Dharmik Psychology (धार्मिक मानसशास्त्र)
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प्रस्तावना
साईंस के विभिन्न प्रकारों में मनोविज्ञान तुलना में नया है। अभी भी साईंटिस्ट इसे समझने का प्रयास ही कर रहे हैं। वर्तमान में मन के विषय में जानने के लगभग सभी प्रयास इसे सामान्य पंचमहाभूतात्मक मानकर किये जा रहे हैं। मन की सूक्ष्मता और इसकी प्रवाहिता या तरलता की मात्रा को साईंटिस्ट अभी तक ठीक से जान नहीं पाए हैं। सामान्य पंचमहाभूतों की तुलना में मन अत्यंत सूक्ष्म होता है। तथापि पंचमहाभूतों से बने उपकरणों से मन के व्यापारों का अध्ययन किया जा रहा है। इस पद्धति की मर्यादाएं अब उन्हें समझ में आ रहीं हैं। इस समस्या के निराकरण के लिए भी काफी शोध कार्य किया जा रहा है। आशा है कि इस शोध कार्य में बहुत अधिक समय नहीं लगेगा।[1]
प्राणी और मानव में अन्तर
मनुष्य भी एक प्राणी है। लेकिन अन्य प्राणियों में और मानव में अन्तर होता है। यह अन्तर ही उसे पशु से उन्नत कर मानव बनाता है। प्राणी उन्हें कहते हैं जो प्राणिक आवेगों के स्तर पर जीते हैं। आहार, निद्रा, भय और मैथुन ऐसे चार प्राणिक आवेग हैं। यह आवेग मानव में भी होते ही हैं। जो मानव इन आवेगों के स्तर से ऊपर नहीं उठाता वह मानव शरीर में मात्र प्राणी ही है। उसे मानव नहीं कहा जा सकता। प्राणिक आवेगों के स्तरपर जीने से तात्पर्य यह है कि जब भूख लगे खाना, जब नींद आए तब सोना, जब डर लगे तो भागना और जब वासना जागे तब जैसे भी हो उसकी पूर्ति करना।
मानव व्यक्तित्व के चार पहलू होते हैं। एकात्म मानव दर्शन में पंडित दीनदयाल उपाध्याय बताते हैं कि ये चार पहलू शरीर (इन्द्रियों से युक्त), मन, बुद्धि और आत्मा हैं। शरीर का स्तर प्राणिक स्तर होता है। जब मानव केवल प्राण के स्तर पर जीने से ऊपर उठकर याने मन या बुद्धि या आत्मिक स्तर पर जीता है तब वह मानव कहलाता है। जब वह इन चारों आवेगों के सम्बन्ध में क्या करना क्या नहीं करना, कब करना कब नहीं करना, कैसे करना कैसे नहीं करना आदि के बारे में अपने व्यापक हित के सन्दर्भ में विवेकपूर्ण व्यवहार करता है तब वह मानव कहलाता है। आहार की आवश्यकता तो है। लेकिन तथापि खाने के समय पर ही खाना, सड़ा-गला नहीं खाना, अन्न में मुँह डालकर पशु की तरह नहीं खाना आदि बातों का जब वह पालन करता है तो वह मानव कहलाता है। इसी तरह अन्य प्राणिक आवेगों के विषय में भी समझा जा सकता है।
मन क्या है?
