथापि विश्वविजयी भाषण में यही कहा गया है। उन्हों ने बचपन से जो श्लोक वह कहते आये थे वही उध्दृत किया था। वह था[6]:

रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजुकुटिलनाबापथजुषां।

नृणामेको गम्य: त्वमसि पयसामर्णव इव।।

भावार्थ : समाज में प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा ने बुद्धि का वरदान दिया हुआ है। प्रत्येक की बुद्धि भिन्न होती ही है। किसी की बुद्धि में ॠजुता होगी किसी की बुद्धि में कुटिलता होगी। ऐसी विविधता से सत्य की ओर देखने से हर व्यक्ति की सत्य की समझ अलग अलग होगी। हर व्यक्ति का सत्य की ओर आगे बढने का मार्ग भी भिन्न होगा। कोई सीधे मार्ग से तो कोई टेढेमेढे मार्ग से लेकिन सत्य की ओर ही बढ रहा है। ऐसी हमारी केवल मान्यता नही है वरन् ऐसी हमारी श्रद्धा है[citation needed]

आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं।

सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति।

जिस प्रकार बारिश का पानी धरतीपर गिरता है। लेकिन भिन्न भिन्न मार्गों से वह समुद्र की ओर ही जाता है उसी प्रकार से शुद्ध भावना से आप किसी भी दैवी शक्ति को नमस्कार करें वह परमात्मा को प्राप्त होगा।

“विविधता या अनेकता में एकता” यह भारत की विशेषता है। इसका अर्थ यह है कि ऊपर से कितनी भी विविधता दिखाई दे सभी अस्तित्वों का मूल परमात्मा है इस एकमात्र सत्य को जानना। अतः भाषा, प्रांत, वेष, जाति, वर्ण आदि कितने भी भेद हममें हैं। भेद होना यह प्राकृतिक ही है। इसी तरह से सभी अस्तित्वों में परमात्मा (का अंश याने जीवात्मा) होने से सभी अस्तित्वों में एकात्मता की अनुभूति होने का ही अर्थ “विविधता या अनेकता में एकता” है। यही धार्मिक (भारतीय) या हिन्दू संस्कृति का आधारभूत सिद्धांत है। यही हिन्दू धर्म का मर्म है।

४ आत्मा, परमात्मा और इस से जुडी मान्यताएं

आत्मा और परमात्मा यह संकल्पनाएं इस्लाम में रूह और अल्ला और ईसाईयत में सोल और गॉड जैसी है ऐसी सर्वसाधारण लोगोंं की समझ होती है। किन्तु यह सोच ठीक नही है। आत्मा और परमात्मा की धार्मिक (भारतीय) संकल्पनाएं पूर्णत: भिन्न है। इसी प्रकार से अध्यात्म और स्पिरीच्युऍलिटी (adhyatmikity) भी भिन्न संकल्पनाएं है। इस विषय पर यह लेख देखें। गलत अंग्रेजी शब्दों के उपयोग के कारण और अर्ध-ज्ञानी धर्मगुरूओं के उपदेशों के कारण सामान्य हिंदू भी इन सब को एक ही मानने लग गये है। किन्तु यह ठीक नही हे। इन में जो अंतर है उसे हम संक्षेप में समझकर आगे बढेंगे।

परमात्मा सर्वव्यापी और इसलिये सर्वज्ञानी और सर्वशक्तिमान है। यह पूरी सृष्टि परमात्मा ने अपनी इच्छा और शक्ति से अपने में से ही निर्माण किया है। यह है परमात्मा की संकल्पना। अल्ला या गॉड ऐसे नहीं है। आदम और ईव्ह ने ज्ञान का फल खाया इस लिये उन्हें दंड देनेवाला गॉड और ॠषियों को सत्यज्ञान का वेदों के रूप में स्वत: कथन करनेवाला परमात्मा एक कैसे हो सकता है ? सेमेटिक धर्मों में अल्ला और गॉड दोनों ही ईर्षालू है। इन्हे स्पर्धा सहन नहीं होती। ये दोनों ही असहिष्णू माने जाते है। परमात्मा वैसा नहीं है। आत्मा रुह और सोल इन संकल्पनाओं में भी ऐसा ही मूलभूत अंतर है। वर्तमान मानवी जीवन ही सबकुछ है। इस से पहले कुछ नही था और आगे भी कुछ नही है ऐसी इस्लाम और ईसाईयत की मान्यता है। इसलिये रूह या सोल को स्थायी हेवन या जन्नत और स्थायी हेल या दोजख की इन दो मजहबों में मान्यता है।

धार्मिक (भारतीय) संकल्पना की आत्मा यह परमात्मा का ही अंश है। जो परमात्मा की इच्छा से ही निर्माण हुआ है। अंत में इसे परमात्मा में ही विलीन होना है। वह अनादि और अनंत ऐसे परमात्मा का ही अंश होने से वह भी अनादि और अनंत ही है। कुछ कच्चे वैज्ञानिक कहते है कि परमात्मा को जबतक प्रयोगशाला में सिध्द नही किया जाता हम विश्वास नही कर सकते। ऐसे अडियल वैज्ञानिकों को स्वामी विवेकानंद उलटी चुनौती देते है कि वे उन की प्रयोगशाला में सिध्द कर के दिखाएं कि परमात्मा नहीं है। एक और भी दृष्टि से इसे देखने की बात स्वामी विवेकानंद करते है। परमात्मा के मानने से यदि लोग सदाचारी बनते है तो परमात्मा में विश्वास रखने में क्या बुराई है ? वास्तविक बात तो यह है कि मानव शरीर पंचमहाभूतों का बना होता है। वैज्ञानिक उपकरण उन्ही पंचमहाभूतों के बने होते है। शरीर से सूक्ष्म इंद्रियाँ होती है। इंद्रियों से सूक्ष्म मन, मन से सूक्ष्म बुद्धि, बुद्धि से सूक्ष्म चित्त और चित्त से भी अधिक सूक्ष्म आत्मतत्व होता है। यह तो मीटर की मापन पट्टी लेकर नॅनो कण का आकार मापने जैसी गलत बात है। परमात्वतत्व को जानने के साधन वर्तमान प्रयोगशाला में उपलब्ध भौतिक उपकरण नही हो सकते। हमारे पूर्वजों ने आत्मा और परमात्मा इन संकल्पनाओं से जुड़े कई वर्तनसूत्रों और मान्यताओं का विकास किया है। उन का अब संक्षिप्त परिचय हम करेंगे।

४.१ अमृतस्य पुत्रा: वयं

हम अमृतपुत्र हैं। हम अमर हैं। अविनाशी हैं। मैं केवल शरीर नहीं हूं। मै अजर अमर अविनाशी ऐसा आत्मतत्व हूं। यह विचार ही मन से किसी भी बात के भय को नष्ट करनेवाला है। मेरा शरीर और मैं, यह भिन्न हैं। जैसे जीर्ण वस्त्र बदलकर हम नये वस्त्र धारण करते है उसी प्रकार से हमारी आत्मा एक जीर्ण शरीर को या जिस शरीर का विहित कार्य पूर्ण हो गया है उस शरीर को त्यागकर एक नये शरीर को धारण करती है। चष्मे का क्रमांक बदलनेपर हम दूसरा चष्मा ले लेते है। वैसा ही हमारा वर्तमान शरीर है। आवश्यकता पूर्ण होनेपर या उस के निरुपयोगी होनेपर उसे बदला जा सकता है।

'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ अर्थात् शरीर की आवश्यकता तो धर्म के पालन के लिये है। धर्म का पालन अच्छे ढंग से हो सके इसलिये शरीर स्वास्थ्य को महत्व है।

आत्मा और परमात्मा को प्रत्यक्ष देखना हर किसी को संभव नहीं। किन्तु अनुमान तर्क के आधारपर उसे समझाया जा सकता है। कुछ वैज्ञानिक जो अनुमान और तर्क को विज्ञान में प्रमाण के रूप में मानते है परमात्मा और आत्मा के विषय में उन्हें प्रत्यक्ष प्रमाण की माँग करते है। ऐसे अडियल या पूर्वाग्रही वैज्ञानिकों के मत का विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। आत्मा और परमात्मा यह दोनों ही संकल्पनाएं वैज्ञानिक सत्य ही हैं।

४.२ पंच ॠण

ॠण का अर्थ है कर्ज। कृतज्ञता का अर्थ है औरों के द्वारा अपने हित में किये उपकारों को याद रखना। और यथासंभव उस से उतराई होने का प्रयास करना। पशु पक्षियों की स्मृति कम होती है। संवेदनाएं भी कम होती है। बुद्धि और चित्त भी मनुष्य की तुलना में दुर्बल होता है। इसलिये उसे उपकारकर्ता के उपकारों का स्मरण नही रहता। किन्तु मनुष्य के लिये उपकारों का भूलना अच्छी बात नही मानी जाती। वह यदि किये उपकार भूल जाता है तो उसे कृतघ्न कहा जाता है। कृतघ्नता को मनुष्यता का लक्षण नही माना जाता।

हम जब जन्म लेते है और आगे जीवन जीते है तो कई घटकों से हम सहायता पाते है। इन घटकों का वर्गीकरण हमारे पूर्वजों ने पाँच प्रमुख हिस्सों में किया है। वे हैं भूतॠण, पितरॠण, ॠषिॠण, समाजॠण या नृॠण और देवॠण

जैसे किसी व्यक्ति का ॠण बढते जाने पर उस की समाज में कीमत कम होती जाती है उसी प्रकार जो मनुष्य अपने जीवनकाल में ही अपने ॠण से उॠण होने के प्रयास नहीं करता वह हीन योनि या हीन मानव जन्म को प्राप्त होता है। इसलिये धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि में ॠण से उॠण होने के लिये कठोर प्रयास करने का आग्रह है। इन प्रयासों के परिणाम स्वरूप अनायास ही समाजजीवन श्रेष्ठ बनता जाता है। मनुष्य भी इन ॠणों से उॠण होने के प्रयासों में अधिक उन्नत होता जाता है। उस ने जो पाया है उस से अधिक लौटाना यह तो बडप्पन का लक्षण ही है।

४.३ चतुर्विध पुरुषार्थ

पुरुषार्थ शब्द आते ही पुरुष प्रधानता का संशय संशयात्माओं को आने लगता है। धार्मिक (भारतीय) प्राचीन साहित्य में पुरुष शब्द के अर्थ में पुरुष और स्त्री दोनों का समावेष होता है। धार्मिक (भारतीय) वर्तनसूत्रों में चार पुरुषार्थों का महत्वपूर्ण स्थान है। यह पुरुषार्थ है धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। काम का अर्थ है कामनाएं, इच्छाएं। और अर्थ से तात्पर्य है इन इच्छाओं की पूर्ति के लिये किये प्रयासों से। इच्छाएं नही होंगी तो जीवन थम जाएगा। और इच्छाओं की पूर्ति के लिये प्रयास नही होंगे तो भी जीवन चलेगा नही। जीने के लिये हवा, पानी और सूर्य प्रकाश तो सहज ही उपलब्ध है। किन्तु मनुष्य की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति तो प्रयासों से ही हो सकती है। इसलिये इच्छाओं को भी पुरुषार्थ कहा गया है। इसलिये अर्थ और काम इन दोनों को पुरुषार्थ कहा गया है। मनुष्य की इच्छाएं अमर्याद होती है। यह सभी को ज्ञात है। कुछ इच्छाएं धर्म के अनुकूल होती है। कुछ इच्छाएं धर्म के प्रतिकूल भी होती है। इन इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास भी विविध मार्गों से किये जाते है। इन में कुछ धर्म से सुसंगत होते है। और कुछ धर्म विरोधी भी होते है। कामनाओं को और उन की पूर्ति के लिये किये गये प्रयत्नों को, दोनों को ही धर्म के दायरे में रखना आवश्यक होता है। ऐसा करने से मनुष्य का अपना जीवन और जिस समाज का वह हिस्सा है वह समाज जीवन दोनों सुचारू रूप से चलते है। वास्तव में इन पुरुषार्थो में प्रारंभ तो काम पुरुषार्थ से होता है। उस के बाद अर्थ पुरुषार्थ आता है। किन्तु धर्म पुरुषार्थ को क्रम में सर्वप्रथम स्थानपर रखने का कारण यही है कि सर्वप्रथम धर्मानुकूलता की कसौटी पर इच्छाओं की परीक्षा करो, उन में से धर्मविरोधी इच्छाओं का त्याग करो। केवल धर्मानुकूल इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास करो। इसी प्रकार इच्छापूर्ति के प्रयासों में भी अर्थात् अर्थ पुरुषार्थ के समय भी धर्म के अनुकूल प्रयास ही करो। धर्मविरोधी प्रयासों का त्याग करो।

मनुस्मृति में (6-176) मे यही कहा है[7]

परित्यजेदर्थकामौ यास्यातां धर्मवर्जितौ ।। 6-176 ।।

श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है। धर्म का अविरोधी काम मैं ही हूं। मोक्ष पुरुषार्थ तो ऐसा करने से अनायास ही प्राप्त होता है। वैसे भी सामान्य मनुष्य के लिये मोक्ष पुरुषार्थ बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। वह तो जब सामान्य मनुष्य मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक विकास कर मुमुक्षु पद प्राप्त कर लेता है तब उस में मोक्षप्राप्ति की कामना जागती है। ऐसे मुमुक्षु लोगोंं के लिये मोक्ष पुरुषार्थ की योजना है। अन्यों के लिये तो धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग का ही महत्व है।

