Festival in Bhadrapada month (भाद्रपद मास के अंतर्गत व्रत व त्यौहार)
इस मास में स्नान करने तथा व्रतों को करने से जन्म-जन्मान्तर के पाप नाश हो जाते हैं। इसके सम्बन्ध में एक कथा प्रचलित है- एक समय नारदजी सब लोकों में घूमते-घूमते ऋषि अम्बरीष के घर पर आये। अम्बरीष ने नारदजी का अत्यन्त भाव से सत्कार करके पाध, अर्ध आदि से उनका पूजन किया और कहने लगे कि-"महाराज! मैं धन्य हूं जो आपने मुझको दर्शन दियो इस समय मनुष्य कलियुग के प्रताप से बुहत-से पापकर्मों में लगे हुए हैं और बड़े-बड़े यज्ञ, तप असाध्य हो गये हैं। पाप करने से अति दुःखों को प्राप्त हो रहे हैं। अत: यदि कोई आप मुझको ऐसा सूक्ष्म-सा सरल उपाय बतायें जो समस्त पापों का नाश करने वाला हो। आपको अति कृपा होगी। जारदजी कहने लगे-“हे राजा अम्बरीष! मैं तुमको मासों में अति उत्तम मास भाद्रपद का माहात्म्य सुनाता हूं जो मेरे पिता ब्रह्माजी के प्रार्थना करने पर भगवान विष्णुजी ने सुनाया था। उत्तम, नध्यम अथवा अवधम किसी भी प्रकार का मनुष्य क्यों न हो इस उत्तम मास के व्रत करने तथा माहात्म्य सुनने से अति पवित्र होकर, कहता हूँ।
बैकुण्ठ लोक को प्राप्त हो जाता है। इसके सम्बन्ध में मैं तुमको एक प्राचीन कथा प्राचीन समय में माहिष्मतिपुर में शंबल नाम वाला एक कृष्णक्षत्री था। वह कृष्ण होने के कारण अपने धर्म को छोड़कर वैश्यों का कर्म किया करता था। देवयोग से उसके कोई पुत्र नहीं था। उसकी पत्नी सदैव अपने पति की सेवा किया करती थी। उसका नाम सुमति था। वह सदैव ब्राह्मणों की निन्दा किया करता था। एक समय भाद्रपद मास के आने पर नगर के बहुत-से स्त्री-पुरुष भाद्रपद के स्तान आदि हेतु तैयार हुए। शंबल की स्त्री सुमति ने भी भाद्रपद स्नान करने का निश्चय किया। शंबल को उसने बहुत समझाया तब कहीं वह स्नान करने को तैयार हुआ, परन्तु दूसरे दिन ही उसको तीव्र ज्वर हो गया। नित्य ही स्नान के समय उसे ज्वर हो जाता और वह स्नान नहीं कर सका। ज्वर के कारण वह अति दुर्बल हो गया और शीत आने पर उसकी मृत्यु हो गयी और वह यमपुरी पहुंच गया और वह अनेक प्रकार की नरक की यातनाएं भोगकर कुत्ते की योनि में पड़ा। इस योनि में भूख और प्यास से अति दु:खी होकर अति दुर्बल हो गया। कुछ काल व्यतीत होने पर वह वृद्ध हो गया, जिससे उसके सभी अंग शिथिल हो गये। एक दिन उसको मांस का एक पिंड मिल गया। किसी पूर्व जन्म के प्रताप से उस समय भाद्रपद मास और शुक्ल पक्ष थी। अकस्मात् वह मांस-पिण्ड उसके मुख से छूटकर जल में गिर गया। वह भी व्याकुल होकर उस मांस पिण्ड के पीछे जल में कूद गया और मृत्यु को प्राप्त हो गया। उसी समय भगवान के पार्षद दिव्य विमान लेकर आये और उसको बैकुण्ठ चलने को कहा। उसने कहा-“मैंने तो किसी भी जन्म में कोई पुण्य कर्म नहीं किया, फिर बैकुण्ठ कैसा?" पार्षदों ने कहा-"तुमने अन्जाने में ही भाद्रपद मास में ही भाद्रपद मास में स्नान करके अपने प्राण गंवाये हैं। पुण्य के प्रताप से तुमको बैकुण्ठ प्राप्त हो रहा है।" अम्बरीष कहने लगे-"जब अज्ञात स्नान का फल इस प्रकार का होता है, तो जब श्रद्धा से स्नान तथा दान किया जायेगा तो कितना पुण्य होगा!"