वर्तमान में मन को पंचमहाभूतों से बना हुआ ही माना जाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है[2] –
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।
अर्थ : सारी प्रकृति (सृष्टि के सभी अस्तित्व) पृथ्वी, आप, तेज, वायु और आकाश इन पाँच महाभूतों के साथ ही मन(रजोगुण), बुद्धि(सतोगुण) और अहंकार(तमोगुण) ऐसे आठ घटकों की बनीं है। याने पंचमहाभूत और त्रिगुण ऐसे आठ घटकों की बनीं है। सृष्टि के चर अचर सभी अस्तित्व इस अष्टधा प्रकृति के बने हैं। इन आठ घटकों की कम अधिक मात्रा के कारण इन में भिन्नता होती है। मन की सूक्ष्मता के बारे में भी श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है[3]
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।3.42।।
अर्थ : पंचमहाभूतों से बने स्थूल शरीर से इन्द्रिय पर याने श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म होते हैं। इन इन्द्रियों से पर याने श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म मन है। बुद्धि मन से भी पर याने श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म होती है। और आत्मतत्व तो बुद्धि से भी कहीं पर याने बहुत अधिक श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म होता है। जो सूक्ष्म होता है वह व्यापक भी होता है। फैलने की क्षमता उसकी तरलता के साथ बढ़ती जाती है। यहाँ तात्पर्य इतना समझाने से ही है कि मन अत्यंत सूक्ष्म होता है, व्यापक होता है और बलवान होता है।
महाभारत में युधिष्ठिर दुर्योधन से पूछते हैं -'अरे! तू इतना बुद्धिमान है, फिर तेरा व्यवहार ऐसा क्यों रहा?'। दुर्योधन कहता है -
जानामि धर्मं न च में प्रवृत्ति: । जानाम्यधर्मं न च में निवृत्ति: ।।
अर्थ : मैं याने मेरी बुद्धि जानती है कि धर्म क्या है। लेकिन मेरा मन धर्माचरण करने नहीं देता। मेरी बुद्धि जानती है कि अधर्म क्या है लेकिन मेरा मन अधर्म करने के लिए ही मजबूर करता है।
उपनिषद में मन की संकल्पना
मानव के व्यक्तित्व के चार पहलूओं के परस्पर संबंधों का वर्णन इस में किया गया है। एक रथ की कल्पना की गयी है। शरीर की इन्द्रियाँ रथ के घोड़े हैं। मन उस की लगाम है। बुद्धि सारथी है। और आत्मा रथी है। जब आत्मा बुद्धि के अधीन, बुद्धि मन के अधीन, मन इन्द्रियों के अधीन होता है तो मानव विपरीत कर्म करता है। इन्द्रियों के अधीन हो जाता है। विषयासक्त हो जाता है। लेकिन जब इन्द्रियाँ मन के, मन बुद्धि के, और बुद्धि आत्मा के अधीन रहती है तब मानव श्रेष्ठ बनता है। इसमें मन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। जीवात्मा स्वत: होकर तो विषयासक्त नहीं होता। जब वह अपने को बुद्धि, मन या शरीर समझने लग जाता है तब वह उन के अधीन हो जाता है। बुद्धि भी सामान्यत: सत्यान्वेषी होती है। सत्वगुणी होती है। मन रजोगुणी होने से चंचल और प्रमादी होता है। मन के बुद्धि के वश में रहने न रहने से ही मनुष्य श्रेष्ठ या निकृष्ट बन जाता है। अतः इस मनरूपी लगाम को कसकर बुद्धिके नियंत्रण में रखना आवश्यक होता है।
मनुष्य के मन के श्रेष्ठ विकास के लिये मार्गदर्शन करने के लिये 'अष्टांग योग' की प्रस्तुति हुई है। इसीलिये अष्टांग योग यह शिक्षा का भी अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए। अष्टांग योग की चर्चा हम आगे करेंगे।
मन की शक्ति
मन इच्छा करता है। इच्छा का ही दूसरा नाम आशा है। आशा के विषय में कहा है[citation needed]-
आशानाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्य श्रृंखला: । यया बद्धा प्रधावन्ते मुक्ता: तिष्ठन्ति पंगुवत् ।।
अर्थ : आशा या इच्छा ऐसी साँकल है जिससे बंधा मनुष्य बहुत दौड़भाग करता रहता है और जिससे मुक्त होने से मनुष्य अपाहिज की तरह निष्क्रिय हो जाता है। मन इच्छा करता है अतः दुनियाँ चलती है। मन इच्छा करना जिस दिन बंद कर देगा मानव जीवन ठप्प हो जाएगा। अतः इच्छा करना अच्छी बात ही है। लेकिन जब ये इच्छाएं धर्म अविरोधी होतीं हैं अर्थात् साथ ही में इच्छापूर्ति के लिए उपयोग में प्रयुक्त धन, साधन और संसाधनों की इच्छाएँ भी धर्म अविरोधी होतीं हैं तब वे काम पुरूषार्थ और अर्थ पुरूषार्थ का स्वरूप ले लेतीं हैं। मोक्षप्राप्ति का साधन बन जातीं हैं। परमात्मपद प्राप्ति का साधन बनतीं है।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं -
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।
अर्थ : धर्म का अविरोधी काम मैं हूँ।
मन के आयामों का विकास
- एकाग्रता : मन चंचल है। एक विषय पर स्थिर नहीं रहता। मन अनेकाग्र होता है। एक के बाद एक ऐसे कई आलम्बनों पर घूमता रहता है। ऐसा कहते हैं कि मन एक सेकण्ड में ३०० से अधिक विषयों पर एक के बाद एक कर विचार कर सकता है। मन की शक्ति विशाल होती है। मन को एकाग्र करने से मन की विशाल शक्ति के लाभ प्राप्त हो सकते हैं। ऐसे लोग आज भी विद्यमान हैं जो केवल इच्छा मात्र से देखते देखते इच्छा की शक्ति का उपयोग कर थोड़े अंतर पर रखे हुए चम्मच को हाथ लगाए बिना ही मोड़ने या तोड़ने की सिद्धि रखते हैं। यह वे मन की शक्ति के केन्द्रिकरण के कारण ही कर पाते हैं। मन जब तक एकाग्र नहीं होता बुद्धि काम नहीं करती। मन को एकाग्र करने की क्षमता मन का विकास है।
- शान्ति : तनाव और उत्तेजना यह मन के लक्षण हैं। इन दोनों के रहते मनुष्य कोई बुद्धियुक्त काम नहीं कर सकता। मन रजोगुणी होता है। अतः अशांत होता है। उत्तेजित या तनावपूर्ण अवस्था में बुद्धि काम नहीं करती। बुद्धि की धारणाशक्ति, विवेकशक्ति आदि क्षीण या नष्ट हो जाती हैं। शांत स्थिर मन होना यह मन का विकास है।
- अनासक्ति : मन आलंबन के बिना नहीं रह सकता। आसक्ति यह मन का स्वभाव है। वह विषयों के आलंबन को छोड़ना नहीं चाहता। प्रयासपूर्वक उसे आलंबन से दूर हटाने से दु:ख अनुभव करता है। विषयों के चिंतन से क्या क्या होता है इस बारे में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62।।
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।।
अर्थ : विषयों का चिंतन करनेसे उन विषयों में आसक्ति निर्माण हो जाती है। आसक्ति के कारण विषयों की प्राप्ति की कामना याने इच्छा जागती है। कामनाओं की पूर्ति नहीं होने पर क्रोध याने गुस्सा आता है। गुस्से के कारण अविचार पनपता है। अविचार के कारण स्मरणशक्ति भ्रष्ट हो जाती है। स्मरणशक्ति भ्रष्ट होनेपर बुद्धि का याने ज्ञान का नाश होता है। और बुद्धि के नाश के कारण मनुष्य का अध:पात होता है। मन को विषयों से सहजता से अलिप्त बनाने की क्षमता मन का विकास है।
- द्वंद्वों की समाप्ति : मन द्वंद्वात्मक होता है। हर्ष-क्रोध, सुख-दु:ख, शान्ति-अशांति, राग-द्वेष, संकल्प-विकल्प में फँस जाता है। उसे द्वंद्वात्मकता से हटाकर निश्चयात्मक बनाना आवश्यक होता है। अन्यथा मनुष्य कोइ निर्णय नहीं ले पाता। इस द्वंद्वात्मकता के विषय में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।2.41।।