४.३.१ काम, अर्थ और मोक्ष पुरुषार्थ

धर्म के विषय में यह लेख देखें। आगे काम, अर्थ और मोक्ष पुरुषार्थों को जानने का प्रयास अब करेंगे।

काम पुरुषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाएं। धर्मसुसंगत इच्छाएं और आकांक्षाएं। सभी इच्छाओं को पुरुषार्थ नही कहा जाता। सामान्यत: पुत्रेषणा अर्थात् मै श्रेष्ठ बच्चोंं को जन्म दूं। वित्तेषणा अर्थात् मै अकूत धन कमाऊं। और लोकेषणा अर्थात् लोग मेरी सराहना करें। मेरा आदर सम्मान करें। ऐसी तीन प्रमुख इच्छाएं तो हर व्यक्ति के मन में होती ही है। किंतु केवल ऐसी इच्छा पुरुषार्थ नहीं कहलातीं। श्रेष्ठ पुत्र/पुत्री की प्राप्ति के लिये मेरा विवाह श्रेष्ठ सुशील कन्या से हो ऐसी इच्छा करना तो ठीक है। काम पुरुषार्थ ही है। किन्तु ऐसी किसी श्रेष्ठ पराई स्त्री के या जो मेरे साथ विवाह के लिये तैयार नही है ऐसी कन्या के साथ मै बलपूर्वक विवाह करने की इच्छा करूं तो यह धर्म का विरोध करनेवाली इच्छा है और यह काम पुरुषार्थ नही काम पुरुषार्थ के विरोधी इच्छा मानी जाएगी। ऐसी इच्छा को अकरणीय माना गया है।

अर्थ पुरुषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयास। अर्थ पुरुषार्थ के लिये केवल प्रयासों का धर्मानुकूल होना पर्याप्त नहीं है। इच्छाएं भी धर्मानुकूल होना अनिवार्य है। तब ही वह प्रयास पुरुषार्थ कहलाया जा सकेगा। ऊपर हमने देखा कि श्रेष्ठ सुशील स्त्री से विवाह की कामना तो धर्मानुकूल ही है। इस इच्छा की पूर्ति के लिये जब मै अपने ओज, तेज, बल, विक्रम, शील, विनय आदि गुणों से ऐसी कन्या को प्रभावित कर मेरे साथ विवाह के लिये उद्यत करता हूं तब वह धर्मानुकूल अर्थ पुरुषार्थ कहता है।

मोक्ष का भी वर्तमान संदर्भ में अर्थ हमें समझना होगा। हमारी मान्यता है – साविद्या या विमुक्तये। जीवन का लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति होने से ही शिक्षा का लक्ष्य भी मुक्ति ही रहेगा। शिक्षा की व्याख्या स्वामी विवेकानंद कुछ ऐसी करते हैं – मनुष्य में पहले से ही विद्यमान अन्तर्निहित पूर्णत्व का प्रकटीकरण ही शिक्षा है। इस पूर्णत्व की व्याख्या पंडित दीनदयालजी उपाध्याय बताते हैं: व्यक्तिगत विकास, समष्टिगत विकास और सृष्टि गत विकास ही पूर्णत्व है। मानव का समग्र विकास है। व्यक्तिगत विकास यह शरीर, मन और बुद्धि का विकास है। समष्टी गत विकास का अर्थ है समूचे समाज के साथ आत्मीयता की या कुटुंब भावना का विकास। और सृष्टि गत विकास का अर्थ है सृष्टि के हर अस्तित्व के साथ कुटुंब भावना का विकास। चराचर के साथ एकात्मता की अनुभूति उस चराचर में विद्यमान परमात्मा से ही एकात्मता की अनुभूति ही है। यही तो मुक्ति है। मोक्ष है। पूर्णत्व है। लेकिन यहाँ बस इतना ही ध्यान में लें कि धर्मानुकूल काम और धर्मानुकूल अर्थ पुरुषार्थ के व्यवहार से मानव स्वाभाविक ही मोक्षगामी बन जाता है।

४.४ परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम्[citation needed]

सत्कर्म और दुष्कर्म की इतनी सरल और सटीक व्याख्या संभवतः ही किसी ने की होगी।

संत तुलसीदासजी कहते है - परहित सरिस पुण्य नही भाई परपीडा सम नही अधमाई। तो संत तुकाराम कहते है पुण्य पर उपकार पाप ते परपीडा। मैने यदि अत्याचार किये तो आज नहीं कल, इस जन्म में नही तो अगले जन्मों में मुझे भी दण्ड मिलेगा ऐसी धार्मिक (भारतीय) समाज की श्रद्धा है। इस श्रद्धा के कारण ही किसी भी (सम्राट अशोक का अपवाद छोडकर) धार्मिक (भारतीय) राजा या सम्राट ने विजित राज्य की जनता पर कभी अत्याचार नहीं किये। किन्तु इहवादी धार्मिक (भारतीय) अर्थात् जो पुनर्जन्म या कर्मसिध्दांतपर विश्वास नहीं करते और अधार्मिकों की बात भिन्न है।

मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है। इन्हें इहवादी कहा जाता है। ऐसे लोग दुर्बल लोगोंं को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगोंं को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है। योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे। योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगोंं को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया। यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्योंकि इन की मान्यता इहवादी थी। ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुआ। इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है। जो यह मानते हैं की जड़़ के विकास में किसी स्तर पर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया। ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते।

परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:। परोपकारार्थ वहन्ति नद्य:।।[citation needed]

परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकारार्थमिदं शरीरम्।।

प्रकृति के सभी अंश निरंतर परोपकार करते रहते है। पेड फल देते हैं। नदियाँ जल देतीं हैं। गाय दूध देती है। मैं तो इन सब से अधिक चेतनावान हूं, बुद्धिमान हूं, क्षमतावान हूं। इसलिये मुझे भी अपनी शक्तियों का उपयोग लोगोंं के उपकार के लिये ही करना चाहिये। यह है धार्मिक (भारतीय) विचार।

इस्लाम और ईसाईयत में पुण्य नाम की कोई संकल्पना नहीं है। केवल ईसा मसीह पर श्रद्धा या पैगंबर मुहम्मद पर श्रद्धा उन्हें सदा के लिये स्वर्गप्राप्ति करा सकती है। इस के लिये सदाचार की कोई शर्त नहीं है। अंग्रेजी भाषा में संभवतः इसी कारण से ‘पुण्य’ शब्द ही नहीं है।

धार्मिक (भारतीय) मान्यता के अनुसार तो पाप और पुण्य दोनों ही मन, वचन ( वाणी ) और कर्म ( कृति ) इन तीनों से होते है। और इन तीनों के पाप के बुरे और पुण्य के अच्छे फल मिलते हैं। मन में भी किसी के विषय में बुरे विचार आने से पाप हो जाता है। और उस का मानसिक क्लेष के रूप में फल भुगतना पडता है। हमारे बोलने से भी यदि किसी को दुख होता है तो ऐसे ही दुख देनेवाले वचन सुनने के रूप में हमें इस पाप का फल भोगना ही पडता है। कृति तो प्रत्यक्ष शारीरिक पीडा देनेवाला कार्य है। उस का फल शारीरिक दृष्टि से भोगना ही पड़ेगा। आगे कर्मसिध्दांत में हम इस की अधिक विवेचना करेंगे।

यहाँ अपराध और पाप इन में अंतर भी समझना आवश्यक है। वर्तमान कानून के विरोधी व्यवहार को अपराध कहते है। ऐसी कृति से किसी को हानि होती हो या ना होती हो वह अपराध है। और प्रचलित कानून की दृष्टि से दंडनीय है। किंतु हमारी कृति से जब तक किसी को दुख नहीं होता, किसी की हानि नहीं होती तब तक वह पाप नहीं है। धार्मिक (भारतीय) सोच में कानून को महत्व तो है किन्तु उस से भी अधिक महत्व पाप-पुण्य विचार को है। दो उदाहरणों से इसे हम स्पष्ट करेंगे। रेलवे कानून के अनुसार रेलवे की पटरियां लाँघकर इधर-उधर जाना अपराध है। किंतु जब तक मेरे ऐसा करने से किसी को हानि नहीं होती है किसी को कष्ट नहीं होता, वह पाप नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व मेल गाडियों में धूम्रपान की अनुमति हुआ करती थी। और पियक्कड लोग रेलों में धूम्रपान किया करते थे। उन का धूम्रपान कानून के अनुसार अपराध नहीं था। दंडनीय नहीं था। किन्तु उन के धूम्रपान से लोगोंं को तकलीफ होती ही थी। इसलिये वह पाप अवश्य था। वर्तमान में तो सार्वजनिक स्थानपर धूम्रपान कानून से अपराध माना जाता है। इसलिये रेल के डिब्बे जैसे सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान अब अपराध भी है और पाप भी है। अपराध का दण्ड मिलने की सभावनाएं तो इस जन्म के साथ समाप्त हो जातीं है। किन्तु पाप के फल को भोगने का बोझ तो जन्म-जन्मांतर तक पीछा नहीं छोडता।

४.५ कर्मसिध्दांत

मनुष्य को सन्मार्ग पर रखने के लिये धार्मिक (भारतीय) मनीषियों ने कई जीवनदर्शन निर्माण किये थे। कर्मसिध्दांत भी उन्ही में से एक है। कर्मसिध्दांत एक अत्यंत शास्त्रीय, तर्कशुध्द और विज्ञाननिष्ठ जीवनदर्शन है। किन्तु अंग्रजों ने समाज में फूट डालने की दृष्टि से कर्म सिद्धांत की विकृत प्रस्तुति कर इसे बदनाम किया।

वास्तव में देखें तो कर्मसिध्दांत, पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ सिद्धांत है। धार्मिक (भारतीय) विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिद्धांत कहा गया है। जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता। यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है। इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही। यह है कार्य-कारण सिद्धांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिद्धांत नहीं रहता। वह अंत तक सिध्द हो सकता है ऐसा, सिद्धांत बन जाता है। अब कर्मसिध्दांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे:

  1. किये हुए अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है। अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है। मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को सहायता करने के लिये रू. ५०००/- दिये। यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया। इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे। इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया। तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुआ है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पड़ेगा। मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है। तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे। जैसे वैज्ञानिक सिद्धांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है। उसी प्रकार से कर्मसिध्दांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है। थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं।
  2. किये हुए कर्म का फल मुझे कब मिले यह मै सदा तय नहीं कर सकता। अर्थात् कभी कभी फल क्या मिलेगा हम तय कर सकते है। जैसे हम बाजार जाते है। यह विचार कर के जाते है कि पालक की सब्जी लाएंगे। और पैसे देकर बाजार से पालक ले आते है। इस में पैसे, हमारा संचित कर्म है। और पालक की सब्जी उस का फल या परिणाम है। किन्तु कभी ऐसा हो जाता है की हम सोचकर निकलते है कि पालक की सब्जी लाएंगे लेकिन पालक की सब्जी हमारे बाजार जाने से पूर्व ही समाप्त हो गई है। यह बात हमारे हाथ में नहीं है। किन्तु हमारे हाथ में जो पैसे हैं उन से अन्य कोई सब्जी हम अवश्य ला सकते हैं।विज्ञान से संबंधित एक उदाहरण अब हम देखेंगे। बोह्म का सिद्धांत कहता है की पूरी सृष्टि के कण-कण एक दूसरे से अत्यंत निकटता से जुड़े हुए है। अर्थात् धूलि का एक कण हिलाने से पूरी सृष्टि हिलती है। यह तो हुआ वैज्ञानिक सिद्धांत। अब कल्पना कीजिये आपने भारत में हॉकी का बल्ला चलाया। पूरी सृष्टि जुडी होने से स्पेन में हॉकी की गेंद हिली। अत्यंत संवेदनाक्षम यंत्र से आपने गेंद को हिलते देखा। आप त्रिकालज्ञानी तो है नहीं। इसलिये आप इस गेंद के हिलने को भारत में हिलाए गये बल्ले से तो जोड नहीं सकते। तो आप कहेंगे की जब गेंद हिली है तो कुछ कारण अवश्य हुआ है। उस गेंद के हिलने का और बल्ले के हिलाए जाने का संबंध जोडना संभव नहीं है। तथापि प्रत्यक्ष में तो यही हुआ है। इसे समझना महत्वपूर्ण है। यहाँ कर्म की धार्मिक (भारतीय) संकल्पना को भी समझ लेना उपयुक्त होगा। कर्म सामान्यत: तीन प्रकार के होते है:
    1. एक है संचित कर्म। हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का फल हमारे भविष्य के खाते में जमा होता जाता है। यह खाता जन्म-जन्मांतर चलता रहता है।
    2. दूसरा है प्रारब्ध कर्म। हमारे पिछले जन्म में मृत्यू के समय हमारे जो कर्म के फल इस जन्म में भोगने के लिये पक गए हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते है।
    3. तीसरा होता है क्रियमाण कर्म। वर्तमान क्षण से आगे हम जो कर्म करनेवाले है, उसे क्रियमाण कर्म कहा जाता है।
      • संचित और प्रारब्ध कर्म के फल बदलना किसी को संभव नहीं है। केवल अष्टांग योग के माध्यम से संचित और प्रारब्ध कर्म को दग्धबीज या नष्ट किया जा सकता है। किंतु क्रियमाण कर्म अर्थात् आगे इस जन्म में हम क्या करेंगे यह हम तय करते हैं। इस की हर मनुष्य को स्वतंत्रता होती है। इस स्वतंत्रता के कारण ही मनुष्य योनि को कर्मयोनि कहा जाता है। अन्य सब जीव कर्म करने को स्वतंत्र नही होते। उन्हें भोगयोनियाँ कहा जाता है।
  3. जिस की बुद्धि अधिक विकसित होती है वह कर्म करने को अधिक स्वतंत्र होता है। अभी हमने देखा की अन्य सब जीवयोनियाँ भोगयोनियाँ हैं। इस का कारण उन की में बुद्धि का स्तर मनुष्य की तुलना में अत्यंत कम होता है। और यह सामान्य व्यवहार की भी तो बात है। जिस की बुद्धि तेज होती है उसे हम अधिक सूचनाएं नहीं देते। वह अपनी बुद्धि के हिसाब से काम कर ही लेता है। अल्पबुद्धिवाले को या छोटे बच्चोंं को हम अधिक सूचनाएं करते हैं। स्वतंत्रता का संबंध इस तरह बुद्धि से होता ही है।
  4. कर्मफलों का जोड या घटाव नहीं होता। अर्थात् अच्छे कर्म का और बुरे कर्म का फल अलग अलग भोगना पडता है। अच्छे कर्म में से बुरे कर्म को घटाकर शेष का भोग करने की व्यवस्था नहीं है। दैनंदिन व्यवहार में भी हम देखते हैं कि प्रत्येक मनुष्य सुख भी भोगता है और दुख भी भोगता है। अर्थात् सुखकारक कर्मों में से दुखकारक कर्म घटाए नहीं जा सकते। दोनों को स्वतंत्र भोगना पडता है।
  5. परमात्मा सर्वशक्तिमान है। किन्तु वह अपने किये कर्मों के फल देने के लिये बंधा हुआ है। परब्रह्म परमात्मा तो सर्वशक्तिमान है। उसी की इच्छा और शक्ति के कारण सृष्टि बनी है। किन्तु वह परमात्मा भी सब कुछ नियमों से ही चलता है। फिर वे सृष्टि के चक्र हों या जीव के शरीर में काम करनेवाली रक्ताभिसरण या चेतातंत्र जैसी विभिन्न प्रक्रियाएं हों। हमारे कई संत कहते है कि परमात्मा दयालू है। किन्तु इस के साथ ही वे कहते हैं कि परमात्मा भक्त की परीक्षा लेता है। परीक्षा लेने से उन का अर्थ वास्तव में होता है कि बुरे कर्मों को भुगतवाकर समाप्त कर देता है। परमात्मा की भक्ति के कारण आप कष्ट देनेवाली परमात्मा की परीक्षाओं के लिये तैयार हो जाते हैं। सहनशील बन जाते हैं। बुरे फल भोगने से भी दुखी नहीं होते।
    • वास्तव में मामुली कुछ करने से पापमुक्त होने की प्रथा तो ईसाईयत और इस्लाम की प्रतिक्रिया के स्वरूप में भारत में चली होगी ऐसा लगता है। केवल पादरी को दिये कन्फेशन ( गलत काम की स्वीकारोक्ति) से पाप धुल जाते है ऐसी ईसाई मान्यता है। इसी प्रकार से केवल अल्लाह और पैगंबर मोहम्मद पर श्रद्धा रखनेमात्र से जब बुरे कर्मों के फल से छुटकारा मिलने लगा तो हिंदू पुजारी भी हिंदू प्रजा का मतांतरण रोकने के लिये आपद्धर्म के रूप में, सरल मार्ग बताने लग गये होंगे। साथ मे स्वार्थ भी साधने लग गये होंगे। ब्राह्मण को सोने की गाय की प्रतिमा दान करो, गंगा में नहा लो आदि पापकर्मों से मुक्ति के सरल उपाय बताने लग गये होंगे। किन्तु कर्मसिध्दांत ऐसे कोई समझौतों का समर्थन नहीं करता।