बूढ़ी तीज
यह भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की तृतीया को मनायी जाती है। इस दिन व्रत रखकर गायों का पूजन करें तथा सात गायों के लिए सात आटे की लोई बनायें और उनको गुड़, घी आदि सहित गायों को खिला दें, फिर स्वयं भोजन करें। इस दिन बहुओं के शृंगार का सामान व साड़ी (सिंधारा) दिया जाता है और बहुए चीनी और रुपयों का बायना निकालकर अपनी सासु मां को पैर छूकर देती हैं।
कजरी तीज
यह भी भाद्रपद की कृष्ण पक्ष की तृतीया को मनायी जाती है। यह खास तौर से बनारस के आस-पास मनायी जाती है। नाव में बैठकर कजरी बाम के गीत गाये जाते हैं। कजरी गीत गाने व सुनने वालों का मन मस्त हो जाता है।
गणेश चतुर्थी
भाद्रपद कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का व्रत चैत्र की चतुर्थी की तरह करते हुए कथा सुननी चाहिए। इसको बहुला चतुर्थी भी कहते हैं।
गूगा पंचमी
यह त्यौहार भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष को पंचमी को मनाया जाता है। इस दिन नागों की पूजा की जाती है। सर्वप्रथम एक कटोरी में दूध लेकर सर्पो को पिलाना चाहिए; अर्थात् सांपों के बिलों में डाल देना चाहिए फिर घर आकर दीवार को गेरू से पोतकर दूध में कोयला धिसकर चौकोर घर जैसा बनाकर उसमें पांच सर्प बनायें और उनको जल, कच्चा दूध, रोली, चावल, बाजरे का आटा, घी और चीनी मिलाकर चढ़ायें साथ में दक्षिणा भी चढ़ायें। तत्पश्चात् नागपंचमी की कहानी सुनें। भीगे हुए मोठ-बाजरे का बायना निकालकर अपनी सासु मां को पैर छूकर दें। इस व्रत के प्रभाव से स्त्री सौभाग्यवती होती है। पति की विपत्तियों से रक्षा होती है तथा सभी मनोकामनाएं सिद्ध होती हैं।
चाना-छठ
यह व्रत भाद्रपद की कृष्ण पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है। यह व्रत केवल कुंवारी कन्याओं को करना चाहिए। इस दिन व्रत रखने वाली कुंवारियां निराहार रहकर पूजन करती हैं। एक पट्टे पर जल से भरे लोटे पर रोली से एक स्वास्तिक (सतिया) बनायें और लोटे की किनारी पर रोली से सात बिन्दी लगायें। एक गिलास गेहूं से भरकर उस पर दक्षिणा रखें। फिर हाथ में सात-सात दाने गेहूं के लेकर कहानी सुनें। कहानी सुनने के पश्चात् लोटे में भरे जल से चन्द्रमा को अर्घ्य दें और गेहूं और दक्षिणा को ब्राह्मणी को दे दें। जिस समय कहानी सुनते हैं उस समय एक कलश जल का भरकर रख लेते हैं और बाद में उसी जल से भोजन तैयार करें। चन्द्रमा को अर्घ्य देकर भोजन करें ।
चाना छठ की कहानी
एक नगर में एक सहकर और उसकी पत्नी रहते थे । वे अपना कोई भी कार्य स्वयं ना करके नौकरों से करवाते थे। साहूकार की पत्नी बर्तनों को सूंघ-सूंघकर देखती थी कि बर्तन गंदा तो नहीं है। कुछ समय पश्चार उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। उसकी उन्होंने बड़े होने पर शादी कर दी। विवाह के कुछ समय उपरान्त साहूकार व उसकी पत्नी की मृत्यु हो गयी। मृत्यु के बाद साहूकार तो बैल बना और साहूकारनी कुतिया। वे दोनों अपने बेटे के घर ही पहुंच गये। साहूकार का बेटा बैल से खूब काम करवाता, दिन भर खेत जुतवाता और कुएं से पानी खिंचवाता। कुतिया उसके घर की रखवाली करती थी। एक वर्ष के पश्चात् उसके