अर्थ : निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है। अस्थिर विचार करनेवाले, अविचारी, कामलिप्त मनुष्यों की बुद्धि अनेकों विकल्पों में भटक जाती है। ऐसी बुद्धि निश्चयात्मक नहीं हो सकती। मन की द्वंद्वातीत अवस्था मन का विकास है। - विकारों से मुक्ति : काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर ये षड्विकार मन के स्वभाव में होते हैं। इन्हें षड्रिपु के नाम से जाना जाता है। इन से मुक्ति पाना मन का विकास कहलाता है।
- सद्गुण और सदाचार : मन को दया, करुणा, स्नेह, सहानुभूति, कृतज्ञता, विनयशीलता, मित्रता, ऋजुता आदि गुणों से भर देना मन का विकास है। सेवा, दान की मानसिकता, परोपकार आदि में रूचि निर्माण होना मन के विकास के लक्षण हैं।
- बुद्धि के वश में करना : इस बिन्दु को हमने पहले ही उपनिषद के उदाहरण से स्पष्ट किया है। यहाँ यह ध्यान में रखना होगा कि मन की केवल एकाग्रता मन का विकास नहीं है। अपनी रूचि के विषय में मनुष्य तुरंत एकाग्र हो जाता है। लेकिन यह मन का विकास नहीं है। मन को जिस विषय में रूचि है उस में नहीं बल्कि इष्ट विषय पर मन को एकाग्र करने की क्षमता से मन का विकास होता है। यह मन को बुद्धि के वश में रखने से होता है।
भारतीय शास्त्रों की विशेषता और मानसशास्त्र
किसी भी विषय में सोचते समय समग्रता से सोचने की धार्मिक (भारतीय) पद्धति है। इसमें समस्या का केवल वर्णन (डिस्क्रिप्शन) पर्याप्त नहीं होता। समस्या के हल (सॉल्यूशन) के बिना विषय का विचार अधूरा माना जाता है। विचार केवल वर्णनात्मक होना पर्याप्त नहीं है। वर्णन के साथ ही उपाय योजना भी बतानेवाला होना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन मन के विषय में प्रश्न पूछते हैं -
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।6.34।।
अर्थ : हे श्रीकृष्ण ! यह मन बड़ा चंचल, क्षोभ निर्माण करनेवाला, बलवान और दृढ़ है। मुठ्ठी में वायु को रोकने जैसा ही यह अत्यंत कठिन कार्य है।
उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर भगवान देते हैं
श्री भगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6.35।।
अर्थ : हे महाबाहो ! मन चंचल और इसे संयम में रखना वास्तव में कठिन काम है। लेकिन हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में लाया जा सकता है।
योगशास्त्र में उपाय
गतिमानता तो जगत का नियम है। गति करता है इसीलिये विश्व को जगत कहा जाता है। किन्तु वर्तमान में मानव जीवन ने जो गति प्राप्त की है वह उसे तेजी से आत्मनाश की ओर ले जा रही है। ऐसी स्थिति में संयम की पहले कभी भी नहीं थी इतनी आवश्यकता निर्माण हो गई है। संयम का अर्थ है इंद्रीय निग्रह। वासनाओं पर नियंत्रण। वासनाओं को दबाना भिन्न बात है। मन पर संयम निर्माण करने के लिये पतंजली मुनि ने धार्मिक (भारतीय) चिंतन से 'अष्टांग योग' नामक एक अपूर्व भेंट जगत को दी है। धार्मिक (भारतीय) दर्शनशास्त्रों में से यह एक दर्शन है। इसे योगदर्शन भी कहा जाता है। वैसे तो योग का यह ज्ञान वेदों से भी पूर्व काल से भारत में था। उसकी सुसूत्र प्रस्तुति महर्षि पतंजलि ने की है। योग भी अपने आप में सदाचार से जीने के लिये मार्गदर्शन करनेवाला एक संपूर्ण जीवनदर्शन है।