४.६ स्वर्ग - नरक कल्पना

अन्य समाज और धार्मिक (भारतीय) समाज की स्वर्ग - नरक कल्पनाएं भिन्न भिन्न है। अन्य समाजों में गॉड या अल्ला पर और उन के प्रेषितों पर श्रद्धा रखना इतना सदा के लिये स्वर्ग प्राप्ति के लिये पर्याप्त है। स्वर्ग-नरक की धार्मिक (भारतीय) मान्यता बुद्धियुक्त है। धार्मिक (भारतीय) विचार के अनुसार जिसने जितने प्रमाण में अच्छे कर्म किये होंगे उसे उतने प्रमाण में स्वर्गसुख का लाभ होगा। और उसने जितने बुरे कर्म किये होंगे उसी प्रमाण में उसे नरक-यातनाएं भोगनी पड़ेंगी। स्वर्ग और नरक की धार्मिक (भारतीय) कल्पना स्पष्ट होने से सामान्यत: कोई बुरा कर्म करने को प्रवृत्त नहीं होता। व्यक्ति और समाज को सदाचारी रखने में धार्मिक (भारतीय) स्वर्ग-नरक कल्पना का भी महत्वपूर्ण योगदान है।

४.७ आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च[8]

जिसने अपने सभी सांसारिक कर्तव्यों को अच्छी तरह पूरा किया है ऐसे ही व्यक्ति को मोक्षगामी बनने का अधिकार था। सन्यास की अनुमति थी। स्वामी विवेकानंद तो कहते थे जब तक एक भी धार्मिक (भारतीय) दुखी है मुझे मोक्ष नही चाहिये। यही हमरे समाज के श्रेष्ठजनो का विचार और व्यवहार रहा है। अपना काम ठीक करना चाहिये। लेकिन केवल इतना पर्याप्त नही है। इस के साथ ही जब तक मै अन्यों के हित के लिये विशेष कुछ या बहुत कुछ नही करता मै मोक्षगामी नही बन सकता। अन्यों के हित के लिये मेरे बढते प्रयास ही मुझे मोक्ष की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करते है। और यह मार्ग मै मेरे प्रत्येक जन्म में किये बढते लोकहित के कर्मों के कारण अधिक प्रशस्त होता जाता है। यह है धार्मिक (भारतीय) मान्यता।

५. तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा[9] अर्थात् संयमित उपभोग :

अष्टांग योग में पांच यमों का वर्णन है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। ये वे पाँच यम है। यम सामाजिक स्तरपर पालन करने के लिये होते है। इन में अपरिग्रह का अर्थ है अपने उपभोग के लिये उपयोगी वस्तुओं का अपनी आवश्यकताओं से अधिक संचय नहीं करना। कोई यदि उस की आवश्यकता से अधिक संचय और उपभोग करता है तो वह चोरी करता है ऐसी धार्मिक (भारतीय) मान्यता है। यह धार्मिक (भारतीय) मान्यता थोडी कठोर लगती है। किन्तु इस तत्व में संसार की एक बहुत बडी समस्या का समाधान छुपा हुआ है। वर्तमान अर्थशास्त्रीयों के समक्ष सब से बडी अनुत्तरित समस्या यह है की प्रकृति मर्यादित है और मनुष्य की (इच्छाएं) अमर्याद हैं। मर्यादित प्रकृति से अमर्याद इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं है। और यह गणित यदि नहीं बिठाया गया तो पूरा विश्व संसाधनों की लडाई में नष्ट हो जाएगा। तेल पर अधिकार प्राप्त करने के लिये अमरीका के इराक पर हुए हमले से यही सिध्द हुआ है। लेकिन पाश्चात्य विकास की कल्पना में आज किये गए वस्तु और सेवाओं के उपभोग से अगले दिन अधिक उपभोग को ही विकास माना जाता है। इस विकास कल्पना ने प्राकृतिक संसाधनों की मर्यादितता का संकट खडा कर दिया है। और दुर्भाग्य से भारत जैसे ही अन्य विश्व के लगभग सभी देशों के अर्थशास्त्रीयों ने भी इसी विकास कल्पना को और इस आत्मघाती अर्थशास्त्र को अपना लिया है। इस कारण यह संकट अब गंभीरतम बन गया है।

इस समस्या का बुद्धियुक्त उत्तर ईशावास्योपनिषद में मार्गदर्शित ' तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा ' अर्थात् ' संयमित उपभोग ' से ही मिल सकता है। जब तक उपभोग को नियंत्रण में नहीं रखा जाएगा, न्यूनतम नहीं रखा जाएगा और आज है उसे भी न्यून करने के प्रयास नहीं किये जाएंगे, इस समस्या का समाधान नही मिल सकता।

६ यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे

जैसी रचना अणू की है वैसी ही रचना सौरमंडल की है। जिस प्रकार से अणू में एक केंद्र्वर्ती पदार्थ होता है उसी तरह सौरमंडल में सूर्य होता है। अणू में ॠणाणू केंद्रक के इर्दगिर्द एक निश्चित कक्षा में घूमते है। सौरमंडल में भी विभिन्न ग्रह सूर्य के इर्दगिर्द अपनी अपनी विशिष्ट कक्षा में घूमते है। चावल से भात बन गया है या कच्चा है यह पकाए गए भात के एक कण को जाँचने से पता चल जाता है। एक चावल जितना पका होगा उतने ही अन्य चावल भी पके होते है। एक जीव में जो विभिन्न प्रणालियाँ काम करती है वैसी ही सभी जीवों में काम करती है। एक मनुष्य की आवश्यकताओं से अन्य मनुष्यों की आवश्यकता का अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसी लम्बी सूची बनाई जा सकती है।

किन्तु इस तत्व को महत्व मिलने का कारण है। वह है समाजशास्त्रीय प्रयोग अत्यंत धीमी गति से होते है। एक साथ बडे प्रमाण में उन्हें करना संभव भी नहीं होता। इसलिये नमूने के तौर पर एक छोटी ईकाई लेकर प्रयोग किये जाते है। अन्य ईकाईयों में जो संभाव्य अंतर है उसे ध्यान में लिया जाता है। अंत में प्रयोग को बडे स्तर पर किया जाता है। छोटी ईकाई का प्रयोग जितनी गहराई और व्यापकता के साथ किया होगा उसी के प्रमाण में बडे स्तर पर परिणाम मिलेंगे।

जैसे कुटुंब चलता है कौटुंबिक भावना के आधारपर। अब यदि यही कौटुंबिक भावना ग्राम स्तर पर विकसित करना हो तो क्या करना होगा। इस प्रश्न का उत्तर यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे के सुयोग्य उपयोजन से मिल सकेगा। इसी के आधारपर ही तो हमारे पूर्वजों ने वसुधैव कुटुंबकम् के लिये प्रयास किये थे।

७. अपने कर्तव्य और औरों के अधिकारों के लिये प्रयास

कर्तव्य और अधिकार यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है। सिक्के का एक पक्ष है मेरे कर्तव्य लेकिन दूसरा पक्ष मेरे अधिकार नहीं है। वह है अन्यों के अधिकार। इसीलिये धार्मिक (भारतीय) विचारों में बल कर्तव्यों की पूर्ति के प्रयासों पर है जबकि अधार्मिक (अधार्मिक) यूरो अमरीकी विचार में अधिकारों के लिये प्रयास या संघर्ष पर बल दिया गया है। केवल इतने मात्र से प्रत्यक्ष परिणामों में आकाश-पाताल का अंतर आ जाता है।

एक कहानी के माध्यम से दोनों में अंतर देखेंगे।

दो सगे भाई थे। पिता ने मरने से पूर्व बँटवारा कर दिया था। घर के दो समान हिस्से कर दिये थे। एक में छोटा भाई और दूसरे में बडा भाई रहता था। ऑंगन में भी लकीर खींच दी थी। किन्तु खेती की जमीन छोटी होने से जमीन का बँटवारा नही किया गया था। दीपावली से पूर्व फसल आई। खेत के मजदूरों का, गाँव का ऐसे सब हिस्से निकालने के बाद जो बचा उस के दो हिस्से किये। प्रत्येक भई के हिस्से में १०० बोरी धान आया। दोनों ने धान लाकर अपने ऑंगन में जमाकर रख दिया। रात्रि में बडे भाई की नींद खुली। वह सोचने लगा मेरे घर में तो अब मेरा बेटा भी महनत के लिये उपलब्ध है। मेरा आधा संसार हो चुका है। मेरे भाई का तो अभी विवाह भी नहीं हुआ। विवाह में बहुत सारा खर्चा होगा। फिर बच्चे भी होंगे। छोटे भाई का परिवार बढनेवाला है। खर्चे बढनेवाले हैं। ऐसी स्थिति में यह ठीक नहीं है की मै पूरी फसल का आधा हिस्सा ले लूं। वह रात ही में उठा। अपने हिस्से में से धान की दस बोरियाँ उठाकर उसने ऑंगन के दूसरे हिस्से में अपने छोटे भाई की धान की बोरियों के साथ, भाई को ध्यान में ना आए इस पध्दति से जमाकर रख दी।

योगायोग से उसी रात थोडी देर बाद छोटे भाई की भी नींद खुली। उस ने सोचा। मै कितना स्वार्थी हूं। मै अकेला और बडे भैया के घर में चार लोग खानेवाले। तथापि मैने धान का आधा हिस्सा ले लिया। यह ठीक नहीं है। वह रात में उठा। अपने हिस्से में से दस बोरियाँ धान उठाकर, ऑंगन के दूसरे हिस्से में बडे भाई के हिस्से के साथ, ध्यान में ना आए इस ढंग से जमाकर रखीं और सो गया। दूसरे दिन दोनों भाई उठे। दातौन करते ऑंगन में आए। धान की बोरियाँ देखने लगे। दोनों ही हिस्से समान देखकर दोनों चौंक उठे। दोनों के ध्यान में आया की जैसे मैंने अपने हिस्से की दस बोरियाँ दूसरे के हिस्से में रखीं थीं वैसे ही दूसरे भाई ने भी किया है। दोनों एक दूसरे की ओर देखने लगे। प्यार उमड आया। दोनों गले मिले। ऑंगन की रेखा मिटा दी गई। दोनों एक हो गए। अपने भाई के प्रति के कर्तव्यबोध के कारण ही यह हुआ था।