पिता का श्राद्ध आया। श्राद्ध के दिन खूब पकवान बनाये। गये उसमें खीर भी बनायी गयी। खीर को ठण्डा करने के लिए बहू ने उसे थाली में रख दिया। उसी समय एक चील उड़ती हुई आई उसके में भरा हुआ सर्प था। वह सर्प चील के मुंह से छूटकर खीर में गिर गया। यह सब कुतिया बैठी हुई देख रही थी परन्तु उसकी बहू को कुछ पता नहीं था। कुतिया सोचने लगी, यदि खीर किसी ने खायी तो तुरन्त ही मर जायेगा। अत: अब क्या करना चाहिए। कुतिया अभी सोचने लगी ही थी कि भीतर से उसकी बहू खीर उठाने आई। कुतिया ने खीर में मुंह दे दिया। जब लड़के की बहू ने कुतिया को खीर में मुंह देते हुए देखा तो वह उसके पीछे डण्डा लेकर भागी। जब बहू ने कुतिया की पीठ पर डण्डा मारा तो उसकी पीठ की हड्डी टूट गयी। रात्रि में कुतिया बैल के पास आयी और बोली-आज तो तुम्हारा श्राद्ध था। तुम्हें तो खूब भोजन मिला होगा।
बैल बोला-मैं तो दिन भर खेत में ही कार्य करता रहा। आज तो मुझे कुछ भी नहीं मिला। कुतिया बोली, जो आज श्राद्ध की खीर बनी थी उसमें चील ने सर्प डाल दिया था। उस खीर को कोई खाकर मर न जाये इसी कारण मैंने उस खीर में मुंह दे दिया था जिस कारण बहू ने मेरी पीठ पर ऐसा डण्डा मारा कि मेरी हड्डी टूट गयी। इससे बहुत दर्द हो रहा है और कुछ खाने को भी नहीं मिला।यह सब बातें बहू सुन रही थी। उसने कुतिया और बैल की सब बातें अपने पति से कहीं। तब लड़के ने ज्योतिषियों को बुलाकर पूछा कि मेरे माता-पिता किस योनि में हैं? तब ज्योतिष बोला-तुम्हारे यहां जो बैल है वह तुम्हारे पिता और तुम्हारे घर में जो कुतिया है वही तुम्हारी मां है। लड़का बोला--तब इनका उद्धार कैसे होगा? ज्योतिष बोला, तुम अपनी कुंवारी कन्याओं को भाद्रपद लगते ही जो चाना छठ आती है उसका व्रत रखवाओ तब तुम्हारे माता-पिता का उद्धार हो जायेगा। लड़के ने ऐसा ही किया जिससे उसके माता-पिता पशु योनि से छूटकर दिव्य देह धारण कर स्वर्ग को चले गये। चाना छठ का उजमन-जिस साल जिस लड़की का विवाह हो उस साल वह लड़की चाना छठ का उजमन करे। व्रत पूजा पहले की तरह करे। कहानी सुनकर सात जगह 4-4 पूरी और सोरा रखे। उन पर कुछ मीठा और दक्षिणा रखकर सासू जी को पांव छूकर दे। अपने साथ सात कुंवारी कन्याओं को व्रत कराये। रात्रि चन्द्रमा को अर्घ्य देकर सातों लड़कियों सहित भोजन करे। साथ में एक चार लड़य, को भी भोजन कराये। यदि उन सात कन्याओं में कोई ब्राह्मण की लड़की होता उसे दक्षिणा दे।
ललिता व्रत
यह व्रत भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की षष्ठी को ही किया जाता है। इस दिन ललिता देवी की पूजा होती है। इस दिन व्रत रखने वाली स्त्रियों को सुबह स्नान कर श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिएं। नदी में से बालू या रेत लाकर पिंड (आकृति) बनाकर उसे कांसे के पात्र में रखें। इसी प्रकार पांच पिण्ड बनायें। उन पिण्डों का पूजन ललिता देवी का ध्यान करके करें। फिर कमल, कनेर, मालती, गुलाब आदि के फूल चढ़ायें। पूजा के उपरान्त हाथ जोड़कर खड़े हो जायें और निम्न प्रकार प्रार्थना करें-
गंगाद्वारे कुशावर्ते बिल्वके नील पर्वत।
स्नात्वा कनखले देवि हर लब्धावती पतिम्॥
ललिते सुभमे देवि सुख सौभाग्यदायिनी।