भारतीय मान्यता के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति के चार प्रमुख मार्ग हैं। ज्ञानमार्ग, निष्काम कर्म मार्ग, भक्तिमार्ग और अष्टांग योग मार्ग। इन में योगमार्ग कठिन लेकिन शीघ्रता से मोक्षगामी बनानेवाला मार्ग है। पूर्व कर्मों के फलों को नष्ट करने की सम्भावनाएँ अन्य तीन मार्गों में नहीं है। किन्तु इस का लाभ केवल मोक्षप्राप्ति के इच्छुक मुमुक्षु को ही होता है ऐसा नहीं है। बहिरंग योग का लाभ तो समाज के हर घटक को हर अवस्था में मिल सकता है। योगिक साधना से ज्ञानार्जन के करण और अंत:करण के घटकों का विकास किया जा सकता है। इसीलिये योग विषय का शिक्षा की दृष्टि से भी अनन्य साधारण महत्व है।
पतंजली का अष्टांग योग का अध्ययन इस दृष्टि से उपयुक्त है। अष्टांग योग के आठ अंग होते हैं।
अन्तरंग योग के अंग
- यम
- नियम
- आसन
- प्राणायाम
- प्रत्याहार
बहिरंग योग के अंग
- धारणा
- ध्यान
- समाधि
बहिरंग योग में बाहर से याने अन्य किसी के द्वारा मार्गदर्शन किया जा सकता है। लेकिन अन्तरंग योग में सामान्यत: स्वत: ही अपने प्रयासों से आगे बढ़ना होता है। अन्तरंग योग में बाहर से मार्गदर्शन केवल जिसे आत्मानुभूति हुई है ऐसा सद्गुरू ही कर सकता है। जैसे स्वामी विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंस जी ने किया था। अष्टांग योग के भी दो प्रकार है। पहला है सहजयोग या राजयोग दूसरा है हठयोग। हठयोग में साँस पर बलपूर्वक नियंत्रण किया जाता है। इसलिये हठयोग में यम नियम छोड़कर अन्य छ: अंगों की शिक्षा को अरुणावस्थातक वर्जित माना जाता है, विशेषत: हठयोग की शुध्दिक्रियाएं, आसन और प्राणायाम के प्रकार।
सामान्यत: योग कहने से तात्पर्य होता है अष्टांग योग से और वह भी सहजयोग या राजयोग से ही। अष्टांग योग के अनुपालन से मन पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। इनमें मन के नियंत्रण की दृष्टि से यम और नियम इन अंगों का महत्व अनन्य साधारण है। यदि ऐसा कहें कि यम और नियमों के बिना योग मनुष्य को आसुरी बना सकता है तो इसमें थोड़ी सी भी अतिशयोक्ति नहीं है।
यम
यम पांच है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। सामान्यत: प्रत्येक यम का उपयोग सामाजिक संबंधों के लिये है।
सत्य का अर्थ है मन, वचन और कर्म से सत्य व्यवहार। सत्यनिष्ठा का अर्थ है सत्य के लिये कीमत चुकाने की मानसिकता। मेरा अहित होगा यह जानकर भी जब मैं सत्य व्यवहार करता हूं तो मैं सत्यनिष्ठ हूं। यही सत्यनिष्ठा की कसौटि है।
अहिंसा का अर्थ है मन, वचन और कर्म से किसी को दु:ख नहीं देना। किसी का अहित नहीं करना। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं कि भगवान ‘परित्राणाय साधुनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्’ के लिए जन्म लेते हैं। दुर्जनों का यह विनाश भी वास्तव में अहिंसा ही है। क्यों कि इस दुर्जन विनाश के कारण वे दुर्जनों द्वारा आगे होनेवाली व्यापक हिंसा से और इस कारण उन्हें उनके भविष्य में संभाव्य दुष्कर्मों से उपजने वाले पाप के फल से उन दुर्जनों को बचाते हैं।
अस्तेय का अर्थ है चोरी नहीं करना। मैं अपने परिश्रम से अर्जित जो है उसी का सेवन करूंगा। ऐसा दृढनिश्चय। सडक पर मिली वस्तू भी मेरे लिये वर्जित है। मेरे परिश्रम से अर्जित जो बात नहीं है उस का सेवन करना चोरी है। भ्रष्टाचार तो डकैती है। भ्रष्टाचार नहीं करना अस्तेय ही है।
अपरिग्रह का अर्थ है संचय नहीं करना। अपने लिये आवश्यक बातों का अनावश्यक स्तर तक संचय नहीं करना। मेरे लोभ के कारण मैं अन्यों के लिये न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति भी असंभव कर दूं, यह बात तो और भी बुरी है। अतिरिक्त संचय के तीन ही फल हैं: दान, भोग या नाश। अतः जो भी अतिरिक्त है उसे दान कर पुण्य कमाओ। अन्यथा उसका नाश (तुम्हारे लिए उपयोग न होना) होनेवाला ही है।