अब इसी कहानी में ‘मेरे अधिकार’ का पहलू आने से क्या होगा इस की थोडी कल्पना करें। बडा भाई न्यायालय की सीढीयाँ चढता है। परिवार के घटक अधिक होने से, कानून के अनुसार घर के बडे हिस्से पर अधिकार मांगता है। खेती में भी बडा हिस्सा माँगता है। छोटा भाई नहीं देता। दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति घृणा का, शत्रुता का भाव निर्माण होता है। दोनों अच्छे से अच्छे वकील की सेवा लेते है। मुकदमा चलता है। दोनों धीरे धीरे कंगाल हो जाते है। घर, खेत गिरवी रखते है। दोनों का सर्वनाश होता है।

वास्तव में मानव का समाज में शोषण हो रहा हो तो मानव के कर्तव्यों पर बल देना चाहिये था। स्त्री को समाज में उचित स्थान नहीं मिलता हो तो पुरुषों के स्त्री के प्रति कर्तव्योंपर बल देने की आवश्यकता थी। और बच्चोंं को यथोचित शिक्षा और सम्हाल नहीं मिलती हो ऐसा हो तो माता-पिता का प्रशिक्षण, आर्थिक दृष्टि से सबलीकरण, समाज में सामाजिक कर्तव्यबोध को जगाने के प्रयास होने चाहिये। जब कोई व्यक्ति अपने हर प्रकार के कर्तव्यों को पूरा करता है तो अन्य लोगोंं के अधिकारों की रक्षा तो अपने आप ही होती है। माता-पिता अपने बच्चोंं के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा कर दें तो बच्चोंं के अधिकारों के लिये हो-हल्ला करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।

किन्तु वर्तमान में हमारी शिक्षा व्यवस्था समेत सभी व्यवस्थाओं में अधिकारों पर ही बल दिया जा रहा है। सर्वप्रथम तो मानव के अधिकार शिक्षा का हिस्सा बनें। फिर आए महिलाओं के अधिकार। अब आ गए हैं बच्चोंं के अधिकार। पाश्चात्यों के अंधानुकरण की हमें बहुत बुरी आदत पड गई है। इन्ही अधिकारों के विषय में विकृति के कारण पाश्चात्य जगत में तलाक का प्रमाण, वृध्दाश्रम, अनाथालय, अपंगाश्रम आदि की संख्या तेजी से बढ रही है। पश्चिम के इस अंधानुकरण को हमें शीघ्रातिशीघ्र छोडना होगा।

८. वसुधैव कुटुंबकम्

८.१ कुटुंब

धार्मिक (भारतीय) एकत्रित परिवार आज भी विदेशी लोगोंं के लिये आकर्षण का विषय है। बडी संख्या में वर्तमान जीवनशैली और वर्तमान शिक्षा के कारण टूट रहे यह परिवार अब तो भारतीयों के भी चिंता और अध्ययन का विषय बन गये है।

अंग्रेजी में एक काहावत है ' क्राईंग चाईल्ड ओन्ली गेट्स् मिल्क् ' अर्थात् यदि बच्चा भूख से रोएगा नही तो उसे दूध नहीं मिलेगा। इस कहावत का जन्म उन के अधिकारों के लिये संघर्ष के वर्तनसूत्र में है। अन्यथा ऐसी कोई माँ (अंग्रेज भी) नहीं हो सकती जो बच्चा रोएगा नहीं तो उसे भूखा रखेगी।

स्त्री परिवार व्यवस्था का आधारस्तंभ है। घर के मुख्य स्त्री की भूमिका घर में अत्यंत महत्वपूर्ण है। वह ठीक रहेगी तो वह घर कुटुंब बनता है। स्त्री को सम्मान से देखना और उस के अनुसार व्यवहार करना हर कुटुंब के लिये अनिवार्य ऐसी बात है। वेसे तो घर में स्त्री की भिन्न भिन्न भूमिकाएं होतीं है। किन्तु इन सब में माता की भूमिका ही स्त्री की प्रमुख भूमिका मानी गई है। उसे विषयवासणा का साधन नहीं माना गया है। वह क्षण काल की पत्नी और अनंत काल की माता मानी जाती है। इसीलिये स्त्री को जिस घर में आदर, सम्मान मिलता है और जिस घर की स्त्री ऐसे आदर सम्मान के पात्र होती है वह घर कुटुंब बन जाता है।

बच्चा जब पैदा होता है तो उसे केवल अपनी भूख और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिये। इतनी ही समझ होती है। वह केवल अपने लिये जीनेवाला जीव होता है। परिवार उसे सामाजिक बनाता है। पैवार उसे केवल अपने हित की सोचनेवाले अर्भक को संस्कारित कर उसे अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठाकर, केवल अपनों के लिये जीनेवाला घर का मुखिया बना देता है।

अमरिका एक बडे प्रमाण में टूटे परिवारों का देश है। परिवारों को फिर से व्यवस्थित कैसे किया जाए इस की चिंता अमरिका के हितचिंतक विद्वान करने लगे है। किन्तु प्रेम, आत्मीयता, कर्तव्य भावना, औरों के हित को प्राधान्य देना, औरों के लिये त्याग करने की मानसिकता, इन सब को पुन: लोगोंं के मन में जगाना सरल बात नहीं है। हमारे यहाँ परिवार व्यवस्था अब भी कुछ प्रमाण में टिकी हुई है, उस की हमें कीमत नहीं है।

हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर, परिश्रमपूर्वक परिवार व्यवस्था का निर्माण किया था। केवल व्यवस्था ही निर्माण नहीं की तो उसे पूर्णत्व की स्थितितक ले गये। उस व्यवस्था में ही ऐसे घटक विकसित किये जो उस व्यवस्था को बनाए भी रखते थे और बलवान भी बनाते थे। इसीलिये धार्मिक (भारतीय) परिवार व्यवस्था कालजयी बनी है। इस कुटुंब व्यवस्था के कुछ महत्वपूर्ण विशेष निम्न हैं:

  • सुसंस्कृत, सुखी, समाधानी और सामाजिक सहनिवास के संस्कारों की व्यवस्था
  • सामान्य ज्ञान एका पीढी से अगली पीढी तक संक्रमित करने की व्यवस्था
  • अपने परिवार की विशेषताएं जैसे ज्ञान, अनुभव और कुशलताएं एक पीढी से दुसरी पीढी को विरासत के रूप में संक्रमित करने की व्यवस्था
  • कुटुंब प्रमुख परिवार के सब के हित में जिये ऐसी मानसिकता। और केवल जिये इतना ही नहीं अपितु परिवार के सभी घटकों को मनपूर्वक लगे भी यह महत्वपूर्ण बात है।
  • जो कमाएगा वह खिलाएगा और जो जन्मा है वह खाएगा।
  • अपनी क्षमता के अनुसार पारिवारिक जिम्मेदारी उठाना परिवार की समृद्धि बढाने में योगदान देना और परिवार के साझे संचय में से न्यूनतम का उपयोग करना। इसी व्यवहार के कारण देश समृध्द था।
  • बडों का आदर करना, छोटों को प्यार देना, अतिथि का सत्कार करना, स्त्री का सम्मान करना, परिवार के हित में ही अपना हित देखना, अपनों के लिये किये त्याग के आनंद की अनूभूति, घर के नौकर-चाकर, भिखारी, मधुकरी माँगनेवाले, पशु, पक्षी, पौधे आदि परिवार के घटक ही हैं, इस प्रकार उन सब से व्यवहार करना आदि बातें बच्चे परिवार में बढते बढते अपने आप सीख जाते थे।
  • मृत्यू का डर बताकर बीमे के दलाल कहते है की ‘आयुर्बीमा का कोई विकल्प नही है’। किन्तु बडे परिवार के किसी भी घटक को आयुर्विमा की कोई आवश्यकता नहीं होती। आपात स्थिति में पूरा परिवार उस घटक का केवल आर्थिक ही नहीं, भावनात्मक और शारिरिक बोझ भी सहज ही उठा लेता है। इस भावनात्मक सुरक्षा के लिये आयुर्बीमा में कोई विकल्प नहीं है।
  • अनाथालय, विधवाश्रम, वृध्दाश्रम आदि की आवश्यकता वास्तव में समाज जीवन में आई विकृतियों के कारण है। इन सब समस्याओं की जड़़ तो अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनशैली में है। टूटते घरों में है। टूटती ग्रामव्यवस्था और ग्रामभावना में है।
  • आर्थिक दृष्टि से देखें तो विभक्त परिवार को उत्पादक अधिक आसानी से लुट सकते है। विज्ञापनबाजी का प्रभाव जितना विभक्त परिवार पर होता है एकत्रित परिवार पर नहीं होता है।
  • एकत्रित परिवार एक शक्ति केंद्र होता है। अपने हर सदस्य को शक्ति और आत्मविश्वास देता है। विभक्त परिवार से एकत्रित परिवार के सदस्य का आत्मविश्वास बहुत अधिक होता है। पूरे परिवार की शक्ति मेरे पीछे खडी है ऐसी भावना के कारण एकत्रित परिवार के सदस्य को यह आत्मविश्वास प्राप्त होता है। इस संदर्भ में एक मजेदार और मार्मिक ऐसी दो पंक्तियाँ हिंदी प्रदेश में सुनने में आती है। जा के घर में चार लाठी वो चौधरी जा के घर में पाँच वो पंच। और जा के घर में छ: वो ना चौधरी गणे ना पंच ॥ अर्थात् जिस के एकत्रित परिवार में चार लाठी यानी चार मर्द हों वह चौधरी याने लोगोंं का मुखिया बन जाता है। जिस के घर में पाँच मर्द हों वह गाँव का पंच बन सकता है। और जिस के घर में छ: मर्द हों उस के साथ तो गाँव का चौधरी और गाँव का पंच भी उस से सलाह लेने आता है।
  • एकत्रित परिवार का प्रतिव्यक्ति खर्च भी विभक्त परिवार से बहुत कम होता है। सामान्यत: विभक्त परिवार का खर्च एकत्रित परिवार के खर्चे से डेढ़ गुना अधिक होता है।
  • वर्तमान भारत की तुलना यदि ५० वर्ष पूर्व के भारत से करें तो यह समझ में आता है कि ५० वर्ष पूर्व परिवार बडे और संपन्न थे। उद्योग छोटे थे। उद्योगपति अमीर नहीं थे। किन्तु आज चन्द उद्योग बहुत विशाल और उद्योजक अमीर बन बैठे हैं। परिवार छोटे और उद्योगपतियों की तुलना में कंगाल या गरीब बन गये है। चंद उद्योगपति और राजनेता अमीर बन गये है। सामान्य आदमी ( देश की आधी से अधिक जनसंख्या ) गरीबी की रेखा के नीचे धकेला गया है।

८.२ ग्रामकुल

अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था ऐसा नहीं। श्रेष्ठ ग्रामकुल की रचना भी की थी। महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी द्वारा लिखे १८ वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है की धार्मिक (भारतीय) गाँव भी पारिवारिक भावना से बंधे हुए थे। परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएं बनीं हुई थीं। जैसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते है उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुए थे। इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है। मै यहाँ पानी नहीं पी सकता ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदीभाषी गाँवों मे मिल जाते है। परिवार में जैसे पैसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे। गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ। परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जैसे परिवार के सभी लोगोंं को दुख होता है। उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था। मिन्नतें करता था। उस के कष्ट दूर करने की व्यवस्थाएं करता था। लेकिन ये बातें अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगोंं की समझ से परे है। जब उन के आका अंग्रेज इस व्यवस्था को नहीं समझ सके तो उन के चेले क्या समझेंगे?