अनन्त देहि सौभाग्यं मध्य तुम्यं नमो नमः॥
अर्थात् हे देवी! आपने गंगाद्वार, कुश्ववर्त्त, बिल्वक, नील पर्वत और कनखल तीर्थ में स्नान करके भगवान शिव की पत्नी रूप में प्राप्त किया है। सुख और सौभाग्य देने वाली ललिता देवी आपको बार-बार नमस्कार है, आप मुझे अक्षय सौभाग्य दीजिये। इस मंत्र का उच्चारण करते हुए चम्पा के फूलों द्वारा ललिता देवी की विधिपूर्वक पूजा करें और भोग लगायें। खीर, ककड़ी, कुम्हड़ा, नारियल, अनार, बिजौरा नींबू, तुण्डीर कारवेल्स आदि देवी के आगे रखें। साथ ही धान, दीप, अगर, धूप, लक, करंजक, गुड़, फूल आदि कान के आभूषण, लड्डू आदि वस्तुएं रखकर भोग लगायें। रात्रि में जागरण करें। प्रात: देवीजी को नदी के किनारे ले जायें। वहां पर उनकी पूजा करें। जो सामान करें। उनके सामने रखा था वह ब्राह्मणों को दे दें। फिर नदी में स्नान करके घर आकर हवन करें । देवताओं और पितरों का पूजन करके और १५ ब्राह्मणों को भोजन करायें । भोजन के बाद दक्षिणा देकर बिदा करे । इस ललिता व्रत के करनेवाली स्त्री की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती है । यह व्रत सभी प्रकार को दान,व्रत आदि से ऊपर है। मृत्यु के बाद वह स्त्री ललिता देवी की सखी बनकर शिव-धाम में चिरकाल तक सुख भोगती है और उसका पति शिव के समीप रहकर सुख भोगता है।
केसरिया की जात
भाद्रपद की कृष्ण पक्ष अष्टमी को केसरिया की जात लगती है। इस दिन हाथ में दाल का दाना लेकर किसी भी दिशा में जल चढ़ा दें और नारियल भी चढ़ा दें। केसरियाजी के नाम का दूध, रोली, चावल, फूल, प्रसाद तथा दक्षिणा भी चढ़ायें।
जन्माष्टमी
भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र के अर्द्ध-रात्रि को परम-पावन भगवान श्री कृष्ण ने भूतल पर भारतवर्ष की नगरी मथुरा में अवतार लेकर भक्तों का उद्धार करते हुए कंस आदि को मौत के घाट उतार दिया था, इतना ही नहीं उन्होंने धर्मात्मा पाण्डवों की रक्षा करते हुए कौरवों का नाश करने और संसार को ज्ञान सूर्य से प्रकाशित करने के लिए गीता जैसे अमूल्य ग्रन्थ का निर्माण किया था। स्वयं गीता में भगवान ने कहा है कि जब-जब भूतल पर धर्म का पालन न होकर पाप का साम्राज्य होगा, तब-तब मैं अवतार धारण करके पापियों का संहार करता हुआ भक्तों का उद्धार करूंगा। अत: समय-समय पर विष्णु भगवान भूतल पर अवतार धारण करके दुष्टों का दमन और सज्जन साधुओं की रक्षा किया करते हैं। जन्माष्टमी को भगवान का व्रत करते हुए यम-नियमों का पालन करना चाहिए। पूजा-पाठ के साथ ही भागवत गीता व महाभारत का श्रवण करना चाहिए। भगवान के चरित्रों का भली प्रकार वर्णन सुनना चाहिए और उनके कार्यों के उद्देश्यों से भली प्रकार परिचित होना चाहिए। इसके अलावा मन्दिरों की प्रतिमाओं को नवीन वस्त्राभूषण पहनाकर मन्दिरों को विशेष रूप से सजाते हुए भगवान की झांकि निकाली जाती हैं।
गूंगा नवमी
भादवा बदी नवमी को गूंगा नवमी कहते हैं। इस दिन महापराक्रमी पीरवर गूंगा ने जन्म लेकर मलेच्छों का मान-मर्दन करते हुए हिन्दू धर्म की रक्षा की थी। इस दिन तेल के गुलगुले बनाकर और पूरी बनाकर वीरवर की पूजा कर बच्चों को भोजन खिलाकर उत्सव मनाया जाता है । कई महानुभाओं का यह भी विशवास है की गूंगा के पूजन से सर्पो का भय कम हो जाता है ।