ब्रह्मचर्य का अर्थ है संयम। केवल स्त्री-पुरूष संबंधों तक या वासना तक ही यह सीमित नहीं है। उपभोग लेने वाले सभी इंद्रियों और मन पर संयम से भी यह सम्बन्धित है। आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य नष्ट हो सकता है।
स्मरणं कीर्तनं केलि: प्रेक्षणं गुह्यभाषणं।
संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिया निष्पत्तीरेव च॥
एतन्मैथुनमष्टांगम् प्रवदन्ति मनीषिण:।
विपरीतं ब्रह्मचर्यामेतदेवाष्ट लक्षणम्॥
अर्थ : वासनाओं का स्मरण, मन में चिंतन, विषयवस्तु की कल्पना कर किया व्यवहार, विषयवस्तु का दर्शन, विषयवस्तु की चर्चा, विषयवस्तु की प्राप्ति का संकल्प, विषयवस्तु पाने का ध्यास और सब से अंतिम प्रत्यक्ष विषयवस्तु का उपभोग ऐसे आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य का भंग होता है। इन से दूर रहने का अर्थ है ब्रह्मचर्य।
नियम
नियम भी पांच है। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान।
शौच का अर्थ है अंतर्बाह्य स्वच्छता। अन्तर से अभिप्राय अंत:करण अर्थात् मन, बुद्धि चित्त की शुद्धता से है। बाह्य से अर्थ है शरीर की, वस्त्रों की, परिसर की स्वच्छता और शुद्धता।
संतोष का अर्थ है जो मिला है उस में समाधान रखने की मानसिकता। किन्तु भगवान होगा तो मुझे खाने को तो देगा ही ऐसा मानना संतोष नहीं है। संतोष पुरूषार्थ का शत्रु नहीं है। पराकोटी का पुरूषार्थ करो। लेकिन जो फल मिलेगा उसे स्वीकार करो। सफलता से उद्दंड न बनो और असफलता से निराश नहीं होने को ही संतोष कहते है।
तप का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्तितक निरंतर परिश्रम करना। तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है। तप केवल हिमालय में तपस्या करनेवालों के लिए ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है।
स्वाध्याय से तात्पर्य है अध्ययन की आदत। योग शास्त्र में स्वाध्याय का अर्थ बताया जाता है- ज्ञान और विज्ञान का अध्ययन। इन के माध्यम से परमात्मा को समझने के प्रयास। स्वाध्याय का सामान्य अर्थ है वर्तमान में अपने विषय का जितना भी ज्ञान उपलब्ध है उस का अध्ययन करना। अपनी बुद्धि, तप, चिंतन, अनुभव के आधारपर उपलब्ध ज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाना। फिर उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करना। गुरूकुल की शिक्षा पूर्ण कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के लिये इच्छुक हर स्नातक को कुछ संकल्प करने होते थे। इन्हें समावर्तन कहते थे। समावर्तन के संकल्पों में 'स्वाध्यायान्माप्रमदा:' ऐसा भी एक संकल्प था। इस का अर्थ यह है कि प्रत्येक स्नातक अपना विद्याकेन्द्र का अध्ययन पूर्ण करने के उपरांत भी आजीवन स्वाध्याय करता रहे। कारीगरी, कला, कौशल, ज्ञान विज्ञान आदि अपनेअपने कर्म-क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वाध्याय करता था। स्वाध्याय करने के लिये संकल्पबध्द था। इस स्वाध्याय का लक्ष्य भी ‘मोक्ष प्राप्ति’ ही होना चाहिए। याने अपनी रूचि के विषय का अध्ययन इस पद्धति से हो की उस विषय के माध्यम से आप मोक्षगामी बन जाएँ। इस संकल्प और स्वाध्याय के कारण व्यापक स्तरपर भारत में मौलिक चिंतन होता था। नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा।