८.३ वसुधैव कुटुंबकम्

अयं निज: परोवेत्ति गणना लघुचेतसाम्[citation needed]

उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम्

भावार्थ : यह मेरा यह पराया यह तो संकुचित मन और भावना के लक्षण है। जिन के हृदय बडे होते है, मन विशाल होते है उन के लिये तो सारा विश्व ही एक परिवार होता है। ऐसा विशाल मन और हृदय रखनेवाला मानव समाज बनाने की आकांक्षा और प्रयास हमारे पूर्वजों ने किये। वास्तव में एकत्रित परिवार जिस भावना और व्यवहारों के आधारपर सुव्यवस्थित ढॅग़ से चलता है उसी प्रकार पूरा विश्व भी चल सकता है। यह विश्वास और ऐसा करने की सामर्थ्य हमारे पूर्वजों में थी। यह बात आज भी असंभव नहीं है। वैसी दुर्दमनीय आकांक्षा और तप-सामर्थ्य हमें जगाना होगा।

वैश्वीकरण की पाश्चात्य घोषणाएं तो बस एक दिखावा और छलावा मात्र है। जिन समाजों में पति-पत्नि एक छत के नीचे उम्र गुजार नही सकते उन्हे हम भारतीयों को सीखाने का कोई अधिकार नहीं है। वसुधैव कुटुंबकम् कैसे होगा यह हम उन्हें सिखाएंगे।

९. कृतज्ञता

पाश्चात्य समाजों में कृतज्ञता व्यक्त करने की पध्दति धार्मिक (भारतीय) पध्दति से भिन्न है। किसी से उपकार लेनेपर थँक यू और किसी को अपने कारण तकलीफ होनेपर सॉरी ऐसा तुरंत कहने की पाश्चात्य पध्दति है। इतना संक्षेप में कृतज्ञता या खेद व्यक्त करके विषय पूरा हो जाता है। दूसरे ही क्षण वह जिस बात के लिये थँक यू कहा है या सॉरी कहा है उसे भूल जाता है। दूसरे ही क्षण से उस के लिये वह उपकार का या पश्चात्ताप का विषय नहीं रह जाता।

धार्मिक (भारतीय) मान्यताओं में इस से बहुत अधिक गंभीरता से इस बात का विचार किया गया है। केवल एक दो शब्दों से किये उपकार का प्रतिकार नही हो सकता। या दिये दुख को नि:शेष नहीं किया जा सकता। यह तो प्रत्यक्ष कृति से ही दिया जाना चाहिये। इसलिये जरा जरा सी बातपर थँक यू या सॉरी कहने की प्रथा धार्मिक (भारतीय) समाज में नही है। पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में पश्चिमी तौर तरीकों का अंधानुकरण हो ही रहा है। इस के फलस्वरूप 'आप को मेरे कारण तकलीफ हुई। मान लिया ना ! और सॉरी कह दिया ना। अब क्या ‘मेरी जान लोगे’ ऐसा कहनेवाले धार्मिक (भारतीय) भी दिखाई देने लगे है। इसलिये कृतज्ञता के संबंध में धार्मिक (भारतीय) सोच का अधिक अध्ययन कर उसे व्यवहार में लाने की आवश्यकता है।

कृतज्ञता यह मनुष्य का लक्षण है। कृतज्ञता का अर्थ है किसी ने मेरे उपर किये उपकार का स्मरण रखना और उस के उपकार के प्रतिकार में उसे जब आवश्यकता है ऐसे समय उसपर उपकार करना। पशुओं में कृतज्ञता का अभाव ही होता है। शेर और उसे जाल में से छुडाने वाले चूहे की कथा बचपन में बच्चोंं को बताना ठीक ही है। किन्तु कृतज्ञता की भावना मन में गहराई तक बिठाने के लिये, बडे बच्चोंं को भी इस विषय की सुधारित कथा बताने की आवश्यकता है।

यह सुधारित कथा ऐसी है। शेर के उपकारों को स्मरण कर चूहे ने शेर जिस जाल में फँसा था उसे काटा। इस से वह शेर ने चूहे को दिये जीवनदान के उपकार से मुक्त हो गया। यहाँ तक छोटे बच्चोंं के लिये ठीक है। बडे बच्चोंं की सुधारित कहानी में शेर चुहे का बहुत बडा गौरव करता है। चूहा विनम्रता से कहता है ‘शेर द्वारा मेरे उपर किये उपकार के कारण मैने यह कृतज्ञता के भाव से किया है। इस में मेरा कोई बडप्पन नहीं है ‘। इस पर शेर कहता है देखो यह कहानी मानव जगत की है। पशु जगत की नहीं है। मानव समाज में तो कृतज्ञता का भाव एक सहज स्वाभाविक बात मानी जाती है। किन्तु पशु जगत में तो ऐसी कोई परंपरा या नियम नहीं है। इस लिये मैने तुम्हें विशेष सम्मानित किया है। तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य अपने पर किये उपकारों को भूल जाता है, या स्मरण होकर भी उन उपकारों से उॠण होने के लिये प्रयास नहीं करता वह मनुष्य नहीं पशु ही है।

९.१ पंच ॠण

ॠण कल्पना भी मानव मात्र को सन्मार्गपर रखने के लिये हमारे पूर्वजोंद्वारा प्रस्तुत किया गया एक जीवनदर्शन है। ॠण का अर्थ है कर्जा। किसी द्वारा मेरे ऊपर किये उपकार का बोझ। पशु, पक्षी, प्राणी, कीटक आदि जीवों की स्मृति, संवेदनशीलता, बुद्धि का विकास अत्यंत अल्प होता है। इस कारण से इन में ना ही किसी पर उपकार करने की भावना रहती है और ना ही किसी के उपकार से उॠण होने की। इसलिये पशु, पक्षी, प्राणी, कीटक इन सभी के लिये कृतज्ञता या उपकार से उॠण होना आदि बातें लागू नहीं है। मानव की यह सभी क्षमताएं अति विकसित होती है। इसलिये मानव के लिये उपकारों से उॠण होना आवश्यक माना गया है। मनुष्य जन्म लेता है एक अर्भक के रूप में। अर्भकावस्था में वह पूर्णत: परावलंबी होता है। अन्यों की सहायता के बिना वह जी भी नहीं सकता। उस के माता-पिता, पंचमहाभूतों से बने हवा-पानी, बिस्तर आदि, पडोसी, वप्रद्य, औषधि बनानेवाले उत्पादक, दुकानदार, विक्रेता, आदि अनंत प्रकार के लोगोंं के प्रत्यक्षा या अप्रत्यक्ष सहयोग के अभाव में भी बच्चे का जीना संभव नहीं है। जन्म से पूर्व भी माता-पिता के माता-पिता और उन के माता-पिता ऐसे पितरों के कारण ही उसे मानव जन्म का सौभाग्य मिला है। गर्भसंभव से लेकर बच्चा माता की कोख में लेटे हुए लोगोंं से कई बातें सीखता है। जन्म के बाद भी सीखता ही रहता है। माता-पिता के माध्यम से कई तरह क मार्गदर्शन गर्भकाल में और जन्म के उपरांत भी लेता रहता है इस कारण कई घटकों के किये उपकारों के कारण ही वह मानव बन पाता है। हर मनुष्य जन्म में उपकार बढते जाते है। उपकारों का बोझ बढता जाता है। बोझ कम ना करने की स्थिति में मनुष्य हीन योनि या मनुष्य योनि में हीन स्तर को प्राप्त होता है। इन उपकारों को धार्मिक (भारतीय) मनीषियों ने पॉच प्रमुख हिस्सों में बाँटा है। वे निम्न हैं:

९.१.१ पितर ॠण

अभी उपर बताए अनुसार कितनी ही पीढियों से हमारे पितरजनों ने संतति निर्माण की इसलिये मेरा जन्म हुआ है। उन के संसति-नियमन करने से मेरा जन्म नहीं हो पाता। इसलिये मैं उन पितरों का ॠणी हूं। श्रेष्ठ संतति माँ-बाप का नाम ऊंचा करती है। मेरे पितरों के ॠण से उॠण होने का अर्थ है उन का नाम चिरंजीवी बनाए ऐसी ओजवान, तेजवान, प्रतिभावान, मेधावान, क्षमतावान, विनयवान, चारित्र्यवान और बलवान संतति को मै जन्म दूं। ऐसा ना करने से मुझे पशु, पक्षी आदि जैसी हीन योनि में या हीन मानव के स्तर पर जन्म लेना पड़ेगा।

९.१.२ भूतॠण

मेर शरीर पंचमहाभूतों से बना है। इस का रक्षण और पोषण भी पंचमहाभूतों के कारण ही हो पाता है। मेरी सभी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति इन पंचमहाभूतों के ही कारण हो पाती है। यह पंचमहाभूत स्वच्छ, शुध्द और पर्याप्त होने के कारण ही मै अच्छा शरीर और पोषण प्राप्त कर सका हूं और प्राप्त करता रहूंगा। यह है वास्तव। और इन पंचमहाभूतों की रक्षा करना मेरा कर्तव्य बनता है। ये स्वच्छ रहें, शुध्द रहें, पर्याप्त रहें यह देखना व्यक्तिश: मेरी जिम्मेदारी बनती है। ऐसा करने से ही मै इन के ॠण से उॠण हो पाऊंगा। वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण के विषय में कुछ जागृति आई है। अच्छा ही है। किन्तु ऐसी जागृति क्यों आवश्यक हुई ? उत्तर है हमने पंचमहाभूतों के प्रति अपने कर्तव्य पूरे नही किये। यज्ञ नही किये। यज्ञ का अर्थ केवल कुछ होम-हवन करना नही है। सामान्यत: यज्ञ का एक हेतु पर्यावरण की शुध्दि यही होता है। इस भूतॠण का संस्कार तो घर-घर में देने का संस्कार है। इस संस्कार के अभाव में विद्यालयों में चल रहा पर्यावरण के प्रति जागृति का प्रयास तो अधूरा ही नही असंभव भी है।

९.१.३ गुरूॠण / ॠषिॠण

गुरू या ॠषि का अर्थ है जिन जिन लोगोंं से हम कुछ भी सीखे है या जिन से हमने ज्ञान प्राप्त किया है वे सब। गर्भ में हमारी जीवात्मा प्रवेश करती है तब से लेकर हमारी मृत्यूतक अन्यों से हम कुछ ना कुछ सीखते ही रहते है। इस अर्थ से ये सब, जिनसे हमने कुछ सीखा होगा हमारे गुरू है। इन के हमारे उपर महति उपकार है। मै मनुष्य की वाणी में बात करता हूं तो इन के सिखाने से, मै मनुष्य की तरह दो पैरों पर चल सकता हूं तो इन के सिखाने के कारण। मै अपनी भावनाएं, इच्छाएं, आकांक्षाएं स्पष्ट रूप में वयक्त कर सकता हूं तो इन के सिखाने के कारण। संक्षेप में मैने अपने माता-पिता, पडोसी, रिश्तेदार, पहचान के या अंजान ऐसे अनगिनत लोगोंं से अनगिनत उपकार लिये है। इन उपकारों का बोझ मै इसी जन्म में कम नही करता तो अगले जन्म में मेरी अधोगति हो जाती है। इसलिये इन के ॠण से मुझे उतराई होना होगा। ऐसी भावना सदैव मन में रखना और इन के ॠण से उतराई होने के प्रयास करना मेरे लिये आवश्यक कर्म है। इस कर्म की सतत अनुभूति ही गुरूॠण की भावना है।

गुरूॠण से उॠण होने का अर्थ है मेरा व्यवहार ऐसा रहे की समाज के सभी लोगोंं को लगे की इस के अनुसार मेरा व्यवहार होना चाहिये। मुझ से विभिन्न प्रकार से विभिन्न लोग परोक्षा या अपरोक्ष मार्गदर्शन लेते रहें। यह तब ही संभव होता है जब मै औरों से प्राप्त ज्ञान को परिष्कृत कर अपने तप-स्वाधाय से उसे बढ़ाकर, अधिक श्रेष्ठ बनाकर अपने व्यवहार में लाने का प्रयास करूं।

९.१.४ समाजॠण / नृॠण

मनुष्य और पशु में बहुत अंतर होता है। पशु सामान्य तौर पर व्यक्तिगत जीवन ही जीते है। समुदाय में रहनेवाले हाथी जैसे पशु भी सुविधा के लिये समूह में रहते है। किन्तु उन का व्यवहार व्यक्तिगत ही होता है। मानव की बात भिन्न है। मानव बिना समाज के जी नही सकता। इसीलिये मानव को सामाजिक जीव कहा जाता है। मनुष्य की इच्छाएं अमर्याद होतीं है। इन इच्छाओं के अनुरूप मानव की आवश्यकताएं भी अनगिनत होतीं हैं। इन सब आवश्यकताओं की पूर्ति अकेले मानव के बस की बात नही है। उसे समाज की सहायता लेनी ही पडती है। इस सहायता के कारण मनुष्य समाज का ॠणी बन जाता है। और जब ॠणी बन जाता है तो उॠण होना भी उस की एक आवश्यकता है।

समाज के ॠण से मुक्ति केवल अपना काम ठीक ढंग से करने से नही होती। वह तो करना ही चाहिये। किन्तु साथ में ही समाज के उन्नयन के लिये ज्ञानदान, समयदान और धनदान करना भी आवश्यक बात है। इन के बिना मनुष्य की अधोगति सुनिश्चित ही माननी चाहिये। जनहित के काम करने से, उन में योगदान देने से ही इस ॠण से उॠण हो सकते है।

९.१.५ देवॠण

देव शब्द दिव धातु से बना है। दिव से तात्पर्य है दिव्यता से। सृष्टि में ऐसे देवता हैं, जिनके बिना सृष्टि चल नहीं सकती। वायु, अग्नि, पृथ्वी, वरुण, इंद्र आदि ये देवता हैं। वेदों में इन्हें देवता कहा गया है। जिनमें विराट शक्ति है और जो अपनी शक्तियों को मुक्तता से बांटते रहते हैं।

इन देवताओं के ऋण से मुक्ति यज्ञ के द्वारा होती है। अग्निहोत्रों से होती है। यज्ञ के कारण इन देवताओं की पुष्टि होती है। इनके पुष्ट होने से तात्पर्य है इनका प्रदूषण दूर होना। इनका प्रदूषण दूर होने से मनुष्य और समाज का भी भला होता है।

९.२ देने की संस्कृती ( दान की प्रवृत्ति )

गुरूकुलों में से जब स्नातक शिक्षा पूर्ण कर सांसारिक जीवन में प्रवेश की गुरू से अनुमति लेकर विदा होते थे तब समावर्तन विधि करने की प्रथा थी। इस विधि में स्नातक को पूर्व में किये गये संकल्पों की याद दिलाई जाती थी। यह वास्तव में वर्तनसूत्र ही थे। यह संकल्प १५ थे। इन में कहा गया है कि दान श्रद्धा से दो। भय के कारण दो। लज्जा के कारण दो। मित्रता के कारण दो। अर्थात् किसी भी कारण से दान देते रहो।

कुछ लोग मानते हैं कि सत्ययुग में सत्य, ज्ञान, तप और दान इन चार खंभों के आधारपर सृष्टि के व्यवहार चलते थे। हर युग में एक एक आधार कम हुआ। और कलियुग में सृष्टि केवल दान पर चलेगी। कलियुग में दान का इतना महत्व माना गया है। धार्मिक (भारतीय) समाज में दान की परंपरा के विषय में एक और मुहावरा है। देने वाला देता जाए। लेने वाला लेता जाए। लेने वाला एक दिन देने वाले के देने वाले हाथ ले ले। अर्थात् आवश्यकतानुसार दान अवश्य ले। किन्तु ऐसा दान लेकर परिश्रम से, तप से, औरों को दान देने की क्षमता और मानसिकता विकसित करे। पुरुषार्थ की पराकाष्ठा करो। खूब धन कमाओ। लेकिन यह सब "मै अधिक प्रमाण में दान दे सकूं" इस भावना से करो।

धार्मिक (भारतीय) शब्द ' दान ' और अंग्रेजी डोनेशन इन में अंतर है। डोनेशन देने वाला बडा होता है। लेनेवाला छोटा माना जाता है। किन्तु दान देते समय भावना भिन्न होती है। एक श्रेष्ठ कार्य के लिये यह सामनेवाला मुझसे दान लेकर मुझे मेरी सामाजिक जिम्मेदारी से उतराई होने का अवसर दिला रहा है। यह इस का मेरे उपर उपकार है। मै इसे दान देकर इस का ॠणी बन रहा हूं। दान लेनेवाला भी गरिमा के साथ श्रेष्ठ सामाजिक हित के लिये दान माँगता था।

दान देने की इस सार्वजनिक प्रवृत्ति के पीछे पंचॠणों से उतराई होने की भावना ही काम करती थी।

१० माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्या

अति प्राचीन काल से धार्मिक (भारतीय) समाज सृष्टि के अत्यंत उपकारी घटकों को माता के रूप में देखता आया है। जिन के बारे में हमें प्यार, आत्मीयता, मन की निकटता और आदर होता है ऐसे सभी घटकों को ‘माता कहते है। वेद वचन है - माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्या:।‘ मेरी प्यारी, मेरे सभी प्रमादों को क्षमा करनेवाली, मेरी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करनेवाली यह भूमि मेरी माता है। और मै उस का पुत्र (पुत्री ) हूँ।

इसीलिये हम कहते है भारत हमारी माता है। गाय हमारी माता है। तुलसी हमारी माता है। गंगा (या स्थानिक नदी भी) हमारी माता है। महाराष्ट्र में तो संतों को भी माता या माऊलि कहा जाता है। ज्ञानदेव माऊलि, तुकाराम माऊलि आदि।

११ अष्टांग योग

गतिमानता तो जगत का नियम है। गति करता है इसीलिये जगत कहलाता है। किन्तु वर्तमान में मानव जीवन ने जो गति प्राप्त की है वह उसे तेजी से आत्मनाश की ओर ले जा रही है। ऐसी स्थिति में संयम की पहले कभी भी नही थी इतनी आवश्यकता निर्माण हो गई है।संयम का अर्थ है इन्द्रिय निग्रह। वासनाओं पर नियंत्रण। वासनाओं को दबाना भिन्न बात है। मन पर संयम निर्माण करने के लिये अपने पूर्वज पतंजलि मुनि ने धार्मिक (भारतीय) चिंतन से ‘अष्टांग योग’ नामक एक अपूर्व ऐसी भेंट जगत को दी है। मानव व्यक्तित्व के पांच प्रमुख घटक होते है। शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त ये वे पांच घटक है। ये पांच तत्व प्रत्येक मनुष्य के भिन्न होते है। इन के माध्यम से जब परमात्मा अपने को अभिव्यक्त करता है तो वह इकाई व्यक्ति कहलाती है। और उस का रूप-लक्षण व्यक्तित्व कहलाता है। यह पाश्चात्य संकल्पना पर्सनॅलिटी (मुखौटा) से भिन्न संकल्पना है। पर्सनॅलिटी में मुखौटा अर्थात् दिखता कैसा है, यह महत्वपूर्ण है, बाहरी व्यवहार से, शिष्टाचार से संबंध है।

व्यक्तित्व में अंतर्बाह्य कैसा है इसे महत्व है। संस्कार कैसे हैं इसे महत्व है। जिस की बुद्धि का नियंत्रण मन पर, मन का नियंत्रण इंद्रियों पर और इंद्रियों का शरीर पर नियंत्रण होता है उस का व्यक्तित्व विकसित माना जाता है। ऐसा होने से व्यक्तिगत और समाज जीवन सुचारू रूप से चलता है। किन्तु सामान्य मनुष्य की प्रवृत्ति इस के बराबर विपरीत होती है। उस के शरीर का नियंत्रण इंद्रियों पर, इंद्रियों का मन पर, और मन का बुद्धि पर होता है। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन इस से अव्यवस्थित हो जाता है। ऐसा ना हो इसीलिये व्यक्तित्व के श्रेष्ठ विकास के लिये मार्गदर्शन करने के लिये ‘अष्टांग योग’ की प्रस्तुति हुई है।

योग भी अपने आप में सदाचार से जीने के लिये मार्गदर्शन करनेवाला एक संपूर्ण जीवनदर्शन है।

धार्मिक (भारतीय) मान्यता के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति के चार प्रमुख मार्ग है। ज्ञानमार्ग, निष्काम कर्म मार्ग, भक्तिमार्ग और अष्टांग योग मार्ग। इन में योगमार्ग सबसे कठिन लेकिन शीघ्र मोक्षगामी बनाने वाला मार्ग है। पूर्व कर्मों के फलों को नष्ट करने की संभावनाएं अन्य तीन मार्गों में नहीं है। किन्तु इस का लाभ केवल मोक्षप्राप्ति के इच्छुक मुमुक्षु को ही होता है ऐसा नहीं है। योग के दो हिस्से है। बहिरंग योग और अंतरंग योग। इन में से बहिरंग योग का लाभ तो समाज के हर घटक को हर अवस्था में मिल सकता है। योगिक साधना से ज्ञानार्जन के करण और अंत:करण के घटकों का विकास किया जा सकता है। इसीलिये योग विषय का शिक्षा की दृष्टि से अनन्य साधारण महत्व है।

मन की शिक्षा यह शिक्षा का प्रमुख और प्राथमिक अंग है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था ‘मुझे यदि फिर से शिक्षा का अवसर मिले और क्या सीखना चाहिये यह निर्णय भी मेरे हाथ में हो तो मै सर्वप्रथम अपने मन को नियंत्रित करने की शिक्षा प्राप्त करूंगा। बाद में तय करूंगा की अन्य कौन सी जानकारी मुझे चाहिये।‘ और मन की शिक्षा के लिये वर्तमान में योग जैसा प्रभावी मार्ग नहीं है। श्रेष्ठ शिक्षा के विषय में ऐसा कहा जाता है कि[citation needed]:

साक्षरा विपरिताश्चेत राक्षसा एव केवलम्। सरसो विपरितश्चेत सरसत्वं न मुंचते ॥

भावार्थ : मनुष्य शिक्षण के द्वारा केवल साक्षर हुआ होगा तब विपरीत परिस्थिति में उस में छिपा हीन भाव ही प्रकट होगा। राक्षस ही प्रकट होगा। किन्तु उसे यदि मन की शिक्षा मिली है, उस का मन सुसंस्कृत हुआ है तो वह विपरीत परिस्थिती में भी अपने संस्कार नही छोडेगा। संत बहिणाबाई मन की चंचलता का वर्णन करते समय कहती है -

मन वढाय वढ़ाय उभ्या पिकातलं ढोर। किती हाका फिरूनि येतं पिकावर ॥

कृष्ण ने जब दुर्योधन से पूछा,' अरे ! तू इतना बुद्धिमान है, फिर तेरा व्यवहार ऐसा क्यों रहा ? '।

उत्तर में दुर्योधन कहता है - जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति:। जानाम्यधर्मं नच मे निवृत्ती: ॥[10]

भावार्थ : मेरी बुद्धि को तो पता था कि धर्म क्या है अधर्म क्या है ? अच्छा क्या है और बुरा क्या है ? किन्तु मेरा मन मुझे अच्छे के विरोध में और बुरे के पक्ष में खडा करता था’।

अष्टांग योग के पहले हिस्से को बहिरंग योग कहते है। इस के पाँच चरण होते है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार।

दूसरे हिस्से को अंतरंग योग कहते है। इस के तीन चरण है। धारणा, ध्यान और समाधि।

इन तीन चरणों में मार्गदर्शन केवल जिसे आत्मनुभूति हुई है ऐसा सद्गुरू ही कर सकता है। जैसे स्वामी विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंस जीने किया था। बहिरंग योग में बाहर से मार्गदर्शन किया जा सकता है।

अष्टांग योग के भी दो प्रकार है। पहला है सहज योग या राजयोग, दूसरा है हठयोग। हठयोग में साँस पर बलपूर्वक नियंत्रण किया जाता है। इसलिये हठयोग अरुणावस्था तक वर्जित माना जाता है। विशेषत: हठयोग की शुध्दिक्रियाएं और प्राणायाम प्रकार। सामान्यत: योग कहने से तात्पर्य होता है अष्टांग योग से और वह भी सहजयोग या राजयोग से ही।

बहिरंग योग ज्ञानार्जन प्रक्रिया के विकास का एक अत्यंत मौलिक और प्रभावी साधन है। इसलिये शिक्षा का विचार इस के बिना संभव नही है। बहिरंग योग में भी यम, (सामाजिक वर्तनसूत्र) और नियम (व्यक्तिगत वर्तनसूत्र) यह श्रेष्ठ व्यक्तित्व के लिये अत्यंत अनिवार्य विषय है। इन के सुयोग्य विकास के आधार पर ही एक प्रभावी और श्रेष्ठ व्यक्तित्व की नींव रखी जा सकती है। किन्तु वर्तमान योग शिक्षण में यम और नियमों की उपेक्षा ही होती दिखाई देती है। इन्हे आवश्यक महत्व नहीं दिया जाता। यम, नियमों का आधार बनाए बिना योग में आगे बढने का अर्थ है सदाचार की मानसिकता बनाए बगैर व्यक्तित्व का विकास। यम, नियमों की उपेक्षा करने से, अहंकार से भरे योगिराज चांगदेव बन सकते है ज्ञानदेव नही। यम, नियमों की सहायता से मनुष्य सदाचारी बनता है। सदाचार की मानसिकता से उस का शारिरिक और मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है। आसन और प्राणायाम की सहायता से श्रेष्ठ शारिरिक क्षमताएं विकसित होती है। और प्रत्याहार के माध्यम से मन संयमी, एकाग्र और नियंत्रित होता है।

यम पांच है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। सामान्यत: प्रत्येक यम का उपयोग सामाजिक संबंधों के लिये है।

  • सत्य का अर्थ है मन, वचन और कर्म से सत्य व्यवहार। सत्यनिष्ठा का अर्थ है सत्य के लिये कीमत चुकाने की मानसिकता। मेरा अहित होगा यह जानकर भी जब मै सत्य व्यवहार करता हूं तो मै सत्यनिष्ठ हूं। यही सत्यनिष्ठा की कसौटी है।
  • अहिंसा का अर्थ है मन, वचन और कर्म से किसी को दुख नही देना। किसी का अहित नही करना।
  • अस्तेय का अर्थ है चोरी नहीं करना। मै मेरे परिश्रम से अर्जित जो है उसी का सेवन करूंगा। ऐसा दृढनिश्चय। सडक पर मिली वस्तु भी मेरे लिये वर्जित है। मेरे परिश्रम से अर्जित जो बात नहीं है उस का सेवन करना चोरी है। भ्रष्टाचार तो डकैती है। भ्रष्टाचार नहीं करना अस्तेय है।
  • अपरिग्रह का अर्थ है संचय नहीं करना। अपने लिये आवश्यक बातों का अनावश्यक संचय नहीं करना। मेरे लोभ के कारण मै अन्यों के लिये आवश्यकताओं की पूर्ति भी असंभव कर दूं, यह बात तो और भी बुरी है।
  • ब्रह्मचर्य का अर्थ है संयम। केवल स्त्री-पुरुष संबंधों तक यह सीमित नहीं है। उपभोग लेनेवाले सभी इंद्रिय और मन पर संयम। आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य नष्ट हो सकता है।
    • स्मरणं कीर्तनं केलि: प्रेक्षणं गुह्यभाषणं। संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिया निष्पत्तीरेव च ॥ एतन्मप्रथुनमष्टांगम् प्रवदन्ति मनीषिन:। विपरीतं ब्रह्मयामेतदेवाष्ट लक्षणम् ॥
    • अर्थ : वासनाओं का स्मरण, मन में चिंतन, विषयवस्तु की कल्पना कर किया व्यवहार, विषयवस्तु का दर्शन, विषयवस्तु की चर्चा, विषयवस्तु की प्राप्ति का संकल्प, विषयवस्तु पाने का प्रयत्न और सब से अंतिम प्रत्यक्ष विषय्वस्तू का उपभोग ऐसे आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य का भंग होता है। इन से दूर रहने का अर्थ है ब्रह्मचर्य।

नियम भी पांच है। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान।

  • शौच का अर्थ है अंतर्बाह्य स्वच्छता। अंतर से अभिप्राय अंत:करण अर्थात् मन, बुद्धि चित्त की शुध्दता से है। बाह्य से अर्थ है शरीर की, वस्त्रों की, परिसर की स्वच्छता और शुध्दता।
  • संतोष का अर्थ है जो मिला है उस में समाधान रखने की मानसिकता। किन्तु भगवान होगा तो मुझे खाने को तो देगा ही ऐसा मानना संतोष नहीं है। संतोष कोई पुरुषार्थ का शत्रू नहीं है। पराकोटी का पुरुषार्थ करो। लेकिन जो फल मिलेगा उसे स्वीकार करो। सफलता से उद्दंड न बनना और असफलता से निराश नहीं होना, इसी को ही संतोष कहते है।
  • तपस का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्ति तक निरंतर परिश्रम करना। तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है। तप केवल हिमालय चढने वाले के लिये ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है।
  • स्वाध्याय से तात्पर्य है अध्ययन की आदत। स्वाध्याय का अर्थ है वर्तमान में अपने विषय का जितना भी ज्ञान उपलब्ध है उस का अध्ययन करना। अपनी बुद्धि, तप, अनुभव के आधारपर उपलब्ध ज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाना। फिर उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करना। पूर्व में वर्णित समावर्तन के संकल्पों में ‘स्वाध्यायान्माप्रमद:’ ऐसा भी एक संकल्प था। इस का अर्थ यह था की प्रत्येक स्नातक अपना विद्याकेंद्र का अध्ययन करने के उपरांत भी मृत्यूपर्यंत स्वाध्याय करता रहता था। कारीगरी, कला, कौशल, ज्ञान विज्ञान आदि अपने कर्म-क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वाध्याय करता था। स्वाध्याय करने के लिये वचनबध्द था। नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा।
  • ईश्वर प्रणिधान से अभिप्राय है ईश्वर की आराधना। जिस सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है, मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये है उस के प्रति श्रद्धा का भाव मन में निरंतर रखना। जगत में जड़़ और चेतन ऐसे दो पदार्थ है। जड़़ पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाएं करती है। वास्तव में गति के नियम के अनुसार उसे सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये। गति का एक और नियम कहता है की यदि कोई वस्तू अपनी गति करने की दिशा में परिवर्तन करती है तो वह किसी शक्ति के कारण ही। बस इसी शक्ति को हमारे पूर्वजों ने परमात्मा की शक्ति कहा है। कुछ वैज्ञानिक कहेंगे कि यह परमात्मा की शक्ति से नहीं होता। यह अपने आप होता है। किन्तु ऐसे वैज्ञानिक किसी के किये संसार में कुछ भी नही होता इसे भी मानते है। किन्तु पश्चिमी प्रभाव में वे इस शक्ति को परमात्मा कहने को तैयार नहीं है। ऐसे लोगोंं की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। अणू में ॠणाणू (इलेक्ट्रॉन) नामक एक अति सूक्ष्म कण होता है। वह अणू के केंद्र के इर्दगिर्द प्रचंड गति से घूमता रहता है। यह सृष्टि निर्माण से चल रहा है। और सृष्टि के अंततक चलेगा। इस ॠणाणू को चलाता कौन है ? इसे ऊर्जा कौन देता है ? वैज्ञानिक कहते हैं, एक बहुत विशाल अण्डा था उस का विस्फोट हुआ और सृष्टि बन गई। किन्तु सब से पहला प्रश्न तो यह है की यह विशाल अण्डा आया कहाँ से ? दूसरे जब विस्फोट होता है तो अव्यवस्था निर्माण होती है। किन्तु प्रत्यक्ष में तो सृष्टि एकदम नियमों के आधार पर एक व्यवस्था से चलती है। यह व्यवस्था किसने स्थापित की ? गति के नियम किसने बनाए ? गुलाब के फूल को गुलाबी किसने बनाया ? और गुलाबी ही क्यों बनाया? इन सभी और ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर में हमारे पूर्वजों ने कहा 'यह सब परमात्मा की लीला है'। परमात्मा को लगा, मैं एक से अनेक हो जाऊं। सोऽकामयत् एकोऽहं बहुस्याम:। और जैसे मकडी अपने में से ही तंतू निकालकर जाल बनाती है, परमात्मा ने अपनी इच्छाशक्ति से और अपने में से ही पूरी सृष्टि निर्माण की। इसीलिये धार्मिक (भारतीय) मनीषि घोषणा करते हैं कि जड़़ और चेतन यह सब अनन्त चैतन्य परमात्मा से ही बनें हैं। इन में अंतर है तो बस चेतना के स्तर का। अनूभूति के स्तर का। इसे समझना और इस के अनुसार चराचर में एक ही परमात्वतत्व है ऐसा व्यवहार करने का अर्थ है ईश्वर प्रणिधान।

१२ एकात्म जीवनदृष्टि

एकात्म जीवनदृष्टि अर्थात् ‘समग्रता से विचार’। किसी भी बात का विचार और कृति करने से पहले उस बात के विचार या कृति के करने के चराचर पर होनेवाले परिणामों का विचार करना। और चराचर के अहित की बात नहीं करना। धार्मिक (भारतीय) पद्धति में अध्ययन करते समय पहले संपूर्ण को समझना आवश्यक माना जाता है। इस के बाद उस पूरे के टुकडों का अध्ययन करना अधिक उपयुक्त होता है। पाश्चात्य पध्दति में पहले पूर्ण को यथासंभव बारीक टुकडों में बाँटा जाता है। फिर हर बारीक टुकडेपर अधिक से अधिक विचार किया जाता है। फिर इन टुकडों में किये विचारों को जोडकर पूरे का अनुमान लगाया जाता है। इस पाश्चात्य प्रणाली का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है। टु नो मोअर ऍंड मोअर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग। अधिक से अधिक की सीमा है सब कुछ। और छोटी से छोटे की सीमा है कुछ नही। अर्थात् कुछ नही के बारे में सब कुछ जानना।

इसलिये जब धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से अर्थशास्त्र का विचार होता है तो उस में शिक्षणशास्त्र, मानसशास्त्र और अन्य सामाजिक शास्त्रों का भी विचार होता है। पाश्चात्य अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना है। धार्मिक (भारतीय) अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वस्तुस्थिति में भी मानव का विचार आर्थिक मानव, कानूनी मानव, सामाजिक मानव, पारिवारिक मानव या आध्यात्मिक मानव ऐसा टुकडों में किया ही नही जा सकता। मानव तो यह सब मिलाकर ही होता है। उस की आर्थिक सोच हो सकती है। किन्तु पारिवारिक भावना को अलग रखकर उस की आर्थिक सोच का विचार नहीं किया जा सकता।

१३ आत्मवत् सर्वभूतेषू

पूरी सृष्टि एक ही आत्मतत्व का विस्तार है। इसी धार्मिक (भारतीय) मान्यता के आधारपर यह वर्तन सूत्र बना है। मै जैसे परमात्मतत्व हूं इसी तरह अन्य जड़़ चेतन सभी परमात्मतत्व ही है। इसलिये मै अन्यों के साथ ऐसा व्यवहार करूं जैसी मेरी अन्यों से अपेक्षा है। और ऐसा व्यवहार नहीं करूं जैसे व्यवहार की मै अपने लिये औरों से अपेक्षा नहीं करता।

यह एक ऐसा वर्तनसूत्र है जिस के बारे में कहा जा सकता है - ' येन एकेन विज्ञातेन सर्वं विज्ञातं भवति '। इस एक वर्तनसूत्र के व्यवहार से सारा समाज सदाचारी बन सकता है। इस वर्तनसूत्र से लगभग सारी समस्याओं का समाधान मिल जाता है। एक दृष्टि से देखें तो यह मानवता की कसौटी भी है। मानवता का व्यवहार और मानवताविरोधी व्यवहार जानने का यह साधन भी है। इस सूत्र का उपयोग करने की पद्धति समझना महत्वपूर्ण है।

  • पहला चरण : समस्या की ठीक प्रस्तुति
    • जैसे दहेज प्रथा को समस्या माना जाता है। किन्तु समस्या दहेज देना या लेना नही है। कोई भी पिता अपनी बेटी को यथासंभव अधिक से अधिक देना ही चाहता है। कई बार तो वरपक्ष की दहेज की अपेक्षा से अधिक भी दे देता है। समस्या तो तब निर्माण होती है जब पिता जितना देना चाहता है उस से अधिक देने के लिये उसपर दबाव आता है। इसलिये मूल समस्या है वधू के पिता पर उस की इच्छा से अधिक दहेज देनेका दबाव।
  • दूसरे चरण में यह तय कीजिये की पीडित कौन है।
    • दहेज के मामले में वधू के पिता यह समस्या-पीडित है।
  • अब उस पीडित के स्थानपर मै हूं, ऐसी कल्पना करिये। और बेटी के ससुरालवालों से मै कैसे व्यवहार की अपेक्षा करता हूं यह सोचिये। वरपक्ष की ओर से ऐसा दबाव मुझपर नहीं आए यही तो वधू का पिता सोचेगा !
  • बस अब वरपक्ष के लोग आत्मवत् सर्वभूतेषू तत्व लगाएं। वधू पिता के स्थानपर वे हैं ऐसी कल्पना करें। वधूपिता के रूप में जैसी वरपक्ष से अपेक्षा होगी वैसे ही अपेक्षा वे प्रत्यक्ष में वधूपक्ष से रखें। अर्थात् वधूपिता की इच्छा से अधिक देने के लिये दबाव नही डालें। ऐसा दबाव नही डालना यह है मानवीय व्यवहार और वधूपिता की इच्छा के विपरीत अधिक देने के लिये दबाव डालना, यह है अमानवीय व्यवहार।

यही सूत्र अब चोरी की समस्या के लिये लगाकर देखें। जिस की वस्तू या धन चोरी हो गया है वह है समस्या पीडित। चोर जब जिस के घर वह चोरी कर रहा है उस की भूमिका से विचार करेगा तब उसे लगेगा, मेरी मेहनत की कमाई को कोई चुराए नहीं। तो मै भी किसी की मेहनत की कमाई नहीं चुराऊं।

अब यही तत्व रिश्वतखोरी की समस्या को लगाएं। इस समस्या में रिश्वत देनेवाला समस्य-पीडित है। रिश्वत लेनेवाला जब रिश्वत देनेवाले की भूमिका से विचार करेगा, तो वह कभी रिश्वत नहीं लेगा। क्यों की किसी को भी रिश्वत देकर काम करवाना अच्छा नहीं लगता।

स्त्रियों के साथ पुरुषों का व्यवहार यह भी एक समस्या है। शारिरिक दृष्टि से दुर्बल होने के कारण, इस में समस्या पीडित स्त्री ही होती है। समस्या यह है की पुरुष स्त्री का सम्मान नही करता। जब पुरुष अपने को स्त्री की भूमिका में रखकर विचार करेगा तब वह सदा स्त्री के साथ सम्मानजनक व्यवहार ही करेगा। मेरी बेटी, मेरी बहन, मेरी पत्नि और मेरी माता को लोग सम्मान से देखें ऐसा मुझे लगता है तो मैने भी अन्य किसी की बेटी, बहन, पत्नि और माता के साथ सम्मान से ही व्यवहार करना चाहिये। इसी को धार्मिक (भारतीय) संस्कृति में संस्कृत में कहा है ' मातृवत् परदारेषू। हर पराई स्त्री मेरे लिये माता के समान है।

१४ उध्दरेद् आत्मनात्मानम्

सामान्यत: बच्चा १२ वर्ष की आयुतक विचार करने लग जाता है। उस की तर्क, अनुमान आदि बुद्धि की शाखाएं सक्रिय हो जातीं है। यह वर्तनसूत्र सामान्य रूप में इस आयु से उपर की आयु के सभी के लिये है। मेरे विकास के लिये मुझे ही प्रयास करने होंगे। सामान्यत: मेरे विकास के कारण मेरा ही लाभ होगा। अन्यों का होगा यह आवश्यक नहीं है। फिर अन्य लोग मेरे लिये प्रयास नहीं करेंगे।

हर व्यक्ति एक स्वतंत्र शरीर, प्राण मन, बुद्धि और चित्त का स्वामी रहता है। मेरे लिये जो अच्छा है वही मुझे करना चाहिये। अन्यों की नकल कर मै बडा नही बन सकता। गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकूर कहते थे ' हर देश को परमात्मा ने भिन्न प्रश्नपत्रिका दी हुई है। अन्य देशों की नकल कर हम अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं पा सकते। अपने प्रश्नों के उत्तर हमें ही खोजने होंगे। जैसे हर देश दूसरे देश से भिन्न होता है उसी तरह हर व्यक्ति भी दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है। प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति भिन्न होती है। यह स्वाभाविक भी है। आयुर्वेद में कहा है जहां का रोग वहीं की औषधि। औषधि को अन्य किसी परिसर में ढ़ूंढने की आवश्यकता नहीं है। पूर्व में वर्णित यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे से भी तो यही ध्वनित होता है।

वास्तव में देखा जाए तो यह वर्तनसूत्र सामान्य आदमी जानता भी है और सामान्य रूप में व्यवहार भी करता है। किन्तु वर्तमान धार्मिक (भारतीय) नेतृत्व की मानसिकता और वर्तमान शिक्षा के कारण यह सूत्र आग्रहपूर्वक बताने की आवश्यकता निर्माण हुई है। स्वामी विवेकानंद ने वर्तमान शिक्षा का वर्णन किया है ' टुडेज एज्यूकेशन इज ऑल राँग। माईंड इज क्रॅम्ड विथ फॅक्ट्स् बिफोर इत इज टॉट हाऊ टु थिंक '। विचार कैसे करना यह सिखाए बगैर ही वर्तमान शिक्षा में बच्चे के दिमाग में जानकारी ठूंसी जाती है। विचार कैसे करना से तात्पर्य सर्वहितकारी पध्दति से कैसे सोचना इस से है।

उध्दरेत् आत्मनात्मानम् का ही दूसरा अर्थ है स्वावलंबन। वैसे परस्परावलंबन के बगैर समाज चलता नहीं है। लेकिन ऐसा सहकार्य की अपेक्षा में बैठे हना ठीक नहीं है। सहकार्य के नही मिलनेपर भी आगे बढने की मानसिकता और क्षमता का ही अर्थ है स्वावलंबन अर्थात् उध्दरेद् आत्मनात्मानम्।

१५ कृण्वंतो विश्वमार्यंम्

कृण्वंतो विश्वमार्यंम् का अर्थ है हम समूचे विश्व को आर्य बनाएंगे। हमें पढाए जा रहे विकृत इतिहास के अनुसार आर्य यह जाति है। ऐसा सिखाना ना केवल गलत है अपितु देश के अहित का भी है। वास्तव में आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ। प्राचीन और मध्यकालीन पूरे धार्मिक (भारतीय) साहित्य में आर्य शब्द का प्रयोग ' विचार और व्यवहार से श्रेष्ठ ' इसी अर्थ से किया गया मिलेगा। किन्तु भारत में भिन्न भिन्न कारणों से फूट डालने के अंग्रेजी षडयंत्र के अनुसार आर्य को जाति बनाकर प्रस्तुत किया गया। इसे हिन्दुस्तान पर आक्रमण करनेवाली जाति बताया गया। आर्य अनार्य, आर्य-द्रविड ऐसा हिन्दू समाज को तोडने का काफी सफल प्रयास अंग्रेजों ने किया। इसी कारण आज भी, जब यह निर्विवाद रूप से सिध्द हो गया है की आर्य ऐसी कोई जाति नहीं थी, तथापि यही पढ़ाया जा रहा है।

यहाँ एक बात की ओर ध्यान देना महत्वपूर्ण है। आर्य जाति के लोग उत्तर ध्रुव से आये। ये लोग लंबे तगडे, मजबूत और गेहुं रंग के थे। उन्होंने यहाँ के निवासी द्रविडों को दक्षिण में खदेड दिया। ऐसा लिखा इतिहास आज भी अधिकृत माना जाता है। इस प्रमाणहीन सफेद झूठ को सत्य मान लिया गया है। तर्क के लिये मान लीजिये कि आर्य यह जाति थी। तो कृण्वंतो विश्वमार्यम् का अर्थ होगा ठिगने लोगोंं को उंचा बनाना, काले या पीले रंग के लोगोंं को गेहुं रंग के बनाना। इतनी मूर्खतापूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती। किन्तु अंग्रेजों की मानसिक गुलामी करनेवाले लोगोंं को आर्य-अनार्य, आर्य-द्रविड, आदिवासी-अन्य ऐसे शब्दों को रूढ कर धार्मिक (भारतीय) समाज में फूट डालने की अंग्रेजों की चाल अब भी समझ में नहीं आ रही। चमडी का रंग, उंचाई यह बातें आनुवंशिक और भाप्रगोलिक कारणों से होतीं है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। किन्तु इसे प्रमाणों के आधार पर भी गलत सिध्द करने के उपरांत भी 'साहेब वाक्यं प्रमाणम्' माननेवाले तथाकथित इतिहास विशेषज्ञों की फौज विरोध में खडी हो जाती है।

सरस्वती शोध संस्थान ने आर्यों का मूल भारत ही है यह सप्रमाण सिध्द कर दिया है। तथापि हमने इतिहास में 'आर्यों का आक्रमण ' सिखाना नहीं छोडा है। मेकॉले शिक्षा का परिणाम कितना गहरा है यही इस से स्थापित होता है।

केवल तत्वज्ञान श्रेष्ठ होना या सर्वहितकारी होना पर्याप्त नहीं होता। उस तत्वज्ञान के पीछे व्यवहार के आधार पर जब तक शक्ति खडी नहीं की जाती विश्व उस तत्वज्ञान को स्वीकार नहीं करती। सत्यमेव जयते यह अर्धसत्य है। सत्य के पक्ष में जब शक्ति होती है तब ही सत्य की विजय होती है। इतिहास के अनुसार यही पूर्ण सत्य है। अर्थात् केवल कृण्वंतो विश्वमार्यम् कहना पर्याप्त नहीं है। सर्वप्रथम हमें ही विचार और व्यवहार से आर्य बनना होगा। ऐसे सज्जन आर्यों को संगठित करना होगा। दुर्जनों के मन में डर पैदा करनेवाली और सज्जनों को आश्वस्त करनेवाली शक्ति के रूप में खडा होना होगा। तब ही विश्व भी आर्य बनने का प्रयास करेगी।

और एक बात भी ध्यान में लेनी होगी। वर्तमान में हमारे ऊपर सामाजिक दृष्टि से अहिंसा का भूत बैठा हुआ है। इस का प्रभाव बहुत गहरा है। हमारे गीतों में, कहावतों में ऐसे विचार आने लग गये है। एक देशभक्ति के गीत में कहा गया है - सर कटा सकते है लेकिन सर झुका सकते नही। इसी अर्थ की भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमान अटलबिहारी वाजपेयीजी की कविता है ' टूट सकते है, मगर झुक नही सकते '। इस का थोडा विश्लेषण करेंगे तो हमारी धारणा कितनी गलत है यह ध्यान में आएगा। हम अभिमान से कह रहे है कि हम मर जाएंगे लेकिन शत्रू के आगे सर नही झुकाएंगे। यहाँ यह माना गया है की हमारा पक्ष सत्य का है। न्याय का है। यदि ऐसा है तो सर कटवाने से तो असत्य की ही विजय हो जाएगी। वास्तव में सर कटाने या झुकाने के विकल्प तो शत्रू के लिये है। जिस का पक्ष असत्य का है। अन्याय का है। हमारा पक्ष सत्य का, न्याय का है, इसलिये हमारे लिये केवल विजय ही एकमात्र विकल्प है। ऐसा ही एक गीत है झण्डा ऊंचा रहे हमारा। इस में भी कवि कहता है - चाहे जान भले ही जाए, सत्य विजय करके दिखलायें। अब यदि हमारी जान जाएगी तो विजय सत्य की कैसे होगी।

एक अंग्रेजी चित्रपट है ' पॅटन '। जनरल पॅटन अपने सिपाहियों से कहता है,' विश्व में अपने देश के लिये मरकर कोई नही जीता है। वह जीता है शत्रू के उस के देश के लिये मरने के कारण। इसलिये निम्न दो बातों को समझना होगा।

  • घर बैठे भजन करने से कृण्वंतो विश्वमार्यम् नहीं होनेवाला। उस के लिये तो राम की तरह प्रतिज्ञा करनी होगी। 'निसचर हीन करऊं मही ' विश्व में जहाँ भी अन्याय और अत्याचार हो रहा होगा उसे हम वहाँ जाकर नष्ट करेंगे।
  • हमारा पक्ष सत्य का है। इसलिये हमारे पास केवल विजय के सिवाय अन्य कोई विकल्प नहीं है। इतिहास की भी यही सीख है। जबतक हमारे अश्वमेध के अश्व चतुरंगिणी सेना के साथ विश्वभर मे घूमते थे बाहर से किसी की हमारे देशपर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं होती थी। हमारी सम्राट परंपरा नष्ट हुई और भारतवर्षपर आक्रमणों का ताँता लग गया। आक्रमणों के उपरांत भी हमने सीमोल्लंघन कर प्रत्याक्रमण नहीं किये। इसी के कारण हमारा संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों प्रकार से ह्रास होता जा रहा है। इसे समझना ही कृण्वंतो विश्वमार्यम् को समझना है।

डॉ. श्री अब्दुल कलाम जब राष्ट्रपति थे, एक युवक सम्मेलन में उन्होंने यही प्रश्न पूछा था की हमने आक्रमण क्यों नही किया ? हमने आक्रमण नहीं किया यह हमारी बहुत बडी भूल थी यही उन्हें बताना था। जिस सजीव वस्तू का विकास थम जाता है, उस का ह्रास होना यह स्वाभाविक बात है। धार्मिक (भारतीय) समाज का इतिहास यही कहता है। जबतक हम सम्राट व्यवस्था के माध्यम से अपनी संस्कृति का विस्तार करते रहे हम संख्या और क्षेत्र में बढते गये। जैसे ही हमने विस्तार करना बंद किया हम सिकुडने लग गये। किन्तु हमारा विस्तारवाद और चीन का विस्तारवाद इन में गुणात्मक अंतर होगा। चीन ने अपना विस्तार किया। और पूरी तिब्बती प्रजा को नामशेष कर दिया। हमारा विस्तार अन्य समाजों को नष्ट करनेवाला विस्तार नहीं होगा। यह सर्वहितकारी होगा। उस भाप्रगोलिक क्षेत्र की दुर्जन शक्ति को नष्ट करनेतक ही वह सीमित होगा। धार्मिक (भारतीय) मानस में आयी झुकने और टूटने की इस विकृति को परिश्रमपूर्वक और ककठोरता से दूर करना होगा।

१६ पूर्णत्व की आस

ईशावास्योपनिषद मे कहा है[11]

ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥

भावार्थ : वह ( ब्रह्म ) स्वत:ही पूर्ण है। उस में से कुछ अलग निकाला तो भी वह पूर्ण ही रहता है। और जो निकाला है वह भी पूर्ण ही रहता है। उस में बाहर से कुछ जोडने से भी उस का पूर्णत्व नष्ट नहीं होता।

पूरी धार्मिक (भारतीय) जीवनशैली को इस पूर्णता की आस लेकर बाँधने का प्रयास हमारे पूर्वजों ने किया था। चार पाँच पीढियों पहले भारत में सिलाई मशीन से बने वस्त्र नहीं पहनते थे। इन वस्त्रों की विशेषता यह थी की इन में इन साडी या धोती में थोडा कम या थोडा अधिक वस्त्र होने से कोई विसंगति का अनुभव नहीं होता था। द्रौपदी ने साडी पहनी थी इसीलिये वह साडी का थोडा पल्लू फाडकर कृष्ण की जखम में पट्टी बाँध सकी थी। क्या वर्तमान जीन पँट पहननेवाली लडकी जीन पँट से ऐसा कर सकती है ? इस वस्त्र का उपयोग भी पुरी तरह होता था। धोती जीर्ण हुई तो उस के तौलिये बना देते थे। वह भी जीर्ण हो गये तो रुमाल बन जाते थे। जख्मों को बाँधने की पट्टियाँ बन जाती थीं। पोंछे बन जाते थे। किन्तु वर्तमान वस्त्रों में कमी आ गई या जीर्ण हो गये तो उन का कोई उपयोग नहीं रह जाता।

पहले घरों की रचना ऐसी थी की एकाध कमरा कम या अधिक होने से कोई समस्या नहीं होती थी। किन्तु वर्तमान आंतर-सुशोभन (इंटीरियर डेकोरेशन) के जमाने में एक कमरा कम हो गया तो सोने का कैसे होगा ? या स्वागत कक्ष का क्या होगा ? ऐसी समस्याएं खडी हो जातीं है।

शून्य और अनंत यह दोनों ही संकल्पनाएँ इस पूर्णत्व की शोध प्रक्रिया का ही प्रतिफल है। ० से ९ तक के ऑंकडे भी पूर्णत्व के प्रतीक ही है। वेदों से भी अत्यंत प्राचीन काल से चले आ रहे इन धार्मिक (भारतीय) ऑंकडों में और एक ऑंकडा जोडने की आजतक किसी को आवश्यकता नहीं लगी। यही इस अंक प्रणालि के पूर्णत्व का लक्षण है। हमारे धार्मिक (भारतीय) पूर्वजों ने विकसित की हुई अंकगणित की जोड, घट, गुणाकार, भागाकार, वर्गमूल, घनमूल, कलन और अवकलन की आठ क्रियाएं भी पूर्णता का ही लक्षण है। इसी तरह गो-आधारित कृषि का तंत्र भी ऐसा पूर्ण है की जबतक सृष्टि में मानव है यह कृषि प्रणालि मानव की अन्न की आवश्यकताएं सदा पूर्ण करती रहेगी।

वास्तव में मोक्ष या परमात्मपद प्राप्ति या पूर्णत्व की प्राप्ति ही तो मानव जीवन का लक्ष्य है। कारण यह है की केवल परमात्मा ही पूर्ण है। उसी तरह हर जीव भी अपने आप में पूर्ण है। पूर्ण है का अर्थ है पूर्णत्व के लिए आवश्यक सभी बातें उसमें हैं। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही इस तरह से सबसे पहले अपने आप को विकसित कर पूर्णत्व(लघु) प्राप्त करना और आगे इस लघु पूर्ण को विकसित कर उसको एक पूर्ण (परमात्मा) में विलीन कर देना है।

अब पूर्णत्व के कुछ उदाहरण देखेंगे: कुटुंब व्यवस्था, गो आधारित खेती, अंकगणित की आठ मूल क्रियाएं, ० से ९ तक के ऑंकडे, देवनागरी लिपी।

References

  1. जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड १, अध्याय ७, लेखक - दिलीप केलकर
  2. ऋग्वेदः सूक्तं १.८९
  3. Swami Vivekananda Volume 6 page 473.
  4. ऋग्वेद 1.164.46 (इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:॥)
  5. श्रीमद्भगवद्गीता 18.63
  6. शिवमहिम्न: स्तोत्र
  7. मनुस्मृति (6-176)
  8. Swami Vivekananda Volume 6 page 473.
  9. ईशावास्योपनिषद्, प्रथम मन्त्र
  10. Prapanna Gita 57
  11. ईशावास्योपनिषद

अन्य स्रोत:

1. Our Glorious Heritage Author Bharatee krishn Tirth (Shankaraachaarya, Puri Peeth)

2. चिरंतन हिन्दू जीवन दृष्टि, धार्मिक (भारतीय) विचार साधना प्रकाशन, पुणे