जया एकादशी
भाद्रपद कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम जया एकादशी है, इस दिन चैत्र की एकादशी का व्रत करके कथा सुननी चाहिए।
बछवारस
यह भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष द्वादशी को मनाया जाता है। इस दिन स्त्रियों को गाय-बछड़ों की पूजा करनी चाहिए। अगर किसी के गाय-बछड़े न हों तो किसी दूसरे के गाय-बछड़ों की पूजा करें। अगर गांव में भी न हों तो मिट्टी के गाय-बछड़े बनाकर उनकी पूजा करें। ऊपर दही भीगा हुआ बाजरा, आटा, घी आदि चढ़ायें। रोली से तिलक करें, चावल चढ़ायें, दूध चढ़ायें फिर बछवारस की कहानी सुनें। मोठ, बाजरे पर रुपये रखकर बायना निकालकर सासु मां को पैर छूकर दे दें। इस दिन बाजरे की ठण्डी रोटी खायें। गाय का दूध, दही, गेहूं, चावल आदि न खायें। यह व्रत पुत्र होने के बाद ही किया जाता है। अपने कुंवारे लड़के की कमीज पर स्वास्तिक का निशान बनाकर पहनाये और कुएं की पूजा करें। इससे बच्चों को जीवन रक्षा होती है। वह भूत-प्रेत और नजर से बचा रहता है।
बछवारस की कथा-
एक राजा के सात बेटे और एक पोता था। एक दिन राजा ने सोचा, कुआं बनवाया जाए। उसने कुआं बनवाया लेकिन उसमें पानी नहीं आया। तब राजा ने पण्डितों से कुएं में पानी न आने का कारण पूछा। तब ब्राह्मणों ने कहा-महाराज! अगर आप यज्ञ करायें और अपने पोते की बलि दें तो पानी आयेगा। राजा ने ऐसा ही करने की आज्ञा दे दी। यज्ञ की तैयारियां हुई और बच्चे की बलि दी गयी। बच्चे की बलि देते ही पानी बरसने लगा, कुआं पानी से भर गया। राजा ने जब यह समाचार सुना तो वह अपनी रानी सहित कुआं पूजने गया। घर में साग-सब्जी न होने के कारण गाय के बछड़े को काटकर बना दिया। जब राजा और रानी पूजा करके वापस आये तब राजा ने कहा-गाय का बछड़ा कहां है? तब नौकरानी ने कहा, उसे तो मैंने काटकर साग बना दिया। तब राजा बोला, पापिन तूने यह क्या किया! राजा ने उस मांस की हांडी को जमीन में गाड़ दिया और सोचने लगा कि गाय को किस प्रकार समझाऊंगा ? गाय शाम को जब वापस आयी तो वह गड़े स्थान पर सींग से खोदने लगी, हांड़ी से सींग लगते ही उसमे से गाय का बछड़ा व राजा का पोता बाहर निकला | तभी इसी दिन का नाम बछावारस पड़ गया तथा गाय और बछड़ो की पूजा होती है |
हरितालिका व्रत
भादपद कृष्ण तीज को हरितालिका व्रत किया जाता है। इसमें भगवान शंकर-पार्वती को मूर्ति बनाकर उनकी पूजा की जाती है और एकाहार रहते करते हुए कथा श्रवण की जाती है।
कथा-
एक बार हिमालय राजा ने अपनी पुत्री पार्वतीजी का विवाह विष्णु भगवान से कर देने का निश्चय किया और इसके लिए उन्हें राजी भी कर लिया, परन्तु पार्वती यह नहीं चाहती थी क्योंकि उनकी इच्छा शिवजी से विवाह करने की थी, इसलिए वे बड़ी दुखित हुई और इसका भेद जब अपनी सखी को बताया तो वह पार्वतीजी को लेकर ऐसो कन्दरा में छुप गयीं, जहां किसी को उनका पता लगाना पार्वती को घर में न देखकर राजा को बड़ी चिन्ता हुई और अपने दूतों को उनका पता लगाने के लिए इधर-उधर भेजा और स्वयं भी उनकी खोज में निकल पड़े। इधर पार्वतीजी ने उस दिन से भगवान शंकर की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर उनका पूजन आरम्भ कर दिया। इस पर प्रसन्न होकर भगवान शंकर पार्वतीजी के पास पहुंचकर कहने लगे-"मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं अतएव मनइच्छा वर मांगो।" इस पर पार्वतीजी ने हाथ जोड़कर कहा कि “प्रभु! यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं तो मुझे अपनी धर्मपत्नी बनाकर कृपा कीजिए।" भगवान शंकर ने कहा-"ऐसा ही होगा।" इसी समय उन्हें खोजते हुए पर्वतराज भी वहां आ पहुचे और पार्वतीजी को सखी के साथ वहां देखकर पूछने लगे-“यहां आकर तुम्हारा छुपने का क्या कारण असम्भव था।
पिता की बात सुनकर लजाते पार्वतीजी ने सारी बात खोलकर उनको दी। पुत्री की बातें सुनकर महाराजा हिमालय ने उनका विवाह शिव के साथ करना स्वीकार कर लिया। तदोपरान्त पार्वती अपनी सखी के संग पिता के साथ चल दी। जिस दिन पार्वतीजी का सखी द्वारा हरण किया गया था, उसी दिन पार्वतीजी ने भगवान शंकर का व्रत किया। उस दिन भाद्रपद शुक्ल तीज थी, इसलिए इसे हरितालिका व्रत कहते हैं। इस व्रत को करने से कुंवारियों को मनचाहा पति मिल जाता है तथा सुहागिन के स्वामी की आयु लम्बी होती है।
गणेश चतुर्थी
भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी को गणेश-पूजन महोत्सव होता है और लड्डुओं का भोग लगाया जाता है। भोग से पूर्ण विधिवत् गणेशजी का पूजन होता है। इसी दिन डण्डा चौथ मनाते हैं। गणेश पूजन होता है और गुल्ली-डण्डा बजाकर लोगों से चन्दा लिया जाता है। इस दिन चन्द्रमा देखने से भगवान कृष्ण को कलंकित होना पड़ा था, इसलिए इसका नाम पथरवा चौथ भी है।
कथा-
एक समय पार्वतीजी स्नान कर रही थी। उस समय कोई सखी उनके पास न थी इसलिए उन्होंने अपने मैल से गणेशजी को बनाकर उन्हें द्वार पर खड़ा कर आज्ञा दी कि-"मेरी आज्ञा बिना किसी को भीतर ना आने देना।" माताजी की आज्ञा सुनकर गणेशजी अपना डण्डा लेकर द्वार पर खड़े हो गये। थोड़ी देर के पश्चात् भगवान शंकरजी वहां आये और उन्होंने भीतर प्रवेश करना चाहा परन्तु गणेशजी ने कहा कि अन्दर जाने की आज्ञा नहीं है, ऐसा माताजी ने कहा है। गणेशजी के वचन सुनकर भगवान ने कहा-“हे मूर्ख! निषेधाज्ञा का यह अर्थ नहीं है कि घर का स्वामी भी प्रवेश नहीं कर सकता। इसका मतलब है कि अन्य जाने-अनजाने पुरुषों को भीतर मत जाने दो। यदि उनका यह आशय नहीं है तो जाकर अपनी मां से पूछ लो। गणेशजी ने कहा-"व्यर्थ बात से क्या! मैं न तो भीतर पूछने ही जाऊंगा और न ही किसी को भीतर प्रवेश करने दूंगा। जब तक वे यहां आकर स्वयं मुझे नहीं हटाएंगी तब तक मैं किसी को भीतर प्रवेश नहीं करने दूंगा। फिर चाहे वह कोई भी होगा।
इधर तो भगवान शंकर और गणेशजी के बीच कहा-सुनी हो रही थी और उधर पार्वतीजी स्नान कर पूजा में बैठ गयीं और उनके मन से यह बात सर्वथा निकल गयी कि मैंने गणेशजी को निषेधाज्ञा देकर द्वार पर खड़ा कर रखा है। इधर बात बढ़ते-बढ़ते इतनी बढ़ी की क्रोधित होकर भगवान शंकर ने गणेशजी का सिर काट दिया और भीतर प्रवेश करके पार्वतीजी से कहने लगे कि-"आज तुमने ऐसे दुष्ट को द्वार पर खड़ा कर दिया जो तुम्हारी आज्ञा के बिना मुझे भी भीतर प्रविष्ट होने से रोक रहा था। इसलिए मैंने उस दुष्ट का सिर उतार दिया।" शिवजी के वाक्यों को सुनकर पार्वतीजी दुःखी होकर बोलीं-"भगवन! यह आपने अच्छा नहीं किया जो उस अबोध बालक की बातों में आकर उसका मस्तक ही उतार दिया। अत: कृपा करके उसे न केवल नवजीवन ही दीजिये अपितु ऐसे मातृभक्त को सर्वोपरि पूजनीय बनाने की भी पार्वतीजी की प्रार्थना सुनकर सब जीवों पर दया करने वाले भगवान शंकर ने गणेशजी को नवजीवन प्रदान करते हुए कहा-"पार्वती! तेरे पुत्र को मैंने न केवल नवजीवन ही दिया है, अपितु उसके हाथी जैसा मस्तक लगाते हुए उसे सब देवों में प्रथम पूजनीय भी बना दिया है, अत: आज से जो भी कार्यारम्भ में गणेशजी का नाम लेगा वह विघ्नों से रहित होकर सब प्रकार के कार्यों को सम्पूर्ण करेगा। इसमें कदाचित् सन्देह नहीं है।
पथरबा चौथ व्रत की कथा-
ससेनजीत यादव ने भगवान सूर्य नारायण की प्रार्थना करके सिद्धिदाता समयन्तक मणि प्राप्त की थी। वह नित्य उसे अपने गले में धारण किये रखता था। एक दिन वह भगवान कृष्ण की सभा में चला गया। वहां उसे कई यादवों ने इस मणि को भगवान श्रीकृष्ण को समर्पण कर देने के लिए कहा, परन्तु उसने यह बात यूं ही कहा-सुनी में टाल दी। एक दिन उसका भाई प्रसेनजीत उस मणि को लेकर जंगल में शिकार खेलने चला गया। वहां उसे एक शेर ने मार दिया। जब कई दिन तक प्रसेनजीत वापस नहीं लौटा तो ससेनजीत ने श्रीकृष्ण को दोषी ठहरा दिया कि मणि कृष्ण के पास है। उन्होंने ही प्रसेनजीत को मार दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने जब यह बात सुनी तो वे चिन्तित और लज्जित होते हुए मणि की तलाश में जंगल की ओर चल पड़े और प्रसेनजीत के कंकाल के पास पहुंचकर उसे मारने वाले सिंह के पद चिन्हों का पीछा करते हुए एक गुफा में पहुंच गए। वहां जाकर उसने जाम्वंत की अत्यंत सुन्दरी कन्या को उस मणि से खेलते हुए देखा। तदपश्चात् उन्होंने मणि देने के लिए जाम्वंत से प्रार्थना की और उसके मना करने पर उसे में पराजित करके मणि को प्राप्त किया। हार जाने पर जाम्वंत ने अपनी सुन्दर कन्या को श्रीकृष्ण के समर्पित कर दिया। उसके बाद जाम्वंती को लेकर श्रीकृष्ण द्वारिकापुरी लौट आये और सभा में ससेनजीत को बुलाकर मणि की कथा के साथ-साथ समवन्तक मणि उसे सौंप दी। उक्त घटना से ससेनजीत इतना लज्जित हुआ कि उसने अपनी लड़की सत्यभागा का विवाह भगवान श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और समयचक्र मणि उसे गहने के रूप में प्रदान कर दी। जो मनुष्य इस कथा को भक्तिपूर्वक सुनेंगे, उनको भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी को चार को देखने पर कदाचित् दोष नहीं लगेगा।
दुबड़ी साते
यह पर्व भादो शुक्ल पक्ष की साते को आता है। इस दिन दुबड़ी की पूजा करनी चाहिए। एक पट्टे पर (दुवड़ी कुछ बच्चों की मूर्ति सॉं की मूर्ति, एक मटका एवं एक औरत का चित्र) मिट्टी से बना लें। उनको चावल, जल, रोली, आटा, घी, चीनी मिलाकर लोई बनाकर उनसे पूजें। दक्षिणा चढ़ायें तथा बाजरा चढ़ायें। मोठ-बाजरे का बायना निकालकर सासूजी को पांव छूकर दे दें। फिर दुबड़ी साते की कहानी सुने। इस दिन ठण्डा खाना नहीं खाना चाहिए। यदि इसी वर्ष किसी लड़की का