ईश्वर प्रणिधान से अभिप्राय है परमात्मा की आराधना। जो भी निर्माण हुआ है वह सब परमात्मा का है। सर्वशक्तीमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है। मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये हैं उस के प्रति श्रध्दा का भाव मन में निरंतर रखना।
मन की शिक्षा
मन की शिक्षा, शिक्षा का प्रमुख और प्राथमिक अंग है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था ' मुझे यदि फिर से शिक्षा का अवसर मिले और क्या सीखना चाहिये यह निर्णय भी मेरे हाथ में हो तो मैं सर्वप्रथम अपने मन को नियंत्रित करने की शिक्षा प्राप्त करूंगा । बाद में तय करूंगा की अन्य कौन सी जानकारी मुझे चाहिये। और मन की शिक्षा के लिये योग ही एकमात्र मार्ग है।
श्रेष्ठ शिक्षा के विषय में ऐसा कहा जाता है:[citation needed]
साक्षरा विपरिताश्चेत राक्षसा एव केवलम् । सरसो विपरिताश्चेत सरसत्वं न मुंचते ॥
भावार्थ : मनुष्य शिक्षण के द्वारा केवल साक्षर हुआ होगा तो विपरीत परिस्थिती में उस में छिपा हीन भाव ही प्रकट होगा। राक्षस ही प्रकट होगा। किन्तु उसे यदि मन की शिक्षा मिली है, उस का मन सुसंस्कृत हुआ है तो वह विपरीत परिस्थिती में भी अपने संस्कार नहीं छोडेगा।
महाराष्ट्र की संत बहिणाबाई मन की चंचलता का वर्णन करते समय कहती हैं -
मन वढाय वढ़ाय उभ्या पिकातलं ढोर । किती हाका फिरूनि येतं पिकावर ॥
अर्थ : हरेभरे खेत में घुसा जानवर जिस प्रकार उसे भगानेपर या मारनेपर भी बारबार खेत में घुसने का प्रयास करता रहता है, मन भी वैसा ही विषयों के प्रति आकर्षित होता है। उन को छोड़ता नहीं है।
बहिरंग योग ज्ञानार्जन प्रक्रिया के विकास का एक अत्यंत मौलिक और प्रभावी साधन है। इसलिये शिक्षा का विचार इस के बिना संभव नहीं है। बहिरंग योग में भी यम-नियम (सामाजिक वर्तनसूत्र और व्यक्तिगत वर्तनसूत्र) यह श्रेष्ठ व्यक्तित्व के लिये अत्यंत अनिवार्य ऐसे विषय है। इन के सुयोग्य विकास के आधार पर ही एक प्रभावी और श्रेष्ठ व्यक्तित्व की नींव रखी जा सकती है। किन्तु वर्तमान योग शिक्षण में यम और नियमों की उपेक्षा ही होती दिखाई देती है। इन्हे आवश्यक महत्व नहीं दिया जाता। यम, नियमों का आधार बनाए बिना योग में आगे बढने का अर्थ है सदाचार की मानसिकता बनाए बगैर व्यक्तित्व (अधूरे या संभवतः विकृत भी) का विकास। यम, नियमों की उपेक्षा करने से, अहंकार से भरे योगिराज चांगदेव बन सकते हैं। यम, नियमों की सहायता से मनुष्य सदाचारी बनता है। ज्ञानेश्वर बन सकता है। सदाचार की मानसिकता से उस का शारिरिक और मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है। आसन और प्राणायाम की सहायता से श्रेष्ठ शारिरिक और मानसिक क्षमताएं विकसित होती है। और प्रत्याहार के माध्यम से मन संयमी, एकाग्र और नियंत्रित होता है।
यम नियमों की शिक्षा तो गर्भधारणा से ही आरम्भ होनी चाहिए। गर्भ धारणा से आगे जितनी अधिक देरी होगी उतनी बालक के द्वारा यम नियमों के ग्रहण करने में कठिनाई बढती जाएगी। यम नियमों की शिक्षा यह तो प्रमुखत: कुटुम्ब शिक्षा का अनिवार्य हिस्सा है। इसी प्रकार से बड़ी आयु में आसन ठीक से लग सकें इस हेतु आवश्यक शारीरिक लचीलेपन को बनाए रखने के प्रयास भी छोटी आयु में ही करने होते हैं। बढ़ी आयु में आसन प्राणायाम जैसी अन्य बातें संभवतः सिखाई जा सकती होंगी, लेकिन यम नियम नहीं सिखाए जा सकते।
References
अन्य स्रोत: